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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

कर्म कैसे करें? भाग -5


Vidyasagar.Guru

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हम सभी लोगों ने पिछले तीन-चार दिनों में एक बार फिर से अपने जीवन को बहुत गौर से देखने का प्रयास किया है। हमारे अपने जो कर्म हैं जिन्हें हम रोज करते हैं या जिन्हें हम कर चुके हैं, वे कर्म हमारे पूरे व्यक्तित्व को, हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं। वे कर्म हमारी वाणी, हमारे विचार, हमारी भावनाएँ और हमारी दिन भर की क्रियाओं को भी प्रभावित करते हैं। 


ऐसी स्थिति में जबकि मेरे पहले किये हये कर्म मेरे वर्तमान को प्रभावित करते हैं और मेरे वर्तमान के किये हुये कर्मों से भी मेरा वर्तमान प्रभावित होता है, तब क्यों ना ऐसा किया जाये कि इन कर्मों के बारे में ठीक-ठीक जानकारी हासिल करें, क्योंकि मेरा पूरा जीवन कर्मों से ही संचालित है। पहले तो मेरे मन में ऐसा भाव कभी-कभार आ जाता था कि शायद कोई और है जो मेरे जीवन को संचालित करता है, पर अब तो पिछले दिनों से लगने लगा है कि नहीं, हमारे अपने कर्म जो हम कर चुके हैं, या कि जिनके करने की तैयारी है, या कि जो हम कर रहे हैं, वो सब हमारे व्यक्तित्व को, हमारे पूरे जीवन को निर्मित करते हैं। अब जो हमने एक बार किसी से अपशब्द कह दिये हैं, किसी का खोटा कर दिया है, अब उसका फल तो हमको भोगना ही पड़ेगा। बहुत सहज सी बात है, सो ठीक है वो फल तो मुझे भोगना पड़ेगा, लेकिन उस फल को मैं कैसे भोगूं अब ये समझदारी तो मैं अपने अन्दर जागृत कर सकता हूँ। ये चतुराई और ये कला तो मैं सीख सकता हूँ। 


ये बात जरूर है कि मैंने अपनी लापरवाही, मैंने अपनी अज्ञानता में किसी व्यक्ति के साथ बुरा व्यवहार किया है और उसका फल मुझे जरूर से मिलेगा। लेकिन उस फल को क्या मैं कमी-बेशी कर सकता हूँ ? क्या मैं वो कर्म का फल ना मिले इस बात का इन्तजाम कर सकता हूँ। या कि वो कर्म का फल मुझे मिले तो थोड़ा कम होकर के मिले और या कि उसका स्वाद मैं बदल सकूँ ? तो पिछले दिनों हमने ये भी समझा है कि हमने यदि अपनी अज्ञानतावश कुछ ऐसे काम कर लिये हैं जिनका हमें मालूम है कि फल अच्छा नहीं मिलेगा तो करने के बाद वो जो कर्म मेरे भीतर संचित हो गये हैं उन पर भी मेरा वश है। मैं उनको वहीं के वहीं अपने वर्तमान के पुरुषार्थ को जागृत करके नष्ट कर सकता हूँ। मैं खोटे कर्मों की स्थिति, मैं खोटे कर्मों की शक्ति, इन दोनों को कमजोर बना सकता हूँ। मैं अपने वर्तमान के पुरुषार्थ से, अपने पुराने अच्छे कर्मों को और ज्यादा डोमिनेट कर सकता हूँ। 


इतना ही नहीं, जब मेरी सामर्थ्य है उन कर्मों के फल को भोगने की, तो मैं उनको (बाद में - आने वालों को) भी समय से पहले लाकर के उनका फल भोगकर के नष्ट कर सकता हूँ। ये तो मेरे अपने बाँधे गये कर्मों की स्थिति है लेकिन जब वे मुझे अपना फल देने के लिये आ जाते हैं, और वे मुझे अपना फल देने लगते हैं, तब मेरी होशियारी इसमें है कि मैं उनका फल लेते समय जरा सावधानी रखू। मैं समता भाव र लेकिन यह कहना तो बहुत आसान है, लेकिन इस प्रक्रिया को थोड़ा सा समझना पड़ेगा। 


असल में समता भाव रखने का अर्थ है कि अतीत के विकल्पों से मुक्त होना और भविष्य के भय से मुक्त होना। भविष्य की चिन्ता से मुक्त होना और वर्तमान को सँभाले रखना। इसका नाम है अपने कर्म के फल के उदय के समय समता रखना। ये बात अपन को सीख लेनी है। कह तो अपन देते हैं कि समता रखनी चाहिये लेकिन उसके मायने क्या हैं। असल में कब हमारी समता गायब हो जाती है ? कब हर्ष-विषाद होता है ? इस पर विचार करना पड़ेगा। 

 
जब कर्म अपना अच्छा फल देने लगता है तब हम हर्षित हो जाते हैं और कर्म जब अपना बुरा फल देता है, जो मैंने ही किया था, उसका बुरा फल मिलने लगता है, तो मैं विषाद कर लेता हूँ, यह तो बहुत सामान्य सी चीज है। लेकिन ऐसा क्या है कि जब अपना कर्म फल दे और मैं हर्ष-विषाद से बच सकूँ। तो जरा सा किसी छोटे बच्चे को देखू तो ज्यादा आसानी होगी कि कर्म के उदय को कैसे समता से भोगा जाये। कैसे अतीत की चिन्ता और भविष्य के विकल्प से मुक्त होकर वर्तमान को सँभाला जाये, ये हम उनसे सीख सकते हैं। 


