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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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Blog Entries posted by Vidyasagar.Guru

  1. Vidyasagar.Guru
    सफेद पर सफेद
     मैंने कई बार
     उससे कहा
     कि सफेद पर सफेद से
     मत लिखा करे,
     इस तरह लिखना
     कहाँ दिखता है?
     उसका कहना है कि
     सवाल लिखने का है
     दिखने का ख्याल
     एकदम झूठा है,
     और सफेद पर 
     काला लिखना 
     ठीक भी नहीं लगता,
     सफेद पर तो 
     सफेद ही लिखा जाता है,
     तब कितना भी लिखो-
     कागज़
     सफेद रहता आता है!
     
    White on White
     I told him many a times
     To not write on white paper
     With white ink.
     ‘Who would read it
     If you write like this?’
     He said,’what matters is that you write.
     It matters not
     If no one can see it.
     In any case, to write
     Black on white
     Seems like impropriety.
     White demands white.
     Then no matter how much you write,
     The surface
     Remains white.’
  2. Vidyasagar.Guru
    आत्मीय स्पर्श
     जीवन आकाश-सा हो
     तो विस्तार असीम है
     वृक्ष सा हो
     तो छाया 
     सघन है
     जीवन 
     सूरज-सा हो
     तो रोशनी
     हरदम है
     जीवन में
     आत्मीय स्पर्श हो
     तो हर क्षण स्वर्णिम है!
     
    Soulfulness
     Life is endless
     If it is like the sky.
     Life is dense shade
     If it is like a tree.
     If it is like the sun,
     Then life is light.
     Each moment is ecstacy
     If life has soulfulness
     In it.
  3. Vidyasagar.Guru

    केश लोच सूचना
    💫 धरती के देवता, हम सभी के भगवन् ,अनियत विहारी, अध्यात्म सरोवर के राजहंस, परम पूज्य युग श्रेष्ठ , संत शिरोमणि आचार्यश्री १०८ विद्यासागर जी महामुनिराज के आज प्रातः कालीन बेला में केशलोंच अंतरिक्ष पार्श्वनाथ शिरपुर जैन  में संपन्न हुये।
     
  4. Vidyasagar.Guru
    दाता
     उसने कुछ नहीं जोड़ा,
     लोग बताते हैं
     पहनने का एक जोड़ा भी
     उसके पास
     नहीं मिला,
     ज़िन्दगी भर अपना सब
     देता रहा,
     दे-देकर
     सबको जोड़ता रहा!
     
    Giver 
    He did now save 
    anything. 
    People say,he did not leave 
    even a set of clothing. 
    He gave away what he had 
    all through his life . 
    By giving, he collected 
    every one around him.
  5. Vidyasagar.Guru

    सूचना
    💫 धरती के देवता, हम सभी के भगवन् , अनियत विहारी, अध्यात्म सरोवर के राजहंस, परम पूज्य युग श्रेष्ठ, संत शिरोमणि आचार्यश्री १०८ विद्यासागर जी महामुनिराज के आज कवर्धा में में केशलोंच हुए 💫
  6. Vidyasagar.Guru

    कर्म कैसे करें
    हम सभी के जीवन में अनुभव करते हैं कि सुख भी हैं और दुःख भी हैं और ये ठीक ऐसा है, जैसे धूप-छाँव हैं, सूर्य उगता भी है और अस्त भी होता है। खेल खेलते हैं तो हार भी होती है, जीत भी होती है। धन्धा करते हैं तो लाभ भी होता है, हानि भी होती है। लेकिन कोई अगर इन दो में से किसी एक को स्थाई मान लेवे तो वही उसके दुःख का कारण है और जो दोनों के बीच, दोनों को स्थाई नहीं मानता है और दोनों के बीच शांति से अपना जीवन जीता है, वह बहुत आसानी से अपने जीवन को ऊँचा उठा लेता है। हम लोगों के साथ मुश्किल यह है कि जब सुख के दिन आते हैं, तब हमारे किसी पूर्व पुण्य के उदय से, साता के उदय से जब थोड़ी सी हमारे जीवन में अनुकूलता आ जाती है तब हम अहंकार कर लेते हैं और ये भूल जाते हैं कि ये क्षण भी थोड़ी ही देर टिकने वाले हैं और इसी तरह तब उसमें हम गाफिल होकर के भी अपना अहित करते हैं और इसी तरह जब हमारे अपने किसी पूर्व संचित असाता कर्म के फलस्वरूप हमारे जीवन में पीड़ा, दुःख और संकट हमें घेर लेते हैं, तब हम उसके चलते इतने बेसुध हो जाते हैं कि अपने उस अनन्त सुख को जो कि हमारा स्वभाव है, विस्मृत कर देते हैं और ये मानकर बैठ जाते हैं कि अब मेरा जीवन व्यर्थ है, जिन्दगी हो गई मैंने कभी सुख का अनुभव नहीं किया। हमेशा मुझे दुःख ही दुःख मिला और जीवन से हम निराश हो जाते हैं। ऐसा व्यवहार तो हम अपने सुख और दुःख दोनों के साथ अभी तक करते आये हैं लेकिन हम उस समय याद रखें कि धूप-छाँव थोड़ी-थोड़ी देर की होती है और उसमें हमें किस तरह अपना रास्ता व्यतीत करना है ये हमारे ऊपर निर्भर करता है। जब हम रास्ते से चलते हैं तो धूप भी आती है, छाँव भी आती है। सुबह की रोशनी में यात्रा करते हैं, शाम होते-होते और रोशनी समाप्त हो जाती है। अँधेरा आ जाता है तो क्या हम अपनी यात्राएँ स्थगित कर देते हैं। नहीं, हम विश्राम करते हैं और सुबह का इंतजार करते हैं कि सुबह फिर सूरज उगेगा। क्या ऐसे ही जब मेरे जीवन में कोई क्षण दुःख के आये, क्या मैं उस समय ऐसा ही मान करके कि चलो मेरे विश्राम के क्षण हैं, इनमें ज्यादा, ज्यादा संक्लेशित होने से कुछ नहीं होगा, शांत रहने से ये आसानी से निकल जायेंगे। ऐसा विचार करते हैं क्या ? नहीं कर पाते हैं यही इतना और अपने को सीखना है। दो लोग धूप में चले जा रहे हैं और थोड़ी देर जब आगे जाकर दोनों छाया में पहुंचे, तो एक सोच रहा है कि अभी इतनी दूर से धूप में चलकर आये थे, थोड़ी सी छाया मिली, आगे फिर धूप दिख रही है और ऐसा सोच करके छाया में खड़े होकर के भी संक्लेशित हैं। ऐसा भी हम लोगों के साथ है और दूसरा व्यक्ति वो भी छाया में खड़ा है और विचार कर रहा है कि देखो, कितनी बढ़िया तो छाया है, आगे बस थोड़ी सी धूप है उसके बाद तो फिर छाया आ जायेगी। वो भी छाया में खड़ा है और छाया का आनन्द ले रहा है। सुख के क्षणों में इतने गाफिल नहीं होना कि दूसरे के दुःख को न समझ पायें और दुःख के क्षणों में इतने ज्यादा निराश नहीं होना कि फिर जीवन में सुख की आशा ही समाप्त हो जाये। इतना यदि हम सीख लेवें तो ये सुख और दुःख, धूप-छाँव की तरह आयेंगे और निकल जायेंगे। मेरा ज्यादा बिगाड़ नहीं कर पावेंगे। क्या ये, ये टेक्निक हमको सीख लेनी चाहिये। है तो अच्छी पर देर बहुत लगेगी, इसको सीखने में थोड़ा और विचार कर लेवें कि मेरे जीवन में सुख के क्षण कैसे मैं ज्यादा कर सकता हूँ और दुःख के क्षणों को कैसे मैं घटा सकता हूँ। आयेंगे तो दोनों लेकिन उनका ड्यूरेशन मैं किस तरह से मेन्टेन करके रख सकता हूँ और इसके लिये आचार्य भगवंतों ने एक सूत्र दिया है। अगर हमारे जीवन में आज सुख आता है तो उसका कारण हमारे भीतर ही मौजूद है। उसके लिये हमने जो प्रयास (एफोर्ट) किया था वो हमें जरूर याद रखना चाहिये। सुख में इतने गाफिल नहीं हो जाना चाहिये कि मैंने इस सुख के पाने के लिए जो प्रयास (एफोर्ट) किया है वो भूल जाऊँ और दुःख के क्षणों में भी इतने निराश नहीं होना चाहिये कि अपने बारे में ये न सोच सकें कि मैंने ये दुःख आखिर कमाया कहाँ से ? इसका इंतजाम मैंने ही किया होगा। अब मैं आगे सावधानी रखू, नहीं तो फिर मुझे लगातार (कन्टीन्यू) इसी दुःख को भोगना पड़ेगा। तब एक सूत्र रखा। असल में, बात तो सिर्फ इतनी है कि दूसरों को सुःख पहुँचाने की सारी चेष्टाएँ अन्ततः अपने को सुख पहुँचाने की हैं और दूसरे के सुख का विचार करना अन्ततः अपने सुखी होने का सीधा सच्चा सा उपाय है, बात तो इतनी सी है कि मेरे द्वारा दूसरे को सिर्फ सुख ही पहुँचे, कभी दुःख न पहुँचे बस बात इतनी सी है। सोच इतना भी आवश्यक है अब इसको हम कैसे अपने जीवन में एप्लाई करते हैं तो उसके लिये एक सूत्र दे दिया - 
    "भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्य।” 
    अगर मेरे जीवन में मैंने साता और सुख का अनुभव किया है तो उसका कारण भी मेरे भीतर है और अगर मुझे इसे और अधिक बढ़ाना है, अपने सुख को विस्तार देना है तो फिर मुझे उन कारणों को अपने जीवन में लाना चाहिये, जिन वजहों से मुझे आज सुख मिला, वे वजह क्या रही होंगी उस पर विचार करें ताकि इनको फिर से जीवन में ला करके आगे के सुख का इन्तजाम किया जा सके। इसलिये जानना बहुत जरूरी है कि आज मुझे जो सुख मिलता है मैं तो ये सोचता हूँ कि मेरे अपने इफर्ट (प्रयास) से मिला है, मेरे अपने वर्तमान के इफर्ट (प्रयास) से मिला है। सुख और दुःख सिर्फ वर्तमान के ही किये गये कर्म से नहीं मिलता हमारे अपने पूर्व के संचित कर्म भी उसके साथ जुड़े हुए है, ये हम पिछले दिनों समझ चुके हैं। 
    "भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्य।" 

    भूत किसे कहते हैं? जो इन्द्रियादि प्राणों से जीता है उसे भूत या प्राणी कहते हैं। भूत का मतलब न ‘पास्ट टेन्स' 'न घोस्ट' है, नहीं तो आप भूत के मतलब और कुछ समझें। भूत के मायने है प्राणी जो कि आयु आदि प्राणों से जीता है उस पर अनुकम्पा करना और इतना ही नहीं प्राणी तो सब हैं लेकिन उनमें जो व्रती हैं उनका विशेष ख्याल करना। व्रती दो ही हैं। श्रावक भी हैं और साधुजन भी हैं। इन दोनों के ऊपर अनुकम्पा के मायने क्या है? आचार्यों ने लिखा कि दया से द्रवीभूत होकर दूसरे के ऊपर आये दुःख को अपना मानकर जो भीतर काँप जाता है मन, वो कहलाती है अनुकम्पा और हम तैयार हो जाते हैं ठीक वैसे ही जैसे अपने ऊपर दुःख आने पर उससे बचने के लिये हम तैयार हो जाते हैं। ठीक ऐसे ही दूसरों का दुःख अपना जानकर के उसे उससे बचाने के लिये जो प्रयत्न करते हैं वो है अनुकम्पा। सिर्फ इतने से तो आधा काम चलेगा कि हमारे मन में दूसरे के दुःख दूर करने का भाव आ गया, बहुत अच्छी चीज है। आधा काम तो हो गया लेकिन अब उस दुःख दूर करने का यथासम्भव उपाय और प्रयत्न क्या हो सकता है ? इस पर भी विचार करना और उसको जीवन में एप्लाई करना। हमने पहले अपने जीवन में ऐसा करा होगा तब हमको आज जितनी भी सुख-सुविधा मिल रही है वो उसी के परिणामस्वरूप मिल रही है। ऐसा विचार साथ में करते रहना जब भी साता अपने जीवन में, जब भी सुख महसूस हो तो फौरन याद आ जाये कि मैंने कितना पुरुषार्थ किया होगा पहले, मैंने कितनी प्राणी मात्र के प्रति दया से भरकर के उनकी सहायता करने का भाव किया होगा और आज, आज मैं अपने सुख में गाफिल होकर के चाहे जिसकी क्षति करता हूँ, मेरी अपनी बिल्डिंग बनवाने के लिये अगर चार लोगों की मुझे झोपड़ी मिटानी पड़े तो मैं मिटा देता हूँ। अरे वाह, मेरे अपने धन पैसे के कमाने के लिये, इकट्ठे करने के लिये अगर मुझे चार लोगों की गर्दन दबानी पड़े तो मैं तैयार हो जाता हूँ। इतना तो दयालू हूँ कि चींटी पर पैर नहीं रखता, लेकिन किसी भी संज्ञी-पंचेन्द्रिय को जीवन से, मेरे सुख की उत्पत्ति के लिये दूसरों को मुझे दुःख में डालना पड़ेगा इसका मैं ध्यान नहीं रखता हूँ। ऐसा विचार आ जाना चाहिये तब कहलायेगी कि वाकई में “भूतव्रत्यनुकम्पादान” ये हमारे भीतर आ जाता है। 

    गाँधीजी के जीवन की घटना है। जब वो जेल में थे। सत्याग्रह का अवसर था तब उनको जेल हुई थी और उसमें एक अफ्रीकन नीग्रो भी था। पता नहीं कोई पुराना संचित कर्म होगा जिससे कि उस नीग्रो के मन में गाँधी जी के प्रति प्रेम नहीं था, उल्टा द्वेष का भाव था लेकिन गाँधीजी के मन में उसके प्रति कोई द्वेष का भाव नहीं था, प्रेम ही था। उसके प्रति दया और करुणा का भाव था और एक दिन ऐसा हुआ, वैसे तो गाँधीजी को सब कामों में तकलीफ ही देता था। जेल में कहीं उनका भरा हुआ पानी का लोटा लड़का देगा, कहीं लोटा छुपा देगा, कहीं और दूसरे उपद्रव करेगा। लेकिन चुपचाप रहते थे गाँधीजी। एक दिन मालूम पड़ा कि आज तो वो दिख ही नहीं रहा है, क्या उसकी छुट्टी हो गई ? क्या वो जेल से चला गया। पूछा। बोले - नहीं, वो तो जेल में ही है उसको तो बहुत लम्बी सजा होवेगी। तो फिर आज दिखा नहीं सवेरे से, मेरा कुछ उपद्रव भी नहीं किया, उसने। हाँ वो ढूँढ रहे हैं वो कहाँ चला गया, जो उनके साथ दुर्व्यवहार करता है, उसको ढूँढ रहे हैं। दया तो ऐसी ही चीज है, अपने साथ में भला करने वालों के प्रति तो सबके मन में होती है, किसके मन में नहीं होती है भैया लेकिन प्राणी मात्र के प्रति, जहाँ जहाँ साँस है, जहाँ-जहाँ धड़कन है, वहाँ सब जगह मेरी करुणा पहुँचनी चाहिये ऐसा हमने पहले किया होगा इसलिये आज जितना सुख मिला है। आज नहीं कर रहे हैं तो आगे के लिये नहीं मिलेगा। अब क्या हुआ कि वो मिल गया। वो तो बीमार था। उसको तो बहुत तेज बुखार था। अब गाँधीजी पट्टी रख रहे हैं। ठण्डी पट्टी, उसका इलाज कर रहे हैं। सारा दिन व्यतीत हो गया, सारी रात कट गई, आँख नहीं लगी और सुबह-सुबह जब उसका बुखार कम हुआ, उसने आँख खोली तो वो दंग रह गया कि ये तो वो ही महाशय हैं जिनको कि मैं इतने दिन से हमेशा तकलीफ देता हूँ। क्या ये सारी रात जागकर मेरी सेवा करते रहे। अब उसके परिणाम बदल गये। कल तक जो दुःख में निमित्त बनता था आज वही एक-एक बात का ध्यान रखने लगा कि गाँधीजी को कोई कष्ट न हो जाये और जब गाँधीजी के सत्याग्रह का, वो जेल का समय पूरा हो गया, बाहर निकले तब उसने कहा कि मैं आपसे एक ही प्रार्थना करता हूँ कि थोड़ी दूर भेजने के लिये मुझे अपने साथ ले चलो जेल वालों से कहकर के। गाँधीजी के कहने से उस व्यक्ति को गाँधी जी के साथ जहाँ उनको लखनऊ जाना था या इलाहाबाद आना था, वहाँ तक भेजने वो साथ में आया। जब लौटने लगा. ईमानदारी से लौटेगा. जेल से भाग भी सकता था लेकिन अब, अब ऐसा नहीं करेगा और लौटने लगा तो गाँधीजी ने जो घड़ी वे रखे रहते थे वो घड़ी उसको दे दी। कहते हैं जीवन भर मरण के अंतिम क्षण तक वो अपने पास घड़ी गाँधीजी की दी हुई रखे रहा और उसका जीवन ही बदल गया। ऐसा विचार आना चाहिये कि जब-जब मैं किसी दूसरे के दुःख में निमित्त नहीं बनता हूँ और जितनी यथासंभव उसके सुख में निमित्त बनता हैं तो वास्तव में, मैं अपने ही सुख का इंतजाम करता है।
     
