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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ ८ - श्रद्धांजलि

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    ग्रीष्मकाल की भीषण गर्मी, ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या (जून) का महीना नसीराबाद (अजमेर, राजस्थान) की भूमि पर आत्मस्थ साधक आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज की समाधि, समाधि निर्यापकाचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज द्वारा सम्पन्न हुई थी। उन्हीं से सम्बन्धित कुछ प्रसंग, जो समय-समय पर आचार्य विद्यासागरजी के श्रीमुख से प्राप्त हुए हैं, उन्हें इस पाठ का विषय बनाया गया है -

     

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    कभी-कभी भावों की अभिव्यक्ति शब्दों के द्वारा अल्प समय में करना हो तो कठिनाई मालूम पड़ती है। कोई व्यक्ति एक बार चित्र देख लेता है तो उसे जब दुबारा वही चित्र दिखाते हैं, तब उसे देखने की इच्छा नहीं होती है। अच्छी से अच्छी बातें स्मरण में आ जाएँ तो भी उसके प्रति आकर्षण नहीं रहता। किन्तु जिनके संपर्क में उस रहस्यमय आत्मतत्त्व का चिंतन-मनन हम करते रहते हैं, उस व्यक्ति के संपर्क के लिए मन बार-बार लालायित होता है। अन्य सभी स्मृतियों को विस्मरण के रूप में परिवर्तित करके उस घटित घटना को बार-बार मन में स्मरण करने से वह स्वाद पुनःजीवित जैसा हो जाता है। दीर्घ काल कितना व्यतीत हो गया है, फिर भी ऐसा नहीं लगता। किसी ने कहा ३७ वर्ष हो गए। यह तो उनकी काया के लिए हुए हैं। वो तो अभी भी अपने मन में, उपयोग में बैठे हुये हैं। इसलिए वियोग की बात ही नहीं। संसारी प्राणी शरीर के संपर्क को ही संपर्क मान लेता है। गुरुजी का वह संपर्क एक अमिट संपर्क है। वह घनीभूत होता है, और-और सघन होता चला जाता है। जब तादात्म्य में संबंध होता है, तो ऐसी स्थिति में शरीर और वचन भले ही लुप्त हो जाएँ, पर वह गुप्त रहस्य कभी लुप्त नहीं होता। यह ३७ वर्ष का दीर्घकाल पूर्ण हो गया वह ३७ दिन जैसे प्रतीत होता है। जिनका समग्र जीवन विद्या अध्ययन और अध्यापन में व्यतीत हुआ, उनके चरणों में जो कोई भी चला जाता वह अपना स्वरूप समझकर, पहचानकर निकलता है। उनमें से मैं अंतिम था। इसके बाद अध्यापन समाप्त करके वह संन्यास में लीन हो गए।

     

    सल्लेखना काल - चार वर्षों से वर्षा न के बराबर (अल्प वर्षा) हुई। उन्हीं दिनों ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्या, १ जून, १९७३ को नसीराबाद, राजस्थान में उनकी सल्लेखना हुई। ग्रीष्मकाल में, जिसे सल्लेखना हेतु जघन्यकाल कहा जाता है, दीवारें प्रातः ८ बजे ऐसी लगतीं मानों सिगड़ी के पास रखी गई हों। दीवारों से टिककर नहीं बैठ सकते थे। प्रभु से प्रार्थना करता था, गुरुजी की सल्लेखना होना निश्चित है, टल नहीं सकती?

     

    बिना बोले लिया सल्लेखना का संकल्प - यदि यह प्रश्न करें कि मृत्यु किस प्रकार हो? तो ये हमारे पूज्य गुरुदेव से अच्छी तरह सीखें। जघन्य संहनन के द्वारा भी, अजघन्य साधना की है उन्होंने। उनका शरीर कोमल, वृद्धावस्था, हड्डीहड्डी दिखाई देती। पूरे शरीर में झुर्रियाँ आ चुकी थीं। पेट और पीठ की मैत्री हो चुकी थी। शरीर पूरा अस्थिपंजर के समान था। लेकिन वे ऐसे लग रहे थे जैसे ‘ऋद्धिधारी’ महामुनिराज साक्षात् विराजमान हों।

     

    गुरु महाराज ने सल्लेखना का संकल्प बिना बोले लिया। जो कुछ भी बाहर से करना है, वह हो चुका है। अब जो कुछ है, वह भीतरी है। भीतर देखना आवश्यक है, बाहर देखना गलत है। समयसार को याद रखने वाली मूर्ति (गुरु महाराज) सार को याद रखती है।