संसार में सबसे ज्यादा सुखी अगर कोई दिखता है तो साधुजन और या कि छोटे छोटे बच्चे खुश दिखाई पड़ते हैं, प्रसन्न दिखाई पड़ते हैं और उसका कारण क्या है ? आप किसी एक छोटे बच्चे को जोर से डाँट दीजियेगा। डाँटने के बाद वो रोने लगेगा और जैसे ही वो रोने लगे तो फौरन हाथ में आपने मिठाई दे दी। थोड़ा सिर पे हाथ फेर करके प्यार कर लिया। अब जरा देखियेगा उस बच्चे की स्थिति, आँखों में आँसू हैं, चेहरे पर मुस्कान है और हाथ में मिठाई है और आपके पास आकर के खड़ा है, वो ये विचार नहीं करता कि ये वो ही व्यक्ति है, जिसने थोड़ी देर पहले डाँटा था। ये तो कोई दूसरा है, ये तो मुझे प्यार कर रहा है, ये तो मुझे मिठाई दे रहा है। हम और आप हों अगर उसकी जगह पर तो बहुत लम्बे समय तक इस चीज को ध्यान में रखेंगे और बच्चा है तो वर्तमान में देख रहा है कि हाथ में मिठाई है उसका आनन्द लेना चाहिये और सामने वाला सिर पर हाथ फेर रहा है। पहले उसने डाँटा होगा, वो भूल गया है। क्या कर्म के उदय में जो समता रखने की बात आती है, क्या इससे हम कोई दिशा ले सकते हैं इन छोटे-छोटे से बच्चों की प्रसन्नता से। अपने मन की प्रसन्नता गायब ना होने दें कर्म का फल भोगते समय, क्या ऐसा सीख सकते हैं? 


हमें यही पुरुषार्थ करना है कि जब कर्म अपना फल देने लगे तब हम हर्ष-विषाद से ना घिरें। हम हर्ष-विषाद से क्यों घिरते हैं क्योंकि अतीत की याद आ जाती है। ऐसा ही उस समय हुआ था। जब दुःख आता है तब अतीत की याद आ जाती है कि जिन्दगी निकल गयी मैंने सुख देखा ही नहीं। कभी क्षण भर को सुख मिला था, मेरी जिन्दगी तो पूरी दुःख में ही निकल गयी। मैं कहाँ तक इस दुःख को सहन करूँ ? थोड़ा सा दुःख है वर्तमान में लेकिन अतीत के सारे दुःखों की याद करके मैं अपने उस थोड़े से दुःख को बढ़ा लेता हैं और ऐसे ही जब मेरे किसी साता कर्म का उदय आता है, थोड़ी सुख सुविधायें मेरे चारों तरफ इकट्ठी होने लगती हैं, तब भी मैं उसमें अत्यन्त हर्षित होकर के भूल जाता हूँ कि पिछले दिनों भी तो यही सारे संयोग मिले थे और उन संयोगों में, मैंने इसी तरह से हर्षित होकर अपने जीवन में दःख ही कमाया था। आज हर्ष आया है तो मैं इतना ज्यादा एक्साइट क्यों होऊँ? अगर ये विद्या हमारे लिये सीखने में आ जावे कि हम अतीत से मुक्त हो जावें। 


और दूसरी चीज ये और है कि जब दुःख आया है तो ये थोड़ी देर के लिये आया है ऐसा नहीं लगता। ये पता नहीं है कब तक चलेगा। आगे भविष्य की चिन्ता और हो जाती है और जब सुख आता है, तब भी चिन्ता होती है कि यह लम्बे समय तक बना रहेगा कि नहीं बना रहेगा। दो-चार दिन में ही न खत्म हो जाये। भविष्य की चिन्ता से ग्रसित होकर के वर्तमान के सुख को बचाये रखने के प्रयत्न में अपना जीवन खो देता हूँ या कि वर्तमान के दुःख को सहन ना करके और उससे बचने के मिथ्या उपाय करने लगता हूँ। 


