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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

कर्म कैसे करें? भाग -8


Vidyasagar.Guru

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हम सभी लोग पिछले कई दिनों से अपने जीवन में जो हम करते हैं उसी से हमारा व्यक्तित्व, उसी से हमारा जीवन, हमारी वाणी और हमारे विचार सभी प्रभावित होते हैं। तब हम क्यों ना ऐसा करें जिससे कि हमारा व्यक्तित्व ऊँचा उठे। हमारा जीवन अच्छा बने। हमारी वाणी और हमारे विचारों में भी श्रेष्ठता आये, जब ये जिम्मेदारी कर्मों की हमारी है तो फिर हमको कर्म करने का कौशल, कर्म करने की कुशलता भी होनी चाहिये। एक ज्ञानी और एक अज्ञानी दोनों अपने जीवन में कर्म करते हैं और उन कर्मों का फल भी भोगते हैं। एक सफल और एक असफल व्यक्ति दोनों ही अपने जीवन में कर्म करते हैं। एक जैसे कर्म करने के बाद भी एक सफलता हासिल करता है, एक ज्ञानवान कहलाता है, एक असफल हो जाता है और अज्ञानी कहलाता है। बाह्य कर्म समान रूप से करने के बावजूद भी ऐसा क्या है जो हमारे जीवन को सफल और श्रेष्ठ बनाता है ? असल में कर्म करने की हमारी जो कुशलता है वो हमारे जीवन को श्रेष्ठ बनाती है और इतना ही नहीं जब हम उन कर्मों का फल चखते हैं, तब उस फल को चखते समय हमारी जैसी भाव दशा हमारी जैसी मानसिकता होती है, वैसा ही आगे के लिये हम नया कर्म संचित करते हैं। 


 एक ज्ञानी जब भी अपने भले और बुरे कर्मों का फल चखता है तब वो उसके लिये किसी बाह्य कारण को प्रमुखता नहीं देता। वो अपने ही भीतर झाँककर देखता है कि यदि मेरे जीवन में कोई विपत्ति या संकट या दुःख आया है, तो मुझे किसी और से शिकायत करने की आवश्यकता नहीं है, मुझे अपने भीतर झाँककर देखना होगा; उस विपत्ति, संकट या दुःख का कारण कहीं मेरे भीतर ही है। मैंने ही अपने लिये ऐसा पहले शायद कोई कर्म संचित किया होगा जिससे कि आज मुझे संकट और विपत्ति का सामना करना पड़ रहा है। ये ज्ञानी का सोच है, और इतना ही नहीं जब दूसरे पर विपत्ति आती है, तब वो ऐसा विचार नहीं करता कि ये इसके किसी कर्म के उदय से आयी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे जीवन से इसको कोई दुःख या विपत्तियाँ या संकट का सामना करना पड़ रहा हो। इसलिये मुझे अपने जीवन को सँभालकर चलना है जिससे कि किसी दूसरे के दुःख या संकट में मैं कारण ना बनूँ। मेरे दुःख और संकट में कोई और कारण बनता है। इस बात का विचार ना करते हुये मेरे दुःख और संकट का कारण मेरे ही भीतर है, ऐसा विचार करना, लेकिन दूसरे के ऊपर आने वाले दुःख और संकट में, मैं कहीं कारण ना बन जाऊँ, इस बात का ध्यान रखना ये है कर्म करने का कौशल। 


