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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

Vidyasagar.Guru

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Blog Entries posted by Vidyasagar.Guru

  1. Vidyasagar.Guru
    प्रतियोगिता क्रमांक 3  लिंक 
     
    https://docs.google.com/forms/d/e/1FAIpQLSeXKI1pA3o9jIwcfwLtf-idNv1CX96N8coNASsiSpYZEQB9Kw/viewform?usp=sf_link
     
     
     
    उत्तर प्राप्त सूची एवं प्रतियोगिता अनुभव 
    https://docs.google.com/spreadsheets/d/1Ks6KfEmPVOIQ4P30g8ADRciHj96gIiAarOTyC6aBB7A/edit?usp=sharing
     

  2. Vidyasagar.Guru
    प्रतियोगिता क्रमांक 2 लिंक 
     
    https://docs.google.com/forms/d/e/1FAIpQLSdy9V536No2lIbU36VflF7tOe8mXUwfqRRnGfNbZo13SkNi6A/viewform?usp=sf_link
     
    उत्तर प्राप्त सूची एवं प्रतियोगिता अनुभव 
    https://docs.google.com/spreadsheets/d/1RK50g3d7mXiq7JnwFQ8G5yYsPiLcnqJYw9AEJpG9lwo/edit?usp=sharing
     
     

  3. Vidyasagar.Guru
    श्री. मज्जीनेन्द्र पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महामहोत्सव अमरकंटक🚩🛕
       25 मार्च से 1 अप्रैल 2023
                 🛕🛕🛕🛕🛕
    💫युग शिरोमणि, जन जन के संत, आचार्य भगवन श्री १०८ विद्यासागरजी महामुनिराजजी
    💫निर्यापक श्रमण मुनिश्री १०८ प्रसादसागरजी महाराजजी
    💫मुनिश्री १०८ चंदप्रभसागरजी महाराजजी
    💫मुनिश्री १०८ निरामयसागरजी महाराजजी
    ससंघ के मंगल सानिध्य में होगा 🛕सर्वोदय तीर्थ क्षेत्र अमरकण्टक में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महामहोत्सव🛕 
    🎤प्रतिष्ठाचार्य :- वाणीभूषण प्रतिष्ठासम्राट बा. ब्र. विनय भैया जी बंडा
    🪷कार्यक्रम सूची🪷
    25 मार्च 2023 शनिवार
    ➡️ध्वजारोहण,घटयात्रा
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    26 मार्च 2023 रविवार
    ➡️ सकलिकरण,ईंद्र प्रतिष्ठा,गर्भ कल्याणक (पूर्व रुप)
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    27 मार्च 2023 सोमवार
    ➡️गर्भ कल्याणक (उत्तर रुप)
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    28 मार्च 2023 मंगलवार
    ➡️जन्म कल्याणक
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    29 मार्च 2023 बुधवार
    ➡️ तप कल्याणक
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    30 मार्च 2023 गुरुवार
    ➡️ ज्ञान कल्याणक (पूर्वार्ध)
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    31 मार्च 2023 शुक्रवार
    ➡️ ज्ञान कल्याणक (उत्तरार्ध)
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    1 अप्रैल 2023 शनिवार
    ➡️ मोक्ष कल्याणक, कलशारोहण
    ➖➖➖➖➖➖➖➖
     



  4. Vidyasagar.Guru
    छुईखदान छत्तीसगड में 
    संत शिरोमणी गुरुदेव श्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ के पावन सानिध्य मे छुईखदान मे मानस्तंभ मे श्री जी को विराजमान किया
     
     
     
     
  5. Vidyasagar.Guru
    कर्म कैसे करें : स्वाध्याय एवं प्रतियोगिता भाग 2 
    मुनि श्री क्षमासागर जी के समाधि दिवस पर आयोजित प्रतियोगिता 
     
     
    संसारी जीव अनादिकाल से कर्म संयुक्त दशा में रागी-द्वेषी होकर अपने स्वभाव से च्युत होकर संसार-परिभ्रमण कर रहा है। इस परिभ्रमण का मुख्य  कारण अज्ञानतावश कर्म-आस्रव और कर्मबंध की प्रक्रिया है जिसे हम निरंतर करते रहते हैं। कर्म बंध की क्रिया अत्यन्त जटिल है और इसे पूर्ण रूप से जान पाना अत्यन्त कठिन है, लेकिन यदि हमें केवल इतना भी ज्ञान हो जाए कि किन कार्यों से हम अशुभ कर्मों का बंध कर रहे हैं तो सम्भव है हम अपने पुरुषार्थ को सही दिशा देकर शुभ कर्मों के बंध का प्रयास कर सकते हैं|
     

     
    मुनिश्री क्षमा सागर जी  ने 18 प्रवचनों से जन-साधारण को कर्म सिद्धान्त के जैनदर्शन में प्रतिपादित विषयों से अवगत कराने हेतु अत्यन्त सरल भाषा में उन परिणामों को स्पष्ट किया है जिनके कारण हम निरन्तर अशुभ कर्मों का बन्ध करते रहते हैं। 
     
    लेके आए आपके लिए सामूहिक ऑनलाइन स्वाध्याय का विशेष प्रयोग 
    *फ़ॉर्म लिंक* 
    https://docs.google.com/forms/d/e/1FAIpQLSd1koVSRICZzWxwZ_zdqmtZHMfvyzIDaI-8kMMPJKek9akPBQ/viewform?usp=sf_link
    *स्वाध्याय लिंक* 
    https://vidyasagar.guru/blogs/blog/48-1
     
    पंजीकरण सूची 
    https://docs.google.com/spreadsheets/d/1oWSQc98MryRn9JWRqcU_dJjRTpXhhCQ_ifpuojiBy-8/edit?usp=sharing
     
     

     

     
     
     
     
     
  6. Vidyasagar.Guru

    साहित्य
    आतम गुण के घातक चारों कर्म आपने घात दिए
    अनन्तचतुष्टय गुण के धारक दोष अठारह नाश किए
    शत इन्द्रों से पूज्य जिनेश्वर अरिहंतों को नमन करूँ
    आत्म बोध पाकर विभाव का नाश करूँ सब दोष हरु ॥1॥

    कभी आपका दर्श किया ना ऐ सिद्धालय के वासी
    आगम से परिचय पाकर मैं हुआ शुद्ध पद अभिलाषी
    ज्ञान शरीरी विदेह जिनको वंदन करने मैं आया
    सिद्ध देश का पथिक बना मैं सिद्धों सा बनने आया ॥2॥

    छत्तीस मूलगुणों के गहने निज आतम को पहनाए
    पाले पंचाचार स्वयं ही शिष्य गणों से पलवाए
    शिवरमणी को वरने वाले जिनवर के लघुनंदन हैं
    श्री आचार्य महा मुनिवर को तीन योग से वंदन है ॥3॥

    अंग पूर्व धर उपाध्याय श्रीश्रुत ज्ञानमृत दाता हैं
    ज्ञान मूर्ति पाठक दर्शन से पाते भविजन साता हैं
    ज्ञान गुफा में रहने वाले कर्म शत्रु से रक्षित हैं
    णमो उवज्झायाणं पद से भव्य जनों से वंदित हैं ॥4॥

    आत्म साधना लीन साधुगण आठ बीस गुण धारी हैं
    अनुपम तीन रत्न के धारक शिवपद के अधिकारी हैं
    साधु पद से अर्हत होकर सिद्ध दशा को पाना है
    अतः प्रथम इन श्री गुरुओं के पद में शीश नवाना है ॥5॥

    धन्य धन्य जिनवर की वाणी आत्म बोध का हेतु है
    निज आतम से परमातम में मिलने का एक सेतु है
    जहाँ जहाँ पर द्रव्यागम है उनको भाव सहित वंदन
    नमन भावश्रुत धर को मेरा मेटो भव भव का क्रंदन ॥6॥

    निज भावों की परिणतिया ही कर्मरूप फल देती है
    भावों की शुभ-अशुभ दशा ही दुख-सुख मय कर देती है
    कर्म स्वरूप न जान सका मैं नोकर्मों को दोष दिया
    नूतन कर्म बाँध कर निज को अनंत दुख का कोष किया ॥7॥

    तन से एक क्षेत्र अवगाही होकर यद्यपि रहता हूँ
    फिर भी स्वात्मचतुष्टय में ही निवास मैं नित करता हूँ
    पर भावों मे व्यर्थ उलझ कर स्वातम को न लख पाया
    भान हो रहा मुझे आज क्यों आतम रस न चख पाया ॥8॥

    उपादान से पर न किंचित मेरा कुछ कर सकता है
    नहीं स्वयं भी पर द्रव्यों को बना मिटा न सकता है
    किंतु भ्रमित हो पर को निज का निज को पर कर्ता माने
    अशुभ भाव से भव-कानन मे भटके निज न पहचाने ॥9॥

    मिथ्यावश चैतन्य देश का राज कर्म को सौंप दिया
    दुष्कर्मों ने मनमानी कर गुणोंद्यान को जला दिया
    विकृत गुण को देख देख कर नाथ आज पछताता हूँ
    कैसे प्राप्त करूँ स्वराज को सोच नही कुछ पाता हूँ ॥10॥

    इक पल की अज्ञान दशा में भव-भव दुख का बँध किया
    अनर्थकारी रागादिक कर पल भर भी न चैन लिया
    विकल्प जितना सस्ता उसका फल उतना ही महँगा है
    सुख में रस्ता छोटा लगता दुख में लगता लंबा है ॥11॥

    मंद कषाय दशा में प्रभु के दिव्य वचन का श्रवण किया
    किंतु मोह वश सम्यक श्रद्धा और नहीं अनुसरण किया
    आत्मस्वरूप शब्द से जाना अनुभव से मैं दूर रहा
    स्वानुभूति के बिना स्वयं के कष्ट दुःख हों चूर कहाँ ॥12॥

    मेरे चेतन चिदाकाश में अन्य द्रव्य अवगाह नहीं
    फिर भी देहादिक निज माने यह मेरा अपराध सही
    नीरक्षीर सम चेतन तन से नित्य भिन्न रहने वाला
    रहा अचेतन तन्मय चेतन अनंत गुण गहने वाला ॥13॥

    जग में यश पाकर अज्ञानी मान शिखर पर बैठ गया
    सबसे बड़ा मान कर निज को काल कीच में पैठ गया
    पर को हीन मान निज-पर के स्वरूप से अनजान रहा
    इक पल यश सौ पल अपयश में दिवस बिता कर दुःख सहा ॥14॥

    विशेष बनने की आशा में नहीं रहा सामान्य प्रभो
    साधारण में एकेन्द्रिय बन काल बिताया अनंत प्रभो
    भाव यही सामान्य रहूं नित विशेष शिव पद पाना है
    सिद्ध शिला पर नंत सिद्ध में समान होकर रहना है ॥15॥

    मैं हूँ चिन्मय देश निवासी जहाँ असंख्य प्रदेश रहें
    अनंत गुणमणि कोष भरे जग दुःख कष्ट न लेश रहें
    जानन देखन काम निरंतर लक्ष्य मेरा निष्काम रहा
    मेरा शाश्वत परिचय सुनलो आतम मेरा नाम रहा ॥16॥

    स्पर्श रूप रस गंध रहित मैं शब्द अगोचर रहता हूँ
    परम योगी के गम्य अनुपम निज में खेली करता हूँ
    निराकार निर्बन्ध स्वरूपी निश्चय से निर्दोषी हूँ
    स्वानुभूति रस पीने वाला निज गुण में संतोषी हूँ ॥17॥

    निज भावों से कर्म बाँध क्यों पर को दोषी ठहराता
    कर्म सज़ा ना देता इनको यह विकल्प तू क्यों लाता
    कर्म न्याय करने मे सक्षम सुख-दुख आदिक कार्यों में
    हस्तक्षेप न करना पर में विशेष गुण यह आर्यों में ॥18॥

    गुरुदर्श गुरुस्नेह कृपा सच शिव सुख के ही साधन हैं
    गुरु स्नेह पा मान करे तो होता धर्म विराधन है
    अतः सुनो हे मेरे चेतन आतम नेह नहीं तजना
    कृपा करो निज शुद्धातम पर मान यान पर न चढ़ना ॥19॥

    नश्वर तन-धन की हो प्रशंसा सुनकर क्यों इतराते हो
    कर्म निमित्ताधीन सभी यह समझ नहीं क्यों पाते हो
    शत्रु पक्ष को प्रोत्साहित कर शर्म तुम्हें क्यों न आती
    सिद्ध प्रभु के वंशज हो तुम क्रिया न यह शोभा पाती ॥20॥

    अपने को न अपना माने तब तक ही अज्ञानी है
    तन में आतम भ्रांति करके करे स्वयं मनमानी है
    इष्टानिष्ट कल्पना करके क्यों निज को तड़पाता है
    ज्ञानवान होकर भी चेतन सत्य समझ न पाता है ॥21॥

    जगत प्रशंसा धन अर्चन हित जैनागम अभ्यास किया
    स्वात्म लक्ष्य से जिनवाणी का श्रवण किया न ध्यान किया
    बिना अनुभव मात्र शब्द से औरों को भी समझाया
    किया अभी तक क्या-क्या अपनी करनी पर मैं पछ्ताया ॥22॥

    स्वयं जागृति से हो प्रगति बात समझ में आई है
    मात्र निमित्त से नहीं उन्नति कभी किसी ने पाई है
    निज सम्यक पुरुषार्थ जगाकर नही एक पल खोना है
    निज से निज में निज के द्वारा निज को निजमय होना है ॥23॥

    पर भावों के नहीं स्वयं के भावों के ही कर्ता हैं
    कर्मोदय के समय जीव निज भाव फलों का भोक्ता है
    भाव शुभाशुभ कर्म जनित सब शुद्ध स्वभाव हितंकर है
    अर्हत और सिद्ध पद दाता अनंत गुण रत्नाकर है ॥24॥

    निज उपयोग रहे निज गृह तो कर्म चोर न घुस पाता
    पर द्रव्यों में रहे भटकता चेतन गुण गृह लुट जाता
    जागो जागो मेरे चेतन सदा जागते तुम रहना
    सम्यक दृष्टि खोलो अपनी निज गृह की रक्षा करना ॥25॥

    राग द्वेष से दुष्कर्मों को क्यों करता आमंत्रित है
    स्वयं दुखी होने को आतुर क्यों शिव सुख से वंचित है
    गुण विकृत हो दोष बने पर गुण की सत्ता नाश नही
    ज्ञानादिक की अनुपम महिमा क्या यह तुझको ज्ञात नहीं ॥26॥

    सहानुभूति की चाह रखे न स्वानुभूति ऐसी पाऊँ
    स्वात्मचतुष्टय का वासी मैं पराधीनता न पाऊँ
    मैं हूँ नित स्वाधीन स्वयं में निमित्त के आधीन नहीं
    शुद्ध तत्त्व का लक्ष्य बनाकर पाऊँ पावन ज्ञान मही ॥27॥

    जीव द्रव्य के भेद ज्ञात कर परिभाषा भी ज्ञात हुई
    किंतु यह मैं जीव तत्त्व हूँ भाव भासना नही हुई
    बिना नीव जो भवन बनाना सर्व परिश्रम व्यर्थ रहा
    आत्म तत्त्व के ज्ञान बिना त्यों चारित का क्या अर्थ रहा ॥28॥

    त्रैकालिक पर्याय पिंडमय अनंत गुणमय द्रव्य महान
    निज स्वरूप से हीन मानना भगवंतों ने पाप कहा
    वर्तमान पर्याय मात्र ही क्यों तू निज को मान रहा
    पर्यायों में मूढ़ आत्मा पूर्ण द्रव्य न जान रहा ॥29॥

    कर्म पुण्य का वेश पहन कर चेतन के गृह में आया
    निज गृह में भोले चेतन ने पर से ही धोखा खाया
    सहज सरल होना अच्छा पर सावधान होकर रहना
    आतम गुण की अनुपम निधियां अब इसकी रक्षा करना ॥30॥

    पढ़ा कर्म सिद्धांत बहुत पर समझ नही कुछ भी आया
    नोकर्मों पर बरस पड़ा यह जब दुष्कर्म उदय आया
    कर्म स्वरूप भिन्न है मुझसे भेद ज्ञान यह हुआ नही
    बोझ रूप वह शब्द ज्ञान है कहते हैं जिनराज सही ॥31॥

    पर द्रव्यों के जड़ वैभव पर आतम क्यों ललचाता है
    निज प्रदेश में अणु मात्र भी नही कभी कुछ पाता है
    हो संतुष्ट अनंत गुणों से अनंत सुख को पाएगा
    निज वैभव से भव विनाश कर सिद्ध परम पद पाएगा ॥32॥

    वीतराग की पूजा कर क्यों राग भाव से राग करे
    निर्ग्रंथों का पूजक होकर परिग्रह की क्यों आश करे
    कथनी औ करनी में अंतर धरती अंबर जैसा है
    कहो वही जो करते हो तुम वरना निज को धोखा है ॥33॥

    अंतर्मुख उपयोग रहे तो निजानन्द का द्वार खुले
    अन्य द्रव्य की नहीं अपेक्षा कर्म-मैल भी सहज धुले
    गृह स्वामी ज्ञानोपयोग यदि निज गृह रहता सुख पाता
    पर ज्ञेयों में व्यर्थ भटकता झूठा है पर का नाता ॥34॥

    अपने को जो अपना माने वह पर को भी पर माने
    स्वपर भेद विज्ञानी होकर लक्ष्य परम पद का ठाने
    ज्ञानी करता ज्ञान मान का अज्ञ ज्ञान का मान करे
    संयोगों में राग द्वेष बिन विज्ञ स्वात्म पहचान करे ॥35॥

    वस्तु अच्छी बुरी नहीं होती दृष्टि इष्टानिष्ट करे
    वस्तु का आलंबन लेकर विकल्प मोही नित्य करे
    बंधन का कारण नहीं वस्तु भाव बँध का कारण है
    अतः भव्य जन भाव सम्हालो कहते गुरु भवतारण हैं ॥36॥

    इच्छा की उत्पत्ति होना भव दुख का ही वर्धन है
    इच्छा की पूर्ति हो जाना राग भाव का बंधन है
    इच्छा की पूर्ति न हो तो द्वेष भाव हो जाता है
    इच्छाओं का दास आत्मा भव वन में खो जाता है ॥37॥

    सर्व द्रव्य हैं न्यारे-न्यारे यही समझ अब आता है
    जीव अकेला इस भव वन में सुख-दुख भोगा करता है
    फिर क्यों पर की आशा करना सदा अकेले रहना है
    स्व सन्मुख दृष्टि करके अब अपने में ही रमना है ॥38॥

    अरी चेतना सोच ज़रा क्यों पर परिणति में लिपट रही
    स्वानुभूति से वंचित होकर क्यों निज-सुख से विमुख रही
    पर द्रव्यों में उलझ-उलझ कर बोल अभी तक क्या पाया
    अपना अनुपम गुण-धन खोकर विभाव में ही भरमाया ॥39॥

