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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. राजस्थान प्रान्त में प्रगति की पात पर अग्रसर एक लघु नगर है। राणोली। आज यह लघु नगर है, किन्तु उस समय जब वहाँ एक महान आत्मा का जन्म हुआ था, तब था वह एक सामान्य ग्राम। भारत वर्ष के अनेक ग्रामों की तरह एक निरा देहात। ग्राम का मुख्यालय तब सीकर था। राणोली के मुख्य मार्ग पर पत्थर पाटे गये हैं, उपमार्गों पर चीखें (फलेग स्टोन) शेष समस्त मार्ग राजस्थान की प्रसिद्ध रेत को अपने वक्ष पर धरे अतीत की कहानी बतलाते हैं। खेतों में रेत मिश्रित भूरी माटी प्रतिवर्ष फसलों की सौगात देती है। आम मकानों, भवनों और झोपड़ियों की बनावट से राजपूताने की संस्कृति और शैली झाँकती है। प्रमुख भवनों और राजमहल की शिल्प पर मुगलकालीन प्रभाव है, जैसे राजपूत के दरबार में मुगल-कला की कालीन बिछी हुई हो। राणोली का प्रसिद्ध राजमहल वहाँ आज भी है और अपनी प्राचीनता की गाथा सुनाने में सक्षम है। राजमहल के समीप ही, मुख्य द्वार से हटकर एक हवेली है, जो त्रि-खण्डीय है, तीनों खण्ड में सोलह कक्ष हैं, जिनमें खण्डेलवाल (जैन) वंश का इतिहास गुम्फित है। गाँव में कुछ गलियाँ समतल हैं तो कुछ ऊँची-नीची। राजमहल के एक ओर बाजार का स्थान है जहाँ साप्ताहिक बाजार भरता है। ग्राम के उत्तर में लघु सरिता बहती है जिसका नाम खारी (नदी) है। यह नाम भी उतना ही प्राचीन है जितना राणोली का नाम। बरसात के दिनों में मेघों का वात्सल्य पाकर नदी चंचल हो पड़ती है, तब उसका पानी ऊधमी छोरों की तरह दौड़ता-सा राजमहल के प्रांगण में आकर खेलने लगता है। जब पानी राजमहल को स्पर्श कर लेना चाहता है, तो हवेली को भी क्यों न छुएगा ! हवेली के उत्तर में, कुछ ही दूरी पर एक विशाल जिनमंदिर अवस्थित है है यह प्राचीन जैनधर्म का संगीत सुना रहा है। पूजा के मीठे शब्द और धूप की सुहानी महक सहस्रों वर्ष से दे रहा है। राणोली की आग्नेय दिशा (मानें पूर्व-दक्षिण) में महानगर जयपुर है। यह मार्ग बड़ा प्यारा है, आत्मीय है, क्योंकि यह राणोली के अलावा यात्री को मदनगंज किशनगढ़ तो पहुँचाता ही है, अजमेर भी पहुँचाता है, नसीराबाद भी पहुँचा देता है और ब्यावर भी पहुँचाता है। राणोली की नैऋत्य दिशा में, कहें पश्चिम-दक्षिण में, सीकर नगर है। यह भी मात्र १९ किलोमीटर पर उद्योग और कृषि की दिशा में भी राणोली प्रगति पर है, जहाँ का आम नागरिक सादगी-पसन्द है और श्रम की दिशा में है। सीकर जिले के लघु ग्राम राणोली को महानताओं के नक्शे पर एक दिन चमकना ही था, सो वह दिन भी आया वहाँ। सन् १८९१ की शिशिर ऋतु का प्रसंग है। (विक्रम संवत १९४८ माह माघ) आकाश से शीत बरस रही थी और उस शीत/ठंडक को धरती पर मीलोंमील तक फैली भूरी रेत अपना स्पर्श देकर और दूना ठंडा कर पुन: प्रकृति को लौटा रही थी। लोग रात तो रात, दिन में भी कम्बल ओढ़े रहते थे। जिन्हें अपने कृषि-कार्यों से घर से निकलना पड़ता था, वे कान बाँधकर ही बाहर आते थे। ठंड का साम्राज्य पूरे देश पर चल रहा था,अत: राणोली कहाँ बच सकता था। यह पृथक बात है कि रेतयुक्त भूमि के लिए प्रसिद्ध सम्पूर्ण इलाके में राणोली की रेत कुछ अधिक ठंडक देती लग रही थी। एक दिन मध्याह्न में ही मंदिरजी में किन्हीं पंडितजी की शास्त्र सभा चल रही थी, घृतवरी श्रोता-समूह में बैठी ध्यान से सुन रही थीं, तभी पेट किंचित् पीड़ा के साथ हलचल हुई, वे चुपचाप उठीं और सीधी अपनी हवेली में आ गईं। जन्म-जन्म होता है, चाहे वह रात में हो या दिन में, नगर में हो या गाँव में। राणोली के चतुर नागरिक श्री चतुर्भुज जी जैन (छाबड़ा) के परिवार में उस दिन वातावरण शान्त न था। मुहल्ले की परिचित महिलायें उनके घर में बार-बार आ रही थीं। वे आती, मुँह तक ओढ़े हुए घर के भीतर जातीं, वहाँ उपस्थित चतुर्भुजजी की धर्मपत्नी श्रीमती घृतवरी देवी से वार्ता करतीं, कुछ धैर्य-सा बँधातीं और लौट जातीं। घृतवरीजी गर्भवती थीं, प्रसवकाल सन्निकट था। अत: पास-पड़ोस की हितैषी महिलायें एक किस्म से उनकी देख-रेख में सहायक हो रही थीं। चतुर्भुजजी के कर्ण कोई संदेश सुनने के लिये उतावले हो रहे थे, परन्तु घर के भीतर से लौटती माताएँ चुपचाप लौट रही थीं, कोई खुशखबरी नहीं सुनाती थीं। पल लम्बे लग रहे थे। मिनिट घंटों का रूप धारण कर बीत रहे थे। तभी भीतर से घृतवरीजी के कराहने की आवाज कुछ तेज हो पड़ी। चतुर्भुजजी अपने प्रथम पुत्र छगन को बाहर खेल आने के लिए सामझा रहे थे। वह तीन वर्ष का था। छगन का मन उस रोज खेल में नहीं लग रहा था, वह तो घर के भीतर से आती अपनी माता की कराह सुन - सुन चकित था। बालक ने पूछा क्या हो गया है माई को। पिता ने समझाया ज्वर चढ़ा है, सिर में दर्द है, पेट में दर्द है, इसलिये चीख रही है। बालक बालक था, जो समझाया, वह मान लिया। तब तक भीतर से नन्हें शिशु के रोने की आवाज आई। प्रसव कराने वाली प्रौढ़ धाया कूदती-फुदकती-सी बाहर आयी और चतुर्भुजजी की ओर देख, हँसकर बोली- “भाई, तेरे घर दूसरा छोरा आ गया है। आनन्द मना धाया से संदेश सुन चतुर्भुज हँस पड़े, फिर पूछने लगे - दोनों स्वस्थ हैं ? हाँ जी, दोनों ठीक हैं। उत्तर सुन चतुर्भुज को संतोष हुआ। वे आवश्यक कार्यों में लग गये। (कुछ लोगों का कहना है कि उस वक्त घृतवरी देवी को जुड़वाँ पुत्र प्राप्त हुए थे, किन्तु जन्म के ६ माह बाद ही एक ठंडा पड़ गया था और दूसरा जीवित रह गया था, जो भूरामल के नाम से विख्यात हुआ) कुछ ही समय के बाद घर का कोलाहल शांत हो गया। सभी जन अपने-अपने कार्यों में लग गये। वातावरण ऐसा हो गया, जैसे कुछ हुआ ही न हो। सुख-दु:ख, आनन्द-पीड़ा से परे एक सामान्य वातावरण बन गया था उनके घर में। माता घृतवरी बच्चे का मुख देख रही थी - गोरे रंग का शिशु, अपने बड़े भाई छगन की तरह ही चेहरा लेकर आया था। माता निहारती रही। फिर अचानक बुदबुदायी - ये तो बिलकुल भूरा है, भूरा। माता की बलिहारी कि सोने जैसे प्रखर रंग-रूपवाले पुत्र को सोनेलाल या हीरालाल नहीं बोली। अपनी वस्तु को अपने ही मुँह से श्रेष्ठ कहने का चलन इस देश में नहीं रहा है। सो भला वह भोली माँ उस परम्परा को कैसे तोड़ती ? कैसे कहती वह अपने मुख से कि उसने सूर्य की तरह आभावाला पुत्ररत्न जन्मा है? कैसे कहती वह कि उसके पुत्र के चेहरे की लुनाई को देखकर देवगण भी झिझक सकते थे ? अपने गर्भ से नि:सृत हीरा को उस भोली माता ने हीरा भी नहीं कहा, उसने तो सहज ही कह दिया था - भूरा। पिता ने जब दृष्टि पसारी नवजात शिशु के चेहरे पर, तो वे भी न कह सके कि उनके घर देवोपम बालदेव ने जन्म लिया है। वे भी उसकी देह के रंग को देखकर उसे “भूरा” कहकर निश्चिन्त हो गये। मगर चतुर्भुजजी अपने नेत्रों से एक सत्य देख चुके थे उसी क्षण उन्होंने देखा कि नवजात शिशु भूरा के नाभि-नाल आपस में जुड़े हुए नहीं थे। वे पृथक्-पृथक् थे। शिशु जन्मते ही रोया भी नहीं था। अत: पहले आत्मतसल्ली के लिये चतुर्भुजजी ने वैद्यराजजी को बुलाया, उन्हें शिशु दिखाया। वैद्य ने अवलोकन के बाद सबको निश्चिन्त कर दिया, बोले डरने की बात नहीं है, प्रसव क्रिया सामान्य रही है, बालक को कोई तकलीफ नहीं है। वैद्य चला गया, परन्तु चतुर्भुजजी विचार करते रहे, उन्हें शिशु की स्थिति से बोध लगा कि यह पिंडरोगी नहीं रहेगा, काफी उम्र तक स्वस्थ एवं कर्मठ रहेगा तथा संसार के मायावी द्वन्द्व-फन्द से पृथक् रहेगा। रिश्तेदारों का आगमन। पड़ोसियों का आगमन। कहें रोज किसी न किसी का आगमन। हर व्यक्ति माता द्वारा सम्बोधित शब्द “भूरा” कह कर उसका गौरव-वर्धन करता और चला जाता। कालान्तर में शिशु का नाम भूरामल पड़ गया। भूरामल का दूसरा नाम शान्तिकुमार भी था।
  2. निर्मलकुमार पाटोदी,इंदौर : वर्षों पूर्व यहाँ हमारी चातुर्मास हुआ था। उसका स्मरण ताज़ा हो रहा है। आपकी बहुत सालों से भावना थी, आशीर्वाद की। आज की प्रात:काल की पूर्णिमा के मंगल अवसर पर इंदौर में भी आर्यिका के सानिध्य में शिलान्यास होने जा रहा है। वे लोग यहाँ के शिलान्यास का स्मरण कर रहे हैं। कार्य वहाँ का भी सानंद सम्पन्न हो जाए, आशीर्वाद उनके मिल रहा है। गुरु जी ने संघ को गुरुकुल बनाने का कहा था। यहाँ से धर्म-ध्यान मिलता है। हमें गुरु जी का जो आशीर्वाद मिला है, वरदान मिला है। गुरु जी की की जहाँ पर कृपा होती है, वहाँ पर माँगलिक कार्य होता है। भावों के साथ यहाँ की जनता तपस्या रत थी। भावों के साथ तन-मन-धन के साथ अपने भावों की वर्षा की है। आज पूर्णिमा है, वह भी रविवार को आ गई है। तिथियाँ अतिथियों को बुला लेती है। गुरु जी ने सल्लेखना के समय हमसे कहा था हमने पूछा था, हमें आगे क्या करना है ? उन्होंने कहा था जो होता है, जिसका पुण्य जैसा होता है, उसकी भावना बलवती होती रहती है। यहाँ का कार्य सम्पन्न है। आज हर मांमलिक कार्य, आप लोगों की भावना, उत्साह को देख कर, कार्य को करने को कटिबद्ध हो गए हैं। वैसे काम छोटा लगता है लेकिन काम की गहराई की नाप भी निकाली जाती है, भावों की गहराई भी देखी जाती है। कल पाँच-छ: महाराज जी आ गए हैं, उनका भी समागम हो गया है। भावों में कभी दरिद्रता नहीं रखी जाना चाहिए। बुन्देलखण्ड बाहर के प्रदेशवालों को प्रेरित करता रहता है। यहाँ के लोगों का समूह ने उदारता के साथ जो धनराशि दी है, यह गौरव का विषय है। जजों कुछ अधुरा है, पूर्ण होने जा रहा है। जैन जगत जागरुक है समर्पित है। करोड़ों रुपए बड़े बाबा के पास आ गए और आते जा रहे हैं। जनता अभी थकी नहीं है। सात्विक भोजन हो रहा है। बच्चों को आगे के जीवन में और अच्छे संस्कार बढ़ाते जाए। सहयोग बहुत दूर से भी मिल रहा है। देव भी उनके चरणों में सहयोग वहाँ देते रहते हैं। उनके चरणों में रहते हैं। जहाँ, दया, धर्म, संस्कार, अहिंसा धर्म की विजय होती है, वे सहयोग में रहते हैं। यहाँ पर आस पास छोटे-छोटे गाँवों में चार-पाँच हज़ार समाज के घर हैं। यहाँ के लोगों ने बीड़ा उठाया है। उत्साह के साथ आए हैं और आवेंगे। अभी मंगलाचरण हुआ है। यहाँ पर प्रतिभा स्थली की पूर्व पीठिका की कार्य स्थली बनी है। सेवा की गतिविधियाँ ब्रह्मचारिणी सम्हालेंगी। अध्ययन के साथ संचालन करेंगी। एकाध महिने का समय बचा है। निवृत्त होकर मंगलाचरण बढ़ावेंगी। इंदौर में शिलान्यास सम्पन्न होकर के तैयार हो रहा है। वे यहाँ पर भी आई हैं। ११० छात्राओं के आवेदन आए हैं। ५४ आवेदनों का चयन हो गया है। यह आँकड़ा ९ का है अखण्ड है। यह संख्या उत्साह का कार्य है। रात-दिन एक कर के अपनी भावनाएँ उँड़ेल कर के कार्य अवश्य तैयार करेंगे। यह सब कुछ गुरुदेव की कृपा से हो रहा है। हम तो बीच में आ कर लाभ ले रहे हैं। मूल स्त्रोत तो गुरु जी ही हैं। हमें फल की इच्छा नहीं है। लेकिन उत्साह गुरु जी से मिलता रहता है। आप अपकी उत्साह, भावना, प्रवृत्ति बढ़ती चली जाए।
  3. सूर्य के समान दैदीप्यमान आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के आरंभिक जीवन में ऐसी कौन-सी दिव्यता-भव्यता रही, जिस कारण वे माता-पिता की द्वितीय संतान ( जीवित संतानों की अपेक्षा) होकर अद्वितीयता का कीर्तिमान स्थापित करते हुए, श्रमण संस्कृति रूपी अंगूठी के जगमगाते नगीने बन गए। नगीने की चमक के समान उनके बचपन से लेकर ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करने तक के दिव्य-भव्य कुछ प्रसंगों को प्रस्तुत पाठ में दर्शाया जा रहा है। माँ की कोख बनी मंदिर - जैसे सूर्योदय होने के पूर्व लालिमा आ जाती है, ऐसे ही महापुरुषों के आने से पूर्व शुभ संकेत हो जाया करते हैं, क्योंकि ‘अचिन्त्यो हि महात्मनां प्रभावः’ अर्थात् महात्माओं का प्रभाव अचिन्त्य होता है। इसी तरह संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज का जीव जब गर्भ में आया, तब उनके माता-पिता को भी स्वप्न के द्वारा शुभ संकेत हुए। माँ (अक्का) श्रीमंतीजी ने एक के बाद एक, तीन स्वप्न देखे। पहला- दूर से एक चक्र घूमता हुआ उनकी ओर आ रहा है और वह पास आकर उनके कक्ष में रुक गया। दूसरा- चक्र रुका ही था कि अगले ही पल बादलों के बीच से श्रीमंतीजी के भवन की ओर दो तीर्थंकर भगवान् चले आ रहे हैं। तीसरा- उनके पीछे दो चारण ऋद्धिधारी मुनिराज चले आ रहे हैं। और माँ श्रीमंतीजी उन दोनों मुनिराजों को नवधा भक्ति पूर्वक पड़गाहन कर आहार दे रही हैं। जब श्रीमंतीजी ने अपना स्वप्न मल्लप्पाजी को सुनाया, तब वे भी मन ही मन थिरक उठे। बोले कुछ नहीं, उन्हें भी अपना स्वप्न स्मरण हो आया, मैंने भी तो एक स्वप्न देखा था। मैं आम के वृक्ष के नीचे खड़ा हूँ। झाड़ियों से एक सिंह दहाड़कर दौड़ता हुआ आया और हमारे मुख में प्रवेश कर गया। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा रह गया। उन स्वप्नों को देखकर माँ श्रीमंतीजी तो अपने आप में खो-सी गई, और मल्लप्पाजी ने, न जाने कैसे-कैसे स्वप्न आते हैं, कह कर टाल दिया। पर जब उन्होंने अपने बालक विद्याधर को महाश्रमण आचार्य श्री विद्यासागरजी के रूप में पाया। तब स्पष्ट हुआ कि वे स्वप्न तो दिव्य-भव्य पुरुष रूपी बीज के वपन की पूर्व सूचनाएँ थीं। माता द्वारा देखे गए स्वप्नों की तीन संख्या सूचित कर रही थी, कि वह ‘रत्नत्रय' का धारी होगा। ‘चक्र' देखने से, वह धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करने वाला होगा। और तीर्थंकर की मुद्रा देखने से, वह तीर्थंकर के मार्ग का अनुगामी होगा। एवं चारण ऋद्धिधारी मुनिराजों के आगमन को देखने से वह विशुद्ध चर्या का पालनकर्ता होगा। इसी प्रकार स्वप्न में पिता द्वारा मुख में सिंह का प्रवेश करते हुए देखना स्पष्ट संकेत कर रहा था कि उनके परिवार में आने वाला जीव आध्यात्मिक सिंह के रूप में सृष्टि पर विचरण करता हुआ, आप सभी पारिवारिक सदस्यों को आध्यात्मिकता में समाहित करने की सामर्थ्य वाला होगा। इस तरह बालक विद्याधर के गर्भ में आने से पूर्व माता-पिता ने शुभ सूचक स्वप्न देखे। आध्यात्मिक संत आचार्य श्री विद्यासागरजी जैसे पुण्य पुरुष के जीव को गर्भ में धारण कर माँ की कोख मंदिर बन गई। पूनम का जीवंत चाँद पा, खिल-खिला उठा घर-आँगन दिव्य पुरुष का जन्म - अष्टगे परिवार की जीवित संतानों की अपेक्षा पहली संतान (महावीर) के जन्म के समय माँ की स्थिति अत्यंत बिगड़ गई थी। उन्हें सँभालना मुश्किल हो गया था। इससे निर्णय लिया गया, कि इस बार संतान का जन्म अस्पताल में कराएँगे। दूध का जला हुआ व्यक्ति छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है। अतः अष्टगे परिवार की दूसरी संतान का जन्म सदलगा के पास चिक्कोड़ी ग्राम स्थित शासकिय चिकित्सालय में हुआ। चिकित्सालय के अधिकारी बच्चे की सुंदरता को देखकर बोले- ‘आपने कितनी सुंदर संतान को जन्म दिया है। यह द्वितीय होकर भी अद्वितीय है।' नर्स (परिचारिका) ने जब नवजात शिशु का वजन किया, तब बच्चे को ७ पौंड का पाया। वह बोली- “यह वजन तो निरोगता का लक्षण है। स्वस्थ होने का सूचक है। इसीलिए आपका बच्चा जीवन पर्यंत निरोग/स्वस्थ रहेगा।' किसे पता था, कि वह जीवन पर्यंत स्वस्थ अर्थात् अपने में स्थित (आत्मस्थ) रहने वाला होगा। नामकरण - सदलगा से ३० किलोमीटर की दूरी पर अक्किवाट (अकिवाट, कोल्हापुर, महाराष्ट्र) नामक एक ग्राम है। वहाँ पर प्रसिद्ध ऋद्धिधारी, चमत्कारी, भट्टारक मुनि श्री विद्यासागरजी की समाधि स्थली बनी हुई है। वर्तमान के कर्नाटक प्रांत में आपके विषय में प्रसिद्धि है कि उन्हें अपनी साधना के बल पर अनेक शक्तियाँ प्राप्त थीं। एक बार दिल्ली में मुगलशासक द्वारा जैन समाज पर बड़ा भारी धर्म संकट उपस्थित हो गया। यदि शासन के नियमों के अनुकूल पालन करते हैं, तो धर्म संकट उपस्थित होता है। यदि नहीं करते, तो शासन की आज्ञा के उल्लंघन का दण्ड भोगना पड़ेगा। ऐसे में जैन समाज ने शासन के नियमों के पालन करने के लिए शासन से कुछ दिनों की मोहलत प्राप्त की। समाज को ज्ञात हुआ कि अक्किवाट नामक ग्राम में विराजमान मुनि श्री विद्यासागरजी, उन्हें इस संकट से निकाल सकते हैं। दिल्ली से जैन समाज के लोग लगभग एक हजार किलोमीटर की दूरी एक माह में बैलगाड़ी से पूर्ण कर, अक्किवाट ग्राम पहुँचे। उन्होंने अपनी सारी घटना अश्रुधारा बहाते हुए मुनिश्री को सुना दी। मुनिश्री मौन रहे। ऐसी स्थिति में कुछ लोगों ने श्रावकों के व्रत ग्रहण कर लिए, कुछ लोग दीक्षा माँगने लगे और कुछ लोग कहने लगे अब हम दिल्ली नहीं जाएँगे। यहीं नौकरी-चाकरी कर लेंगे। इस तरह सात दिन निकल गए, समाज चिंतित हो गई। श्रावकों ने अवरुद्ध कंठ से पुनः निवेदन किया। समय जा रहा है, मात्र दो ही दिन शेष हैं। इतना लंबा रास्ता है। कैसे होगा ? महाराजश्रीजी ने आशीर्वाद दिया और बोले- ‘सब अच्छा हो जाएगा।' दिल्ली जैन समाज के दुःखी एवं चिंतित साठ श्रावक रात्रि में चर्चा करते-करते कब सो गए, उन्हें पता ही नहीं चला। प्रातः आँख खुली, तो देखा कि वे मुनि श्री विद्यासागरजी सहित दिल्ली में किले के प्रांगण में हैं। उनके आश्चर्य एवं हर्ष का ठिकाना नहीं रहा। यह खबर सर्वत्र फैल गई। सारी दिल्ली उमड़ पड़ी। बादशाह भी भेंट लेकर आए। भेंट की थाली में मांस का टुकड़ा सुंदर वस्त्र से ढक कर लाए। उसे भेंट करते हुए मुनिश्री से पूछा- ‘इस थाल में क्या है?’ मुनिश्रीजी ने कहा-‘कमल के फूल।’ वे सब हँसने लगे, पर जब वस्त्र हटाया तब मांस के टुकड़े की जगह कमल के पुष्प देखकर बादशाह आश्चर्य में पड़ गए। इसी तरह एक बार उन्होंने अमावस्या के दिन को पूनम करके बतलाया था। इन चमत्कारों को देखकर बादशाह शर्मिंदा हुआ और मुनिश्री से क्षमा माँगी। यह भी किंवदंति है कि उन्होंने अपनी समाधि के स्थान का चयन करने के लिए नींबू मंत्रित करके फेंका था। वह अक्किवाट में जाकर गिरा था। वहाँ पर ही उनकी समाधि हुई। समाधि स्थली के विषय में मान्यता है, कि यहाँ पर मनोभावनाएँ पूर्ण होती हैं। आज भी प्रत्येक अमावस्या के दिन मेला भरता है। सच्चा धर्मी प्रभु पूजन से किसी प्रकार की आकांक्षा नहीं रखता। पर जब वह संकट में आता है, तब प्रभु एवं गुरु को ही पुकारता है। ऐसा ही हुआ माँ श्रीमंतीजी के साथ। उनके बड़े पुत्र महावीर दो वर्ष के होंगे। तब उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया। बचने की आशा नहीं थी। ऐसे में श्रीमंतीजी ने मुनि श्री की समाधिस्थली पर प्रार्थना की और संकल्प किया कि वे प्रत्येक पाँच अमावस्या को पाँच नारियल चढ़ाएँगी और पूजन व शांति विधान करके गरीबों को भोजन कराएँगी। उनकी प्रार्थना पूर्ण हुई। महावीर ठीक हो गए। इन्हीं पाँच अमावस्या के दिनों में श्रीमंतीजी के गर्भ में दूसरी संतान आ गई। माता-पिता ने इस दूसरी संतान का नाम इन भट्टारक मुनि विद्यासागर की स्मृति में विद्याधर रखा। विद्याधर के अपर नाम - बचपन में विद्याधर पाँच-पाँच नामों के धारी थे। विद्याधर, पीलू, गिनी, तोता और मरी । दक्षिण प्रांत में छोटे बच्चों को लाड़ प्यार में पीलू कहा जाता है। माँ विद्याधर को पीलू कहकर बुलाती थीं। विद्याधर ने जब बोलना शुरू किया, तब अत्यंत मधुर, मिश्री जैसी मीठी आवाज सुनकर अड़ोस-पड़ोस के लोग उन्हें गिनी कहने लगे। कन्नड़ भाषा का गिनी, हिन्दी भाषा में तोता कहलाता है। जिससे उन्हें तोता कहकर भी बुलाया जाने लगा। उनकी गोल-मटोल सुंदर, आकर्षक कद-काठी को देखकर कोई उन्हें मरी कह देता। कन्नड़ में मरी का अर्थ छोटा होता है। इसी तरह तीर्थंकर वर्धमान स्वामी के जैसे ‘वर्तमान के वर्धमान’ (आचार्यश्रीजी) भी पाँच-पाँच नामों के धारी थे। और वर्तमान में वह गणनातीत नामों से ख्यात हो रहे हैं। जैसा चढ़ाया, वैसा पाया - जिसके प्रति हमारी जितनी श्रद्धा-भक्ति रहती है, उसके प्रति समर्पण की भावना भी उतनी ही होती है। और समर्पण में अर्पण करने की कोई सीमा नहीं होती। ऐसे भक्तिपूर्वक किए गए अर्पण से संचित पुण्य के द्वारा क्या प्राप्त नहीं होता। मल्लप्पाजी भी ऐसे ही समर्पित भक्तों में से थे। वे पाँच वर्ष तक संकल्प पूर्वक प्रत्येक अमावस्या के दिन २५ किलो मीटर की दूरी पर स्थित ‘स्तवनिधि' नामक क्षेत्र के दर्शन करने जाते थे, और पाँच श्रीफल चढ़ाकर अरहंत प्रभु के चरणों में अर्थ्य समर्पित करते थे। वे नियमित की जाने वाली पूजन में भी उत्तम से उत्तम द्रव्य चढ़ाते थे। देव-शास्त्र-गुरु की अनाकांक्षित भाव से की गई भक्ति से संचित पुण्य का फल है कि उनके आँगन में तीर्थंकर बालक जैसे विद्याधर बालक का जन्म हुआ। गाँव के लोग कहा करते थे-“अरे ! प्रभु के प्रति उनकी भक्ति निराली है। प्रभु चरणों में उत्तम अर्घ्य चढ़ाने के फलस्वरूप ही उन्हें उत्तम संतान की प्राप्ति हुई।” जो ध्याया, वो पाया - पूजा के भाव, परिणामों की निर्मलता एवं शुभ क्रियाओं के प्रति उत्सुकता आदि आश्चर्यजनक परिणाम भगवान् की भक्ति देती है। तभी तो भावना भवनाशनी,'यहाँ तक कह दिया है। एक बार गाँव के अनेक लोगों ने माँ श्रीमंतीजी से पूछा कि सभी भाई-बहनों में विद्याधर इतने सुंदर कैसे हैं? तो माँ श्रीमंतीजी ने कहा- ‘जब बालक विद्याधर गर्भ में आए थे, तब मुझे भगवान् बाहुबली के दर्शन व पूजन की तीव्र इच्छा हुई थी। और पूजन भक्ति से जो पुण्य का संचय हुआ, उसके परिणाम स्वरूप सुंदर बालक उत्पन्न हुआ। सच्चे मन से हम जिनकी आराधना करते हैं, तब उनके पास जो होता है, वह हमें प्राप्त हो ही जाता है। भगवान् श्री बाहुबलीजी कामदेव, कठोर तपस्वी एवं अपने भाई और पिता से ही पहले लक्ष्य को प्राप्त करने वाले थे। माँ श्रीमंतीजी ने श्री बाहुबली स्वामी की आराधना से उनके समान सुंदर रूप वाला, दृढ़ साधक एवं पिता और भाइयों से पहले लक्ष्य को जानने वाला पुत्र प्राप्त किया। माँ की लोरी, त्वं शुद्धोऽसि..... - बालक विद्याधर का वह मनमोहक रूप माँ को उससे अलग होने का भाव नहीं करने देता है। घर के आँगन के पालने में लेटा-लेटा विद्याधर अपने पैर के अँगूठे को चूसते हुए किलकारियाँ ले रहा है। माँ कभी उसे उठाती, कभी झुलाती, कभी गाती और कभी झूम जाती। रूप-लावण्य के धनी अद्वितीय लाड़ले विद्याधर की किलकारियों पर, बलिहारी हो जाती माँ। उनके मधुर कंठ से स्वतः ही लोरी निकल पड़ती- ‘तू शुद्ध है, तू बुद्ध है, तू निर्विकल्प है, तू अविनाशी है, निर्विकारी है, तू अनंतगुणी विलासी है, झूलत चेतन में.....। माँ की इन अध्यात्म से परिपूर्ण लोरियों, भजनों ने विद्या के अंत में अध्यात्म का सागर भर दिया। आज वह विद्या के सागर बनकर सबको अध्यात्म का मधुर गान सुनाकर वैराग्य पथ पर अग्रसर कर रहे हैं। मुनि एवं पिच्छी देख होते आकर्षित - विद्याधर के जीव ने एक नहीं, कई जन्मों के पुण्य को संचित कर जन्म लिया होगा। तभी उनके बचपन की अठखेलियाँ सामान्य बच्चों से कुछ अलग ही थीं। जब विद्याधर गर्भ में आए, तब माँ को मुनि दर्शन की चाह बनी रहती थी। आस-पास कहीं साधु होते तो वे स्वयं को जाने से रोक नहीं पातीं। अबोध दशा में भी विद्याधर मुनियों को देख उनकी ओर आकर्षित होने लगे। बोलना सीखे ही थे, कि मुनियों को देख नमोऽस्तु-नमोऽस्तु बोलने लगे। उन्हें सिखाना नहीं पड़ा। मयूर पिच्छी से विशेष लगाव था। जहाँ बच्चे मयूर पंख या पिच्छी को देख डर जाते हैं, वहीं वह पिच्छी को देख, उसे सर पर लगाने का इशारा करते। उसे हाथ में लेने की कोशिश करते और वापस लेने पर रोने लग जाते थे। यदि कभी कोई मुनिराज पिच्छी दिखाकर पूछते कि पिच्छी चाहिए, तो अपने दोनों हाथों को ऐसी उत्सुकता से फैलाते मानो कह रहे हों, विलम्ब न करें। आज आचार्यश्रीजी को देखकर लगता है कि बचपन में मुनि एवं पिच्छी का वह आकर्षण, मोक्ष पथ के प्रति आकर्षण का ही द्योतक था। बचपन के शुभ लक्षण, लक्ष्य को पाने वाले विलक्षण व्यक्ति की ओर संकेत करते हैं। भगवान् जैसा सुंदर रूप - जहाँ पर पुण्य वास करता है वहाँ अनायास ही मनमोहकता आ जाती है। वह सबको प्रिय एवं सुंदर लगता है। जब विद्याधर ढाई वर्ष के थे, तब अपने माता-पिता के साथ गोम्मटेश यात्रा पर गए थे। उस समय यात्रियों में से किसी ने कहा- ‘तुम्हारा बेटा विद्याधर भगवान् जैसा मनोज्ञ एवं सुंदर दिखता है, उसे भगवान् के पास बैठा दो।’ इसी प्रकार आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज द्वारा जब बालक विद्याधर का मुँजीबंधन संस्कार हो रहा था, तब आचार्य श्री अनंतकीर्ति महाराज से दीक्षित आर्यिका विमलमति माताजी ने कहा- ‘विद्याधर ! अब तुम सचमुच में भगवान् जैसे दिखने लगे हो। तुम अब घर जाओ।’ घर आकर विद्याधर माँ से बोले- ‘मुझे माताजी ने भगवान् कहा’, ऐसा बार-बार बोलकर वह खुश होते रहे। बचपन में लोगों के मुँह बोले भगवान् सचमुच में आचार्य भगवन् बन, उच्च सिंहासन पर आरूढ़ होकर, हमें बोधि और बोध प्रदान कर रहे हैं। पीलू की चेष्टा, अन्ना-अक्का चकित - एक बार मंदिरजी में वेदी के सामने माँ ने पीलू को गोद से उतार कर खड़ा कर दिया और स्वयं दर्शन-पूजन करने लगीं। पीलू ने अपनी तोते-सी मीठी आवाज में भगवान् को त्यै (जय) बोला, और खुश होकर धीरे-से वेदी पर चढ़ी बादाम को उठाकर अपनी शर्ट की जेब में रख लिया। सामने बैठे माता-पिता यह देखकर चकित रह गए कि पीलू ने बादाम जेब में रखी, मुख में नहीं। पीलू तो त्यै-त्यै (जय-जय) बोलने में मस्त रहे। इधर माँ ने नज़र बचाकर उसकी जेब से बादाम निकालकर वापस वेदी पर रख दी। बाल्यावस्था की अठखेलियाँ विद्याधर जन्म से ही सबके दुलारे थे। अपनी बालक्रीड़ाओं से परिवार, पड़ोस और सबको मुग्ध कर लेते थे। जो भी देखता, उसका मन स्वतः उनको खिलाने का हो जाता और वह भी बिना रोए-गाए सबके पास चले जाते। सुन्दर रूप-रंग, सुडोल, सम कद-काठी एवं प्रशस्त प्रकृतियों से संयुक्त वह बालक अपनी बाल अठखेलियों से सबको आनंदित कर रहा था। कर्नाटक प्रांत में साहित्यिक कन्नड़ भाषा में माता-पिता को ‘ताई-तंदे' एवं बोलचाल की भाषा में औवा-अप्पा' बोलते हैं। पर मल्लप्पाजी एवं श्रीमंतीजी की संतान अपने माता-पिता को औवाअप्पा के स्थान पर अक्का-अन्ना बोलते थे। अक्का यानी बड़ी बहन या भाभी एवं अन्ना यानी घर का मुखिया या बड़ा भाई। चूँकि मल्लप्पाजी के छोटे भाई-बहन अपने बड़े भाई (मल्लप्पाजी) को एवं भाभी (श्रीमंतीजी) को अक्का-अन्ना बोलते थे, जिसे सुनकर उनकी संतान भी उन्हें अक्का-अन्ना बोलने लगी। विद्याधर का विद्यालय प्रवेश - अन्नाजी (पिताजी) ने पाँच वर्ष की उम्र में विद्याधर का विद्यालय में दाखिला करा दिया। विद्यालय का नाम ‘कन्नड़ गन्डु मक्कड़ शालेय’ (कन्नड़ बालक प्राथमिक शाला), सदलगा था। वह घर से आधा किलो मीटर की दूरी पर था। प्रारंभ में अन्नाजी स्वयं स्कूल छोड़ने जाते थे। स्कूल के नाम से वह कभी रोते नहीं थे। उस समय स्कूल का समय दो भागों में निर्धारित था, प्रातः ७ से ११ बजे एवं दोपहर में भोजन के बाद २ से ५ बजे तक। विद्यार्थी बस्ते के स्थान पर एक बड़े से कपड़े में कॉपी किताबें लपेट कर ले जाते थे। बैठने के लिए अपनी टाटपट्टी भी साथ ले जाते थे। विद्यालय में सुबह सात बजे प्रार्थना होती थी। वह विद्यालय जहाँ विद्याधर का दाखिला हुआ शिक्षक द्वारा दिया गया पाठ प्रतिदिन सुना जाता था। एवं टोली बनाकर अपनी-अपनी कक्षा की सफ़ाई, गोबर से लिपाई आदि करनी होती थी। विद्यार्थियों को इन सभी कार्यों के तुरंत के तुरंत अंक दिए जाते थे। प्रत्येक विद्यार्थी ने दिनभर में कुल कितने अंक प्राप्त किए, घर जाते समय वह शिक्षक को लिखवाना होता था। कोई भी विद्यार्थी इसमें बेईमानी नहीं करता था। सप्ताह भर के अंकों के आधार पर प्रथम, द्वितीय व तृतीय स्थान दिया जाता था। प्रथम स्थान प्राप्त विद्यार्थी को अपनी कक्षा में हाज़िरी लगाने एवं आगे बैठने मिलता था। विद्याधर अपने किसी भी कार्य के प्रति आलस नहीं करते थे। जब कभी प्रार्थना में पहुँचने के लिए घर पर देर हो रही होती या माँ दूध दुह रही होती, तब वह बिना गर्म हुआ ही ताज़ा दूध पी लेते, पर प्रार्थना के समय स्कूल ज़रूर पहुँचते। इस पर भी यदि कभी उनका प्रथम स्थान नहीं लग पाता तो वह उदास हो जाते। माँ उन्हें समझाती कि आगे सावधानी रखोगे तो पुनः प्रथम स्थान लग जाएगा। छोटे से बड़ा बनाना सीखा - विद्याधर ने एक दिन स्कूल में अ, आ बनाना सीखा। दिन भर में सीखकर अपनी स्लेट को एक (फ़ छोटा ‘अ’ से तथा दूसरी तरफ़ बड़े ‘आ' से भरकर घर गए। घर आने पर माँ ने पूछा- ‘आ गए बेटा! स्कूल से।' वद्याधर बोले- ‘हाँ..माँ.. आ गया।’ माँ बोली- ‘आज क्या सीखा ?’ विद्याधर ने स्लेट के दोनों और लिखे छोटा ‘अ’ एवं बडा ‘आ' को दिखाते हुए कहा- ‘देखो माँ! आज हमने छोटे से बड़ा बनाना सीखा। ‘अ’...आ...ऽऽ..।’ उसके भोलेपन को देख माँ ने उसे अपनी गोदी में उठा लिया एवं कहा- ‘सचमुच तू एक दिन छोटे से बड़ा बनेगा | विद्याधर के मोती से अक्षर - विद्याधर का लेखन अत्यंत सुंदर था। एक-एक अक्षर मोती की तरह गोल-मटोल, स्पष्ट एवं साफ़-सुथरे दिखते थे। कॉपी पर काटा-पीटी न के बराबर ही होती थी। मैं भी बड़ा हूँ, मुझे भी नेहरू कहो - लगभग आठ-दस वर्ष की उम्र में विद्याधर ने पड़ोस में टॅगी नेहरूजी की फोटो देखकर माँ से पूछा- ‘यह कौन हैं ?’ माँ ने कहा-‘बेटा! यह अपने देश के बहुत बड़े आदमी हैं, ‘पंडित जवाहरलाल नेहरू।’ यह सुनते ही विद्याधर बोले- ‘माँ! मैं भी बड़ा आदमी हूँ। मुझे भी नेहरू कहा करो।’ उस समय माँ को क्या पता था कि यह नन्हा-सा बालक एक दिन श्रमण परंपरा में वर्तमान युग का बड़ा श्रमण' बनेगा। कंचे पर कंचा जमाना - बचपन में विद्याधर कंचा का खेल खेला करते थे। खेल-खेल में वह कंचों पर हल्की – हल्की धूल डाल कर एक के ऊपर एक नौ कंचे तक जमा लेते थे। जैन शास्त्रों में प्रसंग आता है कि आचार्य भद्रबाहु स्वामीजी ने भी बचपन में एक के ऊपर एक चौदह कंचे जमाए थे। तभी वहाँ से आचार्य श्री गोवर्धनस्वामीजी निकले उन्होंने अपने निमित्त ज्ञान से अनुमान लगा लिया कि वे ग्यारह अंग एवं चौदह पूर्वो के धारी बनेंगे। और हुआ भी वही। वह अंतिम श्रुत केवली बने, तो क्या विद्याधरजी का यह खेल भी भविष्य में उनके ब्रह्मचर्य के नवकोटि गुप्तिधारी मुनि बनने की सूचना दे रहा था। प्रवचन सुन, वपन हुआ वैराग्य का नन्हा-सा वट-बीज - जब विद्याधर ९ वर्ष के थे, उस समय उन्हें परिवार के साथ ‘शेडवाल' (बेलगाम, कर्नाटक) ग्राम में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी के दर्शन एवं प्रवचनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज ने श्रद्धा के द्वारा आत्मा कैसे उत्थान को प्राप्त होती है, इसे दो दृष्टांतों के माध्यम से समझाया। प्रथम दृष्टांत में उन्होंने एक ब्राह्मण एवं गड़रिया की कहानी सुनाई थी- एक ब्राह्मण पानी में डुबकी लगाकर जल-देवता की उपासना कर रहा था। यह देखकर बकरी चरा रहे एक गड़रिया ने भी मोक्ष प्राप्ति की भावना से जल में डुबकी लगा दी। और संकल्प कर लिया, कि जब तक जल-देवता दर्शन नहीं देंगे, तब तक बाहर नहीं आऊँगा। आखिरकार जलदेवता को प्रकट होकर उसे वरदान देना पड़ा। कथा तो कथा रूप में थी, जिसका सार था- जो जिसकी उपासना करता है, वह उसको प्राप्त कर सकता है। अपनी श्रद्धा दृढ़ होनी चाहिए। इसका प्रभाव गीली माटीसम विद्याधर के चित्त पर अमिट रूप से पड़ गया। दूसरा दृष्टांत देते हुए आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज ने कहा- दो भाई थे। दोनों व्यापार के लिए दूसरे गाँव गए। खूब धन कमाया। जब वापस लौट रहे थे, तब उनके मन में लालच आ गया। वे एक-दूसरे को मारने की योजना बनाने लगे। रास्ते में एक भाई ने दूसरे भाई से कहा- मैं भोजन लेकर आता हूँ।' जो भोजन लेने गया था, उसने तो बाजार में भोजन कर लिया और दूसरे भाई के भोजन में विष मिलाकर ले आया। जो भाई रास्ते में ठहरा था, उसके मन में भी आया कि भाई को धन में से एक पाई भी नहीं देना पड़े, इसलिए उसने भी उसे मारने के लिए बंदूक ले ली। जैसे ही भोजन लेकर भाई आया, तो उसने उसे गोली मार दी। और भाई जो भोजन लाया था, उसे खा लिया। विष वाला भोजन खाने से वह भी मर गया। दोनों भाईयों ने मरकर तीर्थराज श्री सम्मेद शिखरजी में बन्दर के रूप में जन्म लिया। संयोग से उनकी मृत्यु के समय किन्हीं मुनि महाराज ने उन्हें णमोकार मंत्र सुना दिया। जिससे उनका पूर्व का बैरभाव समाप्त हो गया। और वे दोनों स्वर्ग चले गए। इन उदाहरणों ने विद्याधर बालक की पूर्व से ही उपजाऊ आत्मभूमि में बीज वपन का कार्य किया। इस तरह विद्याधर के अंत में वपन हो जाता है वैराग्य का एक नन्हा-सा वट-बीज। आचार्यश्रीजी ने स्वयं आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की स्तुति लिखते समय अपने इन भावों की अभिव्यक्ति की है थे शेडवाल गुरुजी एक बार आए, इत्थं अहो सकल मानव को सुनाए। भारी प्रभाव मुझपे तव भारती का, देखो पड़ा इसलिए मुनि हूँ अभी का।।३३।। भक्तामर स्तोत्र कंठस्थ करना - विद्याधर जब चौथी कक्षा में पढ़ते थे, तब ‘भक्तामर स्तोत्र' उन्होंने कंठस्थ कर लिया था। सदलगा में मेला लगने वाला था। अन्नाजी ने बच्चों को प्रलोभन दिया कि जो भी भक्तामरजी का एक एक श्लोक याद करके सुनाएगा, उसे एक श्लोक के दो या चार आने दिए जाएँगे। मेला देखने के लिए उसके पास पैसे इकट्टे हो जाएँगे। अन्नाजी स्वयं भक्तामरजी का उच्चारण करवाने लगे। अन्नाजी जितना उच्चारण करवाते, विद्याधर उतना अगले दिन याद करके सुना देते। देखते ही देखते विद्याधर को भक्तामर कंठस्थ हो गया। बचपन से सहनशील एक दिन खेल-खेल में विद्याधर ने एक ऊँचे स्थान से छलाँग लगा दी। इससे उनके पंजे में लोहे के टीन का एक टुकड़ा आर-पार हो गया। यह देखकर उनके साथी घबड़ा गए, पर ‘विद्याधर' नहीं घबड़ाए। उन्होंने उसे खींचकर निकालने की कोशिश की, पर वह नहीं निकला। घर जाकर माँ से बोले ‘माँ! यह देखो, कैसे नट-बोल्ट की तरह कस गया है।’ देखकर माँ विह्वल हो गई। किसी तरह उस लोहे के नुकीले व लम्बे टुकड़े को निकलवाया। बहुत खून बहा। दो वर्ष तक दर्द रहा। उस समय वह लँगड़ाते हुए चलते थे। चित्रों में चित्त की झलकियाँ - ऐसा कौन-सा गुण था, जो बालक विद्याधर में वास न करता हो। वे एक कुशल चित्रकार भी थे। ग्यारह-बारह वर्ष की उम्र में ही ये रेखा चित्र बनाने लगे थे। विशेषकर महापुरुषों के चित्र बनाने में उनकी रुचि थी। उन्होंने भगवान् महावीर स्वामी, भगवान् बाहुबली स्वामी, सरस्वती देवी, लक्ष्मी देवी, महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद, सुभाषचंद्र बोस, झाँसी की रानी, हिरण्यकश्यप, महाराजा शिवाजी, सिपाही, किसान, घुड़सवार, एवं पशुपक्षियों आदि के लगभग ४० चित्र बनाए। चित्र बनाते समय वह राष्ट्रगीत या धार्मिक भजनगुन-गुनाते रहते थे। चित्र बनाने के बाद, उन्हें बड़े सँभालकर रखते थे। उनके द्वारा बनाए गए चित्र आज इस युग की एक महान् धरोहर हैं। शिल्पी का शिल्प उसकी अभिरुचि का परिचायक होता है। और बालक विद्याधर की अभिरुचि से स्पष्ट संकेत हो रहे थे कि वह कोई सामान्य बालक नहीं है। पर मातृत्व की छाँव तले प्रत्येक माँ को अपना बालक अलबेला नज़र आता है। सो उस समय यही समझ कर परिवार उनकी आनंददायी अठखेलियों का आनंद लेता रहा। आज समझ में आ रहा है कि उस ११/१२ वर्ष की इस छोटी सी उम्र में बनाए हुए चित्रों में महापुरुषों, नेताओं अथवा गरीब किसान को ही क्यों चुना गया। भाई, पिता, मित्र, माँ अथवा प्रकृति पर बिखरे अनंत प्रकल्पों में से किसी को भी चुना जा सकता था। चुनाव तो व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति का सुलभ साधन है। इसलिए वह चित्र, चित्र न होकर विद्याधर के चित्त (मन) की झलकियाँ थीं। खुद से सीखी घुड़सवारी - कर्मों को काटने की सामर्थ्य लेकर जन्म लेने वाले बालक की प्रत्येक क्रिया आश्चर्य उत्पन्न करती है। विद्याधर भी ऐसे ही थे। किसी भी कार्य को करने से पूर्व उन्हें सिखाना नहीं पड़ता था। देख लिया और आ गया। घुड़सवारी करना भी उन्होंने देखकर ही सीखी थी। एक व्यक्ति उनके खेत पर घोड़ा लेकर आता था। वह व्यक्ति तो घोड़े के पैर को बाँध कर बिना लगाम के ही उसे खेत में छोड़कर काम पर लग जाता था। विद्याधर निर्भय होकर स्वयं से ही उस घोड़े पर बैठ जाते। घोड़ा भी विद्याधर को बैठाकर हिनहिनाता तक नहीं था, गिराना तो दूर की बात है। जब उन्हें बैठना आ गया, तब वह उस व्यक्ति से घोड़े के पैर खुलवाकर दौड़ाने लगे। घोड़े में लगाम नहीं लगी थी। अतः विद्याधर उसकी गर्दन के बालों के सहारे उसे दौड़ाते रहते थे। धीरे-धीरे उन्हें घुड़सवारी करना आने लगी। किसी से सीखनी नहीं पड़ी उस समय वह १३/१४ वर्ष के होंगे। खेल महारथी - विद्याधर की रुचि उस समय के प्रचलित प्रायः सभी खेलों में थी। गिल्ली-डण्डा, कंचा, सूरफलंग, वॉलीबॉल, खो-खो, कबड्डी, कैरम, शतरंज, बेडमिंटन आदि खेल खेला करते थे। जब वह आठ-नौं वर्ष के थे। तब वह ‘सूरफलंग' नामक खेल खेलते थे। इस खेल में सारे बच्चे पेड़ पर चढ़ जाते, मात्र एक बच्चा जमीन पर गोला बनाकर उसके बीचों-बीच एक लकड़ी गाड़ देता था। पेड़ से सारे बच्चे नीचे उतरते, उस लकड़ी को छूते, भागकर पुनः पेड़ पर चढ़ जाते। नीचे वाला बच्चा उनको पकड़ता, जो भी पकड़ा जाता, वह हार जाता। फिर उसे नीचे रहना पड़ता था। यह खेल विद्याधर सदलगा में गुफा के चारों ओर जहाँ वट वृक्ष लगे हैं, वहाँ खेलते थे। उनकी लटकती हुई जड़ों को पकड़कर उतरते-चढ़ते थे। जब थोड़े बड़े हुए, तो कैरम, शतरंज खेल खेलने लगे। शतरंज में तो जैसे उन्हें महारथ हासिल हो गई थी। यदि कभी कोई चाल हार जाए तो अकेले बैठकर उन चालों पर विचार करते, फिर दोबारा जीतकर ही मानते थे। बड़ों को भी हरा देते थे। एक बार ऐसा ही हुआ, एक व्यक्ति ने शतरंज के श्रेष्ठ खिलाड़ी लोकप्पाजी से कहा, विद्याधर भी शतरंज में श्रेष्ठ है। एक बार उनके साथ आप खेलें। यहाँ विद्याधर के मित्रों ने भी विद्याधर से कहा कि श्रेष्ठी लोकप्पाजी के साथ एक बार शतरंज खेलो। एक वृद्ध, तो दूसरा बालक। अतः दोनों जन संकोच कर रहे थे। पर सबके कहने पर दोनों तैयार हो जाते हैं। मित्रों ने कहा- ‘खेल देखने का हमें क्या मिलेगा।’ श्रेष्ठी लोकप्पाजी ने कहा- ‘जो जीतेगा वह सबको फल खिलाएगा।’ जब खेल प्रारंभ हुआ तो दूसरी पारी में ही श्रेष्ठी ने घोड़े का पाशा उठाकर यथास्थान रखा, तो तिरछी गति जानकर विद्याधर द्वारा राजा को बंदी बना लिया गया। विद्याधर जीत गए। मित्रों ने विद्याधर को कंधों पर बैठाकर घुमाया। विद्याधर ने श्रेष्ठी लोकप्पाजी के पैर छुए। उन्होंने विद्याधर को गले लगा लिया एवं सबको फल खिलाए। आज यही विद्याधर मोक्षमार्ग के खेल में कर्मों को मात दे रहे हैं। कर्मों को मात देने वाली त्याग-तपस्या रूप उनकी चाल अनोखी ही रहती है। फिर भी वह किसी भी प्रकार से अहंकार या दिखावा नहीं करते हैं। विद्याधर का मुँजीबंधन - दक्षिण भारत की परंपरा के अनुसार ८ वर्ष से लेकर विवाह के पूर्व तक की उम्र वाले बच्चों को एक विशेष संस्कार से संस्कारित किया जाता है। उसे ‘मुँजीबंधन’ कहते हैं। इस संस्कार में व्रत-नियम के प्रतीक के रूप में जनेऊ (यज्ञोपवीत) धारण कराया जाता है। इसकी विधि में बाल कटाते, चोटी रखते, सफेद धोती-दुपट्टा पहनते, विधि-विधान पूर्वक जनेऊ धारण करते, पाँच घरों से भिक्षाटन करके भुना हुआ धान्य लाते हैं। जो धान्य प्राप्त होता है। शाम को मात्र वही खाते हैं, इसके पूर्व दिन भर कुछ नहीं खाया जाता। यह परंपरा हिन्दू एवं जैन सभी में समान रूप से प्रचलित है। दक्षिण में मुँजीबंधन का विशेष महत्त्व है। इस संस्कार को करवाए बिना यदि किसी का मरण हो गया, तो फिर वहाँ की परंपरा के अनुसार उसकी शवयात्रा अर्थी रूप में न निकलकर झोली रूप में निकलती है। विद्याधर लगभग १२ वर्ष के होंगे। तब आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज का प्रथम चातुर्मास सदलगा में हुआ था। विद्याधर अपनी सेवाभाविता एवं धार्मिक रुचि के कारण आचार्य श्री देशभूषणजी के विशेष स्नेह भाजन बन गए थे। समाज ने आचार्य महाराज के सान्निध्य में ‘मुँजीबंधन' कार्यक्रम को रखा। उत्साही विद्याधर भी तैयार हो गए। उन्होंने अन्नाजी से पूछा, पर अन्नाजी ने इन्हें मना कर दिया। विद्याधर दुःखी हो गए। कार्यक्रम का विशेष दिन होने से विद्याधर अन्नाजी द्वारा पूर्व से ही लाकर रखे हुए तीन लरों वाले सोने के जनेऊ को शौक रूप में धारण कर मंदिरजी में अनमने मन से पहुँच गए। वहाँ पर संचालक महोदय ने घोषणा की -‘जो भी बच्चे ‘मुँजीबंधन' करवाना चाहते हैं, वे सामने आकर अग्रिम पंक्ति में बैठ जाएँ।' अब तो विद्याधर स्वयं को नहीं रोक पाए। और आगे जाकर खड़े हो गए। आचार्य महाराज के लाड़ले विद्याधर, प्रथम पात्र के रूप में चुन लिए गए। और आचार्य महाराज ने अपने करकमलों से सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र के प्रतीक के रूप में तीन लरों वाले सोने के जनेऊ से विद्याधर पर ‘मुँजीबंधन' संस्कार किया। यह देख अन्नाजी मन ही मन हँस दिए। वे बुदबुदाए, मैं तो जानता था, संस्कारों के इस कार्यक्रम में यह पीछे न रहेगा। विद्याधर के जीवन में आरंभ हो गई गुरु हस्तकमलों से संस्कार पाने की श्रृंखला। मंदिरजी में ध्यान लगाना - विद्याधर जब ९ वर्ष के थे, तभी से ध्यान करने लगे थे। वह अकेले कल-बसदि (छोटा जैन मंदिर) चले जाते थे। वहाँ जाकर प्रतिदिन शाम को | ध्यान किया करते थे। १४/१५ वर्ष की उम्र में वह दोड्डु-बसदि (बड़ा जैन पंचायती मंदिर) में जाकर ध्यान लगाने लगे थे। कभी-कभी तो वह अपने मित्र मारुति के साथ कल-बसदि के पीछे दो बजे रात तक ध्यानविद्याधर के बचपन की ध्यानस्थली, कल-बसदि (छोटा जैन मंदिर) के पीछे का भाग सामायिक करते रहते थे। कभी खड़े होकर, तो कभी बैठकर, मारुति को तो कभी-कभी उबासी (जंभाई) आने लग जाती थी। पर विद्याधर को कभी भी उबासी (जंभाई) नहीं आती थी अर्थात् आलस नहीं आता था। एक बार तो वह टीले वाले मंदिर (कल-बसदि) के पीछे दो बजे रात तक अकेले ही ध्यान करते रहे। फिर जब टेंट टॉकीज की फिल्म छूटी तब लोगों के पीछे-पीछे घर पहुँचे थे, क्योंकि रात में उन्हें कुत्तों के भौंकने से डर लगता था। घर का ताला लगाकर जाते थे। जब से ध्यान की साधना बढ़ने लगी, तब से घर पर ज्यादा बातचीत करना भी बंद कर दिया था। बावड़ी में ध्यान लगाना - आज से ६०/६५ वर्ष पूर्व सदलगावासियों को जल लाने नदी पर जाना पड़ता था। विद्याधर भी ९ वर्ष की उम्र से ही ताँबे का घड़ा लेकर नदी जाने लगे थे। और नदी में जहाँ पानी कम होता, वहाँ पर उसी घड़े को उल्टा करके तैरने की कोशिश भी करते थे। कुछ ही दिनों में वह स्वयं से ही तैरना सीख गए। लगभग ११ वर्ष की उम्र में तो वह ज्वार के डंठलों का बंडल अपनी पीठ पर बाँधकर घर के पास वाली बावड़ी में छलांग लगाने लगे थे। १२-१३ वर्ष की उम्र तक तैराकी में इतने निपुण हो गए कि बिना किसी भी सहारे के “ॐ नमः सिद्धेभ्यः” बोलते हुए बावड़ी में छलांग लगा देते थे। कुछ देर जल के अंदर रहकर फिर पानी के ऊपर आसमान की ओर मुख किए हुए, पद्मासन लगाए। बिल्कुल सीधे निश्चेष्ट ध्यान मुद्रा में दिखाई देते थे। शुरू-शुरू में वह पाँच-दस मिनट ही ऐसा करते थे। धीरे-धीरे अभ्यास इतना बढ़ गया कि आधा-आधा, पौन-पौन घंटे तक जलीय सतह पर ध्यान मग्न रहने लगे। इतने लम्बे समय तक सूखे पत्ते की भाँति जलीय सतह पर अकंप/स्थिर तैरता हुआ देखकर ग्रामवासियों को आश्चर्य के साथ-साथ भय भी होने लगता था। अतः वे जाकर माँ श्रीमंतीजी से कह देते। माँ को चिंता हो जाती। और अपने पीलू को बावड़ी पर बार-बार जाने से वे मना करतीं। तब वह माँ से बोलते- ‘माँ! मैं वहाँ तैरने नहीं, ध्यान लगाने जाता हूँ।' पर माँ को विश्वास नहीं होता। उस समय तक नहीं जानती थी माँ कि हमारे घर-आँगन में जन्मा यह बालक कोई साधारण पुरुष नहीं है। साधुसेवा में तत्पर - सदलगावासियों को दिगंबर साधु-संतों का समागम मिलता रहता था। आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज ससंघ, आचार्य श्री अंनतकीर्तिजी महाराज ससंघ, मुनि श्री महाबलजी महाराज, मुनि श्री सुबलसागरजी महाराज, मुनि श्री पिहितास्रवजी महाराज, मुनि श्री पायसागरजी महाराज का ससंघ प्रवास सदलगा में होता रहा। विद्याधर साधु-संतों की सेवा, उनके आहार आदि की व्यवस्था में सदैव तत्पर रहते थे। माँ चौका लगातीं तो चौके में बावड़ी से पानी लाकर देते। माँ के साथ काम करवाते, पड़गाहन, पूजन एवं आहार आदि सभी कार्य बड़े ही सावधानी पूर्वक एवं उत्साह से करते थे। जब आचार्य श्री देशभूषण -जी महाराज का वर्षायोग सदलगा में प्रथम बार हुआ, तब विद्याधर की उम्र लगभग १२ वर्ष की होगी। इस वर्षायोग में वह प्रतिदिन आचार्यश्रीजी को आहार करवाने गए। संघ में किसी साधु के अस्वस्थ होने पर उनकी वैय्यावृत्ति के लिए आचार्यश्रीजी विद्याधर को बोलते थे। विद्याधर के ऊपर उनका विशेष वात्सल्य था। विद्याधर को वैराग्य मार्ग पर बढ़ने के लिए वह प्रोत्साहित करते थे। इसी चातुर्मास से ही विद्याधर ने प्रत्येक अष्टमी-चतुर्दशी का व्रत करना शुरू कर दिया था। सहस्रनाम कंठस्थ करना - जब विद्याधर सातवीं-आठवीं कक्षा में पढ़ते थे, तब अन्नाजी महावीर भैया एवं विद्याधर को सहस्रनाम पढाते थे। वह जितना पढ़ाते जाते, विद्याधर उतना कंठस्थ करते जाते थे। इस तरह बचपन में ही उन्होंने सहस्रनाम भी पढ़ लिया था। संवेदनशील विद्याधर - विद्याधर परिवार के प्रति बहुत ही संवेदनशील थे। घर में कोई भी बीमार हो जाए, विद्याधर दु:खी हो जाते और सबसे ज्यादा सेवा करते थे। एक बार छोटे भाई अनंतनाथ को तीन वर्ष की उम्र में ‘रीकेट्स' रोग हो गया। इस रोग से हाथ-पैर सूखते चले गए एवं पेट बड़ा हो गया। शरीर में हड्डी-हड्डी दिखने लगीं। बहुत इलाज कराने के बावजूद भी बचने की कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही थी। शरीर विद्रूप दिखने लगा था। परिवार के सभी लोग दुःखी थे। विद्याधर उस समय लगभग १३ वर्ष के रहे होंगे। वह पूरे समय अनंतनाथ की सेवा में लगे रहते थे। तब बाहर खेलने भी नहीं जाते थे। बाद में दूर गाँव के एक वैद्यजी को लाकर दिखाया। उन्होंने औषधि के साथ अनंतनाथ को एक वर्ष तक प्रतिदिन सुबह से १२ बजे तक की धूप में बैठाने को कहा। इससे उनका रोग चला गया। पर चमड़ी काली पड़ गई। उसे देखकर विद्याधर अन्नाजी से बार-बार कहते, कि मेरा भाई कब ठीक होगा ? उसे अच्छे डॉक्टर को दिखाओ न! आज वही अनंतनाथ भैया मुनि श्री योगसागरजी के रूप में आचार्यसंघ की शोभा बने हुए हैं। लिया, लग्न तक का ब्रह्मचर्य व्रत - विद्याधर की बाल्योचित क्रीड़ाओं में वैराग्य की झलकें मिल जाती थीं। एक ओर गिल्लीडण्डा आदि खेल खेलते, वहीं दूसरी ओर खेल-खेल में बावड़ी में, मंदिरजी में ध्यान लगाते। मित्रों के साथ पंचकल्याणक देखने जाते। मित्र मेला में घूमते और विद्याधर सारे दिन पांडाल से बाहर नहीं निकलते। उन्हें देखने वाला भी थक जाए कि इतना छोटा बालक कैसा स्थिरचित्त होकर कब से बैठा है, पर विद्याधर नहीं थकते। नौ वर्ष में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी के प्रवचन सुनकर जो वैराग्य का बीज वपन हुआ था, उसका अंकुरण चौदह वर्ष की उम्र में हो जाता है। सदलगा से लगभग सात किलो मीटर की दूरी पर चाँद शिरडवाड़ नामक ग्राम में क्षुल्लक श्री सूरिसिंहजी महाराज विराजमान थे। विद्याधर अपने मित्र मारुति के साथ क्षुल्लक महाराज के दर्शन करने दीपावली के दिन बुधवार, १९ अक्टूबर, १९६०, अनुराधा नक्षत्र में गए। और वहीं पर दोनों ने क्षुल्लकजी से लग्न तक के लिए ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया था। किशोरावस्था में भव्य जीवन की आहटें शौकीन विद्याधर : महापुरुषों के विषय में जानना - ‘जब विद्याधर १५ वर्ष के थे, तब वाचनालय में जाकर महापुरुषों की आत्मकथा (बायोग्राफ़ी) की पुस्तकें पढ़ते थे। वह शिवाजी, कित्तूरानी चिन्नम्मा (अंग्रेजों से लड़ने वाली), टीपू सुल्तान (मैसूर टाइगर), गांधीजी, रवीन्द्रनाथ टैगौर, विनोबा भावे, ईश्वरचंद्र विद्यासागर आदि की पुस्तकें पढ़कर उसमें से अच्छी-अच्छी बातें लिखकर लाते थे। आकर अपनी माँ एवं छोटे भाई-बहनों को सुनाते थे। इसके अतिरक्ति पट्टमहादेवी शांतला, दान चिंतमणि, भद्रबाहु चरित्र आदि पढ़कर घर पर उसकी कहानियाँ सुनाते थे। इन विषयों पर मित्रों से घंटों-घंटों चर्चा करते रहते थे। इस तरह आदर्श पुरुषों के आदर्शों को जीवन में उतारकर बन गए आज वे स्वयं एक आदर्श महापुरुष । महापुरुषों के भाषण सुनना - महान् व्यक्तियों के भाषण सुनने में उनकी विशेष रुचि रहती थी। एक बार प्रधानमंत्री पण्डित जवाहरलाल नेहरूजी सांगली (महाराष्ट्र) शहर में आए थे। तब वह अपने बड़े भाई एवं मित्रों को लेकर भाषण सुनने गए थे। एक बार निपानी (बेलगाम, कर्नाटक) शहर में आचार्य विनोबा भावेजी आ रहे थे। विद्याधर की इच्छा उनके भाषण सुनने की थी, उन्होंने महावीर भैया से चलने को कहा, पर अन्नाजी ने दोनों को ही जाने से मना कर दिया। विद्याधर दु:खी हो गए। तब महावीर भैया ने पाँच रुपये देते हुए कहा, अपने मित्रों के साथ चले जाओ। विद्याधर ने जब मित्रों से कहा, तब वह बोले- ‘एक शर्त पर जाएँगे। तुम भाषण सुनना और हम लोग जैमिनी सर्कस देखेंगे।' विद्याधर तैयार हो गए। भाषण सुनकर बड़े प्रसन्न हुए। जो कुछ भी विनोबा भावेजी बोले थे, उसे आकर पूरा का पूरा महावीर भैया को सुनाया और सुनाते समय उनकी बातों का समर्थन भी करते जाते थे। विनोबाजी गरीबों के लिए कितना अच्छा कार्य कर रहे हैं। इससे देश का हित होगा और गरीबों को अभयदान मिलेगा। विनोबाजी के भाषण को सुनकर विद्याधर के परिणाम और भी उज्ज्वल हो गए थे। मित्रों से उनके बारे में प्रशंसा करते और कहते- “देखो! देश की सेवा एवं गरीबों की सेवा के लिए विनोबाजी ने सर्वस्व त्याग कर दिया। हमें भी ऐसा ही करना चाहिए। कभी-कभी महापुरुषों को याद करते हुए कहते - ‘देखो! उन्होंने कैसे पुरुषार्थ किए होंगे और अपने जीवन को कैसे सार्थक कर लिया। हमारे हाथ से ऐसा पुरुषार्थ होगा क्या ?' इस प्रकार के विचार वह अपने जीवन के बारे में किया करते थे। चलचित्र देखना - विद्याधर को ऐसे कार्य करना पसंद थे, जिससे उन्हें शिक्षा या प्रेरणा मिलती थी। कथाकहानियों के प्रति उनकी रुचि बचपन से थी। अन्नाजी बच्चों को धार्मिक कहानियाँ सुनाते रहते थे। एक बार तो विद्याधर अपने मित्रों के साथ साइकिल से २१ किलोमीटर दूर स्थित चिक्कोड़ी ग्राम फ़िल्म देखने गए थे। वहाँ पर पाण्डालनुमा प्रभात टॉकीज (थियेटर) आती थी। पहली बार- ‘झनन-झनन पायल बाजे' और दूसरी बार 'नागिन' फ़िल्म देखी थी, एवं एक बार मेला में ‘देवता' फ़िल्म देखी थी। उनकी गुणग्राही दृष्टि थी। जब स्वाध्याय कराते या मित्रों के साथ चर्चा करते उस समय फ़िल्म से मिली शिक्षा को उदाहरण बनाकर प्रस्तुत कर देते थे। उसे सुनकर मित्रों को आश्चर्य होता था। दुनिया के विषय में जानना - विद्याधर को रेडियो चलाने का बड़ा शौक था। उस समय रेडियो का प्रचलन नया-नया ही हुआ था। अन्नाजी खरीदकर लाए थे। उसमें वह मराठी समाचार एवं कहानी, संवाद सुना करते थे। आकाशवाणी, ऑल इण्डिया रेडियो तथा बी.बी.सी. लंदन स्टेशन के समाचार वे प्रायः सुनते थे। दुनिया के विषय में जानने की जिज्ञासा उन्हें बनी रहती थी। साहसिक कार्यों का अनुकरण करना - साहस से भरा जो भी काम होता उसे करने में विद्याधर को अच्छा लगता था। विद्याधर मित्रों के साथ सर्कस देखने जाते थे। वहाँ से आकर सर्कस के समान साइकिल चलाने की कोशिश करते थे, तो धीरे-धीरे संतुलन बन जाता था। एक बार जैसा सर्कस में देखा था, वैसे ही साइकिल चला रहे थे। संतुलन बिगड़ा और गिर गए। घुटने में अधिक चोट आ गई। पंद्रह दिन लग गए ठीक होने में। माँ का हाथ बँटाना - माँ के साथ रसोई में हाथ बँटाना उन्हें अच्छा लगता था। तीज-त्यौहार पर मिठाई-पकवान भी वह माँ के साथ बनवाते थे। मूंगफली खाना उन्हें पसंद था : शिक्षा, हाई स्कूल तक - विद्याधर की कक्षा सातवीं तक की शिक्षा तो सदलगा ग्राम में हुई। छटवीं-सातवीं कक्षा के विद्यार्थियों की व्यवस्था पूर्व की कक्षा के विद्यार्थियों से पृथक् थी। विद्यार्थियों का रात्रि विश्राम स्कूल में ही होता था। सभी विद्यार्थी अपने-अपने घर से ओढ़ने बिछाने के लिए चद्दर, चटाई एवं पढ़ने के लिए लालटेन ले जाते थे। सबके स्थान नियत थे। सुबह चार बजे घंटी बजती थी। सभी छात्र उठकर मुँह-हाथ धोकर पढ़ने बैठ जाते थे। छः बजे अपने-अपने घर चले जाते थे। और आठ बजे तैयार होकर नाश्ता आदि करके वापस विद्यालय पहुँच जाते थे। लगभग ग्यारह बजे तक कक्षा चलती, फिर मध्याह्न का भोजन करने घर चले जाते थे। दो बजे पुनः स्कूल पहुँचते।फिर शाम पाँच बजे घर आकर भोजन वगैरह करके रात्रि आठ बजे पुनः स्कूल पहुँच जाते। रात्रि आठ से दस बजे तक शिक्षक पढाते थे। फिर शिक्षक घर चले जाते थे। और विद्यार्थी वहीं विद्यालय में ही शयन (सोते) करते थे। इस प्रकार गुरुकुल सदृशी व्यवस्था थी। सातवीं कक्षा में बोर्ड परीक्षा होती थी। बोर्ड परीक्षा के लिए सदलगा से २१ किलोमीटर की दूरी पर स्थित चिक्कोड़ी तहसील के कन्नड़ राजकीय विद्यालय जाना पड़ता था। और परीक्षा के लिए सात दिन तक विद्यार्थियों को वहीं ठहरना होता था। आठवीं और नवमी की शिक्षा सदलगा से ५ किलोमीटर की दूरी पर श्री लट्टे एजूकेशन सोसाइटी, बेड़कीहाळ के ‘बी.एस. हाईस्कूल में हुई। महावीर भैया, मारुति और विद्याधर ये साइकिल से बेड़कीहाळ जाते थे। महावीर भैया को साइकिल के आगे वाले डण्डे पर बैठाकर विद्याधर ले जाते थे। विद्याधर ने नवमी कक्षा तक ही पढ़ाई की। अन्नाजी के पूछने पर कि क्यों नहीं पढ़ना, तो विद्याधर बोले ‘मुझे लौकिक नहीं, अलौकिक पढ़ना है। स्कूल की पढ़ाई से आत्मा का कल्याण नहीं हो सकता।’ सन् १९५८ में विद्याधर ने ‘दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा कर्नाटक शाखा कार्यालय के अंतर्गत ‘मद्रास’ की हिंदी प्राथमिक प्रायवेट परीक्षा भी पास की थी। तत्त्वार्थसूत्र कंठस्थ करना - एक दिन विद्याधर मित्रों के साथ गिल्ली-डंडा खेल रहे थे। गिल्ली अचानक से एक गुफा के सामने जा गिरी। गुफा में श्री महाबल नाम के मुनि महाराज विराजमान थे। विद्याधर गिल्ली उठाकर आने लगे। तब उनकी दृष्टि मुनि महाराज पर पड़ी। उसने महाराज को नमोऽस्तु किया। महाराज ने उन्हें अपने पास बुलाया, नाम पूछा। ‘विद्याधर’ ने जब अपना नाम बताया तो मुनिराज बोले- ‘कौन-कौन-सी विद्याएँ हैं, तुम्हारे पास ? कुछ धर्म का भी आता है ? या बस खेलते ही रहते हो ?' विद्या ने हाथ जोड़कर कहा- ‘जी, जी हाँ। भक्तामर आता है। महाराजजी ने कहा- ‘अच्छा, अब तत्त्वार्थसूत्र एवं सहस्त्रनाम कंठस्थ करके सुनाना।' विद्याधर ने स्वीकृति में सर हिला दिया। और चरण छूकर, गिल्ली उठाकर वापस आ गए। विद्याधर ने घर आकर अन्नाजी को यह घटना बताई। उन्होंने विद्याधर को उच्चारण करना सिखाया। विद्याधर ने सात-आठ दिन में श्री महाबल महाराज जी को ‘तत्त्वार्थसूत्र’ कंठस्थ करके सुना दिया। महाराजजी को बड़ा आश्चर्य हुआ। खुश हो विद्याधर के सिर पर पिच्छी रखकर बार-बार आशीर्वाद दिया, और विद्याधर के कंधे के ऊपर हाथ रखकर बोले- ‘तू अच्छा विद्वान् बनेगा। तू बड़ा बनेगा।’ विद्याधर को तत्त्वार्थसूत्र ऐसा कंठस्थ रहा कि जब वह आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के चरणों में पहुँचे, तब दशलक्षण पर्व के अवसर पर उन्होंने विद्याधर से ‘तत्त्वार्थसूत्र’ का पाठ करने को कहा। विद्याधर ने बिना पुस्तक उठाए, वहीं के वहीं बैठ कर पाठ बोलना शुरू कर दिया। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी परेशान थे कि इसने पुस्तक नहीं उठाई, अब बीच में पुस्तक के लिए उठना पड़ेगा। पर विद्याधर ने जो मौखिक पाठ शुरू किया तो पूर्ण होने पर ही रुके। यह देख आचार्य श्री ज्ञानसागरजी का चित्त आह्लादित हो उठा। स्वाध्याय करना और कराना - दोड़-वसदि मंदिर में अन्ना साहब' नाम के पण्डितजी वृद्धों को रात्रि में स्वाध्याय कराते थे। वह विद्याधर को भी उसमें बैठा लेते थे। उनका ज्ञान अच्छा था। विद्याधर को अपनी जिज्ञासा का समाधान भी मिल जाता था। अन्नाजी विद्याधर की प्रतिभा एवं रुचि को देखकर, जब कभी बाहर जाते तो अपनी गद्दी पर विद्याधर को बैठा जाते और शास्त्र की अलमारी की चाबी भी उसे सौंप जाते थे। विद्याधर १४/१५ वर्ष की उम्र से ही स्वाध्याय कराने लगे थे। पहले वह चल रहे ग्रंथ‘भरतेश वैभव' एवं 'रत्नाकर शतक' को कन्नड़ में सभी को सुनाते थे। बाद में दस,ग्यारह बजे रात तक ‘मूलाचार' का स्वयं स्वाध्याय करते, फिर घर जाते थे। घर पर भी छोटे भाई-बहनों को धार्मिक विषय पढ़ाते थे। मधुर कंठी विद्याधर - विद्याधर का स्वर बहुत मधुर था। वह भगवान् के भजन, भक्तामरस्तोत्र, सहस्रनामस्तोत्र, रत्नाकरवर्णी का रत्नाकरशतक, एवं अपराजितेश्वरशतक बड़े ही मधुर-सुरीली आवाज़ में गाते थे। कल-बसदि (मंदिरजी) में भी वह भजन एवं स्तोत्र गायन करते थे, जिसकी प्रशंसा सभी करते थे। इस कारण माँ उन्हें अत्यधिक प्रेम किया करती थी। यह संस्कार उन्हें माँ से प्राप्त हुआ था। माँ को बचपन से ही सुरीली आवाज़ में भजन गाने का शौक था।" विद्याधर जब ब्रह्मचारी बन गए, तब भी वह मुनि श्री ज्ञानसागरजी महाराज के पास अपनी मीठी आवाज़ में भजन सुनाया करते थे। दादिया (अजमेर) राजस्थान, प्रवास के दौरान तो आहार के बाद वह रोज़ एक नया भजन गाते थे। श्रावकों के निवेदन पर मौन रह जाते, फिर मुनि श्री ज्ञानसागरजी की स्वीकृति पाकर भजन गाते थे। उनके भजन सुनने के लिए बालक, युवा व महिलाएँ सभी मंदिरजी में इकड़े हो जाते थे। उनके द्वारा सुनाए गए भजन में 'गुरुदर्शन महिमा' भजन की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं। पावन हुए नयना दरश कर तोर। हियरारे हरसे ऐसे जैसे लखके चंद चकोर।। कुगुरु कुदेव ध्याके बहुत दुःख उठाया। छवि वीतराग ने तो शांत रस पिलाया।। शांत सुधारस प्याला लगाके एक ठौर।। मनुआ रे झूम उठा रे होकर आनंद विभोर। पावन हुए नयना दरश कर तोर।। वृद्ध साधुओं के केशलोंच करना - विद्याधर ने १६ वर्ष की उम्र में सन् १९६२ के लगभग सदलगा ग्राम में विराजमान वृद्ध मुनि श्री नेमिसागरजी के तीन-चार श्रावकों के साथ मिलकर बारी-बारी से प्रथम बार केशलोंच करने का सौभाग्य प्राप्त किया था। एक बार सन् १९६३ सदलगा में ही वृद्ध मुनि श्री महाबलजी के भी केशलोंच करने का उन्हें अवसर प्राप्त हुआ था। ये वही मुनि श्री महाबलजी महाराज थे, जिनकी प्रेरणा से विद्याधर ने बचपन में ‘तत्त्वार्थसूत्र' कंठस्थ किया था। सल्लेखना देखना एवं करवाना - मुनि श्री आदिसागरजी (भोजगाँव) एवं मुनि श्री मल्लिसागरजी की समाधि बेड़कीहाळ नामक गाँव में हुई थी। विद्याधर अपने मित्र मारुति के साथ इन दोनों ही समाधियों को देखने गए थे। जहाँ भी सल्लेखना होने की सुनते, वे वहीं पहुँच जाते थे। सदलगा से ६ किलोमीटर दूरी पर स्थित बोरगाँव में वृद्ध मुनि श्री नेमिसागरजी ने सल्लेखना ग्रहण की थी। इस सूचना को सुनकर विद्याधर, मारुति को लेकर बोरगाँव पहुँच गए। उस समय वे लगभग १५-१६ वर्ष के होंगे। २४ घंटे मुनि महाराज के पास रहते। उनके पैर सहलाते, मंत्र सुनाते । खूब मन लगाकर सेवा करते। अंतिम क्षण तक विद्याधर मंत्र सुनाते रहे। जब तक उनकी समाधि नहीं हो गई, तब तक लगभग सात दिन तक वहीं ठहरे रहे। सदलगा की उसी गुफा में जहाँ पर श्री महाबल मुनिराज ने उन्हें ‘तत्त्वार्थसूत्र' कंठस्थ करने की प्रेरणा दी थी, वहीं पर उन्हीं महाराज की सल्लेखना देखने का भी अवसर प्राप्त हुआ। मुनिश्री की समाधि देखकर विद्याधर का मन और भी विरक्त हो गया था। इसके बाद ही बोरगाँव ग्राम में मुनि श्री नेमिसागरजी की समाधि स्थली एवं श्री आदिनाथ मंदिरजी की वेदी विद्याधर, मारुति एवं जिनगौड़ा तीनों मित्रों ने मिलकर अंतिम निर्णय कर लिया था कि अब घर पर नहीं रहना है। आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज के पास जाना है। 'अनंत व्रत' से अनंतसुख की ओर - कर्नाटक में 'अनंतव्रत' करने की धार्मिक परंपरा है। वसीयत की भाँति अनंतकाल तक यह व्रत । पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिवार में चलता जाता है। इस व्रत का कभी उद्यापन नहीं होता है। इस कारण इस व्रत को ‘अनंत व्रत' कहा जाता है। भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी दशलक्षण पर्व के जिन दिनों में ‘रत्नत्रय व्रत' रखा जाता, उन्हीं तीन दिनों में यह व्रत किया जाता है। अपनी शक्ति अनुसार उपवास या एकासन करते हैं। इस व्रत की पूजन-अनुष्ठान की विधि पाँच-छह घंटे में पण्डितजी द्वारा सम्पन्न कराई जाती है। यदि व्रत करने वाला व्यक्ति बीमार आदि हो जाए, तब परिवार के दूसरे सदस्य इस व्रत को रख लेते हैं। एक बार अन्नाजी का स्वास्थ्य खराब हो जाने पर विद्याधर ने इस व्रत को करने में उत्साह दिखाया। माँ का आशीर्वाद प्राप्त कर उन्होंने यह व्रत रखा। जब प्रथम दिन पूजन करके विद्याधर घर लौटे, तब महावीर भैया ने कहा- तुम थक गए होगे, कल से मैं चला जाऊँगा।' विद्याधर बोले-‘थकने की बात ही कहाँ ? वहाँ तो बहुत अच्छा लगता है। मैंने शुरू किया है, तो मैं ही पूर्ण करूंगा । इस तरह अनंत सुख की प्राप्ति की भावना से ‘अनंत व्रत' की कुल परंपरा का निर्वाह भी बड़े हर्ष एवं उत्साह से किया विद्याधरजी ने। संस्कारी विद्याधर - पूर्व एवं इस जन्म के प्राप्त संस्कारों से भविष्य के महापुरुष के व्यक्तित्व का निर्माण एवं विकास हो रहा था। जीवन के विकास क्रम में विभिन्न प्रसंगों पर विद्याधर की सोच, उनकी क्रियाएँ, उनके संस्कारी एवं धार्मिक होने का प्रमाण पत्र होती थीं परिवार का वातावरण मर्यादित एवं संयमित था। विद्याधर आदि सभी भाई-बहन एक बड़े कक्ष में सोते थे। जो चौथी-पाँचवी कक्षा में आ जाते थे, वे अलग कक्ष में सोने लगते थे। प्रातः उठकर सभी बच्चे माता पिता को प्रणाम करते थे। तीज, त्यौहार के दिनों में चरण स्पर्श करते थे। घर पर बच्चों को सिखाया जाता कि वाक्य पूर्ण बोलना चाहिए। जैसे- जाता हैं, ऐसा नहीं बोलते, बल्कि ‘मैं जाता हूँ,' ऐसा बोलना चाहिए। अधूरा, अप्रिय, अर्थहीन एवं अस्पष्ट वाक्य नहीं बोलना चाहिए। संस्कारों का प्रभाव ही कहें, माता-पिता के चरण स्पर्श करते हुए विद्याधर कि आज विद्याधर बड़े से बड़े ग्रंथों के गूढार्थों को सहज ही स्पष्ट अर्थ करने में समर्थ हैं। बचपन में घर पर सिखाया गया था कि यदि किसी को अपना पैर लग जाए, तो तुरंत पैर छू लेना, क्षमा याचना कर लेना। मृदु एवं विनम्र बनकर रहना। नीचे जमीन पर देखकर चलना ताकि जीव जन्तु न मरें एवं स्व व पर को ठोकर भी न लगे। यह बीज ऐसा विकसित हुआ कि आज उनकी दृष्टि सदा-सदा ही नीची रहती है। एक दिन विद्याधर माँ से बोले- ‘माँ शिवकुमार के पिता ने कार खरीदी है। माँ ने पूछा- “तो...ऽऽ'। विद्याधर बोले- ‘तो क्या माँ, उनसे कार लेकर हम लोग शिखरजी चलेंगे। सभी मित्र मिलकर जब मेला जाते तब विद्याधर सलाह देते, ‘देखो यदि भीड़ में खो जाएँ, तो चिन्ता नहीं करना। इस मंदिरजी के पास आकर खड़े हो जाना। जाते समय सब यहीं मिल जाएँगें ।' मेला में इकट्टे होने के लिए उन्होंने मंदिर को चुना। कोई होटल, दुकान या नाटकनौटंकी वाला स्थान भी तो चुन सकते थे। विद्याधर ने लगभग १२ वर्ष की उम्र से दशलक्षण पर्व में एकाशन करना शुरू कर दिए थे। जब तक घर में रहे, तब तक तो किए ही, फिर आगे छोड़ने का प्रश्न ही नहीं रहा। वह मेले से कभी ‘आचार्य श्री शांतिसागरजी' की फोटो लाते, कभी मांगूर (पंचकल्याणक) से शास्त्र खरीद कर ले आते, तो कभी सुंदर-सी एक डिब्बी लाते और माँ से कहते-‘इसे रख लो, जब तीर्थ वंदना पर चलेंगे तो घी रखने के काम आएगी।' एक दिन तो ‘अरिहंत जिन' की मूर्ति खरीद कर ले आए, बोले- ‘लो माँ, मैं आपके लिए भगवान् लाया हूँ।मेलों-ठेलों में हजारों तरह की वस्तुएँ मिल रही होती हैं। पर विद्याधर का मन अपने स्वभाव के अनुरूप वस्तु का चुनाव कर लेता है। सामुद्रिक चिह्न से चिह्नित, महापुरुषत्व - विद्याधर के अनेक मित्रों में से एक हैं, शिवकुमार। वह कक्षा एक से विद्याधर के मित्र थे। विद्याधर शिवकुमार के घर शतरंज या कैरम खेलने जाते थे। शिवकुमार प्रत्येक बार हार जाते थे। एक बार कैरम के खेल में जब वह हार गए, तब विद्याधर का हाथ पकड़कर उसे देखते हुए बोले- ‘ज़रा देखें तो हाथ में ऐसा क्या है, जो हर बार जीत जाता है। हँसी-हँसी में हाथ देखने लगे। शिवकुमार को हाथ की अनामिका में त्रिशूल के आकार का एक चिह्न नज़र आया। वह हिन्दू धर्मावलम्बी हैं। बोले- ‘इसके हाथ में तो भगवान् शिव के त्रिशूल का चिह्न है। तभी यह हमेशा जीतता ही जीतता है।' उन्होंने एक दिन विद्याधर की उस अँगुली में स्याही लगाकर सफेद कागज़ पर अंकित करके देखा। कागज़ पर भी वह चिह्न अंकित हो गया-एक, तीन पंखुड़ी वाले कमल के जैसा आकार, जिसे शिवकुमार त्रिशूल' का चिह्न कहते थे। फिर उन्होंने विद्याधर के घर पर भी सबको बताया। महावीर भैया आदि सभी ने भी कई बार कागज़ पर अंकित कराकर के देखा और आनंद लिया। इस चिह्न को देखकर, और विद्याधर की गतिविधियों को देखकर शिवकुमार की धारणा बन गई थी कि यह कोई महान् आदमी बनेंगे। बात-बात में जब कभी वह कह भी देते थे। जब विद्याधर की दीक्षा का समाचार सदलगा में फैला । उसको सुनकर वह घर आए और मल्लप्पाजी के पास बैठकर रोने लगे। बोले- ‘मैं कहता था न कि वह महान् बनेगा। पर मैं तो सोचता था कि वह नेता बनेगा, गाँधीजी जैसा। यह तो संन्यासी बन गया। उन सबसे भी ऊँचा, बड़ा महान् नेता, मोक्षमार्ग का नेता । मुझे उनके साथ कैरम, शतरंज खेलने का सौभाग्य मिला।' यौवन की दहलीज़ पर वैराग्य ने दी दस्तक सबका प्रिय विद्याधर सबका प्रिय विद्याधर - विद्याधर सबका प्रिय था। घर हो या बाहर, रिश्तेदार हो या शिक्षक, विद्वान् हो या सामान्य सबका चहेता। हम उम्र हो या बड़े सभी से मित्रता। मारुति जो उम्र में बड़े थे, वह उनके बाल सखा थे। इसके अलावा शिवकुमार, हालप्पनवर, जिनगौड़ा, अण्णासाब खोत, पुण्डलीक पूतनाड़े आदि भी उनके मित्र थे। व्यवस्थित कार्य शैली - विद्याधर की कार्यशैली शुरू से ही व्यवस्थित थी। घर पर बच्चों को बारी-बारी से सफ़ाई करनी होती थी। वह कभी-भी जी नहीं चुराते थे। आठ वर्ष की उम्र से ही वह अपने कार्य स्वयं करने लगे थे। जैसे अण्डरवियर-बनियान धोना, कपड़ों पर प्रेस करना आदि। अपनी सूत की चटाई जिस पर वह सोते थे, उस पर अपना नाम लिख रखा था। चादर पर भी अलग पहचान बनाकर रखी थी। आज्ञापालक विद्याधर - विद्याधर माता-पिता की आज्ञा को प्राय:कर टालते ही नहीं थे। एक बार अन्नाजी ने सभी बच्चों से कहा- ‘कोई भी पढ़ाई के बीच से उठकर नहीं जाएगा।' थोड़े ही देर में बाहर सड़क पर बैंड-बाजे निकलने लगे। सभी बच्चे उठ-उठकर देखने चले गए। पर विद्याधर एकाग्र चित्त हो पढ़ाई में ही लगे रहे। माँ की आज्ञा तो वह कभी भी नहीं टालते थे। माँ के कहने पर ज्वार पिसाने जाना, साग-सब्ज़ी लाना, भैंसों के लिए नदी पर नहलाने ले जाना, उन्हें भूसा डालना, उनके स्थान की साफ़-सफ़ाई करना एवं उनको बाँधना-छोड़ना आदि सब काम करते थे। अहिंसा के लहलहाते सागर - विद्याधर केअंदर दया-करुणा का सागर बचपन से लहलहा रहा था। वह घर पर मच्छर भगाने के लिए धुआँ नहीं करने देते थे। खटमल मारने की दवा नहीं छिड़कने देते थे। कहते- ‘इससे हिंसा होगी, पाप लगेगा, वो भी तो जीना चाहते हैं।' घर के भाई-बहन यदि कहें कि वो भी तो अपने को काटते हैं, तब कहते- “हम लोग उससे मरेंगे नहीं।' इस तरह खेत में भी फ़सल की रक्षा के लिए पाउडर आदि का छिड़काव नहीं करने देते थे। वे कहते थे, ‘पाप लगता है, ऐसी खेती क्यों करना ? केवल गन्ना की खेती करना चाहिए।' एक बार अन्नाजी ने विद्याधर को खेत पर भेजा उस समय फ़सल में एक प्रकार का कीड़ा लग गया था। फ़सल की सुरक्षा के लिए किसानों को दवा डालकर उन्हें मारना पड़ता था। विद्याधर ने कीड़ों को मारने की बजाए, उन्हें मिट्टी में दबा दिया। उन पर धूल डाल दी। जिससे वे मरें नहीं। बाजू वाले किसान ने यह सब अन्नाजी को बता दिया। इसके बाद से अन्नाजी ने विद्याधर को खेत पर भेजना ही बंद कर दिया। दयालु विद्याधर - दया तो विद्याधर में कूट-कूट कर भरी थी। चाहे वो पशु हो अथवा मानव। एक बार किसान खेत में हल जोत रहे थे। दस-पंद्रह फीट भूमि जुतना शेष रह गई थी। एक बैल थक कर बैठ गया। किसान उसे मार कर उठाने लगे। विद्याधर का हृदय द्रवीभूत हो उठा वह बोले- ‘उसे मत मारो' वह थक गया है। और जुए से उस बैल को निकालकर उसके स्थान पर स्वयं लगकर खेत को जोत देते हैं। इसी तरह एक दिन महावीर भैया ने उन्हें खेत पर भेजा। वह थोड़ी देर बैठ कर वापस आ गए। शाम को महावीर भैया ने पूछा- ‘खेत पर गए थे, क्या देखा ?' बोले-‘मज़दूर काम कर रहे थे। उन्होंने पूछा‘कितने लोग थे ?' बोले- ‘१२ थे।' पुनः पूछा- ‘कितनी महिलाएँ, कितने पुरुष थे ?' तो बोले- ‘मुझे नहीं मालूम।' महावीर भैया ने कहा- ‘उनको अलग-अलग मज़दूरी देनी पड़ती है ना।' विद्याधर बोले‘काम तो सभी बराबर करते हैं, तो मज़दूरी भी सभी को बराबर देनी चाहिए।' इस पर महावीर भैया को गुस्सा आ गया । सो विद्याधर मौन होकर बाहर निकल गए। वह कभी जवाब नहीं देते थे। दुःखी जीवों को सदा बचाऊँगा - एक बार विद्याधर ने बचपन में घर के एक कोने में चूहे का एक बड़ा-सा बिल देखा। उसमें नवजात चूहे का बच्चा तड़प रहा था। उसके शरीर में लाल चीटियाँ काट रही थीं। देखते ही विद्याधर ने शिशु चूहे को अपने हाथों में उठा लिया और एक-एक करके चीटियों को फेंक से उड़ा दिया। वह शिशु चूहा बच गया। उसी समय माँ ने देखा और पूछा- ‘क्या कर रहे हो ?' विद्याधर ने माँ को सब बता दिया। तब माँ बोली- ‘यह ‘तिर्यंच गति' दुःख की गति है, इस प्रकार से तिर्यंच जीव संसार में सदा दुःख उठाते हैं। दुःखी जीवों पर दया करना अच्छी बात है, किन्तु शिक्षा भी लेना चाहिए तथा ऐसी गति में जाने से बचना चाहिए।' विद्याधर ने माँ से कहा- मैं सदा दुःखी जीवों को बचाऊँगा और ऐसे कोई कार्य नहीं करूँगा, जिससे तिर्यंच गति में जाना पड़े' तथा उस शिशु चूहे को ऊँचे स्थान पर रख दिया, जिससे अन्य जीव उसे पीड़ा न पहुँचा पाएँ। सांकेतिक अंतिम उपहार - यथा माँ तथा बेटा।‘माँ कम और मीठा बोलती एवं मधुर गाती थीं।' विद्याधर भी तो ऐसे ही थे। माँ के प्रति उनका विशेष लगाव था। एक बार सांगली गए, तो माँ के लिए छापेदार सफ़ेद साड़ी लाए और बोले- ‘देखो माँ! यह सफ़ेद साड़ी आपके लिए, मुनिराजों को आहार देने के लिए लाया हूँ। इन उपहारों के पीछे छुपे राज़ को न समझ पाई माँ और बेटा माँ की ममता को अपना संपूर्ण आदर-सम्मान, अनुराग एवं प्रेम सब कुछ उपहारों के माध्यम से समर्पित कर निकल जाता है, ऐसे पथ पर जहाँ से पुनः जन्म न हो। किसी दूसरी माँ को रुलाना न पड़े। विद्याधर का ‘सफ़ेद साड़ी' वाला यह अंतिम उपहार संकेत दे रहा था कि माँ पूर्ण धवल वस्त्र धारण कर आत्मा को धवल बना लो और माँ ने वही किया। उन्होंने भी आर्यिका के व्रत धारण कर लिए। पावन भई सदलगा भूमि - पवित्र पावन भूमियों से घिरी सदलगा भूमि उस समय पावन हो गई, जब स्वर्ग से च्युत होकर आचार्य श्री विद्यासागरजी के जीव ने माँ श्रीमंतीजी की कोख में जन्म लिया। जहाँ पर बचपन बीता। जहाँ की धूल में धूसरित होकर व्यक्तित्व के विकास का क्रम शुरू हुआ। उछलते-कूदते कदम, चहलकदमी करता मन, निर्णय करता हुआ जीवन, वैराग्य पथ पर रखने वाला त्याग रूप वह साहसी कदम। इन सबका साक्षी बनने का सौभाग्य पाया था सदलगा ग्राम ने। तभी तो आज वह भूमि विश्व में ‘कल्याणोदय तीर्थ' के रूप में जानी एवं पहचानी जा रही है।