    इसलिये आचार्य भगवंतों ने लिखा कि प्राणी मात्र के प्रति अनुकम्पा, ‘दया' नहीं लिखा, दया में तो गुंजाइश है कि आ गये दया का भाव, बस आगे बढ़ गये। नहीं, ठीक वैसा ही दुःख महसूस हो रहा है जैसा दूसरे को हो रहा है इसलिये अब मेरे से सहा नहीं जाता । जैसे अपना दुःख नहीं सहा जाता, ऐसे ही दूसरे का नहीं सहा जा रहा है इसलिये मैं उससे उसे बचाने के लिये निरन्तर प्रयत्न कर रहा हूँ। तब तो कहलायेगी अनुकम्पा। हनुमान जी वापिस लौटने लगे जब रामचन्द जी अयोध्या लौट आये और राज्याभिषेक हो गया उनका, गद्दी पर बैठ गये। हनुमान जी भी लौट रहे हैं। सब तो कह रहे हैं, सुग्रीव भी कह रहे हैं कि जब आपको जरूरत लगे तब हमें जरूर याद करना, हम आपके साथ हैं, और सब जाते समय कह रहे हैं। हनुमान जी कुछ भी नहीं कह रहे हैं और जा रहे हैं तो सीता जी ने धीरे से कहा कि आप तो इतने भक्त हैं आप कुछ भी नहीं कह रहे, आप कुछ तो कहो कि कभी जरूरत पड़े, तो क्या कहा था उन्होंने, मैं तो यही चाहता हूँ कि रामचन्द्र जी को मेरी जरूरत कभी ना पड़े। मतलब तुम बचना चाहते हो उनकी सेवा से। नहीं, मैं सेवा से नहीं बचना चाहता। उन पर जब दुःख आयेगा तब न, मेरी जरूरत पड़ेगी। मैं तो चाहता हूँ उन पर दुःख ही नहीं आये इसलिये मेरी जरूरत ही नहीं पड़े। वास्तव में तो अनुकम्पा यही है कि दूसरे को दुःख ही ना हो, मेरी जरूरत ही ना पड़े और अगर किसी को दुःख है तो मैं उसके लिये प्रयत्न करूँ, उससे दुःख से बचाने का और त्यागी व्रती के प्रति तो विशेष रूप से उनके दुःखों से उन्हें बचाने का, उन्हें मोक्ष मार्ग पर लगाये रखने का। वे सच्चे सुख की खोज में निकले हुए हैं अगर हम उनकी सेवा करेंगे तो हम भी सच्चे सुख को पा लेंगे इस भावना के साथ। इसलिये विशेष रूप से त्यागी-व्रतीजनों के प्रति अनुकम्पा का भाव, उन्हें कभी भी दुःख ना पहुँचे इस बात का ध्यान बना रहे। मेरे द्वारा उन्हें दुःख ना पहुँचे। भैया दूसरे को अपन सुख तो पहुँचा नहीं सकते। सुख का उपाय कर सकते हैं। सुख पहुँचे, ना पहुँचे, उसके ऊपर है, फिर भी हमारे मन में भावना ये होनी चाहिये कि मेरे माध्यम से दुःख ना पहुँचे और फिर उसके बाद कह रहे है “भूतव्रत्यनुकम्पादान” दान के बारे में तो अपन बहुत समझ चुके हैं। दूसरे के उपकार के लिये अपनी वस्तका त्याग कर देना ये कहलाता है दान। काहे के लिये. दसरे के उपकार के लिये और होता अपना ही उपकार है। देखो अपन तो ये सोचते हैं कि चीजें जोड़-जोड़ के रख लेंगे तो बहुत सुख मिलेगा और यहाँ उल्टी सलाह दे रहे हैं। हम तो अभी तक यही सोच रहे थे कि अपने पास चार चीजें रहें तो अच्छा रहेगा और वे कह रहे हैं कि दूसरे के उपकार के लिये अपनी चार चीजें उसको दे दी तो आपको सुख मिलेगा। ऐसा ही है तो अपने पास जोड़ के रखने में उतना सुख नहीं है जितना कि दूसरे को दे देने में सुख है। उस सुख का स्वाद जिसने ले लिया है वो जानता है। कंजूस आदमी को उसका स्वाद ही नहीं मालूम वो स्वयं भी उससे कभी सुख नहीं पाता, ध्यान रखना। जिन चीजों को हम दूसरों को दे करके सुख नहीं महसूस कर पाते उन चीजों से हम स्वयं भी सुख नहीं ले पाते। हमारी आसक्ति हमें सुख लेने ही नहीं देती उन चीजों का और अगर हमारे मन में अनासक्ति आ जाये, देने का भाव आ जाये तो वह वस्तु हमारे पास न रहते हुए भी और दूसरे को दे देने के बाद भी हमें सुख पहुँचाती रहती है बताओ आप, हमारे पास रहती तो इतना सुख न पहुँचाती। दूसरे के पास पहुँच जाने पर वह हमें ज्यादा सुख पहुँचाती है।
     
    दिया नहीं और सुख शुरू हो गया लेकिन दूसरे के उपकार और दूसरे की प्रीति प्राप्त करने की भावना होनी चाहिये। अपने अहंकार की पुष्टि के लिये नहीं, ये उसके साथ कण्डीशन है तभी सुख पहुँचेगा नहीं तो नहीं पहुँचेगा। तब तो संक्लेश ही होगा। दे देने के बाद जिस चीज के देने के बाद सुख हो समझना कि सच्चा दान है, वो सुख जरूर उत्पन्न करेगा देने के बाद। संसार का यश-वैभव नहीं चाहिये, सब फीका है उसके सामने, वो जो देने का आनन्द है उसके सामने। और अपन ने अगर आज वर्तमान में कुछ पाया है तो उसका मतलब है हमने दिया होगा इसलिये आज पाया है। जो कुछ भी मिला है हमें और फिर कह रहे हैं कि 'सराग संयम', प्राणियों की रक्षा करना और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना इसका नाम है संयम। इसी से सुख उत्पन्न होता है। हम तो सोचते हैं कि कोई हमारा प्रोटेक्शन करेगा तो हमें सख होगा। हम चिन्तित नहीं होंगे, हमें दःख नहीं होगा, लेकिन यहाँ ऐसा कह रहे हैं कि प्राणी मात्र की सुरक्षा करना, उनका संरक्षण करना, उनका घात न हो जायें, ऐसा हमेशा भाव रखना, ऐसी हमेशा क्रिया करना इससे सुख उत्पन्न होगा। हमारे सुख का इंतजाम हम इस तरह कर सकते हैं और अपने मन, वाणी और शरीर पर नियंत्रण रखना क्योंकि ये अनियंत्रित हो जाते हैं तो मेरे दुःख में कारण बनते हैं और अगर  इन पर मेरा नियंत्रण रहे तो यही मेरे सुख में कारण बनने लगते हैं। यही संयम है। सामान्य रूप से तो ये लगता है कि संयम बड़े दुःख का कारण है सब तो छिन जायेगा, कुछ तो रहेगा नहीं, लेकिन वास्तव में, जो सुख है वो प्राप्त हो जायेगा। बाकी चीजें, भले ही कम हो जायें। सो भैया बाकी चीजें कम ज्यादा होती हैं उसका सुख-दुःख नहीं है। जिस व्यक्ति के लिये जितना संतोष है उतना सुख है। देख लो आप, किसी व्यक्ति को अगर बिना शक्कर के दूध पीने की आदत होवे और किसी दिन उसके दूध में शक्कर नहीं डालें तो उसको कोई दुःखी कर सकता है क्या ? या दूसरे के लिये वह अच्छी मिठाई खाते देखकर क्या उसको दुःख हो सकता है ? किसी के घर में जिस व्यक्ति की ये आदत है कि बिना कूलर के रहे उसके घर में कूलर ना हो तो क्या दुःख हो सकता है ? योग का मतलब ध्यान-व्यान नहीं लेना यहाँ पर, और फिर आ गया शांति और शौच जिसके जीवन में, जितनी क्रोधादि कषाओं की निवृत्ति हो गई है वो उतना ज्यादा सुखी है। जो व्यक्ति जिसको क्रोध ही नहीं आता उसको कोई दुःखी ही नहीं कर सकता। वो हमेशा सुखी है, जिसकी जितनी कम कषाय है वो उतना ज्यादा सुखी है। जितना प्रशम भाव रखेंगे उतना ही हम सुखी होंगे और जितना हमारे मन में संक्लेश और द्वेष भाव होगा, द्वेष भाव से दूसरों से हमारी अनबन तो बाद में होती है पहले अपने आप से अनबन हो जाती है, तब तो द्वेष हो पाता है, नहीं तो नहीं हो पाता। अपन कहते हैं कि उनसे हमारी अनबन हो गई, हमारा द्वेष है उनसे लेकिन उनसे अनबन नहीं हुई, पहले भीतर हो गई, पहले भीतर की शांति छिन गई तब फिर बाहर अनबन हुई। हाँ, ऐसा ध्यान रखना। अपन सोचते हैं कि दूसरे का हमने बिगाड़ किया सो दूसरे का बाद में होता है पहले अपना हो जाता है, हमेशा इस बात की सावधानी रखें कि मुझे अपना बिगाड़ नहीं करना है। अगर इतनी भी सावधानी रखें कि मुझे ऐसा करने से मेरा ही बिगाड़ है। 

    अपने मन की शांति कौन खोना चाहेगा ? अपने मन की सहजता कौन खोना चाहेगा ? लेकिन ये सारी चीजें मेरी शांति और मेरी सहजता को भंग करने वाली चीजें हैं अगर मैं गुस्सा कर लेता हूँ, अगर मैं मायाचारी करता हूँ, मैं अहंकार करता हूँ तो मेरी शांति, मैं अपने सुख को स्वयं अपने हाथ से खोता हूँ। क्या हुआ, कांग्रेस की मीटिंग थी, बैठक थी और किसी रूलिंग को पास करना था और टण्डन सभापति थे और नेहरूजी उपसभापति थे। टण्डन जी को कोई काम था सो बाहर चले गये। नेहरू जी उठकर के सभापति की सीट पर आ गये और जो महावीर त्यागी थे वो आये सो उन्होंने जो रूलिंग एक्ट था वो सामने रखा। बड़ी तेजी पर थी ये बात, इसलिये नेहरूजी भी बहुत तेजी में थे उन्होंने अपने हाथ में जो पैंसिल लिये थे, उस पैंसिल से महावीर त्यागी की किताब रखी थी उसको नीचे खिसका के गिरा दिया कि जाओ ऐसी 60 किताबें रोज लिख सकता हूँ, नहीं मानता। त्यागी को भी थोड़ी इनसल्ट फील हुई। उन्होंने कहा कि अगर सामने से किताब फेंकी गई है तो इस तरफ से भी बहुत कुछ फेंका जा सकता है। मीटिंग में हल्ला मच गया। सब तरफ से आवाजें आईं, माफी माँगें दोनों जने। उतने में आ गये टण्डन। नेहरूजी अपनी सीट पर, वे अपनी सीट पर। कोई कुछ कहे इसके पहले ही बात तो नेहरूजी को समझ में आ गई, गलती तो मेरी हो गई। टण्डन से कहा कि अभी मेरे और त्यागी के बीच में कुछ आपसी बात हो गई, उसको छोड़ो जो काम की बात हो वो कर लो, क्यों त्यागी ? मेरी बात से सहमत हो। इससे पहले कि कोई कुछ कहे और नेहरूजी उठे। महावीर त्यागी का हाथ पकड़ा और अपनी कार में उनको बिठाया और ये गये वे गये। 

    एक बार ये समझ में आ जाये कि मेरी मन की शांति को छीनने वाली जो चीजें हैं उनसे मुझे बचते रहना है, मेरे अपने मन की शांति बनाये रखूगा तो अभी इस जीवन में सुख पाऊँगा और आगे भी मेरे सुख का इंतजाम हो जायेगा। लेकिन क्या करें, मैं अपने मन की शांति को अपने ही कर्मों से और खुद नष्ट करता चला जाता हूँ। जरा-जरा सी बातों में और मन को उद्वेलित करके मैंने अपने मन की शांति खोई। इतना ही नहीं, इस शांति को पाने के लिये मैंने पहले कितना पुरुषार्थ किया होगा जो मुझे आज मिल गई और मैं उसका ऐसे ही दुरुपयोग कर रहा हैं। जिस सख को मैंने बहत मश्किल से अपने लिये कमाया, उस सुख के क्षणों में अगर हम आगे के सुख का इंतजाम नहीं करते तो हमसे ज्यादा घाटे का सौदा करने वाला और कोई नहीं इस संसार में। और हम सब ऐसे ही घाटे का सौदा करते रहते हैं कि पहले का बहुत कमाया हुआ आज चार दामों में बेच देते हैं। बहुत सावधानी की आवश्यकता है और आखिरी सूत्र की बात है निर्लोभ वृत्ति। शौच के मायने क्या है - 'निर्लोभ वृत्ति', 'शुचिता', 'पवित्रता', निर्लोभ वृत्ति से आती है पवित्रता। जोड़-जोड़ के रखने से नहीं आती है पवित्रता। पवित्रता तो निर्लोभ होने से आती है। जितना हमारे मन में संचय का भाव कम होगा उतना ज्यादा सुख होगा। जितना अपन संचय करते हैं क्या वो संचित वस्तुएँ मुझे सुख दे पाती हैं, बल्कि उन संचित वस्तुओं की सुरक्षा करने की चिंता और मुझे घेर लेती है। दुकानदार के यहाँ जब तक रखी हैं तब तक मुझे सुख देती हैं क्योंकि मुझे मिल नहीं रहीं। हाँ जिस दिन वो दुकानदार के यहाँ से उठकर मेरे यहाँ रखी जायेंगी उस दिन से उसमें से सुख गायब । वो जो दुकानदार के यहाँ दूसरी आ गईं उसमें सुख दिखेगा। ये रोज का अनुभव है। इसमें कोई बहुत नयी बात नहीं कह रहा हूँ, अपने जीवन में रोज का। फिर उस चीज में से सुख नहीं मिलता बल्कि ये चीज हमेशा बनी रहे, कैसे बनी रहेगी, कोई उठा के न ले जावे, सम्हाल के रखो, इसकी चिन्ता। लाये थे अपने सुख के वास्ते और एक और मुसीबत आ गई। भैया बहुत सीधा सा हिसाब है, जितनी निर्लोभ वृत्ति होगी, जितना चीजों का कम लोभ होगा, जितनी अनासक्ति होगी उतना ही सुख निकलेगा। 

    एक उदाहरण है बनारसीदास का। उदाहरण तो है ही कि जिनके घर में चोर घुसे थे और पोटली भरकर सामान रख लिया था उठाते नहीं बना सो खुद पंडितजी ने उठवा दिया कि ले जावो, अच्छा हुआ कि इतनी मुश्किल और कम हुई। एक बिल्कुल फकीर किस्म का व्यक्ति था। बिल्कुल सज्जन व बहुत कम उसके पास सामग्री थी और उसके घर में चोर घुस गया असल में, उसके रहने की स्टाइल इतनी बढ़िया, इतना प्रसन्न और सुखी व्यक्ति इसके पास होगा कुछ ना कुछ। घुस गये चोर अब जब चोर घुसे तो उनको कुछ नहीं मिला, बड़े परेशान कि ये तो मामला गड़बड़ हो गया और ये जो सजन थे उनकी भी नींद खुल गई। इसने देखा कि कोई घुसा है सो जाकर के चुपचाप उठकर के खिड़की पर बैठ गये और धीरे से कुण्डी भी खोल दी, कहा धीरे से कुछ डरने की बात नहीं है। अब देखो बिना बताये आये हो हमें पहले बता देते कि हम आ रहे हैं तो हम इंतजाम कर लेते। अब तो है ही नहीं कुछ। ऐसा बहुत कठिन है, लेकिन लिखा तो है ऐसा कभी कहीं घटित हुआ होगा ऐसा, इसमें कोई शक नहीं। अब वो चोर भी मुश्किल में है कि ऐसा आदमी नहीं देखा हमने सज्जन, जो यह कह रहा हो कि हमें बताकर आते। तुम यहाँ से खाली हाथ जाओगे इस बात का दुःख मुझे होगा। कुछ ढूँढ करके बताये देता हूँ कि यहाँ कहाँ रखा है। एक बार किसी ने मुझे 10 रुपये का नोट मुड़ा-तुड़ा सा दिया था वो शायद रखा होगा अलमारी में, तुम्हें नहीं मिलेगा। मुझे मालूम है उस कागज के नीचे रखा है और फौरन जाकर के अलमारी खोल करके और निकाल लिया कि ये लो। अब बताइयेगा, खाली हाथ तुम जाओगे तो मुझे दुःख होगा मुझे बिना बताये काहे को आ गये, मैं इंतजाम नहीं कर पाया। आये हो तो ये लेकर जाओ। अब वो चोर क्या कहे, ऐसे साहूकार के पास तो कभी नहीं आया। साहूकार वो जो अपना दे सके और चोर वो तो अपना दे न सके अभी तक मैंने चोरों के यहाँ पर चोरी की थी, आज साहूकार के यहाँ पर आया हूँ जो देने को तैयार है और जाने लगा तो वो सज्जन पुरुष बोले - इतनी ठण्ड में रात में घर जाओगे, कुछ ओढ़कर तो आना था। एक कम्बल है मेरा, इसको ले जाओ। मैं तो इस चार दीवारी के भीतर बैठा हूँ, मुझे उतनी ठण्ड नहीं लगेगी, सहन कर लूँगा। तुम तो बाहर जाओगे, कितनी ठण्ड होगी, ये ले जाओ। सो उसको वो भी उढ़ा दिया, बताओ इतनी निर्लोभ वृत्ति कभी अपने जीवन में जाग्रत हो सकती है क्या ? अपनों के प्रति ही सही चलो पराये के प्रति नहीं। अपनी तो अपनों के प्रति तक नहीं होती है। अगर बहन राखी बाँधने आवे तो भैया चिंतित है। उसको कम्बल और दस रुपये देकर विदा कर दिया खिड़की पर बैठे वो सज्जन चन्द्रमा की तरफ देख रहे हैं। और ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं आज मेरे घर पहली बार तो कोई आया और क्या दे पाया उसे दस रुपये और कम्बल? आज अगर मेरे पास ये इतना सुन्दर चमकीला चन्द्रमा होता तो मैं उसे भी दे देता और वो व्यक्ति वापिस लौटकर आया। उसकी माँ ने कहा कि किसके यहाँ से चुराकर के लाये, पचा नहीं पाओगे इतने निर्लोभी व्यक्ति के, जाओ वापिस लौटा के आओ। तो वो वापिस लौटाने दरवाजे पर खड़ा है और ये जनाब ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं। वो तो गदगद् हो गया, चरणों में गिर गया। दूसरे की निर्लोभ वृत्ति दूसरे को भी निर्लोभ बनाती है। हमारी लोभ की प्रवृत्ति दूसरों में भी लोभ जागृत कर देती है। ये ध्यान रखना आज निरन्तर बढ़ता हुआ लोभ हमारे दुःख का कारण है। हमने पहले निर्लोभ रहकर के ये मनुष्य जीवन का सुख पाया होगा और आज इस मनुष्य जीवन में लोभी होकर के और हम स्वयं अपने सुख से वंचित हैं तो भैया अपन ने इस सूत्र से इतनी बातें सीख लीं कि हम अपनी संकुचित और छोटी वृत्ति को हटावें। सब प्राणी मात्र के प्रति हमारे मन में, दया का भाव आवे। हमारे मन में, हमारे जीवन में जो शक्ति व सामग्री हमें प्राप्त हुई है, जो भौतिक सुख हमें प्राप्त हुए हैं उन भौतिक सुखों में सुख नहीं है। उन भौतिक सुखों के त्याग में सुख है। मैंने पहले भौतिक सुख छोड़े होंगे तब मुझे आज ये भौतिक सुख मिले हैं। आज इन भौतिक सुखों में, मैं अगर रच-पच जाऊँगा तो आगे फिर ये भी नहीं मिलेंगे और आध्यात्मिक सुख तो मिलने वाला ही नहीं है। अगर भौतिक सुखों का त्याग कर देते हैं तो मुझे आध्यात्मिक सुख मिलता है और भौतिक सुख तो रूगन की तरह मिल जाते हैं? क्या कहते हैं उसको कि जब हमने धान की खेती की चावल के लिये तो भूसा तो वैसे ही मिल जावेगा। अगर हमने भौतिक सुखों के प्रति निर्लोभ वृत्ति, अपनी जो हमें सुख सुविधा के साधन मिले हैं जो हमें सामर्थ्य मिली है उसका अगर हम सदुपयोग करें तो हम अपने सुख का इस जीवन में भी और अगले जीवन में भी बहुत अच्छे से इंतजाम कर सकते हैं। इसी भावना के साथ कि हम सब अपने जीवन में उस सच्चे सुख को प्राप्त करें जिससे कि हमारा जीवन अच्छा बने। 

    आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज की जय। 
    ००० 
  7. Vidyasagar.Guru
    विघनहरन विद्यासागर विधान - रचयित्री आर्यिका 105 गुणमति माता जी
     
     
    णमोकार महामंत्र विधान - रचयित्री आर्यिका 105 गुणमति माता जी
     
    श्री पार्श्वनाथ विधान - रचयित्री आर्यिका 105 गुणमति माता जी 1.0.0

     
  8. Vidyasagar.Guru
    गंतव्य
     यात्रा पर निकला हूँ,
     लोग बार-बार
     पूछते हैं,कहाँ कितना चलोगे?
     कहाँ तक जाना है?
     मैं मुस्कुराकर
     आगे बढ़ जाता हूँ,
     किससे कहूँ
     कि कहीं तो नहीं जाना,
     मुझे इस बार
     अपने तक आना है!
     