    पिता पुत्र धन दौलत नारी मोह बढ़ावन हारे हैं
    परम देव गुरु शास्त्र समागम मोह घटावन हारे हैं
    सम्यक दर्शन ज्ञान चरित सब मोह नशावन हारा हैं
    रत्नत्रय की नैया ने ही नंत भव्य को तारा है ॥40॥

    अज्ञानी जन राग भाव को उपादेय ही मान रहे
    ज्ञानी भी तो राग करे पर हेय मानना चाह रहे
    दृष्टि में नित हेय वर्तता किंतु आचरण में रागी
    ऐसे ज्ञानी धन्य-धन्य हैं शीघ्र बनें वे वैरागी ॥41॥

    कर्म बँध के समय आत्मा रागादिक से मलिन हुई
    कर्म उदय के समय कर्म फल संवेदन मे लीन हुई
    भाव कर्म से द्रव्य कर्म औ द्रव्य उदय में भाव हुआ
    निमित्त नैमित्तिक भावों से इसी तरह परिभ्रमण हुआ ॥42॥

    कर्म उदय को जीत आत्मा निज स्वरूप में लीन रहे
    उपादान को जागृत करके नहीं निमित्ताधीन रहे
    राग द्वेष भावों को तज कर नूतन कर्म विहीन करे
    जिनवर कहते विजितमना वह मुक्तिरमा को शीघ्र वरे ॥43॥

    कर्म यान पर संसारी जन बैठ चतुर्गति सैर करे
    ज्ञान नाव पर ज्ञानी बैठे भव समुद्र से तैर रहे
    एक कर्म फल का रस चखता इक शिव फल रस पीता है
    जनम मरण करता अज्ञानी ज्ञानी शाश्वत जीता है ॥44॥

    योगी भोजन करते-करते कर्म निर्जरा करता है
    भजन करे अज्ञानी फिर भी कर्म बंध ही करता है
    अभिप्राय अनुसार कर्म के बंध निर्जरा होती है
    श्रीजिनवर की सहज देशना कर्म कलुशता धोती है ॥45॥

    चेतन द्रव्य नहीं दिखता है जो दिखता वह सब जड़ है
    फिर क्यों जड़ का राग करूँ मैं चेतन मेरा शुचितम है
    देह विनाशी मैं अविनाशी निज का ही संवेदक हूँ
    स्वयं स्वयं का पालनहारा निज का ही निर्देशक हूँ ॥46॥

    क्या ले कर आए क्या ले कर जाएँगे ये मत सोचो
    तीव्र पुण्य ले कर आए हो जैन धर्म पाया सोचो
    देव शास्त्र गुरु मिला समागम तत्त्व रूचि भी प्रकट हुई
    शक्ति के अनुसार व्रती बन नर काया यह सफल हुई ॥47॥

    हे उपयोगी नाथ ज्ञानमय दृष्टि स्वसन्मुख कर दो
    नंत कल से व्यथित चेतना दुःख शमन कर सुख भर दो
    तजो अशुभ उपयोग नाथ तुम शुभ से शुद्ध वरण कर लो
    अपनी प्रिया चेतना के गृह मिथ्यातमस सभी हर लो ॥48॥

    पर वस्तु पर द्रव्य समागम दुःख क्लेश का कारण है
    आत्मज्ञान से निजानुभव ही सुख कारण भय वारण है
    स्वपर तत्त्व का भेद जानकर निज को ही नित लखना है
    शिव पद पाकर नंत काल तक स्वात्म ज्ञान रस चखना है ॥49॥

    मेरे पावन चेतन गृह में अनंत निधियां भरी पड़ी
    माँ जिनवाणी बता रही पर ज्ञान नयन पर धूल पड़ी
    बना विकारी मन इन्द्रिय से भीख माँगता रहता है
    दर दर का यह बना भिखारी पर घर दृष्टि रखता है ॥50॥

    हे आतम तू नंत काल से निज में परिणम करता है
    पर से कुछ न लेना देना फिर विकल्प क्यों करता है
    निर्विकल्प होने का चेतन दृढ़ संकल्प तुम्हें करना
    तज कर अन्तर्जल्प शीघ्र ही शांत भवन में है रहना ॥51॥

    वर्तमान में भूल कर रहा पूर्व कर्म का उदय रहा
    नहीं भूल को भूल मानना वर्तमान का दोष रहा
    निज से ही अंजान आत्मा पर को कैसे जानेगा
    इच्छा के अनुसार वर्तता प्रभु की कैसे मानेगा ॥52॥

    मेरी अनुपम सुनो चेतना ज्ञान-बाग में तुम विचरो
    निज उपयोगी देव संग में शील स्वरूप सुगंध भरो
    अन्य द्रव्य से दृष्टि हटाकर व्यभिचार का त्याग करो
    अनविकार चेष्टाएँ तजकर निजात्म पर उपकार करो॥53॥

    सुख स्वरूप आतम अनुभव से राग दुःखमय भास रहा
    निज निर्दोष स्वरूप लखा तो दृष्टि में न दोष रहा
    राग भाव संयोगज जाने ज्ञानी इनसे दूर रहे
    मैं एकत्व विभक्त आत्मा यही जान सुख पूर रहे ॥54॥

    पर से नित्य विभक्त चेतना निज गुण से एकत्व रही
    स्वभाव से सामर्थ्यवान यह पर द्रव्यों से पृथक रही
    अन्य अपेक्षा नहीं किसी की निजानन्द को पाने में
    निज स्वभाव का सार यही है विभाव के खो जाने में॥55॥

    न्यायवान एक कर्म रहा है समदृष्टि से न्याय करे
    भावों के अनुसार उदय की पूर्ण व्यवस्था कर्म करे
    कर्म समान व्यवस्थापक इस जग में और न दिखता है
    निज निज करनी के अनुसारी लेख सभी के लिखता है ॥56॥

    तन चेतन इक साथ रहे तो दुख का कारण न मानो
    एक मानना देहातम को अनंत दुख कारण जानो
    देह चेतना भिन्न-भिन्न ज्यों त्यों दुख चेतन भिन्न रहा
    परम शुद्ध निश्चय से आतम नित चिन्मय सुख कंद कहा ॥57॥

    राग भाव है आत्म विपत्ति इसे नहीं अपना मानो
    राग भाव का राग सदा ही महा विपत्ति ही जानो
    सब विभाव से भिन्न रहा मैं ज्ञान भाव से भिन्न नहीं
    राग आग का फल है जलना पाऊँ केवलज्ञान मही ॥58॥

    पूजा और प्रतिष्ठा के हित भगवत भक्ति न करना
    शब्द ज्ञान पांडित्य हेतु मन श्रुताभ्यास भी न करना
    मात्र बाह्य उपलब्धि हेतु अनुष्ठान सब व्यर्थ रहा
    दृष्टि सम्यक नहीं हुई तो पुरुषार्थ क्या अर्थ रहा ॥59॥

    मैं को प्राप्त नहीं करना है मात्र प्रतीति करना है
    जो मैं हूँ वह निज में ही हूँ स्वानुभूति ही करना है
    दृष्टि अपेक्षा विभाव तजकर ज्ञान मात्र अनुभवना है
    नंत गुणों का पिंड स्वयं मैं निज में ही नित रमना है ॥60॥

    आत्म भावना भा ले चेतन भाव स्वयं ही बदलेगा
    भाव बदलते भव बदलेगा पर का तू क्या कर लेगा
    स्वयं जगत परिणाम हो रहा तू निज भावों का कर्ता
    ज्ञान मात्र अनुभवो स्वयं को हे चेतन चिन्मय भोक्ता ॥61॥

    तत्त्व ज्ञान जितना गहरा हो निज समीपता आती है
    निकट सरोवर के हो जितना शीतलता ही आती है
    आत्म तत्त्व का आश्रय करके ज्ञान करे तो सम्यक हो
    ज्ञान सिंधु में खूब नहाकर भविष्य शाश्वत उज्जवल हो ॥62॥

    पूर्ति असंभव सब विकल्प की अभाव इसका संभव है
    पर आश्रय से होने वाले स्वाश्रय से होता क्षय है
    विकल्प करने योग्य नहीं है निषेधने के योग्य रहे
    निर्विकल्प होकर हे चेतन ज्ञान मात्र ही भोग्य रहे ॥63॥

    भविष्य के संकल्प भूत के विकल्प तू क्यों करता है
    अजर अमर अविनाशी होकर कौन जनमता मरता है
    पुद्गल की इन पर्यायों में निर्भ्रम होकर रहना है
    वर्तमान में निज विवेक से निजात्म में ही रमना है॥64॥

    पर का कर्ता मान भले तू पर कर्ता न बन सकता
    पर को सुखी-दुखी करने में भाव मात्र ही कर सकता
    तेरा कार्य तुझे ही करना अन्य नहीं कर सकता है
    दृढ़ निश्चय यह करके आतम अनंत सौख्य पा सकता है ॥65॥

    किंचित ज्ञान प्राप्त कर चेतन समझाने क्यों दौड़ गया
    लक्ष्य स्वयं को समझाने का तू क्यों आख़िर भूल गया
    सभी समझते स्वयं ज्ञान से पर की चिंता मत करना
    स्वयं शुद्ध आत्मज्ञ होय कर ज्ञान शरीरी ही रहना ॥66॥

    निमित्त दूर करो मत चेतन उपादान को सम्हालो
    बारंबार निमित्त मिलेंगे चाहे कितना कुछ कर लो
    कर्मोदय ही नोकर्मों के निमित्त स्वयं जुटाता है
    उपादान यदि जागृत हो तो कोई न कुछ कर पाता है ॥67॥

    भव वर्धक भावों से आतम कभी रूचि तुम मत करना
    परमानंद तुम्हारा तुममें इससे वंचित न रहना
    बहुत कर चुके कार्य अभी तक किंतु नहीं कृतकृत्य हुए
    रूचि अनुसारी वीर्य वर्तता आत्म रूचि अतः प्राप्त करे ॥68॥

    निज की सुध-बुध भूल गया तो कर्म लूट ले जाएँगे
    स्वसन्मुख यदि दृष्टि रही तो कर्म ठहर न पाएँगे
    निज पर नज़र गड़ाए रखना हे अनंत धन के स्वामी
    आत्म प्रभु का कहना मानो बनना तुमको शिवधामी ॥69॥

    इच्छा से जब कुछ न होता फिर क्यों कष्ट उठाते हो
    सब अनर्थ की जड़ है इच्छा समझ नहीं क्यों पाते हो
    ज्ञानानंद घातने वाली इच्छाएँ ही विपदा हैं
    निस्तरंग आनंद सरोवर निज में शाश्वत सुखदा है ॥70॥

    परिजन मित्र समाज देशहित बहुत व्यवस्थाएँ करते
    अस्त-व्यस्त निज रही चेतना आत्म व्यवस्था कब करते
    चेतन प्यारे निज की सुध लो बाहर में कुछ इष्ट नहीं
    नंत काल से जानबूझ कर विष को पीना ठीक नहीं ॥71॥

    पुद्गल आदिक बाह्य कार्य में चेतन जड़वत हो जाना
    विषय भोग व्यवहार कार्य में मेरे आतम सो जाना
    निश्चय में नित जागृत रहना लक्ष्य न ओझल हो पावे
    कर्मोदय हो तीव्र भले पर दृष्टि आतम पर जावे ॥72॥

    हेय तत्त्व का ज्ञान किया जो मात्र हेय के लिए नहीं
    उपादेय की प्राप्ति हेतु ही ज्ञेय ज्ञान हो जाए सही
    ज्ञायक मेरा रूप सुहाना ज्ञाता मेरा भाव रहे
    ज्ञान संग मैं अनंत गुणयुत चिन्मय मेरा धाम रहे ॥73॥

    प्रति वस्तु की अपनी-अपनी मर्यादाएँ होती हैं
    भिन्न चतुष्टय सबके अपने निज में परिणति होती है
    इक क्षेत्रावगाह चेतन तन होकर भिन्न-भिन्न रहते
    निज-निज गुणमय पर्यायों में द्रव्य नित्य परिणम करते ॥74॥

    निज की महिमा नहीं समझता यही पाप का उदय कहा
    पर पदार्थ की महिमा गाता नश्वर की तू शरण रहा
    वीतराग प्रभुवर कहते तू तीन लोक का ज्ञाता है
    इससे बढ़कर क्या महिमा है निश्चय से निज दृष्टा है ॥75॥

    मेरे में मैं ही रहता हूँ अन्य द्रव्य का दखल नहीं
    अनंत गुण हैं सदा सुरक्षित सत्ता मेरी नित्य रही
    निज में ही संतुष्ट रहूं मैं पर से मेरा काम नहीं
    यह दृढ़ निश्चय करके ही मैं पा जाऊँ ध्रुव धाम मही ॥76॥

    निज पर दुष्कर्मों के द्वारा क्यों उपसर्ग कराते हो
    मिथ्यातम अविरत कषाय औ योग द्वार खुलवाते हो
    अपने हाथों निज गृह में क्यों आग लगाते रहते हो
    अपने को ही अपना मानो अपनों में क्यों रमते हो ॥77॥

    स्वपर भेद अभ्यास बिना ही संकट नाश नहीं होता
    स्वात्म प्रभु की दृढ़ आस्था बिन निज में भास नहीं होता
    भेद ज्ञान अमृत के जैसा अजर अमर पद दाई है
    हे आतम इसको न तजना यह अनुपम अतिशायी है ॥78॥

    विभाव विष को तज कर आतम स्वभाव अमृत पान करो
    सबसे भिन्न निराला निरखो निज का निज में ध्यान धरो
    बहुत सरल है आत्म ध्यान जो पंचेंद्रिय अनपेक्ष रहा
    सरल कार्य को कठिन बनाया चेतन अब तो चेत ज़रा ॥79॥

    स्वभाव का सामर्थ्य जानकर पर द्रव्यों से पृथक रहो
    विभाव को विपरीत समझकर स्वात्म गुणों में लीन रहो
    बाहर में करने जैसा कुछ नहीं जगत में दिखता है
    भीतर में जो होने वाला वही हो रहा होता है ॥80॥

    निज आतम से अन्य रहे जो वे मुझको क्या दे सकते
    मेरे गुण मुझ में शाश्वत हैं वे मुझसे क्या ले सकते
    मैं अपने में परिणमता हूँ पर का कुछ संयोग नहीं
    मेरा सब कुछ मुझ को करना मेरा दृढ़ विश्वास यही ॥81॥

    मैं धर्मात्मा बहुत शांत हूँ जग वालों से मत कहना
    शांति प्रदर्शन बिन अशांति के कैसे हो जिन का कहना
    ज्ञानी तुम्हे अशांत कहेंगे अतः सत्य शांति पाओ
    शब्द अगोचर आत्मशांति है शब्द वेश ना पहनाओ ॥82॥

    जो दिखता है वह अजीव है इसमे सुख गुण सत्त्व नहीं
    फिर कैसे वह सुख दे सकता आश न रखना अन्य कहीं
    सुख गुण वाले जीव नंत पर वह निज सुख न दे सकते
    अपने सुख को प्रगटा कर अनंत सुखमय हो सकते ॥83॥

    आत्म शांति यदि पाना चाहो जग के मुखिया मत होना
    नश्वर ख्याति पद के खातिर आतम निधियां मत खोना
    पल भर इंद्रिय सुख को पाने चिदानंद को न भूलो
    सर्व जगत से मोह हटा कर निज प्रदेश को तुम छू लो ॥84॥

    समझाने का भ्रम न पालो किसकी सुनता कौन यहाँ
    सब अपने मन की सुनते हैं कौन किसी का हुआ यहाँ
    अपना ही अपना होता है केवल आतम अपना है
    ज्ञानमयी आतम को समझो शेष जगत सब सपना है ॥85॥

    मान बढ़ाने जग का परिचय विकल्पाग्नि का ईंधन है
    स्वात्म अनंत गुणों का परिचय जीवन का शाश्वत धन है
    पर से परिचित निज से वंचित रह कर आख़िर क्या पाया
    जिन परिचय से निज का परिचय मुझको आज समझ आया ॥86॥

    पर पदार्थ को शरण मानकर निज को अशरण करना है
    निज का संबल छूट गया तो भव-भव में दुख वरना है
    परमेष्ठी व्यवहार शरण औ निज शुद्धातम निश्चय है
    अनंत बलयुत चिद घन निर्मल शरणभूत निज चिन्मय है ॥87॥

    कर्मोपाधी रहित सदा मैं अनंत गुण का पिंड रहा
    जिनवाणी ने आत्म तत्त्व को पूर्ण ज्ञान मार्तंड कहा
    सुख-दुख कर्म जनित पीड़ाएँ आती जाती रहती हैं
    मेरे ज्ञान समंदर में नित ज्ञान धार ही बहती है ॥88॥

    राग भाव की पूर्ति करके अज्ञानी हर्षित होता
    ज्ञानी राग नहीं करता पर हो जाने पर दुख होता
    ज्ञानी और अज्ञानीजन में अंतर अवनि अंबर का
    इक बाहर नश्वर सुख पाता इक पाता है अंदर का ॥89॥

    बिना कमाए सारे वैभव पुण्योदय से मिल जाते
    किंतु तत्त्व-ज्ञान बिन आतम शांति कभी नहीं पाते
    श्रम करते पर पापोदय में धन सुख वैभव नहीं मिले ॥90॥

    जो दिखता है वह मैं न हूँ देखनहारा ही मैं हूँ
    निज आतम को ज्ञानद्वार से जाननहारा ही मैं हूँ
    ज्ञान ज्ञान में ही रहता है पर ज्ञेयों में न जाता
    ज्ञेय ज्ञेय में ही रहते पर सहज जानने में आता ॥91॥

    वर्तमान में निर्दोषी पर भूतकाल का दोषी हूँ
    नोकर्मों का दोष नहीं कुछ यही समझ संतोषी हूँ
    अन्य मुझे दुख देना चाहे किंतु दुखी मैं क्यों होऊ
    आत्मधरा पर कषाय करके नये कर्म को क्यों बोऊ ॥92॥

    निश्चय से उपयोग कभी भी बाहर कहीं न जा सकता
    एक द्रव्य का गुण दूजे में प्रवेश ही न पा सकता
    मोही पर को विषय बनाता तब कहने में आता है
    यदि पर में उपयोग गया तो ज्ञान शून्य हो जाता है ॥93॥

    अगर हृदय में श्रद्धा है तो पत्थर में भी जिनवर हैं
    मूर्तिमान दिखते मूर्ति में कागज पर जिनवर वच हैं
    कर्म परत के पार दिखेगा तुझको तेरा प्रभु महान
    कौन रोक पाएगा तुझको बनने से अर्हत भगवान ॥94॥

    मान नाम हित किया दान तो अनर्थ औ निस्सार रहा
    पुण्य लक्ष्य से दान दिया तो दान नहीं व्यापार रहा
    पुण्य खरीदा निज को भूला अपना क्यों नुकसान करे
    अहम भाव से रहित दान कर भगवत पद आसान करे ॥95॥

