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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

गुरु भक्ति शतक


Vidyasagar.Guru

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कई वर्ष के बाद पुण्य से, गुरु का दर्शन प्राप्त हुआ।

बिना कहे ही सुन ली मन की, कहने को क्या शेष रहा ॥

तनिक मिला सान्निध्य किंतु अब, खोल दिये हैं शाश्वत नैन ।

अब तक था बेचैन किंतु अब, मुझे दे दिया मन का चैन ॥ 1 ॥

 

आप नूर से हुई रोशनी, रोशन हर मन का कोना ।

यह खुशियाँ सौगात आपकी, मेरा मुझसे क्या होना ॥

जब गुरु ने निज नैन - स्नेह की, एक किरण से किया प्रकाश ।

पाने को अब रहा नहीं कुछ, जग से कुछ भी ना अभिलाष ॥ 2 ॥

 

खिले खुशी के लाखों उपवन, जब गुरु की मुस्कान मिली।

मुरझाई थी कली हृदय की, चटक चटक कर खुली खिली ॥

गुरु- पद शीतल शांत छाँव में, मोक्षमहल तक चलना है।

गुरु की गरिमामयी गोद ही, मेरा पावन पलना है ॥3 ॥

 

बहुत पुराना नाता है पर, नया-नया हर पल लगता ।

अधर कपाट नहीं खुलते बस, सुनने को ही मन करता ॥

अनहद नाद सरीखी वाणी, अंतर मन झंकृत करती ।

अपलक तकते रहे नैन बस, गुरु से नज़र नहीं हटती ॥4॥

 

गुरु - दर्शन पा गहन रात भी, सुप्रभात -सी मुझे लगी ।

निज को निज में खो जाने की, प्यास निरंतर मुझे जगी ॥

निधी मिली जो गुरु सन्निधि में, वह अद्भुत अनमोल रही ।

त्रिलोक की जड़ निधियाँ दे दें, तो भी उसका तोल नहीं ॥5॥

 

ज्ञान खान का मैं पत्थर था,मुझको हीरा बना दिया।
शुभ्र धवल सुंदर चमकीला,मोती जैसा बना दिया  ॥
चमक भीतरी बाहर जो भी, गुरु की दिव्य किरण से है।
जो कुछ अद्भुत मिला मुझे वह, गुरु की चरण-शरण से है ।6 ॥ 

 

गहरी- गहरी नज़रें गुरु की, मम नैनों में भर जाती ।

तब अंतर नयनों में मुझको, मेरी ही सुध रह जाती ॥
जब गुरुवर के गुण चिंतन में, मन मेरा गहराता है।

तब स्वर्गों के सुमनों-सी यहँ, कौन महक भर जाता है ॥ 7 ॥


अहो! आपकी एक नज़र से, कर्म काँपते हैं थर-थर ।

मोह क्षीण होता जाता है, विभाव भी होते जर्जर ॥

फिर क्यों एक नज़र से गुरुवर, मुझको वंचित रखते हो।

अपने सुत को भूखा रख खुद, स्वानुभूति रस पीते हो ॥ 8 ।।

 

गुरु बिन यह निष्प्राण समूचा, सचमुच मेरा जीवन है।

भक्ति की श्वाँसें हैं अब तो, श्रद्धा की ही धड़कन है ॥

भक्त रूप यह दीपक गुरु के, स्नेह-तेल से जलता है।

इस नादान बाल का जीवन, गुरु कृपा से चलता है ॥ 9 ॥

 

मुझे तनिक ना जाना फिर भी, गुरुवर ने पैगाम सुना ।

इसीलिए तो मैंने केवल, विद्या गुरु का नाम चुना ।।

बिना बताये ये अंतस् की, किताब को पढ़ लेते हैं।

अंतर- दृष्टि तीक्ष्ण गुरु की, बिना लिए सब देते हैं ॥ 10 ॥
 

जीवन की मरुभूमि में गुरु, हरियाली बनकर आये ।
मुरझाये जीवन उपवन में ,खुशहाली बनकर छाये ॥
गुरु गुण तुलना योग्य नहीं मैं, उपमा किसकी बतलाऊँ ।

हे गुरुवर ! तेरी महिमा मैं कैसे शब्दों से गाऊँ ॥ 11 ॥


दुर्गम इस जीवन के पथ पर, पग-पग काँटे बिखरे थे।
पथ को सुगम बनाया गुरु ने जब जीवन में आये थे ॥

चित्त शांति के लिए आपने, जैनागम रस चखा दिया।

कर्म रहस्य बताकर मुझको, जीवन जीना सिखा दिया ॥ 12 ॥

 

दिशाहीन था मेरा जीवन, दिशायंत्र बनकर आये ।

कर्मों के षड्यंत्र विफल कर, महामंत्र बनकर आये ।।

अद्भुत जादूगर हो गुरुवर, पापी को पावन करते ।

पतझड़ को भी स्नेह-नीर से, सिंचन कर सावन करते ॥ 13 ॥

 

