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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

कर्म कैसे करें? भाग -9


Vidyasagar.Guru

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 हम सभी के जीवन में अनुभव करते हैं कि सुख भी हैं और दुःख भी हैं और ये ठीक ऐसा है, जैसे धूप-छाँव हैं, सूर्य उगता भी है और अस्त भी होता है। खेल खेलते हैं तो हार भी होती है, जीत भी होती है। धन्धा करते हैं तो लाभ भी होता है, हानि भी होती है। लेकिन कोई अगर इन दो में से किसी एक को स्थाई मान लेवे तो वही उसके दुःख का कारण है और जो दोनों के बीच, दोनों को स्थाई नहीं मानता है और दोनों के बीच शांति से अपना जीवन जीता है, वह बहुत आसानी से अपने जीवन को ऊँचा उठा लेता है। हम लोगों के साथ मुश्किल यह है कि जब सुख के दिन आते हैं, तब हमारे किसी पूर्व पुण्य के उदय से, साता के उदय से जब थोड़ी सी हमारे जीवन में अनुकूलता आ जाती है तब हम अहंकार कर लेते हैं और ये भूल जाते हैं कि ये क्षण भी थोड़ी ही देर टिकने वाले हैं और इसी तरह तब उसमें हम गाफिल होकर के भी अपना अहित करते हैं और इसी तरह जब हमारे अपने किसी पूर्व संचित असाता कर्म के फलस्वरूप हमारे जीवन में पीड़ा, दुःख और संकट हमें घेर लेते हैं, तब हम उसके चलते इतने बेसुध हो जाते हैं कि अपने उस अनन्त सुख को जो कि हमारा स्वभाव है, विस्मृत कर देते हैं और ये मानकर बैठ जाते हैं कि अब मेरा जीवन व्यर्थ है, जिन्दगी हो गई मैंने कभी सुख का अनुभव नहीं किया। हमेशा मुझे दुःख ही दुःख मिला और जीवन से हम निराश हो जाते हैं। ऐसा व्यवहार तो हम अपने सुख और दुःख दोनों के साथ अभी तक करते आये हैं लेकिन हम उस समय याद रखें कि धूप-छाँव थोड़ी-थोड़ी देर की होती है और उसमें हमें किस तरह अपना रास्ता व्यतीत करना है ये हमारे ऊपर निर्भर करता है। जब हम रास्ते से चलते हैं तो धूप भी आती है, छाँव भी आती है। सुबह की रोशनी में यात्रा करते हैं, शाम होते-होते और रोशनी समाप्त हो जाती है। अँधेरा आ जाता है तो क्या हम अपनी यात्राएँ स्थगित कर देते हैं। नहीं, हम विश्राम करते हैं और सुबह का इंतजार करते हैं कि सुबह फिर सूरज उगेगा। क्या ऐसे ही जब मेरे जीवन में कोई क्षण दुःख के आये, क्या मैं उस समय ऐसा ही मान करके कि चलो मेरे विश्राम के क्षण हैं, इनमें ज्यादा, ज्यादा संक्लेशित होने से कुछ नहीं होगा, शांत रहने से ये आसानी से निकल जायेंगे। ऐसा विचार करते हैं क्या ? नहीं कर पाते हैं यही इतना और अपने को सीखना है। दो लोग धूप में चले जा रहे हैं और थोड़ी देर जब आगे जाकर दोनों छाया में पहुंचे, तो एक सोच रहा है कि अभी इतनी दूर से धूप में चलकर आये थे, थोड़ी सी छाया मिली, आगे फिर धूप दिख रही है और ऐसा सोच करके छाया में खड़े होकर के भी संक्लेशित हैं। ऐसा भी हम लोगों के साथ है और दूसरा व्यक्ति वो भी छाया में खड़ा है और विचार कर रहा है कि देखो, कितनी बढ़िया तो छाया है, आगे बस थोड़ी सी धूप है उसके बाद तो फिर छाया आ जायेगी। वो भी छाया में खड़ा है और छाया का आनन्द ले रहा है। सुख के क्षणों में इतने गाफिल नहीं होना कि दूसरे के दुःख को न समझ पायें और दुःख के क्षणों में इतने ज्यादा निराश नहीं होना कि फिर जीवन में सुख की आशा ही समाप्त हो जाये। इतना यदि हम सीख लेवें