    पाप भाव का दंड बाह्य में मिले न या मिल सकता है
    पर अंतस मे आकुलता का दंड निरंतर मिलता है
    पाप विभाव भाव दुखदाई कर्म जनित है नित्य नहीं
    जो स्वभाव है वह अपना है शाश्वत रहता सत्य वही ॥96॥

    पूजादिक शुभ सर्व क्रियाएँ रूढिक कही न जा सकती
    मोक्ष निमित्तिक क्रिया सभी यह शिव मंज़िल ले जा सकती
    समकित के यदि साथ क्रिया हो सम्यक संयम चरित वही
    अतः भावयुत क्रिया करो नित पा जाओ ध्रुव धाम मही ॥97॥

    तन परिजन परिवार संबंधी नंत बार कर्तव्य किए
    निज शुद्धात्म प्रकट करने को कभी न कोई कार्य किए
    निज मंतव्य शुद्ध करके अब शीघ्र प्राप्त गंतव्य करें
    कुछ ऐसा कर्तव्य करें अब जिनवर पद कृतकृत्य वरे ॥98॥

    हो निमित्त आधीन आत्मा कर्म बांधता रहता है
    कभी-कभी ऐसा भी होता उसे पता न चलता है
    बँध शुभाशुभ भावों से हो श्वान वृत्ति को तजना है
    सिंह वृत्ति से उपादान की स्वयं विशुद्धी करना है ॥99॥

    पर की अपकीर्ति फैलाकर कभी कीर्ति न पा सकते
    अपयश का भय रख कर यश की चाह नही कम कर सकते
    ख्याति-त्याग के प्रवचन में भी ख्याति का न लक्ष्य रहे
    यश चाहो तो ऐसा चाहो तीन लोक यश बना रहे ॥100॥

    भव भटकन को तज कर साधक आत्मिक यात्रा शुरू करो
    स्वानुभूति का मंत्र जापकर अपनी मंज़िल प्राप्त करो
    पर ज्ञेयों की छटा ना देखो आत्म ज्ञान ही ज्ञेय रहे
    कर्मशूल से बच कर चलना मात्र लक्ष्य आदेय रहे ॥
  7. Vidyasagar.Guru

    साहित्य
    कई वर्ष के बाद पुण्य से, गुरु का दर्शन प्राप्त हुआ।
    बिना कहे ही सुन ली मन की, कहने को क्या शेष रहा ॥
    तनिक मिला सान्निध्य किंतु अब, खोल दिये हैं शाश्वत नैन ।
    अब तक था बेचैन किंतु अब, मुझे दे दिया मन का चैन ॥ 1 ॥
     
    आप नूर से हुई रोशनी, रोशन हर मन का कोना ।
    यह खुशियाँ सौगात आपकी, मेरा मुझसे क्या होना ॥
    जब गुरु ने निज नैन - स्नेह की, एक किरण से किया प्रकाश ।
    पाने को अब रहा नहीं कुछ, जग से कुछ भी ना अभिलाष ॥ 2 ॥
     
    खिले खुशी के लाखों उपवन, जब गुरु की मुस्कान मिली।
    मुरझाई थी कली हृदय की, चटक चटक कर खुली खिली ॥
    गुरु- पद शीतल शांत छाँव में, मोक्षमहल तक चलना है।
    गुरु की गरिमामयी गोद ही, मेरा पावन पलना है ॥3 ॥
     
    बहुत पुराना नाता है पर, नया-नया हर पल लगता ।
    अधर कपाट नहीं खुलते बस, सुनने को ही मन करता ॥
    अनहद नाद सरीखी वाणी, अंतर मन झंकृत करती ।
    अपलक तकते रहे नैन बस, गुरु से नज़र नहीं हटती ॥4॥
     
    गुरु - दर्शन पा गहन रात भी, सुप्रभात -सी मुझे लगी ।
    निज को निज में खो जाने की, प्यास निरंतर मुझे जगी ॥
    निधी मिली जो गुरु सन्निधि में, वह अद्भुत अनमोल रही ।
    त्रिलोक की जड़ निधियाँ दे दें, तो भी उसका तोल नहीं ॥5॥
     
    ज्ञान खान का मैं पत्थर था,मुझको हीरा बना दिया।
    शुभ्र धवल सुंदर चमकीला,मोती जैसा बना दिया  ॥
    चमक भीतरी बाहर जो भी, गुरु की दिव्य किरण से है।
    जो कुछ अद्भुत मिला मुझे वह, गुरु की चरण-शरण से है ।6 ॥ 
     
    गहरी- गहरी नज़रें गुरु की, मम नैनों में भर जाती ।
    तब अंतर नयनों में मुझको, मेरी ही सुध रह जाती ॥
    जब गुरुवर के गुण चिंतन में, मन मेरा गहराता है।
    तब स्वर्गों के सुमनों-सी यहँ, कौन महक भर जाता है ॥ 7 ॥

    अहो! आपकी एक नज़र से, कर्म काँपते हैं थर-थर ।
    मोह क्षीण होता जाता है, विभाव भी होते जर्जर ॥
    फिर क्यों एक नज़र से गुरुवर, मुझको वंचित रखते हो।
    अपने सुत को भूखा रख खुद, स्वानुभूति रस पीते हो ॥ 8 ।।
     
    गुरु बिन यह निष्प्राण समूचा, सचमुच मेरा जीवन है।
    भक्ति की श्वाँसें हैं अब तो, श्रद्धा की ही धड़कन है ॥
    भक्त रूप यह दीपक गुरु के, स्नेह-तेल से जलता है।
    इस नादान बाल का जीवन, गुरु कृपा से चलता है ॥ 9 ॥
     
    मुझे तनिक ना जाना फिर भी, गुरुवर ने पैगाम सुना ।
    इसीलिए तो मैंने केवल, विद्या गुरु का नाम चुना ।।
    बिना बताये ये अंतस् की, किताब को पढ़ लेते हैं।
    अंतर- दृष्टि तीक्ष्ण गुरु की, बिना लिए सब देते हैं ॥ 10 ॥
     
    जीवन की मरुभूमि में गुरु, हरियाली बनकर आये ।
    मुरझाये जीवन उपवन में ,खुशहाली बनकर छाये ॥
    गुरु गुण तुलना योग्य नहीं मैं, उपमा किसकी बतलाऊँ ।
    हे गुरुवर ! तेरी महिमा मैं कैसे शब्दों से गाऊँ ॥ 11 ॥

    दुर्गम इस जीवन के पथ पर, पग-पग काँटे बिखरे थे।
    पथ को सुगम बनाया गुरु ने जब जीवन में आये थे ॥
    चित्त शांति के लिए आपने, जैनागम रस चखा दिया।
    कर्म रहस्य बताकर मुझको, जीवन जीना सिखा दिया ॥ 12 ॥
     
    दिशाहीन था मेरा जीवन, दिशायंत्र बनकर आये ।
    कर्मों के षड्यंत्र विफल कर, महामंत्र बनकर आये ।।
    अद्भुत जादूगर हो गुरुवर, पापी को पावन करते ।
    पतझड़ को भी स्नेह-नीर से, सिंचन कर सावन करते ॥ 13 ॥
     
    गुरु आपके नीलनयन के, परमाणु अति सुंदर हैं ।
    मानो हो अध्यात्म समंदर, दृष्टि कमल मनोहर है ।।
    इन कमलों की सुगंध पाने, भक्त भ्रमर बनकर आया ।
    मुक्ति से किञ्चित् कम सुख गुरु, तव पद में आकर पाया ॥ 14 ॥
     
    सारा खेल रचाकर गुरु ने, निज को निज में छिपा लिया।
    ज्ञान चाँदनी बिखरा करके, मुझको निज से मिला दिया ॥
    क्योंकि गुरु कर्तृत्व भाव से, दूर-दूर ही रहते हैं ।
    करते नित कर्त्तव्य पूर्ण पर, अहं भाव नहीं रखते हैं ॥ 15 ॥

    जब प्रत्यक्ष मिले गुरुवर तो, नयन खुशी से भर आये।
    अधर पटल मुस्काये लेकिन, बात नहीं कुछ कर पाये ।।
    शिष्य एकटक रहे देखते, स्नेह झील में डूब गये।
    महामिलन की वह अनुभूति, कह न सके बस मौन रहे ॥16 ॥

    जग अपना-सा लगा मुझे जब, तुमने अपना बना लिया ।
    तीक्ष्ण शूल भी फूल बने तब, अरि को सहचर बना दिया ।।
    दिल से कैसे अब मैं सुमरूँ, दिल के दर्पण में तुम हो ।
    मुझमें रहकर भी हे गुरुवर, अपने में ही तुम गुम हो ||17||
     
    गुरु को हृदय बिठाकर इकटक, निहारना अच्छा लगता।
    धड़कन की आहट का भी तब, शब्द नहीं मुझको भाता ॥
    तभी चहकती चिड़ियाँ आकर, मौन भंग कर देती हैं।
    गुरु- स्मृति में मेरी मति तब, बार-बार खो जाती है ॥ 18 ॥
     
    गुरु- स्नेह को शब्दों में क्या, कभी बताया जा सकता।
    वहाँ तरस जाती हैं आँखें, शब्द ठगा सा रह जाता ॥
    गुरु- स्नेह कैसा होता है, कोई अगर पूछे मुझसे ।
    अनुभव करके स्वयं देख लो, बता नहीं सकते तुमसे ॥ 19 ॥
     
    गुरु श्रद्धा आकाश अपेक्षा, आसमान भी बौना है।
    गुरु चरणों में कुछ ना पाना, विकार परिणति खोना है ॥
    प्रभु ने भी पहले गुरु से ही, सत्य पंथ पहचाना था ।
    अतः मंत्र में प्रभु से पहले, गुरु को शीश नवाया था ॥ 20 ॥

    पर को भूलूँ ऐसी गुरुवर, मुझे विस्मृति दे देना।
    कहने को उत्सुकता ना हो, ऐसा मुझको कर देना ।।
    भूतकाल के विकल्प ना हो, भविष्य का संकल्प नहीं ।
    वर्तमान में शांत रहूँ बस, ऐसा दो गुरु मंत्र सही ॥ 21 ॥
     
    कहा- शिष्य हो तुम मेरे तब, जादू जैसा मुझे लगा ।
    ओझल हुई समूची दुनिया, मुझमें विद्या भानु उगा ।।
    बसे हृदय में आप और कोई न बसाया जा सकता।
    किया नंत उपकार आपने, नहीं चुकाया जा सकता ।। 22 ।।
     
    अपनों में ना रहते गुरुवर, अपने में ही जीते हैं।
    अपना काम स्वयं ही करते, पराधीन नहीं रहते हैं ॥
    मोक्षमार्ग पर गुरुवर स्वाश्रित, निर्भय हो अविचल रहते ।
    लिये कमण्डल स्वयं हाथ में, कई कोस तक गुरु चलते ॥ 23 ॥

    हे गुरुवर! दिन-रात आपकी, शिष्य पनाहों में रहते ।
    दिखलायी जो राह आपने, उस ही राहों पे चलते ।।
    गुरु-भक्ति के सुखद रंग में, खुद को ऐसा रंग लिया ।
    दूजा रंग न चढ़ पायेगा, मैंने ऐसा ठान लिया ॥24 ॥
     
    मन वीणा के तार सदा ही, गुरु चरणों से जुड़े रहें ।
    स्वानुभूति गीतों का गुँजन, हृदय कक्ष में नित्य बहे ॥
    तान सुरीली सुनने मेरा, रोम-रोम उत्कंठित है।
    अपने में ही खो जाने की, वह शुभ घड़ी प्रतीक्षित है ॥ 25 ॥
     
    संयम उपवन में विचरण कर, पाया गुरु ने ज्ञान भवन ।
    ऐसे गुरु से लगी लगन है, हुआ मगन मन सौख्य सघन ।।
    घबराता है नहीं आतमा, चाहे कितनी हो मुश्किल ।
    आप मिले तो लगा मुझे यों, मानो मिला मुझे साहिल ||26||
     
    प्रभु की भक्ति करते-करते, प्रभु कहीं खो जाते हैं।
    आप वहाँ दिख जाते गुरुवर, समझ नहीं कुछ पाते हैं।।
    प्रभु गुरु में कुछ भेद न रहता, देह नयन मुँद जाते हैं।
    ज्ञान नयन खुल जाते हैं तब, निज के दर्शन होते हैं । 27 ॥
     
    युगों-युगों से जिनको मैंने, जगह-जगह जाकर दूँढ़ा ।
    गुरु मिले मम श्रद्धा गृह में, मिलने पर जी भर पूजा ॥
    कुछ भी वर माँगा ना फिर भी, वरदानों की वृष्टि हुई।
    हृदय चमन महका अंतर में, निज को नूतन दृष्टि मिली ॥28॥

    कई वर्ष से ज्ञान नीर बिन, सारी बगिया सूखी थी ।
    गुरु वाणी की वर्षा से ही, मन की बगिया महकी थी ॥
    नीर खाद औ प्रकाश गुरु का, मैं तो बीज मात्र ही था ।
    बना वही पौधा सच इस पर, हाथ गुरुवर का ही था ॥ 29 ॥
     
    प्रभु गुरु में अंतर इतना ही, प्रभु मौन गुरु बोल रहे।
    जगा- जगाकर भक्त जनों के, अंतर के पट खोल रहे ॥
    तीन लोक के अग्र भाग पर, सिद्धालय में प्रभु रहते ।
    भक्त हृदय में उच्च स्थान पर, रहकर गुरु निज में रमते ॥ 30 ॥
     
    गुरु प्रसन्न हो तो शिष्यों को, मोक्ष निकट ही लगता है।
    गुरु रूठे तो जग रूठा-सा, सुख भी दुख- सा लगता है ॥
    तन की श्वाँस यदि रूठे तो ,जीवन कैसे जी सकते।
    गुरु कृपा की श्वाँस बिना ना, शिष्य एक पल रह सकते ॥ 31 ॥

    यह कहना है वह कहना है, क्या-क्या मन में सोच लिया।
    गुरुवर को सम्मुख पाकर मैं, सब कुछ कहना भूल गया ॥
    अद्भुत आभामण्डल गुरु का, मुखर मौन हो जाते हैं।
    प्रश्न कहे बिन उत्तर मिलता, अचरज से भर जाते हैं । 32 ॥
     
    जब करते आहार गुरु जी, जाने क्यों ऐसे लगते ।
    निराहार निज रूप निरखते, जड़ का स्वाद नहीं चखते ॥
    रस नीरस इक समान गुरु को, क्योंकि समरस पीते हैं।
    करके ज्ञानाहार गुरुवर, आह्लादित हो जीते हैं ॥33॥
     
    जो देखे इक बार आपको, अपने से ही लगते हैं ।
    जब करते प्रवचन तो लगता, मेरे लिए ही कहते हैं ।।
    गुरु के शब्दों में सरगम है, जादू- मुस्कान लगी ।
    गुमसुम भी गाने लग जाते, जिसने गुरु की शरण गही ॥34॥
     
    गुरु का सुंदर-सुंदर तन है, मन इससे भी सुंदर है ।
    गुरु चेतना का क्या कहना, बहे ज्ञान के निर्झर हैं ।।
    गुरु मूरत उज्ज्वल दर्पण सम, शिष्य भविष्य देखते हैं।
    अपना जीवन सौंप गुरु को, आनंदित हो जीते हैं ॥35॥
     
    गुरु इक बार कहें जो मुख से, वह वैसा हो जाता है।
    अभी नहीं तो कभी बाद में, वही सामने आता है।
    वचनों में मानो सिद्धि है, सीमित शब्द बोलते हैं।
    'देखो' कहकर सब कह देते, विस्मित हो सब सुनते हैं। 36 ।।
     
    जग से बहुत दूर निज में ही, गुरु का वतन निराला है।
    गुरु की ज्ञान-किरण से ही यह, फैला दिव्य उजाला है ॥
    गुरु की परम ज्योति से मेरी, ज्योति अनबुझ जलती है।
    इसी ज्योति में मुझको मेरी, चिदातमा नित दिखती है ॥37॥

    मिले गुरु तो मन का गम ना, रही नहीं तन की चिंता
    हुआ चित्त निश्चित निराकुल, क्योंकि संग है परम पिता ॥
    एक अपूर्व अनुभव मुझको, गुरु चरणों में होता है।
    रिमझिम रिमझिम ज्ञान बरस कर, विकार मल को धोता है। 38 ॥
     
    देह नेह से रहित गुरुवर, आत्म गेह में रहते हैं।
    विदेह पद के प्रत्याशी गुरु, स्वात्म तत्त्व में रमते हैं ।।
    बीज समान शब्द कहते हैं, वही सूत्र बन जाते हैं।
    इसीलिए तो नास्तिक भी आ, गुरु को शीश झुकाते हैं ॥39॥

    ना जाने आगे जीवन में, कितने परिचित आयेंगे।
    दिल में किंतु गुरु सिवा हम, रख न किसी को पायेंगे ॥
    क्योंकि मेरे गुरु विराट हैं, पूरे में ही समा गये ।
    अपनी अनुपम निधियाँ गुरुवर, मुझको भी कुछ थमा रहे || 40 ||
     
    प्रभुवर मोक्ष स्वरूप यदि तो, गुरु साक्षात् मोक्ष पथ हैं।
    चलते फिरते प्रभु सम लगते, गुरुवर मुक्ति का रथ हैं ।
    आत्म रुचि वाले भव्यों को इस रथ में बैठाते हैं।
    गुरुवर  के अनुकूल चले जो, निश्चित मंजिल पाते हैं । 41 ॥

    पिच्छी के कई पंख दिये गुरु, पंख और दो भी देते ।
    जिससे उड़कर समीप आकर ,दर्श आपका कर लेते ॥
    क्योंकि गुरु दर्श से मुझको, मेरी आतम दिखती है।
    नहीं बिगड़ती गुरु आपकी, मेरी बिगड़ी बनती है ॥42 ॥
     
    विद्यार्णव की गहराई में, बसरा मोती पाया है।
    श्वाँसों के हर तार-तार में श्रद्धा मोती पिरोया है।
    आतम का शृंगार करूँ मैं, रिझा सकूँ निज चेतन को ।
    गुरु के ऋण से मुक्ति पाऊँ, जब पाऊँ स्वातम धन को ॥43 ॥
     
    कितनी सदियाँ बीते चाहे, जग भी कितना ही बदले ।
    गुरु के प्रति निष्ठा का दीपक, मुझ आतम में नित्य जले ॥
    गुरु के गुण चिंतन में अपनी, आतम की निधि को निरखा।
    मैंने गुरु के प्रकाश में ही, निज आतम का रूप लखा ॥ 44 ॥
     
    मिश्री जैसे बोल गुरु के, मन को सरल बना देते ।
    जनम-जनम के दुखी भक्त को, पल में ही खुश कर देते ॥
    जैसे गहन रात्रि के तम को, रवि की एक किरण हरती ।
    अमृत की क्या एक बूँद से, तन की क्षुधा नहीं मिटती ॥45 ॥
     
