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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. जैसा कि आप सभी को विदित ही है, अतिशय क्षेत्र श्री पपौरा जी जिला टीकमगढ़ में पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के आशीर्वाद से सहस्त्रकूट जिनालय एवम प्रतिभा स्थली का निर्माण किया जा रहा है। इस हेतु दिनांक 29 अप्रैल को प्रातः 7 से 9:30 बजे तक शिलान्यास कार्यक्रम बहुत ही उत्साह एवम भक्तिमय रूप में सम्पन्न होगा। प्रतिष्ठाचार्य ब्र श्री सुनील भैया जी इंदौर समस्त मांगलिक क्रियाएं सम्पन्न करेंगे। प्रवन्धकारिणी समिति द्वारा देश भर के साधर्मीजन को शिला रखने एवम कार्यक्रम में उपस्थित रहने हेतु आमन्त्रित किया जा रहा है। अतिथियों हेतु आवास, भोजन की व्यवस्था भी की जा रही है। अतः सभी से अनुरोध कि इस विशाल कार्यक्रम में अधिक से अधिक संख्या में साधर्मीजन अतिशय क्षेत्र श्री पपौरा जी पहुचें।
  2. ‘वे प्रवाह में चले और गज़ब चले। हम उस समय आए थे जब वे उपसंहार पर थे। उस उपसंहार में भी उन्होंने हमें उपहार दे दिया। ऐसा उपहार, जो जीवन में किसी को नहीं मिला होगा।’ आचार्य श्री विद्यासागरजी के मुख से नि:सृत कुछ ऐसे उद्गार इस पाठ की विषय वस्तु के रूप में प्रस्तुत किए जा रहे हैं। हमारा सौभाग्य रहा कि कुछ क्षणों के लिए या यूँ कह दो कि कुछ दिनों के लिए आचार्य गुरुवर ज्ञानसागरजी महाराज का सान्निध्य हमें मिला था। चूंकि शरीर का संयोग ही दुनिया में सान्निध्य का रूप धारण करता है, अतः शरीर के वियोग में प्रायः लोगों की धारणा यह होती है कि सान्निध्य छूट गया। पर मैं समझता हूँ या इस विषय में ठीक इससे विपरीत सोचता हूँ कि शरीर में स्थित आत्मा का एक बार समागम मिल गया, अब सान्निध्य छूटना कैसा? गुरु को बाँधा नहीं जा सकता। गुरु को मैं बता नहीं सकता, दिखा नहीं सकता। गुरु को मैं लिख नहीं सकता, पर लख सकता हूँ। मौन अनुभव कर सकता हूँ। जिस प्रकार नदी-प्रवाह को बाँधा नहीं जा सकता है, वह अपना प्रवाह छोड़ती नहीं, आगे बढ़ती ही जाती है। उसी प्रकार गुरु का प्रवाह भी छलाँग लेने वाला होता है, रुकता नहीं है। गुरुजी के बारे में सुनाना औपचारिकता जैसी लगती है। गुरुजी के बारे में कहना है तो उसका कोई अंत है ही नहीं, वह अनंत को कहना है। उनकी विराटता का अनुभव तो हो सकता है, किन्तु कहा नहीं जा सकता है। इन शब्दों के द्वारा हम उन महान् व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति करें, यह हमें समझ में नहीं आता। उनके विषय में स्तुति, मैं कैसे कर सकता हूँ? लेकिन प्रसंग चल पड़ा तो मैंने कह दिया। उपसंहार में दिया उपहार - आचार्य गुरुवर ने हमें अपने जीवन के उपसंहार में उपदेश, सदुपदेश, निर्देश, आदेश का जो उपहार दिया है, वह हम भूल नहीं सकते। चुकाने की तो कूवत नहीं है। मानव जीवन के उद्देश्य को पूर्ण करना, ऐसा उन्होंने कहा था। मैं वही करने में लगा हूँ। गुरु ने यह नहीं कहा कि मुझे मत भूलो, वरन् गुरु ने यह कहा कि मैंने जो संकेत दिये हैं, उसे मत भूलो। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज के जाने के उपरान्त हमें बहुत विकल्प होते थे। सोचता था कि हमारा क्या होगा? कैसे होगा?’ “अरे स्वार्थी मन! तू ये तो सोच रहा है, हमारा क्या होगा?’ अरे भाई! ये भी सोच लेना चाहिए कि प्रति समय उन्होंने तुम्हारे ऊपर कितना बड़ा उपकार किया है। अतः उनको जल्दी-जल्दी सद्गति हो। उनकी यात्रा पूर्ण हो, यह भी विचार करना चाहिये। उनसे हमें इतना साहस मिला है कि अब डरने की बात ही नहीं है। आदि रहित एवं अंत रहित महान् समुद्र होते हुए भी, तैरने वाला व्यक्ति कभी भी डरता नहीं है। ऐसा ‘जहाज’ हमें प्राप्त हो गया। ऐसी ‘दिव्य दृष्टि’ हमें प्राप्त हो गयी। ऐसा ‘पथ’ हमें प्राप्त हो गया। अब मंजिल की चिंता नहीं। अब यही पुरुषार्थ करना है कि वह मंजिल तक पहुँचाने वाली घड़ी जल्दी-जल्दी आ जाए। वह घड़ी आनी अवश्य है, क्योंकि परिणाम हमारे भीतर हो रहा है। घड़ी अवश्य आएगी। घड़ी जो आप लोगों ने हाथों में बाँधी हुई है, वह रुक सकती है, लेकिन यह परिणमन कभी भी रुक नहीं सकता। याद तो तब आता है जब उसे भूला जाता है। जब भूला ही नहीं तो याद करने का क्या सवाल? पुण्यतिथि काल के पृष्ठ पर लिखी नहीं जाती। वह पल हमेशा-हमेशा हम पढ़ते हैं और स्मृति पटल पर लिखा जाता है। कदम से कदम चलाया - जिन्होंने हमारे ऊपर उपकार किया है, उनके स्मरण मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। उन्होंने हमें हाथ से नहीं, बल्कि स्वयं चलकर, चलने का शिक्षण-प्रशिक्षण दिया है। दादा जी को अपना विशाल कदम नाती के पीछे (कारण) छोटा करना पड़ता है। वे अपने कदम को इसलिए छोटा कर देते हैं कि नाती भी उनके साथ हो जाए। अब सोचो गुरुजी ने भी अपनी चाल को परिवर्तित करके, हम जैसे छोटे को अपने साथ चलाया। जिन्होंने हमें जागृत किया, उन्हें हम याद रखें, नहीं तो बच नहीं पाएँगे। ज्यादा हम कुछ नहीं कह पाएँगे। वह अग्रचर, हम अनुचर - गुरुजी आगे हैं और शिष्य पीछे हैं, बीच में तीसरा व्यक्ति नहीं है। रास्तों की जरूरत नहीं, हमें पदचिह्न उपलब्ध हो गये। अन्तर कोई नहीं है, शिष्य पीछे - गुरु आगे। आचरण ही चरण की महत्त्वपूर्ण पहचान है। चरण उनके, आचरण उनके साथ है। चरण उनके हैं, तो 'आ' उपसर्ग लगा कर आचरण हमारा है। कब तक चलना है? धीरे-धीरे, जब तक चरण दिखते जा रहे हैं, तब तक चलते जाओ। कहाँ गए वो? अरे! वो मालूम पड़ जायेगा। बस पीछे लग जाओ। अन्य किसी के पिछलग्गू न बनो। जो आचरण, उनका संकेत, पदचिह्नों के द्वारा हमें मिला है, वो ही हमारा कर्तव्य होता है। चौबीस तीर्थंकरों के बीच में अंतराल हुण्डाऽवसर्पिणी काल की अपेक्षा हो गया है, पर हमारा अनुभव या चिन्तन है कि चाहे पंचम काल आए या चाहे चतुर्थ काल आए, चाहे सतयुग या कलयुग आ जाए, गुरु और शिष्य के बीच में काल के अन्तराल का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। हम अनुचर हैं और वे अग्रचर हैं, बस इतना ही अंतर है। आँखें खुली हों या बंद हों, उनकी स्मृति बनी ही रहती है। उसको अपने मन मंदिर में या हृदय सिंहासन के ऊपर बैठा लो। और ऐसे बैठा लो कि ये सिंहासन हिले नहीं। यही एक मात्र भक्ति, स्तुति, पूजा व भजन है। और तो और यही मात्र भोजन है। अब ऐसा जीवन बनाओ कि 'जिन' बनने में कोई देर ही नहीं लगेगी। मेरी यात्रा पूर्ण हो - एक यात्री अपनी यात्रा प्रारम्भ करता है, उसे साथी की आवश्यकता होती है। तब उसे एक महान् यात्री का अल्प समय का साथ मिलता है, और पथ के पाथेय का लाभ भी। वह महान् यात्री एक दिन अपनी यात्रा पूर्ण कर चला जाता है। मैं वही प्रारम्भ का एक यात्री हूँ। मुझे उन महान् यात्री से पथ मिला, पद मिला और पाथेय भी मिला है। मैं चाहता हूँ जिस प्रकार उस यात्री ने अपनी यात्रा सफलतापूर्वक पूर्ण कर ली, उन्हीं के अनुरूप मुझे भी सफलता प्राप्त हो। उनका ज्ञान मेरे सामने है। मैं कुछ भी नहीं हूँ। सब कुछ वह हैं। बस, अब मैं इसी प्रतीक्षा में हूँ कि कदम लड़खड़ाएँ नहीं और यात्रा सानंद सम्पन्न हो। महान् यात्री आचार्य श्री ज्ञानसागरजी, मेरे जीवन के उन्नायक और सफ़र के नायक हैं। मैं आपका गुणगान करता हूँ- आगे की यात्रा में साथ के लिए। मुझे भी परमात्मा मिले। हम चल नहीं रहे। गुरुदेव का हाथ मस्तक पर है। वे हमें चला रहे हैं। यात्रा कहाँ तक हुई, मुझे यह देखने की आवश्यकता नहीं। सामने का स्तंभरूप आचार्य श्री ज्ञानसागरजी का चित्र, बस हमें ज्ञात रहे। यात्रा करते-करते कितना समय हुआ, ज्ञात नहीं? लेकिन चलना है, अरुक, अथक उनका यह कथन था, रुकना नहीं - थकना नहीं। थकान आ सकती है, लेकिन मंजिल देखने से थकावट गायब हो सकती है, क्योंकि अंधकार फैलने से पूर्व उजाले में यात्रा पूरी करनी है। मनोयोग से गुरुजी के वचनों को आपके सामने रखा। शिरोधार्य हो गुरु पद रज सो नीरज बनूँ।
  3. ग्रीष्मकाल की भीषण गर्मी, ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या (जून) का महीना नसीराबाद (अजमेर, राजस्थान) की भूमि पर आत्मस्थ साधक आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज की समाधि, समाधि निर्यापकाचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज द्वारा सम्पन्न हुई थी। उन्हीं से सम्बन्धित कुछ प्रसंग, जो समय-समय पर आचार्य विद्यासागरजी के श्रीमुख से प्राप्त हुए हैं, उन्हें इस पाठ का विषय बनाया गया है - कभी-कभी भावों की अभिव्यक्ति शब्दों के द्वारा अल्प समय में करना हो तो कठिनाई मालूम पड़ती है। कोई व्यक्ति एक बार चित्र देख लेता है तो उसे जब दुबारा वही चित्र दिखाते हैं, तब उसे देखने की इच्छा नहीं होती है। अच्छी से अच्छी बातें स्मरण में आ जाएँ तो भी उसके प्रति आकर्षण नहीं रहता। किन्तु जिनके संपर्क में उस रहस्यमय आत्मतत्त्व का चिंतन-मनन हम करते रहते हैं, उस व्यक्ति के संपर्क के लिए मन बार-बार लालायित होता है। अन्य सभी स्मृतियों को विस्मरण के रूप में परिवर्तित करके उस घटित घटना को बार-बार मन में स्मरण करने से वह स्वाद पुनःजीवित जैसा हो जाता है। दीर्घ काल कितना व्यतीत हो गया है, फिर भी ऐसा नहीं लगता। किसी ने कहा ३७ वर्ष हो गए। यह तो उनकी काया के लिए हुए हैं। वो तो अभी भी अपने मन में, उपयोग में बैठे हुये हैं। इसलिए वियोग की बात ही नहीं। संसारी प्राणी शरीर के संपर्क को ही संपर्क मान लेता है। गुरुजी का वह संपर्क एक अमिट संपर्क है। वह घनीभूत होता है, और-और सघन होता चला जाता है। जब तादात्म्य में संबंध होता है, तो ऐसी स्थिति में शरीर और वचन भले ही लुप्त हो जाएँ, पर वह गुप्त रहस्य कभी लुप्त नहीं होता। यह ३७ वर्ष का दीर्घकाल पूर्ण हो गया वह ३७ दिन जैसे प्रतीत होता है। जिनका समग्र जीवन विद्या अध्ययन और अध्यापन में व्यतीत हुआ, उनके चरणों में जो कोई भी चला जाता वह अपना स्वरूप समझकर, पहचानकर निकलता है। उनमें से मैं अंतिम था। इसके बाद अध्यापन समाप्त करके वह संन्यास में लीन हो गए। सल्लेखना काल - चार वर्षों से वर्षा न के बराबर (अल्प वर्षा) हुई। उन्हीं दिनों ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्या, १ जून, १९७३ को नसीराबाद, राजस्थान में उनकी सल्लेखना हुई। ग्रीष्मकाल में, जिसे सल्लेखना हेतु जघन्यकाल कहा जाता है, दीवारें प्रातः ८ बजे ऐसी लगतीं मानों सिगड़ी के पास रखी गई हों। दीवारों से टिककर नहीं बैठ सकते थे। प्रभु से प्रार्थना करता था, गुरुजी की सल्लेखना होना निश्चित है, टल नहीं सकती? बिना बोले लिया सल्लेखना का संकल्प - यदि यह प्रश्न करें कि मृत्यु किस प्रकार हो? तो ये हमारे पूज्य गुरुदेव से अच्छी तरह सीखें। जघन्य संहनन के द्वारा भी, अजघन्य साधना की है उन्होंने। उनका शरीर कोमल, वृद्धावस्था, हड्डीहड्डी दिखाई देती। पूरे शरीर में झुर्रियाँ आ चुकी थीं। पेट और पीठ की मैत्री हो चुकी थी। शरीर पूरा अस्थिपंजर के समान था। लेकिन वे ऐसे लग रहे थे जैसे ‘ऋद्धिधारी’ महामुनिराज साक्षात् विराजमान हों। गुरु महाराज ने सल्लेखना का संकल्प बिना बोले लिया। जो कुछ भी बाहर से करना है, वह हो चुका है। अब जो कुछ है, वह भीतरी है। भीतर देखना आवश्यक है, बाहर देखना गलत है। समयसार को याद रखने वाली मूर्ति (गुरु महाराज) सार को याद रखती है। बुद्धिपूर्वक किया त्याग - आचार्य महाराज ने आहार-पानी का त्याग बुद्धिपूर्वक किया था। वो कहते थे कि शरीर काम नहीं कर रहा है, तो क्यों वेतन दिया जाये? संसारी प्राणी चाहता है कुछ और जी लें, पर आचार्य महाराज ने शरीर को वेतन नहीं दिया। मुझे बहुत विकल्प था कि ऐसी भीषण गर्मी में कैसे सल्लेखना होगी? लेकिन सब देखते रह गये। आयुकर्म अपनी गति से चलता है। वे इतनी भीषण गर्मी में आहार के लिये निकलते। आहार में मात्र पेय (पीने के योग्य पदार्थ) लेते थे। उनको एक माह पूर्व से ही सब कुछ लेना बंद हो गया था। जो भी दिया जाता दीये में तेल की तरह। उन्होंने अपने शरीर को नियंत्रण में रखा था। उनसे कुछ लिया नहीं जाता था। हाथ में आने के बाद ही तो लेंगे, पर कलाई मुड़ती ही नहीं थी। हाथ में लेने के बाद एवं मुख में लेने से पूर्व बहुत-सा आहार गिर जाता था। हम भावना भाते कुछ पेय (पीने के योग्य पदार्थ) अंदर पहुँच जाए। वे उठ जायें तो बैठने की हिम्मत नहीं। इतने पर भी वाणी खिर जाती, तो अमृत की झड़ी लग जाती। कवि तो वे थे ही। उनको तो जिनवाणी की सेवा का प्रतिफल मिल चुका था। इतनी भीषण गर्मी में भी उनके भीतर की जागृति बलवती होती गई। पढ़ा हुआ, जो भी सारभूत था, उसको जीवन में उतारना उनका लक्ष्य था। सल्लेखना काल में आराधना - ‘उनकी तो प्रायः दिन-रात आराधना चलती थी। जो कुछ उन्होंने मुझे पढ़ाया था, वही सुना देता था। जो गलती रहती थी तो वह बता देते थे। इतने सावधान थे वह।' उन्होंने यह कहा था कि ‘भगवती आराधना' वगैरह पढ़ लो, तब हम उसी को पढ़कर सुना देते थे। धन्य हैं ऐसे आचार्य महाराज जिनकी साधना ही सल्लेखना के रूप में थी। नसीराबाद में लगभग २५ नवम्बर, १९७२ से २५ मई, १९७३ (ई.