     

    बुद्धिपूर्वक किया त्याग - आचार्य महाराज ने आहार-पानी का त्याग बुद्धिपूर्वक किया था। वो कहते थे कि शरीर काम नहीं कर रहा है, तो क्यों वेतन दिया जाये? संसारी प्राणी चाहता है कुछ और जी लें, पर आचार्य महाराज ने शरीर को वेतन नहीं दिया। मुझे बहुत विकल्प था कि ऐसी भीषण गर्मी में कैसे सल्लेखना होगी? लेकिन सब देखते रह गये। आयुकर्म अपनी गति से चलता है। वे इतनी भीषण गर्मी में आहार के लिये निकलते। आहार में मात्र पेय (पीने के योग्य पदार्थ) लेते थे। उनको एक माह पूर्व से ही सब कुछ लेना बंद हो गया था। जो भी दिया जाता दीये में तेल की तरह। उन्होंने अपने शरीर को नियंत्रण में रखा था। उनसे कुछ लिया नहीं जाता था। हाथ में आने के बाद ही तो लेंगे, पर कलाई मुड़ती ही नहीं थी। हाथ में लेने के बाद एवं मुख में लेने से पूर्व बहुत-सा आहार गिर जाता था। हम भावना भाते कुछ पेय (पीने के योग्य पदार्थ) अंदर पहुँच जाए।

     

    वे उठ जायें तो बैठने की हिम्मत नहीं। इतने पर भी वाणी खिर जाती, तो अमृत की झड़ी लग जाती। कवि तो वे थे ही। उनको तो जिनवाणी की सेवा का प्रतिफल मिल चुका था। इतनी भीषण गर्मी में भी उनके भीतर की जागृति बलवती होती गई। पढ़ा हुआ, जो भी सारभूत था, उसको जीवन में उतारना उनका लक्ष्य था।

     

    सल्लेखना काल में आराधना - ‘उनकी तो प्रायः दिन-रात आराधना चलती थी। जो कुछ उन्होंने मुझे पढ़ाया था, वही सुना देता था। जो गलती रहती थी तो वह बता देते थे। इतने सावधान थे वह।' उन्होंने यह कहा था कि ‘भगवती आराधना' वगैरह पढ़ लो, तब हम उसी को पढ़कर सुना देते थे। धन्य हैं ऐसे आचार्य महाराज जिनकी साधना ही सल्लेखना के रूप में थी।

     

    नसीराबाद में लगभग २५ नवम्बर, १९७२ से २५ मई, १९७३ (ई.सन्) तक निर्यापकाचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज मध्याह्न काल में ‘भगवती आराधना' ग्रंथ का स्वाध्याय करते थे, जिसको क्षपक श्री ज्ञानसागरजी महाराज ससंघ सुनते थे। और प्रतिदिन सायंकालीन सामायिक के पश्चात् श्रावक श्री गम्भीरमलजी सेठी कविवर सर्वश्री बनारसीदासजी, दौलतरामजी, द्यानतरायजी, भूधरदासजी, महाचंदजी, भागचंदजी, जिनेश्वरदासजी आदि अनेक आध्यात्मिक कवियों, विद्वानों द्वारा रचित आध्यात्मिक, सैद्धान्तिक एवं वैराग्यवर्धक भजनों को सुमधुर ध्वनि में गाते थे, जिन्हें क्षपक श्री ज्ञानसागरजी महाराज एवं समस्त संघ एकाग्र-चित्त होकर सुनते थे। बनारसीदासजी के भजन की कुछ पंक्तियाँ, जो उन्हें अधिक पसंद थीं

     

    ‘चेतन उल्टी चाल चले, जड़ संगति सों जड़ता व्यापी,

    निज गुण सकल ढले, चेतन उल्टी चाल चले।।'

    आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज अधिकांशतः ये पंक्तियाँ बोलते रहते थे

     

    अर्हत सिंद्ध साधु पार को लगाओ, नाम लेऊँ तेरा पाप काट मेरा।

    आचार्य महाराज को यह भजन अत्यन्त प्रिय था-

     

    इतना तो कर लूँ स्वामी, जब प्राण तन से निकलें,

    होवे समाधि मेरी, जब प्राण तन से निकलें।

     