तो मेरे अपने कर्म के उदय में, मैं कैसे व्यवहार करता हूँ ? मैं उसके साथ, इसी पर मेरा पूरा व्यक्तित्व और मेरा पूरा जीवन टिका हुआ है। आज अपन को इस कर्म बंध की प्रक्रिया को जीतने का क्या उपाय हो सकता है, इस पर थोड़ा सा विचार करना है क्योंकि बाँधे गये कर्मों के परिवर्तन का विचार हमने कर लिया है, जो बँध गये हैं वे उदय में आकर अपना फल भी देने लगे हैं। सो उसमें जरा सावधानी रखनी है, चतुराई रखनी है, उसके फल भोगते समय यह भी हमने सीख लिया है। लेकिन इन कर्मों को जीतूं कैसे ? अगर ये प्रक्रिया हमेशा चलती रहेगी तो कैसे काम चलेगा। इसलिये उस पर भी अपन विचार करेंगे। क्या कर्मों को जीतने का कोई उपाय है? ऐसा कर्म करूँ जिससे कि मेरे कर्मों से मैं मुक्त हो जाऊँ, क्या ऐसा कोई उपाय है ? वह भी है। आचार्य भगवन्तों ने कृपा करके सारी बातें बहुत व्यवस्थित ढंग से हमें समझाई हैं। हम उसका लाभ लें। अभी अपन थोड़ी सी चर्चा कर लेवें कि कैसे हम अपने सुख-दुःख को अतीत से और भविष्य से जोड़कर के और जब कर्म का उदय आता है तब उसमें समता नहीं रख पाते हैं। सुख को बढ़ा नहीं पाते हैं और दुःख को घटा नहीं पाते हैं, क्योंकि हम अपने सुख के लिये आगे तक भविष्य की चिन्ता से ग्रसित हो जाते हैं और या कि दुःख को और बढ़ा लेते हैं। घटा तो पाते ही नहीं हैं, अतीत में भी ऐसे ही दुःख भोगे, भविष्य में भी भोगने पड़ेंगे। वर्तमान के झेले नहीं जाते।


 
क्या हुआ एक बार ..... एक राजा का मित्र साधु बन गया और एक दिन राजा को जंगल में उसके दर्शन हुए। तो राजा का मन हुआ अपने मित्र से ..... कभी कोई विपत्ति आवे तो उसमें क्या करूँ ? सबके मन में ऐसा लगता है कि कभी कोई विपत्ति आवे तो ऐसा सूत्र तो कोई मेरे जीवन में आवे कि उससे मैं बच सकूँ। तो अपने मित्र होने की वजह से और निवेदन किया कि महाराज कभी विपत्ति आवे तो कोई मंत्र तो दे दो। उन्होंने कहा कि क्यों चिन्ता करते हो कि विपत्ति आयेगी। विपत्ति आयेगी इस बात की चिन्ता सबसे बड़ी विपत्ति है। अभी विपत्ति आई नहीं है। हम खींच-खाँच के ले आते हैं उसको, अगर आ गई, तो बाबाजी ने तो यही जवाब दिया कि आयेगी ही क्यों ? ऐसा सोचते ही क्यों हो ? बोले, "नहीं महाराज, यह आपके सोचने की बात है, आप वर्तमान में जीते हो, वर्तमान को सँभालते हो। हम तो भैया भविष्य को भी सँभालने में लगे हैं, बिगड़ जायेगा तो क्या करेंगे? कभी विपत्ति आ गई तो आप तो कोई मंत्र देवो, उन्होंने कहा कि देखो जब बहुत बड़ी विपत्ति आये और कोई उपाय ही नहीं सूझे, तब इस मंत्र का उपयोग करना और एक डिब्बी के भीतर एक कागज पर मंत्र लिख कर दे दिया कि इसको रखो, खोलना मत जब तक कि बहुत बड़ी विपत्ति ना आये जिससे कि बचने का उपाय ही ना सूझे, तब के लिये है। ये अपने जीवन में जब कर्म का उदय आये तब कैसे उसको हम झेलें इसकी विद्या है यह। और ऐसा हुआ कि राजा के जीवन में बहुत बड़ी विपत्ति आ गई। पड़ौसी राजा से झगड़ा हुआ, लड़ाई हुई और राजा को हार माननी पड़ी और हारकर के राजा भाग रहा है। पीछे शत्रु के सैनिक लगे हुए हैं और आगे जाकर के देखता है कि मार्ग बन्द हो गया है और पीछे से तो शत्रु आ ही रहे हैं, एक अकेला उतने सौ पचास सैनिकों का सामना क्या करेगा। राजा ने सोचा कि इससे बड़ी विपत्ति और कोई नहीं हो सकती। अब तो मुझे अपने उस मित्र साधु की, उस सूत्र को, उस मंत्र को याद करना ही चाहिये और डिब्बी खोली और डिब्बी में से वो कागज निकला तो उस पर क्या लिखा हुआ था, मंत्र क्या था, “दिस डे विल आलसो पास” अर्थात् ये दिन भी गुजर जाएगा। राजा के मन में प्रसन्नता आ गई कि बात तो सही है। कितनी बड़ी से बड़ी विपत्तियाँ बीत गईं, ये भी बीत जाएगी और सचमुच ऐसा हुआ कि वे सैनिक आगे वह रास्ता बन्द है, ऐसा जानकर और उस रास्ते से ना जाकर और सीधे सामने रास्ते से निकल गये। राजा सुरक्षित हो गया, घटना कोई बहुत बड़ी नहीं है। 


