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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. प्रस्तुत पाठ में उन महान् शिल्पकार का जीवन परिचय है, जिन्होंने आचार्य श्री विद्यासागरजी जैसे युग-विख्यात जीवन्त शिल्प को तराशा है। अध्यात्म सरोवर के राजहंस, आगम की पर्याय, संतशिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागरजी जैसे महाश्रमण, जिनके चरणों में नतमस्तक होते हों, जिनका गुणानुवाद करते हुए वे भावविभोर हो उठते हों, अपनी हृदय वेदिका पर उन्होंने जिन्हें प्रतिष्ठित कर रखा है, अपने संपूर्ण जीवन के संचालनकर्ता जिन्हें वे मानते हैं एवं इस पाठ्य पुस्तक में जिनका महान् व्यक्तित्व, श्रेष्ठ दिगंबराचार्य श्री विद्यासागरजी के मुख से निःसृत हुआ लिया गया हो एवं जो आचार्य श्री शांतिसागरजी के शिष्य आचार्य श्री वीरसागरजी, आचार्य श्री वीरसागरजी के शिष्य आचार्य श्री शिवसागरजी एवं आचार्य श्री शिवसागरजी के साक्षात् प्रथम मुनिशिष्य आचार्य श्री ज्ञानसागरजी होने का गौरव रखते हों, ऐसे साधक के संघर्षमय जीवन का परिचय यहाँ इस पाठ में प्रस्तुत किया जा रहा है। जन्मकुण्डली : पण्डित श्री भूरामल जी शास्त्री वीर निर्वाण संवत् २४२३, विक्रम सम्वत् १९५४, शाके १८१९ भाद्रपद-मासे कृष्ण-पक्षे ११ (एकादशी) चन्द्रवासरे ६०/० आर्द्रा नक्षत्रे ५९/४८ वज्र-योगे २२/१२ बवकरणे ३०/९ एवं पंचांगशुद्धमिति दिन ३२/ ३ इष्टं ४७/४५ सिंहाऽर्क गतांश ४/८ मिथुन लग्नोदय २/४/१२/१९ जन्म दिनांक - २४/८/१८९७* जन्म समय - रात्रि १२ बजकर ५८ मिनट जन्म स्थान - राणोली (रानोली), जिला - सीकर (राजस्थान) पण्डित भूरामल (आचार्य श्री ज्ञानसागरजी) के चार भाई आचार्य ज्ञानसागरजी के आज तक उपलब्ध परिचयों में उनका जन्म सन् १८९१ प्राप्त होता है। संघ के अन्वेषक साधु मुनि श्री अभयसागरजी की पैनी दृष्टि एक बार उनकी उपलब्ध कुण्डली पर पड़ी। उन्हें प्राप्त जन्म सन् एवं कुण्डलीचक्रानुसार निकाले गए सन् में पर्याप्त अन्तर दिखा। उन्होंने आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के पूर्वावस्था के चारों भाई की कुण्डलियाँ (पण्डित भूरामल शास्त्री के गृहस्थ जीवन के भतीजे) श्री ताराचंद छाबड़ा, देवघर (झारखण्ड) से मॉगवाकर, प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य डॉ. सुरेन्द्रकुमार जी जैन पठावाले, टीकमगढ़ (म.प्र.) से मिलान करवाई। जिस आधार पर उनका उक्त सही दिनांक एवं समय प्राप्त हुआ है। प्रारंभिक जीवन नाम - पं. श्री भूरामलजी शास्त्री (शरीर के गौरवर्ण को देखते हुए इनका नाम ‘भूरामल' रखा गया) अपरनाम - शान्तिकुमार जन्म - १८९१ ईस्वी, विक्रम संवत् १९४८ जन्म स्थान - राणोली (रानोली), तहसील-पिपराली, जिला-सीकर (राजस्थान) पिता - सेठ श्री चतुर्भुजजी (खण्डेलवाल जैन, छाबड़ा गोत्रज) माता - श्रीमती घृतवरी देवीजी दादा - श्री सुखदेवजी दादी - श्रीमती गट्टू देवीजी भाई - बड़े भाई- श्री छगनलालजी छोटे भाई - श्री गंगाबक्सजी, श्री गौरीलालजी, श्री देवीलालजी पितृ वियोग - १९०२ ई., विक्रम संवत् १९५९ में पिताश्रीजी का देहावसान हो गया। उस समय बड़े भाई १२ वर्ष के थे और भूरामलजी १० वर्ष के थे। पिता के आकस्मिक निधन से घर की अर्थ व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। फलस्वरूप बड़े भाई छगनलालजी को आजीविका की खोज में बाहर जाना पड़ा। वे गया (बिहार) पहुँचकर एक जैन व्यवसायी के यहाँ कार्य करने लगे। एक वर्ष बाद भूरामलजी भी अपने अग्रज के समीप पहुँचे और एक जैन व्यापारी के प्रतिष्ठान में कार्य सीखने लगे। शैक्षणिक जीवन प्रारंभिक शिक्षा - बाल्यकाल से ही भूरामल की अध्ययन के प्रति रुचि थी। सर्वप्रथम कुचामन (राजस्थान) के पंडित जिनेश्वरदासजी ने राणोली ग्राम में ही भूरामल को धार्मिक एवं लौकिक शिक्षा दी। पर उनकी उच्च शिक्षा का प्रबंध वहाँ न हो सका। उच्च शिक्षा हेतु बनारस गमन - गया में नौकरी करते हुए तीन वर्ष हो गये, लेकिन उनका मन अभी भी आगे पढ़ने के लिए छटपटा रहा था। संयोगवश स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी के छात्र किसी समारोह में भाग लेने के लिए गया (बिहार) पहुँचे थे। उनके प्रभावपूर्ण कार्यक्रम को देखकर युवा भूरामल के भाव भी वाराणसी जाने के हुए। विद्याध्ययन के प्रति इतनी तीव्र भावना एवं दृढ़ता को देखकर इनके बड़े भाई छगनलालजी ने पन्द्रह वर्ष की आयु में इनको वाराणसी जाने की स्वीकृति प्रदान कर दी। परीक्षा : ज्ञान की कसौटी नहीं - भूरामल