हमें पिछले दिनों ये बात बार-बार विचार करने में आ रही है और अब ये कुशलता अपने जीवन में सीख लेनी चाहिये। एक भिखारी एक अमीर आदमी के घर के सामने भीख माँगता है और कहता है कि भूखा हूँ, तीन दिन से, कुछ खाने को दे दो, लेकिन उसके अपने ही किन्हीं संचित कर्मों का ऐसा संयोग है, ऐसा उदय है कि कोई उसकी इस बात को सुनकर विश्वास नहीं करता और उसके प्रति दया का भाव नहीं रखता। यह तो उसके अपने कर्म का उदय हुआ, लेकिन सामने वाला क्यों अपने उस दया और करुणा के सहज स्वभाव को भूल जाता है, यह विचारणीय है और दुत्कार करके भगा दिया जाता है उसे, फिर भी वो थोड़ी और जब विनय करता है, याचना करता है, तब घर में जो सेठानी है वो आपे से बाहर हो जाती है और फर्श पोंछने का जो गीला कपड़ा है वो उठाकर के, फेंककर के उसे मार देती है। लेकिन मजे की बात ये है कि वो भिखारी इसके बावजूद भी प्रसन्न है। मेरे लिये इन्होंने खाने की कोई चीज नहीं दी। इस बात के लिये दुःख करना ये तो व्यर्थ ही है, मुझे कुछ तो दिया इसके लिये मुझे धन्यवाद देना चाहिये। गीला कपड़ा, फर्श पोंछने का, फेंककर के मारा ऐसा नहीं कह रहा है, 'दिया' मुझे और मेरा सौभाग्य कि इतना तो मिला और वो उसे रख लेता है। बहुत मुश्किल है ये। ये उदाहरण जब मैं पढ़ रहा था तो मुझे लगा कि ये सब बातें पता नहीं कौनसी दुनिया की और कौनसे संसार की बातें हैं। लेकिन हैं सब इसी संसार की बातें, कि ऐसे लोग भी हैं। उतने ही अहोभाव से, उतने ही प्रसन्नता से और वो ग्रहण कर लेता है और वापस लौट जाता है। रास्ते में तालाब के किनारे, धोकर के कपड़े को, छोटी-छोटी सी चिन्दियाँ बना लेता है और शाम घिरने तक भगवान के मंदिर में जाकर के बैठ जाता है और दीपक में उन कपड़े की चिन्दियों की बाती बनाकर के घी डालकर दीपक जलाता है और उस दीपक से भगवान की आरती करते समय क्या प्रार्थना करता है कि मेरा सौभाग्य, मैं आपसे अपने लिये क्या माँगू, सेठानी के लिये माँगता हूँ, उनके जीवन में क्षमा का दीप जले, उनके जीवन में प्रेम का उजाला हो। ईश्वर से माँग रहा है। ऐसा, ऐसा कर्म करने का कौशल, इतनी कुशलता क्या हमारे भीतर है। अपनी जरा-जरा सी विपत्ति, संकटों और दुःख में हम किस-किस को दोषी ठहराने का मन बना लेते हैं और ठहरा भी देते हैं, लेकिन किसी को भी ना वो दोषी ठहरा रहा है, ना किसी से उसे शिकायत है, वो तो सिर्फ अपना कर्त्तव्य कर रहा है। आपने मुझे जो दिया उससे मैं बेहतर क्या कर सकता हूँ। मुझे मेरे अपने संचित कर्मों के फलस्वरूप जो भी भला या बुरा फल चखने को मिला, उससे मैं कैसे कुछ बेहतर कर सकता हैं। ये विचार, कोई भी मुझे भला और बरा फल नहीं देता. मेरा किया हआ मुझे भला या बुरा फल देता है, अगर ये चीज हमारे मन में बनी रहे तो हम आसानी से इस संसार में दुःखों को जीत सकते हैं। अपने लिये दुःखों का इंतजाम हम सोचते हैं कि कोई और करता है. लेकिन अपने लियेदःखों का इन्तजाम हर व्यक्तिखद करता है। जैसे हम अपने लिये सुख का इन्तजाम करते हैं किसी दूसरे को उसका श्रेय नहीं देना चाहते। बताइये कौन अपने सुखों के लिये दूसरे को श्रेय देगा। किसी ने दिया आज तक ? किसी ने नहीं दिया होगा। मैं सुखी हूँ, मैं अपनी वजह से सुखी हूँ और किसी वजह से सुखी थोड़े ही हूँ, लेकिन मैं दुःखी हूँ तो किसी और की वजह से दुःखी हूँ, मैं अपनी वजह से दुःखी नहीं हूँ। ये ध्यान ही नहीं जाता। नहीं, जिस तरह से मैं सुखी हूँ, तो अपनी तरह से सुखी हूँ, उसी तरह अगर मैं दुःखी हूँ तो उसकी जिम्मेदारी भी मेरी ही है। मेरे ही भीतर उसका कोई कारण मौजूद है। अगर सुख-सुविधा के साधनों का अभाव होने से कोई दुःखी है, तो फिर सुख-सुविधा के साधन मिल जाने पर फिर सुखी होना चाहिये।


लेकिन बहुत से ऐसे लोग हैं जिनको कि सुख-सुविधा के साधन मिलने पर भी दुःखी देखा जाता है। अच्छा तो फिर पद प्रतिष्ठा का अभाव होने से शायद दुःख होता होगा। अरे तो ऐसे तो बहुत सारे लोग हैं जिनको कि पद प्रतिष्ठा मिल जाती है उसके बाद भी वे दुःखी रहते हैं। अरे ! नहीं तब तो शरीर स्वस्थ होता होगा तब सुख मिलता होगा, शरीर की अस्वस्थता से दुःख मिलता होगा। पर जिन-जिन के शरीर स्वस्थ है, उनके भी बहुत सारे दुःख हैं। तब तो ना पद प्रतिष्ठा के अभाव में दुःख मिलता है ना सुख-सुविधाओं के साधनों के अभाव में, ना शरीर की स्वस्थता के अभाव में दुःख मिलता है तो उसका कोई तो कारण होगा। ये सब बाह्य कारण हैं दुःख के, इनके होने या नहीं होने पर भी हमारे अन्तरंग का कारण अगर मौजूद है, हमारे भीतर अगर हमने असाता कर्म का संचय कर के रखा है तो वह असाता अपना फल हमें अवश्य देगी। और मैं अपने लिये असाता भोगता कैसे हूँ, हमें सिर्फ इस पर विचार करना है ताकि आगे मेरे जीवन में असाता, मेरे जीवन में दुःख, संकट और विपत्ति न आये। कोई कितना भी बाहर से मेरे जीवन के लिये संकट उत्पन्न कर सकता है लेकिन जब तक मेरे असाता का भीतर कारण मौजूद नहीं होगा तब तक कोई भी मुझे कितनी भी विपत्ति में डाल दे, वो विपत्ति भी मेरे लिये सम्पत्ति का काम करेगी और ऐसे सैकड़ों उदाहरण भरे पड़े हैं। पुराण ग्रन्थों को उठाकर के देखें कि कितने-कितने लोगों को विपत्ति में डाला, लेकिन उनके अपने संचित कर्म भले थे। इसलिये वो विपत्ति भी उनका कोई बिगाड़ नहीं कर पायी। तो भैया मेरे अपने संकटों और दुःखों का कारण मेरे भीतर मौजूद है। तो मैंने ऐसा क्या किया होगा जिससे कि मेरे दुःख और संकट आये, इस पर विचार करना है। 