राजा ने फिर से अपनी सेना जोड़कर के पड़ोसी राज्य पर आक्रमण किया और जीत लिया, अपना साम्राज्य वापस ले लिया और साम्राज्य वापस लेकर के जीतने का जश्न मनाते समय राजा जब गद्दी पर बैठा हुआ है, तब भी उसे यही बात याद आ गई कि “दिस डे विल आलसो पास'। ये जो विपत्ति का क्षण था, जैसे बीत गया ऐसे ही ये जो मेरे जीवन में मेरे किये हुए पूर्व जन्म के कर्मों की वजह से सुख का दिन आया है, वो भी बीत जाएगा। मैं क्यों उसमें ज्यादा एक्साइट हो रहा है। मुझे विषाद के समय पर डिप्रेस होने की जरूरत नहीं हैं। आया है अगर विषाद का क्षण, तो वो भी गुजर जाएगा और अगर आया है हर्ष का क्षण, तो वो भी गुजर जाएगा। क्या यह एक सूत्र इन कर्मों के उदय के समय, मैं अपने जीवन में काम ला सकता हूँ। मैं अपने वर्तमान को आसानी से सँभाल सकता हूँ। वरना हम तो यही सोचते हैं कि हमारे कर्म उदय में आयेंगे और उनका फल हमें भोगना ही पड़ेगा। तो भैया, इतना सोचना ही पर्याप्त नहीं है, उनका उदय तो आयेगा और उनका फल भी भोगना पड़ेगा। लेकिन फल कैसे भोगना है यह मेरे अपने पुरुषार्थ पर निर्भर है बस इतनी सी बात मुझे मेरे ध्यान में रखनी है। फल तो दुनिया भोगती है, साता का उदय सैकड़ों लोगों को है, लेकिन उस साता के उदय में कौन अपना क्या पुरुषार्थ करता है, इस पर निर्भर करता है उसके अपने जीवन का आगे का लेखा-जोखा। सारा व्यक्तित्व इस पर निर्भर करता है। कितने लोग हैं जिनको कि साता के उदय में सारी सुख-सुविधाएँ मिली हैं। उन सुख-सुविधाओं का कौन कैसा उपयोग कर रहा है। इसके लिये कोई कर्म नहीं है, यह ध्यान रखना। हम यहाँ पर मंदिर आये हैं, हम यहाँ पर धर्म सभा में बैठे हैं, किसी कर्म के उदय से नहीं बैठे हैं। 


हम यहाँ पर अपने किसी कर्म को हटाकर के अपने पुरुषार्थ को जाग्रत करके यहाँ तक आये हैं। किसी कर्म के उदय में यहाँ पर नहीं आये हैं यह ध्यान रखना। सारी चीजें सिर्फ कर्म के उदय से होती हों ऐसा नहीं है, मेरे अपने पुरुषार्थ से भी होती है, मेरे कर्म के उदय ने तो बस इतना ही किया है कि यहाँ आने में बाधा उत्पन्न नहीं की है पर लाने में मझे मदद नहीं की है। आया तो मैं अपने पुरुषार्थ से हूँ। बस इतना ही जरूर हुआ है कि जब मैंने अपने पुरुषार्थ को जागृत किया तो बस वह कर्म मेरे बीच में बाधक नहीं बन सका। वो आ सकता था और अगर वो बाधक हो जाता तो हो सकता है कि मैं बाहर ही कहीं एंगेज हो जाता और यहाँ नहीं आ पाता। इतना तो कर्म का वश है, लेकिन कोई भी कर्म किसी को शराब खाने की तरफ ले जाएगा या कि जिनालय की तरफ ले जायेगा, निर्धारित नहीं करता। ये निर्धारित मैं करता हूँ कि मेरे पैर किस तरफ मुड़ना चाहिये। कर्म तो किस तरफ पैर मुड़ेंगे वहाँ पर बाधा डाल सकता है। हमें उस तरफ बायफोर्स (बलपूर्वक) ले नहीं जा सकता। ये ध्यान रखना। ये हमारा पुरुषार्थ है। कोई ये कहे कि मैं क्या करूँ मेरे कर्म का उदय है। मुझे तो चोरी करने का मन होता है। ये मेरी अपनी च्वाइस है, यह मेरे अपने कर्म का उदय नहीं है। हाँ अगर चोरी करते समय मुझे बाधा पड़ेगी, तो यह मेरे कर्म का उदय है। मंदिर आते समय मुझे बाधा पड़ेगी तो यह मेरे कर्म का उदय है लेकिन मंदिर लाने वाली कोई कर्म की प्रकृति नहीं है कि जो मुझे मंदिर तक लेकर आये। यह मेरा पुरूषार्थ है, नहीं तो सब चीजें कर्म के उदय से ही होती हों ऐसा भी नहीं समझना। हम सामान्य रूप से यही मानकर चलते हैं लेकिन बहुत सी चीजें हम अपने पुरुषार्थ से करते हैं, इसलिये हमने यह बात बहत अच्छे से सीखनी है कि हम इस बात का रोना नहीं रोएँगे कि क्या करें हमारे कर्म का उदय है। हम सब इस बात का ध्यान रखेंगे कि क्या करें मेरे अपने वर्तमान के पुरुषार्थ में कहीं कोई खोट है कि मेरे कदम जो हैं उस तरफ क्यों मुड़ जाते हैं, क्यों नहीं मैं अपने कल्याण के रास्ते पर चलता हूँ। वो मुझे मुश्किल में डाल सकता है, अगर वो असाता का उदय है तो मुझे मुश्किल खड़ी कर सकता है। लेकिन मुझे मुश्किल के दौरान विषाद करना है या नहीं करना है, संक्लेषित होना है या नहीं होना है, यह तो मेरे ऊपर निर्भर करता है।