कर्नाटक प्रांत, जिला बेलगाम (वर्तमान में 'बेलगावी'), तहसील चिक्कोड़ी में स्थित ‘सदलगा एक छोटा-सा ग्राम है। महाराष्ट्र और कर्नाटक प्रांत की सीमा पर बसा हुआ है।‘दूधगंगा' नामक नदी के द्वारा दोनों प्रांतों का विभाजन हुआ है। यह नदी सदलगा ग्राम के मध्य से बहती है। सदलगा से १५ किलोमीटर की दूरी पर आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की जन्म भूमि ‘भोज ग्राम' है, तथा १९ किलोमीटर की दूरी पर आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज की जन्मस्थली ‘कोथली ग्राम' है, जो आज वह ‘शांतिगिरि' के नाम से प्रसिद्ध है। २५ किलोमीटर पर अतिशय क्षेत्र ‘स्तवनिधि' एवं ३० किलोमीटर पर अतिशय क्षेत्र ‘कुम्भोज बाहुबली' है। और ३० किलोमीटर की दूरी पर ‘अक्किवाट (अकिवाट) ग्राम है, जहाँ मुनि श्री विद्यासागरजी की समाधिस्थली बनी हुई है। लगभग किलोमीटर की दूरी पर ‘कुण्डल' तीर्थ क्षेत्र है। और २२५ किलोमीटर की दूरी पर मुनि श्री कुलभूषणजी, मुनि श्री देशभूषणजी महाराजों की निर्वाणस्थली ‘कुंथलगिरि' बनी हुई है। इस तरह यह ‘सदलगा' ग्राम पहले से ही पवित्र भूमियों से घिरा हुआ था। और आज वर्तमान के युग प्रवर्तक आचार्य को अपने गोद में धारण कर तीर्थस्थली' बन गया है। उपसंहार अष्टगे' वंश के वंशज ने आज तीर्थंकरों के वंश को देदीप्यमान करने वाले पूर्वाचार्यों की परंपरा में श्रमणत्व को अंगीकार कर न केवल अपने को, अपितु सारे परिवार को धन्य कर दिया। सौभाग्यशाली हैं पिता श्री ‘मल्लप्पाजी, जिनके संरक्षण में पले-बड़े हुए उन्हीं के कुलदीपक कहे जाने वाले पुत्र, आज सम्यक्त्व रूपी पिता के संरक्षण में आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज के ‘विशाल गुरुकुल' का संचालन कर रहे हैं। क्या कहें- ‘माँ श्रीमंतीजी' के पुण्य की बलिहारी जो उनकी गोद में बालक्रीड़ा करने वाले आज क्षमारूपी माँ की छाँव में रहकर महान् परीषहजयी साधक बन गए हैं। भाई महावीर, गाँव की गलियों में हूँढ़ते हुए जिनका पीछा करते थे, वही आज उनके पीछे (पद चिह्नों पर) चलने के लिए आतुर हैं। खेल-खेल में भाई अनंतनाथ, शांतिनाथ और मित्र मारुति को पराजित करने वाले आज सत्यरूपी मित्र और गुणरूपी सहोदरों के साथ कर्मों को पराजित कर रहे हैं। धन्य है! बहन शांता-सुवर्णा की राखी, जो ऐसे हाथ पर बँधी कि वही हाथ आज अहिंसा रूपी बहन से दया की राखी बँधवाकर प्राणी मात्र को अभय दे रहे हैं। बचपन की पाठशाला में डाले गए संस्कारों के बीज चाहे वह परिवार द्वारा रोपित हुए हों अथवा आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के विश्वविद्यालय द्वारा प्रत्यारोपित। उन बीजों के लिए विद्याधर रूपी भूमि ऐसी उपजाऊ रही कि प्रत्येक बीज लहलहाती फ़सल बन गई। इसका एक भी बीज (टर्रा/निष्फल) न रहा। और तैयार हो गया जिनशासन का आचार्य श्री विद्यासागरजी रूपी खेत, जिसे पाकर जैन संस्कृति गौरवान्वित हो रही है। मेरा परिचय वही दे सकता है जो मेरे भीतर डूब जाए, मैं जहाँ बैठा हूँ वहाँ तक पहुँच जाए, आपकी दृष्टि वहीं तक पहुँच पाती है जहाँ मैं नहीं हूँ। मेरा सही परिचय तो यही है कि मैं चैतन्य पुंज आत्मा हूँ। जो इस भौतिक शरीर में बैठा हूँ।
  4. भारतीय वसुंधरा ने जिन्हें अपनी गोद में उठा 'विद्याधर' नाम से पुकारा, परिवार से जिन्हें ‘अष्टगे’ पहचान मिली, आज वो भारत माँ के सर्वोच्च हितंकर, प्राणी मात्र के शुभंकर, अहिंसा भाव के उद्घोषक, प्रायोगिक शिक्षा के प्रेरक एवं श्रमण संस्कृति की दहलीज पर शिष्य परम्परा का महा अर्घ समर्पित करने वाले अपूर्व व्यक्तित्व के धनी संतशिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के रूप में युग विख्यात होकर न केवल अपने परिवार की और न केवल दक्षिण भारत की, अपितु सम्पूर्ण भारत की पहचान' बन गए हैं। ऐसे अद्वितीय व्यक्तित्व का पारिवारिक चित्रण प्रस्तुत पाठ में दर्शाया जा रहा है। युगशिरोमणि, अनिर्वचनीय व्यक्तित्व के धनी, श्रमण परंपरा संप्रवाहक, सर्वविध साहित्य संवर्धक, भारतीय शिक्षा पद्धति के पोषक, सर्वोच्च अहिंसक (प्राणीमात्र के रक्षक), जिनतीर्थोद्धारक, राष्ट्र हितंकर, जिनप्राणप्रतिष्ठापक, भारतीय संस्कृति एवं संस्कारों के संरक्षक, आस्था के ईश्वर, महायशस्वी, महातपस्वी, अमृतपुरुष, सिद्धांतज्ञ, आत्मानुशासक, अध्यात्म सरोवर के राजहंस, जगज्ज्येष्ठ दिगम्बर जैनाचार्य १०८ श्री विद्यासागरजी महामुनिराज की बाल्यावस्था का नाम था। ‘विद्याधर'। दिगंबर जैनाचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज सामान्य परिचय पूर्व नाम - बाल ब्रह्मचारी श्री विद्याधर जैन अष्टगे। जन्म स्थान - सदलगा ग्राम के निकट चिक्कोड़ी, जिला बेलगाम (बेलगावी) कर्नाटक की शासकीय अस्पताल में हुआ। जन्म तिथि - आश्विन शुक्ल पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) गुरुवार, वी. नि. सं. २४७२, वि. सं. २००३, ई. सन् १० अक्टूबर, १९४६, रात्रि ११.३० बजे। पिता श्री - श्री मल्लप्पाजी जैन अष्टगे (समाधिस्थ मुनि श्री मल्लिसागरजी)। माताश्नी - श्रीमती श्रीमंतीजी जैन अष्टगे (समाधिस्थ आर्यिका श्री समयमतिजी) भाई-बहन - १. श्रीकांतजी (स्व.) २.बहन सुमतिजी (स्व.) ३. महावीरजी ४. विद्याधरजी (जन्मक्रम से) ५. बहन शांताजी ६. बहन सुवर्णाजी ७.धनपालजी (धन्यकुमार) (स्व.) ८. अनंतनाथजी ९. शांतिनाथजी १०. अनाम संतान (गर्भ से मृतक)। मातृभाषा - कन्नड़। शिक्षा - ९वीं कक्षा (मैट्रिक), माध्यम कन्नड़ भाषा। अन्य भाषा ज्ञान - मराठी, हिंदी, प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, अंग्रेजी, बंगला आदि। ब्रह्मचर्य व्रत - १४ वर्ष की उम्र में लग्न (विवाह) तक का व्रत क्षुल्लक सूरिसिंहजी महाराज से चाँद शिरडवाड़, जिला बेलगाम (बेलगावी), कर्नाटक, बुधवार, वी. नि. सं. २४८६, वि. सं.२०१७, ई.सन् १९ अक्टूबर, १९६०, दीपावली के दिन। आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत - आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज से चूलगिरि,जयपुर, राजस्थान, वी. नि. सं.२४९२, वि. सं. २०२३, ई.सन् १९६६। सातवीं प्रतिमा - आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज से श्रवणबेलगोला, हासन, कर्नाटक, वी. नि. सं. २४९३, वि. सं. २०२३, ई. सन् १९६६। मुनि दीक्षा - अजमेर, राजस्थान, आषाढ़ शुक्ल पंचमी, रविवार, वी. नि. सं. २४९५, वि. सं. २०२५, ई. सन् ३० जून, १९६८। दीक्षा गुरु - महाकवि दिगम्बराचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज। आचार्य पद - नसीराबाद, अजमेर, राजस्थान, मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया, बुधवार, वी. नि. सं. २४९९, वि. सं. २०२९, २२ नवम्बर, १९७२। दीक्षित शिष्य - बाल ब्रह्मचारी १२० मुनि, १७२ आर्यिका, २२ एलक, १२ क्षुल्लक, ३ क्षुल्लिका, सहस्राधिक बाल ब्रह्मचारी भाई एवं बहनें। सफल प्रेरक - आपकी प्रेरणा से सहस्राधिक उच्चशिक्षित बाल ब्रह्मचारी शिष्य-शिष्याओं के साथ आपके गृहस्थावस्था के माता-पिता, दो छोटे भाई, दो छोटी बहनें भी मोक्षमार्ग के पथिक बने। आप लाखों की संख्या में जनमानस को सात्त्विक जीवन निर्वाह की प्रेरणा दे रहे हैं। राष्ट्र के कर्णधारों को दिशाबोध दे रहे हैं। वैशिष्ट्य धर्म - दर्शनविज्ञ, साहित्यकार, सिद्धान्तवेत्ता, राष्ट्रीय चिन्तक, आध्यात्मिक प्रवचनकार, भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ, जैन मुनि संहिता के तपस्वी साधक। सौभाग्यशाली पिता : श्री मल्लप्पाजी अष्टगे - श्री मल्लप्पाजी का जन्म वीर निर्वाण संवत् २४४२, विक्रम संवत् १९७३, ईस्वी सन् १२ जून, १९१६ में ग्राम सदलगा, तालुका चिक्कोडी, जिला बेलगाम (वर्तमान नाम-बेलगावी), कर्नाटक प्रांत में हुआ था। आपके तीन पीढी पूर्व वंशज आष्टा गाँव में निवास करते थे। वहाँ से शिवराया भरमगौड़ा चौगुले, प्रांत कर्नाटक, जिला बेलगाम, (बेलगावी) तालुका-चिक्कोड़ी, ग्राम सदलगा आए थे। इसलिए आपका गोत्र ‘अष्टगे’ कहा जाने लगा। दक्षिण भारत में चतुर्थ, पंचम, बोगार, कासार, सेतवाल आदि दिगंबर जैन प्रसिद्ध जातियाँ होती हैं। गाँव के जमीदारों की चतुर्थ जाति होती है। मल्लप्पाजी गाँव के ज़मीदार होने से चतुर्थ जाति के थे। सदलगावासी उन्हें मल्लिनाथजी के नाम से पुकारते थे। उनके पिता सदलगा ग्राम के कलबसदि (पाषाण निर्मित) मंदिर के मुखिया श्री पारिसप्पाजी (पार्श्वनाथ) अष्टगे एवं माता श्रीमती काशीबाईजी थीं। पारिसप्पाजी के दो विवाह हुए थे। पहली पत्नी कम उम्र में स्वर्गवासी हो गई थीं। तब काशीबाई से उनका दूसरा विवाह हुआ था। दोनों पत्नियों से उनकी दस संतानें थीं। इनमें से चार दिन में तीन संतानों की मृत्यु प्लेग रूपी महामारी फैलने से हो गई, एवं कुछ समय पश्चात् दो संतानों का वियोग और हो गया। इस प्रकार पारिसप्पाजी की पाँच संतानों की आकस्मिक मृत्यु हो गई एवं पाँच संतान जीवित रहीं। पहली पत्नी से उत्पन्न हुआ पुत्र अप्पण्णा एवं दूसरी पत्नी काशीबाई से दो पुत्र और दो पुत्रियाँ हुईं। इनमें मल्लप्पाजी अपने माता-पिता के द्वितीय एवं लाड़ली संतान थे। मल्लप्पाजी के जन्म की खुशी में उनकी माता ने गरीबों को पाँच बोरी शक्कर बँटवाई थी। उनके दो भाई, बड़े अप्पण्णा एवं छोटे आदप्पा थे। बड़ी बहन चंद्राबाई एवं लक्ष्मीबाई (अक्काबाई) छोटी बहन थीं। इनकी शिक्षा कक्षा पाँचवीं तक मराठी भाषा में एवं कक्षा छठवीं-सातवीं की कन्नड़ भाषा में हुई थी। ये कन्नड़, मराठी, हिन्दी, उर्दू एवं संस्कृत भाषा के जानकार थे। इनका विवाह १७ वर्ष की उम्र में अक्कोळ ग्राम, तालुका चिक्कोडी, जिला बेलगाम, कर्नाटक के समृद्ध श्रेष्ठी श्रीमान् भाऊसाहब कमठे एवं श्रीमती बहिनाबाई की पुत्री श्रीमंती के साथ वीर निर्वाण संवत् २४६०, विक्रम संवत् १९९०, ईस्वी सन् १९३३ में संपन्न हुआ था। मल्लप्पाजी की दस संतानें हुईं। सन् १९३९ में प्रथम पुत्र श्रीकांत (चंद्रकांत) हुआ, जो छ: माह जीवित रहा। सन् १९४१ में दूसरी संतान पुत्री सुमन (सुमति) हुई, जो छः वर्ष तक जीवित रही। सन् १९४३ में तीसरी संतान के रूप में पुत्र महावीर का जन्म हुआ। सन् १९४६ में चौथी संतान के रूप में ‘विद्याधर' धरती पर आए। सन् १९४९ में पाँचवें क्रम में पुत्री शांताबाई और सन् १९५२ में छटवें क्रम में पुत्री सुवर्णाबाई का जन्म हुआ। सातवें क्रम में पुत्र धनपाल (धन्यकुमार) का जन्म हुआ, जो मात्र पंद्रह दिन तक जीवित रहा। सन् १९५६ में आठवीं संतान के रूप में पुत्र अनंतनाथ का जन्म हुआ। सन् १९५८ में नौवीं संतान के रूप में पुत्र शांतिनाथ का जन्म हुआ। अंतिम दसवीं संतान माँ के गर्भ तक ही जीवित रही। पारिवारिक वातावरण - मल्लप्पाजी के पिता श्री पारिसप्पाजी अत्यंत प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। वे स्वभाव से धार्मिक एवं दानी प्रकृति के थे। मल्लप्पाजी के घर पर ही दिगम्बर जैन तीर्थंकर १००८ श्री चंद्रप्रभ भगवान् का चैत्यालय था। भगवान् का अभिषेक एवं पूजन करना उनका नित्य कर्म था। प्रत्येक माह की अष्टमीचतुर्दशी को वे उपवास करते थे। उनके घर का वातावरण संस्कारित एवं धार्मिक था। यही कारण रहा कि उन्होंने अपने बच्चों के नाम भी तीर्थंकरों के नाम पर रखे - महावीर, अनंतनाथ, शांतिनाथ। उन्होंने अपनी संतान को पूर्ण रूप से धार्मिक संस्कारों से संस्कारित किया। व्यवहारिक कार्यों में भी वे अपने बच्चों को धर्म की शिक्षा देते रहते थे। पितृ वियोग - मल्लप्पाजी की उम्र जब लगभग २०, २१ वर्ष की थी, तब एक दिन उनके पिताजी की छाती में अचानक दर्द हुआ। अपनी मृत्यु को नज़दीक आया हुआ जानकर उन्होंने अपना सारा कारोबार अपने बेटों को सौंप दिया। बीमारी के चौथे दिन सब कुछ त्याग कर शांत भाव से णमोकार मंत्र के स्मरण एवं श्रवण पूर्वक उन्होंने प्राणों का विसर्जन कर दिया। अभिरुचि - श्री मल्लप्पाजी के पिताजी स्वाध्याय प्रेमी थे। वह हमेशा कहा करते थे- ‘क्या मैं अपने बेटों को अपने जीवनकाल में कभी स्वाध्याय करते देख सकूँगा?' फिर अचानक ही उनके पिता की मृत्यु हो गई। पिता की उपस्थिति में उनकी इच्छा को पूर्ण न कर पाने की पीड़ा ने मल्लप्पाजी को ‘स्वाध्याय प्रेमी’ बना दिया। पिताजी की मृत्यु के लगभग एक माह पश्चात् ही प्रतिदिन स्वाध्याय करने का संकल्प कर लिया और घर पर ही प्रतिदिन स्वाध्याय करना प्रारंभ कर दिया। परिवार के साथ-साथ अड़ोस-पड़ोस के लोग भी स्वाध्याय में बैठने लगे। ग्रंथ पूर्ण होने पर वे उसका निष्ठापन गाजे-बाजे से, आनंद पूर्वक गन्ने आदि को सजाकर, मिष्ठान वितरण आदि करके किया करते थे। जब तक गृहस्थावस्था में रहे तब तक परिवार में सामूहिक स्वाध्याय चलता रहा। त्याग के प्रति निष्ठावान् - त्याग के प्रति आपकी गहन निष्ठा थी। बचपन में ही उन्होंने अंग्रेजी दवा खाने का त्याग कर दिया था। वे दशलक्षण एवं सोलहकारण पर्व में एक आहार-एक उपवास करते थे। प्रत्येक अष्टमी व चतुर्दशी को प्रोषधोपवास करते थे। लगभग २०, २१ वर्ष की आयु में आपने जूते पहनने का आजीवन त्याग कर दिया था। जब वे पिताजी के स्वास्थ्य के बिगड़ने पर दवा लेने औषधालय गए थे, तब उन्हें सूचना मिली कि पिताजी का स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा है। वे दौड़ते हुए घर आ रहे थे, लेकिन पैरों के जूते दौड़ने में बाधा उत्पन्न कर रहे थे। अपने जूतों को हाथ में लेकर जब वे घर पहुँचे तब उनके पिताजी का देहावसान हो चुका था। इससे उन्हें गहरा धक्का लगा। तभी से उन्होंने जूते पहनने का त्याग कर दिया। सात्त्विक व्यापारी - श्री मल्लप्पाजी अष्टगे एक सफल व्यवसायी और ईमानदार कृषक थे। उनके पास २० एकड़ भूमि थी, जिसमें गन्ना, गेहूँ, ज्वार, मिर्च, मूंगफली आदि की खेती होती थी। वे साहूकार कहलाते थे। दूसरे किसानों को समय-समय पर पैसे तो देते थे, पर कभी भी उनसे ब्याज नहीं लेते थे। मूलधन के स्थान पर उस समय की प्रचलित कीमत पर ही उनसे फसल ले लिया करते थे। इस प्रकार वे एक प्रकार से किसानों की सहायता ही करते थे। एक बार ज्येष्ठ पुत्र महावीर अष्टगे ने नौकरी करने की इच्छा पिता के सामने रखी तो उन्होंने कहा- हम मालिक से नौकर बनेंगे क्या?' मल्लप्पा जी नौकरी के पक्षधर नहीं थे। विशेष प्रतिभा : चिकित्सा ज्ञान - उन्हें वानस्पतिक औषधियों का विशेष ज्ञान था। उनके हाथों से निर्मित की जाने वाली छोटे बच्चों की दवा तो जैसे रामबाण थी। ठंड के दिनों में यदि लोग रात्रि १२ बजे भी बच्चों को लेकर आ जाएँ, तो आप आलस को छोड़कर तुरंत कोट पहनकर, बैटरी लेकर जंगल में औषधि लेने चले जाते थे। अपने हाथों से दवा कूट-पीसकर तैयार करते, घर पर ही णमोकार मंत्र बोलकर बच्चों को दवा पिला देते थे। तब मरणासन्न बच्चे भी ठीक हो जाते थे, उनके हाथ में ऐसा जादू था। अरिहंत प्रभु की आराधना में तत्पर - पिताजी के स्वर्गवासी होने पर जिनालय को दिए जाने वाले दान में सागौन की लकड़ी से बड़े मंदिर की छत बनवाई थी। उसकी नक्कासी देखने योग्य थी। उस समय उसका खर्च ७००० रुपये आया था। पूजन के बर्तन चाँदी के एवं आरती सोने की बनवाई थी। साधु सेवा में तत्पर - साधु सेवा को आप अपना परम कर्त्तव्य मानते थे। एक समय उन्होंने नियम ले लिया कि ७० - ८० कि.मी. के आस-पास तक यदि दिगम्बर साधु विराजमान हों, तो मैं तीन या चार माह में एक बार गुरु दर्शन करने अवश्य जाऊँगा। कैसे भी जानकारी प्राप्त करके वह मुनि दर्शन को चले ही जाते थे। एक बार वे आचार्य श्री महावीरकीर्तिजी महाराज को लाने पास के गाँव गए। लौटने में अचानक बीच मार्ग का नाला चढ़ गया। अब महाराज सदलगा नहीं आ पाएँगे, ऐसा विचार कर उन्होंने झट से आचार्य श्री महावीरकीर्तिजी को उठाकर नाला में प्रवेश कर दिया। वे बलशाली एवं वीर तो थे ही। नाले में कीचड़ होने से, उसमें पैर फंस जाने के बावजूद भी वे महाराजश्री को नाला पार कराने में सफल हो गए। किनारे पर खड़े नगरवासियों में हर्ष की लहर दौड़ गई। प्राप्त हो कैवल्यज्योति - एक बार अपने घर में पंच परमेष्ठियों को स्मृत कर अखंड दीपक जलाने का संकल्प ले लिया, जो २६ वर्ष तक अखंड जलता रहा। पश्चात् वह वैरागी हो मुनि बन गए। विषयों के प्रति उदासीनता - यूँ तो बचपन से ही उन पर धार्मिक संस्कारों का प्रभाव था। विवाह के छ: माह पूर्व मुनि बनने की भावना से वे घर से निकल गए थे। किन्तु उनके पिता श्री पारिसप्पाजी उन्हें ढूंढकर घर वापस ले आए और उनका विवाह कर दिया। गृहस्थावस्था में रहते हुए भी वे विषयों के प्रति उदासीन ही रहे। लगभग सन् १९५२/५३ में उन्होंने चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी के चरणों में मुनि बनने की भावना रखी थी। पर उन्होंने मना कर दिया। वे बोले, ‘पहले छोटे-छोटे बच्चों का दायित्व सँभालो, फिर देखना।' तब मल्लप्पाजी ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत के लिए निवेदन किया। उनकी छोटी उम्र को देखकर उन्हें शीलव्रत रूप अर्थात् एक पत्नी व्रत एवं पक्ष व पर्वादिक में ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने का नियम दिया। नियम ग्रहण करके उन्होंने पुनः निवेदन किया कि आप हमें कुछ वैराग्य सूत्र दीजिए। तब आचार्य श्री शांतिसागरजी ने उन्हें कहा- ‘आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है, इतना जानो बस।' अपने ही पुत्र ब्रह्मचारी विद्याधरजी की मुनि दीक्षा के बीस दिन बाद, लगभग २० जुलाई, १९६८ को जब मल्लप्पाजी सपरिवार अजमेर पहुँचे, तब तीसरे दिन मुनि श्री ज्ञानसागरजी का आहार उनके चौके में हुआ। उस दिन मल्लप्पाजी ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया था। इस प्रकार उनका मन निर्ग्रन्थ दशा के लिए छटपटा रहा था। अंतत: बन ही गए मुनि - अपने द्वितीय पुत्र विद्याधर के मुनि बन जाने के बाद उन्होंने भी निर्ग्रन्थ पद को प्राप्त कर लिया। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की परम्परा के तृतीय पट्टाचार्य वात्सल्यमूर्ति आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज से माघ शुक्ल पंचमी, रेवती नक्षत्र, गुरुवार, वीर निर्वाण संवत् २५०३, विक्रम संवत् २०३३, ईस्वी सन् ०५ फरवरी, १९७६ को मुजफ्फरनगर, उत्तरप्रदेश में मुनि दीक्षा ग्रहण की और नाम ‘मुनि श्री मल्लिसागरजी' रखा गया। साधना पथ पर हुए अग्रसर - उन्होंने दीक्षा के बाद गुरुजी से कुछ नियम माँगा। गुरुजी ने ८ दिन के लिए नमक त्याग का नियम दिया। उसके बाद उन्होंने जीवन में कभी नमक नहीं लिया। रसों में आप एकाध रस ही लेते थे। फलों में आप एक केला लेते थे। आपकी साधना बहुत श्रेष्ठ थी। ७० वर्ष की उम्र में भी वह एक दिन में ६५ कि.मी. तक चल लेते थे। वैयावृत्ति भी नहीं करवाते थे। उनका संहनन अच्छा था। उपवास के अगले दिन उन्हें पारणा करनी है, ऐसा विकल्प नहीं होता था। श्रावक जब शुद्धि का जल लेकर पहुँचते, तब उन्हें लगता था कि आहार को उठना है। ईसरी, बिहार में सन् १९८३ में आचार्य श्री विद्यासागरजी से चारित्र शुद्धि का व्रत (१२३४ उपवास) लिया। एक उपवास - एक आहार करते हुए लगभग सात-आठ वर्ष में कर्नाटक के उगार ग्राम, जिला बेलगाम में यह व्रत पूर्ण हुआ। वहाँ के श्रावकों ने मुनिश्रीजी के चारित्र शुद्धि व्रत के पूर्ण होने के उपलक्ष्य में बूंदी के १२३४ लाडू मंदिरजी में चढ़ाए। घी के १२३४ दीपक जलाए। बड़ी धूम-धाम से उत्सव मनाया। उन्होंने कर्मदहन के भी एक सौ छप्पन उपवास किए। वे प्रायः उपवास करते रहते थे जिनकी पृथक् से कोई गिनती ही नहीं है। स्वयं तीर्थ बनने का पुरुषार्थ - भव्य जीव तीर्थ क्षेत्रों की वंदना स्वयं तीर्थ बनने के लिए करता है। मल्लप्पाजी ने भी अपने जीवनकाल में सिद्धक्षेत्र श्री सम्मेद शिखरजी की यात्रा तीन बार की। एक बार मातापिता के साथ, दूसरी बार पत्नी तथा बच्चों के साथ, तीसरी बार मुनि दीक्षा के बाद आचार्य श्री विद्यासागरजी के साथ पैदल की। इसके अलावा पावापुरजी, चंपापुरजी, मांगीतुंगीजी, गिरनारजी, प्रवचनरत मुनि श्री मल्लिसागरजी कुंथलगिरिजी आदि अनेक सिद्धक्षेत्रों की वंदना भी आपने मुनि अवस्था में की थी। जीवन रूपी मंदिर पर चढ़ाया समाधि का कलश जीवन के अंत तक मुनि चर्या का निर्दोष पालन करते हुए, शतभिषा नक्षत्र में मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, शुक्रवार, वीर निर्वाण संवत् २५२१, विक्रम संवत् २०५१, ईस्वी सन् ०९ दिसंबर, १९९४ को श्री नेमिनाथ दिगंबर जैन मंदिर, शाहूपुरी, कोल्हापुर, महाराष्ट्र में आपकी समाधिस्थ मुनि श्री मल्लिसागरजी का अग्निसंस्कार समाधि जाग्रत अवस्था में हुई थी। सातिशय पुण्यशालिनी माँ: श्रीमती श्रीमंतीजी अष्टगे - जिस प्रकार सभी वनों में गोशीर्ष चन्दन नहीं होता, सभी खदानों में हीरा नहीं निकलता, सभी दिशाओं से सूरज नहीं निकलता तथा सभी सरोवरों में सहस्रदल कमल नहीं खिलते, उसी प्रकार सभी माताएँ महापुरुषों को जन्म नहीं देतीं। कोई बिरली माता ऐसी होगी जो महापुरुषों को जन्म देने वाली होती है। उन्हीं बिरली माताओं में एक हैं माँ श्रीमती श्रीमंतीजी अष्टगे। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज आपको ‘सती श्रीमंती’ कहा करते थे। उनका जन्म वीर निर्वाण संवत् २४४५, विक्रम संवत् १९७५, ईस्वी सन् १ फरवरी, १९१९ में ग्राम अक्कोळ, तालुका चिक्कोडी, जिला बेलगाम, कर्नाटक में हुआ था। पिता जमींदार भाऊसाहब कमठे एवं माता श्रीमती बहिनाबाई थीं। वे अपने माता-पिता की इकलौती सन्तान थीं। लौकिक शिक्षा मराठी माध्यम से कक्षा छठवीं तक प्राप्त की। श्रीमती श्रीमंतीजी अष्टगे जब छ: माह की थीं, तभी उनके माता-पिता का प्लेग महामारी के कारण देहावसान हो गया था। उनका पालन-पोषण दादा-दादी ने किया था। दादा-दादी धार्मिक एवं बड़े वैभवशाली सम्पन्न गौड़ा जमींदार थे। आदर्श गृहिणी - आदर्श गृहिणी बनकर गृहस्थ जीवन का निर्माण करना स्त्री के जीवन का सर्वोच्च ध्येय होता है। आदर्श गृहिणी कुटुम्ब, समाज, देश और काल की भूषण मानी जाती है। माँ श्रीमती श्रीमंतीजी ऐसी ही एक आदर्श गृहिणी थीं। नित्यप्रति भगवान् जिनेन्द्र देव के दर्शन-पूजन करने के बाद ही वे भोजन आदि गृहस्थी वाले कार्य स्वयं करती थीं। उनके घर में कुँआ था, पड़ोस में ही बावड़ी थी और थोड़ी ही दूरी पर नदी भी थी। वह अपने हाथ से चक्की (हाथ वाली) चलाकर आटा तैयार करती थीं, सिर पर घड़े रखकर पानी भरकर लाती थीं, गोबर से घर-आँगन लीपती थीं, बच्चों को जहाँ अच्छे-अच्छे संस्कार देने में निपुण थीं, तो वहीं स्वादिष्ट व्यंजन बनाती थीं। दही मथकर मक्खन निकालतीं और तत्काल गर्म करके देशी घी बना देती थीं। सभी बच्चों को छाछ पीना अनिवार्य था। घर और खेत के कर्मचारियों का भी पूरा ध्यान रखती थीं। विशेषतया पूरणपोली, इडली, डोसा बनाती ही रहती थीं, क्योंकि विद्याधर को ये विशेष पसंद थे। स्वभाव - श्रीमती श्रीमंतीजी वात्सल्य की देवी और सदगुणों से परिपूर्ण गृहलक्ष्मी थीं। वह बहुत ही दयानिष्ठ, कलाकुशल, धर्मपरायणा, शीलवती एवं शांत स्वभावी महिला थीं। आपके मुख पर सदा प्रसन्नता एवं शांति झलकती रहती थी। अभिरुचि - माँ श्रीमती श्रीमंतीजी अष्टगे सात्त्विक और सुरुचिपूर्ण जीवनचर्या में सदा संलग्न रहती थीं। भजन गाना एवं अतिथि-संविभाग (चौका लगाना) करने में उनकी रुचि थी। उन्होंने अपने जीवनकाल में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी, आचार्य श्री देशभूषणजी, आचार्य श्री सुबलसागरजी, आचार्य श्री धर्मसागरजी, आचार्य श्री ज्ञानसागरजी, आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी आदि को आहार दान दिया। यात्रा के समय जहाँ कहीं भी उन्हें मुनिराजों को आहार देने का अवसर प्राप्त होता तो वह कभी नहीं चूकती थीं। यहाँ तक कि विद्याधर के गर्भावस्था में स्वप्न तक में भी उन्होंने चारण ऋद्धिधारी दो मुनिराजों को आहार दिया था। संस्कार प्रदात्री - ‘एक माँ सौ उपाध्यायों से भी श्रेष्ठ होती है। बचपन में माँ के द्वारा किया गया संस्कारों का बीजारोपण भविष्य में एक विशाल वट वृक्ष के रूप में परिवर्तित होता है। वह एक कुशल गृहिणी होने के साथ एक संस्कारदात्री माँ भी थीं। अपने बच्चों को धार्मिक संस्कारों के साथ व्यवहारिक जीवन जीने की कला एवं नैतिक शिक्षा भी देती थीं। प्रात:काल देवदर्शन के बाद ही बच्चों को दूध आदि देती थीं। अपने खेत में पैदा हुए धान्य जैसे चना, गेहूँ, मूंग, मोठ, धान्य आदि में से अच्छे-अच्छे धान्य आदि बीनकर अतिथि–संविभाग के लिए रख लेती थीं। मुनिराज के आहार के बाद ही बच्चों को भोजन मिलता था। बच्चे आकुलित भी हो जाएँ, तो भी उन्हें मुनिराज के आहार के पहले भोजन नहीं देती थीं। कच्ची माटी को पकाकर घट का रूप देना उन्हें खूब आता था। वह बच्चों को बड़े प्यार से कहती थीं कि देखो बेटा मुनिराज परमेष्ठी होते हैं। उनके आहार के बाद आपको सब चीजें मिलेंगी। आप लोग दरवाजा के पास बैठकर आहार देखना और बिल्ली, कुत्ता आदि किसी भी जानवर को आने नहीं देना। वह बच्चों से आहार के बाद मुनिराजों को पिच्छी दिलवातीं, उनके चरणों में पूजन एवं आरती करवाती थीं। इतना ही नहीं वह बच्चों को प्रतिकूल परिस्थिति में सहनशील बनने की शिक्षा भी देती थीं। एक बार बालक विद्याधर अपने बाल सखाओं के साथ खेलकर घर वापस आए और माँ से बोले- ‘माँ! आज तो मैं बहुत थक गया हूँ। आप मेरे पैर दबा दो।' माँ ने हँसकर जवाब दिया- ‘बेटा! क्या बूढा हो गया जो इतना-सा दर्द भी सहन नहीं कर पाता। सहन करना सीखो। माँ की दी गई दृढ़ शिक्षा का फल है कि आज आचार्यश्रीजी हर प्रकार के सुख-दुःख एवं रोगादि बाईस परीषहों को समता के साथ सहन कर रहे हैं। वह कहते हैं- ‘अपना दुःख कहा नहीं, सहा जाता है। और दूसरों का दुःख सहा नहीं, कहा जाता है।' संस्कारों के बीज तुम बोते चलो, कभी न कभी फूल आएँगे। जो छोटे से बीज अभी दिख रहे, आगे वे वट वृक्ष बन जाएँगे।। संयम सोपान पर बढ़ाए कदम - श्रीमती श्रीमंतीजी ने अपनी दोनों पुत्रियों- शांता तथा सुवर्णा एवं पति श्री मल्लप्पाजी के साथ ही माघ शुक्ल पंचमी, रेवती नक्षत्र, वीर निर्वाण संवत् २५०३, विक्रम संवत् २०३३, ईस्वी सन्, ०५ फरवरी, १९७६ को आचार्य श्री धर्मसागरजी से मुजफ्फरनगर, उत्तरप्रदेश में आर्यिका दीक्षा ली। आपका नाम आर्यिका श्री ‘समयमतिजी' रखा गया। दोनों पुत्रियों के नाम क्रमशः आर्यिका श्री नियममतिजी और आर्यिका श्री प्रवचनमतिजी रखा गया एवं पति का नाम मुनि श्री मल्लीसागरजी हुआ। उस दिन कुल ग्यारह दीक्षाएँ हुईं, इनमें से चार दीक्षार्थी एक ही परिवार (अष्टगे परिवार, सदलगा) के थे। संयम साधना - दीक्षा के दूसरे दिन से ही उन्होंने नमक का आजीवन त्याग कर दिया था। आपने उपवास पूर्वक जिनगुण संपत्ति, कर्म दहन, णमोकार मंत्र, सम्यक्त्व पच्चीसी, सहस्रनाम, तत्त्वार्थ सूत्र आदि व्रत किए। गृहस्थ अवस्था में भी अष्टमी-चतुर्दशी को वे प्रायः उपवास करती थीं। संयमी जीवन की सफलता समाधि - ज्येष्ठ शुक्ल चतुर्थी, पुनर्वसु नक्षत्र, रविवार, वीर निर्वाण संवत् २५०९, विक्रम संवत् २०४१, ईस्वी सन् ३ जून, १९८४, प्रातः ९.३० पर ग्राम कोछोर, जिला सीकर, राजस्थान में लगभग ६५ साल की उम्र में आपने संयमी जीवन को सफल करते हुए समाधिमरण किया। आपने समाधिमरण के १५ दिन पूर्व ही स्वेच्छा से अन्न का त्याग कर दिया था। मरण से दो दिन पूर्व ही यम सल्लेखना अर्थात् चारों प्रकार के आहार जल का त्याग कर दिया था। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी से दीक्षित छुल्लक श्री विनयसागरजी थे। इन्होंने आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज द्वारा दीक्षित आचार्य कल्प मुनि श्री विवेकसागरजी द्वारा दीक्षा ग्रहण कर मुनि श्री विजयसागरजी नामकरण पाया था। उन्हीं मुनि श्री विजयसागरजी के चरण सान्निध्य में पूर्णतः जागृति के साथ णमोकार मंत्र का स्मरण करते-करते उनका समाधिपूर्वक मरण हो गया। संसार के सर्वस्य त्याग, समस्त प्रेम, सर्वश्रेष्ठ सेवा और सर्वोत्तम उदारता 'माँ' नामक अक्षर से भरी हुई है। धन्य है ऐसी माँ ! जो युग प्रतीक आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज जैसे महापुरुष को जन्म देकर जन-जन के कल्याण में सहभागी बन गई। श्री नानूलाल, राजकुमारजी जैन, सर्राफ, जयपुर, राजस्थान को आर्यिका समयमतिजी का सान्निध्य एवं सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आर्यिका समयमतिजी को नज़दीक से जानकर उन्होंने उनका संक्षिप्त चरित्र संस्मरण रूप में लिखा है। इसमें वह लिखते हैं- ‘लोग नारे लगाते हैं कि हर माँ का बेटा कैसा हो? विद्यासागर जैसा हो। पर माँ भी कैसी हो? विद्यासागर की माँ जैसी हो, यह भी ख्याल रखना होगा।' सुकुल संवर्द्धक अग्रज : महावीरजी अष्टगे बड़े भाई श्री महावीरजी अष्टगे परिवार के इकलौते ऐसे सदस्य हैं, जिन्होंने सातिशय पुण्यशाली परिवार के वंश की परंपरा को अग्रसर किया है। अष्टगे परिवार के कुल आठ सदस्यों में से एक आपने ही सद्दगृहस्त होने की भूमिका निभाई। शेष सभी सदस्य मोक्ष पथ के अनुगामी हो गए। भाई श्री महावीरजी का जन्म ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी, मंगलवार, वीर निर्वाण संवत् २४६९, विक्रम संवत् २०००, ईस्वी सन् १ जून, १९४३ को हुआ था। आपने स्नातक (बी.ए. अंग्रेजी) तक शिक्षा प्राप्त की। आपका विवाह शमनेवाड़ी ग्राम, जिला बेलगाम, कर्नाटक की सुसंस्कारित कन्या अलका देवी से वीर निर्वाण संवत् २५०२, विक्रम संवत् २०३२, ईस्वी सन् २० दिसंबर, १९७५ में हुआ। आपकी बेटी दीपिका एवं बेटा अक्षय अष्टगे दो संतानें हैं। कृषि एवं ज्वेलरी का व्यापार होता है। महावीरजी अष्टगे बड़े शांत, गंभीर एवं सरल स्वभावी हैं। जब आपके परिवार के सात सदस्य (माँ, पिता, तीन भाई, दो बहनें) वैरागी होकर मोक्षमार्ग के प्रतीक बन गए, तब आप भी विरक्त होकर घर छोड़ना चाहते थे, पर कर्म का योग कहें अथवा परिस्थितियों की विवशता, आपको गृहस्थ बनना पड़ा। वह आज गृहस्थी में जल से भिन्न कमल की भाँति रह रहे हैं। भरत चक्रवर्ती की भाँति वैराग्य धारण करने को उनका मन आतुर है। महावीर भैयाजी से वार्ता - श्रावण कृष्ण द्वादशी, गुरुवार, २० जुलाई, २०१७ के दिन महावीर भैयाजी से गुरुचरणानुरागियों को साक्षात्कार करने का अवसर प्राप्त हुआ। उन बिंदुओं को यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं- प्रश्नकर्ता - जब सारा परिवार विरक्त होकर चला गया तब आपको कैसी अनुभूति हुई ? महावीरजी - अनुभूति क्या-आधा पागल हो गया था। जिसकी जो सलाह रहती, ‘हाँ' कर देता था, बस। प्रश्नकर्ता - फिर आप कैसे सँभले ? महावीरजी - सँभलना क्या था? मन का संतुलन ही बिगड़ गया था। हमें सँभालने हमारी छोटी बुआ ‘लक्ष्मीबाई' हमारे पास आ गई थीं। वह सदलगा से ४ किलोमीटर की दूरी पर ही शमनेवाड़ी नामक गाँव में रहती थीं। उन्होंने हमें सँभाला और २२ दिसंबर, १९७५ में हमारा विवाह अपनी बेटी 'अलका' से करा दिया। प्रश्नकर्ता - बुआ की बेटी से ? महावीरजी - हाँ, हमारे यहाँ कर्नाटक में मामा-बुआ की बेटा-बेटियों में विवाह का रिवाज है। इसे दोष नहीं माना जाता। प्रश्नकर्ता - आपकी रुचि क्या है ? आपको क्या पसंद है ? महावीरजी - अभी तो हमें घर छोड़ना पसंद है। सभी निकल गए। हमको यह खटकता है कि हम अभी तक नहीं निकल पा रहे हैं। क्या करें ? हम दीक्षा लेना अभी चाह रहे थे, पर सन् २०१२ में हमारे सिर पर, पेड़ से टूटकर सूखा नारियल गिर गया था, जिससे हमें सिर का ऑपरेशन कराना पड़ा। अतः दीक्षा नहीं ले पा रहा हूँ। प्रश्नकर्ता - इस समय सारा विश्व आचार्यश्रीजी का ५०वाँ संयम स्वर्ण महोत्सव मना रहा है। आपको क्या अनुभूति हो रही है ? महावीरजी - हमें गर्व होता है कि उनके परिवार में मेरा जन्म हुआ। जब कभी भी हमारा परिचय आचार्य श्री विद्यासागरजी के गृहस्थावस्था के भाई के रूप में कराया जाता है तो हमें बहुत अच्छा लगता है। प्रश्नकर्ता - बस एक अंतिम प्रश्न। सुना है कि आपने अपना मूल घर जहाँ पर महावीर, विद्याधर, शांता, सुवर्णा, अनंतनाथ, शांतिनाथ, आदि खेले-कूदे, बड़े हुए, माता-पिता से धार्मिक संस्कार पाए। वह स्थान दान कर दिया। वहाँ पर १00८ श्री शांतिनाथ जिनालय का निर्माण करवा दिया। इसकी भूमिका कैसी बनी ? आपकेमन में यह भाव कैसे आया ? महावीरजी - घर को मंदिर बनाने का भाव तो दिल्ली के एक सेठ श्री महावीरप्रसादजी माचिसवालों के मन में आया था। वह सेठ जीवन में पहले कभी मंदिर नहीं जाते थे। सन् १९७९ एवं १९८४ में मुनि श्री मल्लिसागरजी का वर्षायोग शक्ति नगर, दिल्ली में हुआ। मुनिश्री की तप-साधना सुनकर वह बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने मुनिश्री से रोज अभिषेक और पूजन करने का नियम ले लिया। एक दिन वह नेमिनाथ जिनालय, कोल्हापुर में विराजित मुनि श्री मल्लिसागरजी महाराज के दर्शन एवं आशीर्वाद ग्रहण कर स्तवनिधि, कुंभोज बाहुबली होते हुए सदलगा पधारे थे। हमारे घर में प्रवेश करते ही गद्गद हो उठे। हमसे बोले, आपके घर में प्रवेश कर मुझे ऐसा लगा जैसे कि मैंने एक जैन मंदिरजी में ही प्रवेश कर लिया हो। मैं अब इस घर को गृहस्थी का घर नहीं बनाकर, परम पावन तीर्थ बनाना चाहता हूँ। आपको मुझे सहयोग देना होगा अर्थात् घर छोड़ना होगा। हमने उन्हें तुरंत हाँ कर दिया और कहा, ये तो हमारा परम सौभाग्य है। जब मेरे पूरे परिवार ने घर छोड़कर संन्यास ले लिया, तो क्या मैं घर नहीं छोड़ सकता ? हमारे पूर्व जन्म का कर्म था जो मैं यहाँ अटका हूँ। मैं भी एक दिन इसी मार्ग पर आने वाला हूँ। हमसे स्वीकृति प्राप्त कर उन्होंने कार्तिक शुक्ल तृतीया, रविवार, वीर निर्वाण संवत् २५१४, विक्रम संवत् २०४४, ईस्वी सन् २५ अक्टूबर, १९८७ को मुनि श्री मल्लिसागरजी के पास कोल्हापुर जाकर के एवं जनवरी, १९८८ में श्री दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र क्षेत्रपालजी, ललितपुर, उत्तरप्रदेश में विराजित आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के पास भी जाकर के इस पवित्र कार्य हेतु आशीर्वाद प्राप्त किया। इस तरह सेठ महावीरप्रसादजी माचिसवाले, दिल्ली एवं दिल्ली के कुछ अन्य श्रावकगणों के सहयोग से मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी, गुरुवार, वीर निर्वाण संवत् २५२०, विक्रम संवत् २०५०, ईस्वी सन् २३ दिसंबर, १९९३ को शिलान्यास होकर हमारा घर आज शिखरबद्ध एवं अष्टधातु से निर्मित श्री शांतिनाथ भगवान् की मनोज्ञमूर्ति से प्रतिष्ठित होकर ‘१००८ श्री शांतिनाथ जिनालय' के रूप में परिणत हो गया। पंचकल्याणक हेतु समाज के निवेदन पर आचार्य श्री विद्यासागरजी का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। माघ शुक्ल प्रतिपदा से सप्तमी वीर निर्वाण संवत् २५२९, विक्रम संवत् २०५९, ईस्वी सन् २ से ८ फरवरी, २००३ में आचार्य श्री विद्यासागरजी के शिष्य मुनि श्री नियमसागरजी आदि १३४ पिच्छीधारी साधु एवं आर्यिकाओं के सान्निध्य में यहाँ का पंचकल्याणक बाल ब्रह्मचारी प्रदीप भैया, अशोकनगर, मध्यप्रदेश के प्रतिष्ठाचार्यत्व में बड़ी धूमधाम से संपन्न हुआ। और हमारा घर आज ‘कल्याणोदय तीर्थ' के रूप में परिणत हो गया। हम अपने घर को मंदिरजी के लिए त्यागकर बहुत हर्ष एवं गौरव का अनुभव करते हैं। देश भर के लोग आचार्यश्रीजी के इस जन्म स्थान को देखने आते हैं और यहाँ जिनालय देखकर खुश हो जाते हैं। आचार्यश्रीजी के गृहस्थावस्था के घर में जिन प्रमुख स्थानों से उनकी यादें जुड़ी हुई हैं, उन स्थानों को एवं उनके द्वारा उपयोग की गई वस्तुएँ आज भी वहीं सुरक्षित सँजोकर रखी गई हैं। नीचे वाला भाग संग्रहालय बनाकर वैसा का वैसा ही रखा है। पथानुगामिनी अनुजा : शांताजी अष्टगे नाम - बालब्रह्मचारिणी शांताजी। जन्म - वीर निर्वाण संवत् २४७६, विक्रम संवत् २००६, ईस्वी