मैंने एक मंदिर बनवाया है,
जिसकी हृदय वेदिका पर तुम्हें बिठाया है।
जब भी किसी क्षेत्र पर यह भक्त जाता है,
जाकर अपना शीश झुकाता है।
तब उसके हृदय में गुरु का
और गुरु के हृदय में विराजित
प्रभु का भी दर्शन हो जाता है।
सच गुरुदेव, आप ही मुक्तिधाम हैं।
अतएव श्रद्धा से आपको प्रणाम है।
“महामंत्र के पद में तुम हो, हृदयालय के देव तुम्हीं।
तीर्थ सिद्ध अतिशय क्षेत्रों में, दिखते हो गुरुदेव तुम्हीं।।
चारों धाम बसे गुरुवर में, कहीं नहीं अब जाना है।
महातीर्थ गुरुपद वंदन कर, मोक्ष धाम को पाना है।''