सन्) तक निर्यापकाचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज मध्याह्न काल में ‘भगवती आराधना' ग्रंथ का स्वाध्याय करते थे, जिसको क्षपक श्री ज्ञानसागरजी महाराज ससंघ सुनते थे। और प्रतिदिन सायंकालीन सामायिक के पश्चात् श्रावक श्री गम्भीरमलजी सेठी कविवर सर्वश्री बनारसीदासजी, दौलतरामजी, द्यानतरायजी, भूधरदासजी, महाचंदजी, भागचंदजी, जिनेश्वरदासजी आदि अनेक आध्यात्मिक कवियों, विद्वानों द्वारा रचित आध्यात्मिक, सैद्धान्तिक एवं वैराग्यवर्धक भजनों को सुमधुर ध्वनि में गाते थे, जिन्हें क्षपक श्री ज्ञानसागरजी महाराज एवं समस्त संघ एकाग्र-चित्त होकर सुनते थे। बनारसीदासजी के भजन की कुछ पंक्तियाँ, जो उन्हें अधिक पसंद थीं ‘चेतन उल्टी चाल चले, जड़ संगति सों जड़ता व्यापी, निज गुण सकल ढले, चेतन उल्टी चाल चले।।' आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज अधिकांशतः ये पंक्तियाँ बोलते रहते थे अर्हत सिंद्ध साधु पार को लगाओ, नाम लेऊँ तेरा पाप काट मेरा। आचार्य महाराज को यह भजन अत्यन्त प्रिय था- इतना तो कर लूँ स्वामी, जब प्राण तन से निकलें, होवे समाधि मेरी, जब प्राण तन से निकलें। सल्लेखना-साधना का क्रम - आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने २२ नवम्बर, १९७२, विक्रम संवत् २०२९ को नसीराबाद, अजमेर, राजस्थान में आचार्य पद त्याग के साथ ही आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज से सल्लेखना व्रत ग्रहण कर लिया था। समाधिस्थ होने के लगभग ६ माह, १० दिन पूर्व से ही अन्न का त्याग कर दिया था। २३ मार्च, १९७३, शुक्रवार के दिन मुनि ज्ञानसागरजी महाराज ने केशलोंच किये। निर्यापकाचार्य विद्यासागरजी ने उनका सहयोग किया। २० मई, १९७३ (११दिन पूर्व) से ही समस्त खाद्य पदार्थ का त्याग कर दिया था। २८ मई, १९७३ को जल का त्याग कर यम सल्लेखना ग्रहण की। १ जून, १९७३, शुक्रवार को चार दिन के निर्जल उपवास के साथ प्रातः १०:५० पर वह समाधिस्थ हो गये। अद्वितीय सजगता - हमने देखा कि अंतिम समय में ऐसी उत्कृष्ट जागृत अवस्था भी रह सकती है। उन्हें कोई तकलीफ/ पीड़ा वाली बात नहीं थी। कभी-कभी गाथाओं का पाठ करते समय एकाध अक्षर स्खलित हो गया या लय में स्खलन हो गया, तो एकदम उनकी अँगुली उठ जाती थी। इन सब बातों को देखकर ऐसा लगता था कि 'साधना के प्रति कितनी संकल्पपूर्वक निष्ठा थी उनकी।' शांति के साथ एक-एक पल राग-द्वेष के बिना व्यतीत हुआ। हर पदार्थ में, हर क्षण कर्म के उदय में कुछ गाथाओं से उन्हें समता बनी रहती थी। इसलिए अंतिम घड़ी तक उन्होंने अपने को प्रयोग की शाला में ही पाया। ऐसे परिणामों वाले पात्र के सम्बन्ध में 'न भूतो न भविष्यति' कभी कहा ही नहीं जा सकता। ऐसी साधना के लिए साधकों को हमेशा तैयार रहना चाहिए। संवेग-निर्वेग भाव हमेशा उनके पास बने रहते थे। कषाय उनके पास आने से घबराती थी। इस बीसवीं सदी में, अगर आचार्य श्री शांतिसागरजी के बाद क्रमबद्ध सल्लेखना किसी आचार्य की यदि हुई है तो वह आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज की हुई है। उनकी ऐसी सल्लेखना मानो बहुत से साधकों को सजग करने के लिए हुई थी। प्रबल अडिगता - बाहरी प्रकृति का प्रकोप अंतिम समय तक उन्हें डिगाने में समर्थ नहीं था। सावधानी पूर्वक साधना चलती रही। द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के अनुसार सभी कार्य होते चले जाते। गुरुजी की दृष्टि प्रतिकूलता में भी हमेशा अपने भावों की ओर ही रहती। वे सदैव याद रखते, ‘विपाकोऽनुभवः' (तत्त्वार्थसूत्र, ८/२१)- विपाक में फल देने की क्षमता होती है। उदय के बिना कर्मों का फल देना तीन काल में सम्भव नहीं। अंतिम शिक्षा - आचार्य महाराज यदि सल्लेखना न लेते, तो मुझे सल्लेखना से दीक्षित कैसे करते? लोग पूछते हैं- ‘आपने आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज को कैसे सँभाला?’ मैं सोचता हूँ, उन्होंने मुझे कैसे सँभाला?' उनमें सबको सँभालने की शक्ति थी और शैली भी थी। वे अंतिम क्षण तक प्रयोग के माध्यम से सल्लेखना के समय भी सब कुछ हमें सिखाते रहे। जो-जो आवश्यक है, आगम में जो कुछ लिखा है वह सब हमने उनमें पाया। उनका आत्मतत्त्व प्रौढ़ था। ‘उनकी अंतिम सीख, सल्लेखना भी देखकर मैंने सीख ली, जो अंत में हमें काम आएगी। उन्होंने कहा था निर्दोष सल्लेखना धारण करो। जो सल्लेखना पूर्वक मरण करता है, उसके कम से कम दो-तीन भव और अधिक से अधिक सात-आठ भव शेष रहते हैं। इसके बाद मुक्ति पक्की है। हमने प्रश्न किया कि कैसे करना है? उत्तर दिया कि जैसे किया जाता है, वैसे करना है।' उन्होंने ऐसा कहा और वे चले गए। अंतिम क्षण तक चेतनता - वे निश्चितरूप से अपने में थे। उनकी धीरता और मोक्षमार्ग के प्रति आस्था देखते ही बनती थी। अंतिम समय तक उनकी जागृति आज भी हमारे सामने दिखती है। इससे बढ़कर कोई भी ‘सल्लेखना नहीं हुई और न ही हो सकती थी। आंतरिक सल्लेखना और बाह्य सल्लेखना का अनुपम सम्मिलन था। समाधि होने के पंद्रह-बीस मिनट पहले अर्थात् बोली बन्द होने के पहले आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने उनके एक कान में सम्बोधन किया, और तबियत के बारे में पूछा तो मुनि श्री ज्ञानसागरजी ने कहा- ‘शरीर में वेदना है, और मैं उपयोग में सावधान हूँ। फिर दूसरे कान में मैंने (शान्तिलाल पाटनी, नसीराबाद वाले) कहा- ‘आप क्या स्मरण कर रहे हो?' तो मुनिश्री बोले ‘अर्हंत सिद्ध’, पंचपरमेष्ठी का नाम स्मरण कर रहा हूँ। मैंने कहा- यह पुद्गल की भाषा-वर्गणा है। इस प्रकार स्मरण करने से क्या होगा?' तब मुनि श्री ज्ञानसागरजी ने कहा- “पंचपरमेष्ठी का स्मरण करने वाला पंचपरमेष्ठी में गर्भित हो जावेगा।” यह विचार सुनकर मुझे (शान्तिलाल पाटनी, नसीराबाद वाले) एवं आचार्य श्री विद्यासागरजी को हँसी-सी आई कि इनका उपयोग कितना सावधान है! अंतिम क्षण - तीन दिन यूँ ही निकल गये बिना पानी, बिना कुछ भी लिए। उस समय उनके उपवास का चौथा दिन चल रहा था, लेकिन ऐसी तेजस्विता थी कि हम कह नहीं सकते। शरीर निस्पंद था, आत्मा जागृत थी। किन्तु श्रवण इन्द्रिय और चक्षु इन्द्रिय बहुत अच्छी थीं, पर वे अपनी आँखें बंद रखते थे। भागचंदजी सोनी, अजमेर से दर्शन हेतु आए। उन्होंने कहा- ‘गुरुदेव! आप थोड़े से दर्शन दे दो।’ उनका हाथ उठता नहीं था। हाथ-पैर की अँगुलियाँ शिथिल हो गईं थीं। कहा- ‘आँख खोल करके दे दो।’ बस उन्होंने दूर से देख लिया था प्रसन्नमुद्रा में। सेठजी के जाने के १० मिनट बाद ही उन्होंने प्राणों का त्याग कर दिया। प्रातः १० बजकर, ५० मिनट पर सब देखते ही रह गए। वे इन्द्रियों से युद्ध कर विजय को प्राप्त हुए, जिस प्रकार कि दीपक में तेल धीरे-धीरे करके जलता है। अंतिम समय में जो उपाधि थी उसे सहज रूप से दूसरे को सौंपकर, जो महान् सल्लेखना है, उसको उन्होंने प्राप्त कर लिया। सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के प्रति अपने आपको समर्पित करने वाला, उनके अनुरूप चलने वाला मुमुक्षु, आदर्श बनता है। उपसंहार सैनिकों की भाँति ‘ऑर्डर सो ऑर्डर’ यानी जब आदेश, तभी तैयार। इस नश्वर शरीर को कब त्याग करना पड़े, भरोसा नहीं। इसलिए हमेशा इससे ममत्व भाव कम करते जाना चाहिए। भोजन-पानी के माध्यम से इसे बलिष्ठ नहीं बनाना चाहिए, बल्कि कृश करते चले जाना चाहिए। फिर अंत में इस शरीर को छोड़ने में ज्यादा परेशानी नहीं आवेगी। यदि सल्लेखना विधिपूर्वक नहीं हो पाई, तो जीवन की साधना अधूरी मानी जाती है। दूध से दही, दही से नवनीत निकालना, नवनीत को तपाकर घी बनाना। यदि घी नहीं बना, तो समझना अधूरा कार्य हुआ है। श्रमणचर्या में यह प्रौढ़ साधना मानी जाती है। इस साधना के बिना सब कुछ अधूरा है। समाधि के क्षण उन्हें प्राप्त हुए। उस व्यक्तित्व को हम याद कर रहे हैं जिसका अमावस्या के दिन भौतिक शरीर का अभाव हुआ, लेकिन उनका अभाव या अवसान नहीं होता, जिन्होंने ‘सत्चित्-आनन्द’ को प्राप्त कर लिया है। उपाधियों को उतारकर, उन्होंने ये दूसरों को भी उपदेश दिया। एक साधक के लिए समाधि को हम अनिवार्य प्रश्नों के अंतर्गत रख सकते हैं, औपचारिक नहीं। अनिवार्य प्रश्न यदि हल नहीं किया, तो कुछ भी नहीं किया, नम्बर नहीं मिलेंगे। ‘गुरुदेव! अभी हमारी यात्रा पूरी नहीं हुई। आप स्वयं समय-समय पर आकर हमारा यात्रा पथ प्रशस्त करते रहें।’ ‘अभी स्वयं मोक्ष जाने के लिए जल्दी न करें, हमें भी साथ लेकर जाएँ'- ऐसे भाव मन में आते हैं। विश्वास है कि गुरुदेव हमेशा हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे। उनका जो भाव रहा, वह पूरा अपने जीवन में उतारने और उनकी भावना के अनुरूप आगे बढ़ने का प्रयास हम निरंतर करते रहेंगे। स्वयं मुक्ति के मार्ग पर चलकर हमें भी मुक्तिमार्गी बनाने वाले महान् गुरुदेव के चरणों में हम बारम्बार नमस्कार करते हैं। इस जीवन में और जीवन में आगे भी उन्हीं जैसी शांति, समाधि, विशालता, कृतज्ञता और सहकारिता हमारे अंदर आए और हम उनके बताए मार्ग का अनुसरण करते हुए धन्यता का अनुभव करते रहें। ऐसे श्री ज्ञानसागरजी महाराज के चरणों में बारंबार नमोऽस्तु करता हूँ। आज भले ही परोक्ष करता हूँ, लेकिन वे परोक्ष नहीं हैं। हमारे लिये तो वे हमेशा प्रत्यक्ष हैं। गुरु महाराज ने क्या नहीं दिया, हमने क्या लिया यह अनिवार्य है। सागर बहुत लम्बा-चौड़ा रहता है। हमारी प्यास बुझाने के लिए चुल्लुभर जल पर्याप्त हो जाता है। हमने कहाँ तक पानी पिया, ये समझने की बात है। बारबार सोचता हूँ, “मैं अब उन जैसा बनूँ। ये सोचता हूँ क्या मिला, क्या लिया, उसका उपयोग कहाँ तक किया?” आचार्य महाराज मुमुक्षु थे और हमारे लिए मोक्षमार्ग के प्रदर्शन हेतु नेता थे। आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी, आचार्य श्री अमृतचंद्र और आचार्य श्री जयसेन महाराज को स्मृति में लाते हुए आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज को इस काव्य के माध्यम से श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता हूँ। तरणि ज्ञानसागर गुरो, तारो मुझे ऋषीश। करुणा कर करुणा करो, कर से दो आशीष॥ अंत में ये ही भावना है कि ‘हे गुरुवर! आप जैसी सल्लेखना मेरी भी हो...।’ हमको ये यकीन है तेरे साथ चल रहे हैं तेरी कृपा से सत्गुरु अब भी तो पल रहे हैं बन कर के ज्ञान...चन्द्रमा देते प्रकाश हो, तुम तो यहीं कहीं सत्गुरु मेरे आस-पास हो आते नजर नहीं पर मेरे साथ-साथ हो। वे तो धन्य थे ही, हम अपने आपको भी धन्य समझते हैं कि उन्होंने अपने पास रखते हुए हमें ऐसी उत्कृष्ट सल्लेखना भी दिखा दी।