    Destination
     As I start on my journey
     People ask,
     How far shall you walk
     This time? And where to?
     I smile and move on.
     How should I tell them
     That this time
     I walk
     Towards myself only?
  9. Vidyasagar.Guru

    सल्लेखना सूचना
    *पूज्य गुरुदेव की सुयोग्य शिष्या ब्र.रचना दीदी की समाधि की खबर जिन शासन की अपूर्णनीय क्षति है।पूज्य गुरुदेव की आज्ञा पथ पर चलते प्रतिभास्थली में अध्यापन का कार्य भी कर रही थी।निश्चित तौर पर भव्यात्मा  थी जिन्हें अंतिम समय में देव शास्त्र गुरु का सान्निध्य मिला।हम सभी भी ऐसी ही भावना भाए कि हमारा भी समाधिमरण देव,शास्त्र,गुरु के सान्निध्य में ही हो।
     

  10. Vidyasagar.Guru

    कर्म कैसे करें
    हम सभी लोगों ने पिछले तीन-चार दिनों में एक बार फिर से अपने जीवन को बहुत गौर से देखने का प्रयास किया है। हमारे अपने जो कर्म हैं जिन्हें हम रोज करते हैं या जिन्हें हम कर चुके हैं, वे कर्म हमारे पूरे व्यक्तित्व को, हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं। वे कर्म हमारी वाणी, हमारे विचार, हमारी भावनाएँ और हमारी दिन भर की क्रियाओं को भी प्रभावित करते हैं। 

    ऐसी स्थिति में जबकि मेरे पहले किये हये कर्म मेरे वर्तमान को प्रभावित करते हैं और मेरे वर्तमान के किये हुये कर्मों से भी मेरा वर्तमान प्रभावित होता है, तब क्यों ना ऐसा किया जाये कि इन कर्मों के बारे में ठीक-ठीक जानकारी हासिल करें, क्योंकि मेरा पूरा जीवन कर्मों से ही संचालित है। पहले तो मेरे मन में ऐसा भाव कभी-कभार आ जाता था कि शायद कोई और है जो मेरे जीवन को संचालित करता है, पर अब तो पिछले दिनों से लगने लगा है कि नहीं, हमारे अपने कर्म जो हम कर चुके हैं, या कि जिनके करने की तैयारी है, या कि जो हम कर रहे हैं, वो सब हमारे व्यक्तित्व को, हमारे पूरे जीवन को निर्मित करते हैं। अब जो हमने एक बार किसी से अपशब्द कह दिये हैं, किसी का खोटा कर दिया है, अब उसका फल तो हमको भोगना ही पड़ेगा। बहुत सहज सी बात है, सो ठीक है वो फल तो मुझे भोगना पड़ेगा, लेकिन उस फल को मैं कैसे भोगूं अब ये समझदारी तो मैं अपने अन्दर जागृत कर सकता हूँ। ये चतुराई और ये कला तो मैं सीख सकता हूँ। 

    ये बात जरूर है कि मैंने अपनी लापरवाही, मैंने अपनी अज्ञानता में किसी व्यक्ति के साथ बुरा व्यवहार किया है और उसका फल मुझे जरूर से मिलेगा। लेकिन उस फल को क्या मैं कमी-बेशी कर सकता हूँ ? क्या मैं वो कर्म का फल ना मिले इस बात का इन्तजाम कर सकता हूँ। या कि वो कर्म का फल मुझे मिले तो थोड़ा कम होकर के मिले और या कि उसका स्वाद मैं बदल सकूँ ? तो पिछले दिनों हमने ये भी समझा है कि हमने यदि अपनी अज्ञानतावश कुछ ऐसे काम कर लिये हैं जिनका हमें मालूम है कि फल अच्छा नहीं मिलेगा तो करने के बाद वो जो कर्म मेरे भीतर संचित हो गये हैं उन पर भी मेरा वश है। मैं उनको वहीं के वहीं अपने वर्तमान के पुरुषार्थ को जागृत करके नष्ट कर सकता हूँ। मैं खोटे कर्मों की स्थिति, मैं खोटे कर्मों की शक्ति, इन दोनों को कमजोर बना सकता हूँ। मैं अपने वर्तमान के पुरुषार्थ से, अपने पुराने अच्छे कर्मों को और ज्यादा डोमिनेट कर सकता हूँ। 

    इतना ही नहीं, जब मेरी सामर्थ्य है उन कर्मों के फल को भोगने की, तो मैं उनको (बाद में - आने वालों को) भी समय से पहले लाकर के उनका फल भोगकर के नष्ट कर सकता हूँ। ये तो मेरे अपने बाँधे गये कर्मों की स्थिति है लेकिन जब वे मुझे अपना फल देने के लिये आ जाते हैं, और वे मुझे अपना फल देने लगते हैं, तब मेरी होशियारी इसमें है कि मैं उनका फल लेते समय जरा सावधानी रखू। मैं समता भाव र लेकिन यह कहना तो बहुत आसान है, लेकिन इस प्रक्रिया को थोड़ा सा समझना पड़ेगा। 

    असल में समता भाव रखने का अर्थ है कि अतीत के विकल्पों से मुक्त होना और भविष्य के भय से मुक्त होना। भविष्य की चिन्ता से मुक्त होना और वर्तमान को सँभाले रखना। इसका नाम है अपने कर्म के फल के उदय के समय समता रखना। ये बात अपन को सीख लेनी है। कह तो अपन देते हैं कि समता रखनी चाहिये लेकिन उसके मायने क्या हैं। असल में कब हमारी समता गायब हो जाती है ? कब हर्ष-विषाद होता है ? इस पर विचार करना पड़ेगा। 
     
    जब कर्म अपना अच्छा फल देने लगता है तब हम हर्षित हो जाते हैं और कर्म जब अपना बुरा फल देता है, जो मैंने ही किया था, उसका बुरा फल मिलने लगता है, तो मैं विषाद कर लेता हूँ, यह तो बहुत सामान्य सी चीज है। लेकिन ऐसा क्या है कि जब अपना कर्म फल दे और मैं हर्ष-विषाद से बच सकूँ। तो जरा सा किसी छोटे बच्चे को देखू तो ज्यादा आसानी होगी कि कर्म के उदय को कैसे समता से भोगा जाये। कैसे अतीत की चिन्ता और भविष्य के विकल्प से मुक्त होकर वर्तमान को सँभाला जाये, ये हम उनसे सीख सकते हैं। 

    संसार में सबसे ज्यादा सुखी अगर कोई दिखता है तो साधुजन और या कि छोटे छोटे बच्चे खुश दिखाई पड़ते हैं, प्रसन्न दिखाई पड़ते हैं और उसका कारण क्या है ? आप किसी एक छोटे बच्चे को जोर से डाँट दीजियेगा। डाँटने के बाद वो रोने लगेगा और जैसे ही वो रोने लगे तो फौरन हाथ में आपने मिठाई दे दी। थोड़ा सिर पे हाथ फेर करके प्यार कर लिया। अब जरा देखियेगा उस बच्चे की स्थिति, आँखों में आँसू हैं, चेहरे पर मुस्कान है और हाथ में मिठाई है और आपके पास आकर के खड़ा है, वो ये विचार नहीं करता कि ये वो ही व्यक्ति है, जिसने थोड़ी देर पहले डाँटा था। ये तो कोई दूसरा है, ये तो मुझे प्यार कर रहा है, ये तो मुझे मिठाई दे रहा है। हम और आप हों अगर उसकी जगह पर तो बहुत लम्बे समय तक इस चीज को ध्यान में रखेंगे और बच्चा है तो वर्तमान में देख रहा है कि हाथ में मिठाई है उसका आनन्द लेना चाहिये और सामने वाला सिर पर हाथ फेर रहा है। पहले उसने डाँटा होगा, वो भूल गया है। क्या कर्म के उदय में जो समता रखने की बात आती है, क्या इससे हम कोई दिशा ले सकते हैं इन छोटे-छोटे से बच्चों की प्रसन्नता से। अपने मन की प्रसन्नता गायब ना होने दें कर्म का फल भोगते समय, क्या ऐसा सीख सकते हैं? 

    हमें यही पुरुषार्थ करना है कि जब कर्म अपना फल देने लगे तब हम हर्ष-विषाद से ना घिरें। हम हर्ष-विषाद से क्यों घिरते हैं क्योंकि अतीत की याद आ जाती है। ऐसा ही उस समय हुआ था। जब दुःख आता है तब अतीत की याद आ जाती है कि जिन्दगी निकल गयी मैंने सुख देखा ही नहीं। कभी क्षण भर को सुख मिला था, मेरी जिन्दगी तो पूरी दुःख में ही निकल गयी। मैं कहाँ तक इस दुःख को सहन करूँ ? थोड़ा सा दुःख है वर्तमान में लेकिन अतीत के सारे दुःखों की याद करके मैं अपने उस थोड़े से दुःख को बढ़ा लेता हैं और ऐसे ही जब मेरे किसी साता कर्म का उदय आता है, थोड़ी सुख सुविधायें मेरे चारों तरफ इकट्ठी होने लगती हैं, तब भी मैं उसमें अत्यन्त हर्षित होकर के भूल जाता हूँ कि पिछले दिनों भी तो यही सारे संयोग मिले थे और उन संयोगों में, मैंने इसी तरह से हर्षित होकर अपने जीवन में दःख ही कमाया था। आज हर्ष आया है तो मैं इतना ज्यादा एक्साइट क्यों होऊँ? अगर ये विद्या हमारे लिये सीखने में आ जावे कि हम अतीत से मुक्त हो जावें। 

    और दूसरी चीज ये और है कि जब दुःख आया है तो ये थोड़ी देर के लिये आया है ऐसा नहीं लगता। ये पता नहीं है कब तक चलेगा। आगे भविष्य की चिन्ता और हो जाती है और जब सुख आता है, तब भी चिन्ता होती है कि यह लम्बे समय तक बना रहेगा कि नहीं बना रहेगा। दो-चार दिन में ही न खत्म हो जाये। भविष्य की चिन्ता से ग्रसित होकर के वर्तमान के सुख को बचाये रखने के प्रयत्न में अपना जीवन खो देता हूँ या कि वर्तमान के दुःख को सहन ना करके और उससे बचने के मिथ्या उपाय करने लगता हूँ। 

    तो मेरे अपने कर्म के उदय में, मैं कैसे व्यवहार करता हूँ ? मैं उसके साथ, इसी पर मेरा पूरा व्यक्तित्व और मेरा पूरा जीवन टिका हुआ है। आज अपन को इस कर्म बंध की प्रक्रिया को जीतने का क्या उपाय हो सकता है, इस पर थोड़ा सा विचार करना है क्योंकि बाँधे गये कर्मों के परिवर्तन का विचार हमने कर लिया है, जो बँध गये हैं वे उदय में आकर अपना फल भी देने लगे हैं। सो उसमें जरा सावधानी रखनी है, चतुराई रखनी है, उसके फल भोगते समय यह भी हमने सीख लिया है। लेकिन इन कर्मों को जीतूं कैसे ? अगर ये प्रक्रिया हमेशा चलती रहेगी तो कैसे काम चलेगा। इसलिये उस पर भी अपन विचार करेंगे। क्या कर्मों को जीतने का कोई उपाय है? ऐसा कर्म करूँ जिससे कि मेरे कर्मों से मैं मुक्त हो जाऊँ, क्या ऐसा कोई उपाय है ? वह भी है। आचार्य भगवन्तों ने कृपा करके सारी बातें बहुत व्यवस्थित ढंग से हमें समझाई हैं। हम उसका लाभ लें। अभी अपन थोड़ी सी चर्चा कर लेवें कि कैसे हम अपने सुख-दुःख को अतीत से और भविष्य से जोड़कर के और जब कर्म का उदय आता है तब उसमें समता नहीं रख पाते हैं। सुख को बढ़ा नहीं पाते हैं और दुःख को घटा नहीं पाते हैं, क्योंकि हम अपने सुख के लिये आगे तक भविष्य की चिन्ता से ग्रसित हो जाते हैं और या कि दुःख को और बढ़ा लेते हैं। घटा तो पाते ही नहीं हैं, अतीत में भी ऐसे ही दुःख भोगे, भविष्य में भी भोगने पड़ेंगे। वर्तमान के झेले नहीं जाते।

     
    क्या हुआ एक बार ..... एक राजा का मित्र साधु बन गया और एक दिन राजा को जंगल में उसके दर्शन हुए। तो राजा का मन हुआ अपने मित्र से ..... कभी कोई विपत्ति आवे तो उसमें क्या करूँ ? सबके मन में ऐसा लगता है कि कभी कोई विपत्ति आवे तो ऐसा सूत्र तो कोई मेरे जीवन में आवे कि उससे मैं बच सकूँ। तो अपने मित्र होने की वजह से और निवेदन किया कि महाराज कभी विपत्ति आवे तो कोई मंत्र तो दे दो। उन्होंने कहा कि क्यों चिन्ता करते हो कि विपत्ति आयेगी। विपत्ति आयेगी इस बात की चिन्ता सबसे बड़ी विपत्ति है। अभी विपत्ति आई नहीं है। हम खींच-खाँच के ले आते हैं उसको, अगर आ गई, तो बाबाजी ने तो यही जवाब दिया कि आयेगी ही क्यों ? ऐसा सोचते ही क्यों हो ? बोले, "नहीं महाराज, यह आपके सोचने की बात है, आप वर्तमान में जीते हो, वर्तमान को सँभालते हो। हम तो भैया भविष्य को भी सँभालने में लगे हैं, बिगड़ जायेगा तो क्या करेंगे? कभी विपत्ति आ गई तो आप तो कोई मंत्र देवो, उन्होंने कहा कि देखो जब बहुत बड़ी विपत्ति आये और कोई उपाय ही नहीं सूझे, तब इस मंत्र का उपयोग करना और एक डिब्बी के भीतर एक कागज पर मंत्र लिख कर दे दिया कि इसको रखो, खोलना मत जब तक कि बहुत बड़ी विपत्ति ना आये जिससे कि बचने का उपाय ही ना सूझे, तब के लिये है। ये अपने जीवन में जब कर्म का उदय आये तब कैसे उसको हम झेलें इसकी विद्या है यह। और ऐसा हुआ कि राजा के जीवन में बहुत बड़ी विपत्ति आ गई। पड़ौसी राजा से झगड़ा हुआ, लड़ाई हुई और राजा को हार माननी पड़ी और हारकर के राजा भाग रहा है। पीछे शत्रु के सैनिक लगे हुए हैं और आगे जाकर के देखता है कि मार्ग बन्द हो गया है और पीछे से तो शत्रु आ ही रहे हैं, एक अकेला उतने सौ पचास सैनिकों का सामना क्या करेगा। राजा ने सोचा कि इससे बड़ी विपत्ति और कोई नहीं हो सकती। अब तो मुझे अपने उस मित्र साधु की, उस सूत्र को, उस मंत्र को याद करना ही चाहिये और डिब्बी खोली और डिब्बी में से वो कागज निकला तो उस पर क्या लिखा हुआ था, मंत्र क्या था, “दिस डे विल आलसो पास” अर्थात् ये दिन भी गुजर जाएगा। राजा के मन में प्रसन्नता आ गई कि बात तो सही है। कितनी बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ बीत गईं, ये भी बीत जाएगी और सचमुच ऐसा हुआ कि वे सैनिक आगे वह रास्ता बन्द है, ऐसा जानकर और उस रास्ते से ना जाकर और सीधे सामने रास्ते से निकल गये। राजा सुरक्षित हो गया, घटना कोई बहुत बड़ी नहीं है। 

    राजा ने फिर से अपनी सेना जोड़कर के पड़ोसी राज्य पर आक्रमण किया और जीत लिया, अपना साम्राज्य वापस ले लिया और साम्राज्य वापस लेकर के जीतने का जश्न मनाते समय राजा जब गद्दी पर बैठा हुआ है, तब भी उसे यही बात याद आ गई कि “दिस डे विल आलसो पास'। ये जो विपत्ति का क्षण था, जैसे बीत गया ऐसे ही ये जो मेरे जीवन में मेरे किये हुए पूर्व जन्म के कर्मों की वजह से सुख का दिन आया है, वो भी बीत जाएगा। मैं क्यों उसमें ज्यादा एक्साइट हो रहा है। मुझे विषाद के समय पर डिप्रेस होने की जरूरत नहीं हैं। आया है अगर विषाद का क्षण, तो वो भी गुजर जाएगा और अगर आया है हर्ष का क्षण, तो वो भी गुजर जाएगा। क्या यह एक सूत्र इन कर्मों के उदय के समय, मैं अपने जीवन में काम ला सकता हूँ। मैं अपने वर्तमान को आसानी से सँभाल सकता हूँ। वरना हम तो यही सोचते हैं कि हमारे कर्म उदय में आयेंगे और उनका फल हमें भोगना ही पड़ेगा। तो भैया, इतना सोचना ही पर्याप्त नहीं है, उनका उदय तो आयेगा और उनका फल भी भोगना पड़ेगा। लेकिन फल कैसे भोगना है यह मेरे अपने पुरुषार्थ पर निर्भर है बस इतनी सी बात मुझे मेरे ध्यान में रखनी है। फल तो दुनिया भोगती है, साता का उदय सैकड़ों लोगों को है, लेकिन उस साता के उदय में कौन अपना क्या पुरुषार्थ करता है, इस पर निर्भर करता है उसके अपने जीवन का आगे का लेखा-जोखा। सारा व्यक्तित्व इस पर निर्भर करता है। कितने लोग हैं जिनको कि साता के उदय में सारी सुख-सुविधाएँ मिली हैं। उन सुख-सुविधाओं का कौन कैसा उपयोग कर रहा है। इसके लिये कोई कर्म नहीं है, यह ध्यान रखना। हम यहाँ पर मंदिर आये हैं, हम यहाँ पर धर्म सभा में बैठे हैं, किसी कर्म के उदय से नहीं बैठे हैं। 

    हम यहाँ पर अपने किसी कर्म को हटाकर के अपने पुरुषार्थ को जाग्रत करके यहाँ तक आये हैं। किसी कर्म के उदय में यहाँ पर नहीं आये हैं यह ध्यान रखना। सारी चीजें सिर्फ कर्म के उदय से होती हों ऐसा नहीं है, मेरे अपने पुरुषार्थ से भी होती है, मेरे कर्म के उदय ने तो बस इतना ही किया है कि यहाँ आने में बाधा उत्पन्न नहीं की है पर लाने में मझे मदद नहीं की है। आया तो मैं अपने पुरुषार्थ से हूँ। बस इतना ही जरूर हुआ है कि जब मैंने अपने पुरुषार्थ को जागृत किया तो बस वह कर्म मेरे बीच में बाधक नहीं बन सका। वो आ सकता था और अगर वो बाधक हो जाता तो हो सकता है कि मैं बाहर ही कहीं एंगेज हो जाता और यहाँ नहीं आ पाता। इतना तो कर्म का वश है, लेकिन कोई भी कर्म किसी को शराब खाने की तरफ ले जाएगा या कि जिनालय की तरफ ले जायेगा, निर्धारित नहीं करता। ये निर्धारित मैं करता हूँ कि मेरे पैर किस तरफ मुड़ना चाहिये। कर्म तो किस तरफ पैर मुड़ेंगे वहाँ पर बाधा डाल सकता है। हमें उस तरफ बायफोर्स (बलपूर्वक) ले नहीं जा सकता। ये ध्यान रखना। ये हमारा पुरुषार्थ है। कोई ये कहे कि मैं क्या करूँ मेरे कर्म का उदय है। मुझे तो चोरी करने का मन होता है। ये मेरी अपनी च्वाइस है, यह मेरे अपने कर्म का उदय नहीं है। हाँ अगर चोरी करते समय मुझे बाधा पड़ेगी, तो यह मेरे कर्म का उदय है। मंदिर आते समय मुझे बाधा पड़ेगी तो यह मेरे कर्म का उदय है लेकिन मंदिर लाने वाली कोई कर्म की प्रकृति नहीं है कि जो मुझे मंदिर तक लेकर आये। यह मेरा पुरूषार्थ है, नहीं तो सब चीजें कर्म के उदय से ही होती हों ऐसा भी नहीं समझना। हम सामान्य रूप से यही मानकर चलते हैं लेकिन बहुत सी चीजें हम अपने पुरुषार्थ से करते हैं, इसलिये हमने यह बात बहत अच्छे से सीखनी है कि हम इस बात का रोना नहीं रोएँगे कि क्या करें हमारे कर्म का उदय है। हम सब इस बात का ध्यान रखेंगे कि क्या करें मेरे अपने वर्तमान के पुरुषार्थ में कहीं कोई खोट है कि मेरे कदम जो हैं उस तरफ क्यों मुड़ जाते हैं, क्यों नहीं मैं अपने कल्याण के रास्ते पर चलता हूँ। वो मुझे मुश्किल में डाल सकता है, अगर वो असाता का उदय है तो मुझे मुश्किल खड़ी कर सकता है। लेकिन मुझे मुश्किल के दौरान विषाद करना है या नहीं करना है, संक्लेषित होना है या नहीं होना है, यह तो मेरे ऊपर निर्भर करता है।