परीक्षा पास करने को ज्ञान की सच्ची कसौटी नहीं मानते थे। उनके अनुसार ग्रंथ को आद्योपांत समझना आवश्यक था। अपनी इस मान्यता के कारण सब कार्यों से विरक्त होकर वे अध्ययन में जुट गए। रात-दिन, एक-एक करके वह ग्रन्थों को पढ़ते और कण्ठस्थ करते थे। इस प्रकार इन्होंने वाराणसी में रहते हुए थोड़े ही समय में शास्त्री-परीक्षा के सभी ग्रंथों को आद्योपांत पढ़ लिया था। । पाठ्यक्रम में जैन ग्रंथों को सम्मिलित कराना - भूरामल के शिक्षा ग्रहण करते समय तक जैनाचार्यों द्वारा प्रणीत संस्कृत व्याकरण और साहित्य के ग्रंथ प्रकाश में नहीं आए थे, अतः उनका पाठ्यक्रमों/कोर्से में अभाव पाया जाता था। फलस्वरूप सभी जैन छात्रों को जैनेतर ग्रंथों को पढ़कर ही परीक्षा उत्तीर्ण करनी पड़ती थी। जैन ग्रंथों का ऐसा अभाव भूरामल को अच्छा नहीं लगा। जब जैनाचार्यों ने व्याकरण, साहित्य, न्याय, दर्शन, सिद्धांत आदि के एक से एक उत्तम ग्रंथों का निर्माण किया है, तब हमारे जैन छात्र उन्हें ही क्यों न पढ़ें! उनकी प्रबल इच्छा हुई कि अप्रकाशित जैन ग्रंथों को प्रकाश में लाया जाए। भूरामल के अतिरिक्त अन्य व्यक्ति भी इस ओर प्रयत्नशील हुए। फलस्वरूप भूरामल और उन लोगों ने मिलकर न्याय एवं व्याकरण के कुछ प्रकाशित जैन ग्रंथों को काशी विश्वविद्यालय एवं कलकत्ता परीक्षालय के संस्कृत पाठ्यक्रम में सम्मिलित कराने का सफल प्रयास किया। शास्त्रीय शिक्षा हेतु जैन ग्रंथों का चुनाव - जब आप स्याद्वाद महाविद्यालय, बनारस में पढ़ रहे थे, उस समय प्रायः सभी अध्यापक ब्राह्मण विद्वान् थे। वे जैन ग्रंथों को पढ़ाने में आनाकानी करते थे और पढ़ने वालों को हतोत्साहित भी करते थे। फिर भी भूरामल ने पाठ्यक्रम में सम्मिलित कराए हुए जैनाचार्य प्रणीत न्याय, व्याकरण एवं साहित्य के ग्रंथों का ही शास्त्री परीक्षा हेतु चुनाव किया। तब आपने जिस अध्यापक से जैसे भी संभव हुआ जैन ग्रंथों को पढ़ा। उस समय महाविद्यालय में धर्मशास्त्र के अध्यापक पंडित उमरावसिंह जैन से आपको जैन ग्रंथों के पठन के लिए प्रेरणा एवं प्रोत्साहन मिला और उन ग्रंथों का स्वल्पकाल में ही आद्योपान्त गहन-गूढ़ अध्ययन पूर्ण कर ‘क्वींस कॉलेज', काशी से शास्त्री की परीक्षा आपने उत्तीर्ण की। स्वाश्रित जीवन - अध्ययन के दौरान बनारस में उन्होंने भोजनशाला में निःशुल्क भोजन करना नहीं स्वीकारा। वे सायंकाल गंगा के घाटों पर गमछा बेचकर अपने परिश्रम से उपार्जित धन से ही अपना काम चलाते थे। पंडित श्री कैलाशचंद्रजी के अनुसार इस विद्यालय के सत्तर वर्ष के इतिहास में ऐसी मिसाल देखने को अन्य न मिली, न सुनी। ब्रह्मचर्य व्रत का संकल्प - श्री भूरामलजी जब बनारस में अध्ययन कर रहे थे, तब अठारह वर्ष की उम्र में जैन साहित्य के निर्माण और उसके प्रचार में विवाह को एक बहुत बड़ी बाधा मानकर उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहने की प्रतिज्ञा कर ली थी। साहित्य निर्माण का संकल्प - बनारस में ही अध्ययन काल के समय घटित एक घटना ने उन्हें साहित्य निर्माण के लिये प्रेरित किया। बनारस में एक दिन भूरामलजी ने एक जैनेतर विद्वान् से जैन ग्रंथों के अध्ययन कराने का निवेदन किया। तो वह विद्वान् व्यंग्य करते हुए बोले- “जैनियों के यहाँ ऐसा साहित्य कहाँ, जो मैं तुम्हें पढ़ाऊँ।'' यह सुनकर उनके हृदय में गहरा धक्का लगा। क्षणभर को वे अचेत-से हो गए। उसी समय उन्होंने संकल्प किया कि “अध्ययनकाल के बाद ऐसे साहित्य का निर्माण करूंगा, जिसे देखकर जैनेतर विद्वान् भी दाँतों तले अँगुली दबा लें।'' साहित्यिक जीवन शास्त्री की उपाधि प्राप्त कर आप आपने गाँव राणोली वापस आ गये। पारिवारिक आर्थिक व्यवस्था के लिये आपने नौकरी की और जैन बालकों के लिये निःशुल्क पढ़ाना शुरू कर दिया। जब बड़े भाई गया से वापस आये तो आपने दुकान के काम से भी उदासीन होकर शुद्ध सात्त्विक भोजन, अध्ययन एवं लेखन को ही अपनी दिनचर्या बना लिया। यहाँ से उनके जीवन में साहित्यिक सर्जना के पल प्रारंभ हो गये। साहित्य सर्जना - यद्यपि साहित्य की हर विधा में वे दक्ष थे ही, उनके द्वारा रचित महाकाव्यों से यह पूरी तरह स्पष्ट ही है, तथापि व्याकरण, न्याय, पुराण, करणानुयोग, आचारशास्त्र, सिद्धान्तशास्त्र और अध्यात्म पर भी उनकी पकड़ मजबूत थी। उन्हें महापण्डित कहना उपयुक्त ही होगा। संस्कृत साहित्य १. जयोदय महाकाव्य - यह महाकाव्य आचार्य ज्ञानसागरजी द्वारा रचित है, इसमें २८६३ श्लोक + २८ पद्य, २८ सर्गों में हैं। इसका आद्योपान्त परिशीलन