आचार्य भगवन्तों ने हमें विचार करके और दे दिया है एक सूत्र - “दुःखशोकतापाक्रन्दन- वधपरिदेवनान्यात्मपरोभय स्थानान्यसवेद्यस्या" 

मैंने अपने लिये आज वर्तमान में जितने दुःख मैं भोग रहा हूँ उसका इन्तजाम तो मैंने खुद किया है। वे कौनसे भावों से मैं अपने असाता कर्म का संचय करता हूँ। अपने दुःखों का मैं स्वयं इन्तजाम करता हूँ। लगेगा कि कोई अपने दुःखों का इन्तजाम खुद करेगा क्या? अज्ञानतावश हम क्या नहीं करते ? मोह के वशीभूत होकर हम क्या नहीं करते? अपनी हमारी आसक्तियाँ हमसे क्या नहीं करवा लेतीं। हमारे दुःख का उपाय हम अपने हाथ से कर लेते हैं। ये तो जब थोड़ी समझ आती है तब अपने ऊपर रोना आता है या हँसी आती है कि अरे ये हमीं हैं जो हमने ऐसा किया और अपने लिये दुःख का इन्तजाम कर लिया और आचार्यों ने तो सूत्र लिख दिया कितनी चीजें हैं - दुःख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध, परिदेवनानि आत्म परोमय स्थानानि असद् वैद्यस्य। __ मेरे भीतर अगर मैंने असाता संचय की है जिसका कि फल मुझे आज भोगना पड़ रहा है तो उस समय मैंने क्या-क्या किया होगा? स्वयं भी दुःखी और दूसरे को भी दुःख में डाला होगा। आत्म, पर, उभय अर्थात् स्वयं को भी, दूसरों को भी और दोनों को भी मैंने दुःख का इन्तजाम किया होगा। दूसरे के लिये भी दुःख का इन्तजाम किया होगा या कि स्वयं भी अपने जीवन में लगातार दुःख का अहसास किया होगा। दुःख होने पर दुःख का अहसास न हो ? हाँ, ऐसा सम्भव है। हम सोचते हैं कि दुःख में दुःखी होने से यह दुःख घट जाएगा। नहीं भैया ! दुःख तो झेले-झेले कटता है। दुःख तो दुःखी होने से और बढ़ता है। देख लो आप, थोड़ा दुःख है और आप अपनी तरफ से दुःखी हो लो तो कम हो गया क्या, दुःख और बढ़ती हो गया। आचार्य भगवन्त कह रहे हैं कि दुःख के निमित्त मिलने पर जो और दुःखी होता है, दूसरों के दुःख का इन्तजाम करता है, मानिये, वो अपने लिए असाता का संचय करता है। दुःख, इष्ट का वियोग होने पर, अनिष्ट का संयोग होने पर जिस तरह पीड़ा के परिणाम होते हैं सब हमारे नये दुःख का इन्तजाम करते हैं और ये तो चौबीस घन्टे हम लोगों के साथ लगा हुआ है। इष्ट का वियोग हो गया और अनिष्ट का संयोग हो गया। किसी ने कठोर वचन कह दिये, मन पीड़ा से ग्रसित हो गया। बहुत सावधानी की आवश्यकता है। ये सारी स्थितियाँ निर्मित हों फिर भी मुझे अपने मन की प्रसन्नता बनाये रखनी है, वरना मैं अपने लिये खुद दुःखी होकर नये दुःख का इन्तजाम कर लूँगा। ये मुझे सावधानी रखनी है। हम हमेशा ऐसे कहते हुये, सुनते हुये पाये जाते हैं कि हम अपने आप दुःखी हैं, आपको क्या मतलब। अरे ! नहीं भैया। आप अपने आप दुःखी हैं तो आप अपने दुःख का इन्तजाम तो कर ही रहे हैं और आपके दुःखी होने से वातावरण भी प्रभावित होगा। वो भी दुखमय होगा। एक दुःखी व्यक्ति के चारों तरफ पहुँच कर कोई भी व्यक्ति सुख का अहसास नहीं कर पाता, लेकिन एक प्रसन्न व्यक्ति के चारों तरफ कोई भी पहुँच जाये, वो दुःखी भी हो, तब भी थोड़ी देर के लिये अपना दुःख भूल करके प्रसन्नता का अनुभव कर सकता है। इसलिये ऐसा नहीं सोचना कि मैं दुःखी हूँ| जब-जब मैं दुःखी होता हूँ तो दूसरे को दोषी ठहराने का भाव मेरे अन्दर आता है कि मेरे दुःख का कोई कारण है और तब मैं दूसरे को भी दुःख ही पहुँचा करके फिर सुख का अनुभव करता हूँ। ये मेरे भीतर एक मिथ्या भाव उत्पन्न होता है। इसलिये जब इष्ट का वियोग या अनिष्ट का संयोग हो या कि अपने अनुकूल कोई वचन न कहे जायें, तब बहुत सावधानी रखने का काम है। शोक, किसी हितैषी व्यक्ति के विच्छेद हो जाने पर कोई कारण निर्मित हो जाता है। डायवोर्स (तलाक) कैसे हो जाता है ? कल तक जिसके सामने यह कहते पाये जाते थे कि तुम्हारे बिना एक क्षण नहीं रहँगा उसी के साथ हमारी भाव दशा ये बनती है कि ये कहते पाये जाते हैं कि तुम्हारे साथ अब एक क्षण भी नहीं रहूँगा और विच्छेद और फिर बाद में निरन्तर एक पीड़ा का भाव होता है, उसे कहते हैं शोक। दुःख और शोक में इतना फर्क है। 