    सल्लेखना-साधना का क्रम -

    • आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने २२ नवम्बर, १९७२, विक्रम संवत् २०२९ को नसीराबाद, अजमेर, राजस्थान में आचार्य पद त्याग के साथ ही आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज से सल्लेखना व्रत ग्रहण कर लिया था।
    • समाधिस्थ होने के लगभग ६ माह, १० दिन पूर्व से ही अन्न का त्याग कर दिया था।
    • २३ मार्च, १९७३, शुक्रवार के दिन मुनि ज्ञानसागरजी महाराज ने केशलोंच किये। निर्यापकाचार्य विद्यासागरजी ने उनका सहयोग किया।
    • २० मई, १९७३ (११दिन पूर्व) से ही समस्त खाद्य पदार्थ का त्याग कर दिया था।
    • २८ मई, १९७३ को जल का त्याग कर यम सल्लेखना ग्रहण की।
    • १ जून, १९७३, शुक्रवार को चार दिन के निर्जल उपवास के साथ प्रातः १०:५० पर वह समाधिस्थ हो गये।

     

    अद्वितीय सजगता - हमने देखा कि अंतिम समय में ऐसी उत्कृष्ट जागृत अवस्था भी रह सकती है। उन्हें कोई तकलीफ/ पीड़ा वाली बात नहीं थी। कभी-कभी गाथाओं का पाठ करते समय एकाध अक्षर स्खलित हो गया या लय में स्खलन हो गया, तो एकदम उनकी अँगुली उठ जाती थी। इन सब बातों को देखकर ऐसा लगता था कि 'साधना के प्रति कितनी संकल्पपूर्वक निष्ठा थी उनकी।' शांति के साथ एक-एक पल राग-द्वेष के बिना व्यतीत हुआ। हर पदार्थ में, हर क्षण कर्म के उदय में कुछ गाथाओं से उन्हें समता बनी रहती थी। इसलिए अंतिम घड़ी तक उन्होंने अपने को प्रयोग की शाला में ही पाया। ऐसे परिणामों वाले पात्र के सम्बन्ध में 'न भूतो न भविष्यति' कभी कहा ही नहीं जा सकता। ऐसी साधना के लिए साधकों को हमेशा तैयार रहना चाहिए। संवेग-निर्वेग भाव हमेशा उनके पास बने रहते थे। कषाय उनके पास आने से घबराती थी। इस बीसवीं सदी में, अगर आचार्य श्री शांतिसागरजी के बाद क्रमबद्ध सल्लेखना किसी आचार्य की यदि हुई है तो वह आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज की हुई है। उनकी ऐसी सल्लेखना मानो बहुत से साधकों को सजग करने के लिए हुई थी।

     

    प्रबल अडिगता - बाहरी प्रकृति का प्रकोप अंतिम समय तक उन्हें डिगाने में समर्थ नहीं था। सावधानी पूर्वक साधना चलती रही। द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव के अनुसार सभी कार्य होते चले जाते। गुरुजी की दृष्टि प्रतिकूलता में भी हमेशा अपने भावों की ओर ही रहती। वे सदैव याद रखते, ‘विपाकोऽनुभवः' (तत्त्वार्थसूत्र, ८/२१)- विपाक में फल देने की क्षमता होती है। उदय के बिना कर्मों का फल देना तीन काल में सम्भव नहीं।

     

    अंतिम शिक्षा - आचार्य महाराज यदि सल्लेखना न लेते, तो मुझे सल्लेखना से दीक्षित कैसे करते? लोग पूछते हैं- ‘आपने आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज को कैसे सँभाला?’ मैं सोचता हूँ, उन्होंने मुझे कैसे सँभाला?' उनमें सबको सँभालने की शक्ति थी और शैली भी थी। वे अंतिम क्षण तक प्रयोग के माध्यम से सल्लेखना के समय भी सब कुछ हमें सिखाते रहे। जो-जो आवश्यक है, आगम में जो कुछ लिखा है वह सब हमने उनमें पाया। उनका आत्मतत्त्व प्रौढ़ था। ‘उनकी अंतिम सीख, सल्लेखना भी देखकर मैंने सीख ली, जो अंत में हमें काम आएगी। उन्होंने कहा था निर्दोष सल्लेखना धारण करो। जो सल्लेखना पूर्वक मरण करता है, उसके कम से कम दो-तीन भव और अधिक से अधिक सात-आठ भव शेष रहते हैं। इसके बाद मुक्ति पक्की है। हमने प्रश्न किया कि कैसे करना है? उत्तर दिया कि जैसे किया जाता है, वैसे करना है।' उन्होंने ऐसा कहा और वे चले गए।