    उदीयमान नक्षत्र सरीखे, मेरे गुरु नित उदित रहें।
    तरु से झर-झर सुमन झरे ज्यों, गुरु वचनों से मुदित करें ॥
    नहीं प्रसिद्धि चाहे किञ्चित्, मात्र सिद्धि की चाहत है।
    ऐसे गुरु के दर्श मात्र से मिलती मन को राहत है || 46 ॥

    पर की पीड़ा देख गुरु की, करुणा जल सम बह जाती।
    किंतु स्वयं की पीड़ा में वह, गिरि समान दृढ़ बन जाती ॥
    ऐसे गुरु के गुण चिंतन से, सफल हुआ मेरा हर पल ।
    शांत हो गई आज चेतना, दूर हुई मन की हलचल ॥ 47 ॥
     
    सुनो गुरु से ना कहना कि, मेरी मुश्किल बड़ी-बड़ी ।
    मुश्किलों से कहना है कि, गुरु की महिमा बहुत बड़ी ॥
    अग्नि में तपकर ही सोना, रवि-सा तेज दमकता है।
    कर्मों की आँधी से लड़कर, मोक्ष पथिक शिव पाता है ॥ 48 ॥

    बातें करते हुए दीखते, किंतु स्वयं में मौन रहें ।
    मौन दिख रहे बाहर से पर, बात स्वयं से आप करें ॥
    चलते दिखते औरों को पर, स्थिर रहते हैं अपने में ।
    स्थिर रहकर भी ज्ञानधार में, सदा प्रवाहित स्वातम में ॥ 49 ॥

    गुरुवर के नीले नयनों में, समा गया मानो आकाश ।
    नज़र मिली तो लगा मुझे, हो गया सर्व विघ्नों का नाश ॥
    नीलकमल से इन नयनों में, सागर-सी गहराई है।
    गुरु के अद्भुत गुण कमलों की, इसमें गंध समाई है ॥ 50॥
     
    करते हुए अशन श्री गुरुवर, नित्य अनेशन ही करते।
    पर को देख रहे लगता पर, दर्शन निज का ही करते ।।
    धरती पर चलते दिखते पर, सिद्धालय की ओर चले ।
    करते हैं विश्राम स्वयं में, जिनशासन की छाँव तले ॥51॥
     
    गुरु-मिलन वेला में विद्या सूरज की किरणें बिखरी ।
    चेतन का ही भान रहा बस, निज तन की भी सुध बिसरी ॥
    गुरु ने जो धन दिया मुझे वह, और किसी ने ना देखा ।
    चमक गया मम भाग्य सितारा, बदली जीवन की रेखा ।। 52 ॥

    आज सुनहरी रात स्वप्न में, दर्श हुए श्री गुरुवर के ।
    शांत सहज गुरु लगे निराले, निर्मल शीतल सरवर से ।।
    वह अंधियारी रात्रि अद्भुत, प्रकाश लेकर आयी थी ।
    रुके काल का वहीं कारवाँ, यही भावना भायी थी ॥ 53॥
     
    मिले गुरु पद के निशान अब, और न चाहूँ पथ दर्शक ।
    गुरु चलाते मेरा जीवन, और न चाहूँ संचालक ॥
    पंच तीर्थ दर्शन गुरु में ही, और न कुछ तीरथ चाहूँ ।
    गुरु कृपा ही मांगूँ, और पदारथ ना चाहूँ | 54 ॥
     
    भक्तों की जब घनी भीड़ में, गुरुदेव थक जाते हैं।
    श्वाँसों में तब स्वानुभूति की, सरगम सुन रम जाते हैं ।।
    नयन मूंदकर अपने में ही, मगन गुरु हो जाते हैं।
    मुक्तिप्रिया के सपनों में ही, मम गुरुवर खो जाते हैं । 55 ॥
     
    जगत प्राणियों की रक्षा हित, बाह्य नयन तो कभी खुले ।
    किंतु गुरु के अंतर चक्षु, आत्म दर्श हित नित्य खुले ॥
    निरख - निरख कर निज की निधियाँ, फूले नहीं समाते हैं।
    अपने शिष्यों को कुछ बूंदें, वचनों से छलकाते हैं|56||

    गुरुको पाकर मन अब कहता, कुछ भी रहा नहीं पाना ।
    समीप आकर ही मैंने, आत्म रूप को पहचाना ॥
    अपनी जब पहचान मिली तो, ज्ञान बाग का सुमन खिला ।
    तभी पिंजरे के पंछी को, खुला हुआ आकाश मिला ॥ 57 ॥
     
    सहज भाव से जिनने आकर, मेरी सृष्टि सँवारी है।
    कुछ ना लेकर दिया बहुत ही, शिष्य सभी आभारी हैं।
    माँग रहा था दर-दर मैं तो, मिला नहीं वो ज्ञान कहीं ।
    बिन माँगे दे दिया सभी कुछ, चाहत की दरकार नहीं ॥58 ॥
     
    स्वारथ के इस जग में देखा, निःस्वारथ ना प्रीत कहीं।
    तीन लोक में एकमात्र ही, गुरु-सा कोई मीत नहीं ॥
    गुरु के सुमिरन से सुषुप्त सब, भाग्य द्वार खुल जाते हैं।
    एक झलक दर्शन पाते ही, मन चाहे फल पाते हैं। 59 ॥
    -
    गुरु यादों में खोना मानो, शीतल - शीतल छाया है।
    इस छाया में रहकर मैंने, स्वर्गों सा सुख पाया है ॥
    यदि उपयोग रहे गुरु-पद में, आतम निर्भय रहता
    क्योंकि गुरु से जिन तक जिनसे, निज का दर्शन मिलता है ॥60॥
     
    गुरु के भक्त अनेकों हैं पर ,गुरु नित इक आतम ध्याते ।
    नहीं किसी को अपना माने, अपने में ही नित रमते ।।
    अपनों के घेरे में रहकर, भव के फेरे बढ़ते हैं ।
    अतः गुरुवर सतर्क होकर, मुक्ति मंजिल चढ़ते हैं ||61||
     
    शिष्यगणों को शरणा देकर, गुरु कभी ना मान करें।
    शिष्य गुरु की शरणा पाकर, नहीं दीनता भाव धरें ।।
    गुरु शिष्य सब प्रसन्न रहकर, कर्म निर्जरा करते हैं।
    शिष्य गुरु से दूर जाए तो, झर-झर आँसू बहते हैं ॥62 ॥

    गुलाब जैसे चरण आपके, मानो खिला कमल वन है।
    भक्त भ्रमर बन मँडराते हैं, करते भक्ति गुंजन हैं ।।
    चरण-स्पर्श कर अनुभव करते, अद्भुत ऊर्जा पाई है।
    क्योंकि एकमात्र गुरु में ही, प्रभु की शक्ति समाई है || 63 ||
     
    बिना सहारे बैठे रहते, तन से किञ्चित् मोह नहीं ।
    नीरस लेकर सरस जी रहे ,मन में किञ्चित् क्षोभ नहीं ॥
    स्व में सुस्थिर रहने वाले, स्वस्थ स्वयं में व्याप्त रहें ।
    जो भी गुरु चरणों में रहते, शिष्य सदा वे स्वस्थ रहें || 64 ||
     
    इक करवट से सोते हैं पर, अंतर में गुरु जगते हैं।
    एक बार यदि जाग गये तो नहीं दुबारा सोते हैं ॥
    अपनी ज्ञाननिधि सँवारते, खुले रहे नित नयनन हैं ।
    सुषुप्त जन को जागृत करते, जगतगुरु को वंदन है ॥ 65 ॥
     
    भेदज्ञान साबुन से मलकर, चेतन को नहलाते हैं।
    भेष दिगम्बर धर रत्नत्रय, आभूषण पहनाते हैं ॥
    गुरुवर की सुंदरता लखकर, मुक्तिवल्लभा रीझ गई।
    आगम अनुसारी चर्या लख, श्री गुरुवर से प्रीत हुई ||66 ||
     
    ध्यान सुरंग खोदकर गुरुवर, कहाँ अकेले चल देते ।
    शिष्य ढूँढ़ते रह जाते पर, गुरु दिखाई ना देते ॥
    जनसंकुल में भी एकाकी, तन से बैठे रहते हैं ।
    मन को सिद्धालय पहुँचाकर, सिद्धों से कुछ कहते हैं || 67 ॥
     
    ज्ञान गुफा में एक अकेले, अहो आत्म केली करते ।
    अपने ही परमात्म रूप को, नित्य निरखते ही रहते ।।
    मुक्तिरमा के भावी स्वामी होने से आनंदित हैं।
    यह आनंद प्राप्त करने को, मेरा हृदय प्रतीक्षित है ॥68॥
     
    रखे जिस जगह चरण गुरुवर, पावन होते परमाणु ।
    वृहस्पति भी समझ सके ना मैं बेचारा क्या जानूँ ।।
    अतिशय घटित वहाँ कई होते, सबको अचरज हो आता।
    किंतु गुरु निस्पृह ही रहते, रखते हैं हर पल समता ॥ 69 ॥
     
    बनकर मेघ गुरु आये तो, शिष्य मयूरा बन आया।
    बने आप श्रीराम गुरु तो, श्रमणी बन मैंने गाया ।।
    बन आये गुरु वीरा चंदन का स्वीकार करो वंदन ।
    दाता त्राता सब कुछ मेरे, रोम-रोम से अभिनंदन ॥ 70 ॥

    ज्ञान-ध्यान दो झरने गुरु में, संयम गिरि से झरते हैं।
    भक्त जनों की कर्म कालिमा, पलभर में ये हरते हैं॥
    पंचमयुग में भी श्री गुरुवर, तीर्थंकर सम बन आये।
    सिद्धक्षेत्र सम तीर्थ तुम्हीं हो, कहो कहाँ अब हम जायें ॥ 71 ॥
     
    प्रभु सम पावन गुरु से पूछा, आप धरा पर क्यों आये ।
    शांत भाव से बोले गुरुवर, जग में मिथ्यातम छाये
    ज्ञान रवि की किरण लिये मैं, वसुंधरा पर हूँ आया ।
    जागो जागो भव्य प्राणियों, तजो मोह ममता माया ॥ 72 ॥

    पापास्रव का द्वार बंद कर, संयम शैय्या पर सोते ।
    इक विकल्प की आहट पाकर, सावधान हो जग जाते ॥
    लक्ष्य रहा दिन-रात गुरु का, स्व का संवेदन करना ।
    सहज भाव कर्त्तव्य सहज ही, पर का कर्त्ता ना बनना ॥ 73 ॥

    गुरु के स्वच्छ ज्ञान दर्पण में, झलक रही शिवनारी है।
    उसे रिझाने जप तप करते, भेष दिगम्बर धारी हैं ॥
    मुक्तिवधू ने समता दूती, गुरु समीप में भेजी है।
    कहलाया हम तुम्हें वरेंगे, बात हमारी पक्की है ॥74 ॥
     
    अरबपति भी जड़ धन पाकर, सुखी नहीं हो सकता है।
    गुरु- कृपा का चेतन धन पा, दुखी नहीं रह सकता है ॥
    हाथ गुरु का यदि सर पर हो, फिर दरकार भला किसकी।
    भाग्य स्वयं दौड़ा आता है, महिमा है यह गुरुवर की ॥75 ॥
     
    बार-बार एकांत प्राप्त कर, समता दूती से मिलते।
    नयन मूँदकर हृदय खोलकर, जी भरकर बातें करते ।
    नंत स्नेह करता मैं उससे, शिवनारी से कह देना ।
    संदेशा यूँ देते उसको, कहे; किसी से ना कहना ॥76॥
     
    गुरु के ज्ञान बाग में सुंदर, समता रूपी वापी है।
    तत्त्वज्ञान के शीतल जल की, परम सुगंधी आती है ||
    गुरु चरणों की हरियाली में शिष्य परिन्दे आते हैं।
    कलरव करते गुरु- गुण गाते, उमंग से भर जाते हैं ॥77॥

    जिनशासन के गगनांगन में, गुरु चाँद से दिखते हैं।
    तारागण सम शिष्य सर्व ही, गुरु को घेरे रहते हैं ॥
    कौन क्षीरसागर को तजकर, क्षारसिंधु को चाहेगा ।
    ऐसे गुरु की शरण छोड़कर, अशरण जग में भटकेगा ॥ 78 ॥
     
    प्रभु से जो कुछ पा न सका मैं, गुरु से वह सब मिला मुझे।
    कभी दूर कर कभी निकट कर, नज़रों में रख लिया मुझे ॥
    कभी बोल कर कभी मौन से, गुरु ने मुझको समझाया।
    इसीलिए सब द्वार छोड़कर, गुरु का द्वार मुझे भाया ॥ 79 ॥
     
    गुरु कृपा को अपने मन में, सहेज करके रखना है।
    जो है गुरु के प्रति समर्पण, औरों से ना कहना है ॥
    तीन योग से गुरु भक्ति कर, फल इतना ही पाना है।
    ना छूटे गुरु चरण कदापि, सिद्धालय तक जाना है। 80 ॥
     
    शिष्य माँगता सदा गुरु से, यही शिष्य की परिभाषा ।
    निःस्वारथ पथ दिखलाते, बदले में ना कुछ आशा ॥
    ज्यों माता अपने प्रिय सुत को, बिन माँगे सब दे देती ।
    गुरु-स्नेह की एक झलक ही, शिष्यों में सुख भर देती ॥ 81 ॥

    निज स्वभाव को बार- बार जब, भूल-भूल मैं जाता
    तब गुरु - छवि ही स्मृति दिलाती, आत्म लीन हो जाता हूँ ।।
    इक जैसी ही भाव विशुद्धि, सदा नहीं रख पाता हूँ।
    तब मैं सिर रखकर गुरु-पद में, भावों से सो जाता हूँ ॥ 82 ॥
     
    गुरुवर जब सम्मुख होते तब, नयन स्वयं झुक जाते हैं।
    गुरु - विरह में श्वाँसों के सब, सरगम रुक-रुक जाते हैं।
    कीलित होते हाथ पैर सब, तन निष्क्रिय हो जाता है।
    गुरु सन्निधि से रोग शोक सब, छूमंतर हो जाता है ॥83 ॥

    चउ आराधन के स्तंभों पर, टिका हुआ गुरु स्वात्म भवन ।
    ज्ञान ध्यान की सामग्री से ,होता रहता नित्य हवन ॥
    भक्त सुगंधी लेने हेतु, दूर-दूर से नित आते ।
    गुरु को लखकर विभाव तजकर, स्वात्म भाव में रम जाते ॥ 84 ॥
     
    आतम ज्ञान प्राप्त करने को, गुरु नाम का ग्रंथ रहा ।
    महा मोक्ष मंज़िल पाने में, गुरु-भक्ति ही पंथ कहा ॥
    अतः गुरु के सिवा जगत में, मैंने और न कुछ देखा ।
    पर का प्रवेश ना हो मुझमें, गुरु खींचो ऐसी रेखा ॥ 85 ॥
     
    जिस गलियारे से गुरु गुजरे , रोशन ही वह हा जाता।
    जिसे देख ले स्नेह नज़र से, वह उनमें ही खो जाता ॥
    पुण्य कवच है सघन गुरु का, शरणागत सुख पाता है।
    नहीं चाहता आकर जाना, मम मन भी यह गाता है ॥ 86 ॥

    परम प्रशंसक भक्त जनों से, गुरुवर कभी न राग करें।
    आलोचक जन से भी गुरुवर, नहीं द्वेष का भाव धरें ॥
    इनका कोई शत्रु मित्र ना देखे सबको आत्म स्वरूप ।
    अतः भक्त गुरु को प्रभु माने, पा लेते निज-चेतन भूप ॥ 87 ॥
     
    जो कुछ भी है अच्छा मुझमें, वह सब गुरुवर का ही है।
    जो कुछ दोष दिखे वो मेरे, कर्मों के कारण ही हैं॥
    जो है जैसा भी यह बालक, गुरु का ही कहलाता है।
    मुझे बनालो जैसा चाहो, यह अधिकार आपका है ॥ 88 ॥
     
    गुरु की मन से भक्ति करें तो, विघ्न कभी ना आते हैं।
    पूर्व कर्म वश आ जायें तो, शीघ्र पिघल ही जाते हैं।
    जैसे हवा वेग से चलकर, बादल दल पिघला देती।
    वैसे ही गुरु-भक्ति पाप के पर्वत शीघ्र हिला देती ॥89 ॥
     
    संयम भार धरा गुरुवर ने, फिर भी मन आनंदित है।
    अपने में एकाकी होकर, रहते नित्य प्रफुल्लित हैं ॥
    गुरु के इस अंतर उमंग की, प्यास मुझे भी जग जाये ।
    उस उमंग की एक कला का, प्रसाद मुझको मिल जाये ॥ 90 ॥

    श्वाँसों को ज्यों हवा जरूरी, त्यों गुरुवर को चाहूँ मैं ।
    ज्यों जन्मांध रोशनी चाहें, त्यों गुरु रवि को चाहूँ मैं ॥
    चातक मेघ बूँद ज्यों चाहें, वचन सुधा गुरु की चाहूँ ।
    सत्यं शिवं सुंदरम् गुरु के, पावन पथ को अपनाऊँ ॥ 91 ॥
     
    निजात्म अनुशासन के कारण, सर्व संघ के नायक हैं।
    विद्वत् जन कहते हैं गुरुवर, आप मोक्ष के लायक हैं ॥
    जैसे अंगुलि के स्पर्शन से, बंद कली खिल उठती है।
    वैसे गुरु के मात्र स्मरण से, हृदय कली खिल उठती है । 92 ॥
     
    गुरुवर में धीरज आदिक गुण, माननीय हैं अद्भुत हैं।
    कलयुग में भी सतयुग जैसे, गुरुवर हैं यह आश्चर्य है ।
    रहें निराकुल संघर्षों में, साम्य भाव को धार रहें।
    सुमेरु सम निष्कंप यतीश्वर, कर्मों से नहीं हार रहें || 93 ॥
     
    भव में दीनहीन होकर मैं, भटक भटक अति खिन्न हुआ ।
    पूरी शक्ति लगाकर अब मैं, आप शरण को प्राप्त हुआ ||
    मेरे अब सर्वस्व आप हो, ऐसा मन में मान लिया ।
    मुक्ति तक ना गुरु बदलूँगा, मैंने निश्चय ठान लिया ॥ 94 ॥
     
    स्वानुभूति से आत्म जगत में, नित्य शांत रहने वाले ।
    अज्ञजनों के उपद्रवों से, निर्बाधित रहने वाले ॥
    गुरु के दिव्य तेज के आगे, नहीं भक्त का कुछ बिगड़े ।
    सूर्य कांति के आगे तस्कर, द्रव्य नहीं कोई हड़पे ॥ 95 ॥
     
    ईख चूसने वाला बालक, मिठास के वश खाता है।
    सुख का तो अनुभव करता पर, तृप्त न वह हो पाता है ॥
    उसी भाँति गुरु की सन्निधि का, भक्त गटागट रस पीता ।
    पर विस्मय की बात यही कि, अतृप्त होकर वह जीता ॥ 96 ॥

