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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ १० - प्रतिबिम्बांजलि

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    आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज और आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज की छवि एवं नामार्थ में अंश भी भेद परिलक्षित नहीं होता। इस पाठ में इससे सम्बन्धित कुछ प्रतिनिधि रूप में प्रतीकात्मक प्रसंग प्रस्तुत हैं।

     

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    नेमावर (देवास, म.प्र.) में दिनाँक १३ जून, १९९९, रविवार के दिन आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के समाधि दिवस पर आचार्य श्री विद्यासागरजी ने अपने गुरु को स्मरण करते हुए कहा- ‘आर्तध्यान में डूबे हुए इस युग के सामने धर्मध्यान के अमृत में डूबने वाले उस व्यक्तित्व का, उन महान् साधक (आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज) का क्या प्रदर्शन किया जाए?... उनसे हमें क्या मिला- इसके बारे में कहने की कोई आवश्यकता नहीं। और कहा भी नहीं जा सकता है, क्योंकि वे पार नहीं, अपार थे। हमने जब कभी कोई जिज्ञासा की, उस समय उन्होंने क्या सम्बोधित किया एवं हमने जब भी कुछ चाहा, तो उसके बदले में उन्होंने हमें क्या संकेत देने का प्रयास किया, यह बहुत महत्त्वपूर्ण है।

     

    आचार्यश्रीजी के इस कथन से यह स्पष्ट हो रहा है कि गुरु का गुणगान न तो संभव है और न ही प्रति समय करना आवश्यक। उनकी दृष्टि में यदि कुछ आवश्यक या महत्त्वपूर्ण है, तो वह है गुरुजी द्वारा दिये गये संकेतों को जीवन में उतारना। गुरुजी द्वारा दिए गए संकेतों के अनुसार ही जीवन

    को ढालकर उन्होंने अपने व्यक्तित्व का निर्माण किया है। इस कारण ही आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज का व्यक्तित्व दर्पणवत् निर्मल बन गया है, जिसमें आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज का बिम्ब पूर्णतः प्रतिबिम्बित हो रहा है अर्थात् जैसे वो थे, ये भी वैसे ही हैं। इस साम्यता के कुछ उदाहरण निम्न हैं

     

    आगमानुकूल वृत्ति

    बिम्ब : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज लघुशंका से आए। उनके पैर गीले थे। बाजू में एक नेपकीन रखी थी। मुनि श्री विद्यासागरजी महाराज ने उसे उठाकर आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के पैर पोंछ दिये। तब आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज बोले- यह नेपकीन तुम्हारे हाथ में कहाँ से आई? तब मुनि श्री विद्यासागरजी महाराज चुपचाप हो गये और नेपकीन को एक तरफ रख दिया।

     

    दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - देवरी (सागर, म.प्र.) में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं गजरथ महोत्सव के अवसर पर १० से १६ फरवरी सन् १९९३ का प्रसंग है। आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज मंदिर में ऊपर शुद्धि कर रहे थे। ठंडी का मौसम था। अतः एक मुनि महाराज श्रावक द्वारा दी गई नेपकीन से आचार्यश्री जी के हाथमुख पोंछने को जैसे ही उद्यत हुए तो आचार्यश्रीजी बोले, “क्यों! दीक्षा के समय ये वस्त्र भी दिया गया था क्या?” यह सुनकर वे महाराज घबड़ा गए और हाथ से नेपकीन छूट गई। गुरु का वाक्य उनके मस्तिष्क पर टंकित जो था।

     