गुरु आपके नीलनयन के, परमाणु अति सुंदर हैं ।

मानो हो अध्यात्म समंदर, दृष्टि कमल मनोहर है ।।

इन कमलों की सुगंध पाने, भक्त भ्रमर बनकर आया ।

मुक्ति से किञ्चित् कम सुख गुरु, तव पद में आकर पाया ॥ 14 ॥

 

सारा खेल रचाकर गुरु ने, निज को निज में छिपा लिया।

ज्ञान चाँदनी बिखरा करके, मुझको निज से मिला दिया ॥

क्योंकि गुरु कर्तृत्व भाव से, दूर-दूर ही रहते हैं ।

करते नित कर्त्तव्य पूर्ण पर, अहं भाव नहीं रखते हैं ॥ 15 ॥


जब प्रत्यक्ष मिले गुरुवर तो, नयन खुशी से भर आये।

अधर पटल मुस्काये लेकिन, बात नहीं कुछ कर पाये ।।

शिष्य एकटक रहे देखते, स्नेह झील में डूब गये।

महामिलन की वह अनुभूति, कह न सके बस मौन रहे ॥16 ॥


जग अपना-सा लगा मुझे जब, तुमने अपना बना लिया ।

तीक्ष्ण शूल भी फूल बने तब, अरि को सहचर बना दिया ।।

दिल से कैसे अब मैं सुमरूँ, दिल के दर्पण में तुम हो ।

मुझमें रहकर भी हे गुरुवर, अपने में ही तुम गुम हो ||17||

 

गुरु को हृदय बिठाकर इकटक, निहारना अच्छा लगता।

धड़कन की आहट का भी तब, शब्द नहीं मुझको भाता ॥

तभी चहकती चिड़ियाँ आकर, मौन भंग कर देती हैं।

गुरु- स्मृति में मेरी मति तब, बार-बार खो जाती है ॥ 18 ॥

 

गुरु- स्नेह को शब्दों में क्या, कभी बताया जा सकता।

वहाँ तरस जाती हैं आँखें, शब्द ठगा सा रह जाता ॥

गुरु- स्नेह कैसा होता है, कोई अगर पूछे मुझसे ।

अनुभव करके स्वयं देख लो, बता नहीं सकते तुमसे ॥ 19 ॥

 

गुरु श्रद्धा आकाश अपेक्षा, आसमान भी बौना है।

गुरु चरणों में कुछ ना पाना, विकार परिणति खोना है ॥

प्रभु ने भी पहले गुरु से ही, सत्य पंथ पहचाना था ।

अतः मंत्र में प्रभु से पहले, गुरु को शीश नवाया था ॥ 20 ॥


पर को भूलूँ ऐसी गुरुवर, मुझे विस्मृति दे देना।

कहने को उत्सुकता ना हो, ऐसा मुझको कर देना ।।

भूतकाल के विकल्प ना हो, भविष्य का संकल्प नहीं ।

वर्तमान में शांत रहूँ बस, ऐसा दो गुरु मंत्र सही ॥ 21 ॥

 

कहा- शिष्य हो तुम मेरे तब, जादू जैसा मुझे लगा ।

ओझल हुई समूची दुनिया, मुझमें विद्या भानु उगा ।।

बसे हृदय में आप और कोई न बसाया जा सकता।

किया नंत उपकार आपने, नहीं चुकाया जा सकता ।। 22 ।।

 

अपनों में ना रहते गुरुवर, अपने में ही जीते हैं।

अपना काम स्वयं ही करते, पराधीन नहीं रहते हैं ॥

मोक्षमार्ग पर गुरुवर स्वाश्रित, निर्भय हो अविचल रहते ।

लिये कमण्डल स्वयं हाथ में, कई कोस तक गुरु चलते ॥ 23 ॥


हे गुरुवर! दिन-रात आपकी, शिष्य पनाहों में रहते ।

दिखलायी जो राह आपने, उस ही राहों पे चलते ।।

गुरु-भक्ति के सुखद रंग में, खुद को ऐसा रंग लिया ।

दूजा रंग न चढ़ पायेगा, मैंने ऐसा ठान लिया ॥24 ॥

 

मन वीणा के तार सदा ही, गुरु चरणों से जुड़े रहें ।

स्वानुभूति गीतों का गुँजन, हृदय कक्ष में नित्य बहे ॥

तान सुरीली सुनने मेरा, रोम-रोम उत्कंठित है।

अपने में ही खो जाने की, वह शुभ घड़ी प्रतीक्षित है ॥ 25 ॥

 

संयम उपवन में विचरण कर, पाया गुरु ने ज्ञान भवन ।

ऐसे गुरु से लगी लगन है, हुआ मगन मन सौख्य सघन ।।

घबराता है नहीं आतमा, चाहे कितनी हो मुश्किल ।

आप मिले तो लगा मुझे यों, मानो मिला मुझे साहिल ||26||

 