    निजानंद रस घोल घोलकर, होली गुरु ने खेली है।
    जो भी भक्त - शरण में आते, रंग पिचकारी डाली है ।।
    रंगे आप फिर भी नहीं किञ्चित्, यह भी मुझको अचरज है।
    भक्त रंगे बस आप रंग से, राग में हेतु तव गुण हैं ॥ 97 ॥
     
    सैन्धव नमक डली जल में ज्यों, घुलती त्यों मैं घुल जाऊँ ।
    श्रद्धा से गुण महिमा गाकर, आप निकट ही रह जाऊँ ।।
    हे गुरुवर तव गुण समुद्र के, जल प्रवाह में नहा रहा ।
    शाश्वत इस आनन्द धाम में ,विलीन होना चाह रहा | 98 ॥

    गुरुवर से इक अंश ज्ञान पा, तृष्णा और बढ़ी मेरी ।
    भस्मक व्याधि के समान ही, एक साथ मुझको घेरी ॥
    इसीलिए अब प्रसन्न होकर, मेरे मन में करो प्रवेश ।
    पूर्णज्ञान विद्या को पाने, कारण एक तुम्हीं पूर्णेश ॥ 99 ॥
     
    नभतल के तुम चाँद गुरु मैं, तारा बनकर आऊँगा।
    सिद्ध बनोगे आप गुरु मैं, साधु बनकर ध्याऊँगा ।।
    जहाँ कहीं जाओगे गुरुवर, शिष्य वहाँ आ जायेगा ।
    गुरु चरणों में किया बसेरा, और कहाँ वह जायेगा ।। 100 ||
     
    कब से प्यासा घूम रहा था, इस जग के चौराहे पर ।
    था विश्वास बुझायेंगे गुरु, प्यास स्वयं मेरी आकर ।।
    इक छोटा सा घूँट पिलाकर, नयन स्वयं के मूँद लिए ।
    अब यह स्वाद स्वयं में खोजो, ऐसा कहकर मौन हुए । 101 ॥
     
    ध्यान - दशा में देखा गुरु को, रूप प्रभु का दिखता है।
    ध्यान किया गुरु का जब मैंने, स्वरूप निज का दिखता है ।।
    डूब गया विद्या- सिंधु में, भव-समुद्र तट पाऊँगा ।
    है विश्वास गुरु संग मैं भी, सिद्धालय तक जाऊँगा ।। 102 ॥
     
    ज्ञान मोह से संवृत होकर अल्पमति मम शेष रही ।
    उसी अल्प बुद्धि के कारण, पूर्ण गुरु-स्तुति हुई नहीं ||
    जैसे आधी जली काठ क्या, रवि-सा प्रकाश कर सकती।
    वैसे मेरी अल्पमति क्या, गुरु-गुण वर्णन कर सकती ।।103 ॥

    भोर हुई गुरु के सुमिरन से, शाम ढली गुरु यादों में।
    गुरु को सौंपा जबसे जीवन, दिन बीता फरियादों में ।।
    यूँ ही जीवन बीते सारा, गुरु नाम रटते रटते ।
    अंतिम श्वाँस विदा होवे बस, गुरु ध्यान करते-करते ।। 104 ॥
     
    अंत समय में मात्र आपकी, द्वय चरणों की शरण रहे।
    गुरु सिवा कुछ और न देखूं, नयनों में गुरु बसे रहें ।
    अगले भव में नयन खुले तो, नयनों में गुरु-मूरत हो ।
    मुनि बनकर नित रहूँ साथ में, मन गुरु-भक्ति में रत हो ।।105 ॥
  8. Vidyasagar.Guru

    साहित्य
    नाथ आपकी मूर्ति लख जब, मूर्तिमान को लखता हूँ।
    ऐसा लगता समवसरण में, प्रभु समीप ही रहता हूँ ॥
    सर्व जगत से न्यारा भगवन्, द्वार आपका लगता है ।
    अहो - अहो आत्मा से निःसृत, परमानंद बरसता है ॥1॥
     
    नंत काल उपरांत आपने, शाश्वत सिद्ध देश पाया ।
    उसी देश का पता जानने, आप शरण में हूँ आया ॥
    ऐसा लगा कि शिवपथ की रुचि, मुझमें प्रथम बार जागी ।
    राग भाव का राग छोड़ मैं, बन जाऊँ चिर वैरागी ॥ 2 ॥
     
    अनंत अक्षय आत्म निधि पर, प्रभु आपकी नज़र पड़ी ।
    धन्य-धन्य वह अद्भुत क्षण जब, स्वानुभूति की लहर उठी ॥
    फिर अनुपम आत्मिक धन पाने, ध्यान कुदाली को पाया।
    एक अकेले ज्ञान कक्ष में, खोद-खोद निज सुख पाया ॥3 ॥
     
    मेरी नंत गल्तियों को प्रभु, करुणा करके क्षम्य किया ।
    पल-पल दोष किये हैं मैंने, फिर भी आकर दर्श दिया ॥
    शक्ति मुझे दो ऐसी भगवन्, क्षमा सभी को कर पाऊँ ।
    सब जीवों में समानता से, मैत्री भाव से भर जाऊँ ॥ 4 ॥
     
    इस कलयुग में आप मिल गये, और श्रेष्ठ धन क्या होगा ।
    इन नयनों को आप दिख गये, और दर्श अब क्या होगा ||
    नहीं कामना दृश्य जगत की, मात्र आप दिखते रहना ।
    स्मृति दिलाकर मुझको मेरी, झलक दिखाते भी रहना ॥ 5 ॥
     
    जग की सब देहात्मा से जिनमूरत बिल्कुल न्यारी है।
    रागद्वेष से भरा जगत प्रभु वीतराग हितकारी हैं ॥
    आप मिल गये पुण्य योग से, और अधिक अब क्या पाना ।
    जिन भगवन् से निज दर्शन पा, अपने में ही खो जाना ॥ 6 ॥
     
    प्रभो! आपके नंत गुणों की, थाह नहीं मैं पा सकता ।
    निकट आपके आना चाहूँ, किंतु नहीं मैं आ सकता ॥
    कदमों में नहीं शक्ति प्रभु जी, बालक पर करुणा कर दो।
    दर्श करूँ मैं अभी यहीं से, नयनों में ज्योति भर दो ॥ 7 ॥
     
    पर संबंध छोड़कर स्वामी, द्वार आपके आया हूँ ।
    शांत भाव में ही प्रभु मिलते, ऋषियों से सुन आया हूँ ॥
    भगवन् होने की आशा ले, चरण-शरण में हूँ आया ।
    शब्दों से मैं बता न सकता, प्रभु तुमसे क्या- क्या पाया ॥ 8 ॥
     
    नाथ आपने निज दृष्टि को, निज दृष्टा में लगा लिया ।
    पर में ले जाने वाले सब, कर्म शत्रु को भगा दिया  ॥
    स्वतंत्रता का ध्वज फहराकर, चिन्मय देश विचरते हो ।
    निजाधीन अव्यय सुख पाकर, नित आनंदित रहते हो ॥ 9 ॥
     
    आत्मिक गुण गाऊँ प्रभुवर मैं, ऐसी मुझको युक्ति दो ।
    भक्ति - रस चख पाऊँ ऐसी, इस रसना में शक्ति दो ॥
    बाह्य दृष्टि होने से अब तक, दैहिक गुण गाये स्वामी ।
    मुझे ले चलो आत्म देश में, अर्ज करूँ अंतर्यामी ॥ 10 ॥
     
    बाह्य नयन से दिखते ना हो, श्रद्धा नयनों से दिखते ।
    तव गुण स्तुति से भर जाऊँ तो, स्वात्म वेदी पर ही दिखते ॥
    तुम्हें देख अब ऐसा लगता, क्या देखूँ नश्वर जग को ।
    तन मन जीवन धन सब तेरा, मान लिया सब कुछ तुमको ॥11॥
     
    देह बिना नित ज्ञान कक्ष में, नाथ आप क्या करते हो ।
    हो कृतकृत्य तदपि भक्तों के, मोह तिमिर को हरते हो ॥
    निज को देख लिया है ऐसे, लोकालोक सहज दिखते ।
    सकल ज्ञेय ज्ञायक हो तदपि, निज से निज में ही रमते ॥ 12 ॥
     
    कर संसार भ्रमण जीवों को, मैंने बहुत सताया है ।
    किंतु क्षमा सिंधु तुमने ही, सबसे क्षमा कराया है ॥
    नाथ आपकी विराटता का, दर्शन कर आनंद लिया ।
    निज सम सब जीवों को माना, मैंने सबको क्षमा किया ॥ 13 ॥
     
    जब-जब देखूँ ऐसा लगता, प्रथम बार ही देखा है।
    समीप पल-पल रहना चाहूँ, किन्तु कर्म की रेखा है ॥
    कर्मों की दीवार तोड़कर, शीघ्र पास में आ जाऊँ ।
    पास आपके आ जाऊँ तो, निज को भी मैं पा जाऊँ ॥ 14 ॥
     
    जब मैं प्रभु सम्मुख आऊँ तब, सब विकल्प शांति पाते ।
    निर्विकल्प दशा पाने के, भाव हृदय में भर जाते ॥
    एकमात्र सान्निध्य आपका, अपूर्व आनंद देता है ।
    जो सुत माँ की गोद प्राप्त कर, आत्म शांति को पाता है ॥ 15 ॥
     
    प्रभु-कृपा पाकर ही मुझको, आत्म तत्त्व से रुचि हुई ।
    आतम-दृष्टा प्रभु को लखकर, दृष्टि मेरी शुचि हुई ॥
    जग के सारे जड़ वैभव से, किञ्चित् तृप्ति नहीं मिली।
    जन्म अंध को नयन मिले त्यों, हरष - हरष मन कली खिली ॥16॥
     
    पैर स्खलित होते हैं मेरे, सँभल नहीं मैं पाता हूँ ।
    दृष्टि खींचकर लाता निज में, फिर पर में खो जाता हूँ ॥
    आओ नाथ सँभालो मुझको, पर परणति में जाने से ।
    नहीं ध्यान रखती क्या माता, सुत को नीचे गिरने से ॥17॥
     
    जब मैं पर से दृष्टि हटाकर, आप गुणों में खो जाता ।
    अपना ही अस्तित्व भुलाकर, मात्र आपका हो जाता ॥
    इतने अच्छे लगते भगवन्, शब्द नहीं कुछ मेरे पास ।
    मात्र यही अनुभूति मुझको, रहते पल-पल मेरे पास ॥ 18 ॥
     
    मानव कृति जगत में जितनी, राग-द्वेष से भरी पड़ी ।
    कर्मों की पर्तों में लिपटी, खरा रूप ना दिखे कहीं ॥
    वीतराग को जबसे निरखा, नज़र कहीं ना टिकती है।
    आँख मींच लूँ तो भी भगवन्, छवि आपकी दिखती है ॥ 19 ॥
     
    ज्ञान कक्ष मेरा यह भगवन्, नंत काल से मैला है।
    मोह ज़हर से नाथ अभी तक, मम मन हुआ विषैला है ॥
    कर्म वर्गणाओं को भी यह, कर्म रूप कर देता है।
    कर्म बाँध अज्ञान दशा में, उदय समय पर रोता है ॥20 ॥
     
    मैं ही मेरा हो ना पाया, कौन यहाँ मेरा होगा ।
    मात्र आपको अपना माना, तुम्हें ध्यान रखना होगा ॥
    मैंने अपना सारा जीवन, प्रभुवर तुमको सौंप दिया।
    हे जिन ! निज का बोध करा दो, अनगिन को भी बोध दिया ॥ 21 ॥
     
    नाथ आपकी दिव्य छवि जब, मेरे हृदय उतरती है।
    नंत भवों के कालुष को वह, क्षणभर में ही हरती है ॥
    इक चिनगारी सारे वन को, ज्यों पल भर में दहती है।
    त्यों अविरल ही स्मृति आपकी, पाप कर्म क्षय करती है ॥ 22 ॥
     
    अहं भाव जो पड़ा हृदय में, वही मुझे दुख देता था ।
    नाथ आपके समीप मुझको, कभी न आने देता था ॥
    अर्हत् जिन तुमको लखकर अब, अर्ह भाव उतर आया ।
    शाश्वत सुख ही पाना चाहूँ, और नहीं कुछ मन भाया ॥ 23 ॥
     
    अनंत करुणा बरसाई प्रभु, बस इतना ही मैं जानूँ ।
    जग में रह जग को ना जानूँ, नाथ आपको पहचानूँ ॥
    मम चेतन में तुम्हीं बसे हो, अब मुझको ना भय होता ।
    बालक माँ की पकड़ अंगुली, निर्भय होकर चल लेता ॥24 ॥
     
    मेरे हृदय कमल पर कैसी, आई दिव्य सुगंधी है।
    दिव्यकमल की परम महक यह, नाथ आपके गुण की है ॥
    दूर रहे रवि पर सरवर के, कमलों को विकसित करता ।
    भक्त परम श्रद्धा से भगवन्, अति निकटता पा जाता ॥ 25 ॥
     
    नंत गुणों की महक प्राप्त कर, प्रभु जीवन आह्लादित है ।
    कब होंगे मम प्रगट नंत गुण, वह शुभ घड़ी प्रतीक्षित है ॥
    ऐसी दिव्य सुगंध घ्राण बिन, चेतनता में आती है।
    असंख्यात आतम प्रदेश में, बगिया- सी महकाती है ॥ 26 ॥
     
    जब-जब भगवन् मैंने अपने, अहं भाव को सुला दिया ।
    तब-तब अपने समीप में ही, तुमने मुझको बुला लिया ॥
    नंत विराट रूप लख मुझको, अति अचरज ही होता है।
    अब तक समय गँवाया मैंने, सोच यही मन रोता है ॥27॥
     
    भगवन् मैं आह्वान करूँ, मम ज्ञान कक्ष में आ जाओ।
    कर्म लुटेरे लूट रहे हैं, मुझको निज धन दिलवाओ ॥
    आप धर्म नेता हो स्वामी शक्तिशाली मैं हूँ कमर ।
    अतः पुकार रहा हूँ भगवन्, नज़र करो इक मेरी ओर ॥28॥
     
    मान लिया जब तुमको अपना, जग से क्या लेना देना ।
    जगत रूठ जाए तो भी प्रभु, इससे मेरा क्या होना ॥
    मैं हूँ सिर्फ आपके जैसा, यही आपने बतलाया ।
    कितना अपनापन प्रभु मुझसे, आज समझ में है आया ॥ 29 ॥
     
    नाथ आपकी कृपा न हो तो, कैसे तव गुण गा पाता ।
    मुझ पर नज़र न होती तो क्या, पास आपके आ पाता ॥
    जग के अशुभ विकल्प छुड़ाकर, मुझे पास ले आते हो ।
    कितने अपने लगते हो तब, मेरे हृदय समाते हो ॥30॥
     
    मन के सारे बाह्य द्वार को, प्रभु सम्मुख आ बंद किया।
    नाथ आपने मम चेतन में, समकित मणि को दिखा दिया ॥
    सूरज से भी अधिक तेजमय, इसमें निज आतम दिखता ।
    जगमगात अनमोल मणि यह, प्रभु कृपा बिन ना मिलता ॥31॥
     
    भावों की भाषा को भगवन्, बिन बोले सुन लेते हो ।
    नयन बिना खोले श्रद्धा की, आँखों से दिख जाते हो ॥
    क्षेत्र निकटता की भी स्वामी, नहीं जरूरत होती है।
    श्रद्धा पूरित चेतन में प्रभु, उपस्थिति तब लगती है ॥32॥
     
    प्रभु आपकी सन्निधि पाकर, मन कहता है यहीं रहूँ ।
    प्रभु कृपा का सदुपयोग यह, क्रोध मान छल नहीं करूँ ॥
    मौलिक वस्तु को यदि माता, सौंपे बालक के कर में ।
    वस्तु गँवा दे बालक तो माँ, निज से दूर करे पल में ॥33॥
     
    नाथ आपके स्मरण मात्र से, आतम पुलकित होता है।
    सब विषाद मिट जाते पल में, मन निर्मल हो जाता है ॥
    बसे रहो प्रभु यूँ ही हर पल, सुख आनंद बरसता है ।
    हुई चेतना मौन मात्र अब, अनुभव ही गहराता है ॥34॥
     
    पूर्व अनंत भवों में मैंने, नंत जीव को तड़पाया ।
    उन सबसे मैं क्षमा माँग लूँ, भाव हृदय में भर आया ॥
    उन जीवों के निकट पहुँच कर, कैसे क्षमा कराऊँ मैं ।
    आप सर्व व्यापी होने से, शरण आपकी आऊँ मैं ॥35॥
     
    मैं बिल्कुल ही शून्य पात्र था, आप कृपा से पूर्ण भरा ।
    शुष्क हो रहा था यह पौधा, हुआ आपसे हरा भरा ॥
    मौलिक श्रद्धा धन जो पाया, प्रभु आपके कारण ही ।
    अन्य आपसा दाता जग में, मुझको दिखता कहीं नहीं ॥36॥
     
    इस भव वन में कर्म सिंह से, हूँ भयभीत बुलालो पास।
    या फिर मेरे आतम में प्रभु, एक बार ही कर लो वास ॥
    प्रभु आगमन की आहट से, मैं निर्भय हो जाऊँगा ।
    स्वतंत्र होकर श्रद्धा पथ से, चलकर निजगृह आऊँगा ॥37॥
     
    भववर्द्धक जग वैभव सारे, मुझे अनंतों बार मिले ।
    किंतु ज्ञान बगिया में भगवन्, समकित सुमनस् नहीं खिले ॥
    बागवान बनकर प्रभु आओ, अपनी वाणी से सींचो ।
    सही न जाती विरह वेदना, अब निज ओर मुझे खींचो ॥38॥
     
    जग के प्राणी जो नहीं सुनते, वही आप सुन लेते हो ।
    शब्दों की भी नहीं जरूरत, बिना कहे दे देते हो ॥
    यही आपकी अनंत करुणा, छोड़ प्रभु अब जाऊँ कहाँ ।
    जहाँ पिता परमेश्वर मेरे, बालक भी अब रहे वहाँ ॥39॥
     
    नाथ आपको हृदय बसाकर, फिर क्यों मैं बाहर आता ।
    बुला रहा मुझको कोई यह, बार-बार भ्रम हो जाता ॥
    इसी तरह प्रभु प्रमाद वश मैं, अविनय बार-बार करता ।
    क्षमा कीजिए भगवन् मुझको, भावों से भरकर कहता ॥ 40 ॥
     
    निकट आपके जो पल बीते, वो ही सफल हुए स्वामी ।
    अपूर्व स्वर्णिम अवसर थे वो, पुलकित हुआ हृदय स्वामी ॥
    हर -पल वह रस पीना चाहूँ, और नहीं कुछ मन भाता ।
    बार-बार मन विकल्प तजकर, पास आपके आ जाता ॥ 41 ॥
     