आपको थोड़ा सा लगेगा कि वह बात तो कुछ ठीक नहीं जमती। अपने को लगता तो ऐसा ही है पूरी जिन्दगी निकल गयी ऐसे ही और अपने पास ढेर सारे उदाहरण हैं। हम भी देना चाहें तो ढेर सारे उदाहरण दे सकते हैं कि कौन ऐसा है जिसे कर्मों का फल न भोगना पड़ा हो, चाहे राजा रामचन्द्र जी हों, चाहे भगवान महावीर हों और चाहे पहले तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव जी हों, सबको अपने कर्मों का फल भोगना पड़ा। तो मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि किसी को अपने कर्मों का फल नहीं भोगना पड़ा हो। मैं तो यह कह रहा हूँ कि कोई कर्मों का फल रो कर भोगता है, कोई हँसकर भोगता है। कोई शांति से भोगता है और कोई घबराहट से भोगता है, इतना ही है। भगवान ऋषभदेव के भी छः महीने कर्म का उदय रहा और उनको अन्तराय रहा लेकिन उन्होंने उस अन्तराय को कैसे भोगा, यह देखने की बात है। महत्वपूर्ण यह है उनके छः महीने कर्म का उदय रहा, यह महत्वपूर्ण नहीं है। वो तो किसी के भी रह सकता है लेकिन उसे उन्होंने कैसे भोगा ..... शांति से, समता भाव से भोगा, ये कला भी हमें सीखना पड़ेगी। अब देखे कि हम कर्मों को जीत सकते हैं क्या ? 


कर्मों को जीतने के तीन उपाय हैं। पहला तो यह है कि बाह्य वातावरण से जितनी जल्दी हो सके सामंजस्य बना लेना चाहिये। कर्मों के उदय में यह स्थिति गड़बड़ा जाती है। सामंजस्य नहीं रह पाता। या तो बहुत हर्षित हो जाते हैं या कि विषाद कर लेते हैं। दोनों ही चीजें हो जाती हैं, दोनों ही सामंजस्य नहीं है। सद्भाव और अभाव दोनों ही स्थितियों में सामंजस्य बनाकर के रखना। 


और दसरी चीज प्रतिक्रिया ना करें ऐसी कोशिश करना। करनी पड़े तो कम से कम प्रतिक्रिया करें और यदि प्रतिक्रिया करें भी तो बहुत पोजिटिव हो, बहुत रचनात्मक और कन्सटक्टिव हो, डिस्ट्रक्टिव प्रतिक्रिया ना हो। या तो प्रतिक्रिया ना करें और अगर होती भी है तो अल्प करें, और उसमें भी ध्यान रखें कि वह प्रतिक्रिया रचनात्मक हो। 


और तीसरी चीज संसार के घात-प्रतिघात से बचने का प्रयत्न करे। क्योंकि संसार में यही चलता रहता है। ये तीन ही चीजें हैं जिन पर हम विचार करें तो इससे हमारे कर्मों को हम व्यवस्थित कर सकते हैं। कर्मों को सही दिशा दे सकते हैं। अभी तो हमने अज्ञानतापूर्वक जो बाँधे थे कर्म, उनको व्यवस्थित किया है और वो जब उदय में आयेंगे, तो अपने को व्यवस्थित कर लिया है और अब जरा इस प्रक्रिया को और समझ लेवें कि वर्तमान में कर्म कैसे करना है तो बाह्य वातावरण से जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी सामंजस्य करना क्योंकि यहाँ इस संसार में सबको सब चीजों का सद्भाव नहीं है और सबको सब चीजों का अभाव नहीं है। कुछ चीजों का सद्भाव है, कुछ चीजों का अभाव है और जब मेरे जीवन में कुछ चीजों का सद्भाव होता है और कुछ चीजों का अभाव बना रहता है तो जब सद्भाव होता है तो मैं भूल जाता हूँ कि मुझे उस सद्भाव में उन चीजों का सदुपयोग कैसे करना चाहिये। तब मैं उनका दुरुपयोग करने लगता हूँ और जब उन चीजों का अभाव होता है, तब मैं उन चीजों को प्राप्त करने के लिये चाहे जैसा उपाय करने लग जाता हूँ। मैं दोनों स्थितियों में अपने स्वधर्म से, अपने कर्त्तव्य से विमुख हो जाता हूँ। बस, यहाँ जाकर के मैं अपना सामंजस्य खो बैठता हूँ। वर्तमान के कर्मों को व्यवस्थित करने का उपाय यही है कि जो सद्भाव और अभाव है चीजों का, उसके बीच में देखू कि कैसे मैं अपने स्वधर्म को या कि कर्त्तव्य को निभाता रहूँ, क्योंकि चीजों के सद्भाव में भी मैं अपने कर्त्तव्य से विमुख हो जाता हूँ और चीजों के अभाव में भी मैं कर्त्तव्य से विमुख हो जाता हूँ। अपार धन हो, उसके सद्भाव से भी मैं अपने कर्त्तव्य से विमुख होता हूँ या कि धन का अभाव हो तब भी मैं अपने कर्त्तव्य से विचलित होके या कि मिथ्या कार्य करके धन सम्पत्ति अर्जित करने लगता हूँ। दोनों ही स्थिति में मेरा बाह्य वातावरण से सामंजस्य खो जाता है। चाहे सद्भाव हो या अभाव हो दोनों के बीच जो बेलेन्स करके चलता है, वो ही जीत पाता है। इन कर्मों को जीतना है अगर तो इन दोनों के बीच सामंजस्य रखें।