तो ये सुख और दुःख, धूप-छाँव की तरह आयेंगे और निकल जायेंगे। मेरा ज्यादा बिगाड़ नहीं कर पावेंगे। क्या ये, ये टेक्निक हमको सीख लेनी चाहिये। है तो अच्छी पर देर बहुत लगेगी, इसको सीखने में थोड़ा और विचार कर लेवें कि मेरे जीवन में सुख के क्षण कैसे मैं ज्यादा कर सकता हूँ और दुःख के क्षणों को कैसे मैं घटा सकता हूँ। आयेंगे तो दोनों लेकिन उनका ड्यूरेशन मैं किस तरह से मेन्टेन करके रख सकता हूँ और इसके लिये आचार्य भगवंतों ने एक सूत्र दिया है। अगर हमारे जीवन में आज सुख आता है तो उसका कारण हमारे भीतर ही मौजूद है। उसके लिये हमने जो प्रयास (एफोर्ट) किया था वो हमें जरूर याद रखना चाहिये। सुख में इतने गाफिल नहीं हो जाना चाहिये कि मैंने इस सुख के पाने के लिए जो प्रयास (एफोर्ट) किया है वो भूल जाऊँ और दुःख के क्षणों में भी इतने निराश नहीं होना चाहिये कि अपने बारे में ये न सोच सकें कि मैंने ये दुःख आखिर कमाया कहाँ से ? इसका इंतजाम मैंने ही किया होगा। अब मैं आगे सावधानी रखू, नहीं तो फिर मुझे लगातार (कन्टीन्यू) इसी दुःख को भोगना पड़ेगा। तब एक सूत्र रखा। असल में, बात तो सिर्फ इतनी है कि दूसरों को सुःख पहुँचाने की सारी चेष्टाएँ अन्ततः अपने को सुख पहुँचाने की हैं और दूसरे के सुख का विचार करना अन्ततः अपने सुखी होने का सीधा सच्चा सा उपाय है, बात तो इतनी सी है कि मेरे द्वारा दूसरे को सिर्फ सुख ही पहुँचे, कभी दुःख न पहुँचे बस बात इतनी सी है। सोच इतना भी आवश्यक है अब इसको हम कैसे अपने जीवन में एप्लाई करते हैं तो उसके लिये एक सूत्र दे दिया - 
"भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्य।” 

अगर मेरे जीवन में मैंने साता और सुख का अनुभव किया है तो उसका कारण भी मेरे भीतर है और अगर मुझे इसे और अधिक बढ़ाना है, अपने सुख को विस्तार देना है तो फिर मुझे उन कारणों को अपने जीवन में लाना चाहिये, जिन वजहों से मुझे आज सुख मिला, वे वजह क्या रही होंगी उस पर विचार करें ताकि इनको फिर से जीवन में ला करके आगे के सुख का इन्तजाम किया जा सके। इसलिये जानना बहुत जरूरी है कि आज मुझे जो सुख मिलता है मैं तो ये सोचता हूँ कि मेरे अपने इफर्ट (प्रयास) से मिला है, मेरे अपने वर्तमान के इफर्ट (प्रयास) से मिला है। सुख और दुःख सिर्फ वर्तमान के ही किये गये कर्म से नहीं मिलता हमारे अपने पूर्व के संचित कर्म भी उसके साथ जुड़े हुए है, ये हम पिछले दिनों समझ चुके हैं। 

"भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सद्वेद्यस्य।" 


भूत किसे कहते हैं? जो इन्द्रियादि प्राणों से जीता है उसे भूत या प्राणी कहते हैं। भूत का मतलब न ‘पास्ट टेन्स' 'न घोस्ट' है, नहीं तो आप भूत के मतलब और कुछ समझें। भूत के मायने है प्राणी जो कि आयु आदि प्राणों से जीता है उस पर अनुकम्पा करना और इतना ही नहीं प्राणी तो सब हैं लेकिन उनमें जो व्रती हैं उनका विशेष ख्याल करना। व्रती दो ही हैं। श्रावक भी हैं और साधुजन भी हैं। इन दोनों के ऊपर अनुकम्पा के मायने क्या है? आचार्यों ने लिखा कि दया से द्रवीभूत होकर दूसरे के ऊपर आये दुःख को अपना मानकर जो भीतर काँप जाता है मन, वो कहलाती है अनुकम्पा और हम तैयार हो जाते हैं ठीक वैसे ही जैसे अपने ऊपर दुःख आने पर उससे बचने के लिये हम तैयार हो जाते हैं। ठीक ऐसे ही