शिष्य जब अपराध करता है तो,
सजा का पात्र होता है।
निरपराध जीता है तो,
शिव सामाज्य का पात्र होता है।
अपराध करने में अपमान है,
सजा पाने में अपमान नहीं,
वास्तव में सजा सुधरने का साधन है।
बिगड़ने का नहीं,
जब गुरू शिष्य की सजा देते हैं,
तब वास्तव में शिष्य को गुणों से सजा देते हैं।
“गुरुवर इतने मृदु नहीं कि, शिष्य अति उद्दण्ड बने।
कठोर इतने कभी न हो कि, भय से काँपे शिष्य घने॥
निःस्वारथ वात्सल्य बहाकर, दोष हरण जो करते हैं।
परम कृपालु विद्या गुरु के चरणों में हम नमते हैं।''