    कितना अच्छा लगता भगवन्! मुझको तव मूरत लखना ।
    जग में एक अकेला होकर, मात्र आपका हो जाना ॥
    भक्ति कूप को मेरे भगवन्, और अधिक अब गहराओ ।
    श्रद्धा जल से भरे कूप को, आकर पावन कर जाओ ॥ 42 ॥
     
    नाथ आपके गुणोद्यान में, विचरण करने जब आया ।
    कषाय रिपु तब शीघ्र निकट आ, चित्त पकड़ बाहर लाया ॥
    चउ कषाय को मीत बनाकर, नाथ बहुत पछताता हूँ ।
    कुछ उपाय बतला दो भगवन्, कषाय से दुख पाता हूँ ॥ 43 ॥
     
    भक्ति की मैं रीत न जानूँ, नाथ आपही सिखला दो ।
    अपने शाश्वत अनंत गुण में, प्रवेश मुझको करवा दो ॥
    एक-एक गुण का भावों से, गहन गहनतम चिंतन हो ।
    इस जीवन का सदुपयोग हो, भगवन् इतना संबल दो ॥44 ॥
     
    महा भयानक भवअटवी में, मुझे न अब भय लगता है।
    क्योंकि बसे हो आप हृदय में, अतः निडर मन रहता है ॥
    कर्मों की जो घनी वनी है, उससे अब क्या घबराना ।
    कर्म अचेतन मैं हूँ चेतन, स्वात्म शक्ति को पहचाना ॥ 45 ॥
     
    पुण्य मुझे जो भटका दे वह, पुण्य कभी ना मैं चाहूँ ।
    मुक्ति तक जो पहुँचा दे वह, पुण्य सातिशय अपनाऊँ ॥
    पुण्य भाव में अहं भाव से, मुझे न किञ्चित् सौख्य मिला ।
    जबसे विरत हुआ मैं इससे, नाथ आपने दर्श दिया ॥ 46 ॥
     
    मेरी लघु श्रद्धा वेदी पर, आप विराजे जब स्वामी ।
    हर्षित हो तब स्वात्म गुणों का, आह्वानन करता स्वामी ॥
    स्वानुभूति के गीत गूँजते, बजी विरागी शहनाई ।
    पल-पल मेरे हृदय विराजो, हे मेरे प्रिय जिनराई ॥47 ॥
     
    शाश्वत सुखानुभूति की प्रभो, मुझमें प्यास जगा देना ।
    यही अरज है जहाँ आप हो, मुझको शीघ्र बुला लेना ॥
    जिस पथ से प्रभु आप गये हो, वह पथ मुझको दर्शा दो ।
    चलने की श्रद्धा औ शक्ति, नाथ आप ही प्रगटा दो ॥ 48 ॥
     
    देहादिक के कार्य किये पर, लगता कुछ भी किया नहीं।
    प्रभु-भक्ति अर्चन करने से, लगा कार्य कुछ किया सही ॥
    स्वात्म ध्यान पलभर भी हो तो, लक्ष्य दिखाई देता है।
    हे कारुण्य-धाम जिनवर तव करुणा से यह होता है । 49 ॥
     
    गहन प्रेम का प्रतीक है यह, आप अकेले में मिलते ।
    किञ्चित् भी यदि विकल्प हो तो, प्रभुवर आप नहीं दिखते ॥
    एक अकेला हो जाऊँ बस, यही भावना है स्वामी ।
    देह रहित हो विदेह पद को, पा जाऊँ अंतर्यामी ॥50॥
     
    निज स्वरूप रत रहने वाले, मुझको पर से विरत करो ।
    निज गुण की महिमा बतलाकर, मुझको निज में निरत करो ॥
    सारे जग में एकमात्र प्रभु, आप परम हितकारी हो ।
    मुझे भरोसा पूर्ण आप पर, दयासिंधु उपकारी हो ॥51॥
     
    पल-पल मुझको देख रहे पर, नहीं आपको देख सका ।
    तीन लोक में घूम लिया पर ढूँढ़ ढूँढ़कर बहुत थका ॥
    दिव्यध्वनि से पता चला कि, तुम मुझमें ही रहते हो ।
    दिया तले अंधियारा है यह, मम प्रभु मुझमें बसते हो ॥ 52 ॥
     
    ज्ञान गंगन में आप चन्द्रमा, मैं धरती की धूल प्रभो ।
    क्षमा सिंधु हो आप प्रभु मैं, पल-पल करता भूल विभो ॥
    कहाँ आप और कहाँ प्रभु मैं, फिर भी मुझको अपनाया ।
    आप वीतरागी मैं रागी, फिर भी तव शरणा पाया ॥ 53॥
     
    तेरा दिया हुआ प्रभु सब कुछ, तू ही मेरा दाता है।
    शरण आपकी पाकर मैंने, पायी आतम साता है ॥
    किसी अन्य दर पर जाने की, नहीं भावना शेष रही ।
    वीतराग की छाँव मिल गई, कोई कामना रही नहीं ॥ 54॥
     
    प्रिय मीत से अन्तर्मन की, सारी बातें कह सकते ।
    किंतु आपसे निजात्म की भी अद्भुत बातें कह सकते ॥
    इसीलिए तो श्रद्धा पूर्वक, प्रभुवर आप निकट आता ।
    नाथ आपकी समीपता से, पाता हूँ अनुपम साता ॥ 55 ॥
     
    बीहड़ भवकानन में भगवन्! एक आपकी ज्योति है।
    सारा जग जल बिंदु सम प्रभु अपूर्व अद्भुत मोती हैं ॥
    निज शुद्धातम प्रगटाने की, मात्र हृदय में आश जगी ।
    स्वात्म ज्ञान सरवर के जल को पीने की बस प्यास लगी ॥ 56 ॥
     
    गिरि कन्दरा और गुफा में, ढूँढ़ा भगवन् नहीं मिले।
    जब-जब बैठा आँख मूँदकर, निज में ही प्रभु आप मिले ॥
    परम सुरक्षित स्थान आपका, पर का जहाँ प्रवेश नहीं ।
    नाथ आपके सौख्य बराबर, जग में सुख लवलेश नहीं ॥ 57 ॥
     
    निकट बैठने योग्य बनाया, यह क्या प्रभु कृपा कम है।
    बैठ न पाया सिद्धालय में, अब तक यह मुझको गम है॥
    दिव्यध्वनि से नाथ आपने, नंत-नंत उपकार किया ।
    फिर भी प्रभु मैं रहा अभागा, मोहवशी भव भ्रमण किया ॥ 58 ॥
     
    विरागता अनुभूत हुई जो, यही भक्ति का फल मानूँ ।
    राग - द्वेष में बीत गये क्षण, उनको निष्फल ही जानूँ ॥
    नाथ आपके गुणवादन में, जीवन का हर पल बीते ।
    अंत समय में नयन बंद हो, भक्ति रस पीते-पीते ॥ 59 ॥
     
    स्वार्थी जग से मन की बातें, करके अब तक पछताया ।
    क्योंकि मेरे दुख संकट में, कोई काम नहीं आया ॥
    यदपि आप कुछ नहीं बोलते, फिर भी सब कुछ कह देते।
    सुनते हुए न दिखते हो पर, बिना कहे ही सुन लेते ॥ 60 ॥
     
    मन वच तन औ निज चेतन में, नाथ आप ही आप बसे ।
    फिर भी प्रभु प्रत्यक्ष दर्श को, मेरे दो नयना तरसे ॥
    देह रहित कैसे होंगे प्रभु, बार-बार मन पूछ रहा ।
    वीतराग इक इक गुण की अब, गहराई में डूब रहा ॥ 61॥
     
    जो अनमोल निधि दी उससे, उऋण कैसे होऊँ मैं ।
    एकमात्र ही उपाय है बस, तुम जैसा बन जाऊँ मैं॥
    तभी सर्व ऋण चुक पायेगा, यही समझ में आता है।
    करूँ रात-दिन बात आपकी, यही हृदय को भाता है ॥62 ॥
     
    नाथ आप 'पर' कहलाते हो, फिर भी परम कहाते हो ।
    आप अन्य होकर भी भगवन्, अनन्य जैसे लगते हो ॥
    कहे भले जगवासी अपना, पर सब स्वारथ सपना है।
    दिव्यध्वनि में कहा आपने, केवल आतम अपना है ॥ 63 ॥
     
    जगत जनों को देखा जाना, फिर भी मेरे नहीं हुए ।
    अब तक ना देखा प्रभु तुमको, फिर भी मेरे मीत हुए ॥
    कितना निर्मल स्वभाव भगवन्,भव्यों का मन हरता है ।
    प्रेम दया करुणा का झरना, नाथ आपसे झरता है ॥ 64 ॥
     
    आप परम मैं पामर भगवन्, मैं हूँ पतित आप पावन ।
    मैं हूँ पतझड़ बारह मास बरसने वाले तुम सावन ॥
    अपनी दिव्यशक्ति को भगवन्, मेघ धार बन बरसा दो ।
    नंत काल से मैला बालक, करुणाकर प्रभु नहला दो ॥65 ॥
     
    जब-जब भक्ति द्वार से भगवन्, आप शरण में आता हूँ।
    मानगलित हो जाता तत्क्षण, लघुता को पा जाता हूँ ॥
    किंतु जब-जब बुद्धि द्वार से, अहं भाव भरकर आया ।
    निज दर्शन की बात दूर है, जिन दर्शन ना कर पाया ॥66 ॥
     
    हृदयांगन को स्वच्छ कर दिया, नाथ शीघ्र अब आ जाओ ।
    पाप धूल कहीं जम ना जाए, आ जाओ प्रभु आ जाओ ॥
    पञ्चेन्द्रिय मन द्वार खुले हैं, अतः नाथ घबराता हूँ ।
    रहे आपके योग्य हृदय बस, यही भावना भाता हूँ ॥ 67 ॥
     
    नाथ आपकी पावन मूरत, जबसे मेरे नयन बसी ।
    सच कहता हूँ तबसे भगवन्, अन्य दरश की चाह नशी ॥
    दिव्य तेजमय रूप आपका, समा न पाया अपने में ।
    इसीलिए तो नयन बंद कर, दरश करूँ प्रभु सपने में ॥68 ॥
     
    नहीं माँगता नाथ आपसे, मेरे दुख का क्षय कर दो।
    दुःख सह सकूँ शांत भाव से, मुझमें वो शक्ति भर दो ॥
    नहीं कामना इन्द्रिय सुख से, मेरी झोली भर जाए ।
    निजानुभव करके मम आतम, भवसागर से तर जाए ॥ 69 ॥
     
    पास नहीं वह आँखें मेरे, जिससे तुमको देख सकूँ ।
    वाणी पास न मेरे जिससे, व्यथा आप से बोल सकूँ ॥
    जान सकूँ हे नाथ आपको, ज्ञान नहीं वो मेरे पास ।
    श्रद्धा की दे सकूँ निशानी, वस्तु नहीं कुछ मेरे पास ॥ 70 ॥
     
    तव करुणा के आगे सारे, जग का वैभव तुच्छ रहा।
    जो पल बीता तव चरणों में, पल-पल वह अनमोल रहा ॥
    मन यह सार्थक हुआ नाथ अब, तव गुण का चिंतन करके ।
    सफल हुए यह नयन आज प्रभु, भक्ति के अश्रु जल से ॥ 71 ॥
     
    जगत जनों की अनुरक्ति से, हुआ जगत का ही वर्धन ।
    जड़ पदार्थ से राग किया तो हुआ कर्म का ही बंधन ॥
    जब संबंध किया प्रभु तुमसे, निज प्रभुता का भान हुआ ।
    व्यर्थ गँवाया काल अभी तक, हे जिनवर यह ज्ञान हुआ ॥ 72 ॥
     
    विरह वेदना सही न जाती, नाथ समीप बुलाओ ना।
    या फिर अपने भक्त हृदय में, आप स्वयं आ जाओ ना ॥
    नाथ आपके चरण-कमल इस, भक्त हृदय में बस जायें ।
    या फिर मेरा हृदय कमल यह, तव चरणों में रह जाये ॥73 ॥
     
    नाथ दूर हटते ही तुमसे, यह दुष्कर्म सताते हैं ।
    निज शुद्धातम गृह से बाहर ले जाकर तड़पाते हैं ॥
    नोकर्मों को बुला - बुलाकर, दुख देते हैं मुझे अपार ।
    फिर भी मैं इनके धोखे में आ जाता हूँ बारंबार ॥74 ॥
     
    सर्व विकार अन्य हैं मुझसे, ऐसा तुमने ज्ञान दिया ।
    नाथ आपके वचनामृत सुन, अध्यातम रसपान किया ॥
    फिर भी विभाव परिणतियों से, मेरा मन भयभीत रहा।
    निर्विकल्प निज स्वभाव में प्रभु, आतम रहना चाह रहा ॥ 75 ॥
     
    मैं अज्ञानी अबोध बालक, कर्म मैल से गंदा हूँ ।
    मेरे पास ज्ञान चक्षु हैं, फिर भी प्रभु मैं अंधा हूँ ॥
    क्योंकि निज का आतम मुझको, नहीं दिखाई देता है।
    इसीलिए बालक प्रभु तेरा, तेरे लिए तरसता है ॥76॥
     
    क्या निज पिता पुत्र को अपना, वैभव नहीं दिखाता है।
    अपने सुत को निजी वंश की, सारी रीत सिखाता है ॥
    मैं हूँ आप वंश का भगवन्, दर्शन दो निज वैभव का ।
    पूज्य पिता सम प्रभु कृपा से, मिट जाए दुख भव-भव का ॥77॥
     
    जब बालक रोता है तब माँ, आकर उसे उठा लेती ।
    सुत का रोग जानकर माता, औषध उसे पिला देती ॥
    वीतराग प्रभु जननी अपने, सुत को चरण शरण लो ना ।
    अनादि से रोते बालक को, जिनश्रुत सुधा पिला दो ना ॥ 78 ॥
     
    नाथ आपके अनंत गुण की, जब-जब महिमा आती है।
    सच कहता हूँ पर की चर्चा, किञ्चित् नहीं सुहाती है ॥
    नाथ आपकी परम कृपा से, आज यहाँ तक आ पाया।
    और तनिक हो जाए कृपा तो, पाऊँ ज्ञान परम काया ॥79 ॥
     
    बड़ी-बड़ी चट्टान कर्म की, प्रभु दर्शन से रोक रही ।
    तूफां औ पुरजोर आँधियाँ, स्वभाव जल को सोख रहीं ॥
    विकार से पूरित दरिया में, नाथ बचाओ डूब रहा ।
    दो हस्तावलम्ब अब अपना, देखो भक्त पुकार रहा ॥80 ॥
     
    आज्ञाकारी पुत्र पिता से, मनवांछित वस्तु पाता ।
    परम पितामह भगवन् तुमसे, सब कुछ मुझको मिल जाता ॥
    चाह किए बिन कल्पतरु सम, फल देते प्रभु परम उदार ।
    परम कृपालु नाथ आपको, अतः नमूँ मैं बारंबार ॥81 ॥
     
    अनंत गुणमणि का प्रकाश मुझ चिदातमा में भरा हुआ ।
    इसकी सम्यक् ज्योति में ही, नाथ आपका दरश हुआ ॥
    इन गुणद्युति में इतनी शक्ति, लोकालोक निहार सके ।
    इस शक्ति को प्रगटाया प्रभु, मुझमें भी शक्ति प्रगटे ॥ 82 ॥
     
    निर्वाछक भावों से भगवन्, भक्ति आपकी करता हूँ ।
    किंतु आपसे जुदा करे उन, कर्म फलों से डरता हूँ ॥
    मुझसे सब कुछ छिन जाए पर, भक्ति आपकी बनी रहे ।
    इतनी कृपा रहे प्रभु मुझ पर, श्रद्धा तुम पर घनी रहे ॥ 83 ॥
     
    हे भगवन्! मैं अहो भाव से, जितना - जितना भरता हूँ ।
    ऐसा लगता नाथ आपके, अति निकट ही रहता हूँ ॥
    मेरी श्रद्धा की डोरी को, कोई काट नहीं सकता ।
    है विश्वास अटल प्रभु के बिन, कोई न मेरा हो सकता ॥ 84 ॥
     
    जिनवर भक्ति से अंतस् के, नंत दीप जल उठते हैं।
    तव गुण चर्चा से हे भगवन्, मौन मुखर हो जाते हैं॥
    तेरे दर्शन से आतम के प्रदेश सुमनों सम खिलते ।
    आप मिलन से ऐसा लगता, निज परमातम से मिलते ॥ 85 ॥
     
    नाथ आप हो विराट कैसे, मेरे हृदय समाओगे ।
    निर्विकल्प प्रभु मैं विकल्प युत, मम गृह कैसे आओगे ॥
    यही सोचकर चिंतित था पर, नाथ आज निश्चित हुआ ।
    श्रद्धा के लघु दीपक में जब, अपूर्व दीपक समा गया ॥ 86 ॥
     
    मात्र आप सम हो जाने की, इस आतम में प्यास जगी ।
    प्रभु निकटता पाकर मुझको, अर्द्ध निशा भी दिवस लगी ॥
    नहीं चाह पर पदार्थ की अब, आप आपमय हो जाऊँ ।
    विभावमय परदेश छोड़कर, चिन्मय देश पहुँच जाऊँ ॥ 87 ॥
     
    नाथ आपकी भक्ति से मम, हृदय कली चट-चट खिलती ।
    पवित्र अद्भुत ऊर्जा पाकर, खोयी आत्म निधि मिलती ॥
    चित्त शांत होता तब अद्भुत, नाद सुनाई देता है।
    उस पल में प्रभु आप और मैं, और न कोई होता है ॥ 88 ॥
     
    चिन्मय गुण की शुद्ध गुफा में, हे भगवन् तुम बसते हो ।
    चित् शक्ति जहँ जगमग करती, दिव्य ज्योतिमय लसते हो ॥
    हे प्रभु तव प्रकाश सन्निधि में, मिथ्यातमस तिरोहित हो ।
    तव वचनों की अपूर्व द्युति से, मेरा जीवन बोधित हो ॥ 89 ॥
     
    जब-जब टूटा नाथ आपका, यह वात्सल्य जोड़ देता ।
    जब-जब कर्म धूप से झुलसा, कृपा- छाँव तेरी पाता ॥
    सचमुच आप अनन्य मीत हो, अद्भुत करुणा बरसाते ।
    इसीलिए तो नैन आपको, देख-देखकर हरणाते ॥ 90 ॥
     
    भवसिंधु में डूब रहा तब, था विश्वास बचाओगे ।
    जब-जब कर्म तपन से बिखरा, था विश्वास समेटोगे ॥
    जब-जब गिरा उठाया तुमने, तुमको पाकर सब पाया ।
    जगा दिया जब-जब मैं सोया, माता जैसा सुख पाया ॥91॥
     
    हर पल तेरे आशीषों की, वर्षा में ही जीता हूँ ।
    वरना तन कबसे मिट जाता, यही सोचता रहता हूँ ॥
    आप कृपा की खुशबू मुझको, हर पल पुलकित करती है।
    मन वीणा के तार-तार को, झंकृत करती रहती है ॥ 92 ॥
     