दूसरों का दुःख अपना जानकर के उसे उससे बचाने के लिये जो प्रयत्न करते हैं वो है अनुकम्पा। सिर्फ इतने से तो आधा काम चलेगा कि हमारे मन में दूसरे के दुःख दूर करने का भाव आ गया, बहुत अच्छी चीज है। आधा काम तो हो गया लेकिन अब उस दुःख दूर करने का यथासम्भव उपाय और प्रयत्न क्या हो सकता है ? इस पर भी विचार करना और उसको जीवन में एप्लाई करना। हमने पहले अपने जीवन में ऐसा करा होगा तब हमको आज जितनी भी सुख-सुविधा मिल रही है वो उसी के परिणामस्वरूप मिल रही है। ऐसा विचार साथ में करते रहना जब भी साता अपने जीवन में, जब भी सुख महसूस हो तो फौरन याद आ जाये कि मैंने कितना पुरुषार्थ किया होगा पहले, मैंने कितनी प्राणी मात्र के प्रति दया से भरकर के उनकी सहायता करने का भाव किया होगा और आज, आज मैं अपने सुख में गाफिल होकर के चाहे जिसकी क्षति करता हूँ, मेरी अपनी बिल्डिंग बनवाने के लिये अगर चार लोगों की मुझे झोपड़ी मिटानी पड़े तो मैं मिटा देता हूँ। अरे वाह, मेरे अपने धन पैसे के कमाने के लिये, इकट्ठे करने के लिये अगर मुझे चार लोगों की गर्दन दबानी पड़े तो मैं तैयार हो जाता हूँ। इतना तो दयालू हूँ कि चींटी पर पैर नहीं रखता, लेकिन किसी भी संज्ञी-पंचेन्द्रिय को जीवन से, मेरे सुख की उत्पत्ति के लिये दूसरों को मुझे दुःख में डालना पड़ेगा इसका मैं ध्यान नहीं रखता हूँ। ऐसा विचार आ जाना चाहिये तब कहलायेगी कि वाकई में “भूतव्रत्यनुकम्पादान” ये हमारे भीतर आ जाता है। 


गाँधीजी के जीवन की घटना है। जब वो जेल में थे। सत्याग्रह का अवसर था तब उनको जेल हुई थी और उसमें एक अफ्रीकन नीग्रो भी था। पता नहीं कोई पुराना संचित कर्म होगा जिससे कि उस नीग्रो के मन में गाँधी जी के प्रति प्रेम नहीं था, उल्टा द्वेष का भाव था लेकिन गाँधीजी के मन में उसके प्रति कोई द्वेष का भाव नहीं था, प्रेम ही था। उसके प्रति दया और करुणा का भाव था और एक दिन ऐसा हुआ, वैसे तो गाँधीजी को सब कामों में तकलीफ ही देता था। जेल में कहीं उनका भरा हुआ पानी का लोटा लड़का देगा, कहीं लोटा छुपा देगा, कहीं और दूसरे उपद्रव करेगा। लेकिन चुपचाप रहते थे गाँधीजी। एक दिन मालूम पड़ा कि आज तो वो दिख ही नहीं रहा है, क्या उसकी छुट्टी हो गई ? क्या वो जेल से चला गया। पूछा। बोले - नहीं, वो तो जेल में ही है उसको तो बहुत लम्बी सजा होवेगी। तो फिर आज दिखा नहीं सवेरे से, मेरा कुछ उपद्रव भी नहीं किया, उसने। हाँ वो ढूँढ रहे हैं वो कहाँ चला गया, जो उनके साथ दुर्व्यवहार करता है, उसको ढूँढ रहे हैं। दया तो ऐसी ही चीज है, अपने साथ में भला करने वालों के प्रति तो सबके मन में होती है, किसके मन में नहीं होती है भैया लेकिन प्राणी मात्र के प्रति, जहाँ जहाँ साँस है, जहाँ-जहाँ धड़कन है, वहाँ सब जगह मेरी करुणा पहुँचनी चाहिये ऐसा हमने पहले किया होगा इसलिये आज जितना सुख मिला है। आज नहीं कर रहे हैं तो आगे के लिये नहीं मिलेगा। अब क्या हुआ कि वो मिल गया। वो तो बीमार था। उसको तो बहुत तेज बुखार था। अब गाँधीजी पट्टी रख रहे हैं। ठण्डी पट्टी, उसका इलाज कर रहे हैं। सारा दिन व्यतीत हो गया, सारी रात कट गई, आँख नहीं लगी और सुबह-सुबह जब उसका बुखार कम हुआ, उसने आँख खोली तो वो दंग रह गया कि ये तो वो ही महाशय हैं जिनको कि मैं इतने दिन से हमेशा तकलीफ देता हूँ। क्या