प्रभु की भक्ति करते-करते, प्रभु कहीं खो जाते हैं।

आप वहाँ दिख जाते गुरुवर, समझ नहीं कुछ पाते हैं।।

प्रभु गुरु में कुछ भेद न रहता, देह नयन मुँद जाते हैं।
ज्ञान नयन खुल जाते हैं तब, निज के दर्शन होते हैं । 27 ॥

 

युगों-युगों से जिनको मैंने, जगह-जगह जाकर दूँढ़ा ।

गुरु मिले मम श्रद्धा गृह में, मिलने पर जी भर पूजा ॥

कुछ भी वर माँगा ना फिर भी, वरदानों की वृष्टि हुई।

हृदय चमन महका अंतर में, निज को नूतन दृष्टि मिली ॥28॥


कई वर्ष से ज्ञान नीर बिन, सारी बगिया सूखी थी ।

गुरु वाणी की वर्षा से ही, मन की बगिया महकी थी ॥

नीर खाद औ प्रकाश गुरु का, मैं तो बीज मात्र ही था ।

बना वही पौधा सच इस पर, हाथ गुरुवर का ही था ॥ 29 ॥

 

प्रभु गुरु में अंतर इतना ही, प्रभु मौन गुरु बोल रहे।

जगा- जगाकर भक्त जनों के, अंतर के पट खोल रहे ॥

तीन लोक के अग्र भाग पर, सिद्धालय में प्रभु रहते ।

भक्त हृदय में उच्च स्थान पर, रहकर गुरु निज में रमते ॥ 30 ॥

 

गुरु प्रसन्न हो तो शिष्यों को, मोक्ष निकट ही लगता है।

गुरु रूठे तो जग रूठा-सा, सुख भी दुख- सा लगता है ॥

तन की श्वाँस यदि रूठे तो ,जीवन कैसे जी सकते।

गुरु कृपा की श्वाँस बिना ना, शिष्य एक पल रह सकते ॥ 31 ॥


यह कहना है वह कहना है, क्या-क्या मन में सोच लिया।

गुरुवर को सम्मुख पाकर मैं, सब कुछ कहना भूल गया ॥

अद्भुत आभामण्डल गुरु का, मुखर मौन हो जाते हैं।

प्रश्न कहे बिन उत्तर मिलता, अचरज से भर जाते हैं । 32 ॥

 

जब करते आहार गुरु जी, जाने क्यों ऐसे लगते ।

निराहार निज रूप निरखते, जड़ का स्वाद नहीं चखते ॥

रस नीरस इक समान गुरु को, क्योंकि समरस पीते हैं।

करके ज्ञानाहार गुरुवर, आह्लादित हो जीते हैं ॥33॥

 

जो देखे इक बार आपको, अपने से ही लगते हैं ।

जब करते प्रवचन तो लगता, मेरे लिए ही कहते हैं ।।

गुरु के शब्दों में सरगम है, जादू- मुस्कान लगी ।

गुमसुम भी गाने लग जाते, जिसने गुरु की शरण गही ॥34॥

 

गुरु का सुंदर-सुंदर तन है, मन इससे भी सुंदर है ।

गुरु चेतना का क्या कहना, बहे ज्ञान के निर्झर हैं ।।

गुरु मूरत उज्ज्वल दर्पण सम, शिष्य भविष्य देखते हैं।

अपना जीवन सौंप गुरु को, आनंदित हो जीते हैं ॥35॥

 

गुरु इक बार कहें जो मुख से, वह वैसा हो जाता है।

अभी नहीं तो कभी बाद में, वही सामने आता है।

वचनों में मानो सिद्धि है, सीमित शब्द बोलते हैं।

'देखो' कहकर सब कह देते, विस्मित हो सब सुनते हैं। 36 ।।

 

जग से बहुत दूर निज में ही, गुरु का वतन निराला है।

गुरु की ज्ञान-किरण से ही यह, फैला दिव्य उजाला है ॥
गुरु की परम ज्योति से मेरी, ज्योति अनबुझ जलती है।

इसी ज्योति में मुझको मेरी, चिदातमा नित दिखती है ॥37॥

मिले गुरु तो मन का गम ना, रही नहीं तन की चिंता

हुआ चित्त निश्चित निराकुल, क्योंकि संग है परम पिता ॥

एक अपूर्व अनुभव मुझको, गुरु चरणों में होता है।

रिमझिम रिमझिम ज्ञान बरस कर, विकार मल को धोता है। 38 ॥

 

देह नेह से रहित गुरुवर, आत्म गेह में रहते हैं।

विदेह पद के प्रत्याशी गुरु, स्वात्म तत्त्व में रमते हैं ।।

बीज समान शब्द कहते हैं, वही सूत्र बन जाते हैं।

इसीलिए तो नास्तिक भी आ, गुरु को शीश झुकाते हैं ॥39॥


ना जाने आगे जीवन में, कितने परिचित आयेंगे।

दिल में किंतु गुरु सिवा हम, रख न किसी को पायेंगे ॥

क्योंकि मेरे गुरु विराट हैं, पूरे में ही समा गये ।

अपनी अनुपम निधियाँ गुरुवर, मुझको भी कुछ थमा रहे || 40 ||

 