हितैषी व्यक्ति से अपने किसी कारण से जब विच्छेद हो जाता है तब भीतर ही भीतर उस मोह की वजह से और हमारे अन्दर जो पीड़ा उत्पन्न होती है, जो दुःख होता है उसे शोक का नाम दिया है। ऐसे क्षण भी जीवन में आते हैं, सावधानी रखें, नहीं तो अपने जीवन में ये जो शोक किसी पुरानी वजह से आया है पर आगे का इन्तजाम और कर लेगा। 


और ताप, किसी को भी कठोर वचन नहीं बोलना, क्योंकि किसी के भी कठोर वचन सुनकर के भीतर-भीतर जो एक जलन उत्पन्न होती है, जैसे कि हमने आपको एक उदाहरण सुनाया था कि शेर जब घर आ गया था तो जीवन-साथी ने कह दिया था कि येशेर थोड़ी है यह तो गधा है। मेरी लकड़ियाँ लाता है जंगल से। तब वो जो एक वचन था वो उसके भीतर घाव की तरह जलन देता था जैसे कि घाव जलन देता है। वो कहलाता है ताप। उसको संताप भी कहते हैं। 


आक्रन्दन, जब सहन नहीं होता है भीतर का दुःख, तब जब हम जोर-जोर से आँसू बहाते हुये क्रन्दन करते हैं, वीपिंग जिसको कहते हैं, वो आक्रन्दन है। ये आक्रन्दन भी हमारे आगामी असाता के बंध का कारण है ये ध्यान रखना। हमारे असाता का इन्तजाम हम इस तरह से करते हैं। किसी और को भी हम इसी तरह रुलाते हैं। किसी और के भी संताप में कारण बनते हैं तब भी हम अपने ही असाता का बंध करते हैं, स्वयं भी अगर इन परिणामों को करते हैं तो हमारे लिये ये दुःख की संतति बढ़ती ही चली जाती है। इस दुःख की संतति को बढ़ाने वाले हम स्वयं हैं। दुःख ही दुःख की संतति को बढ़ाता है। ये बहुत सावधानी की आवश्यकता है। 