सन् १९४९। शिक्षा - सातवीं, माध्यम कन्नड़। भाषा ज्ञान - कन्नड़, मराठी, हिन्दी, संस्कृत। अभिरुचि - अतिथि-सत्कार एवं दान देना। ब्रह्मचर्य व्रत - सवाई माधोपुर, राजस्थान, वीर निर्वाण संवत् २५०२, विक्रम संवत् २०३२, ईस्वी सन् ०८ अप्रैल, १९७५ में आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज से। सातवीं प्रतिमा - खतौली, जिला मुजफ्फरनगर, उत्तरप्रदेश में अक्षय तृतीया के दिन आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज से। आर्यिका दीक्षा - मुजफ्फरनगर, उत्तरप्रदेश, माघ शुक्ल पंचमी, रेवती नक्षत्र, वीर निर्वाण संवत् २५०३, विक्रम संवत् २०३३, ईस्वी सन् ०५ फरवरी, १९७६ में आचार्य श्री धर्मसागरजी से। नामकरण - आर्यिका श्री नियममतिजी। वर्तमान में - सप्तम प्रतिमाधारी ब्रह्मचारिणी शांताजी, श्राविकाश्रम, तुकोगंज, इंदौर, साधनारत मध्यप्रदेश। एक दिन घर पर चल रहे सामूहिक स्वाध्याय दौरान बहन शांता एवं सुवर्णा ने विद्याधर से पूछा- ‘भैया! इतनी सारी किताबें (ग्रंथ) हम कहाँ रखेंगे?' विद्याधर ने कहा- ‘कहीं नहीं', और हृदय पर हाथ रखकर बोले-‘यहाँ रखेंगे। अल्पवय में विद्याधर ने अपनी बहनों को शिक्षा दी कि ग्रंथों को ग्रंथालय की शोभा नहीं, हृदय की शोभा बनाना चाहिए। बहनों ने बताया, विद्याधर भैया रात्रि में हम लोगों को तत्त्वार्थ सूत्र सिखाते थे। यदि उन्हें किसी दिन मंदिर से आने में देरी हो जाती और हम लोग सो जाते, तब वे माँ से पूछते कि हम लोगों ने पाठ सुनाया अथवा नहीं। यदि नहीं, तो वे उसी समय हमें जगाकर बैठा देते थे। वे उस दिन का पाठ उसी दिन तैयार करवाते थे। पथानुगामिनी अनुजा : सुवर्णाजी अष्टगे नाम - बाल ब्रह्मचारिणी सुवर्णाजी। जन्म - वीर निर्वाण संवत् २४७९, विक्रम संवत् २००९, ईस्वी सन् १९५२। शिक्षा - दसवीं, माध्यम मराठी। भाषा ज्ञान - कन्नड़, मराठी, हिन्दी, संस्कृत। अभिरुचि - भजन गुनगुनाना एवं परिसर को सुंदर रखना। ब्रह्मचर्य व्रत - सवाई माधोपुर, राजस्थान, वीर निर्वाण संवत् २५०२, विक्रम संवत् २०३२, ईस्वी सन् ०८ अप्रैल, १९७५ में आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज से। सातवीं प्रतिमा - खतौली, जिला मुजफ्फरनगर, उत्तरप्रदेश में अक्षय तृतीया के दिन आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज से। आर्यिका दीक्षा - मुजफ्फरनगर, उत्तरप्रदेश, माघ शुक्ल पंचमी, रेवती नक्षत्र, वीर निर्वाण संवत् २५०३, विक्रम संवत् २०३३, ईस्वी सन् ०५ फरवरी, १९७६ में आचार्य श्री धर्मसागरजी से। नामकरण - आर्यिका श्री प्रवचनमतिजी। वर्तमान में - सप्तम प्रतिमाधारी ब्रह्मचारिणी सुवर्णाजी, श्राविकाश्रम, तुकोगंज, इंदौर, साधनारत मध्यप्रदेश। बहन सुवर्णा के जन्म से दस दिन पूर्व पिताजी ने २१ तोला सोना खरीदा था, अतः आपका नाम सुवर्णा रखा गया। दोनों बहनें उम्र में छोटी थीं। शांताजी की उम्र १२ वर्ष एवं सुवर्णाजी की उम्र ९ वर्ष थी। व्रत करने की जिद करने लगीं। तब माँ ने कहा- ‘अभी तुम छोटी हो उपवास नहीं बनेंगे। एकासन कर लिया करो।' माँ ने अपने ममता भरे भावों से समझाया कि एकासन का मलतब सुबह एक बार पूरा भोजन कर लो एवं शाम को पूड़ी, बूंदी, जलेबी आदि तले पदार्थ ले लिया करो। एक दिन विद्याधर भैया ने उन्हें एकासन में शाम को भोजन करते देख लिया, तो बोले- ‘ऐसा भी कोई एकासन होता है क्या ? ऐसा तो मैं हमेशा कर सकता हूँ। एक बार भोजन करना और शाम को मुँह में कुछ भी नहीं डालना। वही एकासन कहलाता है। इसके बाद से दोनों बहनों ने सही एकासन व्रत करना शुरू कर दिया। अनुगामी अनुज : अनंतनाथजी अष्टगे नाम - बाल ब्रह्मचारी अनंतनाथजी जैन अष्टगे। जन्म - भाद्रपद शुक्ल नवमी, गुरुवार, वीर निर्वाण संवत २४८३, विक्रम संवत् २०१३, ईस्वी सन् १३ सितंबर, १९५६, दोपहर १२ बजे। शिक्षा - हाई स्कूल, माध्यम मराठी। भाषा ज्ञान - कन्नड़, मराठी, हिन्दी, संस्कृत। ब्रह्मचर्य व्रत - श्री दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी, राजस्थान वैशाख कृष्ण सप्तमी, शुक्रवार, वीर निर्वाण संवत् २५०१, विक्रम संवत् २०३२, ईस्वी सन् २ मई, १९७५ । सातवीं प्रतिमा - धौलपुर, राजस्थान। क्षुल्लक दीक्षा - श्री दिगंबर जैन सिद्धक्षेत्र, सोनागिरिजी, जिला दतिया, मध्यप्रदेश, मार्गशीर्ष शुक्ल पूर्णिमा, गुरुवार, वीर निर्वाण संवत् २५०२, विक्रम संवत् २०३२, ई. सन् १८ दिसंबर, १९७५। एलक दीक्षा - श्री दिगंबर जैन सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुरजी, जिला दमोह, मध्यप्रदेश, कार्तिक शुक्ल नवमी, शनिवार, वीर निर्वाण संवत् २५०४, विक्रम संवत् २०३४, ई. सन् १९ नवंबर, १९७७। मुनि दीक्षा - श्री वर्णीभवन, मोराजी, सागर, मध्यप्रदेश, वैशाख कृष्ण अमावस्या, मंगलवार, वीर निर्वाण संवत् २५०७, विक्रम संवत् २०३७, ईस्वी सन् १५ अप्रैल, १९८0। नामकरण - मुनि श्री योगसागरजी महाराज। दीक्षा गुरु - आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज। विद्याधर ने अपने छोटे भाई-बहनों को बचपन में णमोकार मंत्र एवं भूत, वर्तमान एवं भविष्य तीनों कालों के चौबीस तीर्थंकरों के नाम और विदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों के नाम भी याद करा दिए थे। मुनि श्री योगसागरजी कहते हैं कि बचपन से ही वे हमारे गुरु थे, और आज भी हैं। अनुगुणी अनुज : शांतिनाथजी अष्टगे। नाम - बाल ब्रह्मचारी शांतिनाथजी जैन अष्टगे । जन्म - आश्विन शुक्ल पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा), सोमवार, वीर निर्वाण संवत् २४८४, विक्रम संवत् २०१५, ई. सन् २७ अक्टूबर, १९५८, समय २ से २.३० के बीच । शिक्षा - हाई स्कूल, माध्यम मराठी। भाषा ज्ञान - कन्नड़, मराठी, हिन्दी, संस्कृत। ब्रह्मचर्य व्रत - श्री दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी ,राजस्थान, वैशाख कृष्ण, सप्तमी, शुक्रवार, वीर निर्वाण संवत् २५०२, विक्रम संवत् २०३२, ई.सन् २ मई, १९७५। सातवीं प्रतिमा - सवाई माधोपुर, राजस्थान क्षुल्लक दीक्षा - श्री दिगंबर जैन सिद्धक्षेत्र सोनागिरिजी, जिला दतिया, मध्यप्रदेश मार्गशीर्ष शुक्ल पूर्णिमा, गुरुवार, वीर निर्वाण संवत् २५०२, विक्रम संवत् २०३२, ई. सन् १८ दिसंबर, १९७५। एलक दीक्षा - श्री दिगंबर जैन सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी, जिला छतरपुर, मध्यप्रदेश, कार्तिक कृष्ण अमावस्या (दीपावली), मंगलवार, वीर निर्वाण संवत् २५०५, विक्रम संवत् २०३५, ई. सन् ३१ अक्टूबर, १९७८। मुनि दीक्षा - श्री दिगंबर जैन सिद्धक्षेत्र द्रोणगिरिजी, छतरपुर, मध्यप्रदेश, चैत्र कृष्ण षष्ठी, शनिवार, वीर निर्वाण संवत् २५०६, विक्रम संवत् २०३६, ई. सन् ०८ मार्च, १९८0। नामकरण - मुनि श्री समयसागरजी महाराज। दीक्षागुरु - आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज। एक दिन शांतिनाथ (मुनि श्री समयसागरजी) खड़े-खड़े मूंगफली छील रहे थे। उसके दानों के लाल छिलकों को मोड़ते हुए फैंक मार कर उड़ा रहे थे। सफेद दाना हाथ में लिए थे। तभी विद्याधर ने पूछा- ‘क्या कर रहे हो?' शांतिनाथ ने कहा- ‘शरीर और आत्मा को अलग कर रहे हैं, भैया!' फिर सफेद दाने को दिखाकर बोले- ‘देखो यह आत्मा है...। अनन्य बाल सखा - मारुति लिंगायत विद्याधर के बचपन के अनन्य मित्र मारुति हैं। इनका जन्म सन् १९४०, सदलगा ग्राम, जिला बेलगाम (बेलगावी), कर्नाटक में हुआ था। इनका परिवार अष्टगे परिवार के खेत में बटिया से काम करता था। वे अष्टगे परिवार के सदस्य की भाँति थे। विद्याधर से उम्र में बड़े होकर भी स्कूल में देरी से प्रवेश लेने के कारण कक्षा एक से नवमी तक विद्याधर के साथ ही पढ़े। आठवीं एवं नवमी कक्षा सदलगा में नहीं होने से दोनों मित्र पाँच किलोमीटर की दूरी पर स्थित बेड़कीहाळ गाँव में साइकिल से जाते थे। बचपन से लेकर आज तक दोनों की मित्रता का रिश्ता वैरागी भावों की गोंद से जुड़ा हुआ है। जन्म से लिंगायत जाति के होकर भी आज वे कर्म से जैन हैं। दोनों मित्रों ने १४ वर्ष की उम्र में लग्न (शादी) तक के लिए एक साथ ब्रह्मचर्य व्रत लिया था। एक मित्र धर्म ध्वजा को फहराने वाले जिनशासन के नायक बन गए और दूसरा मित्र अखंड ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए मन में मुनिपने का भाव सँजोए सदलगा गाँव में ही धार्मिक जीवनयापन कर रहे हैं। विद्याधर के घर छोड़ने में सहभागिता से लेकर दीक्षा पर्यंत तक की सारी गतिविधियों के जानकार मारुति ही रहे हैं। ब्रह्मचारी विद्याधरजी अपने भावों के ऊर्ध्वगमन करने से लेकर चारित्र के आरोहण तक की सारी जानकारी पत्रों के माध्यम से उन्हें भेजते थे। स्वर्णिम इतिहास को रचने वाले लगभग २०० पत्र आज इस युग के स्वर्णिम दस्तावेज़ बन चुके हैं। मित्र विद्याधर की मुनि दीक्षा के बाद मारुति उनके दर्शन करने अष्टगे परिवार के साथ जुलाई, सन् १९६८ में अजमेर गए थे। सम्पूर्ण अष्टगे परिवार एवं मारुति वहाँ पर १५ दिन ठहरे थे। इसके बाद सन् १९६९, केशरगंज, अजमेर, राजस्थान में चातुर्मासरत मुनि श्री विद्यासागरजी के दर्शन करने वह पुनःगए और ढाई महीने तक रहे। स्वयं के लिए मुनि दीक्षा की प्रार्थना भी उन्होंने की थी। तब मुनि श्री विद्यासागरजी ने उन्हें आजीवन ब्रह्मचर्य व्रतपूर्वक धर्ममय जीवन बिताने को कहा। तभी उन्होंने आचार्य श्री ज्ञानसागरजी एवं मुनि श्री विद्या सागरजी के समक्ष आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया था। घर वापस आने पर परिजनों ने विवाह के लिए आग्रह किया पर वह दृढ़ी बने रहे। अपने सम्यक्त्व को एवं ब्रह्मचर्य व्रत को नहीं छोड़ा। आठ वर्ष बाद वह, सन् १९७७ में कुण्डलपुर आचार्यश्री के दर्शन करने गए। इसके बाद से वे प्राय:कर प्रतिवर्ष आचार्य श्री विद्यासागरजी के दर्शन करने जाते हैं। ५ अक्टूबर, २०१७ में जब वह रामटेक दर्शन करने गए, तब आचार्यश्रीजी ने उन्हें घर पर ही समाधि की साधना करने की प्रेरणा दी। अपने मित्र को अपने गुरु के रूप में पाकर वे गद्गद हो उठते हैं। उपसंहार परिवार एक ऐसा उपवन है, जिसमें विविध रंग, रूप और गंध वाले पुष्प खिलते हैं। परंतु घर का मुखिया उन्हें माली की भाँति सजाकर, तराशकर रखता है। त्याग, क्षमा, दया, सामंजस्य और सहानुभूति के सूत्रों के साथ अपनी संस्कृति एवं संस्कारों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित करता है। अष्टगे परिवार के सौभाग्य का क्या कहें ? संस्कारों की ऐसी कौन-सी मिट्टी और कौन-सा खाद-पानी होगा, जिस कारण यह महिमाशाली पूरा-का-पूरा परिवार धार्मिकता के रंग में रंगा हुआ है। तभी तो एक परिवार के सात भव्यात्माओं ने मोक्ष पथ पर आरूढ़ होकर अपना मार्ग प्रशस्त किया। युगों-युगों तक इस परिवार की गौरवगाथा गाई जाएगी, जिसने बचपन में ही विद्याधर की हृदयभूमि में धर्माचरणरूपी फूलों का ऐसा पौधा रोपा, जो आज श्रमणत्व का वटवृक्ष बनकर लहलहा रहा है।
  5. आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के 50 वे मुनि दीक्षा दिवस ''संयम स्वर्ण महोत्सव'' पर श्री देव पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर शास्त्री वार्ड गोटेगांव में मुनि श्री विमल सागर जी महाराज ससंघ के सानिध्य में मार्बल का लगभग 25 फीट का संयम कीर्ति स्तंभ बनेगा। ऐसे पूरे देश में लगभग 1100 बन रहे हैं। 2 मई 2018 दिन बुधवार को प्रातः 8:00 बजे शिलान्यास होगा। इस कार्यक्रम में निर्देशन ब्रह्मचारी मनोज भैया जबलपुर का रहेगा, यह पूरे भारत का अनोखा कीर्ति स्तंभ होगा इस में स्वर्ण अक्षरों में एवं रत्नों से कारीगरी होगी।
  6. आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज और आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज की छवि एवं नामार्थ में अंश भी भेद परिलक्षित नहीं होता। इस पाठ में इससे सम्बन्धित कुछ प्रतिनिधि रूप में प्रतीकात्मक प्रसंग प्रस्तुत हैं। नेमावर (देवास, म.प्र.) में दिनाँक १३ जून, १९९९, रविवार के दिन आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के समाधि दिवस पर आचार्य श्री विद्यासागरजी ने अपने गुरु को स्मरण करते हुए कहा- ‘आर्तध्यान में डूबे हुए इस युग के सामने धर्मध्यान के अमृत में डूबने वाले उस व्यक्तित्व का, उन महान् साधक (आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज) का क्या प्रदर्शन किया जाए?... उनसे हमें क्या मिला- इसके बारे में कहने की कोई आवश्यकता नहीं। और कहा भी नहीं जा सकता है, क्योंकि वे पार नहीं, अपार थे। हमने जब कभी कोई जिज्ञासा की, उस समय उन्होंने क्या सम्बोधित किया एवं हमने जब भी कुछ चाहा, तो उसके बदले में उन्होंने हमें क्या संकेत देने का प्रयास किया, यह बहुत महत्त्वपूर्ण है। आचार्यश्रीजी के इस कथन से यह स्पष्ट हो रहा है कि गुरु का गुणगान न तो संभव है और न ही प्रति समय करना आवश्यक। उनकी दृष्टि में यदि कुछ आवश्यक या महत्त्वपूर्ण है, तो वह है गुरुजी द्वारा दिये गये संकेतों को जीवन में उतारना। गुरुजी द्वारा दिए गए संकेतों के अनुसार ही जीवन को ढालकर उन्होंने अपने व्यक्तित्व का निर्माण किया है। इस कारण ही आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज का व्यक्तित्व दर्पणवत् निर्मल बन गया है, जिसमें आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज का बिम्ब पूर्णतः प्रतिबिम्बित हो रहा है अर्थात् जैसे वो थे, ये भी वैसे ही हैं। इस साम्यता के कुछ उदाहरण निम्न हैं आगमानुकूल वृत्ति बिम्ब : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज लघुशंका से आए। उनके पैर गीले थे। बाजू में एक नेपकीन रखी थी। मुनि श्री विद्यासागरजी महाराज ने उसे उठाकर आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के पैर पोंछ दिये। तब आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज बोले- यह नेपकीन तुम्हारे हाथ में कहाँ से आई? तब मुनि श्री विद्यासागरजी महाराज चुपचाप हो गये और नेपकीन को एक तरफ रख दिया। दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - देवरी (सागर, म.प्र.) में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं गजरथ महोत्सव के अवसर पर १० से १६ फरवरी सन् १९९३ का प्रसंग है। आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज मंदिर में ऊपर शुद्धि कर रहे थे। ठंडी का मौसम था। अतः एक मुनि महाराज श्रावक द्वारा दी गई नेपकीन से आचार्यश्री जी के हाथमुख पोंछने को जैसे ही उद्यत हुए तो आचार्यश्रीजी बोले, “क्यों! दीक्षा के समय ये वस्त्र भी दिया गया था क्या?” यह सुनकर वे महाराज घबड़ा गए और हाथ से नेपकीन छूट गई। गुरु का वाक्य उनके मस्तिष्क पर टंकित जो था। अल्प कौतूहली बिम्ब : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज दशलक्षण पर्व के दौरान प्रतिदिन प्रातःकाल ‘तत्त्वार्थसूत्रके एक-एक अध्याय के सूत्रों का अर्थ करते थे। पंचम अध्याय में ‘द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः’ सूत्र क्रमांक ४१ का अर्थ करते समय आचार्यश्री ने शास्त्रोक्त अर्थ बताने के बाद हल्का-सा विनोद करते हुये कहा कि इस सूत्र का एक लौकिक अर्थ ऐसा भी है- ‘द्रव्य जिनके आश्रय हैं, वे निर्गुणी होकर भी गुणी माने जाते हैं'- अर्थात् धनाढ्य लोग गुण रहित होने पर भी दुनिया में आदर सम्मान पाते हैं। इतना कहकर स्वयं आचार्यश्री भी मुस्कुरा रहे थे और मंच पर विराजमान मुनिवर श्री विद्यासागरजी महाराज तो यह अर्थ सुनकर जोर-जोर से हँसने लग गये थे। दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज से किसी ने कहा- हम तो लट्टू (बल्ब) हैं, करंट देते रहना।' आचार्यश्रीजी बोले-‘फ्यूज न हो जाना।' इस तरह प्रसंगानुसार आचार्य श्री विद्यासागरजी भी अल्प कौतूहल पूर्वक अपनी बात रख देते हैं। उन्होंने उनसे अपनी भाषा में कह दिया कि आप अपनी आस्था को बनाये रखना, तभी आप में करंट प्रवाहित हो पायेगा। शब्दों के खिलाड़ी बिम्ब : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - वे साधना के साथ शब्दों के खेल के भी बादशाह थे। एक बार मुनि विद्यासागरजी को पढ़ाते समय उन्होंने शब्दों का एक खेल दिखाया और बोले- “ये साक्षराः भवन्ति ते विलोमरूपेण राक्षसाः भवन्ति।” यहाँ आचार्य महाराज का यह भाव था कि साक्षर यानी पढ़ा-लिखा जो इससे हटकर चलता है वह ठीक इसके उल्टे शब्द का वाचक अर्थात् राक्षस बन जाता है। तब शिष्य मुनि विद्यासागरजी शब्द का यह खेल देखकर प्रसन्न हो उठे। इसी क्रम में एक बार उन्होंने पढ़ाते हुये बताया कि शब्दालंकार यह एक गणित है। एवं अर्थालंकार में शब्द कैसे भी हों, फिर भी उसमें गूढ़ता रहती है। तब शब्दों के खिलाड़ी को इसमें आनन्द आता है ऐसे शब्दों के साथ खेलने वाले आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज थे। दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के आदेश से दो-तीन महाराज आशीर्वाद लेकर संघ से बाहर प्रभावना हेतु जा रहे थे। जाते समय उन्होंने आचार्यश्रीजी की परिक्रमा लगाकर उनसे कुछ सूत्र माँगे। तब आचार्यश्रीजी बोले- ‘तीनों कालों (ग्रीष्म, वर्षा, शीत) में बाहर की ‘हवा’ से बचना, ‘हवा’ का विलोम शब्द ‘वाह’ होता है। वाह-वाह से बचना अर्थात् ख्याति, लाभ और पूजा से बचना, क्योंकि यही साधक की सबसे बड़ी कमजोरी होती है। आवश्यक : साधक की परीक्षा बिम्ब : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - आचार्य श्री विद्यासागरजी ने कुण्डलपुर (दमोह, मध्यप्रदेश) में २५ अप्रैल, २००३ को अपने गुरु को स्मरण करते हुए कहा- ‘कई लोग आकर कहते हैं कि मुझे अमुक बीमारी है, पैर में दर्द है आदि-आदि। लेकिन मैं बताना चाहता हूँ कि आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज को साइटिका की बीमारी थी, फिर भी तीनों कालों की सामायिक वे पद्मासन से किया करते थे। महाराज जी दुबलेपतले थे। वे कहा करते थे कि सामायिक परीक्षा के समान है। जैसे परीक्षा में गड़बड़ी होने से साल भर का अध्ययन कोई मायना नहीं रखता। वैसे ही सामायिक ठीक नहीं होने से आत्मतत्त्व तक पहुँचने का अवसर प्राप्त नहीं हो सकता है। और आत्मतत्त्व के साक्षात्कार के बिना व्रतों की पूर्णता नहीं हो सकती। दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - आचार्य श्री विद्यासागरजी संघ सहित विहार करके एक गाँव में पहुँचे। लम्बा विहार होने से उन्हें थकावट अधिक हो गई। कुछ मुनि महाराज वैय्यावृत्ति कर रहे थे। सामायिक का समय होने वाला था। अचानक आचार्यश्रीजी बोले- ‘मन कहता है, शरीर को थोड़ा विश्राम दिया जाए। सभी शिष्यों ने एक स्वर में आचार्यश्रीजी की बात का समर्थन करते हुए कहा- ‘हाँ-हाँ, आचार्यश्रीजी आप थोड़ा विश्राम कर लीजिए।’ आचार्यश्रीजी हँसने लगे और तत्काल बोले- ‘मन भले ही विश्राम की बात करे, पर आत्मा तो चाहती है कि सामायिक की जाए।’ और देखते ही देखते आचार्यश्रीजी दृढ़ आसन लगाकर सामायिक में लीन हो गए। चाहे हर्षीस (Harpies) रोग हुआ हो अथवा १०५-१०८ डिग्री बुखार आया हो। कोई भी प्रतिकूल परिस्थिति बनी हो, परन्तु आचार्यश्रीजी ने अपने आवश्यकों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ने दिया। हमेशा आवश्यकों का निर्दोष पालन किया। वे कहते हैं- ‘आचार्य महाराज आवश्यकों को साधक की परीक्षा कहते थे। हम यदि शिथिल हो गए तो आचार्य महाराज हमें वहाँ से क्या विफल हुआ देखेंगे?' लेखन विषय में साम्यता बिम्ब : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - आचार्य महाराज ने बच्चों, वृद्धों, विद्वानों, नेताओं, भारतीय संस्कृति, स्वतंत्रता आंदोलन एवं अध्यात्म और आगम आदि सभी विषयों पर लिखा। अब से पचास वर्ष पूर्व उन्होंने पशु संरक्षण पर ‘पवित्र मानव जीवन' पुस्तक लिखी। आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने अपनी लेखनी द्वारा जीवन के प्रत्येक पहलुओं का स्पर्श किया है। दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - इसी प्रकार आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने न केवल अध्यात्म और सिद्धान्त में अपितु सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय आदि सभी विषयों पर अपने मौलिक चिंतन दिये हैं। न थोपो, न थुपवाओ बिम्ब : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - आचार्य महाराज कहते थे - ‘किसी बात को थोपो नहीं तथा थुपवाओ भी नहीं। वे जबरन अपनी बात किसी पर नहीं थोपते थे बल्कि सहजता से अपनी बात को प्रस्तुत करते थे। दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने अपने जीवन रूपी घट में गुरु वचन रूपी शक्कर को पूर्ण रूप से घोल लिया है। प्रत्येक प्रसंग पर उन्हें गुरु वचन स्मरण हो आते हैं। एक बार संघ में एक प्रसंग सुनाते हुए उन्होंने कहा- ‘विदिशा से एक व्यक्ति आए थे। हमने (आचार्य श्री विद्यासागर ने) उनसे बात की तो वे बहुत खुश हुए। बाद में आँखों में आँसू भर कर, उन्होंने हमसे कहा - ‘महाराज! किसी ने हमसे कहा था कि आचार्य श्री विद्यासागरजी के पास मत जाना। वे युक्ति से बात सिद्ध कर देते हैं। आगम से युक्ति नहीं मिलाते, आगम से सिद्ध नहीं करते। इसलिए हम अभी तक नहीं आए थे। हम इतने दिन तक सच्चे वीतरागी से दूर रहे। और ऐसा कहकर वे रोने लगे। हमने उनसे कहा- “आज तक हमने आगम के आधार के बिना युक्ति नहीं लगाई, बल्कि आगम को सिद्ध करने के लिए युक्ति लगाई। आज तक हमने किसी बात को थोपा नहीं है। हमारे आचार्य महाराज कहते थे कि किसी बात को थोपो नहीं, थुपवाओ भी नहीं। इसलिए मैं कोई बात थोपता नहीं हूँ।” सत्य पिटे न कोई मिटे न ऐसा न्याय कहा है। सफल आशीष एक साधक की साधना जब चरम पर पहुँचती है तब एक समय ऐसा आता है कि उस साधक के आशीष मात्र से श्रावकों के सभी कार्य सफल हो जाते हैं। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी एवं आचार्य श्री विद्यासागरजी ऐसे ही साधकों में से हैं, जिनका आशीष हमेशा ही श्रावकों को फलीभूत हुआ है। यह मंसूरपुर (मुजफ्फरनगर, उत्तरप्रदेश) निवासी श्री राजेश्वरप्रसाद के द्वारा १९९५ में आलेखित संस्मरणों से स्पष्ट हो जाता है, जिनके जीवन में एक साथ आचार्य श्री ज्ञानसागरजी एवं आचार्य श्री विद्यासागरजी का आशीष विशेष रूप से सफलीभूत हुआ। बिम्ब: आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - मंसूरपुर निवासी राजेश्वरप्रसाद (दिल्ली प्रवासी) का प्रसंग सन् १९५५ ई. में क्षुल्लक श्री ज्ञानभूषणजी का चातुर्मास मंसूरपुर में चल रहा था। वहाँ फिरोजीलालजी के पुत्र राजेश्वरप्रसाद की धर्मपत्नी को दौरा पड़ते थे। उसके इलाज में घर की सारी सम्पत्ति नष्ट होती जा रही थी। किन्तु बीमारी वैसी की वैसी ही बनी रही। हर पन्द्रह मिनट में दौरा पड़ने से परिवार में अशान्ति का वातावरण था। फिरोजीलाल ने क्षुल्लक श्री ज्ञानभूषणजी के चरणों में अपनी पीड़ा निवेदित की। तब उन्होंने फिरोजीलाल को जिनेन्द्र देव की पूजन एवं जिनवाणी पर श्रद्धान रखने को कहा। दीपावली का दिन था। फिरोजीलाल अपने परिवार सहित मंदिर में लाडू चढ़ा रहे थे। उसी समय उनकी पुत्रवधू को दौरा पड़ा। क्षुल्लक श्री ज्ञानभूषणजी महाराज ने जब फिरोजीलाल एवं उसके परिवार की पीड़ा देखी तब उनका हृदय करुणा से भर आया। उन्होंने फिरोजीलाल की पत्नी से कहा- ‘इसके ऊपर शुद्ध मन से नौ बार णमोकार मंत्र को पढ़कर मंत्रित किए हुए जल के छींटे दे दो।' जल को नौ बार णमोकार मंत्र द्वारा मंत्रित करके उस महिला के ऊपर छींटे दिए। उसका दौरा तत्काल खत्म हो गया। आज इस घटना को हुए लगभग चालीस वर्ष होने को हैं, फिर उस महिला को आज तक दौरा नहीं पड़ा। दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - दर्पण का कार्य बिम्ब को प्रतिबिम्बित करना है। फिर आचार्य श्री विद्यासागरजी रूपी दर्पण में आचार्य श्री ज्ञानसागरजी का सफल आशीष रूप बिम्ब क्यों न प्रतिबिम्बित होगा? अनेक उद्धरणों में से राजेश्वरप्रसाद से ही जुड़ा प्रसंग भी यहाँ उद्धृत किया जा रहा है आचार्य श्री ज्ञानसागरजी की समाधि हो जाने के पश्चात् राजेश्वरप्रसादजी अपने परिवार के साथ आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के दर्शनों के लिये आते रहते हैं। फरवरी, १९९२ में वह अपने परिवार के साथ आचार्यश्री के दर्शन करने सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरि (बैतूल, मध्यप्रदेश) के पास स्थित ‘वरुड़ (अमरावती, महाराष्ट्र) नामक स्थान पर पहुँचे। उन्हें गुरुजी के दर्शन एवं चर्चा का लाभ भी प्राप्त हुआ। जब वह सपरिवार घर वापिस जाने के लिये नमोऽस्तु करने लगे तो आचार्यश्रीजी का उन्हें सपरिवार आशीर्वाद प्राप्त हुआ। गुरुजी का आशीर्वाद जब उनकी पुत्रवधू की ओर उठा तब राजेश्वरप्रसादजी के मन में एक भाव आया, जिसे मन में रखते हुए उन्होंने गुरुजी से प्रार्थना की- ‘आचार्यश्री! आपने मुझे, मेरी पत्नी, मेरी बेटी और बेटे को बहुत आशीर्वाद दिया। हमारी पुत्रवधू पहली बार आपके पास आई है। इसे आशीर्वाद दीजियेगा।' आचार्यश्रीजी ने उसे दोनों हाथों से आशीर्वाद दिया। राजेश्वरप्रसादजी ने आगे लिखा कि 'मैं आपको बतला दें कि मेरी इस पुत्रवधू को एक बार तीन माह का, एक बार छः माह का व एक बार आठ से नौ माह के बीच के तीन बच्चों का गर्भपात हो चुका था। मेरे बहुत इलाज कराने के बाद भी कोई ठीक स्थिति आगे होने वाली सन्तान के सम्बन्ध में नहीं थी। हम निराश थे। आचार्यश्रीजी का आशीर्वाद ऐसा फला कि कुछ दिनों के बाद पुत्रवधू ने पुनः गर्भधारण किया और उसने २ जून, १९९३ को एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। जन सम्पर्क से बचें बिम्ब : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज साधु के लिये अधिक जन सम्पर्क से बचने की बात अकसर कहा करते थे। वे कहते थे कि साधक को अपने में रहना चाहिए। प्रचार-प्रसार में ज्यादा नहीं पड़ना चाहिए। यही कारण रहा कि आचार्य श्री ज्ञानसागरजी का अधिकांश साहित्य उनके समाधिमरण के बाद ही प्रकाशित हुआ। दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज भी अपने शिष्यों से जन सम्पर्क से दूर रहने की बात प्रायः कर कहते हैं। वे कहते हैं- 'श्रावकों से ज्यादा सम्पर्क रखोगे तो लुट जाओगे, इस लूट से आपको कोई भी नहीं बचा पायेगा।' एक बार आचार्यश्री ने कक्षा में अपने शिष्यों से कहा- “जन सम्पर्क से दूर रहा करो। किसी के आने पर सब लोग ‘well come’, आइए-आइए करते हैं, लेकिन तुम लोग ‘well go’ किया करो।” उनसे कहा करो- ‘अच्छा आप जा रहे हैं। बहुत अच्छा, बहुत अच्छा जो आपने हमें अकेले रहने का अवसर दिया।’ धीरे से किन्हीं शिष्य मुनिराज ने प्रसन्न होते हुए गुरुजी से जिज्ञासा की कि यदि ऐसा कहेंगे तो उन्हें बुरा नहीं लगेगा? आचार्यश्रीजी बोले - “अगर बुरा लगे तो उन्हें कह देना कि मैं साधु हूँ, गृहस्थ नहीं।’ योग्यता का मूल्यांकन परीक्षा नहीं बिम्ब : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज कहते थे कि परीक्षा देने से वास्तविक योग्यता प्राप्त नहीं होती। वह तो एक बहाना है। वास्तविक योग्यता तो ग्रंथ को आद्योपान्त अध्ययन करके हृदयंगम करने से प्राप्त होती है, अतएव उन्होंने शास्त्री के विषयों का आद्योपान्त गहन गूढ़ अध्ययन पूर्ण करके शास्त्री की परीक्षा दी। आगे उन्होंने अध्ययन तो जारी रखा, किन्तु किसी भी परीक्षा को देना उचित नहीं समझा। और रात-दिन ग्रंथों का अध्ययन करने में लगे रहे। दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - आचार्य श्री विद्यासागरजी भी आज यही कहते हैं कि योग्यता का मूल्यांकन परीक्षा से हो ही नहीं सकता। वे अपनी बात उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए कहते हैं- ‘सिंह के सामने हरिण का बच्चा यदि छलांग लगाना भूल जाये तो इसे आप क्या कहेंगे? क्या उसे छलांग लगाना नहीं आता? ऐसे ही आज बच्चों के साथ हो रहा है। यदि बच्चा परीक्षा के समय शास्त्र/ पुस्तक को प्रस्तुत नहीं कर पाता है तो उसे अयोग्य घोषित कर दिया जाता। ऐसा नहीं होना चाहिये। मानव मात्र के हितकारी बिम्ब : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज का जहाँ-जहाँ भी विहार हुआ वहाँ जैन श्रावकों के अतिरिक्त जाट, माली, नाई, कुम्हार आदि अन्य जातियों के लोग भी बड़ी संख्या में दर्शनार्थ उनके पास आते थे। वे जैनेत्तर दर्शनार्थियों से उनकी कुशलक्षेम पूछते। उन्हें उसकी योग्यतानुसार उपदेश व नियम-व्रत देते थे। पता नहीं ऐसे कितने लोगों का उन्होंने उपकार किया होगा। दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - इसी तरह आचार्य श्री विद्यासागरजी का गमन जहाँ से भी हो जाता है, वहाँ के गाँव के गाँव अहिंसक बन जाते। छत्तीसगढ़ प्रांत में विहार के दौरान आदिवासी क्षेत्रों के लोगों ने अण्डा, मांस, मछली का सहर्ष त्याग किया। विहार के दौरान जिन विद्यालयों में उन्होंने रात्रि विश्राम किया वहाँ के शिक्षकों सहित विद्यार्थियों ने भी अहिंसक होने का संकल्प ले लिया। इसका विशेष वर्णन सातवीं पाठ्यपुस्तक - ‘आस्था के ईश्वर’ में उल्लिखित है। कुशल परीक्षक बिम्ब : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - आचार्य श्री ज्ञानसागरजी समय-समय पर मुनि श्री विद्यासागरजी की परीक्षा कैसे लेते थे, इस विषय में नसीराबाद (अजमेर, राजस्थान) के श्रावक शान्तिलालजी पाटनी एक अत्यंत रोचक प्रसंग लिखते हैं- ‘मुनि श्री विद्यासागरजी को मैंने बार-बार ‘मोक्षमार्ग प्रकाशक’ पढ़ने के लिये दिया, परन्तु उन्होंने प्रत्येक बार यह कह कर मना कर दिया कि गुरुजी की आज्ञा है कि आचार्य प्रणीत ग्रंथ ही पढ़ा करें। इस प्रकार आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने मेरे द्वारा मुनि श्री विद्यासागरजी की बार-बार परीक्षा ली और उसमें उन्हें सफलता मिली। दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - जब सुनार का बेटा सुनार और जौहरी का बेटा जौहरी होता है तब आध्यात्म शिल्पी का बेटा (शिष्य) कुशल शिल्पकार क्यों न होगा? अवश्य ही होगा। आचार्य श्री विद्यासागरजी ऐसे ही कुशल शिल्पकार हैं, जिन्होंने शिल्प द्वारा अनेक शिष्य रूपी घट तैयार किए हैं, जिनकी परीक्षा वे समयसमय पर करते रहते हैं। बीनाबारहा (सागर, मध्यप्रदेश) चातुर्मास २०१५ ई. का प्रसंग है - एक दिन सामायिक के पश्चात् आचार्य श्री विद्यासागरजी अचानक से अपने शिष्यों के कमरों में पहुँच गए। शिष्यगण हड़बड़ा कर खड़े हो गए और नमोऽस्तु किया। आचार्यश्री ने उनके कमरों में जा-जा कर निरीक्षण किया कि किसका क्या स्वाध्याय चल रहा है? उनके चौके (बाजोटे) पर कौन-कौनसी पुस्तकें रखी हैं? आदि-आदि रूप से उन्होंने शिष्यों की परीक्षा ली। इस प्रकार आचार्य श्री विद्यासागरजी को कुशल परीक्षक की दृष्टि अपने गुरु से विरासत में प्राप्त हुई। अन्तिम लक्ष्य सिद्धि बिम्ब : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - आचार्य श्री ज्ञानसागरजी जीवन के अंतिम लक्ष्य ‘समाधिमरण’ को प्राप्त करने के लिए अत्यन्त लालायित थे। समाधि की साधना अपने आचार्य पद को त्याग कर, सभी कर्तव्यों से निवृत्त होकर ही हो सकती थी। अपनी वृद्धावस्था, शारीरिक दुर्बलता तथा साइटिका के अतीव व असहनीय दर्द के रहते वह संघ छोड़कर अन्यत्र जाने में सक्षम न थे। अतः उन्होंने समाधि की सिद्धि के लिये अपने शिष्य मुनि श्री विद्यासागरजी को अपना न केवल आचार्य पद प्रदान किया, अपितु उन्होंने उन्हें निर्यापकाचार्य (समाधि करवाने वाले गुरु) के रूप में स्वीकार कर अपना गुरु भी बनाया। कितना दृढ़ संकल्प एवं उत्कट भावना होगी उनकी समाधिपूर्वक मरण करने की। दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - अपने गुरु के समान ही आचार्य श्री विद्यासागरजी भी जीवन का अंतिम लक्ष्य ‘समाधिमरण’ की सिद्धि हेतु कृत संकल्प हैं। इसका स्पष्ट चित्रण संघस्थ ज्येष्ठ साधु मुनि श्री योगसागरजी की आचार्यश्रीजी से हुई चर्चा से स्पष्ट हो जाता है आचार्य श्री विद्यासागरजी का भोपाल (मध्यप्रदेश) चातुर्मास (सन् २०१६) के बाद डोंगरगढ़ (राजनांदगाँव, छत्तीसगढ़) तक का लम्बा विहार हुआ। इस दौरान आचार्यश्रीजी अधिक कमजोर दिखने लगे थे। डोंगरगढ़ पहुँचने से एक दिन पूर्व ५ अप्रैल, २०१७ को शिवपुरी ग्राम में ईर्यापथभक्ति के पश्चात् मुनि श्री योगसागरजी ने आचार्यश्रीजी से कहा- “आपने अपने शरीर को समय से पहले ही बुड्ढा (वृद्ध) बना लिया है। पीछे से देखें तो ऐसा लगता है जैसे अस्सी साल के बुड्ढे जा रहे हैं।' संघस्थ साधुओं ने भी उनका समर्थन किया तब आचार्यश्रीजी बोले- “तुम लोग मेरी भी तो सुनो। मैं कहाँ कह रहा हूँ कि मैं अस्सी का नहीं हूँ? I am running seventy इसमें सत्तर से लेकर अस्सी तक का काल आ जाता है।" आचार्यश्रीजी ने आगे कहा- “सल्लेखना के लिये बारह वर्ष क्यों बताये? ‘मूलाचार प्रदीप', ‘भगवती आराधना’ में क्या पढ़ा है? तैयारी तो करनी ही होगी। मेरे पास जितना अनुभव है उसी आधार पर तथा गुरुजी से जो मिला उसी अनुभव के आधार पर तैयारी करनी होगी। अपने पास ‘आगमचक्खू साहू' है। मैं उसी के अनुसार अपने शरीर को सल्लेखना के लिये तैयार कर रहा हूँ। वैसी ही साधना चल रही है। बहुत दुर्लभ है यह सल्लेखना। आप लोग इसको अच्छे तरीके से समझें। मिलिट्री की तरह बस प्रत्येक समय तैयार रहो। I am ready to face it बस धीरे-धीरे उस ओर बढ़ते जाना है। सतत् अभ्यास से ही इस दुर्लभ लक्ष्य को साधा जा सकता है। प्रभु से यही प्रार्थना करता हूँ कि एकत्व भावना का चिन्तन करते हुए आयु की पूर्णता हो।” इससे अधिक गुरु एवं शिष्य की साम्यता का उदाहरण और क्या हो सकता है? ‘यथा गुरू तथा शिष्य।’ कैसा दुर्लभ संयोग। उपसंहार संघ का संचालन, अनुशासन, बहुभाषाज्ञान, आयुर्वेद, ज्योतिष, सिद्धान्त, न्याय, अध्यात्म, व्याकरण, निश्चय और व्यवहार, आगमोक्त गूढार्थ विवेचन, लौकिक-पारलौकिक आदि-आदि सभी क्षेत्रों में आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज द्वारा दी गईं शिक्षाओं को आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने अपने जीवन में अक्षरशः उतार लिया है। आचार्य श्री विद्यासागरजी की स्मृतियों और अनुभूतियों में आचार्य श्री ज्ञानसागरजी की जो तसवीर है, वह उनके अंतस् पर किसी शिलालेख की भाँति उत्कीर्ण है। यही कारण है कि आचार्य श्री ज्ञानसागरजी का बिम्ब आचार्य श्री विद्यासागरजी रूपी दर्पण में एकदम स्पष्ट प्रतिबिम्बित हो रहा है। धन्य हैं आचार्य श्री विद्यासागरजी, जिन्होंने अपने गुरु के द्वारा दिए गए दृष्टिकोण रूपी औजारों से अपनी जीवन रूपी भित्ति (दीवार) को दर्पण की भाँति निर्मल बना लिया है, जिसमें आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज का बिम्ब पूर्णतः प्रतिबिम्बित हो रहा है। और धन्य हैं आचार्य श्री ज्ञानसागरजी रूपी चित्रकार, जिन्होंने आचार्य श्री विद्यासागरजी रूपी दीवार को अपनी विद्वत्ता रूपी औजारों के प्रयोग से दर्पण की भाँति निर्मल बना दिया है, जिसमें आज उन्हीं का रत्नत्रयरूप बिम्ब सहस्रगुणित शोभा को प्राप्त करता हुआ प्रतिबिम्बित हो उठा है। ऐसे श्रमण, जिनकी अभिव्यक्ति समर्पण के अंतिम छोर का स्पर्श करती है। यह गुरु-शिष्य के मध्य सम्बन्धों का ऐसा दस्तावेज है, जिसे मानव जाति की धरोहर के रूप में सुरक्षित रखा जाना चाहिए। आपने किया महान उपकार, पहनाया मुझे रत्नत्रय हार। हुए साकार मम सब विचार, मम प्रणाम तुम करो स्वीकार॥ (आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज के प्रति श्रद्धांजलि, पद्य ३) कोरी स्लेट थी गुरु ने लिखा आज भी अमिट है।
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