प्रभुवर मोक्ष स्वरूप यदि तो, गुरु साक्षात् मोक्ष पथ हैं।

चलते फिरते प्रभु सम लगते, गुरुवर मुक्ति का रथ हैं ।

आत्म रुचि वाले भव्यों को इस रथ में बैठाते हैं।
गुरुवर  के अनुकूल चले जो, निश्चित मंजिल पाते हैं । 41 ॥


पिच्छी के कई पंख दिये गुरु, पंख और दो भी देते ।

जिससे उड़कर समीप आकर ,दर्श आपका कर लेते ॥

क्योंकि गुरु दर्श से मुझको, मेरी आतम दिखती है।

नहीं बिगड़ती गुरु आपकी, मेरी बिगड़ी बनती है ॥42 ॥

 

विद्यार्णव की गहराई में, बसरा मोती पाया है।

श्वाँसों के हर तार-तार में श्रद्धा मोती पिरोया है।
आतम का शृंगार करूँ मैं, रिझा सकूँ निज चेतन को ।

गुरु के ऋण से मुक्ति पाऊँ, जब पाऊँ स्वातम धन को ॥43 ॥

 

कितनी सदियाँ बीते चाहे, जग भी कितना ही बदले ।

गुरु के प्रति निष्ठा का दीपक, मुझ आतम में नित्य जले ॥

गुरु के गुण चिंतन में अपनी, आतम की निधि को निरखा।

मैंने गुरु के प्रकाश में ही, निज आतम का रूप लखा ॥ 44 ॥

 

मिश्री जैसे बोल गुरु के, मन को सरल बना देते ।

जनम-जनम के दुखी भक्त को, पल में ही खुश कर देते ॥

जैसे गहन रात्रि के तम को, रवि की एक किरण हरती ।

अमृत की क्या एक बूँद से, तन की क्षुधा नहीं मिटती ॥45 ॥
 

उदीयमान नक्षत्र सरीखे, मेरे गुरु नित उदित रहें।

तरु से झर-झर सुमन झरे ज्यों, गुरु वचनों से मुदित करें ॥

नहीं प्रसिद्धि चाहे किञ्चित्, मात्र सिद्धि की चाहत है।

ऐसे गुरु के दर्श मात्र से मिलती मन को राहत है || 46 ॥


पर की पीड़ा देख गुरु की, करुणा जल सम बह जाती।

किंतु स्वयं की पीड़ा में वह, गिरि समान दृढ़ बन जाती ॥

ऐसे गुरु के गुण चिंतन से, सफल हुआ मेरा हर पल ।

शांत हो गई आज चेतना, दूर हुई मन की हलचल ॥ 47 ॥

 

सुनो गुरु से ना कहना कि, मेरी मुश्किल बड़ी-बड़ी ।

मुश्किलों से कहना है कि, गुरु की महिमा बहुत बड़ी ॥

अग्नि में तपकर ही सोना, रवि-सा तेज दमकता है।

कर्मों की आँधी से लड़कर, मोक्ष पथिक शिव पाता है ॥ 48 ॥


बातें करते हुए दीखते, किंतु स्वयं में मौन रहें ।

मौन दिख रहे बाहर से पर, बात स्वयं से आप करें ॥

चलते दिखते औरों को पर, स्थिर रहते हैं अपने में ।

स्थिर रहकर भी ज्ञानधार में, सदा प्रवाहित स्वातम में ॥ 49 ॥

गुरुवर के नीले नयनों में, समा गया मानो आकाश ।

नज़र मिली तो लगा मुझे, हो गया सर्व विघ्नों का नाश ॥

नीलकमल से इन नयनों में, सागर-सी गहराई है।

गुरु के अद्भुत गुण कमलों की, इसमें गंध समाई है ॥ 50॥
 

करते हुए अशन श्री गुरुवर, नित्य अनेशन ही करते।

पर को देख रहे लगता पर, दर्शन निज का ही करते ।।

धरती पर चलते दिखते पर, सिद्धालय की ओर चले ।

करते हैं विश्राम स्वयं में, जिनशासन की छाँव तले ॥51॥

 

गुरु-मिलन वेला में विद्या सूरज की किरणें बिखरी ।

चेतन का ही भान रहा बस, निज तन की भी सुध बिसरी ॥

गुरु ने जो धन दिया मुझे वह, और किसी ने ना देखा ।

चमक गया मम भाग्य सितारा, बदली जीवन की रेखा ।। 52 ॥


आज सुनहरी रात स्वप्न में, दर्श हुए श्री गुरुवर के ।
शांत सहज गुरु लगे निराले, निर्मल शीतल सरवर से ।।