    अल्प कौतूहली

    बिम्ब : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज दशलक्षण पर्व के दौरान प्रतिदिन प्रातःकाल ‘तत्त्वार्थसूत्रके एक-एक अध्याय के सूत्रों का अर्थ करते थे। पंचम अध्याय में ‘द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः’ सूत्र क्रमांक ४१ का अर्थ करते समय आचार्यश्री ने शास्त्रोक्त अर्थ बताने के बाद हल्का-सा विनोद करते हुये कहा कि इस सूत्र का एक लौकिक अर्थ ऐसा भी है- ‘द्रव्य जिनके आश्रय हैं, वे निर्गुणी होकर भी गुणी माने जाते हैं'- अर्थात् धनाढ्य लोग गुण रहित होने पर भी दुनिया में आदर सम्मान पाते हैं। इतना कहकर स्वयं आचार्यश्री भी मुस्कुरा रहे थे और मंच पर विराजमान मुनिवर श्री विद्यासागरजी महाराज तो यह अर्थ सुनकर जोर-जोर से हँसने लग गये थे।

     

    दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज से किसी ने कहा- हम तो लट्टू  (बल्ब) हैं, करंट देते रहना।' आचार्यश्रीजी बोले-‘फ्यूज न हो जाना।' इस तरह प्रसंगानुसार आचार्य श्री विद्यासागरजी भी अल्प कौतूहल पूर्वक अपनी बात रख देते हैं। उन्होंने उनसे अपनी भाषा में कह दिया कि आप अपनी आस्था को बनाये रखना, तभी आप में करंट प्रवाहित हो पायेगा।

     

    शब्दों के खिलाड़ी

    बिम्ब : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - वे साधना के साथ शब्दों के खेल के भी बादशाह थे। एक बार मुनि विद्यासागरजी को पढ़ाते समय उन्होंने शब्दों का एक खेल दिखाया और बोले- “ये साक्षराः भवन्ति ते विलोमरूपेण राक्षसाः भवन्ति।” यहाँ आचार्य महाराज का यह भाव था कि साक्षर यानी पढ़ा-लिखा जो इससे हटकर चलता है वह ठीक इसके उल्टे शब्द का वाचक अर्थात् राक्षस बन जाता है। तब शिष्य मुनि विद्यासागरजी शब्द का यह खेल देखकर प्रसन्न हो उठे। इसी क्रम में एक बार उन्होंने पढ़ाते हुये बताया कि शब्दालंकार यह एक गणित है। एवं अर्थालंकार में शब्द कैसे भी हों, फिर भी उसमें गूढ़ता रहती है। तब शब्दों के खिलाड़ी को इसमें आनन्द आता है ऐसे शब्दों के साथ खेलने वाले आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज थे।

     

    दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के आदेश से दो-तीन महाराज आशीर्वाद लेकर संघ से बाहर प्रभावना हेतु जा रहे थे। जाते समय उन्होंने आचार्यश्रीजी की परिक्रमा लगाकर उनसे कुछ सूत्र माँगे। तब आचार्यश्रीजी बोले- ‘तीनों कालों (ग्रीष्म, वर्षा, शीत) में बाहर की ‘हवा’ से बचना, ‘हवा’ का विलोम शब्द ‘वाह’ होता है। वाह-वाह से बचना अर्थात् ख्याति, लाभ और पूजा से बचना, क्योंकि यही साधक की सबसे बड़ी कमजोरी होती है।

     

    आवश्यक : साधक की परीक्षा

    बिम्ब : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - आचार्य श्री विद्यासागरजी ने कुण्डलपुर (दमोह, मध्यप्रदेश) में २५ अप्रैल, २००३ को अपने गुरु को स्मरण करते हुए कहा- ‘कई लोग आकर कहते हैं कि मुझे अमुक बीमारी है, पैर में दर्द है आदि-आदि। लेकिन मैं बताना चाहता हूँ कि आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज को साइटिका की बीमारी थी, फिर भी तीनों कालों की सामायिक वे पद्मासन से किया करते थे। महाराज जी दुबलेपतले थे। वे कहा करते थे कि सामायिक परीक्षा के समान है। जैसे परीक्षा में गड़बड़ी होने से साल भर का अध्ययन कोई मायना नहीं रखता। वैसे ही सामायिक ठीक नहीं होने से आत्मतत्त्व तक पहुँचने का अवसर प्राप्त नहीं हो सकता है। और आत्मतत्त्व के साक्षात्कार के बिना व्रतों की पूर्णता नहीं हो सकती।