    मेरा शुभ उपयोग नाथ सान्निध्य आपका नित चाहे ।
    क्योंकि आपकी सन्निधि मुझको, बतलाती शिव की राहें ॥
    इक पल का भी विरह आपका, सहा नहीं अब जाता है।
    नाथ तुम्हें बिन देखे मुझको, रहा नहीं अब जाता है ॥ 93 ॥
     
    प्रभो! आप यदि दूर रहे तो, मुझे कौन समझायेगा ।
    राह भटक जाऊँ तो मुझको, सत्पथ कौन दिखायेगा ॥
    यही सोच पल-पल मैं भगवन्, पास आपके रहता हूँ ।
    तव चरणों में रहूँ सुरक्षित, दुष्कर्मों से डरता हूँ ॥ 94 ॥
     
    विकल्प जब आ घेरे मुझको, नाथ आप ना दिख पाते ।
    विस्मित- सा रह जाता तब मैं, आँखों से आँसू बहते ॥
    नाथ प्रार्थना करके तुमसे, जाल विकल्पों का हटता ।
    तभी आपके दर्शन में ही, निज का मैं दर्शन करता ॥ 95 ॥
     
    नाथ आपका गुणानुवादन, किञ्चित् भी ना कर पाता ।
    पूर्ण ज्ञानमति प्रभु आप हो, मैं अल्पज्ञ हूँ शरमाता ॥
    तव सन्निधि में बैठ सकूँ बस इतनी शक्ति दे देना ।
    तव अनंत गुण निरख सकूँ बस इतनी भक्ति दे देना ॥ 96 ॥
     
    जिन अणुओं की देह धरी थी, उनको वापिस लौटा दी ।
    मलिन देह को परमौदारिक, शुद्ध बनाकर ही नाशी ॥
    अशुद्ध को भी शुद्ध बनाकर, देना यह सज्जन की रीत ।
    ऐसे गुणसागर जिनवर को, मानूँ शाश्वत अपना मीत ॥97 ॥
     
    प्रभु शब्द कितना प्यारा है, प्रभु मूरत अति ही प्यारी ।
    मूर्तिमान प्रभुवर उपकारी, हृदय बसे अतिशयकारी ॥
    प्रभुवर का सुखधाम और निष्काम रूप प्रत्यक्ष लखूँ ।
    लक्ष्य यही बस प्रभु आपसा, निजानंद - रस शीघ्र चखूँ ॥ 98 ॥
     
    हे प्रभु! यह जड़ देह सदा, तव भक्ति में संलग्न रहे।
    वचन आपके गुण गुंजन में, मन में चिंतन धार बहे ॥
    ज्ञान-दर्श दो उपयोगों में, ज्ञेय दृश्य प्रभु आप रहे ।
    असंख्य निज आतम प्रदेश पर, शुद्धातम का ध्यान रहे ॥ 99 ॥
     
    तन मन प्राण रहित होकर भी, नाथ आप जी लेते हो ।
    निराहार होकर स्वातम रस, एकाकी पी लेते हो ॥
    कहलाते हो निराकार पर, कितने अनुपम दिखते हो ।
    सिद्धालय वासी होकर भी, मम आतम में बसते हो ॥100 ॥
     
    जबसे रिश्ता जोड़ा तुमसे, जग से रिश्ता टूट गया ।
    कृपा आपकी मिली तभी से, शिव का मारग सूझ गया ॥
    जब मैं आत्मरूप ही रहता, तब ही आप मुझे मिलते।
    अतः अकेला अच्छा लगता, क्योंकि आप मिलते रहते ॥ 101 ॥
     
    ज्ञान रूप दर्पण में मेरे, ज्यों प्रभु छवि उभरती है।
    उसी छवि में मुझको मेरी, आतम निधि झलकती है ॥
    उस पल ऐसा लगता भगवन् ! अब कुछ पाना शेष नहीं ।
    नाथ आप ही पहुँचा देना, मुझको शाश्वत सिद्ध मही ॥ 102 ॥
     
    लिखने का उद्देश्य नहीं कुछ, मात्र स्वयं को लख पाऊँ ।
    शाब्दिक भक्ति रहे न केवल, रत्नत्रय रस चख पाऊँ ॥
    चाह यही भगवान् बनूँ पर, प्रमाद मुझको घेर रहा ।
    अंतर कृपा करो प्रभु ऐसी, पाऊँ शाश्वत शरण महा ॥ 103 ॥
     
    हे भक्ति के स्वर अब मुझको, निज भगवन् से मिलवा दो।
    अंतर अनहद नाद सुनाकर, चिन्मय आनंद बरसा दो ॥
    स्वानुभूति की लय में प्रभु की, निर्जन वन में ध्वनि सुनूँ।
    अपूर्व आत्मानंद प्राप्त कर, केवलि जिन अरहंत बनूँ ॥ 104 ॥
     
    चूलगिरि श्री सिद्धक्षेत्र जहाँ, अद्भुत शांति मुझे मिली।
    विशाल जिनबिंबों के दर्शन, कर अंतस् की कली खिली ॥
    प्रभुवर को सर्वस्व मानकर, तीन योग से भक्ति की ।
    गुरु को अर्पित भक्ति शतक यह, गुरु करे मम "पूर्णमति " ॥105 ॥
    ॥ इति शुभं भूयात् ॥
  9. Vidyasagar.Guru
    विघनहरन विद्यासागर विधान - रचयित्री आर्यिका 105 गुणमति माता जी
     
     
    णमोकार महामंत्र विधान - रचयित्री आर्यिका 105 गुणमति माता जी
     
    श्री पार्श्वनाथ विधान - रचयित्री आर्यिका 105 गुणमति माता जी 1.0.0

     
  10. Vidyasagar.Guru
    29 जनवरी 31 
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       🍄आज रात्री विश्राम🍄
           🍄मक्काटोला🍄  
    (शासकीय पुर्व माध्यमिक शाला)
              जिला राजनांदगांव 
                    👇🏻👇🏻👇🏻
    https://maps.app.goo.gl/7yEraEX6eJEi6K6p7
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      🍁कल की आहारचर्या🍁
            🍁कल्याणपूर🍁
         जिला राजनानांदगाव छत्तीसगढ           
                   👇🏻👇🏻👇🏻
    https://maps.app.goo.gl/AhyNRYio3jUFoppdA
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    ➡️कल दोपहर की बेला मे ससंघ का तीर्थक्षेत्र चंद्रगिरी डोंगरगढ़ (छत्तीसगढ़) मे मंगल प्रवेश
     
     
     
    27 जनवरी 23

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       🍄आज रात्री विश्राम🍄
             🍄शिरपूर🍄  
                 जिला गोंदिया   
                    👇🏻👇🏻👇🏻
    https://maps.app.goo.gl/4iL7FDgfPhrtgnfh9
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      🍁कल की आहारचर्या🍁
            🍁चाबुकनाला🍁
                  छत्तीसगढ           
                    👇🏻👇🏻👇🏻
    https://maps.app.goo.gl/FsmRbDvxpSpfpB768
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    संभावित विहार दिशा:-
    डोंगरगढ़ (छत्तीसगढ़)
     
     
     
    26 जनवरी 23 
     
     

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       🍄आज रात्री विश्राम🍄
      डोंगरगांव से 7:30 कि.मी.आगे
         🍄श्रीआनंद सागर🍄  
                 जिला गोंदिया   
                    👇🏻👇🏻👇🏻
    https://maps.app.goo.gl/tuYMm6TkmKLTVTGt6
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      🍁कल की आहारचर्या🍁
                🍁देवरी🍁
       (श्री.दिगम्बर जैन मंदिर देवरी)
                    जिला गोंदिया
                    👇🏻👇🏻👇🏻
    https://maps.app.goo.gl/hGJD2KUTELPHV7mk9
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    संभावित विहार दिशा:-
    डोंगरगढ़ (छत्तीसगढ़)
     
    25 जनवरी 23
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       🍄आज रात्री विश्राम🍄
            🍄दुग्गेपार🍄     
                👇🏻👇🏻👇🏻
    https://maps.app.goo.gl/qDa4RLcwsUbuqxbG8
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      🍁कल की आहारचर्या🍁
             🍁डोंगरगांव🍁
       (जि.प.केंद्रीय प्राथमिक शाळा-डोंगरगाव जि.गोंदिया)
                   👇🏻👇🏻👇🏻
    https://maps.app.goo.gl/pgzXEy4ngVySZDePA
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    संभावित विहार दिशा:-
    डोंगरगढ़ (छत्तीसगढ़)
     
    24 जनवरी 23
          
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       🍄आज रात्री विश्राम🍄
            🍄श्रीराम नगर 🍄     
                👇🏻👇🏻👇🏻
    https://maps.app.goo.gl/34RzozWWH49GeHveA
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      🍁कल की आहारचर्या🍁
             🍁सावंगी🍁
       (जि.प.प्राथमिक शाळा- जि.गोंदिया)
                   👇🏻👇🏻👇🏻 https://maps.app.goo.gl/ceAZVPgvwFHqL4888
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    संभावित विहार दिशा:-
    डोंगरगढ़ (छत्तीसगढ़)
     
     
     
    23 जनवरी 23
     
        
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       🍄आज रात्री विश्राम🍄
              🍄जांभळी 🍄 
          (मार्तंडराव पाटील कापगते विद्यालय जांभळी)
                👇🏻👇🏻👇🏻
    https://maps.app.goo.gl/8PEywQcg6tHMGCBw9
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      🍁कल की आहारचर्या🍁
             🍁साकोली🍁
       (एम.बी.पटेल कॉलेज साकोली)
                   👇🏻👇🏻👇🏻 https://maps.app.goo.gl/n9T7Z4jZ3ht8ikpm8
     
     
     
    22 जनवरी  23 
     
     
     🍄आज रात्री विश्राम🍄
              🍄लाखनी 🍄 
          (उत्सव मंगल कार्यालय)
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      🍁कल की आहारचर्या🍁
             🍁पिंपळगांव🍁
       (जि.प. केंद्र सेमी इंग्रजी स्कुल)
                   👇🏻👇🏻👇🏻 
    https://maps.app.goo.gl/QumjSyp7ynCu92o67    
     
     
     
     
     

     
    19 जनवरी 23
    आज आचार्यश्री ससंघ का रात्री विश्राम मधुबन उपहारगृह, मौदा, जिला नागपुर में हो रहा है 
    🌏मधुबन उपहारगृह की गूगल मैप लिंक
    👇🏽👇🏽👇🏽 
    Jain Madhuban restaurent
    https://maps.app.goo.gl/1LGk8t3rEJUUpjC8A
    🌳कल २०/०१/२०२३ को आचार्यश्री ससंघ की आहार चर्या बोरगांव से १ किलोमीटर आगे महादुला, जिला नागपुर में होने की संभावना है
    🌏महादुला की गूगल मैप लिंक
    👇🏽👇🏽👇🏽 
    https://maps.app.goo.gl/ZR5yWDqfdke2qdnF6
     
     
    17 जनवरी 23
          
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       🍄आज रात्री विश्राम🍄
         🍄तिरुपति ट्रांसपोर्ट, कापसी🍄              
    https://maps.app.goo.gl/Tq5PvHrUuuzBLjyU9
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      🍁कल कीआहारचर्या🍁
        🍁एस. एस. फूड प्रोडक्ट प्रा.लिमिटेड🍁
                 (संभावित)
    SS Food Products Pvt. Ltd
    https://maps.app.goo.gl/cN8ddXBvCor739XV7
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    16 जनवरी 23
    आज आचार्यश्री ससंघ का रात्री विश्राम गोटल पांजरी, जिला नागपुर में हो रहा है 
    🌏गोटल पांजरी की गूगल मैप लिंक
    👇🏽👇🏽👇🏽 
    https://maps.app.goo.gl/pwoX9PqiJdjfmX5o6
    🌳कल १७/०१/२०२३ को आचार्यश्री ससंघ की आहार चर्या दिघोरी (नागपुर बायपास), जिला नागपुर में होने की संभावना है
    🌏दिघोरी (नागपुर बायपास) की गूगल मैप लिंक
    👇🏽👇🏽👇🏽 
    https://maps.app.goo.gl/3km8mbdYZ9ruxggVA
     
     
    15 जनवरी 23
    आज आचार्यश्री ससंघ का रात्री विश्राम जिला परिषद प्राथमिक शाला, मोहगांव, जिला नागपुर में हो रहा है 
    🌏मोहगांव की गूगल मैप लिंक
    👇🏽👇🏽👇🏽 
    https://maps.app.goo.gl/zpua4uoT5gY296UK9
    🌳कल १६/०१/२०२३ को आचार्यश्री ससंघ की आहार चर्या अन्विता फार्म्स, जामठा, जिला नागपुर में होने की संभावना है
    🌏अन्विता फार्म्स की गूगल मैप लिंक
    👇🏽👇🏽👇🏽 
    Anvita Farms
    https://maps.app.goo.gl/ngNFtQPCWQidB1hQ7
    ➡️👣⛳ संभावित विहार दिशा
    नागपुर
     
     
     
    13 जनवरी 23 
     
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       🍄आज रात्री विश्राम🍄
         🍄केलझार के पहले🍄
        (इंडियन ऑइल पेट्रोल पंप)
                  जिला वर्धा
    https://maps.app.goo.gl/XBiyyuBbkmeDwYsS6
    ➖➖➖➖➖➖➖➖➖
      🍁कल कीआहारचर्या🍁
      🍁इंद्रा हायस्कूल, सेल्डोह 🍁
                 जिला वर्धा
                 (संभावित)
    https://maps.app.goo.gl/qjuq3sAdWuVxDS3w7
    ➖➖➖➖➖➖➖➖➖
     
     
    12 जनवरी 23 
    *आचार्य भगवन श्री विद्यासागर जी महामुनिराज ससंघ* का 
        💫सामयिक उपरांत💫 
          *👣मंगल विहार👣*
                 अभी - अभी
                     *वर्धा*
                   से हुआ।
     
    से हुआ।        
    ➖➖➖➖➖➖➖➖➖
       🍄आज रात्री विश्राम🍄
                🍄पवनार🍄
                  जिला वर्धा
    Pavnar
    https://maps.app.goo.gl/m2UyhaJ5NAE3Dxoo7
    ➖➖➖➖➖➖➖➖➖
      🍁कल कीआहारचर्या🍁
                🍁सेलू🍁
                 जिला वर्धा
                 (संभावित)
    Seloo
    https://maps.app.goo.gl/V4zZpMqhPLgNiW598
     
     

     
     
     
    8 जनवरी 2023      
    ➖➖➖➖➖➖➖➖➖
         🍄आज रात्री विश्राम🍄
    🍄फार्म हाउस, सालोड🍄
                जिला वर्धा
    https://maps.app.goo.gl/KZMPiYNE2arTpgaN9
    ➖➖➖➖➖➖➖➖➖
         🔮भव्य मंगल प्रवेश🔮
           कल प्रातः ८ बजे
         🛕वर्धा🛕 में
    Wardha
    https://maps.app.goo.gl/spT7s75fa8KGjtaT6
    ➖➖➖➖➖➖➖➖➖
     
     
     
    7 जनवरी 2023
    आज आचार्यश्री ससंघ की आहार चर्या पुलगाव, जिला वर्धा में हुई 
    ➡️👣⛳ आज आचार्यश्री ससंघ का आहार एवं सामायिक के बाद विहार हुआ
    🌌आज आचार्यश्री ससंघ का रात्री विश्राम बोदड, जिला वर्धा में हो रहा है 
    🌏बोदड की गूगल मैप लिंक
    👇🏽👇🏽👇🏽 
    Bodad
    https://maps.app.goo.gl/NqXaJX3bvJmFNb7q6
    🌳कल ०८/०१/२०२३ को आचार्यश्री ससंघ की आहार चर्या प्रगती विद्यालय, दहेगाव, जिला वर्धा में ही होने की संभावना है
    🌏प्रगती विद्यालय, दहेगाव की गूगल मैप लिंक
    👇🏽👇🏽👇🏽 
    Pragati Vidyalaya, Dahegaon(St.)
    https://maps.app.goo.gl/my9dxDJXKQGgyYqP9
    ➡️👣⛳संभावित विहार दिशा
    वर्धा, महाराष्ट्र
     
     
     
     
     
    5 जनवरी 23
    ➖➖➖➖➖➖➖➖➖
       🍄आज रात्री विश्राम🍄
         🍄बोरवाघल फाटा🍄
                  जिला अमरावती
    M6R5+R75
    https://maps.app.goo.gl/ZVt97FZyDDBMZPym7
    ➖➖➖➖➖➖➖➖➖
     🍁कल कीआहारचर्या🍁
             🍁बोरगाव धांदे🍁
               जिला अमरावती
                 (संभावित)
    Z.P. School, Borgaon Dhande
    https://maps.app.goo.gl/viVZKxp65bHk5ngp8
    ➖➖➖➖➖➖➖➖➖
     
     
    4 जनवरी 23
    आज आचार्यश्री ससंघ की आहार चर्या घुईखेड, जिला अमरावती में हुई 
    आज आचार्यश्री ससंघ का रात्री विश्राम, तळेगाव (दशासर), जिला अमरावती में हो रहा है 
    🌏तळेगाव (दशासर) की गूगल मैप लिंक
    👇🏽👇🏽👇🏽 
    Talegaon Dashasar
    https://maps.app.goo.gl/RZAKAfpJPzUSr4pQ9
    🌳कल ०५/०१/२०२३ को आचार्यश्री ससंघ की आहार चर्या देवगाव, जिला अमरावती में ही होने की संभावना है
    🌏देवगाव की गूगल मैप लिंक
    👇🏽👇🏽👇🏽 
    Devgav
    https://maps.app.goo.gl/yv4C8h5cD91JnExm8
     
     
    2 जनवरी 23 
    युग श्रेष्ठ, संत शिरोमणि
     आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महामुनिराज
    💫निर्यापक श्रमण मुनिश्री १०८ प्रसाद सागर जी महाराज 
    💫मुनि श्री १०८ चंद्रप्रभ सागर जी महाराज
    💫मुनि श्री १०८ निरामय सागर जी महाराज 
                   ससंघ का
              आज दोपहर में
      💫सामयिक उपरांत💫
             👣मंगल विहार👣  
             🔻सालोड🔺
                     से हुआ।        
    ➖➖➖➖➖➖➖➖➖
       🍄आज रात्री विश्राम🍄
             🍄सिंगणापूर🍄
                  जिला अमरावती 
    ➖➖➖➖➖➖➖➖➖
       🍁कल कीआहारचर्या🍁
               🍁वाघोडा🍁
             जिला अमरावती
                 (संभावित)
    Vaghoda
    👇🏻👇🏻👇🏻
    https://maps.app.goo.gl/gvQXRkK6mD1wE3bu9
    ➖➖➖➖➖➖➖➖➖
     
     
     
    31 December 22
     
    *आचार्य भगवन श्री विद्यासागर जी महामुनिराज ससंघ* का 
        💫सामयिक उपरांत💫 
          *👣मंगल विहार👣*
                 अभी - अभी
               *कारंजा लाड*
                     से हुआ।
    *संभावित दिशा वर्धा* 
     