  4. जो कुछ भी गुरु की इच्छा है, उसके अतिरिक्त और मेरी इच्छा हो ही क्या सकती है? जो कुछ भी आप दिखाते हैं, मैं उसके सिवा क्या देखूँ? अगर आप वैसा रक्खें, वैसा हूँ और ऐसा रक्खें, ऐसा हूँ। जिस प्रकार आप मुझको रखना चाहते हैं, मैं वैसा ही हूँ। आप जिस ढंग में चाहे मुझे रंग दे। समर्पण की इन भावनाओं से पूरित होकर आचार्य श्री विद्यासागरजी ने समय-समय पर जिन भावों को अभिव्यक्त किया है, उनके उन भावों को मूलरूप में ही यहाँ इस पाठ का विषय बनाया गया है। आचार्य महाराज अपने जीवन काल में आचार्य भी थे, उपाध्याय भी थे और साधु भी थे। अरिहंत की पकड़, सिद्धों की पकड़ से तो वह कभी दूर होते ही नहीं थे। ‘ऐसे उनको हम किसी भी रूप में देखते हैं, स्मरण करते हैं तो पंच परमेष्ठी का स्मरण हो आता है। उनके स्मरण से हमारे सब काम हो जाते हैं। हमारा पुण्य था कि हमें अनेक ग्रन्थों के रचयिता आचार्य श्री ज्ञानसागरजी जैसे आचार्य मिले हैं। हमारा सौभाग्य था कि हमें विश्व में मंगल प्रदान करने वाले गुरुदेव मिले हैं। ऐसे इष्ट देवता को मैं नमस्कार करता हूँ। गुरुओं के जीवन में, स्मरण में यदि हम समर्पित होते हैं तो अवश्य ही हमारा जन्म पावन बनता है। आप लोग तिथि विशेष पर उन्हें याद करते हैं। मैं प्रभु से प्रार्थना करता हूँ आप उन्हें जीवन भर हमेशा-हमेशा याद करते रहें। गुरुजी की यही भावना थी तुम बागवानी करते जाओ, हम समय समय पर अवश्य वर्षा करेंगे, ताकि पेड़-पौधे, बेल-बूटे बढ़ते जाएँ। वो गए हैं, ये मैं नहीं स्वीकारता। वे यहीं हैं, मैं तो यही स्वीकारता हूँ। ये काम (संघ संचालन आदि) सभी उन्हीं का है। सोई हुई चेतना में जल का सिंचन समय पर और अनुपात से होता है, तभी पेड़-पौधे पल्लवित व पुष्पित होते हैं। ये बड़ों का ही काम है। ये संस्कार उन्हीं के माध्यम से चल रहा है। हमारी बात जितनी वो जानते हैं, उतनी हम नहीं। सब वो ही जानते हैं। सब कुछ वो ही हैं। हमारे विषय में जो हम जानते हैं, वो भी वो जानते हैं। जो हम नहीं जानते, वो भी वो ही जानते हैं। मैं क्या जानता। क्या-क्या न जानता सो गुरुजी जानें। गुरु के प्रति कृतज्ञता बात भी उनकी, हाथ भी उनका - हमने गुरुजी से पूछा और...आगे...हम क्या करेंगे? समझ में नहीं आ रहा है, तो उन्होंने कहा था- ‘संघ को गुरुकुल बनाना।' गुरुकुल बना देना कहा। बना देना अर्थ यही है कि उनका हाथ हमेशा-हमेशा बना रहेगा। हमें क्या बनाना...नईं समझे...हमें ऐसा कह दिया। इसका अर्थ है। घबड़ाओ नहीं... गुरुकुल बन जाएगा। वो अब हम देख रहे हैं...। तो यह पक्का है कि गुरुओं के मुख से जो शब्द निकलते हैं, वह सार्थक होते हैं। ‘संघ को गुरुकुल बनाना...' यह वाक्य हमेशा गूंजता रहता है। गुरु से भी और प्रभु से भी हम प्रार्थना करते हैं कि यह वाक्य हमारे कानों में गूंजता रहे और हम दूसरों के कानों में गुंजाते रहें। शेष जीवन इस प्रकार चलता रहे। आप लोगों ने भी संकल्प लिये हैं। गुरुजी को याद करो और उसके अनुसार ही आगे के प्रत्येक क्षण में इस बात को याद रखते हुए आगे बढ़ो। जो भूला-भटका कोई आता है...देखो! पुरुषार्थ करके आता है। आप नहीं जा रहे हैं, वह स्वयं पुरुषार्थ करके आता है। कोई भी आता है...गुरुकुल बना देना। हठात् नहीं, बाध्य करके नहीं, समझा करके दे दो। उसका भाग्य होता है तभी तो आता है। जो पुण्य अर्जन करके आए हैं...उन्हें बिना कहे तो हम व्रत देते नहीं। दो-दो, तीन-तीन बार कहने के उपरांत हम हाँ इसलिए नहीं कहते कि कोई विफल नहीं होना चाहिए। अच्छे नम्बर में आ जाए, और वो...ऊपर से देखते रहें कि काम ठीक हो रहा है या नहीं। लाइट सामने से नहीं दिखती, आज सेटेलाइट से काम हो रहा है...। नईं समझे...वो ऊपर से (सब देख रहे हैं...) कहाँ-कहाँ पर, क्या-क्या है? सबको वो भेज रहे हैं, ऐसा लग रहा है। नहीं है, तो हरियाणा से भी आ जाएँ, उत्तरप्रदेश से भी आ जाएँ। राजस्थान, महाराष्ट्र तथा कर्नाटक से आ जाएँ, मध्यप्रदेश से भी आ जाएँ मध्यप्रदेश तो मध्य में है ही...नईं समझे...सब नदियाँ आ रही हैं। इसका अर्थ क्या है? हम तो यहाँ हैं... इसका अर्थ यही है कि ऊपर जैसे कोई चुंबकीय तत्त्व रखा हुआ है, जिस कारण सब आते जा रहे हैं। नईं समझे...अपने-अपने को थोड़ा व्यवस्थित काम करना। जो ये कुछ, सब कुछ है, वह सब आपका प्रसाद है। और गलती जो कुछ भी है, वो सब हमारी ही है। सच्ची बात है ये। वो तो वैसे हो नहीं सकते। हम छोटे हैं, अल्प बुद्धि वाले हैं। इसलिए अभिमान नहीं करो और दीन-हीन नहीं हो जाओ, ऐसा उन्होंने ही बताया है। कर्ता नहीं, आदेश पालनकर्ता हूँ - गुरु के वचन बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। एक शब्द भी कह दें तो काम कर जाते हैं। समर्पित होकर बस उसी में खो जाना होता है। बस सब काम अपने आप हो जाता है। लेकिन पहले गुरु पर श्रद्धा होना चाहिए। कोई बिल्कुल पढ़ा-लिखा न हो, पर गुरु का वरदहस्त प्राप्त हो, तो सब कुछ अपने आप प्राप्त हो जाता है। मुझे तो ऐसे ही हुआ। सब कुछ गुरु के द्वारा ही मिला।' सल्लेखना के समय उन्होंने (गुरु ज्ञानसागरजी महाराज ने) दक्षिणा माँगी। मैं तैयार नहीं था, फिर भी करना पड़ा। कर्तव्य निभाया है, बाकी तो गुरु ने ही सब कुछ किया। मैंने कुछ नहीं किया। कर्तव्य निभाना बहुत सीधा-साधा होता है। गुरु ने कुछ भी नहीं कहा, सब होता गया। अभी भी गुरु ही कर रहे हैं। गुरुदेव ने कहा है- ‘जितना कहा है, उतना करना है। बनाता नहीं, परोसता हूँ - रसोई तैयार होती है तो रसोइया प्रातः छह बजे से बारह बजे तक रसोईघर के भीतर ही रहता है। परोसने वाले दो-तीन व्यक्तियों को रख दिया जाता है। वे परोसने का काम करते हैं, लेकिन जो बारह बजे तक बनाता रहा, उसकी ओर किसी की दृष्टि नहीं जाती। इसी प्रकार रसोइया तो गुरु महाराज ही हैं। उन्होंने सब कुछ तैयार करके मोक्षमार्ग की रसोई बनाकर उसे परोसने के लिए मेरे हाथों में सौंप दी। हमें परोसने का कार्य बस करना है। आप तो रसोइये को भूल जाते हैं और परोसने वाले को याद रखते हैं। आगे भी उन्हीं को सब कार्य करना है। हम तो परोसने वाले हैं। पथ भी उनका, पाथेय भी उनका - गंगा गंगोत्री से निकली। नीचे गिरती गई पर कहीं रुकी नहीं। जैसे-जैसे सहायक नदियाँ मिलती गईं, उसका प्रवाह बढ़ता गया। वैसे ही साधक जुड़ते गए मुझसे और मुझे बड़ा महासागर बना दिया। इसमें मेरा अपना कुछ नहीं है। आचार्य ज्ञानसागरजी के परोक्ष में जो वर्ष व्यतीत हुए हैं, वह सब उन्हीं का पथ है, पाथेय भी है और पद भी उन्हीं का है। हम तो अपने आप में कुछ भी नहीं हैं। गुरुदेव ही हमेशा पथप्रदर्शक बने रहे। गुरुवर की कृपा से अभी तक रुकना नहीं पड़ा, कोई दिक्कत भी नहीं आई। तार मैं, प्रवाह उनका - आचार्य महाराज ने हमें ऐसा करंट दिया कि हमारा अनादिकालीन अपसेट माइंड सेट हो गया। मुझे तो जो संकेत मिले हैं, सूत्र मिले हैं, उनकी साधना में लगा रहता हूँ । हमारी भावना तो हमारे गुरुदेव ही पूर्ण करेंगे। और हमारी भावना तो तभी पूर्ण हो चुकी, गुरुदेव ने जब मुझे स्वीकारा था, आशीर्वाद दिया था। बस...आप जो मिल गए। इस प्रकार विश्वास रूपी करंट उनसे जुड़ गया जो आज तक बंद नहीं हुआ। उसमें कोई कटौती भी नहीं। वह कभी गोल-गाल भी नहीं होता, न समाप्त होता है। ये रेंज ऐसी है कि इसका कोई ओर-छोर नहीं है। सब गुरु का प्रसाद है। वे सूत्रधार, हम पात्र - कब, कैसा, क्या, क्यों, कितना, करना कि नहीं करना - इस सबको बहुत अल्प, स्वल्प, तल्प से कोई विकल्प नहीं। गुरुदेव का हाथ ही पर्याप्त है। भाव पकड़ कर चलो। गुरुदेव सब कुछ संचालित कर रहे हैं। यहीं बैठकर सब कुछ उन्हीं का है। सूत्रधार पर्दे के भीतर रहता है, सामने अभिनय चलता है। पर्दे के पीछे से सूत्रधार की आवाज आती है। हम तो केवल बाहर से पात्रता को निभा रहे हैं। सूत्रधार हमेशा-हमेशा परोक्ष में रहकर सूत्र, प्रशिक्षण, प्रोत्साहन देते रहते हैं। इसी तरह अंदर से वह (गुरुजी) सब कुछ करा रहे हैं। मात्र पात्र (हमारी) की आवाज आप लोगों को आती रहती है। गुरुदेव की यह भावना थी कि कोई भी संयम की भावना से वंचित नहीं रहे। संकेत देना हमारा कार्य है। संकेत को सुनकर अमल में लेना पात्र का कार्य है। सब कुछ उन्हीं का - प्रभु से, गुरु से प्रार्थना है कि दिन दूनी-रात दस गुणी गुरु की भावना फलीभूत हो। वह मंत्र-तंत्र-यंत्र सब कुछ उन्हीं का है। हम तो मात्र माध्यम हैं। हमारी तो उन्हीं की एजेन्सी चल रही है। उनके चरणों में हमारे लिये बस स्थान मिलता रहे, यही भावना है। प्रत्यक्ष मिलेंगे तब और माँगेंगे। जितना मिला उसका उपयोग/प्रयोग करते जाइए, तभी आनन्द आएगा। उनके हम ऋणी हैं - जो एगं जाणदि, सो सव्वं जाणदि' अर्थात् जो एक को यानी आत्मा को जान लेता है, वह सारे जगत् को जान लेता है। धन्य हैं ऐसे गुरु, जिन्होंने हम जैसे रागी, द्वेषी, मोही, अज्ञानी और नादान के लिए भगवान् बनने का रास्ता प्रशस्त किया। आज कोई भी पिता अपने लड़के के लिए कुछ दे देता है, तो बदले में कुछ चाहता भी है। लेकिन गुरु की गरिमा देखो कि तीन लोक की निधि दे दी, और बदले में किसी चीज की आशा भी नहीं की। उनके हम ऋणी हैं। पूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज का उपकार मेरे ऊपर आचार्य कुन्दकुन्द देव के ही समान है। आचार्य महाराज के आशीर्वाद से, उन्हीं की साक्षात् प्रेरणा से, आज मैं आचार्य कुन्दकुन्द देव से साक्षात् बात कर पा रहा हूँ। पूज्य श्री अमृतचंद्रसूरि की आत्मख्याति जैसे जटिलतम साहित्य को देखने-समझने की क्षमता पा सका हूँ तो श्री जयसेन आचार्य महाराज के छिले हुए केले के समान सरलतम व्याख्यान के माध्यम से अध्यात्मरूपी भूख मिटा रहा हूँ और आत्मानुभूति को प्राप्त करने के लिए प्रयासरत रहता हूँ। किन्तु बड़े दुःख की बात है कि आप लोग अभी तक भूखे ही बैठे हुए हैं। उसे चख नहीं पाए। आत्मानुभूति शब्दों में कहने की वस्तु नहीं है, वह तो मात्र संवेदनीय है। गुरु से याचना दीप नहीं, द्वीप चाहिए - हे भगवन्! हे दीप स्तम्भ! आपसे मुझे अब दीप नहीं, द्वीप चाहिए, जिस पर मैं ठहर सकूँ। भवसागर में आते-आते, गोते खाते-खाते, तैरते-तैरते हाथ भर आए हैं। अब हाथों में, पैरों में बल नहीं रहा। शिथिलता आ गई है। “आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज से मैं दीप नहीं चाहता, द्वीप चाहता हूँ,” अब हमें केवल द्वीप चाहिए यानी विराम चाहिए। जैसे उन्होंने किनारा पाया, उसी प्रकार हमें भी किनारा मिल जाए। हमें भी वह समाधि में लीन होने का सौभाग्य प्राप्त हो जाए। हमें पर नहीं, स्व चाहिए। स्व में जो लीन हो जाता है, पर के लिए वह आदर्श बन जाता है। स्व-पर कल्याणी दृष्टि चाहिए। ज्ञानसागरो जलधौ द्वीपः, स्वर्गमोक्षयोः पद्धतिदीपः..॥७॥ धीवरोदय, चम्पूकाव्य गुरुवर आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज द्वीप के समान हैं तथा स्वर्ग और मोक्षमार्ग की पद्धति में दीपक की तरह प्रकाशित हैं.... अपूर्ण जीवन पूर्ण बने - मरुभूमि के समान जीवन को भी हरा-भरा बनाने का श्रेय गुरुदेव को ही है। आप लोगों का गुरुदेव के समाधि दिवस पर गुरु की महिमा सुनते-सुनते मन भर आया है। कैसे कहूँ? अथाह सागर की थाह कौन पा सकता है। हम उनके कदमों पर चलते जाएँ, उनके सच्चे प्रतिनिधि बनें और उनकी निधि को देख-देख कर उनकी सन्निधि का अहसास करते रहें। यह अपूर्ण जीवन उनकी स्मृति से पूर्ण हो जाए। उनका योग हमेशा मिलता रहे - अपने सुख को गौण करके, अपने दुःख की परवाह न करते हुए दूसरों के दुःख को दूर करने में, दूसरों में सुख-शांति की प्रस्थापना करने में जिन्होंने अपने जीवन को समर्पित कर दिया, ऐसे महान् कर्तव्यनिष्ठ और ज्ञाननिष्ठ व्यक्तित्व के धारी गुरुदेव का योग हमें हमेशा मिलता रहे। प्रतिदिन आज्ञा में चलें - ऐसे उन गुरु महाराज के प्रति गुणगान गाएँ और एक दिन भी उनकी आज्ञा में न चलें, तो ठीक नहीं। किन्तु हम ३६४ दिन आज्ञा में चलें और एक दिन गुणगान गाएँ, तो ठीक है। हमें पार लगाएँ - गुरुदेव हमारे हृदय में रहकर हमें हमेशा उज्ज्वल बनाते जाएँगे। यही उनका आशीर्वाद हमारे साथ है। हम यही प्रार्थना करते हैं, भावना भाते हैं कि हे भगवन्! उस पवित्र पारसमणि के समान गुरुदेव का सान्निध्य हमारे जीवन को उज्ज्वल बनाए। कल्याणमय बनाए। उसमें निखार लाए। अभी हम मझधार में हैं, हमें पार लगाए। एकत्व-विभक्त आत्मा बनूँ - हम तो विनती करना जानते हैं। गिनती करना नहीं जानते। गुरुदेव साइटिका (Saitica) रोग से पीड़ित थे, मगर आत्मा के प्रति आस्था प्रबल थी। वे चले गए। अब हमें उस क्षण की तलाश है जब हम एकत्व-विभक्त आत्मा हों। बस हमें अकेला बनना है। पल-पल याद करूँ - बत्तीस वर्ष बहुत बड़ा काल है। समझ में नहीं आता। इतना समय (काल) निकल गया। लगभग तीन दशक से भी अधिक हो गए, परन्तु उनके दिए सूत्र से ऐसा नहीं लगता कि इतना काल बीत गया। पर ये सैंतीस वर्ष अब सैंतीस दिन जैसे लगते हैं। अध्यात्म के साथ गुरु कृपा ही महान् मानी जाती है। आचार्य गुरुदेव को बार-बार प्रणाम। ऐसे महान् आचार्य को एक-एक पल याद करूँ, देखता रहूँ। आगे भी देखूँ। सदा गुरु सामीप्य रहे - मेरी भावना है कि मैं जो कुछ भी बनूँ, वह गुरु चरणों में चढ़े और वहीं जम जाऊँ। इसी भावना से एक दोहा लिखा था पंक नहीं पंकज बनूँ, मुक्ता बनूँ न सीप। दीप बनूँ जलता रहूँ, गुरु पद पद्म समीप॥ सर्वोदय शतक,६ समाधि सम्पन्न हो - शेष कार्य समाधि का जो बचा, आपके परोक्ष आदेश से सम्पन्न हो। उपसंहार ऐसी समयसार की अनुभूति करने वाले गुरुदेव के विषय में अधिक कुछ कहना नहीं है। केवल यही कहना है कि आपने इस नादान शिशु पर जो उपकार किया, वह केवल अनुभवगम्य है। उसको शब्दों में प्रकट करने में मैं असमर्थ हूँ। “आपका यह उपकार हमें तब तक याद रहेगा, जब तक मुक्ति की प्राप्ति न हो जाए।” तब तक हमें याद भर रहे, यही मैं प्रभु से प्रार्थना करता हूँ, क्योंकि इस संसारी प्राणी की, मोह की चपेट में आने से भूलने की आदत है। इसलिए यही एक बड़ा उपकार आपका हो कि स्मृति पटल आपकी याद के लिए सदा स्वच्छ बना रहे। इस दुनिया में दो बातें श्रेष्ठ हैं - एक गुरु और दूसरे प्रभु। गुरु हमारे लिए अदृश्य प्रभु तक पहुँचाने के लिए मार्ग दर्शाते हैं। गुरु के द्वारा दिए हुए सूत्र मन्त्र हैं। ये शास्त्र से भी ज्यादा आनन्द देने वाले हैं एवं छोटे रास्ते से मंजिल दिलाने वाले हैं। मुझे गुरु के वचन शास्त्र से भी ज्यादा याद आते हैं। ‘आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने मेरे ऊपर इतना उपकार किया जिसे मैं सिद्ध बनने के उपरांत भी नहीं भूल पाऊँगा।'