वह अंधियारी रात्रि अद्भुत, प्रकाश लेकर आयी थी ।

रुके काल का वहीं कारवाँ, यही भावना भायी थी ॥ 53॥

 

मिले गुरु पद के निशान अब, और न चाहूँ पथ दर्शक ।

गुरु चलाते मेरा जीवन, और न चाहूँ संचालक ॥

पंच तीर्थ दर्शन गुरु में ही, और न कुछ तीरथ चाहूँ ।

गुरु कृपा ही मांगूँ, और पदारथ ना चाहूँ | 54 ॥

 

भक्तों की जब घनी भीड़ में, गुरुदेव थक जाते हैं।

श्वाँसों में तब स्वानुभूति की, सरगम सुन रम जाते हैं ।।

नयन मूंदकर अपने में ही, मगन गुरु हो जाते हैं।

मुक्तिप्रिया के सपनों में ही, मम गुरुवर खो जाते हैं । 55 ॥

 

जगत प्राणियों की रक्षा हित, बाह्य नयन तो कभी खुले ।

किंतु गुरु के अंतर चक्षु, आत्म दर्श हित नित्य खुले ॥

निरख - निरख कर निज की निधियाँ, फूले नहीं समाते हैं।

अपने शिष्यों को कुछ बूंदें, वचनों से छलकाते हैं|56||


गुरुको पाकर मन अब कहता, कुछ भी रहा नहीं पाना ।

समीप आकर ही मैंने, आत्म रूप को पहचाना ॥

अपनी जब पहचान मिली तो, ज्ञान बाग का सुमन खिला ।

तभी पिंजरे के पंछी को, खुला हुआ आकाश मिला ॥ 57 ॥

 

सहज भाव से जिनने आकर, मेरी सृष्टि सँवारी है।

कुछ ना लेकर दिया बहुत ही, शिष्य सभी आभारी हैं।

माँग रहा था दर-दर मैं तो, मिला नहीं वो ज्ञान कहीं ।

बिन माँगे दे दिया सभी कुछ, चाहत की दरकार नहीं ॥58 ॥

 

स्वारथ के इस जग में देखा, निःस्वारथ ना प्रीत कहीं।

तीन लोक में एकमात्र ही, गुरु-सा कोई मीत नहीं ॥

गुरु के सुमिरन से सुषुप्त सब, भाग्य द्वार खुल जाते हैं।

एक झलक दर्शन पाते ही, मन चाहे फल पाते हैं। 59 ॥
-
गुरु यादों में खोना मानो, शीतल - शीतल छाया है।

इस छाया में रहकर मैंने, स्वर्गों सा सुख पाया है ॥

यदि उपयोग रहे गुरु-पद में, आतम निर्भय रहता

क्योंकि गुरु से जिन तक जिनसे, निज का दर्शन मिलता है ॥60॥

 

गुरु के भक्त अनेकों हैं पर ,गुरु नित इक आतम ध्याते ।

नहीं किसी को अपना माने, अपने में ही नित रमते ।।

अपनों के घेरे में रहकर, भव के फेरे बढ़ते हैं ।

अतः गुरुवर सतर्क होकर, मुक्ति मंजिल चढ़ते हैं ||61||

 

शिष्यगणों को शरणा देकर, गुरु कभी ना मान करें।

शिष्य गुरु की शरणा पाकर, नहीं दीनता भाव धरें ।।

गुरु शिष्य सब प्रसन्न रहकर, कर्म निर्जरा करते हैं।

शिष्य गुरु से दूर जाए तो, झर-झर आँसू बहते हैं ॥62 ॥


गुलाब जैसे चरण आपके, मानो खिला कमल वन है।

भक्त भ्रमर बन मँडराते हैं, करते भक्ति गुंजन हैं ।।

चरण-स्पर्श कर अनुभव करते, अद्भुत ऊर्जा पाई है।

क्योंकि एकमात्र गुरु में ही, प्रभु की शक्ति समाई है || 63 ||

 

बिना सहारे बैठे रहते, तन से किञ्चित् मोह नहीं ।

नीरस लेकर सरस जी रहे ,मन में किञ्चित् क्षोभ नहीं ॥

स्व में सुस्थिर रहने वाले, स्वस्थ स्वयं में व्याप्त रहें ।

जो भी गुरु चरणों में रहते, शिष्य सदा वे स्वस्थ रहें || 64 ||

 

इक करवट से सोते हैं पर, अंतर में गुरु जगते हैं।

एक बार यदि जाग गये तो नहीं दुबारा सोते हैं ॥

अपनी ज्ञाननिधि सँवारते, खुले रहे नित नयनन हैं ।

सुषुप्त जन को जागृत करते, जगतगुरु को वंदन है ॥ 65 ॥

 

भेदज्ञान साबुन से मलकर, चेतन को नहलाते हैं।

भेष दिगम्बर धर रत्नत्रय, आभूषण पहनाते हैं ॥

गुरुवर की सुंदरता लखकर, मुक्तिवल्लभा रीझ गई।

आगम अनुसारी चर्या लख, श्री गुरुवर से प्रीत हुई ||66 ||

 