करने से ज्ञात होता है कि वह ‘बृहत्रयी'- ‘किरातार्जुनीयम् (भारवि), शिशुपालवधम् (माघ), नैषधीयचरितम् (श्रीहर्ष)- की परम्परा में आने के योग्य है। इसी कारण ‘बृहत्रयी' में जयोदय अपर नाम ‘सुलोचना स्वयंवर' को समाविष्ट करके मनीषियों ने ‘बृहत् चतुष्टयी' की संज्ञा निर्मित की है। इस काव्य में श्रृंगाररस रूपिणी यमुना और वीररस रूपिणी सरस्वती का, शांतरस रूपिणी गंगा के साथ अदभुत संगम किया गया है। इस काव्य का उद्देश्य अपरिग्रह व्रत की शिक्षा देना है। इसमें भरत चक्रवर्ती के सेनापति जयकुमार एवं सुलोचना का कथानक प्रस्तुत किया गया है। यह महाकाव्य उन्होंने बालब्रह्मचारी अवस्था में श्रावण शुक्ल पूर्णिमा-रक्षाबंधन दिवस विक्रम सम्वत् १९८३, सोमवार, २३ अगस्त १९२६ के दिन पूर्ण किया था, तथा उस पर प्रारंभ की हुई स्वोपज्ञ संस्कृत वृत्ति मुनि अवस्था में किया। २. वीरोदय महाकाव्य - ९६३ + २२ श्लोक प्रमाण यह महाकाव्य २२ सर्गों में विभाजित तथा छह सर्गों की स्वोपज्ञ संस्कृत टीका सहित उपलब्ध है। यह भगवान् महावीर के त्याग एवं तपस्यापूर्ण जीवन पर आधारित है। इस काव्य का उद्देश्य पाठक को अहिंसा, ब्रह्मचर्य एवं जैन दर्शन के महत्त्व का ज्ञान कराना है। इस महाकाव्य में सिद्धान्तरूपी औषधियों को कवि ने काव्यानन्दरूपी चासनी से पाक कर प्रस्तुत किया है। इस महाकाव्य की रचना उन्होंने बाल ब्रह्मचारी भूरामलजी की अवस्था में की थी। ३. सुदर्शनोदय महाकाव्य - ४८१ श्लोक प्रमाण यह महाकाव्य ९ सर्गों में विभाजित है। यह जैनदर्शनानुसार २४ कामदेवों में से अंतिम कामदेव सेठ सुदर्शन के जीवन चरित्र पर आधारित है। इस काव्य में कवि ने सहिष्णुता की शिक्षा दी है। यह काव्य, काव्य शास्त्रियों, सामाजिकों, शासकों, दार्शनिकों और धार्मिकों को शिक्षा देने में एवं उनको सन्तुष्ट करने में समर्थ है। यह विस्तृत हिन्दी व्याख्या सहित महाकाव्य उन्होंने बाल ब्रह्मचारी वाणीभूषण पं. भूरामल शास्त्री की अवस्था में वीर निर्वाण सम्वत् २४७०, सन् १९४४ में लिखा था। ४. भद्रोदय (समुद्रदत्त चरित्र) महाकाव्य - ३४५+४ श्लोकों वाला यह महाकाव्य ९ सर्गों में विभाजित है। इस काव्य में अस्तेय को मुख्य लक्ष्य करके एक भद्रमित्र नामक व्यक्ति के आदर्श चरित्र को प्रस्तुत किया गया है। इसके माध्यम से कवि ने अस्तेय नामक महाव्रत की शिक्षा दी है और चोरी एवं असत्यभाषण के दुष्प्रभाव से बचने के लिए पाठक को सावधान किया है। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज के पूर्व ऐसे काव्य नहीं के बराबर रचे गए, जिनमें महाकाव्य और चरितकाव्य की विशेषताएँ साथ-साथ दृष्टिगोचर होती हैं। भद्रोदय अपरनाम समुद्रदत्त चरित्र ऐसा ही महाकाव्य है। इस महाकाव्य को उन्होंने क्षुल्लक ज्ञानभूषण की अवस्था में लिखा। ५. दयोदय चम्पू - इस महाकाव्य में १६२+८ संस्कृत श्लोक तथा संस्कृत गद्य रूप सात लम्ब हैं तथा स्वोपज्ञ हिन्दी टीका सहित यह प्रकाशित है। इस चम्पूकाव्य में एक धीवर, जिसकी जीविका ही हिंसा से चलती है, के द्वारा अहिंसाव्रत का पालन करवाया गया है। बाल ब्रह्मचारी पं. भूरामलजी द्वारा लिखित एवं मुनि श्री ज्ञानसागरजी द्वारा संशोधित, ने यह दर्शाया है कि धर्म या आचरण किसी जाति विशेष की संपत्ति नहीं है, यह सभी मनुष्यों के पालने योग्य है। इस काव्य में अहिंसा, परोपकार, अतिथिवत्सल्यता, योग्य व्यक्ति के सम्मान आदि गुणों की शिक्षा दी गई है। संस्कृत भाषा में लिखित अन्य दार्शनिक कृतियाँ आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने संस्कृत काव्यग्रन्थों के साथ अनेक दार्शनिक कृतियाँ भी लिखी हैं। इनमें से कुछ मौलिक कृतियाँ हैं और कुछ संस्कृत हिन्दी अनुवाद वाली कृतियाँ। ६. सम्यक्त्वसारशतकम् (मौलिक कृति) - यह ग्रन्थ १०४ श्लोकों में स्वोपज्ञ हिन्दी टीका सहित प्रकाशित है। जैन दर्शनानुसार सम्यग्दर्शन मोक्षमार्ग की प्रथम सीढ़ी है। अतः सम्यग्दर्शन की महिमा जैन आगमानुकूल इस ग्रन्थ मे की गई है। यह ग्रन्थ जैनदर्शन के जिज्ञासुओं के लिए अत्यन्त उपयोगी है।‘सम्यक्त्वसार दीपकम् / शतकम्' कृति का आरंभ आपने ब्रह्मचारी भूरामल अवस्था में आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज के संघ में रहते हुए अध्ययन-अध्यापन करते समय किया था, उन्हीं को समर्पित इस कृति की पूर्णता क्षुल्लक ज्ञानभूषणजी की अवस्था में हिसार नगर में हो रहे वर्षायोग के दौरान कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा, वी.नि.सं. २४८२, वि.