जीवन में हम देखते हैं कि किसी के पास धन पैसा है तो ज्ञान नहीं है। किसी के पास बुद्धि है तो शरीर ठीक नहीं है। किसी के पास में अगर धन पैसा है तो बेटा नहीं है, और अगर बेटा है तो शराबी निकल गया है। इधर सद्भाव है और उधर अभाव भी है और इन दोनों के बीच में हम कोई सामंजस्य नहीं बिठा पाते हैं। क्षण भर को और लोगों की तरफ देखते हैं कि और लोगों की अपेक्षा मेरे बेटा तो है कम से कम, तो जरा दिलासा मिलती है, मगर अगले ही क्षण देखता हूँ कि बिगड़ तो गया है, संस्कार विहीन है। अगले ही क्षण मुझे फिर दुःख घेर लेता है। मैं सामंजस्य नहीं कर पाता हूँ। जाने कितनी चीजें हैं जिनका कि मुझे सद्भाव है, जिनका कि मुझे अभाव है। अतः अब चीजों के बीच में, मैं क्या करूँ, कैसे अपने जीवन को आगे ले जाऊँ जिससे कि मैं अपने कर्त्तव्य से विमुख ना हो पाऊँ। बस इतना ध्यान रखना है क्योंकि इन चीजों का संयोग और वियोग दोनों जीवन में होता है और उस संयोग-वियोग के गुणा-भाग में, मैं अपने कर्त्तव्य से विचलित हो जाता हूँ। इन चीजों का जब संयोग होता है तब भी मैं विचलित हो जाता हूँ। इन्हीं में रच-पच जाता हूँ और अपने कर्त्तव्य को भूल जाता हूँ। जब इन चीजों का वियोग होगा, कल के दिन तब इनकी चिन्ता में कि कैसे इनका फिर से संयोग हो, मैं अपने कर्त्तव्य से विमुख होकर फिर इसी जुगत में रहूँगा कि कैसे इन सबका फिर से संयोग हो और यही मैं पूरे जीवन करता रहता हूँ। इनके बीच में, मैं आज तक सामंजस्य नहीं बना पाया हूँ। सामंजस्य सिर्फ इतना है कि चाहे अभाव हो चाहे सद्भाव हो चीजों का, मुझे अपना कर्त्तव्य हमेशा करते रहना है। ये पहली चीज मुझे अपने जीवन में सीख लेनी चाहिये। क्या-क्या नहीं मिला मुझे? मुझे शरीर मिला। मुझे वाणी मिली। मुझे इन्द्रियों की पूरी सामर्थ्य मिली है। ये सब मेरे लिये सद्भाव है। अब सद्भाव का मैं क्या करूँ। मैं अपना कर्त्तव्य करूँ इससे इन आँखों से दूसरे की बुराई कर्त्तव्य करना नहीं है। इनसे ही जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करना मेरा कर्तव्य है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि मैं इस आँख का सदुपयोग नहीं कर पा रहा हूँ। ये तो फिर मैंने अपने सद्भाव के साथ ज्यादती कर ली है। ये तो मैंने जो चीजें मुझे प्राप्त हुई हैं उसका सदुपयोग नहीं किया। इसका मतलब बाह्य वातावरण से मैं सामंजस्य नहीं बिठा पाता हूँ और या फिर मैं देखता हूँ कि मेरे तो आँखों की रोशनी बहुत कम है। दोनों ही स्थितियाँ हैं। मैं अपने कर्त्तव्य से विमुख हो जाता हूँ। नहीं भैया, मुझे अल्पबुद्धि, रुग्ण शरीर और इन्द्रियों की शक्ति भी कम मिली हो, तब भी मैं अपने कर्त्तव्य का पालन कर सकता हूँ और अपने कर्त्तव्य का पालन करके और अपने जीवन को अच्छा बना सकता हूँ। इतना ही नहीं और अगर मुझे ये सारी सामर्थ्य बहुत मिली है तो सम्भव है कि मैं अपने कर्त्तव्य से विचलित होकर के इस सारी सामर्थ्य का दुरुपयोग भी कर सकता हूँ। 