ध्यान सुरंग खोदकर गुरुवर, कहाँ अकेले चल देते ।

शिष्य ढूँढ़ते रह जाते पर, गुरु दिखाई ना देते ॥

जनसंकुल में भी एकाकी, तन से बैठे रहते हैं ।

मन को सिद्धालय पहुँचाकर, सिद्धों से कुछ कहते हैं || 67 ॥

 

ज्ञान गुफा में एक अकेले, अहो आत्म केली करते ।

अपने ही परमात्म रूप को, नित्य निरखते ही रहते ।।

मुक्तिरमा के भावी स्वामी होने से आनंदित हैं।
यह आनंद प्राप्त करने को, मेरा हृदय प्रतीक्षित है ॥68॥

 

रखे जिस जगह चरण गुरुवर, पावन होते परमाणु ।
वृहस्पति भी समझ सके ना मैं बेचारा क्या जानूँ ।।
अतिशय घटित वहाँ कई होते, सबको अचरज हो आता।

किंतु गुरु निस्पृह ही रहते, रखते हैं हर पल समता ॥ 69 ॥

 

बनकर मेघ गुरु आये तो, शिष्य मयूरा बन आया।

बने आप श्रीराम गुरु तो, श्रमणी बन मैंने गाया ।।

बन आये गुरु वीरा चंदन का स्वीकार करो वंदन ।

दाता त्राता सब कुछ मेरे, रोम-रोम से अभिनंदन ॥ 70 ॥


ज्ञान-ध्यान दो झरने गुरु में, संयम गिरि से झरते हैं।

भक्त जनों की कर्म कालिमा, पलभर में ये हरते हैं॥

पंचमयुग में भी श्री गुरुवर, तीर्थंकर सम बन आये।

सिद्धक्षेत्र सम तीर्थ तुम्हीं हो, कहो कहाँ अब हम जायें ॥ 71 ॥

 

प्रभु सम पावन गुरु से पूछा, आप धरा पर क्यों आये ।

शांत भाव से बोले गुरुवर, जग में मिथ्यातम छाये

ज्ञान रवि की किरण लिये मैं, वसुंधरा पर हूँ आया ।

जागो जागो भव्य प्राणियों, तजो मोह ममता माया ॥ 72 ॥


पापास्रव का द्वार बंद कर, संयम शैय्या पर सोते ।
इक विकल्प की आहट पाकर, सावधान हो जग जाते ॥

लक्ष्य रहा दिन-रात गुरु का, स्व का संवेदन करना ।

सहज भाव कर्त्तव्य सहज ही, पर का कर्त्ता ना बनना ॥ 73 ॥


गुरु के स्वच्छ ज्ञान दर्पण में, झलक रही शिवनारी है।

उसे रिझाने जप तप करते, भेष दिगम्बर धारी हैं ॥

मुक्तिवधू ने समता दूती, गुरु समीप में भेजी है।

कहलाया हम तुम्हें वरेंगे, बात हमारी पक्की है ॥74 ॥

 

अरबपति भी जड़ धन पाकर, सुखी नहीं हो सकता है।

गुरु- कृपा का चेतन धन पा, दुखी नहीं रह सकता है ॥

हाथ गुरु का यदि सर पर हो, फिर दरकार भला किसकी।

भाग्य स्वयं दौड़ा आता है, महिमा है यह गुरुवर की ॥75 ॥

 

बार-बार एकांत प्राप्त कर, समता दूती से मिलते।

नयन मूँदकर हृदय खोलकर, जी भरकर बातें करते ।

नंत स्नेह करता मैं उससे, शिवनारी से कह देना ।

संदेशा यूँ देते उसको, कहे; किसी से ना कहना ॥76॥

 

गुरु के ज्ञान बाग में सुंदर, समता रूपी वापी है।

तत्त्वज्ञान के शीतल जल की, परम सुगंधी आती है ||

गुरु चरणों की हरियाली में शिष्य परिन्दे आते हैं।
कलरव करते गुरु- गुण गाते, उमंग से भर जाते हैं ॥77॥


जिनशासन के गगनांगन में, गुरु चाँद से दिखते हैं।

तारागण सम शिष्य सर्व ही, गुरु को घेरे रहते हैं ॥

कौन क्षीरसागर को तजकर, क्षारसिंधु को चाहेगा ।

ऐसे गुरु की शरण छोड़कर, अशरण जग में भटकेगा ॥ 78 ॥

 

प्रभु से जो कुछ पा न सका मैं, गुरु से वह सब मिला मुझे।

कभी दूर कर कभी निकट कर, नज़रों में रख लिया मुझे ॥

कभी बोल कर कभी मौन से, गुरु ने मुझको समझाया।

इसीलिए सब द्वार छोड़कर, गुरु का द्वार मुझे भाया ॥ 79 ॥

 