     

    अंतिम क्षण तक चेतनता - वे निश्चितरूप से अपने में थे। उनकी धीरता और मोक्षमार्ग के प्रति आस्था देखते ही बनती थी। अंतिम समय तक उनकी जागृति आज भी हमारे सामने दिखती है। इससे बढ़कर कोई भी ‘सल्लेखना नहीं हुई और न ही हो सकती थी। आंतरिक सल्लेखना और बाह्य सल्लेखना का अनुपम सम्मिलन था। समाधि होने के पंद्रह-बीस मिनट पहले अर्थात् बोली बन्द होने के पहले आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने उनके एक कान में सम्बोधन किया, और तबियत के बारे में पूछा तो मुनि श्री ज्ञानसागरजी ने कहा- ‘शरीर में वेदना है, और मैं उपयोग में सावधान हूँ। फिर दूसरे कान में मैंने (शान्तिलाल पाटनी, नसीराबाद वाले) कहा- ‘आप क्या स्मरण कर रहे हो?' तो मुनिश्री बोले ‘अर्हंत सिद्ध’, पंचपरमेष्ठी का नाम स्मरण कर रहा हूँ। मैंने कहा- यह पुद्गल की भाषा-वर्गणा है। इस प्रकार स्मरण करने से क्या होगा?' तब मुनि श्री ज्ञानसागरजी ने कहा- “पंचपरमेष्ठी का स्मरण करने वाला पंचपरमेष्ठी में गर्भित हो जावेगा।” यह विचार सुनकर मुझे (शान्तिलाल पाटनी, नसीराबाद वाले) एवं आचार्य श्री विद्यासागरजी को हँसी-सी आई कि इनका उपयोग कितना सावधान है!

     

    अंतिम क्षण - तीन दिन यूँ ही निकल गये बिना पानी, बिना कुछ भी लिए। उस समय उनके उपवास का चौथा दिन चल रहा था, लेकिन ऐसी तेजस्विता थी कि हम कह नहीं सकते। शरीर निस्पंद था, आत्मा जागृत थी। किन्तु श्रवण इन्द्रिय और चक्षु इन्द्रिय बहुत अच्छी थीं, पर वे अपनी आँखें बंद रखते थे। भागचंदजी सोनी, अजमेर से दर्शन हेतु आए। उन्होंने कहा- ‘गुरुदेव! आप थोड़े से दर्शन दे दो।’ उनका हाथ उठता नहीं था। हाथ-पैर की अँगुलियाँ शिथिल हो गईं थीं। कहा- ‘आँख खोल करके दे दो।’ बस उन्होंने दूर से देख लिया था प्रसन्नमुद्रा में। सेठजी के जाने के १० मिनट बाद ही उन्होंने प्राणों का त्याग कर दिया। प्रातः १० बजकर, ५० मिनट पर सब देखते ही रह गए। वे इन्द्रियों से युद्ध कर विजय को प्राप्त हुए, जिस प्रकार कि दीपक में तेल धीरे-धीरे करके जलता है। अंतिम समय में जो उपाधि थी उसे सहज रूप से दूसरे को सौंपकर, जो महान् सल्लेखना है, उसको उन्होंने प्राप्त कर लिया।

     

    सच्चे देव-शास्त्र-गुरु के प्रति

    अपने आपको समर्पित करने वाला, उनके

    अनुरूप चलने वाला मुमुक्षु, आदर्श बनता है।

     

    उपसंहार

    सैनिकों की भाँति ‘ऑर्डर सो ऑर्डर’ यानी जब आदेश, तभी तैयार। इस नश्वर शरीर को कब त्याग करना पड़े, भरोसा नहीं। इसलिए हमेशा इससे ममत्व भाव कम करते जाना चाहिए। भोजन-पानी के माध्यम से इसे बलिष्ठ नहीं बनाना चाहिए, बल्कि कृश करते चले जाना चाहिए। फिर अंत में इस शरीर को छोड़ने में ज्यादा परेशानी नहीं आवेगी। यदि सल्लेखना विधिपूर्वक नहीं हो पाई, तो जीवन की साधना अधूरी मानी जाती है। दूध से दही, दही से नवनीत निकालना, नवनीत को तपाकर घी बनाना। यदि घी नहीं बना, तो समझना अधूरा कार्य हुआ है। श्रमणचर्या में यह प्रौढ़ साधना मानी जाती है। इस साधना के बिना सब कुछ अधूरा है।

     

    समाधि के क्षण उन्हें प्राप्त हुए। उस व्यक्तित्व को हम याद कर रहे हैं जिसका अमावस्या के दिन भौतिक शरीर का अभाव हुआ, लेकिन उनका अभाव या अवसान नहीं होता, जिन्होंने ‘सत्चित्-आनन्द’ को प्राप्त कर लिया है। उपाधियों को उतारकर, उन्होंने ये दूसरों को भी उपदेश दिया। एक साधक के लिए समाधि को हम अनिवार्य प्रश्नों के अंतर्गत रख सकते हैं, औपचारिक नहीं। अनिवार्य प्रश्न यदि हल नहीं किया, तो कुछ भी नहीं किया, नम्बर नहीं मिलेंगे।

     

    ‘गुरुदेव! अभी हमारी यात्रा पूरी नहीं हुई। आप स्वयं समय-समय पर आकर हमारा यात्रा पथ प्रशस्त करते रहें।’ ‘अभी स्वयं मोक्ष जाने के लिए जल्दी न करें, हमें भी साथ लेकर जाएँ'- ऐसे भाव मन में आते हैं। विश्वास है कि गुरुदेव हमेशा हमारा मार्गदर्शन करते रहेंगे। उनका जो भाव रहा, वह पूरा अपने जीवन में उतारने और उनकी भावना के अनुरूप आगे बढ़ने का प्रयास हम निरंतर करते रहेंगे। स्वयं मुक्ति के मार्ग पर चलकर हमें भी मुक्तिमार्गी बनाने वाले महान् गुरुदेव के चरणों में हम बारम्बार नमस्कार करते हैं। इस जीवन में और जीवन में आगे भी उन्हीं जैसी शांति, समाधि, विशालता, कृतज्ञता और सहकारिता हमारे अंदर आए और हम उनके बताए मार्ग का अनुसरण करते हुए धन्यता का अनुभव करते रहें।

     

    ऐसे श्री ज्ञानसागरजी महाराज के चरणों में बारंबार नमोऽस्तु करता हूँ। आज भले ही परोक्ष करता हूँ, लेकिन वे परोक्ष नहीं हैं। हमारे लिये तो वे हमेशा प्रत्यक्ष हैं। गुरु महाराज ने क्या नहीं दिया, हमने क्या लिया यह अनिवार्य है। सागर बहुत लम्बा-चौड़ा रहता है। हमारी प्यास बुझाने के लिए चुल्लुभर जल पर्याप्त हो जाता है। हमने कहाँ तक पानी पिया, ये समझने की बात है। बारबार सोचता हूँ, “मैं अब उन जैसा बनूँ। ये सोचता हूँ क्या मिला, क्या लिया, उसका उपयोग कहाँ तक किया?” आचार्य महाराज मुमुक्षु थे और हमारे लिए मोक्षमार्ग के प्रदर्शन हेतु नेता थे। आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी, आचार्य श्री अमृतचंद्र और आचार्य श्री जयसेन महाराज को स्मृति में लाते हुए आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज को इस काव्य के माध्यम से श्रद्धाञ्जलि अर्पित करता हूँ।

     

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    तरणि ज्ञानसागर गुरो, तारो मुझे ऋषीश।

    करुणा कर करुणा करो, कर से दो आशीष॥

    अंत में ये ही भावना है कि ‘हे गुरुवर! आप जैसी सल्लेखना मेरी भी हो...।’

     

    हमको ये यकीन है

    तेरे साथ चल रहे हैं

    तेरी कृपा से सत्गुरु

    अब भी तो पल रहे हैं

    बन कर के ज्ञान...चन्द्रमा

    देते प्रकाश हो,

    तुम तो यहीं कहीं सत्गुरु

    मेरे आस-पास हो

    आते नजर नहीं पर

    मेरे साथ-साथ हो।


    वे तो धन्य थे ही, हम अपने आपको भी धन्य समझते हैं कि उन्होंने अपने पास रखते

    हुए हमें ऐसी उत्कृष्ट सल्लेखना भी दिखा दी।


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