जब बापू एक मीटिंग में पहुँचे इलाहाबाद और सुबह-सुबह जब मुँह धोने के लिये नायडू ने एक लोटा भरकर के उनको दिया और नेहरू जी बाजू में हैं। मुँह वो भी धो रहे हैं, और चर्चा चल पड़ी कांग्रेस की, तो कब लोटा खाली हो गया, ध्यान नहीं रहा और मुँह तो पूरा नहीं धुल पाया, तो बड़े दुःखी हुये बापू। नायडू ने कहा इतने चिन्तित क्यों हो एक और लौटा ले लीजियेगा, पानी का भरा हुआ। नेहरू जी भी हँसने लगे कि भूल जाइयेगा कि आप आश्रम में हैं। आप तो मेरे यहाँ पर प्रयाग में हैं। यहाँ संगम पर बैठे हुए हो आप। यहाँ पानी की क्या कमी है ? तो उन्होंने क्या कहा था कि चीजों का सद्भाव मुझे मेरे कर्त्तव्य से अगर विचलित कर दे तो इससे अच्छा है कि वो चीजें ना होतीं तो ज्यादा अच्छा था। आज मेरे पास ज्यादा पानी है तो इसका मतलब यह नहीं है कि मैं उसका दुरुपयोग करूँ। मैं ऐसा कर्म करूँ जिससे कि मैं अपने कर्त्तव्य से विचलित न हो जाऊँ उसके सद्भाव में। कल के दिन इन चीजों का अभाव मुझे इन चीजों के सद्भाव के लिये फिर मेरे कर्त्तव्य से विचलित करेगा। मुझे एक बार अगर चीजों के सद्भाव में उनका सदुपयोग करने की आदत नहीं रहेगी तो उनके अभाव में, मैं व्यथित होकर के कैसे उनका सद्भाव हो इसके लिये मिथ्या मार्ग अपनाऊँगा। तब मेरा पूरा वर्तमान नष्ट हो जाएगा और मैं सम्हालना चाहता हूँ अपने वर्तमान को, तो मुझे अभाव और सद्भाव दोनों में अपने स्वधर्म, अपने कर्त्तव्य को नहीं भूलना चाहिये। ये चीज जो हैं आश्रम में, एक दातुन आई है, अगर दातुन का ऊपर का सिरा दाँतों को घिसने में उपयोग में आ गया है तो वे कहा करते थे कि जितना काम में आ गया है, उसको अलग कर दो बाकी फेंकने की आवश्यकता नहीं है कि पूरी फेंक दी जाये, उत्ती बचा लो, कल फिर उसी से घिसने के काम आयेगी। 


आप कहेंगे बड़ी कजूसी है यह तो। डिसपोजेबल का जमाना है कि पीओ और फेंको। इन चीजों का सद्भाव कल के दिन जब हमें अभाव होगा, तब बहुत मुश्किल में डालेगा, ये ध्यान रखना। बाह्य वातावरण किस तरह से हमारे कर्मों को प्रभावित करता है और कैसे हम उसके साथ समायोजन नहीं कर पाते हैं, ये छोटी-छोटी सी चीजे हैं, अगर हमने ये, ये कला सीखली तो फिर देखियेगा जो हम कह रहे थे कि कर्म का उदय आये और चाहे चीजों का सद्भाव हो या अभाव हो, मैं अपने कर्त्तव्य से विमुख नहीं होऊँगा। यही प्रक्रिया तो सीखनी थी, मुझे मेरे अपने पुरुषार्थ के द्वारा। मैं इस प्रक्रिया को सीख सकता हूँ। 


एक बाबाजी रास्ते से गुजर रहे थे। किसान के खेत को देखकर के बड़ी प्रसन्नता जाहिर की कि यह तुम्हारा कितना सौभाग्य, तुम्हारे पिता से तुम्हें कितना बढ़िया खेत मिला है। तब मालूम उस किसान ने क्या जवाब दिया था कि बाबाजी, मेरे पिता का मैं एहसानमन्द हूँ कि इतना बढ़िया खेत मुझे मिला, लेकिन इस खेत में जब फसल नहीं आई थी, तब इस खेत को देखते कि क्या स्थिति थी इसकी, और आज जब फसल आई है, तब आप देख रहे हैं। मुझे मेरे हाथ में जब यह खेत मिला था, तब क्या स्थिति थी। ये बात मुझे किस बात की प्रेरणा देती है, मुझे वर्तमान का जीवन कैसा मिला था। अब मैंने उसमें किस तरह से इजाफा किया है ये मेरे अपने पुरुषार्थ का फल है। ये मेरे अपने बाह्य वातावरण के साथ एडजस्ट करने की सामर्थ्य है। जो जितना, जो प्राप्त हुआ है उसमें मैं क्या बेहतर से बेहतर कर सकता हूँ, मुझे दो आँखें और दो हाथ और दुरस्त शरीर मिला है तो मैं क्या बेहतर कर सकता हूँ। मैं अपने कर्त्तव्य को कैसे ठीक से करूँ, अगर ये चीज मेरे मन में बनी रहे तो आसानी से मैं कर्मों को जीत सकता है। दूसरी चीज कि मैं प्रतिक्रिया ना करूँ। पर ये तो बहत मश्किल है. कोई मझे गाली दे और मेरे भीतर कछ भी ना हो। पानी हिले तक नहीं भीतर का, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। कोई मुझे प्यारी सी बात कहे और मेरे भीतर मैं एक्साइट नहीं होऊँ, ऐसा हो ही नहीं सकता। प्रभावित हुये बिना रहता ही नहीं मैं, जो भी एक्शन होता है बाहर से, मैं उसका रिएक्शन हमेशा करता हूँ। बिना रिएक्शन के तो होता ही नहीं है। बाह्य वातावरण मेरे ऊपर प्रभाव डालेगा, मुझे उसकी प्रतिक्रिया कैसी करनी है। मुझे प्रतिक्रिया कम से कम करनी है और जहाँ तक बन सके, बुरी प्रतिक्रिया को पोस्टपोन करना है, पर अच्छी प्रतिक्रिया करने के लिये हमेशा ध्यान रखना है। इतना नहीं कर सकते क्या अपन ? माँ घर में कहती थी कि फलाना काम कर दो, तो फौरन जवाब मिल जाता - "हम नहीं करते', “अपन को अभी फुरसत नहीं है।” नहीं करूँगा पहले नम्बर, बाद में कहेंगे धीरे से “हाँ बताओ क्या करना है। हम सबके साथ भी यही है। सबसे पहले हम रिएक्शन क्या करते हैं। नेगेटिव रिएक्शन करते हैं, इतनी आदत हमारी पड़ गई है। कर्म हम करते भी हैं तो नकारात्मक कर्म अधिक से अधिक करते हैं और हम कर्मों को जीतना चाहते हैं। नकारात्मक कर्म करने वाला कर्मों को जीत नहीं सकता। जो सकारात्मक, पोजिटिव कर्म करता है, रचनात्मक कार्य करता है, वो कर्मों से पार हो जाता है। कक्षा में फेल होने वाला आगे की कक्षा में नहीं बढ़ता। भैया, कक्षा में पास हो जाने वाले को आगे की कक्षा में बढ़ाया जाता है और हम तो अपने कर्म करने में फेल हैं तो कर्मों से पार कैसे होंगे ? जरा कर्म करने की प्रक्रिया तो सीख लेवें। कर्म तो करना है उनकी प्रतिक्रिया करनी है, उस प्रतिक्रिया को कैसा करना है ? अत्यन्त अल्प प्रतिक्रिया करने वाला कर्मों से पार हो जाएगा और अगर प्रतिक्रिया करता भी है और पोजिटिव करता है, तब भी उससे पार हो जाएगा। सिर्फ ये प्रक्रिया अपन को सीख लेनी है। 