गुरु कृपा को अपने मन में, सहेज करके रखना है।

जो है गुरु के प्रति समर्पण, औरों से ना कहना है ॥

तीन योग से गुरु भक्ति कर, फल इतना ही पाना है।

ना छूटे गुरु चरण कदापि, सिद्धालय तक जाना है। 80 ॥
 

शिष्य माँगता सदा गुरु से, यही शिष्य की परिभाषा ।

निःस्वारथ पथ दिखलाते, बदले में ना कुछ आशा ॥

ज्यों माता अपने प्रिय सुत को, बिन माँगे सब दे देती ।
गुरु-स्नेह की एक झलक ही, शिष्यों में सुख भर देती ॥ 81 ॥


निज स्वभाव को बार- बार जब, भूल-भूल मैं जाता
तब गुरु - छवि ही स्मृति दिलाती, आत्म लीन हो जाता हूँ ।।

इक जैसी ही भाव विशुद्धि, सदा नहीं रख पाता हूँ।
तब मैं सिर रखकर गुरु-पद में, भावों से सो जाता हूँ ॥ 82 ॥

 

गुरुवर जब सम्मुख होते तब, नयन स्वयं झुक जाते हैं।

गुरु - विरह में श्वाँसों के सब, सरगम रुक-रुक जाते हैं।

कीलित होते हाथ पैर सब, तन निष्क्रिय हो जाता है।

गुरु सन्निधि से रोग शोक सब, छूमंतर हो जाता है ॥83 ॥


चउ आराधन के स्तंभों पर, टिका हुआ गुरु स्वात्म भवन ।

ज्ञान ध्यान की सामग्री से ,होता रहता नित्य हवन ॥
भक्त सुगंधी लेने हेतु, दूर-दूर से नित आते ।

गुरु को लखकर विभाव तजकर, स्वात्म भाव में रम जाते ॥ 84 ॥

 

आतम ज्ञान प्राप्त करने को, गुरु नाम का ग्रंथ रहा ।

महा मोक्ष मंज़िल पाने में, गुरु-भक्ति ही पंथ कहा ॥

अतः गुरु के सिवा जगत में, मैंने और न कुछ देखा ।

पर का प्रवेश ना हो मुझमें, गुरु खींचो ऐसी रेखा ॥ 85 ॥

 

जिस गलियारे से गुरु गुजरे , रोशन ही वह हा जाता।
जिसे देख ले स्नेह नज़र से, वह उनमें ही खो जाता ॥
पुण्य कवच है सघन गुरु का, शरणागत सुख पाता है।

नहीं चाहता आकर जाना, मम मन भी यह गाता है ॥ 86 ॥


परम प्रशंसक भक्त जनों से, गुरुवर कभी न राग करें।

आलोचक जन से भी गुरुवर, नहीं द्वेष का भाव धरें ॥

इनका कोई शत्रु मित्र ना देखे सबको आत्म स्वरूप ।
अतः भक्त गुरु को प्रभु माने, पा लेते निज-चेतन भूप ॥ 87 ॥

 

जो कुछ भी है अच्छा मुझमें, वह सब गुरुवर का ही है।

जो कुछ दोष दिखे वो मेरे, कर्मों के कारण ही हैं॥

जो है जैसा भी यह बालक, गुरु का ही कहलाता है।

मुझे बनालो जैसा चाहो, यह अधिकार आपका है ॥ 88 ॥

 

गुरु की मन से भक्ति करें तो, विघ्न कभी ना आते हैं।

पूर्व कर्म वश आ जायें तो, शीघ्र पिघल ही जाते हैं।

जैसे हवा वेग से चलकर, बादल दल पिघला देती।

वैसे ही गुरु-भक्ति पाप के पर्वत शीघ्र हिला देती ॥89 ॥

 

संयम भार धरा गुरुवर ने, फिर भी मन आनंदित है।

अपने में एकाकी होकर, रहते नित्य प्रफुल्लित हैं ॥

गुरु के इस अंतर उमंग की, प्यास मुझे भी जग जाये ।
उस उमंग की एक कला का, प्रसाद मुझको मिल जाये ॥ 90 ॥

श्वाँसों को ज्यों हवा जरूरी, त्यों गुरुवर को चाहूँ मैं ।

ज्यों जन्मांध रोशनी चाहें, त्यों गुरु रवि को चाहूँ मैं ॥

चातक मेघ बूँद ज्यों चाहें, वचन सुधा गुरु की चाहूँ ।

सत्यं शिवं सुंदरम् गुरु के, पावन पथ को अपनाऊँ ॥ 91 ॥

 

निजात्म अनुशासन के कारण, सर्व संघ के नायक हैं।

विद्वत् जन कहते हैं गुरुवर, आप मोक्ष के लायक हैं ॥

जैसे अंगुलि के स्पर्शन से, बंद कली खिल उठती है।

वैसे गुरु के मात्र स्मरण से, हृदय कली खिल उठती है । 92 ॥

 