     

    दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - आचार्य श्री विद्यासागरजी संघ सहित विहार करके एक गाँव में पहुँचे। लम्बा विहार होने से उन्हें थकावट अधिक हो गई। कुछ मुनि महाराज वैय्यावृत्ति कर रहे थे। सामायिक का समय होने वाला था। अचानक आचार्यश्रीजी बोले- ‘मन कहता है, शरीर को थोड़ा विश्राम दिया जाए। सभी शिष्यों ने एक स्वर में आचार्यश्रीजी की बात का समर्थन करते हुए कहा- ‘हाँ-हाँ, आचार्यश्रीजी आप थोड़ा विश्राम कर लीजिए।’ आचार्यश्रीजी हँसने लगे और तत्काल बोले- ‘मन भले ही विश्राम की बात करे, पर आत्मा तो चाहती है कि सामायिक की जाए।’ और देखते ही देखते आचार्यश्रीजी दृढ़ आसन लगाकर सामायिक में लीन हो गए।

     

    चाहे हर्षीस (Harpies) रोग हुआ हो अथवा १०५-१०८ डिग्री बुखार आया हो। कोई भी प्रतिकूल परिस्थिति बनी हो, परन्तु आचार्यश्रीजी ने अपने आवश्यकों पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ने दिया। हमेशा आवश्यकों का निर्दोष पालन किया। वे कहते हैं- ‘आचार्य महाराज आवश्यकों को साधक की परीक्षा कहते थे। हम यदि शिथिल हो गए तो आचार्य महाराज हमें वहाँ से क्या विफल हुआ देखेंगे?'

     

    लेखन विषय में साम्यता

    बिम्ब : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - आचार्य महाराज ने बच्चों, वृद्धों, विद्वानों, नेताओं, भारतीय संस्कृति, स्वतंत्रता आंदोलन एवं अध्यात्म और आगम आदि सभी विषयों पर लिखा। अब से पचास वर्ष पूर्व उन्होंने पशु संरक्षण पर ‘पवित्र मानव जीवन' पुस्तक लिखी। आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज ने अपनी लेखनी द्वारा जीवन के प्रत्येक पहलुओं का स्पर्श किया है।

     

    दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - इसी प्रकार आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने न केवल अध्यात्म और सिद्धान्त में अपितु सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय आदि सभी विषयों पर अपने मौलिक चिंतन दिये हैं।

     

    न थोपो, न थुपवाओ

    बिम्ब : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - आचार्य महाराज कहते थे - ‘किसी बात को थोपो नहीं तथा थुपवाओ भी नहीं। वे जबरन अपनी बात किसी पर नहीं थोपते थे बल्कि सहजता से अपनी बात को प्रस्तुत करते थे।

     

    दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने अपने जीवन रूपी घट में गुरु वचन रूपी शक्कर को पूर्ण रूप से घोल लिया है। प्रत्येक प्रसंग पर उन्हें गुरु वचन स्मरण हो आते हैं। एक बार संघ में एक प्रसंग सुनाते हुए उन्होंने कहा- ‘विदिशा से एक व्यक्ति आए थे। हमने (आचार्य श्री विद्यासागर ने) उनसे बात की तो वे बहुत खुश हुए। बाद में आँखों में आँसू भर कर, उन्होंने हमसे कहा - ‘महाराज! किसी ने हमसे कहा था कि आचार्य श्री विद्यासागरजी के पास मत जाना। वे युक्ति से बात सिद्ध कर देते हैं। आगम से युक्ति नहीं मिलाते, आगम से सिद्ध नहीं करते। इसलिए हम अभी तक नहीं आए थे। हम इतने दिन तक सच्चे वीतरागी से दूर रहे। और ऐसा कहकर वे रोने लगे।