सं. २०१२ को की थी। ७. भक्तिसंग्रह - बीसवीं शताब्दी के महाकवि ब्रह्मचारी पं. भूरामल शास्त्री (आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज) ने १०१ पद्यों वाली संस्कृत की १२ भक्तियों की रचना हिन्दी पद्यानुवाद सहित करके प्राचीन परंपरा को पुनर्जीवित किया है। राणोली एवं दाँता से ब्रह्मचारी शांतिप्रसाद झांझरी, जौरहाट (आसम) वालों के माध्यम से वीरेन्द्रशर्माभ्युदय सहित इसकी हस्तलिखित प्रति उपलब्ध हुई थी। ८. हित-सम्पादकम् - इस काव्य में १५९ श्लोक हैं। यह क्रान्तिकारी लघु काव्य है एवं कुरीतियों का निराकरण और सम्यक् रीति-रिवाजों की स्थापना करने वाला है। ९. मुनिमनोरञ्जनाशीति - इस काव्य में ८१ पद्य हैं। दिगम्बर मान्यतानुसार श्रमणों की पवित्र चर्या तथा आर्यिकाओं की चर्या भी इसमें समाविष्ट है। साधु के प्रवृत्तिपरक मार्ग को प्रदर्शित करते हुए निवृत्ति पर बढ़ने हेतु इस काव्य में विशेष जोर दिया गया है। ‘ऋषि कैसा होता है' इस काव्य के समस्त श्लोक इसी ‘मुनिमनोरञ्जनाशीतिः' काव्य में संयुक्त रूप से प्रकाशित हैं। यह मुनिदीक्षा के पूर्व ब्रह्मचारी भूरामल शास्त्री द्वारा लिखा गया है। १०. वीरेन्द्रशर्माभ्युदय - रचनाकार ब्रह्मचारी भूरामल अपरनाम शांतिकुमार के नामोल्लेख वाले इस काव्य ग्रंथ की श्री दिगम्बर जैन मंदिर दाँता-रामगढ़ (सीकर, राजस्थान) में दो पाण्डुलिपियाँ प्राप्त हुई थीं, जो भगवान् महावीर के जीवन चरित्र संबंधी हैं। प्रथम प्रति दो खण्डों में विभाजित है, जिसमें प्रथमखण्ड ७ सर्गगत ७७७ श्लोकों तथा द्वितीय उत्तरखण्ड ५७८ श्लोकों में निबद्ध है। इसकी प्रथम प्रति में संस्कृत श्लोकों का अर्थ स्वयं लेखक ने किया है। इसकी दूसरी अन्य प्रति भी प्राप्त होती है, जिसमें संस्कृत श्लोक के साथ संस्कृत में ही स्वोपज्ञवृत्ति मात्र ६ सर्गों के ५४० श्लोकों पर उपलब्ध है। यह कृति डॉ. पं. पन्नालाल साहित्याचार्य के द्वारा हिन्दी अनुवाद सहित संपादित होकर प्रकाशित हो चुकी है। ११. ऋषि कैसा होता है। - यह ४0 श्लोक प्रमाण अप्रकाशित काव्य है। अनुवाद एवं टीका ग्रन्थ १२. प्रवचनसार - प्रस्तुत ग्रंथ मौलिक रूप में श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यजी ने २०९७ गाथाओं को तीन अधिकारों में लिखा है। इसकी भाषा प्राकृत है। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने उक्त गाथाओं का संस्कृत भाषा में अनुष्टुप् छन्द में पद्यानुवाद किया है। साथ ही हिन्दी पद्यानुवाद व सारांश भी लिख दिया है। पं. भूरामल शास्त्री कृत रचना के परिशिष्ट में मुनि विद्यासागरजी कृत गद्यानुवाद एवं ग्रन्थ के प्रारम्भ में आपने ही पाँच हिन्दी पद्यों के प्रारम्भिक अंतरों से यह मेरी भावना है सब इसकी स्वाध्याय करें भावना प्रदर्शित की है। १३. समयसार - प्रस्तुत ग्रंथ मौलिक रूप में तो श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा प्राकृत भाषा में लिखा गया है। इसमें ४३९ गाथाएँ हैं और इस ग्रंथ पर श्री जयसेनाचार्य जी ने ‘तात्पर्यवृत्ति' संज्ञक संस्कृत टीका भी लिखी है। आचार्य ज्ञानमूर्ति चारित्रभूषण श्री ज्ञानसागरजी महाराज जब आचार्य पद' पर विराजित थे तब आपने इसी संस्कृत टीका पर अपनी हिन्दी टीका लिखी है, जो प्राकृत-संस्कृत न जानने वालों के लिए अतीव उपयोगी है। १४. समयसार भाषा - आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी द्वारा प्राकृत भाषा में लिखित ग्रन्थ समयपाहुड (समयसार) का पद्यानुवाद भी आपने किया था। यह पद्यानुवाद जैन गजट (साप्ताहिक) में ‘समयसार भाषा' के नाम से नवम्बर, १९५४ से क्रमशः प्रकाशन आरंभ होकर सन् १९५६ तक कभी पं. भूरामल शास्त्री, कभी क्षुल्लक ज्ञानभूषणजी, कभी क्षुल्लक सिद्धसागरजी तो कभी क्षुल्लक ज्ञानसागरजी के नामों से प्रकाशित होता रहा। अनेक लेखों में क्रमशः प्रकाशित इस कृति को पाकर/पढ़कर अध्यात्म रस का सहज, सरल रीति से रसपान करने का अवसर पाठकों को मिल सका। १५. नियमसार - आचार्य कुन्दकुन्ददेव रचित इस नियमसार ग्रन्थ का भी ब्रह्मचारी पंडित भूरामल शास्त्री द्वारा पद्यानुवाद किया गया। जो ‘जैनगजट' (साप्ताहिक) में क्षुल्लक ज्ञानभूषणजी के हिसार प्रवास के अवसर पर ९ अगस्त, १९५६ से क्रमशः प्रकाशित हुआ है। १६. अष्टपाहुड - आचार्य कुन्दकुन्ददेव रचित दर्शनप्राभृत-सूत्रप्राभृत-चारित्रप्राभृत-बोधप्राभृत-भावप्राभृत-मोक्षप्राभृत-लिंगप्राभृत एवं शीलप्राभृत की समष्टि रूप इस ग्रंथ पर भी क्षुल्लक ज्ञानभूषणजी द्वारा हिसार में १९५७-५८-५९ के तीन चातुर्मासों में से किसी एक चातुर्मास में पद्यानुवाद किया गया था। यह श्रेयोमार्ग (मासिक) के सितम्बर, १९६२, पृष्ठ २०९-२१०, अक्टूबर, १९६२ (वर्ष ३, अंक १) तथा नवम्बर, १९६२ (वर्ष ३, अंक ३) में शीलपाहुड एवं मोक्षपाहुड के पद्यानुवाद क्रमशः प्रकाशित हुए थे। १७. देवागम स्तोत्र - आचार्य समन्तभद्रदेव रचित इस देवागम स्तोत्र की ११४ कारिकाओं का क्षुल्लक ज्ञानभूषणजी ने पद्यानुवाद किया था। यह ग्रन्थ रूप में प्रकाशित नहीं हुआ है। किन्तु जैन गजट (साप्ताहिक) में १० जनवरी से २५ अप्रैल, १९९७ के मध्य ११ लेखांकों में क्रमशः प्रकाशित हुआ था। १८. विवेकोदय - यह ग्रंथ महाकवि आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने क्षुल्लक ज्ञानभूषणजी की अवस्था में लिखा था। इस ग्रंथ में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामीजी द्वारा रचित प्रसिद्ध समयसार की गाथाओं का गीतिका छन्द में हिन्दी पद्यानुवाद २२४ पद्यों में किया गया है एवं इसकी सरल रूप में व्याख्या भी की गई है। इस ग्रन्थ के अंतिम निवेदन में कवि द्वारा ‘भूरामल निर्मित है', ऐसा सूचित किया है। १९. तत्त्वार्थ दीपिका - यह रचना जैन धर्म के सर्वमान्य ग्रन्थ ‘तत्त्वार्थसूत्र’ की सरल भाषा में टीका है। इस रचना को आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने क्षुल्लक अवस्था में मंसूरपुर के वर्षायोग में आश्विन शुक्ल पूर्णिमा, गुरुवार, वि.सं. २०१० में पूर्ण किया था। २०. मानव धर्म - यह ग्रन्थ महाकवि ज्ञानसागर महाराज ने वाणीभूषण बाल ब्रह्मचारी पं. भूरामलजी की अवस्था में रत्नकरण्डक-श्रावकाचार के १५० श्लोकों पर हिन्दी टीका/व्याख्या के रूप में लिखा था। हिन्दी साहित्य २१. भाग्य परीक्षा (भाग्योदय) - इस काव्य में ८३८ पद हैं। जैन दर्शन में कथित धन्यकुमार के प्रसिद्ध कथानक के आधार पर इस काव्य को रचा गया है। कर्तव्य परायणता एवं परोपकार जीवन का धर्म है, सत्यवादिता एवं सहिष्णुता जीवन का प्राण है। त्याग ही जीवन का व्यसन है एवं कर्मठता मानवीय गुण है। इन समस्त बातों का महाकवि ने इस काव्य में वर्णन करके असहिष्णु मानव के लिए शिक्षा दी है। ब्रह्मचारी भूरामल द्वारा आरंभ किया हुआ यह काव्य वि.सं. २०१३ को स्वतंत्र भारत के ग्यारहवें वर्ष में भगवान् विमलनाथजी की अखिल ज्ञान तिथि-माघ शुक्ल षष्ठी के दिन हाँसी जैन समाज की प्रेरणा से क्षुल्लक श्री ज्ञानभूषणजी द्वारा पूर्ण किया गया। २२. ऋषभावतार (ऋषभ चरित्र) - इस काव्य में १७ अध्यायों के अंतर्गत ८१४+६ पद हैं। जैन दर्शन के अनुसार इस युग में आद्य तीर्थंकर ऋषभदेव के जीवनवृत्त के आधार पर यह काव्य लिखा है। कवि ने काव्य के माध्यम से जैनधर्म एवं दर्शन के सिद्धान्तों को पाठक तक पहुँचाने का अद्भुत प्रयास किया है। जैन समाज, मदनगंज की प्रेरणा से ब्र. भूरामलजी ने इसका सृजन किया था। २३. गुण सुन्दर वृतान्त - इस काव्य को ५९६ पदों में लिखा गया है। इस काव्य में शिक्षाप्रद अनेक लघु कथाएँ काव्य रूप में समाविष्ट की गई हैं। कथाओं के प्रस्तुतीकरण के मध्य वर्तमान की ज्वलंत समस्याओं के निराकरण के लिए शिक्षाप्रद पद्य भी प्रस्तुत किए गए हैं। हिसार नगर में पं. भूरामलजी 'श्रेणिक चरित्र' का स्वाध्याय कर रहे थे। उसमें वर्णित ‘गुणसुंदर मुनि' का नया नाम सुनकर एक श्राविका ने उनका चरित्र पूछा, जिस पर पं. भूरामलजी ने इस काव्य की रचना प्रारंभ की। संभवतः जिसकी पूर्णता अथवा संशोधन क्षुल्लक ज्ञानभूषणजी की अवस्था में हुआ हो, ऐसा ग्रन्थ के अंत में उपलब्ध मंगल कमना से सूचित होता है। २४. पवित्र मानव जीवन - इस काव्य में १९३ पद्य हैं। इस काव्य में गृहस्थ को आजीविका किस प्रकार करना चाहिए, इसका वर्णन किया गया है। जैसे कृषि करना, पशुपालन, पारिवारिक व्यवस्था, स्त्री का पारिवारिक दायित्व आदि। इस काव्य के अनुसार यदि गृहस्थ अपने को व्यवस्थित कर ले तो कीचड़ में भी कमल खिल सकता है। यह काव्य क्षुल्लक अवस्था में लिखा था। २५. कर्तव्य पथ प्रदर्शन - इस पुस्तक में ८२ शीर्षकों द्वारा पाठकों को सामान्य व्यवहार की शिक्षा दी गई है। इस पुस्तक में उल्लिखित नियमों को यदि व्यक्ति आत्मसात् कर ले तो वह कलह से दूर हो सकता है और सच्चा मानव बन सकता है। यह पुस्तक आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने मुनि अवस्था में लिखी है। २६. सचित्त विचार - २२ पृष्ठीय यह पुस्तक आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने दीक्षा के पूर्व ब्र. भूरामल