प्रतिवेदन, जिन्दगी भर जिनके गुण नहीं गाये उनके मरने पर, उसका गुणगान करते हुए रोना, ये परिवेदन कहलाता है, हाँ ऐसा भी करते हैं अपन, जिन्दगी भर जिनकी निन्दा करी होगी, जिनके गुणों का ध्यान नहीं दिया होगा, उनके मरण के बाद उनके गुर्गों को याद कर-करके हम रोते हैं, बिलख-बिलख करके रोते हैं। तब और हम नये दःख का इन्तजाम करते हैं। ये इतने कारण आचार्य भगवन्तों ने हमारे अपने दुःख के बताये हैं और कोई बाहरी कारण नहीं हैं। ये मेरी अपनी भाव दशा ही मेरे दुःखों का कारण बनती है और इतना ही नहीं जब अकलंक स्वामी के चरणों में बैठे तो इतने महान आचार्य कहते हैं कि जो अपने जीवन को यूँ ही व्यर्थ बरबाद करते हैं वे अपने दुःखों का इन्तजाम खुद करते हैं। दूसरों के लिये दुखदाई कार्य करना, हिंसा के उपकरणों को उत्पन्न करना, उनका व्यापार करना, पेस्टी-साइड विष इत्यादि इन सबकी मैन्यूफेक्चरिंग करना, इनकी सेलिंग करना, डीलरशिप ले लेना इनकी, ये सारे अपने दुःखों का इन्तजाम है, जितने भी कार्य दूसरे के लिये दुःख पहुँचाने वाले हम करते हैं वे सारे कार्य अन्ततः हमारे दुःख का कारण बनते हैं और सबसे बड़ी चीज तो अपने जीवन को यूँ ही व्यर्थ बरबाद करना। अपने जीवन से कोई भी सार्थक कार्य नहीं कर पाना। पूरे जीवन भर ये असाता के बंध का बहुत बड़ा कारण है। अकलंक स्वामी तत्वार्थ राजवार्तिक में लिख रहे हैं। कभी अपन देखें इन बातों को और जीवन में अपन विचार करें जब अपने ऊपर अपने ही बाँधे गये दुःखों का बोझ भारी हो जाये और हमसे झेला नहीं जाये तो हमें क्या विचार करना चाहिये। अब जरा ये विचार कर लें। ये तो विचार कर लिया अपन ने कि मेरे अपने ऊपर दुःखों का जो बोझा मैं ढो रहा हूँ वो मैंने ही बाँधा है जैसे कि मैं सामान की पोटली ये सोचकर कि मेरे पास इतना सारा सामान है और बाँधकर के सिर पर रख लेता हूँ और उसका बोझा ढोता हूँ। लगता है जैसे कि मैं बहुत सारा सामान लिये हूँ लेकिन मैं तो उसके बोझ से दबा जा रहा हूँ। ये दिखाई नहीं पड़ता। ऐसे ही मैं जब-जब दूसरे के दुःख का इन्तजाम करता हूँ तो सोचता हूँ देखा कैसे बच्चू को दुःख में डाला। लेकिन उस समय मैं अपने सिर पर दुःखों का जो बोझा बाँधता हूँ उसकी तरफ ध्यान नहीं जाता है। आचार्य भगवन्त ध्यान दिला रहे हैं कि अज्ञानतावश, मोह के वशीभूत होकर के, आसक्ति के वशीभूत होकर के, मैंने अपने दुःख का इन्तजाम कर लिया है तो उपाय बताते हैं। 