ये सारी रात जागकर मेरी सेवा करते रहे। अब उसके परिणाम बदल गये। कल तक जो दुःख में निमित्त बनता था आज वही एक-एक बात का ध्यान रखने लगा कि गाँधीजी को कोई कष्ट न हो जाये और जब गाँधीजी के सत्याग्रह का, वो जेल का समय पूरा हो गया, बाहर निकले तब उसने कहा कि मैं आपसे एक ही प्रार्थना करता हूँ कि थोड़ी दूर भेजने के लिये मुझे अपने साथ ले चलो जेल वालों से कहकर के। गाँधीजी के कहने से उस व्यक्ति को गाँधी जी के साथ जहाँ उनको लखनऊ जाना था या इलाहाबाद आना था, वहाँ तक भेजने वो साथ में आया। जब लौटने लगा. ईमानदारी से लौटेगा. जेल से भाग भी सकता था लेकिन अब, अब ऐसा नहीं करेगा और लौटने लगा तो गाँधीजी ने जो घड़ी वे रखे रहते थे वो घड़ी उसको दे दी। कहते हैं जीवन भर मरण के अंतिम क्षण तक वो अपने पास घड़ी गाँधीजी की दी हुई रखे रहा और उसका जीवन ही बदल गया। ऐसा विचार आना चाहिये कि जब-जब मैं किसी दूसरे के दुःख में निमित्त नहीं बनता हूँ और जितनी यथासंभव उसके सुख में निमित्त बनता हैं तो वास्तव में, मैं अपने ही सुख का इंतजाम करता है।

 
इसलिये आचार्य भगवंतों ने लिखा कि प्राणी मात्र के प्रति अनुकम्पा, ‘दया' नहीं लिखा, दया में तो गुंजाइश है कि आ गये दया का भाव, बस आगे बढ़ गये। नहीं, ठीक वैसा ही दुःख महसूस हो रहा है जैसा दूसरे को हो रहा है इसलिये अब मेरे से सहा नहीं जाता । जैसे अपना दुःख नहीं सहा जाता, ऐसे ही दूसरे का नहीं सहा जा रहा है इसलिये मैं उससे उसे बचाने के लिये निरन्तर प्रयत्न कर रहा हूँ। तब तो कहलायेगी अनुकम्पा। हनुमान जी वापिस लौटने लगे जब रामचन्द जी अयोध्या लौट आये और राज्याभिषेक हो गया उनका, गद्दी पर बैठ गये। हनुमान जी भी लौट रहे हैं। सब तो कह रहे हैं, सुग्रीव भी कह रहे हैं कि जब आपको जरूरत लगे तब हमें जरूर याद करना, हम आपके साथ हैं, और सब जाते समय कह रहे हैं। हनुमान जी कुछ भी नहीं कह रहे हैं और जा रहे हैं तो सीता जी ने धीरे से कहा कि आप तो इतने भक्त हैं आप कुछ भी नहीं कह रहे, आप कुछ तो कहो कि कभी जरूरत पड़े, तो क्या कहा था उन्होंने, मैं तो यही चाहता हूँ कि रामचन्द्र जी को मेरी जरूरत कभी ना पड़े। मतलब तुम बचना चाहते हो उनकी सेवा से। नहीं, मैं सेवा से नहीं बचना चाहता। उन पर जब दुःख आयेगा तब न, मेरी जरूरत पड़ेगी। मैं तो चाहता हूँ उन पर दुःख ही नहीं आये इसलिये मेरी जरूरत ही नहीं पड़े। वास्तव में तो अनुकम्पा यही है कि दूसरे को दुःख ही ना हो, मेरी जरूरत ही ना पड़े और अगर किसी को दुःख है तो मैं उसके लिये प्रयत्न करूँ, उससे दुःख से बचाने का और त्यागी व्रती के प्रति तो विशेष रूप से उनके दुःखों से उन्हें बचाने का, उन्हें मोक्ष मार्ग पर लगाये रखने का। वे सच्चे सुख की खोज में निकले हुए हैं अगर हम उनकी सेवा करेंगे तो हम भी सच्चे सुख को पा लेंगे इस भावना के साथ। इसलिये विशेष रूप से त्यागी-व्रतीजनों के प्रति अनुकम्पा का भाव, उन्हें कभी भी दुःख ना पहुँचे इस बात का ध्यान बना रहे। मेरे द्वारा उन्हें दुःख ना पहुँचे। भैया दूसरे को अपन सुख तो पहुँचा नहीं सकते। सुख का उपाय कर सकते हैं। सुख पहुँचे, ना पहुँचे, उसके ऊपर है, फिर भी हमारे मन में भावना ये होनी चाहिये कि मेरे माध्यम से दुःख ना पहुँचे और फिर उसके बाद कह रहे है “भूतव्रत्यनुकम्पादान” दान के बारे में तो