    आपको थोड़ा सा लगेगा कि वह बात तो कुछ ठीक नहीं जमती। अपने को लगता तो ऐसा ही है पूरी जिन्दगी निकल गयी ऐसे ही और अपने पास ढेर सारे उदाहरण हैं। हम भी देना चाहें तो ढेर सारे उदाहरण दे सकते हैं कि कौन ऐसा है जिसे कर्मों का फल न भोगना पड़ा हो, चाहे राजा रामचन्द्र जी हों, चाहे भगवान महावीर हों और चाहे पहले तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव जी हों, सबको अपने कर्मों का फल भोगना पड़ा। तो मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि किसी को अपने कर्मों का फल नहीं भोगना पड़ा हो। मैं तो यह कह रहा हूँ कि कोई कर्मों का फल रो कर भोगता है, कोई हँसकर भोगता है। कोई शांति से भोगता है और कोई घबराहट से भोगता है, इतना ही है। भगवान ऋषभदेव के भी छः महीने कर्म का उदय रहा और उनको अन्तराय रहा लेकिन उन्होंने उस अन्तराय को कैसे भोगा, यह देखने की बात है। महत्वपूर्ण यह है उनके छः महीने कर्म का उदय रहा, यह महत्वपूर्ण नहीं है। वो तो किसी के भी रह सकता है लेकिन उसे उन्होंने कैसे भोगा ..... शांति से, समता भाव से भोगा, ये कला भी हमें सीखना पड़ेगी। अब देखे कि हम कर्मों को जीत सकते हैं क्या ? 

    कर्मों को जीतने के तीन उपाय हैं। पहला तो यह है कि बाह्य वातावरण से जितनी जल्दी हो सके सामंजस्य बना लेना चाहिये। कर्मों के उदय में यह स्थिति गड़बड़ा जाती है। सामंजस्य नहीं रह पाता। या तो बहुत हर्षित हो जाते हैं या कि विषाद कर लेते हैं। दोनों ही चीजें हो जाती हैं, दोनों ही सामंजस्य नहीं है। सद्भाव और अभाव दोनों ही स्थितियों में सामंजस्य बनाकर के रखना। 

    और दसरी चीज प्रतिक्रिया ना करें ऐसी कोशिश करना। करनी पड़े तो कम से कम प्रतिक्रिया करें और यदि प्रतिक्रिया करें भी तो बहुत पोजिटिव हो, बहुत रचनात्मक और कन्सटक्टिव हो, डिस्ट्रक्टिव प्रतिक्रिया ना हो। या तो प्रतिक्रिया ना करें और अगर होती भी है तो अल्प करें, और उसमें भी ध्यान रखें कि वह प्रतिक्रिया रचनात्मक हो। 

    और तीसरी चीज संसार के घात-प्रतिघात से बचने का प्रयत्न करे। क्योंकि संसार में यही चलता रहता है। ये तीन ही चीजें हैं जिन पर हम विचार करें तो इससे हमारे कर्मों को हम व्यवस्थित कर सकते हैं। कर्मों को सही दिशा दे सकते हैं। अभी तो हमने अज्ञानतापूर्वक जो बाँधे थे कर्म, उनको व्यवस्थित किया है और वो जब उदय में आयेंगे, तो अपने को व्यवस्थित कर लिया है और अब जरा इस प्रक्रिया को और समझ लेवें कि वर्तमान में कर्म कैसे करना है तो बाह्य वातावरण से जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी सामंजस्य करना क्योंकि यहाँ इस संसार में सबको सब चीजों का सद्भाव नहीं है और सबको सब चीजों का अभाव नहीं है। कुछ चीजों का सद्भाव है, कुछ चीजों का अभाव है और जब मेरे जीवन में कुछ चीजों का सद्भाव होता है और कुछ चीजों का अभाव बना रहता है तो जब सद्भाव होता है तो मैं भूल जाता हूँ कि मुझे उस सद्भाव में उन चीजों का सदुपयोग कैसे करना चाहिये। तब मैं उनका दुरुपयोग करने लगता हूँ और जब उन चीजों का अभाव होता है, तब मैं उन चीजों को प्राप्त करने के लिये चाहे जैसा उपाय करने लग जाता हूँ। मैं दोनों स्थितियों में अपने स्वधर्म से, अपने कर्त्तव्य से विमुख हो जाता हूँ। बस, यहाँ जाकर के मैं अपना सामंजस्य खो बैठता हूँ। वर्तमान के कर्मों को व्यवस्थित करने का उपाय यही है कि जो सद्भाव और अभाव है चीजों का, उसके बीच में देखू कि कैसे मैं अपने स्वधर्म को या कि कर्त्तव्य को निभाता रहूँ, क्योंकि चीजों के सद्भाव में भी मैं अपने कर्त्तव्य से विमुख हो जाता हूँ और चीजों के अभाव में भी मैं कर्त्तव्य से विमुख हो जाता हूँ। अपार धन हो, उसके सद्भाव से भी मैं अपने कर्त्तव्य से विमुख होता हूँ या कि धन का अभाव हो तब भी मैं अपने कर्त्तव्य से विचलित होके या कि मिथ्या कार्य करके धन सम्पत्ति अर्जित करने लगता हूँ। दोनों ही स्थिति में मेरा बाह्य वातावरण से सामंजस्य खो जाता है। चाहे सद्भाव हो या अभाव हो दोनों के बीच जो बेलेन्स करके चलता है, वो ही जीत पाता है। इन कर्मों को जीतना है अगर तो इन दोनों के बीच सामंजस्य रखें।

    जीवन में हम देखते हैं कि किसी के पास धन पैसा है तो ज्ञान नहीं है। किसी के पास बुद्धि है तो शरीर ठीक नहीं है। किसी के पास में अगर धन पैसा है तो बेटा नहीं है, और अगर बेटा है तो शराबी निकल गया है। इधर सद्भाव है और उधर अभाव भी है और इन दोनों के बीच में हम कोई सामंजस्य नहीं बिठा पाते हैं। क्षण भर को और लोगों की तरफ देखते हैं कि और लोगों की अपेक्षा मेरे बेटा तो है कम से कम, तो जरा दिलासा मिलती है, मगर अगले ही क्षण देखता हूँ कि बिगड़ तो गया है, संस्कार विहीन है। अगले ही क्षण मुझे फिर दुःख घेर लेता है। मैं सामंजस्य नहीं कर पाता हूँ। जाने कितनी चीजें हैं जिनका कि मुझे सद्भाव है, जिनका कि मुझे अभाव है। अतः अब चीजों के बीच में, मैं क्या करूँ, कैसे अपने जीवन को आगे ले जाऊँ जिससे कि मैं अपने कर्त्तव्य से विमुख ना हो पाऊँ। बस इतना ध्यान रखना है क्योंकि इन चीजों का संयोग और वियोग दोनों जीवन में होता है और उस संयोग-वियोग के गुणा-भाग में, मैं अपने कर्त्तव्य से विचलित हो जाता हूँ। इन चीजों का जब संयोग होता है तब भी मैं विचलित हो जाता हूँ। इन्हीं में रच-पच जाता हूँ और अपने कर्त्तव्य को भूल जाता हूँ। जब इन चीजों का वियोग होगा, कल के दिन तब इनकी चिन्ता में कि कैसे इनका फिर से संयोग हो, मैं अपने कर्त्तव्य से विमुख होकर फिर इसी जुगत में रहूँगा कि कैसे इन सबका फिर से संयोग हो और यही मैं पूरे जीवन करता रहता हूँ। इनके बीच में, मैं आज तक सामंजस्य नहीं बना पाया हूँ। सामंजस्य सिर्फ इतना है कि चाहे अभाव हो चाहे सद्भाव हो चीजों का, मुझे अपना कर्त्तव्य हमेशा करते रहना है। ये पहली चीज मुझे अपने जीवन में सीख लेनी चाहिये। क्या-क्या नहीं मिला मुझे? मुझे शरीर मिला। मुझे वाणी मिली। मुझे इन्द्रियों की पूरी सामर्थ्य मिली है। ये सब मेरे लिये सद्भाव है। अब सद्भाव का मैं क्या करूँ। मैं अपना कर्त्तव्य करूँ इससे इन आँखों से दूसरे की बुराई कर्त्तव्य करना नहीं है। इनसे ही जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करना मेरा कर्तव्य है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मैं इस आँख का सदुपयोग नहीं कर पा रहा हूँ। ये तो फिर मैंने अपने सद्भाव के साथ ज्यादती कर ली है। ये तो मैंने जो चीजें मुझे प्राप्त हुई हैं उसका सदुपयोग नहीं किया। इसका मतलब बाह्य वातावरण से मैं सामंजस्य नहीं बिठा पाता हूँ और या फिर मैं देखता हूँ कि मेरे तो आँखों की रोशनी बहुत कम है। दोनों ही स्थितियाँ हैं। मैं अपने कर्त्तव्य से विमुख हो जाता हूँ। नहीं भैया, मुझे अल्पबुद्धि, रुग्ण शरीर और इन्द्रियों की शक्ति भी कम मिली हो, तब भी मैं अपने कर्त्तव्य का पालन कर सकता हूँ और अपने कर्त्तव्य का पालन करके और अपने जीवन को अच्छा बना सकता हूँ। इतना ही नहीं और अगर मुझे ये सारी सामर्थ्य बहुत मिली है तो सम्भव है कि मैं अपने कर्त्तव्य से विचलित होकर के इस सारी सामर्थ्य का दुरुपयोग भी कर सकता हूँ। 

    जब बापू एक मीटिंग में पहुँचे इलाहाबाद और सुबह-सुबह जब मुँह धोने के लिये नायडू ने एक लोटा भरकर के उनको दिया और नेहरू जी बाजू में हैं। मुँह वो भी धो रहे हैं, और चर्चा चल पड़ी कांग्रेस की, तो कब लोटा खाली हो गया, ध्यान नहीं रहा और मुँह तो पूरा नहीं धुल पाया, तो बड़े दुःखी हुये बापू। नायडू ने कहा इतने चिन्तित क्यों हो एक और लौटा ले लीजियेगा, पानी का भरा हुआ। नेहरू जी भी हँसने लगे कि भूल जाइयेगा कि आप आश्रम में हैं। आप तो मेरे यहाँ पर प्रयाग में हैं। यहाँ संगम पर बैठे हुए हो आप। यहाँ पानी की क्या कमी है ? तो उन्होंने क्या कहा था कि चीजों का सद्भाव मुझे मेरे कर्त्तव्य से अगर विचलित कर दे तो इससे अच्छा है कि वो चीजें ना होतीं तो ज्यादा अच्छा था। आज मेरे पास ज्यादा पानी है तो इसका मतलब यह नहीं है कि मैं उसका दुरुपयोग करूँ। मैं ऐसा कर्म करूँ जिससे कि मैं अपने कर्त्तव्य से विचलित न हो जाऊँ उसके सद्भाव में। कल के दिन इन चीजों का अभाव मुझे इन चीजों के सद्भाव के लिये फिर मेरे कर्त्तव्य से विचलित करेगा। मुझे एक बार अगर चीजों के सद्भाव में उनका सदुपयोग करने की आदत नहीं रहेगी तो उनके अभाव में, मैं व्यथित होकर के कैसे उनका सद्भाव हो इसके लिये मिथ्या मार्ग अपनाऊँगा। तब मेरा पूरा वर्तमान नष्ट हो जाएगा और मैं सम्हालना चाहता हूँ अपने वर्तमान को, तो मुझे अभाव और सद्भाव दोनों में अपने स्वधर्म, अपने कर्त्तव्य को नहीं भूलना चाहिये। ये चीज जो हैं आश्रम में, एक दातुन आई है, अगर दातुन का ऊपर का सिरा दाँतों को घिसने में उपयोग में आ गया है तो वे कहा करते थे कि जितना काम में आ गया है, उसको अलग कर दो बाकी फेंकने की आवश्यकता नहीं है कि पूरी फेंक दी जाये, उत्ती बचा लो, कल फिर उसी से घिसने के काम आयेगी। 

    आप कहेंगे बड़ी कजूसी है यह तो। डिसपोजेबल का जमाना है कि पीओ और फेंको। इन चीजों का सद्भाव कल के दिन जब हमें अभाव होगा, तब बहुत मुश्किल में डालेगा, ये ध्यान रखना। बाह्य वातावरण किस तरह से हमारे कर्मों को प्रभावित करता है और कैसे हम उसके साथ समायोजन नहीं कर पाते हैं, ये छोटी-छोटी सी चीजे हैं, अगर हमने ये, ये कला सीखली तो फिर देखियेगा जो हम कह रहे थे कि कर्म का उदय आये और चाहे चीजों का सद्भाव हो या अभाव हो, मैं अपने कर्त्तव्य से विमुख नहीं होऊँगा। यही प्रक्रिया तो सीखनी थी, मुझे मेरे अपने पुरुषार्थ के द्वारा। मैं इस प्रक्रिया को सीख सकता हूँ। 

    एक बाबाजी रास्ते से गुजर रहे थे। किसान के खेत को देखकर के बड़ी प्रसन्नता जाहिर की कि यह तुम्हारा कितना सौभाग्य, तुम्हारे पिता से तुम्हें कितना बढ़िया खेत मिला है। तब मालूम उस किसान ने क्या जवाब दिया था कि बाबाजी, मेरे पिता का मैं एहसानमन्द हूँ कि इतना बढ़िया खेत मुझे मिला, लेकिन इस खेत में जब फसल नहीं आई थी, तब इस खेत को देखते कि क्या स्थिति थी इसकी, और आज जब फसल आई है, तब आप देख रहे हैं। मुझे मेरे हाथ में जब यह खेत मिला था, तब क्या स्थिति थी। ये बात मुझे किस बात की प्रेरणा देती है, मुझे वर्तमान का जीवन कैसा मिला था। अब मैंने उसमें किस तरह से इजाफा किया है ये मेरे अपने पुरुषार्थ का फल है। ये मेरे अपने बाह्य वातावरण के साथ एडजस्ट करने की सामर्थ्य है। जो जितना, जो प्राप्त हुआ है उसमें मैं क्या बेहतर से बेहतर कर सकता हूँ, मुझे दो आँखें और दो हाथ और दुरस्त शरीर मिला है तो मैं क्या बेहतर कर सकता हूँ। मैं अपने कर्त्तव्य को कैसे ठीक से करूँ, अगर ये चीज मेरे मन में बनी रहे तो आसानी से मैं कर्मों को जीत सकता है। दूसरी चीज कि मैं प्रतिक्रिया ना करूँ। पर ये तो बहत मश्किल है. कोई मझे गाली दे और मेरे भीतर कछ भी ना हो। पानी हिले तक नहीं भीतर का, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। कोई मुझे प्यारी सी बात कहे और मेरे भीतर मैं एक्साइट नहीं होऊँ, ऐसा हो ही नहीं सकता। प्रभावित हुये बिना रहता ही नहीं मैं, जो भी एक्शन होता है बाहर से, मैं उसका रिएक्शन हमेशा करता हूँ। बिना रिएक्शन के तो होता ही नहीं है। बाह्य वातावरण मेरे ऊपर प्रभाव डालेगा, मुझे उसकी प्रतिक्रिया कैसी करनी है। मुझे प्रतिक्रिया कम से कम करनी है और जहाँ तक बन सके, बुरी प्रतिक्रिया को पोस्टपोन करना है, पर अच्छी प्रतिक्रिया करने के लिये हमेशा ध्यान रखना है। इतना नहीं कर सकते क्या अपन ? माँ घर में कहती थी कि फलाना काम कर दो, तो फौरन जवाब मिल जाता - "हम नहीं करते', “अपन को अभी फुरसत नहीं है।” नहीं करूँगा पहले नम्बर, बाद में कहेंगे धीरे से “हाँ बताओ क्या करना है। हम सबके साथ भी यही है। सबसे पहले हम रिएक्शन क्या करते हैं। नेगेटिव रिएक्शन करते हैं, इतनी आदत हमारी पड़ गई है। कर्म हम करते भी हैं तो नकारात्मक कर्म अधिक से अधिक करते हैं और हम कर्मों को जीतना चाहते हैं। नकारात्मक कर्म करने वाला कर्मों को जीत नहीं सकता। जो सकारात्मक, पोजिटिव कर्म करता है, रचनात्मक कार्य करता है, वो कर्मों से पार हो जाता है। कक्षा में फेल होने वाला आगे की कक्षा में नहीं बढ़ता। भैया, कक्षा में पास हो जाने वाले को आगे की कक्षा में बढ़ाया जाता है और हम तो अपने कर्म करने में फेल हैं तो कर्मों से पार कैसे होंगे ? जरा कर्म करने की प्रक्रिया तो सीख लेवें। कर्म तो करना है उनकी प्रतिक्रिया करनी है, उस प्रतिक्रिया को कैसा करना है ? अत्यन्त अल्प प्रतिक्रिया करने वाला कर्मों से पार हो जाएगा और अगर प्रतिक्रिया करता भी है और पोजिटिव करता है, तब भी उससे पार हो जाएगा। सिर्फ ये प्रक्रिया अपन को सीख लेनी है। 