     

    हमने उनसे कहा- “आज तक हमने आगम के आधार के बिना युक्ति नहीं लगाई, बल्कि आगम को सिद्ध करने के लिए युक्ति लगाई। आज तक हमने किसी बात को थोपा नहीं है। हमारे आचार्य महाराज कहते थे कि किसी बात को थोपो नहीं, थुपवाओ भी नहीं। इसलिए मैं कोई बात थोपता नहीं हूँ।”

     

    सत्य पिटे न

    कोई मिटे न ऐसा

    न्याय कहा है।

     

    सफल आशीष

    एक साधक की साधना जब चरम पर पहुँचती है तब एक समय ऐसा आता है कि उस साधक के आशीष मात्र से श्रावकों के सभी कार्य सफल हो जाते हैं। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी एवं आचार्य श्री विद्यासागरजी ऐसे ही साधकों में से हैं, जिनका आशीष हमेशा ही श्रावकों को फलीभूत हुआ है। यह मंसूरपुर (मुजफ्फरनगर, उत्तरप्रदेश) निवासी श्री राजेश्वरप्रसाद के द्वारा १९९५ में आलेखित संस्मरणों से स्पष्ट हो जाता है, जिनके जीवन में एक साथ आचार्य श्री ज्ञानसागरजी एवं आचार्य श्री विद्यासागरजी का आशीष विशेष रूप से सफलीभूत हुआ।

     

    बिम्ब: आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - मंसूरपुर निवासी राजेश्वरप्रसाद (दिल्ली प्रवासी) का प्रसंग सन् १९५५ ई. में क्षुल्लक श्री ज्ञानभूषणजी का चातुर्मास मंसूरपुर में चल रहा था। वहाँ फिरोजीलालजी के पुत्र राजेश्वरप्रसाद की धर्मपत्नी को दौरा पड़ते थे। उसके इलाज में घर की सारी सम्पत्ति नष्ट होती जा रही थी। किन्तु बीमारी वैसी की वैसी ही बनी रही। हर पन्द्रह मिनट में दौरा पड़ने से परिवार में अशान्ति का वातावरण था। फिरोजीलाल ने क्षुल्लक श्री ज्ञानभूषणजी के चरणों में अपनी पीड़ा निवेदित की। तब उन्होंने फिरोजीलाल को जिनेन्द्र देव की पूजन एवं जिनवाणी पर श्रद्धान रखने को कहा।

     

    दीपावली का दिन था। फिरोजीलाल अपने परिवार सहित मंदिर में लाडू चढ़ा रहे थे। उसी समय उनकी पुत्रवधू को दौरा पड़ा। क्षुल्लक श्री ज्ञानभूषणजी महाराज ने जब फिरोजीलाल एवं उसके परिवार की पीड़ा देखी तब उनका हृदय करुणा से भर आया। उन्होंने फिरोजीलाल की पत्नी से कहा- ‘इसके ऊपर शुद्ध मन से नौ बार णमोकार मंत्र को पढ़कर मंत्रित किए हुए जल के छींटे दे दो।' जल को नौ बार णमोकार मंत्र द्वारा मंत्रित करके उस महिला के ऊपर छींटे दिए। उसका दौरा तत्काल खत्म हो गया। आज इस घटना को हुए लगभग चालीस वर्ष होने को हैं, फिर उस महिला को आज तक दौरा नहीं पड़ा।

     

    दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - दर्पण का कार्य बिम्ब को प्रतिबिम्बित करना है। फिर आचार्य श्री विद्यासागरजी रूपी दर्पण में आचार्य श्री ज्ञानसागरजी का सफल आशीष रूप बिम्ब क्यों न प्रतिबिम्बित होगा? अनेक उद्धरणों में से राजेश्वरप्रसाद से ही जुड़ा प्रसंग भी यहाँ उद्धृत किया जा रहा है

     