साता के उपाय की चर्चा नहीं करूँगा आज। साता के उपाय की तो कल से चर्चा करूँगा। अगले सूत्र की। लेकिन आज तो सिर्फ ये देख लूँ कि इन दुःखों के आ जाने पर मैं क्या करूँ ? मैं क्या कर्म करूँ ? ये तो ठीक है कि मेरे अन्दर जो भी साता है उसके लिये मैंने क्या-क्या करा होगा, उस पर विचार कर लेंगे और आगे के लिये तैयारी कर लेंगे कि और साता बँधे। ये अलग से कर लेंगे लेकिन आज जबकि मेरे ऊपर दुःखों का बोझा इतना भारी हो गया है, मेरे पल्ले में तो साता है ही नहीं, तो इसी आसाता की स्थिति में, मैं क्या करूँ? क्या उपाय करूँ ? तब उसके लिये आचार्य भगवन्त कहते हैं कि सबसे पहली चीज दूसरे से अपेक्षायें कम करो। शिकायत करना कम करो। जब भी दुःख आये तो कम से कम दूसरे ने दुःख दिया है ऐसा विचार ही मत करो। मेरे ही भीतर दुःख का कारण है, भैया ! तुमने कुछ नहीं किया। सामने वाला अगर ये फील (महसूस) भी करे कि मेरी वजह से आपको दुःख पहुँचा तो उसके पैर छूकर के कहना कि नहीं, ऐसा मत कहो आपकी वजह से मुझे कोई दुःख नहीं है दुःख तो मेरे भीतर है। मैंने ही कुछ ऐसा मि 
--- - करे तब भी मैं उसको यही कहूँ कि मुझे मेरे कर्म दुःखी कर रहे हैं तुम्हारे कर्म तो तुम्हें दुःखी करेंगे। मुझे थोड़े ही दुःखी करेंगे। किसी के कर्म किसी और को दुःखी करेंगे, ऐसा नहीं है। हमारे कर्म हमें दुःखी करते हैं। तुम जो हमें दुःख पहुँचाने का कर्म कर रहे हो उसका फल जब तुम्हें मिलेगा तब वो तुम्हें दुःखी करेगा। अभी तुम्हारे किये गये कर्म से थोड़े ही दुःखी हूँ, मैं तो अपने किये गये कर्म से दुःखी हूँ। अरे बहुत कठिन है, ये विचार आना बहुत कठिन है, लेकिन करना तो पड़ेगा। आज नहीं करेंगे, कल करेंगे, कल नहीं करेंगे परसों करेंगे, पर आना चाहिये और देखो भैया अपने दुःख से दुःखी लोग ज्यादा नहीं हैं, दूसरे के दुःख से दुःखी लोग तो और ही कम है। अपने दुःख से दुःखी लोग तो संसार में मिल जायेंगे कि उनको शरीर ठीक नहीं मिला। आर्थिक स्थिति कमजोर है। पद प्रतिष्ठा नहीं मिली। सुख-सुविधा के साधन नहीं मिले। सो इस वजह से दुःखी हैं, ऐसे लोग तो बहुत ज्यादा नहीं हैं और इससे भी कम हैं ऐसे लोग जो दूसरे के दुःख से दुःखी हैं कि भैया इनके दुःख कैसे दूर करूँ? ऐसे तो महान लोग हैं वो कहीं मिल जायें तो उनके पैर छू लेना, जो दूसरों के दुःख से दुःखी हों। अपने दुःख से दुःखी लोग तो संसार में बहुत मिलेंगे। वे भी लेकिन उतने नहीं है, उससे भी ज्यादा हैं दूसरे के सुख से दुःखी। हाँ दूसरे के दुःख से दुःखी बहुत कम, उससे ज्यादा अपने दुःख से दुःखी, और सबसे ज्यादा दूसरे के सुख से दुःखी लोग कि दूसरा क्यों सुख से जी रहा है ? इस बात की बड़ी तकलीफ। अपने भीतर झाँक करके देखें कि कितने क्षण मेरे ऐसे होते हैं जिसमें मैं अपने ही किसी अभाव की वजह से दुःखी होता हूँ और कितने क्षण ऐसे होते हैं जिसमें मैं दूसरे के दुःख की वजह से थोड़ा दुःख महसूस करता हूँ और अधिकांश क्षण तो मेरे दूसरे के सुख को देख-देखकर ही दुःखी होने में ही गुजर जाते हैं और ऐसे-दूसरे के सुख से दुःखी लोगों को तीर्थंकर भी आ जायें, भगवान भी आ जायें, तब भी सुखी नहीं कर सकते। जो दूसरे के सुख से दुःखी हैं उसके लिये तो दुःख से बचने का कोई उपाय नहीं है। अपने दुःख से बचने का तो उपाय है। बेटी का ब्याह करके विदा कर रहे हैं, दुःखी हैं लेकिन प्रसन्नता है कि सुख से रहेगी, कोई असाता नहीं बंध रही, आँसू गिर रहे हैं फिर भी। बेटा जा रहा है विदेश पढ़ने के लिये, आँसू टपक रहे हैं, सिर पर हाथ फेरकर विदा दे रहे हैं, पर मन प्रसन्न है। भविष्य उज्ज्वल हो जाए इतना ही चाहते हैं। धर्मात्मा का संयोग मिला है, एक दिन धर्मात्मा दूर जाता है, तब उसको भेजने जा रहे हैं, आँखों में आँसू हैं लेकिन मन प्रसन्न है कि जब तक ये रहे हमने धर्म सीख लिया। धर्म हमारे साथ है। ये भले ही दूर चले जायें लेकिन धर्म तो देकर के जा रहे हैं। तब भी कोई असाता नहीं बँधेगी। दूसरे के दुःख से दुःखी होने वाले को भी साता ही बँधेगी और इस तरह ये विचार करने वाले को भी साता ही बंधती है। असाता तो तब बँधती है जबकि हम दूसरे के सुख को सहन नहीं कर पाते है और भीतर ही भीतर शोक संताप से ग्रसित हो जाते हैं तब और नयी असाता का बंध कर लेते हैं। 


एक उदाहरण है। शायद मैंने पहले कभी सुनाया हो लेकिन अपन इस अवसर पर फिर से उसे रिवाइज (दोहरा) कर लें। कैसे हम अपने लिये दूसरे से दुःख कमा लेते हैं। हमारे अन्दर आदत बन जाती है। कितनी भी सुख-सुविधाएँ हमें मिल जायें, फिर भी हम सुखी नहीं हो सकते। कितना भी हमारे लिये फुल फेसिलिटीज मिल जायें लेकिन जिसने दुःखी रहने की आदत बना ली, उसे भगवान भी सुखी नहीं कर सकते। हमें इस आदत को छोड़ना चाहिये। अपेक्षाओं को घटाना चाहिये। शिकायत की प्रक्रिया कम करनी चाहिये तब हम दुःख से बच पायेंगे और इतना ही नहीं मैंने जीवन में जो सार्थक किया है उसका विचार करने से दुःख कम हो जाते हैं, निराशा नहीं होती। हाँ, एक पेड़ की पत्ती टूटते समय काँप रही थी। कवि ने कल्पना करी और उसको दिलासा दी, “तुम क्यों काँप रही हो, तुम क्यों घबरा रही हो, अरे! तुम्हारा जीवन तो सार्थक हो गया। तुमने वो जो थोड़ी सी छाया किसी को दी है ये क्या कम है। उस एक पत्ती से भी थोड़ी सी छाया तो हुयी होगी, इसका विचार करो।” मेरे अपने जीवन से दूसरे के लिये जो कोई लाभ पहुँचा देगा उसका विचार करना और अपने दुःख को झेल देना। ये भी एक दुःख से बचने का उपाय है। 