अपन बहुत समझ चुके हैं। दूसरे के उपकार के लिये अपनी वस्तका त्याग कर देना ये कहलाता है दान। काहे के लिये. दसरे के उपकार के लिये और होता अपना ही उपकार है। देखो अपन तो ये सोचते हैं कि चीजें जोड़-जोड़ के रख लेंगे तो बहुत सुख मिलेगा और यहाँ उल्टी सलाह दे रहे हैं। हम तो अभी तक यही सोच रहे थे कि अपने पास चार चीजें रहें तो अच्छा रहेगा और वे कह रहे हैं कि दूसरे के उपकार के लिये अपनी चार चीजें उसको दे दी तो आपको सुख मिलेगा। ऐसा ही है तो अपने पास जोड़ के रखने में उतना सुख नहीं है जितना कि दूसरे को दे देने में सुख है। उस सुख का स्वाद जिसने ले लिया है वो जानता है। कंजूस आदमी को उसका स्वाद ही नहीं मालूम वो स्वयं भी उससे कभी सुख नहीं पाता, ध्यान रखना। जिन चीजों को हम दूसरों को दे करके सुख नहीं महसूस कर पाते उन चीजों से हम स्वयं भी सुख नहीं ले पाते। हमारी आसक्ति हमें सुख लेने ही नहीं देती उन चीजों का और अगर हमारे मन में अनासक्ति आ जाये, देने का भाव आ जाये तो वह वस्तु हमारे पास न रहते हुए भी और दूसरे को दे देने के बाद भी हमें सुख पहुँचाती रहती है बताओ आप, हमारे पास रहती तो इतना सुख न पहुँचाती। दूसरे के पास पहुँच जाने पर वह हमें ज्यादा सुख पहुँचाती है।

 
दिया नहीं और सुख शुरू हो गया लेकिन दूसरे के उपकार और दूसरे की प्रीति प्राप्त करने की भावना होनी चाहिये। अपने अहंकार की पुष्टि के लिये नहीं, ये उसके साथ कण्डीशन है तभी सुख पहुँचेगा नहीं तो नहीं पहुँचेगा। तब तो संक्लेश ही होगा। दे देने के बाद जिस चीज के देने के बाद सुख हो समझना कि सच्चा दान है, वो सुख जरूर उत्पन्न करेगा देने के बाद। संसार का यश-वैभव नहीं चाहिये, सब फीका है उसके सामने, वो जो देने का आनन्द है उसके सामने। और अपन ने अगर आज वर्तमान में कुछ पाया है तो उसका मतलब है हमने दिया होगा इसलिये आज पाया है। जो कुछ भी मिला है हमें और फिर कह रहे हैं कि 'सराग संयम', प्राणियों की रक्षा करना और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना इसका नाम है संयम। इसी से सुख उत्पन्न होता है। हम तो सोचते हैं कि कोई हमारा प्रोटेक्शन करेगा तो हमें सख होगा। हम चिन्तित नहीं होंगे, हमें दःख नहीं होगा, लेकिन यहाँ ऐसा कह रहे हैं कि प्राणी मात्र की सुरक्षा करना, उनका संरक्षण करना, उनका घात न हो जायें, ऐसा हमेशा भाव रखना, ऐसी हमेशा क्रिया करना इससे सुख उत्पन्न होगा। हमारे सुख का इंतजाम हम इस तरह कर सकते हैं और अपने मन, वाणी और शरीर पर नियंत्रण रखना क्योंकि ये अनियंत्रित हो जाते हैं तो मेरे दुःख में कारण बनते हैं और अगर  इन पर मेरा नियंत्रण रहे तो यही मेरे सुख में कारण बनने लगते हैं। यही संयम है। सामान्य रूप से तो ये लगता है कि संयम बड़े दुःख का कारण है सब तो छिन जायेगा, कुछ तो रहेगा नहीं, लेकिन वास्तव में, जो सुख है वो प्राप्त हो जायेगा। बाकी चीजें, भले ही कम हो जायें। सो भैया बाकी चीजें कम ज्यादा होती हैं उसका सुख-दुःख नहीं है। जिस व्यक्ति के लिये जितना संतोष है उतना सुख है। देख लो आप, किसी व्यक्ति को अगर बिना शक्कर के दूध पीने की आदत होवे और किसी दिन उसके दूध में शक्कर नहीं डालें तो उसको कोई दुःखी कर सकता है क्या ? या दूसरे के लिये वह अच्छी मिठाई खाते देखकर क्या उसको दुःख हो सकता है ? किसी