शास्त्री की अवस्था में लिखी थी। इसमें वनस्पति गीली अवस्था में सचित्त त्यागी के लिए खाने योग्य नहीं होती, इस विषय पर प्रकाश डाला गया है। २७. सचित्त विवेचन - यह पुस्तक लगभग ५४ पृष्ठीय गद्य रूप में है। इसमें सचित्त (जीवनयुक्त) और अचित्त (जीव रहित) पदार्थों का अन्तर समझाया है। यह पुस्तक जहाँ दया धर्म की रक्षा का उपदेश देती है तो दूसरी तरफ अपने स्वास्थ्य लाभ का भी संकेत करती है। श्री श्यामलाल जैन शर्मा, हाँसी द्वारा लिखित ‘प्रस्तावना' के अनुसार यह पुस्तक क्षुल्लक श्री ज्ञानभूषण की अवस्था में लिखी गई थी। जो सचित्त विचार नामक लघु पुस्तक का विस्तृत रूप है। २८. सरल जैन विवाह विधि - यह पुस्तक ५५ पृष्ठीय गद्य-पद्य हिन्दी, संस्कृत, मंत्रोच्चार आदि से समन्वित है। इसमें जैन दर्शनानुसार विवाह विधि को संपन्न कर, एक आदर्श गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने के लिए मांगलिक विषय प्रस्तुत किया गया है। दीक्षा के पूर्व ब्रह्मचारी पंडित भूरामल शास्त्री की अवस्था में यह पुस्तक लिखी थी। २९. इतिहास के पन्ने - समस्त ऐतिहासिक अवधारणाओं को पलटने २२ पृष्ठीय यह ऐतिहासिक लघु निबंध इतिहास में नया अध्याय जोड़ता है। आपने दीक्षा के पूर्व ब्रह्मचारी भूरामल शास्त्री की अवस्था में यह पुस्तक लिखी थी। ३०. श्री शांतिनाथ पूजा विधान - श्री मूलसंघ के सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगण में श्रीकुन्दकुन्द वंश में आचार्य पद्मनन्दी, शक्तिकीर्ति, लक्ष्मीचन्द्र, विद्यानन्दी, मल्लिभूषण की परम्परा में अहिर देशस्थ मुल्हेपुर के पट्ट पर दयाचन्द्र एवं सकलकीर्ति महामुनि हुए। आपके शिष्य जिनदास-शांतिदास-ब्रह्मजिनदास आदि हुए। उन्हीं में श्री ब्रह्म-श्री शांतिदास द्वारा रचित संस्कृत में श्री शांतिनाथ पूजा-विधान का आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने दीक्षा के पूर्व ब्रह्मचारी भूरामल शास्त्री की अवस्था में सम्पादन किया है। आचार्य श्री शिवसागरजी की आज्ञा से चौथी बार प्रकाशित हो रहे इस विधान का ब्रह्मचारी भूरामल शास्त्री ने संशोधन, अशुद्धियों का परिमार्जन एवं श्लोकों की कमी की पूर्ति की थी, ऐसा उल्लेख संघस्थ ब्रह्मचारी सूरजमल शास्त्री ने अपने दो शब्द' में उल्लेखित किया है। ३१. स्वामी कुन्दकुन्द और सनातन जैनधर्म - जैनदर्शन के प्रसिद्ध आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के जीवनवृत्त को लेकर ८० पृष्ठीय यह पुस्तक इतिहास के लिए अति महत्त्वपूर्ण है। यह पुस्तक दीक्षा के पूर्व ब्रह्मचारी भूरामल शास्त्री की अवस्था में लिखी गई। यह मंसूरपुर की जैन समाज के अनुरोध पर लिखित एवं वहीं के श्री खजान सिंह विमलप्रसाद द्वारा प्रथम बार प्रकाशित हुई थी। इनके अतिरिक्त 'अहिंसा की निरुक्ति' और 'समयसार का सम्यक्त्व' ये लेख हिन्दी भाषा में उनके द्वारा लिखे गए।' अहिंसा की निरुक्ति' श्रेयोमार्ग (मासिक) जनवरी, १९६१ (वर्ष २, अंक ३) पृष्ठ ३८ तथा 'समयसार का सम्यक्त्व' अंक ६ (नम्बर प्राप्त नहीं पर अंक ६ से आगे के किसी अंक में) पृष्ठ ९९-१00 में तथा अगले अंक में पृष्ठ १५७-१५८ तथा १६४ पर प्रकाशित हुआ है। इस प्रकार आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने जैन साहित्य के पुनरुद्धार एवं इसे समृद्ध बनाने में श्रेष्ठ योगदान दिया। जैनधर्म और दर्शन पर संस्कृत साहित्य के लेखन का पुनः प्रवर्तन किया और अपनी लेखनी से प्रभूत साहित्य रचा। अपने जीवन के पचास वर्ष साहित्य साधना में व्यतीत कर पूर्ण पांडित्य प्राप्त कर लिया। आपकी रचनाओं से संस्कृत साहित्य के भण्डार में अभूतपूर्व श्रीवृद्धि हुई। विद्वत् दृष्टि : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी आपकी संस्कृत भाषा की साहित्यिक रचनाओं की प्रौढ़ता देखकर काशी के आज के मूर्धन्य विद्वानों की यह प्रतिक्रिया है- “इस काल में भी कालिदास, माघ और भारवि की टक्कर लेने वाले विद्वान् हैं। यह जानकर हमें प्रसन्नता होती है। ''इस कथन से उनकी अगाध विद्वत्ता व रचना कौशल का अनुमान लगाया जा सकता है। डॉ. पं. पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य - पंडित पन्नालालजी साहित्याचार्य आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज का साहित्य पढ़कर प्रसन्नता पूर्वक बोले “यदि मैं राजा भोज होता तो एक-एक श्लोक पर एक-एक स्वर्ण मुद्रा लुटाता।” रघुवरप्रसाद त्रिवेदी - आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने एक प्रसंग