    रास्ते से चले आ रहे हैं और काँटा लग गया। खून निकलने लगा। क्या प्रतिक्रिया करनी है, अरे कैसे लोग हैं, रास्ते में पत्थर डाल देते हैं। एक प्रतिक्रिया ये है और अगर ज्यादा अपना रौब है, अपना रुतबा है, अगर तो पत्थर क्या, मैं तो पूरी रोड फिर से बनवा दूंगा। हाँ, ऐसी प्रतिक्रिया करूँगा और या फिर तीसरी प्रतिक्रिया और है जो सज्जन पुरुष की प्रतिक्रिया होती है। दोनों प्रतिक्रियाएँ संसार बढ़ाने वाली हैं, मेरे कर्मों के लिये और अधिक मौका देने वाली हैं। मेरे साथ ट्रेप होने का, मेरे साथ बँधने का और इन कर्मों को हटाने का, जीतने का उपाय क्या है ? कि जिस क्षण मुझे वो काँटा लगे तब धन्यवाद देता हूँ कि चलो काँटा ही लगा, सम्भव है कि इससे भी ज्यादा कोई चोट लग सकती थी। अच्छा हुआ निकल गया मामला। किसी से कोई शिकायत नहीं है, किसी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है। अपने जो कर्म मैंने किये थे उनका फल। अच्छा हुआ मेरी सावधानी से ये कर्म आकर के निकल गया। अब मुझे कोई प्रतिक्रिया नहीं करनी और करनी भी है तो पोजिटिव; पोजिटिव सिर्फ इतनी कि धन्यवाद दे रहे हैं कि बहुत अच्छा हुआ निकल गया। किसी के गाली देने पर क्या धन्यवाद देने का मन होता है। नहीं होता, सीखना पड़ेगा कि बहुत अच्छा हुआ, गाली देकर ही मामला निपट गया, पता नहीं तमाचा मार सकता था। मेरा कर्म मैंने पता नहीं, मैंने कैसा बाँधा था जो कि सिर्फ गाली लेकर के आया और हो सकता था कि ये तमाचा दे सकता था कि कल के दिन अगर इसको मेरे किसी कर्म के उदय से इसको ऐसी प्रेरणा हो जाती तो मेरे ऊपर बंदूक भी चला सकता था। अच्छा हुआ कि गाली में मामला निपट गया। धन्यवाद, बहुत मुश्किल है। ऐसा  रिएक्शन बहुत मुश्किल है, लेकिन अगर ये प्रक्रिया हम सीख लेवें तब तो देखिएगा, कितना मजा आ जाएगा। 

    लेकिन जिन्दगी लग जायेगी। कोई बात नहीं लग जाये, पर अपन ने मन तो बना लिया। कम से कम इस बात को समझ लिया है कि हम जो कर्म कर रहे हैं ना, उसको कैसे करना है। वो ही कर्मों को जीतने का उपाय है और कोई बहुत बड़ी चीज नहीं है, जो लोग कर्मों को जीतते हैं वो और कोई बड़े-बड़े कर्म करते होंगे, ऐसा नहीं है। वे इन छोटे-छोटे कर्मों को करने का ढंग सीख लेते हैं, बस इतना ही है। सफलता जिनको मिलती है, वो कोई अलग कर्म करते हों ऐसा नहीं है। वे बस कर्मों को अलग ढंग से करते हैं। ये हमें सीख लेना चाहिये।

    और तीसरी चीज़। अब तीसरी चीज़ पर विचार मेरे ख्याल से फिर करेंगे अपन। आज दो ही चीजें ठीक हैं। समय की सीमा में रह करके भी कैसे काम किया जाता है, ये भी काम करने का एक ढंग है। नहीं तो सारा दिन गड़बड़ा जाएगा। सामंजस्य बाह्य वातावरण से खो जाएगा। कल किसी ने प्रश्न कर दिया था उसका जवाब भी दिये दे रहा हूँ कि धार्मिक कार्यों में समय की सीमा की क्या आवश्यकता है, उन्हें तो जितनी चाहे देर तक करना चाहिये। लेकिन ध्यान रखना अपने कर्त्तव्य से विमुख होना धर्मात्मा होने का लक्षण नहीं है। मैं सुबह से पूजा विस्तारूँ, और ना मुझे अपने बच्चों के भोजन की चिन्ता है, और ना मेरे अपने परिवार की और सुबह से विस्तारी और शाम तक कर रहा हूँ। कहने को तो मैं पूजा कर रहा हूँ। वाह भैया, तब तो फिर बहुत अच्छा है। मैं अपने कर्त्तव्य को और दायित्व को पहिचानूँ। दोनों में बहुत फर्क है। धर्म-ध्यान करना मेरा दायित्व है लेकिन इसके साथ कितनी देर तक कैसा क्या करना ये मेरा कर्त्तव्य है। पढ़ना मेरा दायित्व है, क्योंकि मैं विद्यार्थी हूँ, लेकिन कर्त्तव्य यह है कि समय से स्कूल में पहुँचूँ िऐसा नहीं है कि मुझे तो पढ़ना है दो बजे पहुँचूँगा मैं स्कूल। 12 बजे स्कूल लगता है तो 12 बजे ही पहुँचना पड़ेगा। ये मेरा कर्त्तव्य है। मुझे तो भोजन करना है, सुबह से शाम तक कभी भी कर सकता हूँ। ऐसे नहीं चलेगा। मेरा कर्त्तव्य है कि जब माँ थाली परोस के बुला रही है, तब उस समय पहुँच जाऊँ बाकी काम छोड़कर के या फिर बाकी काम इस तरह व्यवस्थित करूँ कि समय पर पहुँचूँ। इसलिये ये भी आवश्यक है। यह जवाब भी मुझे जरूरी था देना। हम इस तरह बाह्य वातावरण से सामंजस्य नहीं बना पाते हैं। हमें अपने कर्त्तव्य को पहले ध्यान में रख कर के अपने कर्म करना चाहिये और प्रतिक्रिया जितनी हो सके कम करें और अगर करें भी तो पोजिटिव हो। अगर किसी ने हमारे ऊपर गर्म चाय डाल दी है, जैसे सुकरात के ऊपर उनकी जीवनसाथी ने डाल दी थी और सारे मित्र उनके सामने हक्के बक्के रह गये थे कि अब तो मामला बिगड़ा और तब भी सुकरात ने मुस्करा करके कहा था कि बहुत-बहुत धन्यवाद मेरी जीवनसाथी, को ऐसी हिसाब से डाली कि आधा ही जल पाया, आधा तो फिर भी बचा हुआ हैं। कुछ नहीं बिगड़ा, हो सकता है पूरा जल जाता लेकिन धन्यवाद उसको। ऐसी प्रतिक्रिया करने का यदि हम कुछ उपाय कर लेवें तो भैया, हमारे वर्तमान के कर्म भी सुधर जाएँगे और हम उनको जीत सकेंगे। अपने जीवन को अच्छा बना पायेंगे। 
     
    इसी भावना के साथ बोलिये आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी मुनि महाराज की जय। 
    ००० 
     
  11. Vidyasagar.Guru
    कुंडलपुर में बड़े बाबा का   महामस्तकाभिषेक रंगपंचमी 22 मार्च तक बढ़ाया गया
    🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
    कुंडलपुर में संत शिरोमणि आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज के मंगल सानिध्य में प्रारंभ हुआ बड़े बाबा का मस्तकाभिषेक भक्तजनों की भीड़ को देखते हुए इसे होलिका पर्व से आगे 22 मार्च रंग पंचमी तक बढ़ा दिया गया है
    उपरोक्त जानकारी कुंडलपुर क्षेत्र कमेटी के प्रचार मंत्री सुनील वेजिटेरियन ने प्रदान करते हुए बताया कि मस्तकाभिषेक हेतु उमड़ रही भीड़ को देखते हुए यह निर्णय लिया गया है मस्तकाभिषेक आयोजन समिति के प्रभारी श्रेयांश लहरी ने बताया कि होली एवं रंग पंचमी पर मस्तकाभिषेक प्रातः 8:30 बजे से 12:00 बजे तक एवं दोपहर 1:00 बजे से 5:00 बजे तक रखा गया है कुंडलपुर कमेटी के अध्यक्ष संतोष सिंघई ने सभी श्रद्धालु गणों से मस्तकाभिषेक का सौभाग्य शीघ्र प्राप्त कर लेने का आग्रह किया है क्योंकि आने वाले 9 वर्षों तक अब यह सौभाग्य प्राप्त नहीं होगा बड़े बाबा का अगला महा मस्तकाभिषेक 2031 में आयोजित किया जावेगा
  12. Vidyasagar.Guru

    युगद्रष्टा
    सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बाद पहला संसार मिला जो महानिर्वाण होने से पूर्व का छठवां संसार है। मन्दाकिनी से शुभ्र स्वप्निल शय्या पर उत्पन्न होते ही कुछ क्षण बीते कि वह देव पूर्ण युवा हंस-सा प्रकृति का अलौकिक रत्नाभ लिए कान्तिमान देह में अन्तस् के समीचीन रत्न के तेज को बाहर प्रस्फुरित करता-सा प्रतिभासित हुआ। अनिमेष पलक वाले दीर्घायत नयनों से उपपाद शय्या की शोभा निहारता हुआ कुछ पल विस्मित रहा। उत्तम-उत्तम आभूषण से सज्जित वेषभूषा में अपने को देख जब मौन छा गया तो चहुँ ओर रत्नों की पारदर्शिता में झलकते अप्सराओं के मुख कमल गिनने में असमर्थ हो पूछा-मैं कहाँ हूँ? मैं कौन हूँ? परिचारकों से परिचय मिला पर असन्तुष्ट तब तद्भव निमित्तक आत्म ज्ञान से सब कुछ यथार्थ देखा जाना। तदुपरान्त मंगल अभिषेक, नृत्यवादन आदि जय-जयकारों से सारा वातावरण क्षुब्ध हो गया। आओ देव, यहाँ बैठो, यहाँ चलो, हम आपकी सेवा में सादर प्रतीक्षित हैं, इत्यादि अनेक प्रीति श्रुत वचनों से अन्य देवों से सम्मानित और अनेक देवियों, पट्टदेवियों से सेवित विपुल वैभव को आनन्द से भोगते गए। अभी तक कुलदेवता के रूप में जिन अहँतबिम्बों की पूजा की जाती थी, आज सम्यक् देव का स्वरूप उन्हीं बिम्बों में झलकने लगा। सम्यग्ज्ञान का माहात्म्य और उसकी देव, निर्ग्रन्थ मार्ग के प्रति रुचि बहुतों को सम्यग्दृष्टि प्रदान कराने में कारण हो गयी। पाताल लोक तक विहार, वहीं तक अवधि नेत्रों से वस्तु स्थिति का दिग्दर्शन तो सहज स्वशक्ति वशात् था, किन्तु अन्य मित्र देवों के साथ ऊर्ध्वगमन भी अपने विमान के ध्वजदण्ड का उल्लंघन कर जाता था। उन विमानों में अद्भुत अनिवर्चनीय, अगणित महिमा-मण्डित जिनबिम्बों की दर्शनीयता हृदय में मानो सदा के लिए प्रतिबिम्बित हो गई और सीमातीत गमन का निमित्त बन गई। तिर्यक् दिशा में मेरुपर्वत ही वह मनोहारी केन्द्र बिन्दु है, जहाँ दूर-दूर घूम आने के बाद भी भद्रशाल, नन्दन, सौमनस वन की गुल्म वल्लरियों, विशालकाय काननों में,सर्वऋतु सम्पन्न सौरभ का आकर्षण, एकान्त निर्झरों में ऋद्धिमान् तेजपुञ्ज नग्न मूर्तियों का दर्शन, तन-मन की थकान को पलायित कर देता। स्वस्थान पर तिष्ठते हुए विचित्र वैक्रियिक शक्ति से कुलाचलों और द्वीपों पर केशरीवत् उत्तालभ्रमण, विजया के गुफा द्वार हों या रजताचल की मेखला पर श्रेणिबद्ध प्रदेश, शशि सम निर्मल गंगा-सिन्धु की धारा में आप्लावन, तो कभी स्वयंभूरमण तक निराबाध गति, लवणसमुद्र की आरब्ध वेला, तो कभी मानुषोत्तर के दिग्दिगन्त तक फैले जिनभवन, गिरिकूटों, वृषभाचलों, वक्षारों, विदेह की विभंग सरिताओं में अवगाहन तो कभी घनी दरीसरों, कन्दराओं और चैत्यवृक्षों पर स्वैररमण, सागर पर्यन्त आयु को क्रीड़ा-लीलावलीला से प्रतिपल रंगित तरंगित कर देती। असीमित रंग रेलियों में जौंक की तरह इन्द्रिय सुख में सतृष्ण, सुखकामना से अतृप्त मन जब दूर-दूर तक सुख की छाँव नहीं पाता है तो सहज ही अपने आत्मीय जनों का दिव्य उपदेश याद आता है।
     
    बहुत क्षण बीते, तब श्रीधर को अपने उपकारी, दिव्य नेत्र प्रणेता, मोह विजेता, ऊर्ध्वरेता, अलौकिक प्रीति के संचेता प्रीतिंकर मुनिराज का स्मरण हो आया। अवधि रूपी ज्ञान नेत्र से यथार्थ को प्रतिबिम्बवत् देखा और चल दिया श्रीगुरु के चरणों में, जो श्रीगुरु अब केवलज्ञान-दिव्यप्रकाश से परिपूर्ण ज्ञाता हो गए थे। उनका निखिल के प्रति प्रीतिभाव सार्थक हुआ और प्रीतिंकर स्नातक की अन्बर्धता को धारण किए हुए श्रीप्रभ पर्वत पर विराजमान हैं। दिव्य अतिदिव्य सामग्री से युक्त हो, अपने वैभव को साथ लिए दिव्य आत्मा के चरण कमलों में श्रद्धा से प्रणिपात कर, परिक्रमण विधि से अत्यन्त भक्ति से भरे नम्र पुण्डरीक-सा गुणों का अर्चन-पूजन कर, लोक-परलोक के पाथेय को संचित कर जब वह आत्मिक तेज के बहिस्फुटन को देखकर भी न देख सका, तब उसने अपनी अनन्त इच्छाओं का विसर्जन कर अनिमेष नयन टिका दिए। भगवत् नयनवत् नासाग्र दिव्य-दृष्टि पर; जिसमें प्रतिबिम्बित है समूचा लोकालोक; महासमुद्र में एक तुच्छ द्वीप की तरह, सभी प्रश्न दर्शन मात्र से उत्तरित हो उठे, क्षणभर सोचता रहा यह पारस्परिक वचनालाप भी दर्शन के सुख में अन्तराय उपस्थित करता है, हजारों-नयनों से इस रूप को मात्र अपलक-अवलोकन का भाव, सुनहली चाँदनी-सा चारों तरफ प्रसारित दिव्य आभामण्डल में डूब जाने  को जी करता है। इस आभा में कुछ देर तक अजस्र स्नपित होना है तो कुछ पूछू; जिससे निरायास प्राप्त वचनों से यह श्रवण भी परितृप्त हों, दिव्यवचः रश्मियों से अज्ञानतमस् विगलित हो और तेजो मण्डल के पुण्य परमाणुओं काआस्वादन भी। याद आया वही क्षण जब मैं राजा महाबल था और ये तत्त्वज्ञ हितद्रष्टा स्वयंबुद्ध मन्त्री। पर अन्य तीन मंत्री भी थे, जिनसे स्वयंबुद्ध का खूब वादविवाद हुआ, अन्ततोगत्वा उन्हें हारना पड़ा उनके मन की कलुषता तत्क्षण साकार न हो पायी पर, उसका दुष्परिणाम क्या हुआ ? यही जानने की इच्छा है, श्री प्रभु के दिव्य वचन से। शीघ्र ही यह मनोभाव वचनों से प्रेषित हो गया और प्रस्फुटित हुआ करुणा का अनवरत स्रोत.......
     
    विज्ञात हुआ तीनों मंत्रियों का कुमरण और उनकी दुर्गति, वहाँ के दुःखों का मर्मस्पर्शी वेदना वृत्तान्त । जब मालूम हुआ कि दो मंत्री आग्रह युक्त मिथ्या परिणामों से निगोद स्थान को प्राप्त हुए हैं, जहाँ प्रतिबोध की किरण भी कभी नहीं पहुँच सकती, किन्तु शतमति मंत्री मिथ्यात्व के कारण नरक गया है। जीव कल्याण को प्रेरित करता अनुकम्पा परिणाम बेचैन-सा करने लगा तो श्रीगुरु से पूछकर वह पवित्रबुद्धि श्रीधरदेव, शतमति नारकी को समझाने, धर्म का उपदेश देने और मिथ्यात्व का वमन कराने के लिए नरक द्वार पर पहुँचा। काललब्धि से प्रेरित हो, दु:खों की सघनता से उस नारकी ने प्राप्त उपदेश को निबिड़ अन्धकार में प्राप्त एक प्रकाश किरण की तरह अपने आंचल में समेट लिया और समीचीन रत्न को खोज लिया। इतना ही नहीं जब वह नरक की भयंकर महाकालिनी, असहनीय पीड़ा को भोगकर विदेह के चक्रवर्ती का जयसेन पुत्र हुआ तो श्रीधरदेव ने पुनः नरक का वह सम्बोधन और वेदना का ज्ञान कराया जिससे जयसेन भोगों से विरक्त हो, समाधिमरण कर ब्रह्मस्वर्ग में इन्द्रत्व को प्राप्त हुआ। इन्द्र होकर भी अपने कल्याण-कर्ता मित्र का स्मरण दिव्य अवधिज्ञान से हुआ तो वह उनके समीप आ वन्दन, पूजन करने लगा। वस्तुतः दुनिया में अपने पर उपकार करने वाला ही गुरु है। भगवान् है चाहे वह पद, कद और वय में कितना ही लघु क्यों न हो? श्रीधरदेव ने ब्रह्मेन्द्र से कहा; अरे! तुम इन्द्र होकर यह क्या कर रहे हो? तुम्हारा उच्च पद है, तुम्हारा वैभव तो हमसे बहुत ज्यादा है; इतना ही नहीं तुम्हारी विशुद्धि भी मुझसे बहुत अधिक है और भावों की विशुद्धता ही पूज्य अपूज्यपने का कारण होती है इसलिए आपका यह सम्मान हमारे लिए.... ।
     
    तभी बीच में बात को रोककर ब्रह्मेन्द्र ने कहा-नहीं पूज्यवर! वह वैभव, इन्द्रत्व तो सब उस सम्यग्दर्शन की शुभ देन है, जिस दर्शन को दिलाने आप नरकों के अन्धकार में भी मुझे ढूँढने आए थे, इतना ही नहीं आपने पुनः मनुष्य भव में मुझे सम्बोधा और मैं जयसेन फिर इसी संसार वृद्धि को करने वाले मंगल विवाह के उपक्रम में फँसने जा रहा था तभी आपने प्रबोधन दिया और मैंने उसी समय उस सम्मोहन पाश को हमेशा के लिए तोड़ने का निश्चय कर लिया और वन चला गया। वन जाकर मैं अपने लक्ष्य प्राप्ति में सफल रहा। मैंने महसूस किया कि वनिता, पुत्र परिवार की जंजीरों को तोड़े बिना कोई भी पुरुष गन्तव्य तक नहीं पहुँच सकता। व्यक्ति पहले दलदल में जान बूझकर फँसता है फिर निकलने के लिए छटपटाता है; उस समय उसका पुरुषार्थ विपरीत उसको उस दलदल में और डुबोते फँसाते जाता है। सच श्रीधर! इन बन्धनों से निस्तार बहुत कठिन कार्य है। तब श्रीधर बोले-नहीं इन्द्र! इन बन्धनों से घबराना नहीं। आपमें शक्ति थी इसलिए उस मंगल प्रसंग को आपने सहज नाकाम कर दिया, यह आपकी निकट भवितव्यता का सुफल था। लिप्साओं में विवश पुरुष या स्त्री इस विपरीत आकर्षण को छोड़ने में सक्षम, आकर्षण और द्वेष का प्रबल विकर्षण इस जीव को संसार समुद्र में थपेड़े मारमार कर उसे थकाता ही रहता है, इसलिए सम्यग्ज्ञान द्वारा ही विरले ज्ञाता इस बन्धन को तोड़कर मुक्ति पुरुषार्थ में सफलता पाते हैं। सच है; बिल्कुल सच! आपकी प्रज्ञा वास्तव में अद्भुत है। आपका ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है। इन भोग और भोगिनी के बीच आपका यह ज्ञान नेत्र अब सचमुच खुला हुआ है। इसलिए तो बार-बार आपके चरण छूने को मन करता है और मित्र! आपने जो पहले कहा कि तुम इन्द्र हो फिर भी मुझे इतना सम्मान, सो मित्र यह बड़प्पन तो अहंकार है और यह अहंकार एक पर्वत है जो बड़े-बड़े गुणों को भी देखने नहीं देता, बीच में आ खड़ा हो जाता है। अगर यह पर्वत आपके वात्सल्य से चूर-चूर नहीं होता तो मुझे जीने का आनन्द कैसे आता? कैसे आपकी दुर्लभ संगति पाता। सच में मित्र; जब आपकी इस असीम आत्मीय वात्सल्यता में  डूबता हूँ तो मेरी आँखों से हर्षाश्रु निकल पड़ते हैं और थोड़ी ही देर बाद में अपने अन्तःकरण को बहुत पवित्र और हल्का पाता हूँ। इस प्रकार मित्रों का परस्पर मिलन, केवली गुरु का समागम और अनेक नियोग प्राप्त वल्लभाओं के साथ श्रीधर देव का सागरोपम काल भी ओस की बूंद-सा, थोड़ी सी धूप में गल गया। अन्त में जब एक दिन श्रीधर की माला को कुछ म्लान देखकर ब्रह्मेन्द्र ने दुःख व्यक्त किया तो श्रीधर ने कहा मित्र! आपके लिए यह उचित नहीं यह तो निश्चित प्रसङ्ग है और जब निश्चित ही है तो उसमें हर्ष-विषाद करना मोह का कुफल है। पुनः आप मोह न करके वस्तु परिणमन में सतत् जागृत हों, हर परिणति को देखने का और जानने का ही पुरुषार्थ करो ताकि पिछला पुरुषार्थ समीचीन बढ़ता जाये और कुछ दिनों बाद वह क्षणभंगुर पर्याय, लहर की भाँति ऊपर से चलकर नीचे मर्त्यलोक को प्राप्त कर अन्य पर्याय में बदल जाये।
     