गुरुवर में धीरज आदिक गुण, माननीय हैं अद्भुत हैं।

कलयुग में भी सतयुग जैसे, गुरुवर हैं यह आश्चर्य है ।

रहें निराकुल संघर्षों में, साम्य भाव को धार रहें।

सुमेरु सम निष्कंप यतीश्वर, कर्मों से नहीं हार रहें || 93 ॥

 

भव में दीनहीन होकर मैं, भटक भटक अति खिन्न हुआ ।

पूरी शक्ति लगाकर अब मैं, आप शरण को प्राप्त हुआ ||

मेरे अब सर्वस्व आप हो, ऐसा मन में मान लिया ।

मुक्ति तक ना गुरु बदलूँगा, मैंने निश्चय ठान लिया ॥ 94 ॥

 

स्वानुभूति से आत्म जगत में, नित्य शांत रहने वाले ।

अज्ञजनों के उपद्रवों से, निर्बाधित रहने वाले ॥

गुरु के दिव्य तेज के आगे, नहीं भक्त का कुछ बिगड़े ।

सूर्य कांति के आगे तस्कर, द्रव्य नहीं कोई हड़पे ॥ 95 ॥
 

ईख चूसने वाला बालक, मिठास के वश खाता है।

सुख का तो अनुभव करता पर, तृप्त न वह हो पाता है ॥

उसी भाँति गुरु की सन्निधि का, भक्त गटागट रस पीता ।

पर विस्मय की बात यही कि, अतृप्त होकर वह जीता ॥ 96 ॥


निजानंद रस घोल घोलकर, होली गुरु ने खेली है।

जो भी भक्त - शरण में आते, रंग पिचकारी डाली है ।।

रंगे आप फिर भी नहीं किञ्चित्, यह भी मुझको अचरज है।

भक्त रंगे बस आप रंग से, राग में हेतु तव गुण हैं ॥ 97 ॥

 

सैन्धव नमक डली जल में ज्यों, घुलती त्यों मैं घुल जाऊँ ।

श्रद्धा से गुण महिमा गाकर, आप निकट ही रह जाऊँ ।।

हे गुरुवर तव गुण समुद्र के, जल प्रवाह में नहा रहा ।

शाश्वत इस आनन्द धाम में ,विलीन होना चाह रहा | 98 ॥


गुरुवर से इक अंश ज्ञान पा, तृष्णा और बढ़ी मेरी ।

भस्मक व्याधि के समान ही, एक साथ मुझको घेरी ॥

इसीलिए अब प्रसन्न होकर, मेरे मन में करो प्रवेश ।

पूर्णज्ञान विद्या को पाने, कारण एक तुम्हीं पूर्णेश ॥ 99 ॥

 

नभतल के तुम चाँद गुरु मैं, तारा बनकर आऊँगा।

सिद्ध बनोगे आप गुरु मैं, साधु बनकर ध्याऊँगा ।।

जहाँ कहीं जाओगे गुरुवर, शिष्य वहाँ आ जायेगा ।

गुरु चरणों में किया बसेरा, और कहाँ वह जायेगा ।। 100 ||

 

कब से प्यासा घूम रहा था, इस जग के चौराहे पर ।

था विश्वास बुझायेंगे गुरु, प्यास स्वयं मेरी आकर ।।

इक छोटा सा घूँट पिलाकर, नयन स्वयं के मूँद लिए ।

अब यह स्वाद स्वयं में खोजो, ऐसा कहकर मौन हुए । 101 ॥

 

ध्यान - दशा में देखा गुरु को, रूप प्रभु का दिखता है।

ध्यान किया गुरु का जब मैंने, स्वरूप निज का दिखता है ।।

डूब गया विद्या- सिंधु में, भव-समुद्र तट पाऊँगा ।

है विश्वास गुरु संग मैं भी, सिद्धालय तक जाऊँगा ।। 102 ॥

 

ज्ञान मोह से संवृत होकर अल्पमति मम शेष रही ।

उसी अल्प बुद्धि के कारण, पूर्ण गुरु-स्तुति हुई नहीं ||

जैसे आधी जली काठ क्या, रवि-सा प्रकाश कर सकती।

वैसे मेरी अल्पमति क्या, गुरु-गुण वर्णन कर सकती ।।103 ॥


भोर हुई गुरु के सुमिरन से, शाम ढली गुरु यादों में।

गुरु को सौंपा जबसे जीवन, दिन बीता फरियादों में ।।

यूँ ही जीवन बीते सारा, गुरु नाम रटते रटते ।

अंतिम श्वाँस विदा होवे बस, गुरु ध्यान करते-करते ।। 104 ॥

 

अंत समय में मात्र आपकी, द्वय चरणों की शरण रहे।

गुरु सिवा कुछ और न देखूं, नयनों में गुरु बसे रहें ।

अगले भव में नयन खुले तो, नयनों में गुरु-मूरत हो ।

मुनि बनकर नित रहूँ साथ में, मन गुरु-भक्ति में रत हो ।।105 ॥

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