में सुनाया था - ब्राह्मण समाज के एक विद्वान् रघुवरप्रसादजी त्रिवेदी ने पूज्यवर आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज के संस्कृत साहित्य का अवलोकन किया। अवलोकन के उपरांत उन्हें कृतिकार के दर्शन करने की भावना हुई। वे विद्वान् मेरे (आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के) पास आये और दर्शन के उपरांत कहने लगे- “यदि यह कृति और कृतिकार हमारे समाज में होते तो समाजजन उनको सिर के ऊपर उठाकर रख देते।” डॉ० सत्यव्रत शास्त्री - जब आचार्यश्री ने यह प्रसंग सुनाया तो मुनि श्री अभयसागरजी महाराज ने भी यह संस्मरण सुनाते हुए कहा कि आचार्यश्रीजी! संस्कृत के ख्यात विद्वान्, ज्ञानपीठ पुरस्कार ग्रहीता डॉ. सत्यव्रत शास्त्री, जो तब छह माह दिल्ली में एवं छह माह थाईलैण्ड में रहते थे एवं थाईलैण्ड की राजकुमारी को संस्कृत पढ़ाते थे। उन्होंने थाईलैण्ड की भाषा ‘थाई' में रामायण भी लिखी है। वे दिनांक २२ नवम्बर, १९९१ को डॉ. आराधना जैन, गंजबासौदा, विदिशा, म.प्र. द्वारा प्रो. डॉ. रतनचन्द्र जैन, भोपाल के निर्देशन में प्रस्तुत शोध प्रबंध ‘जयोदय महाकाव्य का शैली वैज्ञानिक अनुशीलन' की मौखिक परीक्षा लेने हेतु बरकतउल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल आए थे। इसके पूर्व उन्होंने इस शोध प्रबंध के मूल ग्रंथ का आद्योपान्त अध्ययन करने की इच्छा व्यक्त की। तब वे इस महाकाव्य को पढ़ करके बोले- “यदि आचार्य श्री ज्ञानसागरजी इस समय होते, तो मैं उनके चरण चूम लेता।" इसी प्रकार पूज्यवर आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज जब एक बार मुनि श्री विद्यासागरजी महाराज को संस्कृत पढ़ा रहे थे, तो उस समय किसी प्रोफेसर की जरूरत पड़ी। तब भाई कैलाशचन्द पाटनी ‘ललजी भाई बाघसुरी वालों ने मेयो कॉलेज (अजमेर) से एक प्रोफेसर को आमंत्रित किया। प्रोफेसर साहब ने इनकी पढ़ाई देखकर कहा कि “इनको संस्कृत पढ़ाने वाले गुरु कौन हैं? हम उनके दर्शन करना चाहते हैं, जिन्होंने इनको इतनी उत्कृष्ट संस्कृत पढ़ाई है। हमको आज तीस वर्ष कॉलेज में पढ़ाते हो गये, लेकिन हम इनके जैसी उच्चस्तरीय संस्कृत में प्रवेश नहीं कर सके। धन्य हैं ऐसे गुरु और धन्य हैं ऐसे शिष्य, जिनको कि ऐसे गुरु मिले।" एक बार संघस्थ पिच्छीधारी एक शिष्य ने आचार्यश्री जी से पूछा- “भगवन्! आपको अपने गुरु की याद आती होगी।'' आचार्यश्री जी बोले- “आनी ही चाहिए, सपनों में खूब दिखते हैं। सल्लेखना वाला दृश्य भी दिखता है। मुझे तो लगता ही नहीं कि वे हैं ही नहीं।'' शिष्य ने कहा “यह आपकी आस्था की सघनता है।'' आचार्यश्री बोले- “हमारी आस्था भी वो हैं, रास्ता भी वो हैं और शास्ता (गुरु) भी वो ही हैं। ये याददाश्त भी उन्हीं की है।" आचार्य श्री ज्ञानसागरजी द्वारा लिखी हुई संस्कृत-हिन्दी की रचनाओं पर ५० शोधकर्ताओं ने कार्य करके २ डी.लिट्., ३७ पी-एच.डी., ८ एम. ए. एवं ३ एम.फिल. संबंधी शोध प्रबंध आलेखित किए तथा ३०० से भी अधिक विद्वानों ने समालोचनात्मक शोधपत्र प्रस्तुत किए हैं। चारित्रिक जीवन सम्यक् चारित्र की ओर कदम - अध्ययन-अध्यापन और अभिनव ग्रन्थों की रचना करते हुए युवावस्था बीतने पर श्री भूरामलजी के मन में चारित्र धारण कर आत्मकल्याण करने की भावना जो अन्तःस्थित थी, बलवती होने लगी। जैन सिद्धान्त ग्रन्थों श्री धवल, जय धवल, महाबंध आदि का विधिवत् स्वाध्याय किया। किन्तु “ज्ञानं भारः क्रियां विना''- क्रिया के बिना ज्ञान भार स्वरूप ही है, ऐसा विचार कर चारित्र पथ पर गमन किया। सातवीं प्रतिमा - आषाढ़ शुक्ल अष्टमी, गुरुवार, वीर निर्वाण संवत् २४७४, वि.सं. २००४, २६ जून, १९४७ में अजमेर, राजस्थान में आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज से। गृहत्याग - आषाढ़ शुक्ल अष्टमी, रविवार, वी.नि.सं. २४७६, वि.सं. २००६, ३ जुलाई, १९४९। क्षुल्लक दीक्षा - वैशाख शुक्ल तृतीया - अक्षय तृतीया, वी.नि.सं. २४८२, वि.सं. २०१२, २५ अप्रैल, १९५५, को मंसूरपुर (मुजफ्फरनगर) उ.प्र. (भगवान की साक्षी में) आपका नामकरण क्षुल्लक श्री ज्ञानभूषणजी हुआ। एलक दीक्षा - वी.नि.सं. २४८४, वि.सं. २०१४, , सन् १९५७, आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज से ग्रहण की। मुनि दीक्षा - आषाढ़ कृष्ण द्वितीया, सोमवार, वी.नि.सं. २४८६, वि.सं. २०१६, २२जून१९५९, को खानियाजी की नसियाँ, जयपुर, राजस्थान में आचार्य श्री शिवसागरजी के प्रथम शिष्य के रूप में। उपाध्याय पद - आषाढ़ कृष्ण द्वितीया, सोमवार, वी.