  5. 'एक साधक ने अपने लक्ष्य के अनुकूल पुरुषार्थ कर प्राप्त की कालजयी सफलता।' उन महान् साधक की साधना से जुड़े विस्मयकारी प्रसंगों को, जिनसे जिनशासन हुआ गौरवान्वित, उन प्रसंगों को ही इस पाठ का विषय बनाया जा रहा है। गुरुवाणी के साथ-साथ विषय की पूर्णता हेतु अन्य स्रोतों से भी विषय वस्तु को ग्रहण किया गया है। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज का सन् १९७२ में नसीराबाद में चातुर्मास चल रहा था। चातुर्मास के पूर्व जब वह अजमेर में विराजमान थे, तभी से उनका स्वास्थ्य गिरने लगा था। चातुर्मास समाप्ति की ओर था। आचार्य महाराज शारीरिक रूप से काफी अस्वस्थ एवं क्षीण हो चुके थे। साइटिका का दर्द कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। दर्द की भयंकर पीड़ा के कारण आचार्य महाराज चलने-फिरने में असमर्थ होते जा रहे थे। आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज का विस्मयकारी निर्णय - ऐसी शारीरिक प्रतिकूलता की स्थिति में ज्ञानमूर्ति आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने सल्लेखना व्रत ग्रहण करने का निर्णय लिया। समाधि हेतु आचार्य पद का परित्याग तथा किसी अन्य आचार्य के सान्निध्य में जाने का आगम में विधान है। आचार्य महाराज के लिए इस भयंकर शारीरिक पीड़ा की स्थिति में किसी अन्य आचार्य के पास जाकर समाधि लेना भी संभव नहीं था। अतः उन्होंने स्वयं आचार्य पद का त्याग करके अपने सुयोग्य शिष्य मुनि श्री विद्यासागरजी महाराज को आचार्य पद पर आसीन करने का मानस बनाया। चातुर्मास निष्ठापन के दूसरे ही दिन आचार्य ज्ञानसागरजी ने संघ के समक्ष अपनी इस भावना को रखा। यह बात सुनकर संघ में सभी लोग सन्तुष्ट थे, सिर्फ मुनि श्री विद्यासागरजी को छोड़कर। मुनि श्री विद्यासागरजी की अस्वीकृति - जब आचार्य महाराज ने मुनि विद्यासागरजी से आचार्य पद ग्रहण करने हेतु कहा, तब मुनिश्री बोले “गुरुदेव! आप मुझे मुनि पद में ही साधना करने देंगे तो मुझ पर आपकी महती कृपा होगी| मुनि श्री विवेकसागरजी महाराज को आचार्य पद देंगे तो अच्छा होगा (उस समय विवेकसागरजी महाराज वहाँ पर नहीं थे, उनका चातुर्मास कुचामन सिटी में था) अथवा क्षुल्लक श्री विनयसागरजी महाराज को मुनि दीक्षा देकर उन्हें आचार्यपद दे दीजिए। पद त्याग नहीं तो समाधि कैसे... - जब मुनि श्री विद्यासागरजी ने मुनि पद पर रहते हुए अपनी साधना करने की भावना एवं आचार्य पद के प्रति अपनी निरीहता प्रकट कर दी, तो आचार्य महाराज के सामने यह समस्या खड़ी हो गई कि अब मैं समाधि के लिए कहाँ जाऊँ...? मुनि श्री विद्यासागरजी ने दी गुरुदक्षिणा - अनेक मूर्धन्य विद्वान् ज्ञानार्जन एवं दर्शनार्थ उनके पास आते रहते थे। एक दिन आचार्य महाराज ने छगनलालजी पाटनी, अजमेर वालों से कहा- छगनजी! मेरी समाधि बिगड़ जाएगी। पाटनीजी - ‘महाराज! ऐसा क्यों?' ज्ञानसागरजी महाराज - ‘मुनि विद्यासागर आचार्य पद लेने से इनकार कर रहा है। पाटनीजी - ‘आचार्य पद उनको लेना पड़ेगा। वो इनकार नहीं कर सकते।' महाराज - ‘वो तो साफ इनकार कर रहा है।' तब फिर छगनलालजी पाटनी, ताराचंदजी गंगवाल व माधोलालजी गदिया (बीरवाले) जहाँ मुनि विद्यासागरजी महाराज नसिया में ऊपर सामायिक कर रहे थे, वहाँ पहुँच गये। छगनलालजी ने महाराज से निवेदन किया- “महाराजश्री! क्या गुरु की समाधि बिगाड़नी है जो कि आप आचार्य पद नहीं ले रहे हैं।'' मुनि विद्यासागरजी बोले - “मैं परिग्रह में नहीं फँसना चाहता। यह मेरे ऊपर बहुत भारी बोझ आ जाएगा।'' उसी समय शान्तिलालजी पाटनी, नसीराबाद वाले भी वहाँ पहुँचे और उन्होंने मुनि श्री विद्यासागरजी से कहा- “आपको यह पद स्वीकार करने में क्या तकलीफ है?'' तब मुनिश्री बोले मुझे विनाशीक पद नहीं चाहिये, अविनाशी पद चाहिये। छगनलालजी पाटनी पुनः बोले- “आप गुरु को गुरु दक्षिणा में क्या दोगे? क्योंकि आपके पास और कोई परिग्रह है ही नहीं, जो आप अपने गुरु को गुरु दक्षिणा में दे सको।” महाराजश्री कुछ देर मौन रहकर बोले- “चलो, गुरु की समाधि तो बिगड़ने नहीं दूँगा, चाहे मेरे ऊपर कितनी भी विपत्तियाँ आवें। उनको मैं सहर्ष सह लूँगा।'' फिर मुनि श्री विद्यासागरजी ने आचार्य महाराज के पास आकर निवेदन किया, “हे गुरुदेव! मेरे लिए आज्ञा प्रदान कीजिए।” आचार्य महाराज ने उन्हें अपने कर्तव्य, गुरु सेवा और आगम की आज्ञा का स्मरण कराया और कहा- “गुरु दक्षिणा तो आपको देनी ही होगी।” इतना सुनते ही मुनिश्री अपने भावों को रोक न सके और एक बालक की भाँति विचलित हो उठे। शिष्य पर गुरु संग्रह, अनुग्रह आदि के माध्यम से कई प्रकार के उपकार करते हैं, पर शिष्य का गुरु पर क्या उपकार है? गुरु के अनुकूल वृत्ति करके गुरु पर शिष्य उपकार कर सकता है। ऐसा विचार कर मुनि श्री विद्यासागर गुरु चरणों में नतमस्तक हो गए। तब इच्छा नहीं होते हुए भी दस दिनों के लम्बे अंतराल के पश्चात् उनको अपने ही दीक्षा-शिक्षा गुरु महाराज को आचार्य पद ग्रहण करने की ‘मौन स्वीकृति देकर गुरु दक्षिणा समर्पित करनी ही पड़ी।'' मौन स्वीकृति मिलने पर आचार्य महाराज अत्यन्त आह्लादित हुए और उन्होंने तत्काल ही मुहूर्त देखने का संकेत किया। आचार्य पदारोहण मुहूर्त निर्धारण - उसी समय वहाँ अन्य संघस्थ एक क्षुल्लक पद्मसागरजी महाराज विराजमान थे, जो ज्योतिष के बड़े विद्वान् थे। उनसे आचार्य पद का मुहूर्त निकलवाया। क्षुल्लकजी मुहूर्त देखकर बोले “मैंने मेरी जिंदगी में ऐसा बढ़िया मुहूर्त नहीं देखा, जो आचार्य पद दीक्षा लेने वाले के लिए और देने वाले के लिए निकला हो। बहुत ही उत्तम मुहूर्त है।” | वह दिन था मगसिर कृष्ण दोज, वीर निर्वाण संवत् २४९९, विक्रम संवत् २०२९, दिनांक २२ नवम्बर, १९७२, स्थान-श्री दिगम्बर जैन नसियाजी मंदिर, नसीराबाद, जिला-अजमेर, राजस्थान, समय- प्रातःकाल लगभग ९ बजे का। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी का आचार्य पद से अंतिम प्रवचन - जैसे कोई श्रावक (पिता) जब तक अपनी योग्य कन्या का विवाह समय पर नहीं कर देता तब तक उसे चैन नहीं रहता। उसी प्रकार आचार्य श्री ज्ञानसागरजी को पद देने से पूर्व तक चैन नहीं रहा, अतः उन्होंने उचित समय पर कन्यादान के समान अपने पद का दान किया और सब कुछ त्याग कर, समाधि जो मुख्य लक्ष्य था, उसकी ओर बढ़ गए। विशाल जनसमूह इस विस्मयकारी उत्सव को देखने के लिए उपस्थित था। आचार्य आसन पर आचार्य श्री ज्ञानसागरजी विराजमान हैं। उनके पास ही मुनि आसन पर श्रमण विद्यासागरजी विराजमान हैं। उस दिन मुनि श्री विद्यासागर जी ने उपवास किया था। आचार्य पद से आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने अंतिम उपदेश दिया, उन्होंने बहुत ही मार्मिक शब्दों में कहा- “यह नश्वर शरीर धीरे-धीरे गिरता जा रहा है और मैं अब इस पद का मोह छोड़ कर आत्म-कल्याण में पूर्णरूपेण लगना चाहता हूँ। जैनागम के अनुसार यह करना अत्यन्त आवश्यक और उचित भी है। आचार्य पद त्याग - प्रवचन के पश्चात् जैसे ही मुहूर्त का समय हुआ, वैसे ही आचार्य श्री ज्ञानसागरजी अपने आचार्य आसन से उठे और मुनि आसन पर विराजमान मुनि श्री विद्यासागरजी को उठाकर अपने आचार्य आसन पर बिठाया। वे स्वयं मुनि आसन पर विराजमान हो गए। तत्पश्चात् उन्होंने आगमानुसार भक्तिपाठ आदि करते हुए, मुनि श्री विद्यासागरजी के ऊपर आचार्य पद के संस्कार किए। संस्कार करने के बाद आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने अपनी आचार्य पिच्छी मुनि श्री विद्यासागरजी को प्रदान की। स्वयं अपने मुनि आसन से नीचे उतरे और नवोदित आचार्य श्री विद्यासागरजी को त्रयभक्ति पूर्वक नमोऽस्तु किया। आचार्य श्री विद्यासागरजी ने अत्यन्त विनम्र भाव से नम्रीभूत होकर मुनि श्री ज्ञानसागरजी को प्रति नमोऽस्तु निवेदित की। उसी समय मुनि श्री ज्ञानसागरजी ने नवोदित आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज की तीन प्रदक्षिणा लगाईं। यह दृश्य देखने लायक था। उसके बाद आचार्य श्री विद्यासागरजी का आचार्य पद से प्रथम प्रवचन हुआ। उन्होंने एकत्व विभक्त के ऊपर बहुत अच्छा प्रवचन दिया। आचार्य आसन पर किया प्रतिष्ठित - आचार्य पद प्राप्त करने के पश्चात् आचार्य विद्यासागरजी अपने पूर्व स्थान पर बैठने लगे, तो मुनि श्री ज्ञानसागरजी आचार्य आसन की ओर संकेत करते हुए बोले- “विद्यासागरजी! क्या आचार्य आसन रिक्त रहेगा? मैं अपना पद परित्याग कर चुका हूँ, आप यथास्थान बैठिएगा। इस प्रकार उन्होंने आचार्य श्री विद्यासागरजी को आचार्य आसन पर बैठाया और स्वयं मुनि आसन पर जाकर बैठ गए। और वे गदगद हो गए - मुनि आसन पर बैठकर आचार्य महाराज (मुनि श्री ज्ञानसागरजी) गद्गद हो गए। उनके चेहरे पर मुस्कान थी, क्योंकि वे आत्मसंस्कार के साथ सल्लेखना काल को स्वीकार कर रहे थे। उसके लिए वे निश्चिन्त हो गए थे। उन्हें हँसते हुए देख हम भी कुछ सोचकर हँसने लगे, तब गुरु महाराज ने मुझसे पूछा- आप क्यों हँस रहे हैं?'' हमने कहा-“जैसे आपने हँसते-हँसते आचार्य पद का त्याग किया है, वैसे ही मैं भी एक दिन हँसते-हँसते इस आचार्य पद का त्याग करूँगा, और ऐसे ही विकल्प रहित, उत्साह पूर्वक जीवन का उपसंहार करूंगा, यह विचार कर हँस रहा हूँ।'' नवोदित आचार्य को बनाया अपना निर्यापकाचार्य - आचार्य श्री विद्यासागरजी गंभीर मुद्रा में आचार्य आसन में विराजमान थे। उनके हृदय में तरंगित भावनाओं को अभिव्यक्त करना कल्पनातिरेक होगा। कुछ क्षण पश्चात् मुनि श्री ज्ञानसागरजी उठे और आचार्य श्री विद्यासागरजी को नमन करते हुए बोले- “हे आचार्यश्री! मैं आपके आचार्यत्व में सल्लेखना लेना चाहता हूँ। मुझे समाधिमरण की अनुमति प्रदान कीजिए। मैं आपको निर्यापकाचार्य के रूप में स्वीकार करता हूँ। आप मुझे अपना क्षपक बना लीजिए।'' मुनि श्री ज्ञानसागरजी द्वारा समाधिमरण की भावना व्यक्त करने पर उपस्थित विद्वानों, श्रेष्ठी, साधकों एवं श्रावकों की आँखें अश्रुपूरित हो उठीं। गुरु की वाणी सुनकर आचार्य श्री विद्यासागरजी विस्मित थे, उनका हृदय करुणा से विगलित हो उठा। इस तरह २२ नवम्बर, १९७२ को नसीराबाद स्थित सेठजी की नसिया में प्रातःकाल ९ बजे बड़ी शालीनता और विनम्रता से गुरु ने शिष्य को आचार्य पद प्रदान किया। ८२ वर्षीय गुरुदेव आचार्य ज्ञानसागर ने २६ वर्षीय अपने सुयोग्य शिष्य को