    आचार्य श्री ज्ञानसागरजी की समाधि हो जाने के पश्चात् राजेश्वरप्रसादजी अपने परिवार के साथ आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के दर्शनों के लिये आते रहते हैं। फरवरी, १९९२ में वह अपने परिवार के साथ आचार्यश्री के दर्शन करने सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरि (बैतूल, मध्यप्रदेश) के पास स्थित ‘वरुड़ (अमरावती, महाराष्ट्र) नामक स्थान पर पहुँचे। उन्हें गुरुजी के दर्शन एवं चर्चा का लाभ भी प्राप्त हुआ। जब वह सपरिवार घर वापिस जाने के लिये नमोऽस्तु करने लगे तो आचार्यश्रीजी का उन्हें सपरिवार आशीर्वाद प्राप्त हुआ। गुरुजी का आशीर्वाद जब उनकी पुत्रवधू की ओर उठा तब राजेश्वरप्रसादजी के मन में एक भाव आया, जिसे मन में रखते हुए उन्होंने गुरुजी से प्रार्थना की- ‘आचार्यश्री! आपने मुझे, मेरी पत्नी, मेरी बेटी और बेटे को बहुत आशीर्वाद दिया। हमारी पुत्रवधू पहली बार आपके पास आई है। इसे आशीर्वाद दीजियेगा।' आचार्यश्रीजी ने उसे दोनों हाथों से आशीर्वाद दिया। राजेश्वरप्रसादजी ने आगे लिखा कि 'मैं आपको बतला दें कि मेरी इस पुत्रवधू को एक बार तीन माह का, एक बार छः माह का व एक बार आठ से नौ माह के बीच के तीन बच्चों का गर्भपात हो चुका था। मेरे बहुत इलाज कराने के बाद भी कोई ठीक स्थिति आगे होने वाली सन्तान के सम्बन्ध में नहीं थी। हम निराश थे। आचार्यश्रीजी का आशीर्वाद ऐसा फला कि कुछ दिनों के बाद पुत्रवधू ने पुनः गर्भधारण किया और उसने २ जून, १९९३ को एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया।

     

    जन सम्पर्क से बचें

    बिम्ब : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज साधु के लिये अधिक जन सम्पर्क से बचने की बात अकसर कहा करते थे। वे कहते थे कि साधक को अपने में रहना चाहिए। प्रचार-प्रसार में ज्यादा नहीं पड़ना चाहिए। यही कारण रहा कि आचार्य श्री ज्ञानसागरजी का अधिकांश साहित्य उनके समाधिमरण के बाद ही प्रकाशित हुआ।

     

    दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज भी अपने शिष्यों से जन सम्पर्क से दूर रहने की बात प्रायः कर कहते हैं। वे कहते हैं- 'श्रावकों से ज्यादा सम्पर्क रखोगे तो लुट जाओगे, इस लूट से आपको कोई भी नहीं बचा पायेगा।' एक बार आचार्यश्री ने कक्षा में अपने शिष्यों से कहा- “जन सम्पर्क से दूर रहा करो। किसी के आने पर सब लोग ‘well come’, आइए-आइए करते हैं, लेकिन तुम लोग ‘well go’ किया करो।” उनसे कहा करो- ‘अच्छा आप जा रहे हैं। बहुत अच्छा, बहुत अच्छा जो आपने हमें अकेले रहने का अवसर दिया।’ धीरे से किन्हीं शिष्य मुनिराज ने प्रसन्न होते हुए गुरुजी से जिज्ञासा की कि यदि ऐसा कहेंगे तो उन्हें बुरा नहीं लगेगा? आचार्यश्रीजी बोले - “अगर बुरा लगे तो उन्हें कह देना कि मैं साधु हूँ, गृहस्थ नहीं।’

     