के घर में जिस व्यक्ति की ये आदत है कि बिना कूलर के रहे उसके घर में कूलर ना हो तो क्या दुःख हो सकता है ? योग का मतलब ध्यान-व्यान नहीं लेना यहाँ पर, और फिर आ गया शांति और शौच जिसके जीवन में, जितनी क्रोधादि कषाओं की निवृत्ति हो गई है वो उतना ज्यादा सुखी है। जो व्यक्ति जिसको क्रोध ही नहीं आता उसको कोई दुःखी ही नहीं कर सकता। वो हमेशा सुखी है, जिसकी जितनी कम कषाय है वो उतना ज्यादा सुखी है। जितना प्रशम भाव रखेंगे उतना ही हम सुखी होंगे और जितना हमारे मन में संक्लेश और द्वेष भाव होगा, द्वेष भाव से दूसरों से हमारी अनबन तो बाद में होती है पहले अपने आप से अनबन हो जाती है, तब तो द्वेष हो पाता है, नहीं तो नहीं हो पाता। अपन कहते हैं कि उनसे हमारी अनबन हो गई, हमारा द्वेष है उनसे लेकिन उनसे अनबन नहीं हुई, पहले भीतर हो गई, पहले भीतर की शांति छिन गई तब फिर बाहर अनबन हुई। हाँ, ऐसा ध्यान रखना। अपन सोचते हैं कि दूसरे का हमने बिगाड़ किया सो दूसरे का बाद में होता है पहले अपना हो जाता है, हमेशा इस बात की सावधानी रखें कि मुझे अपना बिगाड़ नहीं करना है। अगर इतनी भी सावधानी रखें कि मुझे ऐसा करने से मेरा ही बिगाड़ है। 


अपने मन की शांति कौन खोना चाहेगा ? अपने मन की सहजता कौन खोना चाहेगा ? लेकिन ये सारी चीजें मेरी शांति और मेरी सहजता को भंग करने वाली चीजें हैं अगर मैं गुस्सा कर लेता हूँ, अगर मैं मायाचारी करता हूँ, मैं अहंकार करता हूँ तो मेरी शांति, मैं अपने सुख को स्वयं अपने हाथ से खोता हूँ। क्या हुआ, कांग्रेस की मीटिंग थी, बैठक थी और किसी रूलिंग को पास करना था और टण्डन सभापति थे और नेहरूजी उपसभापति थे। टण्डन जी को कोई काम था सो बाहर चले गये। नेहरू जी उठकर के सभापति की सीट पर आ गये और जो महावीर त्यागी थे वो आये सो उन्होंने जो रूलिंग एक्ट था वो सामने रखा। बड़ी तेजी पर थी ये बात, इसलिये नेहरूजी भी बहुत तेजी में थे उन्होंने अपने हाथ में जो पैंसिल लिये थे, उस पैंसिल से महावीर त्यागी की किताब रखी थी उसको नीचे खिसका के गिरा दिया कि जाओ ऐसी 60 किताबें रोज लिख सकता हूँ, नहीं मानता। त्यागी को भी थोड़ी इनसल्ट फील हुई। उन्होंने कहा कि अगर सामने से किताब फेंकी गई है तो इस तरफ से भी बहुत कुछ फेंका जा सकता है। मीटिंग में हल्ला मच गया। सब तरफ से आवाजें आईं, माफी माँगें दोनों जने। उतने में आ गये टण्डन। नेहरूजी अपनी सीट पर, वे अपनी सीट पर। कोई कुछ कहे इसके पहले ही बात तो नेहरूजी को समझ में आ गई, गलती तो मेरी हो गई। टण्डन से कहा कि अभी मेरे और त्यागी के बीच में कुछ आपसी बात हो गई, उसको छोड़ो जो काम की बात हो वो कर लो, क्यों त्यागी ? मेरी बात से सहमत हो। इससे पहले कि कोई कुछ कहे और नेहरूजी उठे। महावीर त्यागी का हाथ पकड़ा और अपनी कार में उनको बिठाया और ये गये वे गये। 