आचार्य पद एवं निर्यापकाचार्य का दायित्व सौंपा। यह सब देखकर जनसमूह स्तब्ध रह गया। उन्होंने अपने जीवन में ऐसा दृश्य कभी नहीं देखा था। नवोदित आचार्य श्री विद्यासागरजी उस दिन से लेकर फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा तक अर्थात् चार माह तक मात्र दूध, गेहूँ और जल ये तीन चीजें ही आहार में ग्रहण करते थे। कथनी-करनी में एकरूपता - कार्यक्रम समापन के पश्चात् सर सेठ भागचंद्रजी सोनी, अजमेर (राजस्थान) ने लौटते समय आचार्य ज्ञानसागरजी से अजमेर पधारने की प्रार्थना की, तो गुरुवर मुस्कराने लगे। उनकी भक्ति और भोलेपन पर। और बोले- “भागचंद्रजी! आप किससे अनुरोध कर रहे हैं। मैं अब संघ में मुनि हूँ, आचार्य नहीं। आप आचार्य विद्यासागरजी से चर्चा कीजिए।” मान मर्दन का अनूठा उदाहरण - आचार्य पदारोहण देखने के बाद छगनलाल पाटनी जब अजमेर आए, तब अजमेर नसिया में विराजमान आर्यिका श्री विशुद्धमति माताजी ने श्रावक श्रेष्ठी पाटनीजी से आचार्य पद त्याग का आँखों देखा प्रसंग सुना। तब माताजी बोलीं- “ऐसा रिकॉर्ड हजारों वर्षों में नहीं मिलता, जो अपने शिष्य को आचार्य बनाकर स्वयं शिष्य बन जाए। इतना मान मर्दन करना बहुत ही कठिन है, जो कि अपने शिष्य को नमस्कार करे। धन्य हैं महाराज ज्ञानसागरजी।” दायित्व सौंपने की अनूठी कला - काल का क्रम कभी रुकता नहीं। वह निरंतर प्रवाहमान है। चतुर्दशी का पावन पर्व आया। पूरे संघ ने उपवास के साथ पाक्षिक प्रतिक्रमण किया। प्रतिक्रमण के बाद आचार्य भक्ति करके नवोदित आचार्य की चरण वंदना की गई। यह दृश्य आश्चर्यकारी होने के साथ ही आनन्ददायक भी था। क्षपक मुनि श्री ज्ञानसागरजी ने अपने स्थान से उठकर आचार्य श्री विद्यासागरजी के चरणों में अपना मस्तक रख दिया। दोनों हाथों से निर्यापकाचार्यजी के दोनों चरण कमलों को तीन बार स्पर्श किया और नवोदित आचार्य के चरण स्पर्श से पवित्रत अपने दोनों हाथों को प्रत्येक बार अपने सिर पर लगाते रहे। फिर आचार्य गुरुदेव के सामने नीचे धरती पर बैठकर गवासन की मुद्रा में प्रायश्चित हेतु प्रार्थना की। संस्कृत भाषा में ही प्रायः गुरु व शिष्य की बातें होती थीं। वह बोले- “भो गुरुदेव! अस्मिन् पक्षे मम अष्टाविंशति-मूलगुणेषु......मां प्रायश्चित्तं दत्त्वा शुद्धिं कुरु कुरु।” इस प्रकार प्रायश्चित्त का निवेदन करते हुए उन्होंने निर्यापकाचार्य श्री विद्यासागरजी के दोनों हाथ पकड़कर अपने सिर पर रख लिए। आचार्य विद्यासागर मौन मध्यस्थ बने रहे। संघस्थ साधु मुनि श्री विवेकसागरजी महाराज कुचामन सिटी, राजस्थान से चातुर्मास वर्षायोग सम्पन्न करके विहार करते हुए अपने दीक्षा गुरु क्षपक श्री ज्ञानसागरजी एवं नवोदित आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के दर्शनार्थ नसीराबाद, अजमेर, राजस्थान पधारे थे। वह भी अपने स्थान से उठकर खड़े हुए और दोनों गुरुओं के श्रीचरणों में बैठकर उन्होंने विनयपूर्वक नमोऽस्तु निवेदित किया। उन्होंने भी अपने दीक्षा गुरु ज्ञानसागरजी का अनुकरण करते हुए पहले आचार्य विद्यासागरजी का चरणवंदन किया। पश्चात् स्वगुरु ज्ञानसागरजी के चरणों का वंदन किया। फिर हिन्दी भाषा में ही अपने गुरु से प्रायश्चित्त का निवेदन किया कि दीक्षा के बाद से अब तक जो भी अट्ठाईस मूलगुणों में दोष लगे हों, आप प्रायश्चित्त देकर मुझे शुद्ध करने की कृपा करें। तब क्षपक श्री ज्ञानसागरजी ने अपने ही द्वारा दीक्षित शिष्य मुनि विवेकसागरजी से कहा- “मैंने भी आपके सामने ही इन्हीं आचार्य महाराज से प्रायश्चित्त देने हेतु प्रार्थना की है। अब आप भी इन्हीं से निवेदन कीजिये।'' तब श्री विवेकसागरजी महाराज ने नवोदित आचार्य महाराज से विनयपूर्वक निवेदन किया कि मुझे भी प्रायश्चित्त प्रदान करने की अनुकम्पा करें। ऐसा निवेदन करने पर आचार्यश्री ने पहले क्षपक श्री ज्ञानसागरजी को पाक्षिक प्रतिक्रमण के प्रायश्चित्त के रूप में ११ मालाएँ जपने का और श्री विवेकसागरजी को पाँच उपवास और ५१ मालाएँ जपने का प्रायश्चित्त सबके सामने दिया। फिर संघ के एलकजी, क्षुल्लकजी आदि अन्य त्यागीगण ने भी पाक्षिक प्रायश्चित्त नवोदित आचार्य महाराज से ग्रहण किया। सबको सात-सात मालाएँ जपने का प्रायश्चित्त मिला। उपसंहार गुरुजी के बारे में सुनाना औपचारिकता जैसा लगता है। गुरु के बारे में कहना है तो उसका कोई अंत है ही नहीं। वह अनंत को कहना है। उनके विषय में मैं कैसे स्तुति कर सकता हूँ, परन्तु कहने से आस्था बलवती हो जाती है। चाँद को देखूँ परिवार से घिरा सूर्य संत-सा। रात को चाँद अकेला नहीं रहता, तारामंडल उसके चारों ओर बिखरा हुआ रहता है। ताराओं के बीच में चंद्रमा को ताराचंद भी कहते हैं। किन्तु दिन में जब सूर्य को देखते हैं तो वह किसी से भी नहीं घिरा रहता है। सूर्य के सिवाय और कोई परिग्रह से, परिवार से रहित नजर नहीं आता। इसी तरह गुरुजी को मैं सूर्य की तरह मानता हूँ, पर आपको चंद्रमा पसंद है इसलिए गुरुजी को चंद्रमा कहता हूँ। यदि सूर्य धरती को न तपाये अपने तेज से, तो वर्षा प्रारंभ नहीं होती। सूर्य नारायण की बदौलत हम सब आज खा-पी रहे हैं। सूर्य की तरह गुरुजी ने यदि हमको न तपाया होता, तो आज तक हम ठण्डे पड़ जाते। मन का काम नहीं करना। मन से काम करोगे, तो उनको और हमको भी समझ पाओगे। आज के दिन एक उच्च साधक ने अपने जीवन की अंतिम दशा में अपनी यात्रा को पूर्ण करने के लिए पूर्व भूमिका बनाई। “मैं आज के इस दिवस को आचार्य पद त्याग के रूप में स्वीकार करता हूँ, ग्रहण के रूप में नहीं।' आचार्य पद कार्य करने की अपेक्षा से महत्त्वपूर्ण होता है, आसन पर बैठने की अपेक्षा से नहीं। “गुरु महाराज ने आज आचार्यपद त्याग किया था, यह महत्त्वपूर्ण है। पद ग्रहण करना महत्त्वपूर्ण नहीं, क्योंकि ग्रहण करना हमारा स्वभाव नहीं। त्याग करना हमारा स्वभाव है। “१९ आचार्य पदारोहण दिवस पर आचार्यश्री ने प्रवचन में कहा- मेरा लक्ष्य तो मेरे गुरु का अनुकरण करना है। ये तो सब व्यवहार के पद हैं। गुरु और शिष्य आगे पीछे दोनों में अंतर कहाँ ?
  6. प्रातः स्मरणीय विश्वन्दनीय जगत पूज्य परम पूज्य संत शिरोमणि श्री मद देव आचार्य श्री 108 गुरुवर विद्यासागर जी महामुनिराज जी के दीक्षा के पचास वर्ष पूर्ण होने पर एव आचार्य श्री जी के पचासवें संयम स्वर्ण दीक्षा महामहोत्सव वर्ष के उपलक्ष्य में जैनाचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महामुनिराज जी के संयम कीर्ति स्तंभ का भव्य लोकार्पण आज प्रातः वासुपूज्य जिनालय मंदिर जी विद्यासागर नगर चौधरन कॉलोनी गुना (म.प्र.) में आचार्य श्री जी के परम प्रिय और आज्ञानुवर्ती शिष्य मुनि द्वय मुनि श्री 108 निर्णय सागर जी मुनिराज जी और मुनि श्री 108 पदम सागर जी मुनिराज जी ससंघ के मंगल सान्निध्य में हुआ।लोकार्पण के पूर्व मुनि श्री जी ने धर्म सभा को संबोधित किया और मुनि श्री जी ने गौ माता के लिए गौशाला की व्यवस्था के विषय पर एव उनके लिए चारे की व्यवस्था हो सकें इसके लिए भी अपने विचार व्यक्त किए , स्वच्छता के लिए भी कहा और पॉलीथिन का उपयोग ना करें इस विषय पर अपने विचार व्यक्त किए और इसके बाद मुख्य अतिथि माननीय श्री राजेश जी जैन आई.ए.एस. पूर्व गुना कलेक्टर ने भी पूज्य द्वय मुनि श्री जी के चरणों में श्रीफल अर्पित किया और मुनि श्री जी से आशीर्वाद प्राप्त किया और अपने विचार व्यक्त किए इसके बाद विशिष्ट अतिथि श्री राजेन्द्र सिंह जी सलूजा नगर पालिका परिषद अध्यक्ष गुना (म.प्र.) ने भी द्वय मुनि श्री जी के श्री चरणों में श्रीफल अर्पित किया इसके उपरांत अपने विचार व्यक्त किए और इस कार्यक्रम में गुना नगर पालिका परिषद के सभी सम्मानीय सदस्यों ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। तथा माताओं और बहनों ने सुंदर रंगोली भी बनाई एव इस कार्यक्रम को सफल बनाने में सकल दिगम्बर जैन समाज गुना की अहम भूमिका रही। और सकल दिगम्बर जैन समाज के सभी पदाधिकारियों ने भी अपनी ओर से उपस्थित लोगों का साधुवाद किया।
  7. अध्ययन - अध्यापन एवं लेखन कार्य में जिनका संपूर्ण जीवन व्यतीत हुआ, ऐसे सरस्वती के पुत्र आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज से जुड़े पठन-पाठन सम्बन्धी प्रसंग, जो मुख्यतः आचार्य श्री विद्यासागरजी के श्रीमुख से निकले एवं कुछ अन्यत्र से भी चयन किए गए हैं, संकलित किए गए। उन प्रसंगों को इस पाठ में प्रस्तुत किया जा रहा है- शिक्षा लेना-देना गुरुजी को अच्छा लगता था। ढलती अवस्था में भी उन्हें इस बात की प्रतीक्षा रहती थी कि किसी को दे दें। उन्होंने ऐसा दिया कि जो दीया, बाती और लाइट से भी अधिक प्रकाशित है। वह टिमटिमाते दीपक को देखकर भागती हुई रात के समान है। चोटी के विद्वान् आएँ या बालक, कठिन से कठिन विषय को सहज-सरल भाषा में अभिव्यक्त कर देना उनके बाएँ हाथ का खेल था। चोटी के विद्वानों के लिए वे चुटकियों में समझा देते थे। कोई भी पात्र आ जाए, वे उसको सिंचन करते रहते थे ताकि वह अपनी भवितव्यता के अनुसार कालांतर में अपना कल्याण कर सके। सरस्वती के माध्यम से जो वरदान उन्हें मिला, वह सब उन्होंने जो भी पात्र मिला उसे दे दिया। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने अपने जीवनकाल में बड़े-बड़े संघों के लिए अध्ययन कराया। आचार्य श्री देशभूषणजी, आचार्य श्री वीरसागरजी, आचार्य श्री शिवसागरजी, आचार्य श्री धर्मसागरजी आदि सभी को उन्होंने पढ़ाया। उनमें अंतिम विद्यार्थी मैं था। अंतिम विद्यार्थी एवं शिष्य आचार्य श्री विद्यासागरजी की शिक्षा गुरुदेव ने जब से होश सँभाला तब से शिक्षण का कार्य किया है, उसमें अंतिम विद्यार्थी मैं था। बहुत ही कम समय मिला हमें। उन्होंने कम अवधि में पिलाया, जैसे - माँ घोल-घोल कर पिलाती है उसी प्रकार अल्प समय में मेरे ऊपर जो उपकार किया वह शब्दों में गुँथित नहीं कर सकता। पढ़ाते समय उन्हें भी बहुत आनन्द आता था। गुरु ने मुझे दो- तीन वर्ष ही पढ़ाया। बाद में वे इतने वृद्ध हो गये कि जो कुछ वो बताते थे, वही पढ़ता था। ग्राहक खाली न जाये। एक भी आये, तो दे दो। नहीं आ पाये तो बंजी करके आओ। उन्होंने वृद्धावस्था में भी बंजी करना नहीं छोड़ा। मुँह में एक भी दाँत नहीं था, फिर भी पढ़ाया-लिखाया। उन्हें विहार करने में परेशानी होती थी। साइटिका का दर्द था, फिर भी प्रमाद नहीं किया। जो कोई भी पिपासु आते, उन्हें दे देते। उस उम्र में भी उन्होंने मेरे ऊपर कृपा करके मुझे कुछ मंत्र देकर आगे बढ़ाया-पढ़ाया एवं सिखाया है। वह मंत्र कुछ और नहीं है -'श्रम करना है, श्रम से ही आगे बढ़ना है। मैं वैसे माध्यमिक कक्षा का ही छात्र रहा हूँ, किन्तु ध्यान रखना मैं आचार्य ज्ञानसागरजी गुरु के विश्वविद्यालय में पढ़ा हूँ। हम तब आये, जब... - गुरुजी की काया भले ही ढीली-ढाली हो गयी हो, पर भीतर की साधना बहुत बलवती थी। आँखों में कमजोरी और हाथों में शिथिलता होने के कारण वे किसी श्रावक से लिखवाते थे। वे बोलते और श्रावक लिखता चला जाता था, फिर उन्हें वापिस सुनाता था। मेरा पुण्य था। उसी समय मैं उनके चरणों में आया जिससे उनकी शब्दावली मुझे प्राप्त हो गई। ब्रह्मचारी विद्याधर अजमेर में फरवरी १९६७ को गुरुचरणों में समर्पित हुए थे। उस समय उनकी उम्र २१ वर्ष ४ माह थी, एवं आचार्य श्री ज्ञानसागरजी की उम्र ७६ वर्ष थी। विद्या का अध्ययन करना मानो उनका व्यसन था - ‘वि-विशेषरूपेण असनं इति व्यसनं ।' वे खूब खाते और दूसरा आ जाये तो उसे खिलाते थे। व्यसन का अर्थ अतिरेक होता है और अतिरेक अध्यात्म में जब होता है तो वह मोक्षमार्ग में सहायक होता है।उनके जीवन में उदारता थी। हम लोगों के पास लेने का लोभ और उन्हें देने का लोभ रहता था। उनके संघ में अध्ययन-अध्यापन का कार्यक्रम वर्तमान युग के अध्यापक एवं अध्येता के लिए आश्चर्यकारक है। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के संघ में अध्ययन का कार्यक्रम उदाहरणतः ग्रीष्मकाल में इस प्रकार था ऐसे किया बहुभाषा में निष्णात सामान्य हिन्दी भाषा - न हम मारवाड़ी भाषा समझते थे, न हिन्दी और न संस्कृत जानते थे। गुरु से हमें ‘तीन भाषाएँ रत्नत्रय' के रूप में मिलीं। जब मैं राजस्थान में गुरु महाराज के पास पहुँचा, उस समय मेरी स्थिति ऐसी थी कि अच्छे से हिन्दी आती नहीं थी, बोलने में तो हम डरते थे। ऐसा लगता था कि कुछ गड़बड़ न हो जाये। बस हओ-हओ (हाँ-हाँ) कहना सीख लिया था। अनुभवी विद्वान् आते थे। महाराज से चर्चा करते थे। हम भी बैठे-बैठे सुनते रहते थे। कुछ समझ में नहीं आता था, अतः चुपचाप सुनते थे। उस समय पंडित हीरालालजी शास्त्री ब्यावरवाले आचार्य महाराज के पास आते थे। पंडितजी प्रतिदिन आचार्य महाराज से धर्म चर्चा करते थे। एक दिन हमने आचार्य महाराज से पूछा कि पंडितजी इतनी अच्छी हिन्दी बोलते हैं, हमें ऐसा बोलना कब आएगा? तब आचार्य महाराज मुस्कराकर बोले- ‘चिंता मत करो, सब आ जाएगा।’ सीखने की ललक लगी रहती। विकल्प भी रहता था। दिन भर उसी में लगा रहता था। रात में तैयारी करता था एवं सुबह महाराज को सुनाता था। इस तरह ब्रह्मचारी विद्याधर ने अपने गुरुजी से सामान्य हिन्दी भाषा का ज्ञान प्राप्त किया। साहित्यिक हिन्दी - मुझे गुरुवर के पास राजस्थान पहुँचने के बाद हिन्दी सीखने की ललक लगी। फिर गुरुदेव ने मुझे संस्कृत भाषा का ज्ञान कराया। जब मुझे साहित्यिक हिन्दी सीखने की तीव्र भावना जागृत हुई तब अजमेर के ही हिन्दी के एक प्रो. पं. महेन्द्र पाटनी से हिन्दी साहित्य को उपलब्ध कराने को कहा, उस समय मैं ब्रह्मचारी अवस्था में था। निमित्त की बात देखो कि मेरा भोजन भी उन्हीं के यहाँ हुआ। उन्होंने वहीं पर मुझे कामायनी, उपनिषद् आदि कुछ नाम बताए और आकर उन्होंने आचार्य महाराज को भी बताया, तो गुरुदेव मुझसे बोले वह तो एम.ए. कक्षा की हिन्दी है। आप छोटी कक्षा की हिन्दी सीखो। परन्तु प्रो. साहब ने मुझे पहले संस्कृत भी पढ़ायी थी, अतः उन्होंने मुझे कामायनी दी। उसे पढ़कर विशिष्ट हिन्दी का ज्ञानार्जन किया। अंग्रेजी भाषा - इसी क्रम में उन्होंने अपने शिष्य को (मुनि अवस्था में) अंग्रेजी भाषा का शिक्षण कार्य डॉ. फैय्याज अली एवं के.डी. जैन विद्यालय, मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर, राजस्थान के तत्कालीन प्राचार्य ओमप्रकाश जैन से कराया। संस्कृत भाषा - साहित्यिक हिन्दी सीखने के पूर्व से ही संस्कृत, प्राकृत भाषा का अध्ययन गुरुदेव के पास ही चल रहा था। जैनेन्द्र व्याकरण से व्याकरण का अध्ययन कराया। कातन्त्र रूपमाला से भी सिखाते थे। इसकी अपनी बड़ी विशेषता है, गुरुजी ऐसा कहते थे। ब्रह्मचारी अवस्था में मुझे लगभग दो माह तक व्याकरण का अध्ययन कराया। दीक्षा के बाद तो बिल्कुल बाजू में बैठाकर संस्कृत व्याकरण पढ़ाते थे। पढ़ाते समय उन्हें भी बहुत आनन्द आता था। नाममाला - आचार्य महाराज ने कातन्त्ररूपमाला के साथ-साथ नाममाला (धनंजय नाममाला) भी कंठस्थ कराई। वे कहते थे ‘संस्कृत भाषा में प्रवेश के लिए यह बहुत आवश्यक है। सामान्यरूप से संस्कृत के प्रत्येक बिन्दु की पकड़ अच्छी होनी चाहिए। आचार्य महाराज पढ़ाने के बाद यह नहीं पूछते थे कि समझ में आया कि नहीं। वे तो मात्र कंठस्थ करने को कहते थे। ज्योतिष शास्त्र एवं स्वर ज्ञान - एक बार आचार्य महाराज ज्योतिषशास्त्र पढ़ा रहे थे। उस समय उसमें एक विषय आया कि कोई पक्षी माँस का टुकड़ा ले जा रहा है। वह किसका माँस है, तो उसके अनुसार भी ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु यह सुनकर मैंने कहा यह मुझे अच्छा नहीं लगता। तब आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने कहा यह ज्योतिष विफल हो सकता है, किन्तु स्वर ज्ञान कभी विफल नहीं हो सकता। अतः इसका ज्ञान कराना चाहिए। उसके बाद स्वरों का ज्ञान कराया। न्यायशास्त्र - आचार्य महाराज जिस समय न्यायशास्त्र पढ़ाते थे, उस समय मुझे अच्छे से हिन्दी भी नहीं आती थी। विषय भी समझ में नहीं आता था, तब भी चुप बैठकर सुनता रहता था। कुछ बोलता नहीं था। डर था कि कहीं कुछ गलत न निकल जाये। मुझे अष्टसहस्री पढ़ना था। उसकी प्रति उपलब्ध नहीं थी, तो ग्राम ‘राणोली', सीकर, राजस्थान से अष्टसहस्री मँगवायी थी, जिसे आचार्य महाराज ने ब्रह्मचारी (पं. भूरामलजी) अवस्था में पढ़ा था और उसमें निशान लगे थे। एक ही प्रति थी। आचार्य महाराज बिना पुस्तक के पढ़ाते थे। वह पुस्तक हमारे हाथ में रहती थी। वे अर्थ समझाते थे और कहते थे, देखो वहाँ निशान लगा है। जिस अष्टसहस्री को लोग ‘कष्टसहस्री’ कहते थे, आचार्य महाराज उसे 'मिष्टसहस्री' कहते थे। इसको पढ़ाना उनका बाएँ हाथ का काम था। ये देखा है हमने। आचार्य महाराज कहते थे साधक को, स्वाध्यायी को, मुमुक्षु को, आस्थावान् को हमेशा आचार्य प्रणीत अध्यात्म ग्रन्थ को ही पढ़ना चाहिए। यदि बुद्धि / ज्ञान ज्यादा है तो न्याय पढ़ना चाहिए। लेकिन इसके लिए वैराग्य का होना आवश्यक है। ऐसा हमें उनके स्वाध्यायी जीवन से देखने, सीखने या ग्रहण करने को मिलता था। दर्शनशास्त्र - पूज्य गुरुदेव के सान्निध्य में मेरा दर्शन का अध्ययन चल रहा था। उस समय के भाव आज भी मेरे मानस में पूर्ववत् तरंगायित हैं। मैंने पूछा- ‘महाराजजी, आपने कहा था कि मुझे न्याय व दर्शन का विषय कठिनाई से हस्तगत होगा, इसका क्या कारण है?’ वे बोले- देखो! ‘प्रथमानुयोग’ पौराणिक कथाओं और त्रेसठ शलाका पुरुषों का वर्णन करने वाला है, वह हजम हो जायेगा। ‘करणानुयोग’ भूगोल का ज्ञान कराता है। दूरवर्ती होने के कारण उस पर भी विश्वास किया जा सकता है। इसमें कोई विवाद नहीं चलेगा। ‘चरणानुयोग’ आचरण की प्रधानता वाला है। हिंसा को धर्म नहीं मानना। किसी को पीड़ा दो यह किसी भी धर्म में नहीं कहा गया। इसलिए यह भी सर्वमान्य होगा। किन्तु ‘द्रव्यानुयोग’ के अंतर्गत आगम और अध्यात्म ये दो प्ररूपणायें चलती हैं। प्रत्येक आत्मार्थी ‘अध्यात्म’ को चाहता है, अतः जहाँ पर इसका कथन मिलता है वहाँ तो साम्य हो जाता है, परन्तु ‘आगम’ में साम्य नहीं होगा। ध्यान के विषय में सर्व एकमत हैं। ध्यान करना चाहिए। मुक्ति के लिए यह अनिवार्य है, किन्तु ध्यान किसका करना? उसके लिए ज्ञान कहाँ से और कैसे प्राप्त करें? इसके लिए आगम देखना होगा। आगम में भी कर्म सिद्धान्त को सारी दुनिया अपने-अपने ढंग से स्वीकार करती है। दृष्टियाँ अलग-अलग हैं, लेकिन कर्म को सबने स्वीकृत किया है। मैंने बीच में टोकते हुए निवेदन किया - ‘तो फिर रहा ही क्या?’ गुरुदेव ने उत्तर दिया- ‘रहा वह, जो आपके गले उतरना कठिन है। मैंने पूछा ‘वह क्या?’ बड़े सहज भाव से बोले- ‘द्रव्यानुयोग’ के दो भेद हैं- १.आगम और २. अध्यात्म आगम के भी दो भेद हैं- १.कर्म सिद्धान्त-जो सभी को ग्राह्य है। १४८ कर्म प्रकृतियों को या मूल में ८ कर्मों को सब स्वीकार करते हैं। २. दर्शन- यहीं पर विचारों में विषमता आ जाती है।' दर्शन के क्षेत्र में तत्त्वचिंतक अपने-अपने ज्ञान के अनुरूप विचार प्रस्तुत करते हैं। ऐसी स्थिति में छद्मस्थ होने के कारण वैचारिक संघर्ष संभव है। मैंने पुनः पूछा- “आप यह सब बताकर क्या कहना चाह रहे हैं?” मेरी प्रसन्न मुद्रा को देखते हुए गुरुदेव बोले- ‘देखो! षड्दर्शन में जैनदर्शन कोई दर्शन नहीं है। परन्तु यदि उन छह दर्शनों का संचालन करने वाला कोई है तो वह है जैनदर्शन। जो छह दर्शनों की ओर अलग-अलग भाग रहे हैं, उन्हें एकत्र करके समझाने वाला यह जैनदर्शन है। मैं पुनः बोल पड़ा- ‘तब तो इसके लिए सभी के साथ मिलन की आवश्यकता पड़ेगी। महाराज बोले- ‘इसलिए तो मुनि बनाया है और मुनि बनने के बाद यह आवश्यक है कि समता आनी चाहिए। तभी अनेकान्त का हृदय विश्व के सामने रख सकोगे।’ यदि समता नहीं रखोगे तो जैनदर्शन को भी नहीं समझ सकोगे। उसे साफ़ (समाप्त) कर दोगे, यह ध्यान रखना। जैनदर्शन वकालत नहीं करता, अपितु जो वकालत करने के लिए विविध तर्को से लैस होकर संघर्ष की मुद्रा में वकील आते हैं, उन्हें साम्य भाव से सुनकर सही-सही निर्णय देता है, निष्पक्ष होकर निर्णय देता है। आज हम लोगों के सामने ३६३ मतों की कोई समस्या नहीं है। उन्हें समझाया जा सकता है, बशर्ते कि हम उनकी बात सुनें और समझे। उनकी बात काटनी नहीं है और काटना चाहें तो काट नहीं सकते, क्योंकि जिसका अस्तित्व है उसका नाश, विनाश हो नहीं सकता। उसको मिटाने का प्रयास करोगे तो पिटोगे अवश्य, क्योंकि संघर्ष होगा। अनेकान्त का हृदय है समता। सामने वाला जो कहता है उसे सहर्ष स्वीकार करो। षड्दर्शनों का अध्ययन करोगे तो आपको स्वतः ज्ञात हो जायेगा कि अनेकान्तात्मक वस्तु क्या है? जब मैं आचार्य महाराज के पास अष्टसहस्री और प्रमेयकमलमार्तण्ड इन ग्रन्थों को पढ़ रहा था, तो वे शंकित हुए कि मैं इसमें सफल हो पाऊँगा कि नहीं। किन्तु यह मात्र आशंका ही सिद्ध हुई। मैं समझ चुका था। इसमें कोई संदेह नहीं कि जिस व्यक्ति के पास समता आ जायेगी, वह सारे के सारे विरोधी प्रश्नों को पचा जायेगा और उनके सही-सही उत्तर देने में सक्षम हो जायेगा। समता के बिना ममता के साथ यदि प्रमत्त दशा में जीवनयापन करोगे तो विजयश्री का वरण नहीं कर सकोगे। मुझे तो संस्कृत एवं प्राकृत भाषा भी नहीं आती थी, लेकिन आचार्य महाराज ने मुझे सभी बातों का धीरे-धीरे ज्ञान कराया। मुझे तो आचार्य महाराज का आशीर्वाद प्राप्त हुआ, उनकी साक्षात् प्रेरणा मिली। शिक्षा-दीक्षा सभी उन्हीं के माध्यम से हुई। इतनी सरल भाषा में अध्यात्म की व्याख्या मैंने कहीं नहीं सुनी, जो हिन्दी में पूज्य आचार्य महाराज ने समयसार की व्याख्या की है। शिक्षा नहीं, शिक्षा पद्धति दी आचार्य श्री विद्यासागरजी ने कहा कि हमें गुरुजी ने दो-तीन वर्ष ही पढ़ाया, पर उनके सर्वांगीणज्ञान से यह विदित होता है कि दो-तीन वर्षों की शिक्षा मात्र से कोई सर्वशास्त्र पारंगत नहीं हो सकता है। इससे प्रतीत होता है कि आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने उन्हें शिक्षा नहीं, शिक्षा पद्धति' प्रदान की, शास्त्र नहीं अपितु शास्त्र दृष्टि प्रदान की। इस सम्बन्धी जो भी बिन्दु हमें आचार्यश्री के श्रीमुख से प्राप्त हुए, उन्हें यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है विद्या कंठस्थ हो - कंठस्थ विद्या विद्वानों के द्वारा सदा प्रकाश्य होती है। इसलिए आचार्य महाराज ज्ञानार्जन की क्रिया में अपने द्वारा दिए गए सूत्रों को कंठस्थ कराते थे। मुझे आचार्य महाराज रोज पाँच सूत्र पढ़ाते थे और याद करने को बोलते थे। जब हम याद करके आते थे, तभी पुनः पाँच सूत्र पढ़ाते थे। जितना पचता था, उतना ही देते थे। ज्ञान को वे सर्वांगीण महत्त्व देते थे। प्रसंग एवं अर्थ याद रखो - आचार्य महाराज कहा करते थे कि जो कुछ पढ़ा है, उसका प्रसंग एवं अर्थ याद रहना चाहिए। अन्यथा सही क्या, गलत क्या- उसका निर्णय नहीं किया जा सकता। एक-एक शब्द को पीओ - जैसे फोटोकॉपी को एक बार सुरक्षित रखोगे तो आगे भी उसका प्रयोग होता है, ऐसे ही एक शब्द को सुनो और उसे सुरक्षित रखो। दूसरे शब्द के समय पहले वाला शब्द गायब हो जाता है। बहुत शब्द सुनने की अपेक्षा एक-एक महत्त्वपूर्ण शब्द पीते चले जाइये। शिक्षा पात्रानुसार ही हो - मेरे शुरूआत के दिनों में जब पुराण पढ़ने की बात आयी तो आचार्य महाराज ने आदेश की भाषा में मुझे बुलाकर कहा कि आदिपुराण ग्रन्थ के पूर्वार्द्ध को और जयोदय को अभी तुम्हें नहीं पढ़ना है। इस प्रकार आचार्य महाराज पात्र को देखकर ग्रन्थ का चयन करते थे, जिससे पात्र में परिपक्वता आ जाती थी। बार-बार पढ़ें - स्वाध्याय करने से यदि स्व की ओर दृष्टि चली जाती है तो स्व का ज्ञान होने में देर नहीं लगती। यही जीवन का सच्चा स्वाध्याय है। इसी बात को ध्यान में रखकर आचार्य महाराज कहते थे- ‘हमें बहुत ग्रन्थ पढ़ने की आवश्यकता नहीं, बहुत बार पढ़ने की आवश्यकता है। बहुत ग्रन्थ पढ़ने से कोई विद्वान् नहीं होता, बल्कि शब्दों के रहस्य को समझने में पाण्डित्य गुण प्राप्त होता है। हम जितनी बार ग्रन्थ का पाठ करेंगे या टीका ग्रन्थ पढ़ेंगे, उतना ही हमारा मन (जीवन) पवित्र होता जायेगा। इसलिए उन्होंने अपने जीवन में १०८ बार सर्वार्थसिद्धि ग्रन्थ को पढ़ा, जो उनके जीवन में सर्व साधनों की सिद्धि का कारण बना। ज्ञान तलस्पर्शी हो - ऊपरी-ऊपरी ज्ञान से कुछ नहीं होता। ‘ज्ञान तलस्पर्शी होना चाहिए।’ अतः वे तलस्पर्शी ज्ञान रखते थे। तलस्पर्शी ज्ञान किसी ग्रन्थ को एक बार पढ़ने से नहीं, किन्तु अनेक बार पढ़ने से होता है। अध्ययन के साथ मंथन हो - आचार्य महाराज ‘स्वाध्याय को पाठ बोलते थे। वस्तुतः स्वाध्याय किताब लेकर हाथ में रखने से ही हो, ऐसा नहीं। वह बार-बार कहा करते थे जैसे सरस्वती हाथ में किताब रखती हैं, उसी प्रकार बगल में समयसार रखने से स्वाध्याय नहीं होता। जो व्यक्ति न तो मथानी को देखेगा, न मटकी को देखेगा, न ही छाछ को देखेगा। तब इन सबसे दृष्टि हटाकर मंथन करने वाला ही उस नवनीत को पा लेता है। वे भी जो मंथन करते थे। उसमें से भावश्रुत के नवनीत को प्राप्त कर लेते थे। अपने मंथन से प्राप्त नवनीत को चाहने वालों को दे देते थे। ऐसे कई शिष्यों को उन्होंने तैयार किया। मूल भाषा में ही अध्ययन हो - आचार्य महाराज प्रायः कहा करते थे कि प्राचीन आचार्यों के द्वारा प्रणीत मूल ग्रंथों को ही पढ़ने का अभ्यास होना चाहिये। हिन्दी टीकाओं को पढ़ने से दिग्भ्रमित होने की संभावना होती है। जब वे पढ़ाते थे तो मूल के ऊपर दृष्टि रखने की बात कहा करते थे। वे हिन्दी नहीं देखने देते थे। वे कहते थे कि ‘मूल के ऊपर सोचो, विचार करो।’ यह सूत्र उनका मुझे आज भी प्राप्त है। ‘तत्त्वार्थसूत्र’ को जितनी बार पढ़ता हूँ उतनी बार मुझे बहुत आनन्द आता है और आचार्य महाराज का सूत्र ताजा होता चला जाता है। जब वे उदाहरण देकर समझाते थे, तो कहा करते थे- उदाहरण के बतौर। स्वयं को देखकर बोलो - आचार्य महाराज इतने अनुशासित थे कि वे पढ़ाते समय कभी सामने देखते नहीं थे। हम तो इसी प्रतीक्षा में रहते थे कि देखकर वह हमें खुश कर दें, पर वे हमेशा अपने को देखकर बोलते थे, क्योंकि यदि इसको देखकर कहा जायेगा तो ये भी सामने वाले को देखकर ही बोलना सीखेगा, अपने को नहीं देखेगा। ज्यादा पढ़ना अच्छा नहीं। समझ में आना अच्छा है। हमें तो ऐसा ही समझ में आया है। जो कुछ पढ़ाया, सो पढ़ लिया। नहीं समझे... जितना समय मिला, वो मिला। उससे समझ लो कि क्या हेय और क्या उपादेय। मुझे लगता था कैसे क्या होगा। इतना पढ़ा-लिखा था नहीं, इतना बड़ा काम है। उनको आँखों से देखने में नहीं आता था, क्योंकि पानी आता था। उनके संकेत याद रह गये। हमें जो महाराज ने दिया वह समय पर याद आ जाता है और ज्यादा क्या करना है। सब कुछ उन्हीं का प्रसाद है, फल है। हम तो बीच में डोर हैं। शिक्षा लेना-देना उन्हें प्रिय था पंडित भूरामल शास्त्री (आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज) ने अपने जीवन काल में आचार्य श्री वीरसागर, आचार्य श्री देशभूषण, आचार्य श्री शिवसागर, आचार्य श्री धर्मसागर, आचार्य श्री अजितसागर, संघस्थ आर्यिका सुपार्श्वमति, ज्ञानमति, वीरमति एवं अभयमति आदि साधु वृन्दों को समय-समय पर न्याय, सिद्धान्त एवं अध्यात्म का अध्ययन कार्य कराया। उन्हीं संघों में वे क्रमशः क्षुल्लक, एलक एवं मुनि दीक्षा ग्रहण करके भी अध्ययन-अध्यापन का कार्य करते रहे। उनसे जुड़े हुए कुछ प्रसंग यहाँ प्रस्तुत हैं आचार्य श्री वीरसागरजी - एक बार मुनिदीक्षा लेने के कुछ वर्ष बाद पूज्य मुनि श्री वीरसागरजी (उस समय आचार्य नहीं थे) सन् १९३४ में ससंघ दाँता पधारे थे। वहाँ रुककर संघस्थ साधुओं को बाल ब्रह्मचारी पंडित भूरामल ने संस्कृत एवं न्याय का अध्ययन कराया था। श्री वीरसागरजी का वात्सल्यामृत जब उन्हें मिला तो उन्हीं के संकेत को शिरोधार्य करते हुए वे श्रमण पथ पर चलने को तैयार हो गये। यद्यपि वे ब्रह्मचारी थे, किन्तु उन्होंने आचार्यश्री से ब्रह्मचर्य प्रतिमा के व्रत एवं दीक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की। पूज्य श्री वीरसागरजी ने सन् १९४७ में अजमेर में ब्रह्मचर्य प्रतिमा प्रदान कर दी। ब्रह्मचर्य व्रत देने के उपरांत आचार्य श्री वीरसागरजी ने प्रवचन में कहा था कि सभी संतों को कच्ची माटी के घड़ों की तरह शिष्य मिलते हैं, जिन्हें भारी श्रम से पढ़ाना पढ़ता है, साधु चर्या सिखलानी पड़ती है। किन्तु हमारे संतस्वभावी पंडितजी ऐसी अवस्था में प्राप्त हुए हैं कि वे अपने तन और मन से स्वयमेव ही एक ज्ञानी संत के रूप में पहचान लिये हुए है। वे कल ब्रह्मचारी थे और आज भी ब्रह्मचारी हैं, फ़र्क इतना है कि वे अब हमारे संघ के हो गये हैं। उनके आगमन से उन्हें धर्मध्यान होगा, ऐसा मेरा प्रयास रहेगा। किन्तु संघ के सदस्यों को भी उनसे ज्ञानलाभ होता रहेगा। वे आगम के अध्येता तो हैं ही, बहुत बड़े रचनाकार हैं। उनके संस्कृत की रचनाओं से सजे हुए विशाल ग्रन्थों की अनेक पाण्डुलिपियाँ मैंने देखी हैं, जिनके आधार पर मैं कह सकता हूँ कि ‘ये वर्तमान में संस्कृत के सबसे बड़े विद्वान् एवं रचनाधर्मी हैं। उनके उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ।' उन्होंने आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज को न्याय के ग्रन्थों का अध्ययन कराया और सीधीसाधी-सी भाषा में कहें तो अध्यात्म का भोजन कराया। एक हृदयस्पर्शी प्रसंग - आचार्य महाराज ने अपनी ब्रह्मचारी अवस्था (सन् १९५१) का एक प्रसंग हमें सुनाया- फुलेरा (राजस्थान) में पट्टाधीश श्री वीरसागरजी महाराज ससंघ का चातुर्मास चल रहा था। एक दिन आचार्य श्री वीरसागरजी के साथ एक और मुनिराज जंगल (शौच) जाने के लिए कमण्डलु की प्रतीक्षा कर रहे थे, तब मैं (ब्रह्मचारी भूरामल) दोनों महाराजों का कमण्डलु उठाकर ले आया, तो आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज बोले- ‘ब्रह्मचारीजी! आप यह काम मत किया करो। कमण्डलु लाना आपको शोभा नहीं देता, क्योंकि आप हमारे शिक्षा गुरु हैं। आप हमको धर्मशास्त्र पढ़ाते हैं। आप कमण्डलु लेकर आये, इसलिए हमको अच्छा नहीं लगा। भविष्य में कभी भी ऐसा मत करना।' गुरुजी ने बताया कि आचार्य श्री वीरसागरजी ने यह शब्द अतिवात्सल्यपूर्ण भावों से कहे। आचार्य श्री शिवसागरजी - आचार्य श्री शिवसागरजी के वे दीक्षित प्रथम मुनि शिष्य थे। उन्होंने आचार्य श्री शिवसागरजी ससंघ के लिए भी अध्ययन का कार्य कराया। जब वह आचार्य श्री शिवसागरजी से मुनि दीक्षा ग्रहण कर रहे थे, तब आचार्य श्री शिवसागरजी ने उसी समय उन्हें अपने संघ का उपाध्याय घोषित करते हुए कहा- ‘मुनिवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज को इस संघ का उपाध्याय भी बनाया जाता है। वे संघ को पढ़ाने व शिक्षा प्रदान करने का दायित्व सँभालेंगे। आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज ‘भूरामल' शब्द की व्याख्या करते हुए कहते थे- “भूरामल-भू-पृथ्वी पर, रा-राति, ददाति। यानी पृथ्वी के सारे मल को जो धो देता है। वह भूरामल है”- ऐसा शिवसागरजी महाराज कहा करते थे। आचार्य श्री धर्मसागरजी - आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज को ब्रह्मचारी अवस्था में रत्नकरण्डकश्रावकाचार का अध्ययन कराया। आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज कहा करते थे कि यह रत्नकरण्डकश्रावकाचार छोटी कृति जरूर है, किन्तु वास्तव में इसमें रत्नत्रय की स्तुति की गई है। एक वात्सल्यमयी प्रसंग- सन् १९७० की ही बात है। मदनगंज-किशनगढ़ (अजमेर, राजस्थान) में दोनों आचार्यों का मिलन हुआ। पूज्य आचार्य ज्ञानसागरजी ससंघ पहले से ही किशनगढ़ में विराजमान थे।अतः उन्होंने आचार्य धर्मसागरजी महाराज ससंघ की अगवानी की। जब दोनों संघ मंदिरजी में पहुँचे और बैठने की बात आई, तब आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने कहा-‘महाराज! आप तपोवृद्ध हैं, अतः पहले उच्चासन आप ग्रहण करें। तब आचार्य श्री धर्मसागरजी ने कहा- “आप ज्ञानवृद्ध हैं। मेरे शिक्षा गुरु भी हैं। अतः आप उच्चासन ग्रहण कीजिए।” तब आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज बोले- ‘चलो दोनों ही एक साथ उच्चासन ग्रहण करते हैं।' दोनों संतों की वार्ता का जनमानस पर प्रेरक प्रभाव पड़ा। अंत में भक्तों की प्रार्थना मानते हुये दोनों संत एक समान उच्च आसनों पर विराज गये। जयकारों से आकाश गूंज उठा। ऐसे करुणा और वात्सल्य प्रधान संत लोगों ने कभी देखे न थे। आर्यिका ज्ञानमति माताजी एवं आर्यिका सुपाश्र्वमति माताजी - आर्यिका ज्ञानमतिजी एवं आर्यिका सुपार्श्वमतिजी ने बाल ब्रह्मचारी पंडित भूरामल से काफी समय तक विद्याध्ययन का लाभ प्राप्त किया था। वे उन्हें शिक्षा गुरु मानती थीं। आर्यिका सुपार्श्वमतिजी को आप्तपरीक्षा, प्रमेयकमलमार्तण्ड, अष्टसहस्री जैसे ग्रन्थों का अध्ययन कराया। अंत-अंत तक उनकी यही भावना रही कि जिनवाणी की सेवा क्षण-क्षण करता रहूँ। अंतअंत तक मैंने देखा कि उनकी दृष्टि में ज्ञान महत्त्वपूर्ण नहीं था, संयम महत्त्वपूर्ण था। ‘ज्ञान महत्त्वपूर्ण नहीं, संयत ज्ञान ही महत्त्वपूर्ण है। साक्षर नहीं, शिक्षित किया जिन्हें भी आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज से पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, उन्हें आचार्य महाराज ने केवल आगम, सिद्धान्त और अध्यात्म ही नहीं पिलाया, अपितु समय-समय पर जीवन के सम्पूर्ण विकास हेतु आत्मा से परमात्मा बनने हेतु पूर्ण कला, कौशलता भी प्रदान की। इसके लिए वह अध्ययन के दौरान उन बिन्दुओं को बार-बार दोहराते रहते थे, जिनके चित्त पर उत्कीर्ण होने से यह आत्मा बाह्य से परान्मुख हो, आत्मस्थ होने के लिए लालायित रहती थी। कुछ बिन्दु निम्न हैं अनुकूल और प्रतिकूल वातावरणरूप वायु के झकोरों से अपने आपको कंपित मत करो। इन्द्रियों के दास, राक्षस के समान सर्वभक्षी बन जाते हैं। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज के मुखारविन्द से निम्न पंक्तियों का उच्चारण अनेक बार होता रहता था अंतिम ग्रीवक लौं की हद, पायो अनंत बिरियाँ पद। (छहढाला, ढाल-५, पद्य-१३) जो ख्याति लाभ पूजादि चाह, धरि करन विविध-विध देह दाह। (छहढाला, ढाल-२, पद्य-१४) हम तो कबहूँ न निज घर आये.....। त्याग बिना नहीं तिर सके, जानो हिय मॅझार। तुम्बी लेप के त्यागने, पहुँचे तीर मॅझार.....।।१।। नाम धराय जति, तपसी, मन विषयन में ललचावे। दौलत सो अनन्तभव भटके, औरन को भटकावे।।१।। ऐसा मोही क्यों न अधोगति जावे। जाको जिनवाणी न सुहावे.......॥२॥ पढ़-पढ़ के पंडित भया, ज्ञान हुआ अपार। निज वस्तु की खबर नहीं, सब नकटी का श्रृंगार......॥१॥ यह दोहा आचार्य महाराज को बहुत अच्छा लगता था। इसको जब वह प्रवचन में कहते थे तो सब हँस जाते थे। मैं (आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज) तो हिन्दी ज्यादा नहीं जानता था, तो नहीं समझने के कारण, भाव-भासना नहीं होने के कारण चुपचाप रह जाता था। मतलब शब्द का मूल्य तब है, जब अर्थ का आभास हो उनकी प्रिय गाथाएँ - आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के मुखारविन्द से समय-समय पर ज्ञात हुआ कि आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज को आगमोक्त कुछ गाथाएँ अत्यन्त प्रिय थीं, जिन्हें वह बार-बार दोहराया करते थे- उवयरणं जिणमग्गे, लिंगं जहजादरूवमिदि भणिदं। गुरुवयणं पि य विणओ, सुत्तज्झयणं च णि ठिं॥ प्रवचनसार, ३/२५ भत्ते वा खमणे वा, आवसधे वा पुणो विहारे वा। उवधिम्हि वा णिबद्धं, णेच्छदि समणम्हि विकधम्हि॥ प्रवचनसार, ३/१५ एवं पणमिय सिद्धे जिणवरवसहे पुणो पुणो समणे। पडिवज्जदु सामण्णं जदि इच्छदि दुक्खपरिमोक्खं। प्रवचनसार, ३/१ सो णाणं ण हवदि, जह्मा सो ण याणदे किंचि। तह्मा अण्णं णाणं, अण्णं सद्दं जिणा विंति॥ समयसार, ४१५ उपसंहार आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने सर्वार्थसिद्धि, प्रमेयरत्नमाला, प्रमेयकमलमार्तण्ड, आप्तपरीक्षा, अष्टसहस्री, समयसार, पंचास्तिकाय, प्रवचनसार, भगवती आराधना, अष्टपाहुड पढ़ाया और कहा- 'तुम्हारे लिए अब विशेष आवश्यकता नहीं -“विद्या कालेन पच्यते।” आशीर्वाद ही सब कुछ कार्य करता है। अब तो आचार्य महाराज और पास आ गये। लगता है दूरी है ही नहीं। इतने साल कैसे निकल गए, पता ही नहीं चला। आशीर्वाद ही गुरु का सब काम करता है। उनको याद रखेंगे, तो पार हो जायेंगे।' हमेशा अध्ययन में ही उनका जीवन निकलता था। पढ़ना और पढ़ाना....ये ही साधना...और क्या? करुणा, अनुकम्पा, सक्रिय सम्यग्दर्शन- ये सब फलित होते हैं जिससे, ऐसी शिक्षा देते थे वे। चोटी के विद्वान् भी आ जाएं या छोटा-सा बालक भी आ जाए, अपढ़ आ जाए अथवा पढ़े- लिखे आ जाएं कोई भी हो... उसके योग्य तत्त्वों को देखते हुए देते थे। उदारता थी, अनुकम्पा थी उनके पास। सब कृपा थी...बस लेने वालों की कमी थी उनके पास। और क्या-क्या था, क्या पता? बहुत था उनके पास। जितना भाग्य था उतना मिला... लेकिन ये कम नहीं... हाँ... उनका यही कहना था ‘विद्या कालेन पच्यते’। हाँ... उसको जितना ही आप घोंटो, सुगंधि उतनी ही फैलती चली जाती है। यह सुगंधि / सुरभि सभी नासिकाओं तक पहुँच जाए, क्योंकि जो दुर्गन्धा हो अथवा जिसके पास नासिका नहीं है, उसके पास भी पहुँच जाए, तो वह भी सुगंधि से लाभान्वित हो जाए। ऐसे भाव थे... किन्तु तीव्र पुण्य कर्म का जब उदय रहता है, उसी को यह उपलब्ध होता है। सभी को उपलब्ध हो, ऐसी भावना है। थे ज्ञानसागर गुरू, मम प्राण प्यारे, थे पूज्य साधुगण से, बुध मुख्य न्यारे। शास्त्रानुसार चलते, मुझको चलाते, वंदें उन्हें विनय से, सिर को झुकाते॥ (निजानुभवशतक, पद्य २ ) आचार्य महाराज के ज्ञान को देखकर यह अनुभव हो गया कि वास्तव में केवलज्ञान भी कोई चीज है, सर्वज्ञता भी कोई चीज है।