  13. Vidyasagar.Guru
    *सिद्धोदय_सिद्ध_क्षेत्र #नेमावर*
    *आहारचर्या*  *शुभ संदेश*🏳‍🌈🏳‍🌈🏳‍🌈🏳‍🌈🏳‍🌈🏳‍🌈🏳‍🌈
        *🗓०५,सितंबर,१९ गुरुवार🗓* 
    *पर्वाधिराज दशलक्षण पर्व का तृतीय दिन ( उत्तम आर्जव धर्म )*
    *✨आज परम पूज्य संत शिरोमणि १०८ आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज✨*को आहार कराने का सौभाग्य*
      *⛳श्री मान कैलाशचंद जी जैन नेमावर  निवासी एवं उनके परिवार को प्राप्त हुआ⛳*
    *👏🏽आहार दान देने वालों की अनुमोदना👏🏽*

       
  14. Vidyasagar.Guru
    साधना
     अभी मुझे और धीरे
     कदम रखना है ,
     अभी तो
     चलने की
     आवाज़ आती है !
     
    Practice
     I have to learn
     To walk even more
     Lightly,
     Because, I can hear still
     The sound of my own
     Trudging feet.
  15. Vidyasagar.Guru
    मुनिश्री उत्तमसागर जी मुनिश्री पुराणसागर जी   
    अधिक जानकारी 
    https://vidyasagar.guru/clubs/419-group/
    चातुर्मास स्थल जल्द ही अपडेट होगा 
    आपके पास जानकारी हो तो नीचे कमेन्ट मे अपडेट करे 
    मुनि संघ ( सभी महाराज जी एक साथ ) की फोटो भी अपडेट करे
  16. Vidyasagar.Guru

    कर्म कैसे करें
    हम सभी लोग पिछले कई दिनों से अपने जीवन में जो हम करते हैं उसी से हमारा व्यक्तित्व, उसी से हमारा जीवन, हमारी वाणी और हमारे विचार सभी प्रभावित होते हैं। तब हम क्यों ना ऐसा करें जिससे कि हमारा व्यक्तित्व ऊँचा उठे। हमारा जीवन अच्छा बने। हमारी वाणी और हमारे विचारों में भी श्रेष्ठता आये, जब ये जिम्मेदारी कर्मों की हमारी है तो फिर हमको कर्म करने का कौशल, कर्म करने की कुशलता भी होनी चाहिये। एक ज्ञानी और एक अज्ञानी दोनों अपने जीवन में कर्म करते हैं और उन कर्मों का फल भी भोगते हैं। एक सफल और एक असफल व्यक्ति दोनों ही अपने जीवन में कर्म करते हैं। एक जैसे कर्म करने के बाद भी एक सफलता हासिल करता है, एक ज्ञानवान कहलाता है, एक असफल हो जाता है और अज्ञानी कहलाता है। बाह्य कर्म समान रूप से करने के बावजूद भी ऐसा क्या है जो हमारे जीवन को सफल और श्रेष्ठ बनाता है ? असल में कर्म करने की हमारी जो कुशलता है वो हमारे जीवन को श्रेष्ठ बनाती है और इतना ही नहीं जब हम उन कर्मों का फल चखते हैं, तब उस फल को चखते समय हमारी जैसी भाव दशा हमारी जैसी मानसिकता होती है, वैसा ही आगे के लिये हम नया कर्म संचित करते हैं। 

     एक ज्ञानी जब भी अपने भले और बुरे कर्मों का फल चखता है तब वो उसके लिये किसी बाह्य कारण को प्रमुखता नहीं देता। वो अपने ही भीतर झाँककर देखता है कि यदि मेरे जीवन में कोई विपत्ति या संकट या दुःख आया है, तो मुझे किसी और से शिकायत करने की आवश्यकता नहीं है, मुझे अपने भीतर झाँककर देखना होगा; उस विपत्ति, संकट या दुःख का कारण कहीं मेरे भीतर ही है। मैंने ही अपने लिये ऐसा पहले शायद कोई कर्म संचित किया होगा जिससे कि आज मुझे संकट और विपत्ति का सामना करना पड़ रहा है। ये ज्ञानी का सोच है, और इतना ही नहीं जब दूसरे पर विपत्ति आती है, तब वो ऐसा विचार नहीं करता कि ये इसके किसी कर्म के उदय से आयी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे जीवन से इसको कोई दुःख या विपत्तियाँ या संकट का सामना करना पड़ रहा हो। इसलिये मुझे अपने जीवन को सँभालकर चलना है जिससे कि किसी दूसरे के दुःख या संकट में मैं कारण ना बनूँ। मेरे दुःख और संकट में कोई और कारण बनता है। इस बात का विचार ना करते हुये मेरे दुःख और संकट का कारण मेरे ही भीतर है, ऐसा विचार करना, लेकिन दूसरे के ऊपर आने वाले दुःख और संकट में, मैं कहीं कारण ना बन जाऊँ, इस बात का ध्यान रखना ये है कर्म करने का कौशल। 

    हमें पिछले दिनों ये बात बार-बार विचार करने में आ रही है और अब ये कुशलता अपने जीवन में सीख लेनी चाहिये। एक भिखारी एक अमीर आदमी के घर के सामने भीख माँगता है और कहता है कि भूखा हूँ, तीन दिन से, कुछ खाने को दे दो, लेकिन उसके अपने ही किन्हीं संचित कर्मों का ऐसा संयोग है, ऐसा उदय है कि कोई उसकी इस बात को सुनकर विश्वास नहीं करता और उसके प्रति दया का भाव नहीं रखता। यह तो उसके अपने कर्म का उदय हुआ, लेकिन सामने वाला क्यों अपने उस दया और करुणा के सहज स्वभाव को भूल जाता है, यह विचारणीय है और दुत्कार करके भगा दिया जाता है उसे, फिर भी वो थोड़ी और जब विनय करता है, याचना करता है, तब घर में जो सेठानी है वो आपे से बाहर हो जाती है और फर्श पोंछने का जो गीला कपड़ा है वो उठाकर के, फेंककर के उसे मार देती है। लेकिन मजे की बात ये है कि वो भिखारी इसके बावजूद भी प्रसन्न है। मेरे लिये इन्होंने खाने की कोई चीज नहीं दी। इस बात के लिये दुःख करना ये तो व्यर्थ ही है, मुझे कुछ तो दिया इसके लिये मुझे धन्यवाद देना चाहिये। गीला कपड़ा, फर्श पोंछने का, फेंककर के मारा ऐसा नहीं कह रहा है, 'दिया' मुझे और मेरा सौभाग्य कि इतना तो मिला और वो उसे रख लेता है। बहुत मुश्किल है ये। ये उदाहरण जब मैं पढ़ रहा था तो मुझे लगा कि ये सब बातें पता नहीं कौनसी दुनिया की और कौनसे संसार की बातें हैं। लेकिन हैं सब इसी संसार की बातें, कि ऐसे लोग भी हैं। उतने ही अहोभाव से, उतने ही प्रसन्नता से और वो ग्रहण कर लेता है और वापस लौट जाता है। रास्ते में तालाब के किनारे, धोकर के कपड़े को, छोटी-छोटी सी चिन्दियाँ बना लेता है और शाम घिरने तक भगवान के मंदिर में जाकर के बैठ जाता है और दीपक में उन कपड़े की चिन्दियों की बाती बनाकर के घी डालकर दीपक जलाता है और उस दीपक से भगवान की आरती करते समय क्या प्रार्थना करता है कि मेरा सौभाग्य, मैं आपसे अपने लिये क्या माँगू, सेठानी के लिये माँगता हूँ, उनके जीवन में क्षमा का दीप जले, उनके जीवन में प्रेम का उजाला हो। ईश्वर से माँग रहा है। ऐसा, ऐसा कर्म करने का कौशल, इतनी कुशलता क्या हमारे भीतर है। अपनी जरा-जरा सी विपत्ति, संकटों और दुःख में हम किस-किस को दोषी ठहराने का मन बना लेते हैं और ठहरा भी देते हैं, लेकिन किसी को भी ना वो दोषी ठहरा रहा है, ना किसी से उसे शिकायत है, वो तो सिर्फ अपना कर्त्तव्य कर रहा है। आपने मुझे जो दिया उससे मैं बेहतर क्या कर सकता हूँ। मुझे मेरे अपने संचित कर्मों के फलस्वरूप जो भी भला या बुरा फल चखने को मिला, उससे मैं कैसे कुछ बेहतर कर सकता हैं। ये विचार, कोई भी मुझे भला और बरा फल नहीं देता. मेरा किया हआ मुझे भला या बुरा फल देता है, अगर ये चीज हमारे मन में बनी रहे तो हम आसानी से इस संसार में दुःखों को जीत सकते हैं। अपने लिये दुःखों का इंतजाम हम सोचते हैं कि कोई और करता है. लेकिन अपने लियेदःखों का इन्तजाम हर व्यक्तिखद करता है। जैसे हम अपने लिये सुख का इन्तजाम करते हैं किसी दूसरे को उसका श्रेय नहीं देना चाहते। बताइये कौन अपने सुखों के लिये दूसरे को श्रेय देगा। किसी ने दिया आज तक ? किसी ने नहीं दिया होगा। मैं सुखी हूँ, मैं अपनी वजह से सुखी हूँ और किसी वजह से सुखी थोड़े ही हूँ, लेकिन मैं दुःखी हूँ तो किसी और की वजह से दुःखी हूँ, मैं अपनी वजह से दुःखी नहीं हूँ। ये ध्यान ही नहीं जाता। नहीं, जिस तरह से मैं सुखी हूँ, तो अपनी तरह से सुखी हूँ, उसी तरह अगर मैं दुःखी हूँ तो उसकी जिम्मेदारी भी मेरी ही है। मेरे ही भीतर उसका कोई कारण मौजूद है। अगर सुख-सुविधा के साधनों का अभाव होने से कोई दुःखी है, तो फिर सुख-सुविधा के साधन मिल जाने पर फिर सुखी होना चाहिये।

    लेकिन बहुत से ऐसे लोग हैं जिनको कि सुख-सुविधा के साधन मिलने पर भी दुःखी देखा जाता है। अच्छा तो फिर पद प्रतिष्ठा का अभाव होने से शायद दुःख होता होगा। अरे तो ऐसे तो बहुत सारे लोग हैं जिनको कि पद प्रतिष्ठा मिल जाती है उसके बाद भी वे दुःखी रहते हैं। अरे ! नहीं तब तो शरीर स्वस्थ होता होगा तब सुख मिलता होगा, शरीर की अस्वस्थता से दुःख मिलता होगा। पर जिन-जिन के शरीर स्वस्थ है, उनके भी बहुत सारे दुःख हैं। तब तो ना पद प्रतिष्ठा के अभाव में दुःख मिलता है ना सुख-सुविधाओं के साधनों के अभाव में, ना शरीर की स्वस्थता के अभाव में दुःख मिलता है तो उसका कोई तो कारण होगा। ये सब बाह्य कारण हैं दुःख के, इनके होने या नहीं होने पर भी हमारे अन्तरंग का कारण अगर मौजूद है, हमारे भीतर अगर हमने असाता कर्म का संचय कर के रखा है तो वह असाता अपना फल हमें अवश्य देगी। और मैं अपने लिये असाता भोगता कैसे हूँ, हमें सिर्फ इस पर विचार करना है ताकि आगे मेरे जीवन में असाता, मेरे जीवन में दुःख, संकट और विपत्ति न आये। कोई कितना भी बाहर से मेरे जीवन के लिये संकट उत्पन्न कर सकता है लेकिन जब तक मेरे असाता का भीतर कारण मौजूद नहीं होगा तब तक कोई भी मुझे कितनी भी विपत्ति में डाल दे, वो विपत्ति भी मेरे लिये सम्पत्ति का काम करेगी और ऐसे सैकड़ों उदाहरण भरे पड़े हैं। पुराण ग्रन्थों को उठाकर के देखें कि कितने-कितने लोगों को विपत्ति में डाला, लेकिन उनके अपने संचित कर्म भले थे। इसलिये वो विपत्ति भी उनका कोई बिगाड़ नहीं कर पायी। तो भैया मेरे अपने संकटों और दुःखों का कारण मेरे भीतर मौजूद है। तो मैंने ऐसा क्या किया होगा जिससे कि मेरे दुःख और संकट आये, इस पर विचार करना है। 

    आचार्य भगवन्तों ने हमें विचार करके और दे दिया है एक सूत्र - “दुःखशोकतापाक्रन्दन- वधपरिदेवनान्यात्मपरोभय स्थानान्यसवेद्यस्या" 
    मैंने अपने लिये आज वर्तमान में जितने दुःख मैं भोग रहा हूँ उसका इन्तजाम तो मैंने खुद किया है। वे कौनसे भावों से मैं अपने असाता कर्म का संचय करता हूँ। अपने दुःखों का मैं स्वयं इन्तजाम करता हूँ। लगेगा कि कोई अपने दुःखों का इन्तजाम खुद करेगा क्या? अज्ञानतावश हम क्या नहीं करते ? मोह के वशीभूत होकर हम क्या नहीं करते? अपनी हमारी आसक्तियाँ हमसे क्या नहीं करवा लेतीं। हमारे दुःख का उपाय हम अपने हाथ से कर लेते हैं। ये तो जब थोड़ी समझ आती है तब अपने ऊपर रोना आता है या हँसी आती है कि अरे ये हमीं हैं जो हमने ऐसा किया और अपने लिये दुःख का इन्तजाम कर लिया और आचार्यों ने तो सूत्र लिख दिया कितनी चीजें हैं - दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध, परिदेवनानि आत्म परोमय स्थानानि असद् वैद्यस्य। __ मेरे भीतर अगर मैंने असाता संचय की है जिसका कि फल मुझे आज भोगना पड़ रहा है तो उस समय मैंने क्या-क्या किया होगा? स्वयं भी दुःखी और दूसरे को भी दुःख में डाला होगा। आत्म, पर, उभय अर्थात् स्वयं को भी, दूसरों को भी और दोनों को भी मैंने दुःख का इन्तजाम किया होगा। दूसरे के लिये भी दुःख का इन्तजाम किया होगा या कि स्वयं भी अपने जीवन में लगातार दुःख का अहसास किया होगा। दुःख होने पर दुःख का अहसास न हो ? हाँ, ऐसा सम्भव है। हम सोचते हैं कि दुःख में दुःखी होने से यह दुःख घट जाएगा। नहीं भैया ! दुःख तो झेले-झेले कटता है। दुःख तो दुःखी होने से और बढ़ता है। देख लो आप, थोड़ा दुःख है और आप अपनी तरफ से दुःखी हो लो तो कम हो गया क्या, दुःख और बढ़ती हो गया। आचार्य भगवन्त कह रहे हैं कि दुःख के निमित्त मिलने पर जो और दुःखी होता है, दूसरों के दुःख का इन्तजाम करता है, मानिये, वो अपने लिए असाता का संचय करता है। दुःख, इष्ट का वियोग होने पर, अनिष्ट का संयोग होने पर जिस तरह पीड़ा के परिणाम होते हैं सब हमारे नये दुःख का इन्तजाम करते हैं और ये तो चौबीस घन्टे हम लोगों के साथ लगा हुआ है। इष्ट का वियोग हो गया और अनिष्ट का संयोग हो गया। किसी ने कठोर वचन कह दिये, मन पीड़ा से ग्रसित हो गया। बहुत सावधानी की आवश्यकता है। ये सारी स्थितियाँ निर्मित हों फिर भी मुझे अपने मन की प्रसन्नता बनाये रखनी है, वरना मैं अपने लिये खुद दुःखी होकर नये दुःख का इन्तजाम कर लूँगा। ये मुझे सावधानी रखनी है। हम हमेशा ऐसे कहते हुये, सुनते हुये पाये जाते हैं कि हम अपने आप दुःखी हैं, आपको क्या मतलब। अरे ! नहीं भैया। आप अपने आप दुःखी हैं तो आप अपने दुःख का इन्तजाम तो कर ही रहे हैं और आपके दुःखी होने से वातावरण भी प्रभावित होगा। वो भी दुखमय होगा। एक दुःखी व्यक्ति के चारों तरफ पहुँच कर कोई भी व्यक्ति सुख का अहसास नहीं कर पाता, लेकिन एक प्रसन्न व्यक्ति के चारों तरफ कोई भी पहुँच जाये, वो दुःखी भी हो, तब भी थोड़ी देर के लिये अपना दुःख भूल करके प्रसन्नता का अनुभव कर सकता है। इसलिये ऐसा नहीं सोचना कि मैं दुःखी हूँ| जब-जब मैं दुःखी होता हूँ तो दूसरे को दोषी ठहराने का भाव मेरे अन्दर आता है कि मेरे दुःख का कोई कारण है और तब मैं दूसरे को भी दुःख ही पहुँचा करके फिर सुख का अनुभव करता हूँ। ये मेरे भीतर एक मिथ्या भाव उत्पन्न होता है। इसलिये जब इष्ट का वियोग या अनिष्ट का संयोग हो या कि अपने अनुकूल कोई वचन न कहे जायें, तब बहुत सावधानी रखने का काम है। शोक, किसी हितैषी व्यक्ति के विच्छेद हो जाने पर कोई कारण निर्मित हो जाता है। डायवोर्स (तलाक) कैसे हो जाता है ? कल तक जिसके सामने यह कहते पाये जाते थे कि तुम्हारे बिना एक क्षण नहीं रहँगा उसी के साथ हमारी भाव दशा ये बनती है कि ये कहते पाये जाते हैं कि तुम्हारे साथ अब एक क्षण भी नहीं रहूँगा और विच्छेद और फिर बाद में निरन्तर एक पीड़ा का भाव होता है, उसे कहते हैं शोक। दुःख और शोक में इतना फर्क है। 