दुःख आ जाने पर और वो जो मैं आपसे कह रहा था कैसे हम अपने, अपने आपके स्वभाव में दुःख डाल लेते हैं। एक बेटे से पिता को हमेशा शिकायत रहती थी। शायद आपको याद आ गया, उसने अपने दोस्त से भी कहा कि बेटे को जरा समझा देना। हमारी तो जिन्दगी इतनी निकल गयी। हमारे मन का तो एक काम नहीं करता वो सब उल्टे-उल्टे काम करता है। तो उनके मित्र ने बेटे से कहा कि भैया पिताजी की कितनी उम्र रह गयी, कम से कम उनके मन की तो कर देवें। तो कहने लगा कि कहाँ तक मन की करें। जो मन की करते हैं उसमें उनको दुःख लगने लगे तो बताओ फिर क्या करें ? कहने लगे, हमने नये कपड़े बनवाये। पिताजी से पूछकर बनवाये थे और हम वे नये कपड़े पहनकर के दुकान पहुँचे, कहने लगे और हम कमा-कमा के रखते जा रहे हैं, ये साहबजादा बने मिटा रहे हैं हमारी सम्पत्ति को। हमने कहा ठीक है भैया गलती हो गयी। हमने बेकार में ये पहने। हम खराब वाले पहन लेंगे, जो पुराने पड़े थे वे ही पहन लेंगे। हम चार दिन के बाद दुकान पर फटे पुराने से पहन कर गये। कहने लगे “लजवाओ न" अभी तो हम कमावत है, कम से कम हमारे सामने तो अच्छे ही पहन लो। अब बताओ आप, जिस व्यक्ति को किसी भी स्थिति में सुखी ही नहीं रहना है, प्रत्येक स्थिति में दुःखी ही रहना है, तो हम क्या कर सकते हैं। 


ऐसे लोगों के सुख का कोई इन्तजाम नहीं कर सकता। भगवान भी नहीं कर सकते। भैया, इस आदत को छोड़ना चाहिये, अगर अपने भीतर ये आदत पड़ गयी है। अपने जीवन में दुःख निकालने की आदत पड़ गयी है, तो इससे अपना जीवन सुधरेगा नहीं और आखरी बात कि अब अपने जीवन में सावधान हो जायें कि दूसरे को मेरे से दुःख ना पहुँचे। कम से कम दुःख पहुँचाने का मेरा भाव तो ना रहे। हो सकता है मैं सुबह से शाम तक उठू-बैठू, आऊँ-जाऊँ, बोलूँ, खाऊँ-पीऊँ, उसमें बहुत सारे जीवों को मेरे नहीं चाहते हुए भी दुःख पहुँच सकता है, पर मैंने चाहा नहीं कि किसी को दुःख पहुँचे। मेरी मानसिकता तो कम से कम मैं ऐसी ना रखू कि किसी को दुःख पहुँचे और फिर इतना ही नहीं मैं अपनी क्रियाओं पर भी जरा विचार करूँ, ऐसा ना हो कि मैं भले ही दुःख देने का विचार नहीं करता लेकिन मेरी क्रियाएँ जरा अव्यवस्थित हैं तो उनसे दुःख पहुँचता है तो मुझे अपनी क्रियाओं को भी व्यवस्थित करना पड़ेगा। मेरा भाव तो खराब नहीं है लेकिन मेरी वाणी सुनकर के दूसरे को दुःख उत्पन्न होता है तो मैं जरा अपनी वाणी पर नियन्त्रण कर लूँ। ठीक है मेरे मन में तो ऐसा कोई भाव नहीं है। कई बार ऐसा हो सकता है, मन में भाव ना हो और वाणी से कोई चीज ऐसी निकल जाये तो बाद में हम अपने को सँभाल सकते हैं कि भैया मेरा आशय ऐसा नहीं था। ये चीज हमें सीखनी पड़ेगी। ये कर्म करने की प्रक्रिया हमें सीखनी पड़ेगी, अगर हम अपने लिये आगे और दुःख नहीं चाहते हैं। जितने दुःख हैं उनको हम कैसे झेलें। और उनमें हम अपनी प्रसन्नता को कैसे बरकरार रखें ? ये हमने सीख लिया और अब हम आगे के लिये दुःखों का इन्तजाम दूसरों के लिये ना करें तब हमारे भी दुःख दूर हो जायेंगे। जब हम दूसरे को दुःख देते हैं तो वह लौटकर के हमारे ही ऊपर आता है। अच्छा देखो, किसी गुफा में किसी गुम्बद के नीचे खड़े होकर के जोर से बोलो। गाली देवो तो क्या होगा। वापस आवेगी, लो अपनी वापस ले लो। ये संसार भी इसी तरह की प्रतिध्वनियों का संसार है जिसमें हमारी ही ध्वनि लौटकर के हम तक आती है। यहाँ हम जो फेंकते हैं वो हम तक वापिस लौटकर के आता है। ये सावधानी हमारी है कि हम देखकर के कार्य करें। कैसे? 