  8. क्या ज्योतिषविद्, निमित्तज्ञानी आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने जान लिया था कि उनका सुशिष्य भारत की वसुंधरा पर श्रमणत्व की एक अमिट गौरव गाथा लिखेगा? क्या उन्हें अपने प्रथम मुनिशिष्य की भवितव्यता/होनहार का आभास था? ...इससे जुड़े हुये कुछ प्रसंग आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के श्रीमुख से अपने गुरु की स्मृति में नि:सृत हुए हैं। साथ ही साथ उन सौभाग्यशाली व्यक्तियों से भी प्राप्त हुए हैं, जिन्हें कभी दादा गुरुजी की साक्षात् चरण छाँव प्राप्त थी। उन्हीं प्रसंगों को इस पाठ का विषय बनाया जा रहा है- गणमान्य श्रेष्ठीजनों के संस्मरणों से चयनित प्रसंग सभी विद्याओं में पारंगत होगा - जब आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ब्रह्मचारी अवस्था में थे तब एक दिन आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने मयूर पिच्छिका के पंखों को सहसा बिखेर दिया और देखने लगे कि देखो यह क्या करता है? ब्रह्मचारी विद्याधर ने तत्काल ही उन पंखों को संग्रहीत करके उसे पिच्छी का आकार दे दिया। उसे देख शिष्य के भविष्य निर्माता गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज को प्रतिभासित हो गया कि अब यह शिष्य सभी विद्याओं में, कलाओं में पारंगत हो गया है, प्रवीण हो गया है और यह संयम के मार्ग पर चलने के योग्य हो गया है। अब यह स्व-पर को सँभाल सकता है। अतः वह समय आ गया है कि मैं विद्या के ज्ञान को चारित्र के साँचे में ढालूँ। आचार्य ज्ञानसागरजी की पारखी दृष्टि में उस समय जो प्रतिभासित हुआ, आज वह पूर्णतः प्रतिफलित दिख रहा है। चारित्र द्रडी होगा - जब ब्रह्मचारी विद्याधरजी मुनि श्री ज्ञानसागरजी महाराज के सान्निध्य में केशलोंच कर रहे थे, उस समय प्रत्येक बाल खींचते समय खून निकल रहा था। उस दृश्य को देखकर वहाँ पर उपस्थित क्षुल्लक श्री आदिसागरजी ने मुनिवर ज्ञानसागरजी को इस स्थिति से अवगत कराया तो उन्होंने कहा चुप रहो। फिर भी क्षुल्लकजी से देखा नहीं गया, अतः उन्होंने थोड़ी देर बाद पुनः ब्रह्मचारी विद्याधर से कहा- क्यों! कैंची मँगवाएँ ? ब्रह्मचारी विद्याधर बोले- ‘ओम् हूँ। तो मुनि श्री ज्ञानसागरजी ने कहा- “हाँ दृढ़ता है।” ब्रह्मचारी विद्याधरजी की यही दृढ़ता उन्हें आचार्य विद्यासागर बना गई। आज हम देख रहे हैं कि आचार्य विद्यासागर “न चलन्ति चरित्रतः सदा नृसिंहाः”- आचार्य श्री पूज्यपाद देव कृत ‘योगिभक्ति' (६) की इन पंक्तियों को अपनी दृढ़ता के माध्यम से चरितार्थ कर रहे हैं। भारत को नई दिशा देगा - यह चर्चा तो सब जगह आती है कि मुनि श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने किस प्रकार विद्यासागरजी को दीक्षित किया। लेकिन यह कठोर सत्य है कि जब अजमेर, राजस्थान में आषाढ़ शुक्ल पंचमी, वीर निर्वाण संवत् २४९४, विक्रम संवत् २०२५, दिनांक ३० जून, १९६८, रविवार को दीक्षा का कार्यक्रम था, उस वक्त अजमेर में अल्प वय में होने वाली इस दीक्षा का काफी विरोध हुआ, और मुनि ज्ञानसागरजी को सर सेठ श्री भागचन्द्रजी सोनी ने समझाया कि जो लड़का मात्र २२ वर्ष का है, अभी ब्रह्मचारी है, पूरी हिन्दी नहीं जानता है, उसको इस उम्र में आप दीक्षा नहीं दें। उस वक्त मुनि श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने कहा था कि मैं इस लड़के में तेज देख रहा हूँ और मात्र १० वर्ष के अन्दर यह भारत को एक नई दिशा देगा।' ऐसी आगामी पहचान मुनि श्री ज्ञानसागरजी की थी और वाकई १० वर्ष बीता भी नहीं कि सारे भारत ने आचार्य श्री विद्यासागरजी के गुण को देख लिया और आज मुनि श्री ज्ञानसागरजी जहाँ भी होंगे, यदि वो आचार्य श्री विद्यासागरजी के समवसरण जैसे विराट् संघ को देखते होंगे तो उनको कितना बड़ा संतोष होता होगा कि उनका चुनाव कैसा है। प्रभावक होगा - दादा गुरुजी (आचार्य श्री विमलसागरजी महाराज) जब १९७० में किशनगढ़, रेनवाल (जयपुर, राजस्थान) में चातुर्मास कर रहे थे, उस समय एक दिन कन्नड़भाषी मुनि विद्यासागरजी महाराज ने हिन्दी भाषा में प्रवचन करते हुए दो पंक्तियाँ कविता रूप में गाकर बोलीं- अधिक हवा भरने से, फुटबॉल फट जाय। बड़ी कृपा भगवान की, पेट नहीं फट जाय॥ इसका अर्थ बताते हुए कहा- ‘अइमत्त-भोयणाए' यानी अतिमात्रा में भोजन करना अचौर्य व्रत का उल्लंघन है। इसी प्रकार एक दिन उन्होंने स्वरचित निम्न चार पंक्तियों को अपनी सुमधुर ध्वनि में उच्चारण कर प्रवचन का विषय बनाया साधना अभिशाप को वरदान बना देती है, भावना पाषाण को भगवान बना देती है। विवेक के स्तर से नीचे उतरने पर, वासना इंसान को शैतान बना देती है।। इन पंक्तियों का अर्थ भी पूज्यश्रीजी ने अपने प्रवचनों में बड़े प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया। मुनि श्री विद्यासागरजी महाराज नीचे हाल में प्रवचन करते और ऊपर आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज सुनते थे और कहते थे- ‘देखो, विद्यासागरजी महाराज कितने अच्छे प्रवचन करते हैं। आगे चलकर बहुत प्रभावना करेंगे।' गुरुणांगुरु श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने भविष्य की गोद में जो सत्य देखा था, वह वर्तमान के धरातल पर घटित होता हुआ नजर आ रहा है। आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज जिनधर्म प्रभावना के प्रतापपुंज बनकर स्व-पर की प्रभावना कर रहे हैं। चतुर्थ काल-सी छवि - १९७१ में मदनगंज-किशनगढ़ (अजमेर, राजस्थान) में वर्षायोग के समय मुनि श्री विद्यासागरजी महाराज का सात दिन का मौन व्रत चल रहा था। वह एक दिन कमरे के बाहर भूमि पर आसन लगाकर कुछ लेखन कार्य कर रहे थे, उसी समय अजमेर से आए हुए सर सेठ साहब श्री भागचंदजी सोनी ने आकर आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के चरणों में नमोऽस्तु निवेदित किया। उन्होंने उन्हें बिना दृष्टि उठाए ही मौनपूर्वक आशीर्वाद दे दिया। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज कहते थे कि आहार के पश्चात् सौ कदम टहलना चाहिये। वह जो कहते थे, वह करते भी थे। आहारोपरान्त टहलते हुए आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने जब यह दृश्य देखा तो उनके साथ टहल रहे क्षुल्लक स्वरूपानन्द जी से उन्होंने कहा- ‘चतुर्थ काल में मुनि श्री विद्यासागर जी जैसे साधु होते थे, जो अपने ज्ञान, ध्यान और तप में लीन रहते थे। वास्तव में आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने मुनि विद्यासागरजी में जो चतुर्थ काल-सी मुनि चर्या की छवि देखी थी, वही आज हमें उनमें पूर्ण रूप से प्रतिफलित होती हुई दिख रही है। आचार्य श्री विद्यासागरजी के मुखारविन्द से नि:सृत चयनित प्रसंग गुरुकुल बनाना - हमने गुरुजी से पूछा और...आगे...हम क्या करेंगे? समझ में नहीं आ रहा है, तो उन्होंने कहा था- “संघ को गुरुकुल बनाना।” गुरुकुल बना देना कहा। इसका अर्थ है घबड़ाओ नहीं...सब गुरुकुल बन जाएगा। वो अब हम देख रहे हैं...। तो यह पक्का है कि गुरुओं के मुख से जो शब्द निकलते हैं वह सार्थक होते हैं। बुन्देलखण्ड चले जाना - आचार्य श्री विद्यासागर जी ने गुरुदेव श्री ज्ञानसागर जी महाराज से कहा- आपने संयम के वरदान से मुझे भगवान् बनने का रास्ता दे दिया। लेकिन जीवन में संयम साधना के लिए, आत्मकल्याण के लिए, धर्म प्रभावना के लिये कहाँ जाऊँगा? तब आचार्य श्री ज्ञानसागरजी बोले चिन्ता मत करना, बुंदेलखण्ड चले जाना। वह विश्वस्त थे - वे विश्वस्त होकर गए हैं कि अब इसका कुछ बिगाड़ नहीं होने वाला। जैसे भोगभूमि में सन्तान युगल का जन्म होता है तो माता-पिता का अवसान हो जाता है, उसी प्रकार गुरुदेव हमें जन्म देकर चले गए। लेकिन वे विश्वस्त होकर गए हैं। अब इसका कुछ बिगाड़ नहीं होने वाला, क्योंकि चार उपकरण इसके साथ हैं। मेरी समाधि देखी होगी - अंत में एक बात और कहना चाहूँगा। जिस प्रकार अभी पूर्व में मुनि संभवसागर ने कहा, कि आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ज्योतिषविद् थे, भविष्य को जानते थे। हम तो यह समझते हैं कि उन्होंने हमारी समाधि के बारे में भी तो समझा होगा। हमारी समाधि के बारे में भी अवश्य उनको कुछ ज्ञान होगा। निश्चित बात है- वो गुरुकुल बनाएँ या कुछ भी बनाएँ, हम बनाते चले जाएँ। इससे हमारे लिए कुछ नहीं होता, लेकिन हमारा ख्याल रखियो कि हमारी समाधि के बारे में कुछ भविष्य बन जाए तो थोड़ा-सा संकेत दे दें, ताकि हम भी उसकी साधना कर लेंगे। पक्की बात है, वो आपको नहीं बताएँगे, बताएँगे तो हमें और उन्होंने संकेत दिया भी होगा तो मैं कैसे कहूँगा।" उन्होंने कहा कि “हमारी बात किसी को कहियो नहीं”- क्योंकि वचन की बात है, इसलिए अगर उन्होंने हमारी समाधि का भविष्य देखा है... अवश्य देखा होगा, हम उसकी प्रतीक्षा में हैं। उपसंहार यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते, निघर्षणच्छेदनतापताडनैः। तथैव धर्मो विदुषां परीक्ष्यते, श्रुतेन शीलेन तपोदयागुणैः॥ जैसे सोने को घिस कर, छेद करके, तपाकर तथा पीटकर चार प्रकार से परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार पुरुष की ज्ञान, शील, तप तथा दया से परीक्षा की जाती है। गुरु हमेशा नजरों से परखते रहते हैं। कहा भी है- ‘छंदं स पडिलेहए’ अर्थात् व्यक्ति के अन्तर्मन को परखना चाहिए। शिष्य विद्याधर की क्रियाओं में शुभ परिणामों को ग्रहण की इच्छा से ‘इच्छाकार', अशुभ परिणामों के त्याग में ‘मिथ्याकार’, जैसा आप कहो ऐसी स्वीकारोक्ति देने से ‘तथाकार’, आते-जाते वक्त ‘आसिका-निषेधिका’, वन्दनापूर्वक प्रश्न करने से ‘आपृच्छा’, इसी प्रकार ‘प्रतिपृच्छा’, अनुकूल प्रवृत्ति करने से ‘छन्दन’, किसी वस्तु या आज्ञा को माँगने में आदरपूर्वक नमस्कार करके फिर निवेदन करने से ‘निमन्त्रण’, गुरु के बृहत्पादमूल में आत्मसमर्पण कर देने से ‘उपसंपत्’ (मूलाचार, समाचार अधिकार/१२५-१४४) आदि समाचार प्रतिबिम्बित होने से कुशल पारखी की भाँति पूज्यवर आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने परख लिया कि यह आगमानुकूल चर्या का पालन करने वाला, मूलाचार को जीवंत रूप देने वाला भावी श्रेष्ठ अनोखे पारखी आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज श्रमण होगा और ‘विणओ मोक्खद्दारं’ (मूलाचार, पंचाचार अधिकार/३८६) माना गया है, इसलिए अतिशय विनय सम्पन्न होने से यह मोक्ष महल के कपाटों का उद्घाटक होगा। “वही शिष्य गुरु बन पाता है जो गुरु की एक-एक बात को जीवन में उतार लेता है। ऐसा ही शिष्य गुरु के गौरव की वस्तु बनता है।”
  9. आत्मतत्त्व विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/parmarth-deshna/aatmatv/
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