    योग्यता का मूल्यांकन परीक्षा नहीं

    बिम्ब : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज कहते थे कि परीक्षा देने से वास्तविक योग्यता प्राप्त नहीं होती। वह तो एक बहाना है। वास्तविक योग्यता तो ग्रंथ को आद्योपान्त अध्ययन करके हृदयंगम करने से प्राप्त होती है, अतएव उन्होंने शास्त्री के विषयों का आद्योपान्त गहन गूढ़ अध्ययन पूर्ण करके शास्त्री की परीक्षा दी। आगे उन्होंने अध्ययन तो जारी रखा, किन्तु किसी भी परीक्षा को देना उचित नहीं समझा। और रात-दिन ग्रंथों का अध्ययन करने में लगे रहे।

     

    दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - आचार्य श्री विद्यासागरजी भी आज यही कहते हैं कि योग्यता का मूल्यांकन परीक्षा से हो ही नहीं सकता। वे अपनी बात उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए कहते हैं- ‘सिंह के सामने हरिण का बच्चा यदि छलांग लगाना भूल जाये तो इसे आप क्या कहेंगे? क्या उसे छलांग लगाना नहीं आता? ऐसे ही आज बच्चों के साथ हो रहा है। यदि बच्चा परीक्षा के समय शास्त्र/ पुस्तक को प्रस्तुत नहीं कर पाता है तो उसे अयोग्य घोषित कर दिया जाता। ऐसा नहीं होना चाहिये।

     

    मानव मात्र के हितकारी

    बिम्ब : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज का जहाँ-जहाँ भी विहार हुआ वहाँ जैन श्रावकों के अतिरिक्त जाट, माली, नाई, कुम्हार आदि अन्य जातियों के लोग भी बड़ी संख्या में दर्शनार्थ उनके पास आते थे। वे जैनेत्तर दर्शनार्थियों से उनकी कुशलक्षेम पूछते। उन्हें उसकी योग्यतानुसार उपदेश व नियम-व्रत देते थे। पता नहीं ऐसे कितने लोगों का उन्होंने उपकार किया होगा।

     

    दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - इसी तरह आचार्य श्री विद्यासागरजी का गमन जहाँ से भी हो जाता है, वहाँ के गाँव के गाँव अहिंसक बन जाते। छत्तीसगढ़ प्रांत में विहार के दौरान आदिवासी क्षेत्रों के लोगों ने अण्डा, मांस, मछली का सहर्ष त्याग किया। विहार के दौरान जिन विद्यालयों में उन्होंने रात्रि विश्राम किया वहाँ के शिक्षकों सहित विद्यार्थियों ने भी अहिंसक होने का संकल्प ले लिया। इसका विशेष वर्णन सातवीं पाठ्यपुस्तक - ‘आस्था के ईश्वर’ में उल्लिखित है।

     

    कुशल परीक्षक

    बिम्ब : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - आचार्य श्री ज्ञानसागरजी समय-समय पर मुनि श्री विद्यासागरजी की परीक्षा कैसे लेते थे, इस विषय में नसीराबाद (अजमेर, राजस्थान) के श्रावक शान्तिलालजी पाटनी एक अत्यंत रोचक प्रसंग लिखते हैं- ‘मुनि श्री विद्यासागरजी को मैंने बार-बार ‘मोक्षमार्ग प्रकाशक’ पढ़ने के लिये दिया, परन्तु उन्होंने प्रत्येक बार यह कह कर मना कर दिया कि गुरुजी की आज्ञा है कि आचार्य प्रणीत ग्रंथ ही पढ़ा करें। इस प्रकार आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने मेरे द्वारा मुनि श्री विद्यासागरजी की बार-बार परीक्षा ली और उसमें उन्हें सफलता मिली।

     

    दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - जब सुनार का बेटा सुनार और जौहरी का बेटा जौहरी होता है तब आध्यात्म शिल्पी का बेटा (शिष्य) कुशल शिल्पकार क्यों न होगा? अवश्य ही होगा। आचार्य श्री विद्यासागरजी ऐसे ही कुशल शिल्पकार हैं, जिन्होंने शिल्प द्वारा अनेक शिष्य रूपी घट तैयार किए हैं, जिनकी परीक्षा वे समयसमय पर करते रहते हैं।