एक उदाहरण हैं सबके जीवन में ऐसा घटित होता है, किसी के जीवन में तुरन्त होता है। असल में क्या है ना, कि मुश्किल ये है कि ये कर्मों का फल जो है तुरन्त ही पूरा का परा मिल जाता तो लोगों की समझ में आ जाता लेकिन ये थोडा बहत तुरन्त मिलता है अधिक बाद में मिलता है तब तक हम भूल चुकते हैं कि ये कौनसी चीज का फल है, अभी तो हमने कुछ नहीं किया। एक और मुसीबत आ गयी। हम अच्छे-अच्छे चले जा रहे थे और ये मुसीबत आ गई। तुरन्त का तुरन्त मिलकर हिसाब चुकता हो जाता तो भी ठीक था लेकिन ऐसा नहीं है। इसके आफ्टर इफेक्ट्स बहुत होते हैं। दूरगामी परिणाम बहुत होते हैं जो हम एक क्षण में करते हैं। वो कहते हैं ना कि “तवारीखों के वो मंजर भी हमने देखे हैं जब लम्हों ने खता की और सदियों ने सजा पायी।" एक क्षण को हम भूल चुके थे और कई-कई दिनों तक हमें उसका पनिशमेन्ट, उसका फल भोगना पड़ा। ऐसी स्थिति हमारे साथ बन जाती है इसलिये बहुत सावधानी की आवश्यकता है। किसी के जीवन में तो तुरन्त रिटर्न होकर आता है। इसका उदाहरण है एक व्यक्ति ......... ये सच्ची घटना है। एक व्यक्ति ने अपने बेटे की शादी में बेटी वाले को इतना अधिक परेशान किया, इतनी तकलीफ पहुँचाई कि जो देखने वाले सज्जन पुरुष थे उनको भी अच्छा नहीं लगा कि भई ये तो ठीक नहीं है। ये कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने लिखा है उनके जीवन का संस्मरण। उन्हीं ने लिखा कि मैंने जाकर के उनसे कहा कि ये आपको शोभा नहीं देता तो मालूम उन्होंने क्या कहा। कहने लगे कि अरे तुम नहीं जानते, गन्ने को निचोड़ो तब ही रस निकलता है। ऐसा उदाहरण दिया। इतना सब करने के बाद भी क्या उदाहरण दे रहे हैं वो गन्ने को निचोडो तो ही रस निकलता है। दो-तीन साल के बाद उन्हीं सज्जन की. जिनके बेटे का ब्याह हुआ था, बिटिया का ब्याह हुआ और उनकी बिटिया के ब्याह में बेटे वाले ने उनकी जो दुर्दशा करी सो लोगों से देखी नहीं गयी। हाँ इसी जीवन में और अबकी बार रास्ते में मुँह लटकाये फिर मिल गये वो। भैया उदास क्यों हो, क्या बात हुई? हफ्ते भर में बेटी आ जायेगी। इतनी उदासी की क्या बात है ? बोले यह बात नहीं है। "बात क्या है ?" कहने लगे अब तो लड़की वाले को कोई आदमी ही नहीं समझता। अब कह रहे हैं वो। हमने उनसे कहा तो नहीं. पर हमारे मन में आ गयाठीकतो है आदमी क्यों समझेगा, आपने भी तो पहले उन्हें गन्ने की उपमा दी थी। आपने भी कहाँ आदमी समझा था। आपने भी तो गन्ना ही समझा था, गन्ने को निचोड़ने पर रस निकलता है। भैया ! हमारे साथ ये सारी चीजें हम खुद इकट्ठी करते हैं, जैसा-जैसा हम व्यवहार दूसरे के साथ करते हैं वो हम तक लौटकर के आता है। अगर हम अपने जीवन में दुःख नहीं चाहते हैं तो फिर हम दूसरे के लिये भी दुःख का इन्तजाम करना बन्द कर देवें और अगर अपने जीवन में कोई दुःख आता है, संकट और विपत्ति आती है तो उसके लिये भी दूसरे को दोषी ठहराना, उसकी शिकायत करना अगर हम बन्द कर दें। और तीसरी बात भैया दूसरे के सुख से दुःखी होने की आदत छोड़ देवें और सिर्फ इतना ही विचार करें कि मैंने ही कुछ ऐसा किया होगा जिससे कि मेरे जीवन में ये दुःख, संकट और विपत्ति आये। अगर सही कर्म करने की कुशलता हम सीख लें तो हमारा जीवन जरूर से बहुत ज्यादा अच्छा बनेगा। इसी भावना के साथ कि हम सब अपने जीवन को अच्छा बनायें|


बोलिये आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज की जय। 
००० 

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