    आज रात्री विश्राम🍄
                🍄धानोरा🍄
                  जिला वाशीम
    Dhanora
    https://maps.app.goo.gl/92Bk3QVHXjkmmtte8
    ➖➖➖➖➖➖➖➖➖
     🍁कल कीआहारचर्या🍁
           🍁डोनड (bk)🍁
               जिला वाशीम
                 (संभावित)
    Donad Bk.
    https://maps.app.goo.gl/VJ99yF8d7d5hcU566
     
     
    --------------
     
    29 december 22
    आहारचर्या  स्थान 
    शेवटी, जिला वाशीम*
    👇🏻👇🏻👇🏻👇🏻
    https://maps.app.goo.gl/pPRvBo4GBHyqKvgy9
     
    27 december 22
    आज आचार्यश्री ससंघ का आहार एवं सामायिक के बाद विहार हुआ
    🌌आज आचार्यश्री ससंघ का रात्री विश्राम जिला परिषद स्कूल, किणीराजा, जिला वाशिम में हो रहा है 
    🌏जिला परिषद स्कूल की गूगल मैप लिंक
    👇🏽👇🏽👇🏽 
    Z P School Kinhiraja
    https://maps.app.goo.gl/TSz1ezayNCS3661j9
    ➡️👣⛳कल २८/१२/२०२२ को आचार्यश्री ससंघ की आहार चर्या लाठी, जिला वाशिम में ही होने की संभावना है
    🌏लाठी की गूगल मैप लिंक
    👇🏽👇🏽👇🏽 
    Lathi
    https://maps.app.goo.gl/qBDms7opSBTaBHPR7
    ➡️👣⛳ संभावित विहार दिशा
    कारंजा लाड 
     
    26 दिसम्बर 22 2pm
    युग शिरोमणि आचार्य भगवन श्री १०८ विद्यासागरजी महाराज  ससंघ का मंगल विहार अभी अभी मालेगांव महाराष्ट्र से हुआ ।।
    👣दिशा :- कारंजा लाड़👣
     
     
    आज रात्री विश्राम🍄
            जिला परिषद स्कूल
                🍄खिर्डा🍄
               जिला वाशीम
    https://maps.app.goo.gl/d7tCheVQuNth6YSEA
    ➖➖➖➖➖➖➖➖➖
     🍁कल कीआहारचर्या🍁
       🍁काळा माथा🍁
               जिला वाशीम
    Kalamatha Temple (Awaliya)
    https://maps.app.goo.gl/e2vnrp1p3QvnGQ5fA
     
     
    26 दिसम्बर 22 को पूजन / प्रवचन / आहारचर्या मालेगांव मे  होगी  ( संभावित ) 
    गूगल  लिंक  नक्शा 
    https://maps.app.goo.gl/fsMR7qDiwrjpaVPt6
     
     
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    आज रात्री विश्राम🍄
        🍄मालेगाव जहाँगीर🍄
               जिला वाशीम
    Malegaon Jahangir
    https://maps.app.goo.gl/Hq6fskdkmvvfWPZt5
    ➖➖➖➖➖➖➖➖➖
     🍁कल का पूजन, प्रवचन एवं आहारचर्या🍁
       🍁मालेगाव जहाँगीर🍁
               जिला वाशीम
    Malegaon Jahangir
    https://maps.app.goo.gl/Hq6fskdkmvvfWPZt5
    संभावित दिशा मालेगांव
     
     
     

     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
  11. Vidyasagar.Guru
    *आचार्य श्री विद्यासागर जी ससंघ सानिध्य में मनाया गया गणतंत्र दिवस समारोह* 
    हुए विभिन्न कार्यक्रम, प्रतिभास्थली की छात्राओं ने दी भी प्रस्तुति |
     
     
    *कार्यक्रम पूजन एवं सभी प्रस्तुतियाँ* 
     
     
    *ध्वजारोहण* 
     
     
     
     
    आज के प्रवचन 
     
     
     
    सुभास चंद बोस जन्म जयंती के उपलक्ष में हुई *प्रतियोगिता परिणाम भी घोषित हुआ* 
     

  12. Vidyasagar.Guru
    अपडेट 
    प्रतियोगिता में आप 24 जनवरी रात्री 10 बजे तक भाग ले सकते हैं 
     
     
    प्रतियोगिता लिंक 
    https://docs.google.com/forms/d/e/1FAIpQLSfIkMmZalbSsd5SKbZx_JtNRfKegwUNROctfxp-X_ojUmcrWA/viewform?usp=sf_link
     
    उत्तर प्राप्त सूची एवं प्रतियोगिता अनुभव 
    https://docs.google.com/spreadsheets/d/15PftDMNOuxB4-xq3xv2FO1IDAxtdW9IR5GioOh726A8/edit?usp=sharing
     
     
     
     
     

  13. Vidyasagar.Guru

    केश लोच सूचना
    💫 धरती के देवता, हम सभी के भगवन् , अनियत विहारी, अध्यात्म सरोवर के राजहंस, परम पूज्य युग श्रेष्ठ, संत शिरोमणि आचार्यश्री १०८ विद्यासागर जी महामुनिराज के आज  वर्धा में केशलोंच हुए 💫
     
  14. Vidyasagar.Guru
    आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ सानिध्य मे हुआ त्रि मंजिला समवशरण एवं चतुर्दिक चार सहस्त्रकूट जिनालयों का शिलान्यास
     
     
     
     
     
     
     
     
    🌴🛕अतिशय क्षेत्र में छोटे बाबा ने रचा इतिहास🛕🌴
    श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ जी तीर्थ क्षेत्र,शिरपुर जैन में पूज्य संत शिरोमणि आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज ससंघ के सानिध्य एवम आशिर्वाद से..२१ दिसम्बर २०२२, दिन बुधवार...
    🛕प्रात:भव्य त्रिमंजिला समवसरण 252 फीट एवं चतुर्दिक चार सहस्कूट जिनालयों का एक साथ भव्य शिलान्यास बा. ब्र. वाणी भूषण प्रतिष्ठा सम्राट विनय भैया जी के निर्देशन में हजारो  जन समुदाय की मेदनी के बीच हुआ और इस क्षेत्र पर इतिहास रचा गया।
    मुख्य मन्दिर जी के पुण्यार्जक लाभार्थी परिवार निम्न अनुसार है  :-👇 
    श्रेष्ठी श्रीमान श्री रतनलाल जी कँवरीलाल जी पाटनी परिवार आर के मार्बल परिवार (किशनगढ़ राज.) श्रेष्ठी श्रीमान श्री प्रभात सवाईलालजी श्रीमती इंदूजी जैन जुहू (मुम्बई) श्रेष्ठी श्रीमान श्री राजा भाई शाह एवं श्रीमती रेखा जी  शाह -(सूरत) गुजरात   
          💧💧💧💧💧💧💧💧
    सहस्त्र कूट जिनालय के पुण्यार्जक लाभार्थी परिवार:-👇
    जिनालय क्रमांक 1 श्रेष्ठी श्रीमान श्री अतुल जी सराफ एवं श्रीमती संगीता जी सराफ- पुणे-बारामती (महाराष्ट्र) जिनालय क्रमांक 2 श्रेष्ठी श्रीमान श्री नवीन जी जैन श्रीमती शिल्पी जी जैन - दिल्ली-गुड़गांव। जिनालय क्रमांक 3 श्रेष्ठी श्रीमान श्री शीतल जी दोशी श्रीमती वृशाली जी दोशी-पुणे (महाराष्ट्र) जिनालय क्रमांक 4 श्रेष्ठी श्रीमान श्री दिलीप जी घेवारे श्रीमती नीता जी घेवारे- ठाणे (मुम्बई)
     
     

  15. Vidyasagar.Guru
    22 दिसम्बर 22 
     
    आचार्य भगवंत विद्यासागर जी महामुनिराज जी ने कल सम्पन्न हुई क्षुल्लक दीक्षाओ में से 3 दीक्षार्थियों के नाम परिवर्तित किये है
    पूर्व नाम एवम नवीन नाम
    १) ब्र. अभिषेक भैय्याजी, गोटेगांव
    पूर्व नाम :- क्षुल्लकश्री उचितसागर महाराज
    नवीन नाम :- क्षुल्लक श्री १०५ चिद्रूपसागरजी महाराज
    २) ब्र. पुनीत भैय्याजी, सागर
    पूर्व नाम :- क्षुल्लकश्री समुचितसागर महाराज
    नवीन नाम :- क्षुल्लक श्री १०५ स्वरूपसागरजी
    ३) ब्र. जयेश भैय्याजी, वर्धा
    पूर्व नाम :- क्षुल्लकश्री औचित्यसागर महाराज
    नवीन नाम :- क्षुल्लक श्री १०५ सुभगसागरजी महाराज
     

     
     
     
     
     
     
     
     
    युगश्रेष्ठ, संत शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागर जी महामुनिराज के कर कमलों से दीक्षाएं सम्पन्न हुई 
     
     
     
     
     
     
     
    दीक्षार्थियों के नाम व नवीन नाम
    🌟 ब्र महावीर भैया जी अष्टगे
    श्रमणश्री उत्कृष्टसागर मुनिराज

    १) ब्र. नितेश भैय्याजी, बागीदौरा 
    क्षुल्लकश्री  स्वागतसागर महाराज
    २) ब्र. यशपाल (गोलू) भैय्याजी, दमोह-
    क्षुल्लकश्री आगतसागर महाराज
    ३) ब्र. सौरभ (गोलू) भैय्याजी, जबलपुर -
    क्षुल्लकश्री भास्वतसागर महाराज
    ४) ब्र. श्रमण कुमार (लक्की) भैय्याजी, दमोह
    क्षुल्लकश्री स्वस्तिकसागर महाराज
    ५) ब्र. सौरभ (बम्बू) भैय्याजी, सिलवानी -
    क्षुल्लकश्री भारतसागर महाराज
    ६) ब्र. शुभम भैय्याजी, सागर -
    क्षुल्लकश्री जाग्रतसागर महाराज
    ७) ब्र. शैलेन्द्र (शेलू) भैय्याजी, कटंगी
    क्षुल्लकश्री उद्यमसागर महाराज
    ८) ब्र. स्वतंत्र (बौद्धिक) भैय्याजी, विदिशा
    क्षुल्लकश्री गरिष्ठसागर महाराज
    ९) ब्र. संजय भैय्याजी, पटना
    क्षुल्लकश्री आदरसागर महाराज
    १०) ब्र. किरीट (गोनू) भैय्याजी, खातेगाव
    क्षुल्लकश्री समादरसागर महाराज
    ११) ब्र. अभिषेक भैय्याजी, गोटेगांव
    क्षुल्लकश्री उचितसागर महाराज
    १२) ब्र. पुनीत भैय्याजी, सागर
    क्षुल्लकश्री समुचितसागर महाराज
    १३) ब्र. जयेश भैय्याजी, वर्धा
    क्षुल्लकश्री औचित्यसागर महाराज
    १४) ब्र. चंद्रप्रकाश (C.P.) भैय्याजी, ग्वालियर
    क्षुल्लकश्री अनुनयसागर महाराज
    १५) ब्र. मधुर भैय्याजी, गंज बासौदा
    क्षुल्लकश्री सविनयसागर महाराज
    १६) ब्र. विक्रम भैय्याजी, जबलपुर
    क्षुल्लकश्री समन्वयसागर महाराज
    १७) ब्र. ब्रजेन्द्र भैय्याजी, भोपाल
    क्षुल्लकश्री हीरकसागर महाराज
    १८) ब्र. दीपक भैय्याजी, मड़ावरा
    क्षुल्लकश्री निर्धूमसागर महाराज
    १९) ब्र. खुशाल भैय्याजी, पथरिया
    क्षुल्लकश्री वरिष्ठसागर महाराज
    २०) ब्र. जयंत (गोल्डी) भैय्याजी, सहारनपुर
    क्षुल्लकश्री गौरवसागर महाराज
    २१) ब्र. रोहित भैय्याजी, बडौत
    क्षुल्लकश्री विदेहसागर महाराज
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    सभी नवदीक्षित साधकों के चरणों नमोस्तु व इच्छामि👏🏻👏🏻👏🏻
     
  16. Vidyasagar.Guru
    21 / 12 / 22 
     
     
    20 दिसम्बर 22 - 
     
     
     
     
     
     
     
     
     
    ⛳आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के गृहस्थ जीवन के ज्येष्ठ भ्राता श्री महावीरजी जैन अष्टगे की भी दीक्षा होने वाली है जो सलग्न वीडियो में गुलाबी रंग की पगड़ी में दिखाई दे रहे हैं
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     

    शिरपुर जैन में रचने जा रहे इतिहास में एक और इतिहास जुड़ गया 
     ✨☀️संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के गृहस्थावस्था के बड़े भाई ब्रा महावीर भैया अष्टगे की मुनि दीक्षा होने जा रही है
    साथ ही 21 ब्रह्मचारी भाईयो की क्षुल्लक दीक्षा होने जा रही है
    आज शाम 6 बजे सभी की बिनोली निकली जाएगी
    एवं कल दोपहर 2 बजे से दीक्षा समारोह आयोजित होगा
    ज्ञात हो अष्टगे परिवार के अंतिम सदस्य के रूप में महावीर भैया घर पर रहे , आप के तीनों अनुज भाई आचार्य भगवन श्री विद्यासागर जी महाराज , निर्यापक श्रमण श्री समय सागर जी महाराज , निर्यापक श्रमण श्री योग सागर जी महाराज है 
    कुछ माह पूर्व निर्यापक श्रमण श्री वीरसागर जी महाराज के संघ में आप साधना रत थे ।
    ✍️✍️ शुभांशु जैन शहपुरा
     
     
    19 दिसम्बर 2022 
     शिरपूर जैन अपडेट🛕
    अंतरिक्ष पार्श्वनाथ शिरपूर जैन में प्रथम बार में युग श्रेष्ठ, संत शिरोमणि आचार्य भगवन श्री विद्यासागर जी महामुनिराज के कर कमलों से बुधवार २१ दिसंबर २२ को दोपहर २ बजे दीक्षाएं होनी है। 
    📿संभावित दीक्षार्थियों के नाम📿
    १) ब्र. नितेश भैय्याजी, बागीदौरा
    २) ब्र. यशपाल (गोलू) भैय्याजी, दमोह
    ३) ब्र. सौरभ (गोलू) भैय्याजी, जबलपुर
    ४) ब्र. सौरभ (बम्बू) भैय्याजी, सिलवानी
    ५) ब्र. शुभम भैय्याजी, सागर
    ६) ब्र. श्रमण कुमार (लक्की) भैय्याजी, दमोह
    ७) ब्र. अंकित भैय्याजी, जबलपुर
    ८) ब्र. शेलू भैय्याजी, कटंगी
    ९) ब्र. स्वतंत्र (बौद्धिक) भैय्याजी, विदिशा
    १०) ब्र. संजय भैय्याजी, पटना
    ११) ब्र. किरीट (गोनू) भैय्याजी, खातेगाव
    १२) ब्र. अभिषेक भैय्याजी, गोटेगांव
    १३) ब्र. पुनीत भैय्याजी, सागर
    १४) ब्र. जयेश भैय्याजी, वर्धा
    १५) ब्र. चंद्रप्रकाश (C.P.) भैय्याजी, ग्वालियर
    १६) ब्र. मधुर भैय्याजी, गंज बासौदा
    १७) ब्र. विक्रम भैय्याजी, जबलपुर
    १८) ब्र. बृजेन्द्र भैय्याजी, भोपाल
    १९) ब्र. दीपक भैय्याजी, मड़ावरा
    २०) ब्र. महावीर भैय्याजी, सदलगा
    २१) ब्र. सोनू भैय्याजी( भूषण), कारंजा लाड
    २२) ब्र. खुशाल भैय्याजी, पथरिया
    २३) ब्र. गोल्डी भैय्याजी, सहरानपुर
    २४) ब्र. रोहित भैय्याजी, बडौत
    इसमें और भी नाम बढ़ने की संभावना है।
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    ✒️संकलन:-
    संतोष पांगळ जैन, मुरुड
    श्रीकांत संघई जैन, पुसद
    मयूर पांगळ जैन, सेनगाव
     
     
     
     
    18 दिसम्बर 2022 
    🔥🔥🔥शिरपुर जैन अपडेट
    🥁🥁शिरपुर में रचने जा रहा इतिहास🥁🥁
    21 दिसंबर 2022,बुधवार का दिन  होगा बेहद खास
    ☀️शिलान्यास एवं  गुरुदेव के कर कमलों से होगी दीक्षाएँ सम्पन्न☀️
    🌟युग शिरोमणि आचार्य गुरुदेव श्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ के सान्निध्य में अतिशय क्षेत्र शिरपुर में रचने जा रहा है इतिहास , गुरुदेव के आशीर्वाद से🕢 प्रातः 7.30 बजे से भव्य🌟
    🛕त्रि मंजिला समवशरण एवं चतुर्दिक चार सहस्त्रकूट जिनालयों का होगा शिलान्यास🛕
    गुरुदेव के आशीर्वाद से पहली बार बनेंगे एक साथ चार सहस्त्र कूट जिनालय प्रतिष्ठाचार्य बा. ब्र. वाणीभूषण विनय भैय्याजी सम्राट का होगा निर्देशन
    🕑दोपहर 2 बजे से गुरुदेव के कर कमलों से होगी भव्य दीक्षायें हाेगीं
    अनुमान है यह दीक्षाएं दहाई के आंकड़े में हो सकती है, बाकी गुरुदेव के मन की कौन जाने 
    इस महा आयोजन में और और क्या होगा तो देखते रहिए
    ➖➖➖➖➖➖➖
    सूचना साभार:- .
    बा.ब्र. तात्या भैय्याजी

     
     

  17. Vidyasagar.Guru

    सूचना
    💫 धरती के देवता, हम सभी के भगवन् ,अनियत विहारी, अध्यात्म सरोवर के राजहंस, परम पूज्य युग श्रेष्ठ , संत शिरोमणि आचार्यश्री १०८ विद्यासागर जी महामुनिराज के आज प्रातः कालीन बेला में केशलोंच डोणगाव जिला बुलढाणा   में संपन्न हुये।
  18. Vidyasagar.Guru
    इस सदी के महान संत परम पूज्य आचार्य गुरुदेव श्री विद्यासागर जी महाराज का 13 दिसंबर को ससंघ दोपहर 3:20 पर शिरपुर प्रवेश हुआ
    🚩🚩🚩🚩🚩🚩
    आचार्य संघ की भव्य अगवानी प्रसिद्ध जैन तीर्थ क्षेत्र श्री अंतरिक्ष पारसनाथ शिरपुर में हुई 
    👇👇👇👇👇
    पूज्य निर्यापक मुनि श्री योगसागर और निर्यापक मुनि श्री वीरसागर महाराज मुनि श्री निस्पृहसागर महाराज ने ससंघ गुरुदेव की भव्य अगवानी की।
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
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