एक बार ये समझ में आ जाये कि मेरी मन की शांति को छीनने वाली जो चीजें हैं उनसे मुझे बचते रहना है, मेरे अपने मन की शांति बनाये रखूगा तो अभी इस जीवन में सुख पाऊँगा और आगे भी मेरे सुख का इंतजाम हो जायेगा। लेकिन क्या करें, मैं अपने मन की शांति को अपने ही कर्मों से और खुद नष्ट करता चला जाता हूँ। जरा-जरा सी बातों में और मन को उद्वेलित करके मैंने अपने मन की शांति खोई। इतना ही नहीं, इस शांति को पाने के लिये मैंने पहले कितना पुरुषार्थ किया होगा जो मुझे आज मिल गई और मैं उसका ऐसे ही दुरुपयोग कर रहा हैं। जिस सख को मैंने बहत मश्किल से अपने लिये कमाया, उस सुख के क्षणों में अगर हम आगे के सुख का इंतजाम नहीं करते तो हमसे ज्यादा घाटे का सौदा करने वाला और कोई नहीं इस संसार में। और हम सब ऐसे ही घाटे का सौदा करते रहते हैं कि पहले का बहुत कमाया हुआ आज चार दामों में बेच देते हैं। बहुत सावधानी की आवश्यकता है और आखिरी सूत्र की बात है निर्लोभ वृत्ति। शौच के मायने क्या है - 'निर्लोभ वृत्ति', 'शुचिता', 'पवित्रता', निर्लोभ वृत्ति से आती है पवित्रता। जोड़-जोड़ के रखने से नहीं आती है पवित्रता। पवित्रता तो निर्लोभ होने से आती है। जितना हमारे मन में संचय का भाव कम होगा उतना ज्यादा सुख होगा। जितना अपन संचय करते हैं क्या वो संचित वस्तुएँ मुझे सुख दे पाती हैं, बल्कि उन संचित वस्तुओं की सुरक्षा करने की चिंता और मुझे घेर लेती है। दुकानदार के यहाँ जब तक रखी हैं तब तक मुझे सुख देती हैं क्योंकि मुझे मिल नहीं रहीं। हाँ जिस दिन वो दुकानदार के यहाँ से उठकर मेरे यहाँ रखी जायेंगी उस दिन से उसमें से सुख गायब । वो जो दुकानदार के यहाँ दूसरी आ गईं उसमें सुख दिखेगा। ये रोज का अनुभव है। इसमें कोई बहुत नयी बात नहीं कह रहा हूँ, अपने जीवन में रोज का। फिर उस चीज में से सुख नहीं मिलता बल्कि ये चीज हमेशा बनी रहे, कैसे बनी रहेगी, कोई उठा के न ले जावे, सम्हाल के रखो, इसकी चिन्ता। लाये थे अपने सुख के वास्ते और एक और मुसीबत आ गई। भैया बहुत सीधा सा हिसाब है, जितनी निर्लोभ वृत्ति होगी, जितना चीजों का कम लोभ होगा, जितनी अनासक्ति होगी उतना ही सुख निकलेगा। 


एक उदाहरण है बनारसीदास का। उदाहरण तो है ही कि जिनके घर में चोर घुसे थे और पोटली भरकर सामान रख लिया था उठाते नहीं बना सो खुद पंडितजी ने उठवा दिया कि ले जावो, अच्छा हुआ कि इतनी मुश्किल और कम हुई। एक बिल्कुल फकीर किस्म का व्यक्ति था। बिल्कुल सज्जन व बहुत कम उसके पास सामग्री थी और उसके घर में चोर घुस गया असल में, उसके रहने की स्टाइल इतनी बढ़िया, इतना प्रसन्न और सुखी व्यक्ति इसके पास होगा कुछ ना कुछ। घुस गये चोर अब जब चोर घुसे तो उनको कुछ नहीं मिला, बड़े परेशान कि ये तो मामला गड़बड़ हो गया और ये जो सजन थे उनकी भी नींद खुल गई। इसने देखा कि कोई घुसा है सो जाकर के चुपचाप उठकर के खिड़की पर बैठ गये और धीरे से कुण्डी भी खोल दी, कहा धीरे से कुछ डरने की बात नहीं है। अब देखो बिना बताये आये हो हमें पहले बता देते कि हम आ रहे हैं तो हम इंतजाम कर लेते। अब तो है ही नहीं कुछ। ऐसा बहुत कठिन है, लेकिन लिखा तो है ऐसा कभी कहीं घटित हुआ होगा ऐसा, इसमें कोई शक नहीं। अब वो चोर भी मुश्किल में है कि ऐसा आदमी नहीं देखा हमने सज्जन, जो यह कह रहा हो कि हमें बताकर आते। तुम यहाँ से खाली हाथ जाओगे इस बात का दुःख मुझे होगा। कुछ ढूँढ करके बताये देता हूँ कि यहाँ कहाँ रखा है। एक बार किसी ने मुझे 10 रुपये का नोट मुड़ा-तुड़ा सा दिया था वो शायद रखा होगा अलमारी में, तुम्हें नहीं मिलेगा। मुझे मालूम है उस कागज के नीचे रखा है और फौरन जाकर के अलमारी खोल करके और निकाल लिया कि ये लो। अब बताइयेगा, खाली हाथ तुम जाओगे तो मुझे दुःख होगा मुझे बिना बताये काहे को आ गये, मैं इंतजाम नहीं कर पाया। आये हो तो ये लेकर जाओ। अब वो चोर क्या कहे, ऐसे साहूकार के पास तो कभी नहीं आया। साहूकार वो जो अपना दे सके और चोर वो तो अपना दे न सके अभी तक मैंने चोरों के यहाँ पर चोरी की थी, आज साहूकार के यहाँ पर आया हूँ जो देने को तैयार है और जाने लगा तो वो सज्जन पुरुष बोले - इतनी ठण्ड में रात में घर जाओगे, कुछ ओढ़कर तो आना था। एक कम्बल है मेरा, इसको ले जाओ। मैं तो इस चार दीवारी के भीतर बैठा हूँ, मुझे उतनी ठण्ड नहीं लगेगी, सहन कर लूँगा। तुम तो बाहर जाओगे, कितनी ठण्ड होगी, ये ले जाओ। सो उसको वो भी उढ़ा दिया, बताओ इतनी निर्लोभ वृत्ति कभी अपने जीवन में जाग्रत हो सकती है क्या ? अपनों के प्रति ही सही चलो पराये के प्रति नहीं। अपनी तो अपनों के प्रति तक नहीं होती है। अगर बहन राखी बाँधने आवे तो भैया चिंतित है। उसको कम्बल और दस रुपये देकर विदा कर दिया खिड़की पर बैठे वो सज्जन चन्द्रमा की तरफ देख रहे हैं। और ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं आज मेरे घर पहली बार तो कोई आया और क्या दे पाया उसे दस रुपये और कम्बल? आज अगर मेरे पास ये इतना सुन्दर चमकीला चन्द्रमा होता तो मैं उसे भी दे देता और वो व्यक्ति वापिस लौटकर आया। उसकी माँ ने कहा कि किसके यहाँ से चुराकर के लाये, पचा नहीं पाओगे इतने निर्लोभी व्यक्ति के, जाओ वापिस लौटा के आओ। तो वो वापिस लौटाने दरवाजे पर खड़ा है और ये जनाब ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं। वो तो गदगद् हो गया, चरणों में गिर गया। दूसरे की निर्लोभ वृत्ति दूसरे को भी निर्लोभ बनाती है। हमारी लोभ की प्रवृत्ति दूसरों में भी लोभ जागृत कर देती है। ये ध्यान रखना आज निरन्तर बढ़ता हुआ लोभ हमारे दुःख का कारण है। हमने पहले निर्लोभ रहकर के ये मनुष्य जीवन का सुख पाया होगा और आज इस मनुष्य जीवन में लोभी होकर के और हम स्वयं अपने सुख से वंचित हैं तो भैया अपन ने इस सूत्र से इतनी बातें सीख लीं कि हम अपनी संकुचित और छोटी वृत्ति को हटावें। सब प्राणी मात्र के प्रति हमारे मन में, दया का भाव आवे। हमारे मन में, हमारे जीवन में जो शक्ति व सामग्री हमें प्राप्त हुई है, जो भौतिक सुख हमें प्राप्त हुए हैं उन भौतिक सुखों में सुख नहीं है। उन भौतिक सुखों के त्याग में सुख है। मैंने पहले भौतिक सुख छोड़े होंगे तब मुझे आज ये भौतिक सुख मिले हैं। आज इन भौतिक सुखों में, मैं अगर रच-पच जाऊँगा तो आगे फिर ये भी नहीं मिलेंगे और आध्यात्मिक सुख तो मिलने वाला ही नहीं है। अगर भौतिक सुखों का त्याग कर देते हैं तो मुझे आध्यात्मिक सुख मिलता है और भौतिक सुख तो रूगन की तरह मिल जाते हैं? क्या कहते हैं उसको कि जब हमने धान की खेती की चावल के लिये तो भूसा तो वैसे ही मिल जावेगा। अगर हमने भौतिक सुखों के प्रति निर्लोभ वृत्ति, अपनी जो हमें सुख सुविधा के साधन मिले हैं जो हमें सामर्थ्य मिली है उसका अगर हम सदुपयोग करें तो हम अपने सुख का इस जीवन में भी और अगले जीवन में भी बहुत अच्छे से इंतजाम कर सकते हैं। इसी भावना के साथ कि हम सब अपने जीवन में उस सच्चे सुख को प्राप्त करें जिससे कि हमारा जीवन अच्छा बने। 


आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज की जय। 
००० 

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