    हितैषी व्यक्ति से अपने किसी कारण से जब विच्छेद हो जाता है तब भीतर ही भीतर उस मोह की वजह से और हमारे अन्दर जो पीड़ा उत्पन्न होती है, जो दुःख होता है उसे शोक का नाम दिया है। ऐसे क्षण भी जीवन में आते हैं, सावधानी रखें, नहीं तो अपने जीवन में ये जो शोक किसी पुरानी वजह से आया है पर आगे का इन्तजाम और कर लेगा। 

    और ताप, किसी को भी कठोर वचन नहीं बोलना, क्योंकि किसी के भी कठोर वचन सुनकर के भीतर-भीतर जो एक जलन उत्पन्न होती है, जैसे कि हमने आपको एक उदाहरण सुनाया था कि शेर जब घर आ गया था तो जीवन-साथी ने कह दिया था कि येशेर थोड़ी है यह तो गधा है। मेरी लकड़ियाँ लाता है जंगल से। तब वो जो एक वचन था वो उसके भीतर घाव की तरह जलन देता था जैसे कि घाव जलन देता है। वो कहलाता है ताप। उसको संताप भी कहते हैं। 

    आक्रन्दन, जब सहन नहीं होता है भीतर का दुःख, तब जब हम जोर-जोर से आँसू बहाते हुये क्रन्दन करते हैं, वीपिंग जिसको कहते हैं, वो आक्रन्दन है। ये आक्रन्दन भी हमारे आगामी असाता के बंध का कारण है ये ध्यान रखना। हमारे असाता का इन्तजाम हम इस तरह से करते हैं। किसी और को भी हम इसी तरह रुलाते हैं। किसी और के भी संताप में कारण बनते हैं तब भी हम अपने ही असाता का बंध करते हैं, स्वयं भी अगर इन परिणामों को करते हैं तो हमारे लिये ये दुःख की संतति बढ़ती ही चली जाती है। इस दुःख की संतति को बढ़ाने वाले हम स्वयं हैं। दुःख ही दुःख की संतति को बढ़ाता है। ये बहुत सावधानी की आवश्यकता है। 
    प्रतिवेदन, जिन्दगी भर जिनके गुण नहीं गाये उनके मरने पर, उसका गुणगान करते हुए रोना, ये परिवेदन कहलाता है, हाँ ऐसा भी करते हैं अपन, जिन्दगी भर जिनकी निन्दा करी होगी, जिनके गुणों का ध्यान नहीं दिया होगा, उनके मरण के बाद उनके गुर्गों को याद कर-करके हम रोते हैं, बिलख-बिलख करके रोते हैं। तब और हम नये दःख का इन्तजाम करते हैं। ये इतने कारण आचार्य भगवन्तों ने हमारे अपने दुःख के बताये हैं और कोई बाहरी कारण नहीं हैं। ये मेरी अपनी भाव दशा ही मेरे दुःखों का कारण बनती है और इतना ही नहीं जब अकलंक स्वामी के चरणों में बैठे तो इतने महान आचार्य कहते हैं कि जो अपने जीवन को यूँ ही व्यर्थ बरबाद करते हैं वे अपने दुःखों का इन्तजाम खुद करते हैं। दूसरों के लिये दुखदाई कार्य करना, हिंसा के उपकरणों को उत्पन्न करना, उनका व्यापार करना, पेस्टी-साइड विष इत्यादि इन सबकी मैन्यूफेक्चरिंग करना, इनकी सेलिंग करना, डीलरशिप ले लेना इनकी, ये सारे अपने दुःखों का इन्तजाम है, जितने भी कार्य दूसरे के लिये दुःख पहुँचाने वाले हम करते हैं वे सारे कार्य अन्ततः हमारे दुःख का कारण बनते हैं और सबसे बड़ी चीज तो अपने जीवन को यूँ ही व्यर्थ बरबाद करना। अपने जीवन से कोई भी सार्थक कार्य नहीं कर पाना। पूरे जीवन भर ये असाता के बंध का बहुत बड़ा कारण है। अकलंक स्वामी तत्वार्थ राजवार्तिक में लिख रहे हैं। कभी अपन देखें इन बातों को और जीवन में अपन विचार करें जब अपने ऊपर अपने ही बाँधे गये दुःखों का बोझ भारी हो जाये और हमसे झेला नहीं जाये तो हमें क्या विचार करना चाहिये। अब जरा ये विचार कर लें। ये तो विचार कर लिया अपन ने कि मेरे अपने ऊपर दुःखों का जो बोझा मैं ढो रहा हूँ वो मैंने ही बाँधा है जैसे कि मैं सामान की पोटली ये सोचकर कि मेरे पास इतना सारा सामान है और बाँधकर के सिर पर रख लेता हूँ और उसका बोझा ढोता हूँ। लगता है जैसे कि मैं बहुत सारा सामान लिये हूँ लेकिन मैं तो उसके बोझ से दबा जा रहा हूँ। ये दिखाई नहीं पड़ता। ऐसे ही मैं जब-जब दूसरे के दुःख का इन्तजाम करता हूँ तो सोचता हूँ देखा कैसे बच्चू को दुःख में डाला। लेकिन उस समय मैं अपने सिर पर दुःखों का जो बोझा बाँधता हूँ उसकी तरफ ध्यान नहीं जाता है। आचार्य भगवन्त ध्यान दिला रहे हैं कि अज्ञानतावश, मोह के वशीभूत होकर के, आसक्ति के वशीभूत होकर के, मैंने अपने दुःख का इन्तजाम कर लिया है तो उपाय बताते हैं। 

    साता के उपाय की चर्चा नहीं करूँगा आज। साता के उपाय की तो कल से चर्चा करूँगा। अगले सूत्र की। लेकिन आज तो सिर्फ ये देख लूँ कि इन दुःखों के आ जाने पर मैं क्या करूँ ? मैं क्या कर्म करूँ ? ये तो ठीक है कि मेरे अन्दर जो भी साता है उसके लिये मैंने क्या-क्या करा होगा, उस पर विचार कर लेंगे और आगे के लिये तैयारी कर लेंगे कि और साता बँधे। ये अलग से कर लेंगे लेकिन आज जबकि मेरे ऊपर दुःखों का बोझा इतना भारी हो गया है, मेरे पल्ले में तो साता है ही नहीं, तो इसी आसाता की स्थिति में, मैं क्या करूँ? क्या उपाय करूँ ? तब उसके लिये आचार्य भगवन्त कहते हैं कि सबसे पहली चीज दूसरे से अपेक्षायें कम करो। शिकायत करना कम करो। जब भी दुःख आये तो कम से कम दूसरे ने दुःख दिया है ऐसा विचार ही मत करो। मेरे ही भीतर दुःख का कारण है, भैया ! तुमने कुछ नहीं किया। सामने वाला अगर ये फील (महसूस) भी करे कि मेरी वजह से आपको दुःख पहुँचा तो उसके पैर छूकर के कहना कि नहीं, ऐसा मत कहो आपकी वजह से मुझे कोई दुःख नहीं है दुःख तो मेरे भीतर है। मैंने ही कुछ ऐसा मि 
    --- - करे तब भी मैं उसको यही कहूँ कि मुझे मेरे कर्म दुःखी कर रहे हैं तुम्हारे कर्म तो तुम्हें दुःखी करेंगे। मुझे थोड़े ही दुःखी करेंगे। किसी के कर्म किसी और को दुःखी करेंगे, ऐसा नहीं है। हमारे कर्म हमें दुःखी करते हैं। तुम जो हमें दुःख पहुँचाने का कर्म कर रहे हो उसका फल जब तुम्हें मिलेगा तब वो तुम्हें दुःखी करेगा। अभी तुम्हारे किये गये कर्म से थोड़े ही दुःखी हूँ, मैं तो अपने किये गये कर्म से दुःखी हूँ। अरे बहुत कठिन है, ये विचार आना बहुत कठिन है, लेकिन करना तो पड़ेगा। आज नहीं करेंगे, कल करेंगे, कल नहीं करेंगे परसों करेंगे, पर आना चाहिये और देखो भैया अपने दुःख से दुःखी लोग ज्यादा नहीं हैं, दूसरे के दुःख से दुःखी लोग तो और ही कम है। अपने दुःख से दुःखी लोग तो संसार में मिल जायेंगे कि उनको शरीर ठीक नहीं मिला। आर्थिक स्थिति कमजोर है। पद प्रतिष्ठा नहीं मिली। सुख-सुविधा के साधन नहीं मिले। सो इस वजह से दुःखी हैं, ऐसे लोग तो बहुत ज्यादा नहीं हैं और इससे भी कम हैं ऐसे लोग जो दूसरे के दुःख से दुःखी हैं कि भैया इनके दुःख कैसे दूर करूँ? ऐसे तो महान लोग हैं वो कहीं मिल जायें तो उनके पैर छू लेना, जो दूसरों के दुःख से दुःखी हों। अपने दुःख से दुःखी लोग तो संसार में बहुत मिलेंगे। वे भी लेकिन उतने नहीं है, उससे भी ज्यादा हैं दूसरे के सुख से दुःखी। हाँ दूसरे के दुःख से दुःखी बहुत कम, उससे ज्यादा अपने दुःख से दुःखी, और सबसे ज्यादा दूसरे के सुख से दुःखी लोग कि दूसरा क्यों सुख से जी रहा है ? इस बात की बड़ी तकलीफ। अपने भीतर झाँक करके देखें कि कितने क्षण मेरे ऐसे होते हैं जिसमें मैं अपने ही किसी अभाव की वजह से दुःखी होता हूँ और कितने क्षण ऐसे होते हैं जिसमें मैं दूसरे के दुःख की वजह से थोड़ा दुःख महसूस करता हूँ और अधिकांश क्षण तो मेरे दूसरे के सुख को देख-देखकर ही दुःखी होने में ही गुजर जाते हैं और ऐसे-दूसरे के सुख से दुःखी लोगों को तीर्थंकर भी आ जायें, भगवान भी आ जायें, तब भी सुखी नहीं कर सकते। जो दूसरे के सुख से दुःखी हैं उसके लिये तो दुःख से बचने का कोई उपाय नहीं है। अपने दुःख से बचने का तो उपाय है। बेटी का ब्याह करके विदा कर रहे हैं, दुःखी हैं लेकिन प्रसन्नता है कि सुख से रहेगी, कोई असाता नहीं बंध रही, आँसू गिर रहे हैं फिर भी। बेटा जा रहा है विदेश पढ़ने के लिये, आँसू टपक रहे हैं, सिर पर हाथ फेरकर विदा दे रहे हैं, पर मन प्रसन्न है। भविष्य उज्ज्वल हो जाए इतना ही चाहते हैं। धर्मात्मा का संयोग मिला है, एक दिन धर्मात्मा दूर जाता है, तब उसको भेजने जा रहे हैं, आँखों में आँसू हैं लेकिन मन प्रसन्न है कि जब तक ये रहे हमने धर्म सीख लिया। धर्म हमारे साथ है। ये भले ही दूर चले जायें लेकिन धर्म तो देकर के जा रहे हैं। तब भी कोई असाता नहीं बँधेगी। दूसरे के दुःख से दुःखी होने वाले को भी साता ही बँधेगी और इस तरह ये विचार करने वाले को भी साता ही बंधती है। असाता तो तब बँधती है जबकि हम दूसरे के सुख को सहन नहीं कर पाते है और भीतर ही भीतर शोक संताप से ग्रसित हो जाते हैं तब और नयी असाता का बंध कर लेते हैं। 

    एक उदाहरण है। शायद मैंने पहले कभी सुनाया हो लेकिन अपन इस अवसर पर फिर से उसे रिवाइज (दोहरा) कर लें। कैसे हम अपने लिये दूसरे से दुःख कमा लेते हैं। हमारे अन्दर आदत बन जाती है। कितनी भी सुख-सुविधाएँ हमें मिल जायें, फिर भी हम सुखी नहीं हो सकते। कितना भी हमारे लिये फुल फेसिलिटीज मिल जायें लेकिन जिसने दुःखी रहने की आदत बना ली, उसे भगवान भी सुखी नहीं कर सकते। हमें इस आदत को छोड़ना चाहिये। अपेक्षाओं को घटाना चाहिये। शिकायत की प्रक्रिया कम करनी चाहिये तब हम दुःख से बच पायेंगे और इतना ही नहीं मैंने जीवन में जो सार्थक किया है उसका विचार करने से दुःख कम हो जाते हैं, निराशा नहीं होती। हाँ, एक पेड़ की पत्ती टूटते समय काँप रही थी। कवि ने कल्पना करी और उसको दिलासा दी, “तुम क्यों काँप रही हो, तुम क्यों घबरा रही हो, अरे! तुम्हारा जीवन तो सार्थक हो गया। तुमने वो जो थोड़ी सी छाया किसी को दी है ये क्या कम है। उस एक पत्ती से भी थोड़ी सी छाया तो हुयी होगी, इसका विचार करो।” मेरे अपने जीवन से दूसरे के लिये जो कोई लाभ पहुँचा देगा उसका विचार करना और अपने दुःख को झेल देना। ये भी एक दुःख से बचने का उपाय है। 

    दुःख आ जाने पर और वो जो मैं आपसे कह रहा था कैसे हम अपने, अपने आपके स्वभाव में दुःख डाल लेते हैं। एक बेटे से पिता को हमेशा शिकायत रहती थी। शायद आपको याद आ गया, उसने अपने दोस्त से भी कहा कि बेटे को जरा समझा देना। हमारी तो जिन्दगी इतनी निकल गयी। हमारे मन का तो एक काम नहीं करता वो सब उल्टे-उल्टे काम करता है। तो उनके मित्र ने बेटे से कहा कि भैया पिताजी की कितनी उम्र रह गयी, कम से कम उनके मन की तो कर देवें। तो कहने लगा कि कहाँ तक मन की करें। जो मन की करते हैं उसमें उनको दुःख लगने लगे तो बताओ फिर क्या करें ? कहने लगे, हमने नये कपड़े बनवाये। पिताजी से पूछकर बनवाये थे और हम वे नये कपड़े पहनकर के दुकान पहुँचे, कहने लगे और हम कमा-कमा के रखते जा रहे हैं, ये साहबजादा बने मिटा रहे हैं हमारी सम्पत्ति को। हमने कहा ठीक है भैया गलती हो गयी। हमने बेकार में ये पहने। हम खराब वाले पहन लेंगे, जो पुराने पड़े थे वे ही पहन लेंगे। हम चार दिन के बाद दुकान पर फटे पुराने से पहन कर गये। कहने लगे “लजवाओ न" अभी तो हम कमावत है, कम से कम हमारे सामने तो अच्छे ही पहन लो। अब बताओ आप, जिस व्यक्ति को किसी भी स्थिति में सुखी ही नहीं रहना है, प्रत्येक स्थिति में दुःखी ही रहना है, तो हम क्या कर सकते हैं। 

    ऐसे लोगों के सुख का कोई इन्तजाम नहीं कर सकता। भगवान भी नहीं कर सकते। भैया, इस आदत को छोड़ना चाहिये, अगर अपने भीतर ये आदत पड़ गयी है। अपने जीवन में दुःख निकालने की आदत पड़ गयी है, तो इससे अपना जीवन सुधरेगा नहीं और आखरी बात कि अब अपने जीवन में सावधान हो जायें कि दूसरे को मेरे से दुःख ना पहुँचे। कम से कम दुःख पहुँचाने का मेरा भाव तो ना रहे। हो सकता है मैं सुबह से शाम तक उठू-बैठू, आऊँ-जाऊँ, बोलूँ, खाऊँ-पीऊँ, उसमें बहुत सारे जीवों को मेरे नहीं चाहते हुए भी दुःख पहुँच सकता है, पर मैंने चाहा नहीं कि किसी को दुःख पहुँचे। मेरी मानसिकता तो कम से कम मैं ऐसी ना रखू कि किसी को दुःख पहुँचे और फिर इतना ही नहीं मैं अपनी क्रियाओं पर भी जरा विचार करूँ, ऐसा ना हो कि मैं भले ही दुःख देने का विचार नहीं करता लेकिन मेरी क्रियाएँ जरा अव्यवस्थित हैं तो उनसे दुःख पहुँचता है तो मुझे अपनी क्रियाओं को भी व्यवस्थित करना पड़ेगा। मेरा भाव तो खराब नहीं है लेकिन मेरी वाणी सुनकर के दूसरे को दुःख उत्पन्न होता है तो मैं जरा अपनी वाणी पर नियन्त्रण कर लूँ। ठीक है मेरे मन में तो ऐसा कोई भाव नहीं है। कई बार ऐसा हो सकता है, मन में भाव ना हो और वाणी से कोई चीज ऐसी निकल जाये तो बाद में हम अपने को सँभाल सकते हैं कि भैया मेरा आशय ऐसा नहीं था। ये चीज हमें सीखनी पड़ेगी। ये कर्म करने की प्रक्रिया हमें सीखनी पड़ेगी, अगर हम अपने लिये आगे और दुःख नहीं चाहते हैं। जितने दुःख हैं उनको हम कैसे झेलें। और उनमें हम अपनी प्रसन्नता को कैसे बरकरार रखें ? ये हमने सीख लिया और अब हम आगे के लिये दुःखों का इन्तजाम दूसरों के लिये ना करें तब हमारे भी दुःख दूर हो जायेंगे। जब हम दूसरे को दुःख देते हैं तो वह लौटकर के हमारे ही ऊपर आता है। अच्छा देखो, किसी गुफा में किसी गुम्बद के नीचे खड़े होकर के जोर से बोलो। गाली देवो तो क्या होगा। वापस आवेगी, लो अपनी वापस ले लो। ये संसार भी इसी तरह की प्रतिध्वनियों का संसार है जिसमें हमारी ही ध्वनि लौटकर के हम तक आती है। यहाँ हम जो फेंकते हैं वो हम तक वापिस लौटकर के आता है। ये सावधानी हमारी है कि हम देखकर के कार्य करें। कैसे? 