     

    बीनाबारहा (सागर, मध्यप्रदेश) चातुर्मास २०१५ ई. का प्रसंग है - एक दिन सामायिक के पश्चात् आचार्य श्री विद्यासागरजी अचानक से अपने शिष्यों के कमरों में पहुँच गए। शिष्यगण हड़बड़ा कर खड़े हो गए और नमोऽस्तु किया। आचार्यश्री ने उनके कमरों में जा-जा कर निरीक्षण किया कि किसका क्या स्वाध्याय चल रहा है? उनके चौके (बाजोटे) पर कौन-कौनसी पुस्तकें रखी हैं? आदि-आदि रूप से उन्होंने शिष्यों की परीक्षा ली। इस प्रकार आचार्य श्री विद्यासागरजी को कुशल परीक्षक की दृष्टि अपने गुरु से विरासत में प्राप्त हुई।

     

    अन्तिम लक्ष्य सिद्धि

    बिम्ब : आचार्य श्री ज्ञानसागरजी - आचार्य श्री ज्ञानसागरजी जीवन के अंतिम लक्ष्य ‘समाधिमरण’ को प्राप्त करने के लिए अत्यन्त लालायित थे। समाधि की साधना अपने आचार्य पद को त्याग कर, सभी कर्तव्यों से निवृत्त होकर ही हो सकती थी। अपनी वृद्धावस्था, शारीरिक दुर्बलता तथा साइटिका के अतीव व असहनीय दर्द के रहते वह संघ छोड़कर अन्यत्र जाने में सक्षम न थे। अतः उन्होंने समाधि की सिद्धि के लिये अपने शिष्य मुनि श्री विद्यासागरजी को अपना न केवल आचार्य पद प्रदान किया, अपितु उन्होंने उन्हें निर्यापकाचार्य (समाधि करवाने वाले गुरु) के रूप में स्वीकार कर अपना गुरु भी बनाया। कितना दृढ़ संकल्प एवं उत्कट भावना होगी उनकी समाधिपूर्वक मरण करने की।

     

    दर्पण : आचार्य श्री विद्यासागरजी - अपने गुरु के समान ही आचार्य श्री विद्यासागरजी भी जीवन का अंतिम लक्ष्य ‘समाधिमरण’ की सिद्धि हेतु कृत संकल्प हैं। इसका स्पष्ट चित्रण संघस्थ ज्येष्ठ साधु मुनि श्री योगसागरजी की आचार्यश्रीजी से हुई चर्चा से स्पष्ट हो जाता है

     

    आचार्य श्री विद्यासागरजी का भोपाल (मध्यप्रदेश) चातुर्मास (सन् २०१६) के बाद डोंगरगढ़ (राजनांदगाँव, छत्तीसगढ़) तक का लम्बा विहार हुआ। इस दौरान आचार्यश्रीजी अधिक कमजोर दिखने लगे थे। डोंगरगढ़ पहुँचने से एक दिन पूर्व ५ अप्रैल, २०१७ को शिवपुरी ग्राम में ईर्यापथभक्ति के पश्चात् मुनि श्री योगसागरजी ने आचार्यश्रीजी से कहा- “आपने अपने शरीर को समय से पहले ही बुड्ढा (वृद्ध) बना लिया है। पीछे से देखें तो ऐसा लगता है जैसे अस्सी साल के बुड्ढे जा रहे हैं।' संघस्थ साधुओं ने भी उनका समर्थन किया तब आचार्यश्रीजी बोले- “तुम लोग मेरी भी तो सुनो। मैं कहाँ कह रहा हूँ कि मैं अस्सी का नहीं हूँ? I am running seventy इसमें सत्तर से लेकर अस्सी तक का काल आ जाता है।"

     