नि.सं. २४८६, वि.सं. २१०६, २२ जून, १९५९, मुनिदीक्षा के दिन आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज से। ज्ञानमूर्ति - ज्ञानसागरजी महाराज के क्षयोपशम को देखकर श्रीमान् सरसेठ भागचंद सोनी ने अजमेर में उन्हें ज्ञानमूर्ति' की उपाधि से अलंकृत किया। आचार्य पद - फाल्गुन कृष्ण ५, शुक्रवार, वी.नि.सं. २४९५, वि.सं. २०२५, ७ फरवरी, १९६९ को नसीराबाद, अजमेर, राजस्थान में। चारित्र चक्रवर्ती पद - आश्विन शुक्ल त्रयोदशी, शुक्रवार, वी.नि.सं. २४९९, वि.सं. २०२९, २०अक्टूबर, १९७२, नसीराबाद में क्षुल्लक श्री स्वरूपानंदजी की दीक्षा के समय। न्याय तीर्थ पदवी - ‘श्रुताराधक आचार्य' नामक पुस्तक में आर्यिका श्री सुपार्श्वमतीजी ने आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज को न्याय तीर्थ' पदवी के धारक कहा। (तिथि और स्थान का उल्लेख नहीं किया।) । शिष्य वृन्द - मुनि श्री विद्यासागरजी, मुनि श्री विवेकसागरजी, मुनि श्री पवित्रसागरजी,एलक श्री सन्मतिसागरजी, क्षु. श्री सुखसागरजी, क्षु. श्री संभवसागरजी,क्षु. विनयसागरजी, क्षु. श्री स्वरूपानंदजी महाराज थे। आचार्य पद त्याग - मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया, बुधवार, वी.नि.सं. २४९९, वि.सं. २०२९, २२नवम्बर, १९७२, नसीराबाद में मुनि श्री विद्यासागरजी को प्रदान किया। समाधि - ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या, शुक्रवार, वी.नि.सं. २५००, वि.सं. २०३०, १ जून,१९७३ को प्रातः काल १०.५० मिनट पर, नसीराबाद, अजमेर, राजस्थान। सल्लेखना काल - ६ माह, १० दिन। यम सल्लेखना - ज्येष्ठ कृष्ण एकादशी, सोमवार, वी.नि.सं. २५००, वि.सं. २०३०, २८ मई,१९७३ को आहार-जल का पूर्णरूपेण त्याग। डाक टिकट : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी यह पहली डाक टिकट है जो दिगम्बर जैन समाज के किसी संत पर जारी हुई है। इस डाक टिकट को मार्च, सन् २०१३ में जारी करना था परन्तु जो डाक टिकट छापे गए थे, उन पर आचार्य श्री ज्ञानसागरजी का अधूरा पोट्रेट चित्र छपा था और दिगम्बर जैन संत के अनिवार्य उपकरण मोरपंख की पिच्छिका तथा कमंडल नहीं छपे थे। डाक टिकट केवल एक नग्न साधु का चित्र बयान करती थी। दिगम्बर जैन समाज के विरोध के कारण भारत सरकार के डाक विभाग ने पहली बार कोई छपा हुआ डाक टिकट रद्द करके ठीक डिजाइन वाला दूसरा डाक टिकट छापा तथा इसको नवम्बर, सन् २०१३ में जारी करने की तिथि निर्धारित की। परन्तु डाक टिकट तथा सारा मटेरियल अगस्त, सन् २०१३ में ही तैयार हो गया, इस कारण भारत सरकार के डाक विभाग ने इस डाक टिकट को जारी करने का मुख्य समारोह श्री रतनलाल कंवरलाल पाटनी फाउंडेशन ट्रस्ट (आर.के. मार्बल के श्री अशोक पाटनी) द्वारा मदनगंजकिशनगढ़, अजमेर, राजस्थान में आयोजित किया, जिसमें केन्द्रीय कॉर्पोरेट राज्यमंत्री श्री सचिन पायलट ने इस डाक टिकट का विमोचन किया। इस समारोह में ले. कर्नल डी. के. एस. चौहान मुख्य डाक महाध्यक्ष, राजस्थान परिमंडल ने विशेष रूप से भाग लिया तथा डाक टिकट व अन्य सामग्री प्रस्तुत की। डाक टिकट में आचार्य श्री ज्ञानसागरजी को कार्योत्सर्ग की मुद्रा में ध्यान लगाकर एक पेड़ के आगे बैठे हुए दर्शाया गया है। इनके ठीक आगे मोरपंख की पिच्छिका रखी हुई है तथा इनकी दाईं ओर कमंडल रखा हुआ है। ऊपर भारत तथा ५00 पैसे मूल्य लिखा है। इनकी दाईं ओर सफेद बार्डर पर अंग्रेजी में तथा नीचे सफेद बार्डर पर हिन्दी में आचार्य ज्ञानसागर लिखा है। इस बहुरंगी डाक टिकट को भारत सरकार के डाक विभाग ने वेट ऑफसेट मुद्रण प्रक्रिया द्वारा प्रतिभूति मुद्रणालय, हैदराबाद से ४ लाख, ६० हजार संख्या में छपवाकर १० सितम्बर, सन् २०१३ को जारी किया था। प्रस्तावक दिगम्बर जैन समाज ने इनमें से एक लाख, पचास हजार डाक टिकट लिए थे। उनका साहित्य एवं उनकी शिक्षाएँ अनुयायियों का पथ प्रबुद्ध करती रहेंगी। बाल ब्रह्मचारी, स्वाभिमानी, प्रकाण्ड पंडित आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने अपनी ज्ञान पिपासा, तप, त्याग, साधना, ज्ञान आराधना, उदारता, दया, करुणा, संयम और संतत्व को आत्मसात् करके माँ जिनवाणी/ सरस्वती के भण्डार को परिपूर्ण किया। ऐसे जैन दर्शन एवं व्याकरण के प्रख्यात विद्वान् और पंडित के रूप में मुनि मार्ग को स्वीकार कर आत्मकल्याण की ओर अग्रसर होने वाले ऐसे विरले संत को कोटिशः नमन...। व्यापक कौन गुरु या गुरुवाणी किससे पूछे ?
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