    एक उदाहरण हैं सबके जीवन में ऐसा घटित होता है, किसी के जीवन में तुरन्त होता है। असल में क्या है ना, कि मुश्किल ये है कि ये कर्मों का फल जो है तुरन्त ही पूरा का परा मिल जाता तो लोगों की समझ में आ जाता लेकिन ये थोडा बहत तुरन्त मिलता है अधिक बाद में मिलता है तब तक हम भूल चुकते हैं कि ये कौनसी चीज का फल है, अभी तो हमने कुछ नहीं किया। एक और मुसीबत आ गयी। हम अच्छे-अच्छे चले जा रहे थे और ये मुसीबत आ गई। तुरन्त का तुरन्त मिलकर हिसाब चुकता हो जाता तो भी ठीक था लेकिन ऐसा नहीं है। इसके आफ्टर इफेक्ट्स बहुत होते हैं। दूरगामी परिणाम बहुत होते हैं जो हम एक क्षण में करते हैं। वो कहते हैं ना कि “तवारीखों के वो मंजर भी हमने देखे हैं जब लम्हों ने खता की और सदियों ने सजा पायी।" एक क्षण को हम भूल चुके थे और कई-कई दिनों तक हमें उसका पनिशमेन्ट, उसका फल भोगना पड़ा। ऐसी स्थिति हमारे साथ बन जाती है इसलिये बहुत सावधानी की आवश्यकता है। किसी के जीवन में तो तुरन्त रिटर्न होकर आता है। इसका उदाहरण है एक व्यक्ति ......... ये सच्ची घटना है। एक व्यक्ति ने अपने बेटे की शादी में बेटी वाले को इतना अधिक परेशान किया, इतनी तकलीफ पहुँचाई कि जो देखने वाले सज्जन पुरुष थे उनको भी अच्छा नहीं लगा कि भई ये तो ठीक नहीं है। ये कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने लिखा है उनके जीवन का संस्मरण। उन्हीं ने लिखा कि मैंने जाकर के उनसे कहा कि ये आपको शोभा नहीं देता तो मालूम उन्होंने क्या कहा। कहने लगे कि अरे तुम नहीं जानते, गन्ने को निचोड़ो तब ही रस निकलता है। ऐसा उदाहरण दिया। इतना सब करने के बाद भी क्या उदाहरण दे रहे हैं वो गन्ने को निचोडो तो ही रस निकलता है। दो-तीन साल के बाद उन्हीं सज्जन की. जिनके बेटे का ब्याह हुआ था, बिटिया का ब्याह हुआ और उनकी बिटिया के ब्याह में बेटे वाले ने उनकी जो दुर्दशा करी सो लोगों से देखी नहीं गयी। हाँ इसी जीवन में और अबकी बार रास्ते में मुँह लटकाये फिर मिल गये वो। भैया उदास क्यों हो, क्या बात हुई? हफ्ते भर में बेटी आ जायेगी। इतनी उदासी की क्या बात है ? बोले यह बात नहीं है। "बात क्या है ?" कहने लगे अब तो लड़की वाले को कोई आदमी ही नहीं समझता। अब कह रहे हैं वो। हमने उनसे कहा तो नहीं. पर हमारे मन में आ गयाठीकतो है आदमी क्यों समझेगा, आपने भी तो पहले उन्हें गन्ने की उपमा दी थी। आपने भी कहाँ आदमी समझा था। आपने भी तो गन्ना ही समझा था, गन्ने को निचोड़ने पर रस निकलता है। भैया ! हमारे साथ ये सारी चीजें हम खुद इकट्ठी करते हैं, जैसा-जैसा हम व्यवहार दूसरे के साथ करते हैं वो हम तक लौटकर के आता है। अगर हम अपने जीवन में दुःख नहीं चाहते हैं तो फिर हम दूसरे के लिये भी दुःख का इन्तजाम करना बन्द कर देवें और अगर अपने जीवन में कोई दुःख आता है, संकट और विपत्ति आती है तो उसके लिये भी दूसरे को दोषी ठहराना, उसकी शिकायत करना अगर हम बन्द कर दें। और तीसरी बात भैया दूसरे के सुख से दुःखी होने की आदत छोड़ देवें और सिर्फ इतना ही विचार करें कि मैंने ही कुछ ऐसा किया होगा जिससे कि मेरे जीवन में ये दुःख, संकट और विपत्ति आये। अगर सही कर्म करने की कुशलता हम सीख लें तो हमारा जीवन जरूर से बहुत ज्यादा अच्छा बनेगा। इसी भावना के साथ कि हम सब अपने जीवन को अच्छा बनायें|

    बोलिये आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज की जय। 
    ००० 
  17. Vidyasagar.Guru
    वृक्षारोपण महोत्सव समाचार
    पुरे भारत में मनाया गया वृक्षारोपण महोत्सव, आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के 52वें दीक्षा दिवस पर भक्तो ने दी गुरुजी को हरियाली से विनयांजली
    अब तक प्राप्त समाचार इस प्रकार है-
    बड़नगर आचार्य श्री के समक्ष वृक्षारोपण - मिला आशीर्वाद
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1198-vidyasagar-guru/
     
    वृक्षारोपण महोत्सव समाचार (अखबार की कतरनें - news paper cuttings) 
    https://vidyasagar.guru/gallery/album/803-photo-album/
     
    सोशल मीडिया पर हैश टेग से प्राप्त सुचना
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1202-vidyasagar-guru/
     
    बंधा जी में हुआ वृक्षारोपण
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1219-vidyasagar-guru/
     
    नीमच दिगंबर जैन समाज ने टैगोर सर्कल पर किया वृक्षारोपण
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1216-vidyasagar-guru/
     
    टीकमगढ़ में आदर्श मति माताजी ससंघ सान्निध्य में हुआ वृक्षारोपण
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1215-vidyasagar-guru/
     
    बैरसिया में मुनि श्री अजितसागर जी ससंघ सान्निध्य में हुआ वृक्षारोपण
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1214-vidyasagar-guru/
     
    महुआ में मुनि श्री सुधासागर जी के सान्निध्य में हुआ वृक्षारोपण
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1213-vidyasagar-guru/
     
    सरसड़ी, मांडलगड, बिजोलिया, हनुमाननगर, बरूंदनी, गुलाबपुरा में हुआ वृक्षारोपण
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1212-vidyasagar-guru/
     
    सिलोदय क्षेत्र में लगाए औषधीय पौधे
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1211-vidyasagar-guru/
     
    छत्तीसगढ रायपुर के अकोली ग्राम में हुआ वृक्षारोपण
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1210-vidyasagar-guru/
     
    श्री दिगंबर जैन चंद गिरी तीर्थ क्षेत्र प्रतिभास्थली डोंगरगढ़ में हुआ वृक्षारोपण
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1209-vidyasagar-guru/
     
    श्री जिनोदय तीर्थ अतिशय क्षेत्र नसिया जी सिरोंज में वृक्षारोपण
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1204-vidyasagar-guru/
     
    लाड़पूरा में मुनिश्री निष्कम्पसागर जी एवं क्षुल्लक श्री धैर्यसागरजी महाराज के सान्निध्य में हुआ वृक्षारोपण
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1207-vidyasagar-guru/
     
    देवली में जैन युवा परिषद ने किया वृक्षारोपण
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1205-vidyasagar-guru/
     
    श्री सेसईजी शिवपुरी में वृक्षारोपण
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1203-vidyasagar-guru/
     
    अलवर राजस्थान में युवाओ ने किया हरियाली से विनयांजलि कार्यक्रम
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1201-vidyasagar-guru/
     
    जबलपुर ,दर्पण रोटी बैंक
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1199-vidyasagar-guru/
     
    व्रक्षारोपन ज्ञानोदय मन्दिरजी बैंगलोर
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1196-vidyasagar-guru/
     
    स्वर्ण पथ मानसरोवर जयपुर पार्क में वृक्षारोपण कर गुरुवर को दी दीक्षा दिवस पर विनयांजली
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1190-vidyasagar-guru/
     
    वृक्षारोपण दयोदय गोशाला ,गंजबासौदा
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1191-vidyasagar-guru/
     
    वृक्षारोपण @मंदारगिरी जी दिगम्बर जैन सिद्ध क्षेत्र - बिहार
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1188-vidyasagar-guru/
     
    वृक्षारोपण: हाईटेक सिटी जैन मंदिर हैदराबाद (DJCHC)
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1193-vidyasagar-guru/
     
    वृक्षारोपण: अतिशय क्षेत्र कुलचरम जी हैदराबाद
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1192-vidyasagar-guru/
     
    उज्जैन: तीन स्थानो पर व्रक्षा रोपण का कार्यक्रम आयोजित किया गया
    https://vidyasagar.guru/forums/topic/1206-vidyasagar-guru/
     
    बैंगलोर वृक्षारोपण
    https://vidyasagar.guru/gallery/album/801-photo-album/
     
    अतिशय क्षेत्र अटेर में हुआ वृक्षारोपण हरियाली से दी विनयांजलि
    https://vidyasagar.guru/gallery/album/799-photo-album/
     
    करेली वृक्षारोपण
    https://vidyasagar.guru/gallery/album/802-photo-album/
    नया गार्डन छतरी योजना वैशाली नगर अजमेर
    https://vidyasagar.guru/gallery/album/800-photo-album/
     
    अगर आपने भी किया वृक्षारोपण तो किसी एक माध्यम से समाचार प्रेषित करें
    1. वेबसाइट पर स्वयं अपलोड करें
    https://vidyasagar.guru/forums/forum/249-1
    2.WhatsApp पर हमें जगह के नाम से मेसेज करें  
    8905109970
    3. info@vidyasagar.guru पर E-Mail करें
    #गुरुजीकादीक्षा_दिवस       
    #हरियालीसेविनयांजलि
    वृक्षारोपण महोत्सव सम्पूर्ण जानकारी
    https://vidyasagar.guru/clubs/420-group/
  18. Vidyasagar.Guru
    *‼आहारचर्या*‼
    *श्री सिद्धयोदय नेमावर*
      _दिनाँक :०३ ,सितंबर,१९
    *आगम की पर्याय महाश्रमण युगशिरोमणि १०८ आचार्य श्री विद्यासागर जी महामुनिराज* _को आहार दान का सौभाग्य  ब्रह्मचारिनी रानू दीदी सागर को  प्राप्त हुआ है।_
    इनके पूण्य की अनुमोदना करते है।
                💐🌸💐🌸
    *भक्त के घर भगवान आ गये*
              🌹🌹🌹🌹
  19. Vidyasagar.Guru
    मुनिश्री प्रशांतसागर जी  मुनिश्री निर्वेगसागर जी  मुनिश्री विनीतसागर जी  मुनिश्री शीतलसागर जी   
     
    अधिक जानकारी 
    https://vidyasagar.guru/clubs/332-group/
    चातुर्मास स्थल जल्द ही अपडेट होगा 
    आपके पास जानकारी हो तो नीचे कमेन्ट मे अपडेट करे 
    मुनि संघ ( सभी महाराज जी एक साथ ) की फोटो भी अपडेट करे 
  20. Vidyasagar.Guru
    आत्मविश्वास से हर कार्य संभव है |
    सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र मोक्षमार्ग में आवश्यक है |
    -  आचार्य श्री विद्यासागर महाराज
    26/05/2023 शुक्रवार
     
     
     
    डोंगरगढ़ – संत शिरोमणि 108 आचार्य श्री विद्यासागर महाराज ससंघ चंद्रगिरी डोंगरगढ़ में विराजमान है | आज के प्रवचन में आचार्य श्री ने बताया कि विश्वास बहुत महत्वपूर्ण है चाहे वह आपके रिश्ते में हो या धर्म में | जब तक विश्वास होता है सब कुछ ठीक लगता है विश्वास में ही श्रद्धा, भक्ति, भाव निहित होता है | विश्वास में जहा कमी होती है वहाँ पर अरुचि होने लगती है | उसमे हमारा मन नहीं लगता है ध्यान इधर – उधर भटकता है | और जिसमे हमारी रूचि होती है वहाँ चाहे दिन हो या रात मन लगा रहता है और उत्साह बना रहता है | आपकी रूचि अच्छे या बुरे कार्य में होगी तो उसके अनुरूप ही उसका फल आपको मिलेगा | अणुव्रत और महाव्रत दोनों  अपनी – अपनी जगह महत्वपूर्ण है | अणुव्रत का पालन आप लोग करते हैं  और महाव्रत का पालन महाव्रती करते हैं  | कुछ लोग पूछते हैं महाराज यदि अणुव्रत को तोड़ सकते हैं या यह किसी कारण टूट जाये तो क्या करें | जिसमे रूचि होती है वहाँ चाहे वह छोटा (अणुव्रत) हो या बड़ा (महाव्रत) हो वह हर पल उसका ध्यान रखता है और वह उसका विवेक और उत्साह पूर्वक पालन करता है | और यदि अणुव्रत टूट जाये तो उसका टूटने का कारण क्या है क्यों टूटा इस पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है | आचार्यों ने बताया है कि व्रतों का उत्साह पूर्वक अपनी शक्ति अनुरूप पालन करना चाहिये जिससे उसमे रूचि बढती रहे और मन शांत रहे | जिस प्रकार एक गीतकार अपने सुर का ध्यान रखता है कि कहा ऊँचा लेना है और कहा निचा लेना है | वह अपने गीत के माध्यम से अकेले ही भक्ति करने में सक्षम होता है | एक और व्यक्ति उस गीतकार के साथ मृदंग (तबला) बजाने के माध्यम जुड़ना चाहता है| तो गीतकार कहता है कि यदि तुमने कुछ आगे पीछे बजा दिया तो मेरा गीत गड़बड़ हो जायेगा तो तबला बजाने वाला कहता है कि नहीं कुछ गड़बड़ नहीं होगी आप निश्चिन्त रहो | मेरे मृदंग वादन से आपके गीत में और आनंद और उत्साह आ जायेगा | इसके बाद एक नृत्यकार आ जाता है और कहता है कि आपके गीत और मृदंग्वादन के साथ मै नृत्य करना चाहता हूँ तो गीतकार कहता है यदि तुम कुछ ऊपर निचे कर दिए तो हमारा कार्य गड़बड़ हो जायेगा तो नृत्यकार कहता है नहीं ऐसा नहीं होगा आप मुझपर विश्वास रखो मेरे नृत्य से आपके गीत  में और आनंद और उत्साह आ जायेगा | आप के गीत गायन में कुछ ऊपर निचे हो सकता है पर मेरे नृत्य में कभी गड़बड़ी नहीं हो सकती | आपने सौधर्म इंद्र का ताण्डव तो देखा ही होगा जिसमे ना गीत कि और ना ही मृदंग (तबला) कि आवश्यकता होती है | इस प्रकार हमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र को मोक्षमार्ग में आवश्यक मानना चाहिये | मोक्षमार्गी को अपना अटूट आत्मविश्वास इसपर बनाये रखना चाहिये | आज आप लोगो ने इतने अच्छे से मोक्षमार्ग के बारे में सुना इसके लिये मैं आपको धन्यवाद देता हूँ |
     

     
    आज आचार्य श्री को नवधा भक्ति पूर्वक आहार कराने का सौभाग्य प्रतिभास्थली कि ब्रह्मचारिणी सोनल दीदी मीनल दीदी  परिवार को प्राप्त हुआ जिसके लिए चंद्रगिरी ट्रस्ट के अध्यक्ष सेठ सिंघई किशोर जैन,सुभाष चन्द जैन, चंद्रकांत जैन, निखिल जैन (ट्रस्टी),निशांत जैन  (सोनू), प्रतिभास्थली के अध्यक्ष श्री प्रकाश जैन (पप्पू भैया), श्री सप्रेम जैन (संयुक्त मंत्री) ने बहुत बहुत बधाई और शुभकामनायें दी | श्री दिगम्बर जैन चंद्रगिरी अतिशय तीर्थ क्षेत्र के अध्यक्ष सेठ सिंघई किशोर जैन ने बताया की क्षेत्र में आचार्य श्री विद्यासागर महाराज जी की विशेष कृपा एवं आशीर्वाद से अतिशय तीर्थ क्षेत्र चंद्रगिरी मंदिर निर्माण का कार्य तीव्र गति से चल रहा है और यहाँ प्रतिभास्थली ज्ञानोदय विद्यापीठ में कक्षा चौथी से बारहवीं तक CBSE पाठ्यक्रम में विद्यालय संचालित है और इस वर्ष से कक्षा एक से पांचवी तक डे स्कूल भी संचालित हो चुका है | यहाँ गौशाला का भी संचालन किया जा रहा है जिसका शुद्ध और सात्विक दूध और घी भरपूर मात्रा में उपलब्ध रहता है | यहाँ हाथकरघा का संचालन भी वृहद रूप से किया जा रहा है जिससे जरुरत मंद लोगो को रोजगार मिल रहा है और यहाँ बनने वाले वस्त्रों की डिमांड दिन ब दिन बढती जा रही है | यहाँ वस्त्रों को पूर्ण रूप से अहिंसक पद्धति से बनाया जाता है जिसका वैज्ञानिक दृष्टि से उपयोग कर्त्ता को बहुत लाभ होता है|आचर्य श्री के दर्शन के लिए दूर – दूर से उनके भक्त आ रहे है उनके रुकने, भोजन आदि की व्यवस्था की जा रही है | कृपया आने के पूर्व इसकी जानकारी कार्यालय में देवे जिससे सभी भक्तो के लिए सभी प्रकार की व्यवस्था कराइ जा सके | उक्त जानकारी चंद्रगिरी डोंगरगढ़ के ट्रस्टी निशांत जैन (निशु) ने दी है |
     
     
  21. Vidyasagar.Guru
    मुनिश्री अभयसागर जी  मुनिश्री प्रभातसागर जी  मुनिश्री निरीहसागर जी   
     

     
    अधिक जानकारी 
    https://vidyasagar.guru/clubs/335-group/
    चातुर्मास स्थल जल्द ही अपडेट होगा 
    आपके पास जानकारी हो तो नीचे कमेन्ट मे अपडेट करे 
    मुनि संघ ( सभी महाराज जी एक साथ ) की फोटो भी अपडेट करे 
  22. Vidyasagar.Guru
    पीड़ा
     घर का
     बँटवारा हो गया
     जमीन-जायदाद
     सब बँट गयी,
     अमराई और कुआँ भी
     आधे-आधे हो गये,
     अब मेरे हिस्से में मेरा
     और उसके हिस्से में
     उसका आकाश है!
     सवाल यह नहीं है
     कि किसे कम मिला
     और किसके हिस्से में 
     ज्यादा आया है,
     मेरी पीड़ा
     अपने ही
     बँट जाने की है!
     
    Anguish
    The house got divided.
    The land and other property too
    Got divided.
    Even the mango grove
    And the well got divided.
    Now I have my sky
    On my side,
    And he has his sky
    On his side.
    It’s not a question
    Of who got more
    And who was cheated.
    My anguish is
    About myself being
    Divided.
  23. Vidyasagar.Guru
    घोंसला
     मैंने चिड़िया को
     घोंसला बनाते देखा है
     मैंने उसे
     दाना चुगते 
     और झट से
     आकाश में 
     उड़ते देखा है
     मैं चाहता हूँ
     कि चिड़िया 
     मुझे भी
     यह सब सिखाए
     कि किस तरह 
     जमीन से 
     जुड़े रहकर 
     आकाश में उड़ा जा सकता है, 
     कि किस तरह
     असीम आकाश में 
     उड़ने का अहसास 
     एक घोंसले में 
     रहकर भी
     जीवित रखा जा सकता है!
     
    Nest
     I have watched the bird
     Make its nest.
     I have watched the bird 
     Gather grain and then
      fly away far in the sky.
     I wish the bird would teach me
     How to remain
     Connected to the earth
     While in flight, and
     How to keep alive
     A sense of the sky,
     While in the nest.
  24. Vidyasagar.Guru
    रीतापन
     चिड़िया आयी
     उसके करीब
     एक चिड़िया 
     और आयी
     चहचहायी 
     सारा आकाश भर गया
     चिड़िया की चहचहाहट से
     जीवन का रीतापन 
     भर नहीं पाया आदमी
     परस्पर मधुर संवाद से !
     
    Emptiness
     A bird alighted;
     Near it another bird
     Came and sang.
     The entire sky
     Resounded with the birds’ singing.
     It’s man only who could not fill
     His life’s emptiness
     With mutual mild talk.
  25. Vidyasagar.Guru
    उड़ान 
     नदी के ऊपर
     उड़ती चिड़िया ने
     आवाज़ दी
     नदी ने मुस्कुराकर कहा -
     बोलो चिड़िया
     चिड़िया ने 
     और ऊँची उड़ान ली
     पहाड़ के ऊपर 
     उड़ती चिड़िया ने
     आवाज़ दी 
     पहाड़ ने धीरे से कहा-
     बोलो चिड़िया
     चिड़िया ने
     और ऊँचे उड़ते-उड़ते पुकारा
     पर आवाज़ खो गयी
     चिड़िया लौट आयी है
     वह कहती है
     कि अपनी आवाज़ 
     अपने तक आती रहे 
     इतना ही 
     ऊँचे उड़ना
     
    Flight
     The bird called the river
     As it flew above it.
     The river smiled
     And said,’Speak, Bird.’
     The bird flew higher.
     Flying above the cliff
     The bird called.
     The cliff said softly,
     ‘Speak, Bird.’
     The bird
     Flew higher and higher.
     Its voice got lost.
     The bird has returned now
     To say,
     Fly only as high 
     As the reach of
     Your own call.’
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