    आचार्यश्रीजी ने आगे कहा- “सल्लेखना के लिये बारह वर्ष क्यों बताये? ‘मूलाचार प्रदीप', ‘भगवती आराधना’ में क्या पढ़ा है? तैयारी तो करनी ही होगी। मेरे पास जितना अनुभव है उसी आधार पर तथा गुरुजी से जो मिला उसी अनुभव के आधार पर तैयारी करनी होगी। अपने पास ‘आगमचक्खू साहू' है। मैं उसी के अनुसार अपने शरीर को सल्लेखना के लिये तैयार कर रहा हूँ। वैसी ही साधना चल रही है। बहुत दुर्लभ है यह सल्लेखना। आप लोग इसको अच्छे तरीके से समझें। मिलिट्री की तरह बस प्रत्येक समय तैयार रहो। I am ready to face it बस धीरे-धीरे उस ओर बढ़ते जाना है। सतत् अभ्यास से ही इस दुर्लभ लक्ष्य को साधा जा सकता है। प्रभु से यही प्रार्थना करता हूँ कि एकत्व भावना का चिन्तन करते हुए आयु की पूर्णता हो।” इससे अधिक गुरु एवं शिष्य की साम्यता का उदाहरण और क्या हो सकता है? ‘यथा गुरू तथा शिष्य।’ कैसा दुर्लभ संयोग।

     

    उपसंहार

    संघ का संचालन, अनुशासन, बहुभाषाज्ञान, आयुर्वेद, ज्योतिष, सिद्धान्त, न्याय, अध्यात्म, व्याकरण, निश्चय और व्यवहार, आगमोक्त गूढार्थ विवेचन, लौकिक-पारलौकिक आदि-आदि सभी क्षेत्रों में आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज द्वारा दी गईं शिक्षाओं को आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने अपने जीवन में अक्षरशः उतार लिया है।

     

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    आचार्य श्री विद्यासागरजी की स्मृतियों और अनुभूतियों में आचार्य श्री ज्ञानसागरजी की जो तसवीर है, वह उनके अंतस् पर किसी शिलालेख की भाँति उत्कीर्ण है। यही कारण है कि आचार्य श्री ज्ञानसागरजी का बिम्ब आचार्य श्री विद्यासागरजी रूपी दर्पण में एकदम स्पष्ट प्रतिबिम्बित हो रहा है। धन्य हैं आचार्य श्री विद्यासागरजी, जिन्होंने अपने गुरु के द्वारा दिए गए दृष्टिकोण रूपी औजारों से अपनी जीवन रूपी भित्ति (दीवार) को दर्पण की भाँति निर्मल बना लिया है, जिसमें आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज का बिम्ब पूर्णतः प्रतिबिम्बित हो रहा है। और धन्य हैं आचार्य श्री ज्ञानसागरजी रूपी चित्रकार, जिन्होंने आचार्य श्री विद्यासागरजी रूपी दीवार को अपनी विद्वत्ता रूपी औजारों के प्रयोग से दर्पण की भाँति निर्मल बना दिया है, जिसमें आज उन्हीं का रत्नत्रयरूप बिम्ब सहस्रगुणित शोभा को प्राप्त करता हुआ प्रतिबिम्बित हो उठा है।

     

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    ऐसे श्रमण, जिनकी अभिव्यक्ति समर्पण के अंतिम छोर का स्पर्श करती है। यह गुरु-शिष्य के मध्य सम्बन्धों का ऐसा दस्तावेज है, जिसे मानव जाति की धरोहर के रूप में सुरक्षित रखा जाना चाहिए।

     

    आपने किया महान उपकार,

    पहनाया मुझे रत्नत्रय हार।

    हुए साकार मम सब विचार,

    मम प्रणाम तुम करो स्वीकार॥

    (आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज

    के प्रति श्रद्धांजलि, पद्य ३)

     

    कोरी स्लेट थी

    गुरु ने लिखा आज

    भी अमिट है।

     

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