रास्ते से चले आ रहे हैं और काँटा लग गया। खून निकलने लगा। क्या प्रतिक्रिया करनी है, अरे कैसे लोग हैं, रास्ते में पत्थर डाल देते हैं। एक प्रतिक्रिया ये है और अगर ज्यादा अपना रौब है, अपना रुतबा है, अगर तो पत्थर क्या, मैं तो पूरी रोड फिर से बनवा दूंगा। हाँ, ऐसी प्रतिक्रिया करूँगा और या फिर तीसरी प्रतिक्रिया और है जो सज्जन पुरुष की प्रतिक्रिया होती है। दोनों प्रतिक्रियाएँ संसार बढ़ाने वाली हैं, मेरे कर्मों के लिये और अधिक मौका देने वाली हैं। मेरे साथ ट्रेप होने का, मेरे साथ बँधने का और इन कर्मों को हटाने का, जीतने का उपाय क्या है ? कि जिस क्षण मुझे वो काँटा लगे तब धन्यवाद देता हूँ कि चलो काँटा ही लगा, सम्भव है कि इससे भी ज्यादा कोई चोट लग सकती थी। अच्छा हुआ निकल गया मामला। किसी से कोई शिकायत नहीं है, किसी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं है। अपने जो कर्म मैंने किये थे उनका फल। अच्छा हुआ मेरी सावधानी से ये कर्म आकर के निकल गया। अब मुझे कोई प्रतिक्रिया नहीं करनी और करनी भी है तो पोजिटिव; पोजिटिव सिर्फ इतनी कि धन्यवाद दे रहे हैं कि बहुत अच्छा हुआ निकल गया। किसी के गाली देने पर क्या धन्यवाद देने का मन होता है। नहीं होता, सीखना पड़ेगा कि बहुत अच्छा हुआ, गाली देकर ही मामला निपट गया, पता नहीं तमाचा मार सकता था। मेरा कर्म मैंने पता नहीं, मैंने कैसा बाँधा था जो कि सिर्फ गाली लेकर के आया और हो सकता था कि ये तमाचा दे सकता था कि कल के दिन अगर इसको मेरे किसी कर्म के उदय से इसको ऐसी प्रेरणा हो जाती तो मेरे ऊपर बंदूक भी चला सकता था। अच्छा हुआ कि गाली में मामला निपट गया। धन्यवाद, बहुत मुश्किल है। ऐसा  रिएक्शन बहुत मुश्किल है, लेकिन अगर ये प्रक्रिया हम सीख लेवें तब तो देखिएगा, कितना मजा आ जाएगा। 


लेकिन जिन्दगी लग जायेगी। कोई बात नहीं लग जाये, पर अपन ने मन तो बना लिया। कम से कम इस बात को समझ लिया है कि हम जो कर्म कर रहे हैं ना, उसको कैसे करना है। वो ही कर्मों को जीतने का उपाय है और कोई बहुत बड़ी चीज नहीं है, जो लोग कर्मों को जीतते हैं वो और कोई बड़े-बड़े कर्म करते होंगे, ऐसा नहीं है। वे इन छोटे-छोटे कर्मों को करने का ढंग सीख लेते हैं, बस इतना ही है। सफलता जिनको मिलती है, वो कोई अलग कर्म करते हों ऐसा नहीं है। वे बस कर्मों को अलग ढंग से करते हैं। ये हमें सीख लेना चाहिये।


और तीसरी चीज़। अब तीसरी चीज़ पर विचार मेरे ख्याल से फिर करेंगे अपन। आज दो ही चीजें ठीक हैं। समय की सीमा में रह करके भी कैसे काम किया जाता है, ये भी काम करने का एक ढंग है। नहीं तो सारा दिन गड़बड़ा जाएगा। सामंजस्य बाह्य वातावरण से खो जाएगा। कल किसी ने प्रश्न कर दिया था उसका जवाब भी दिये दे रहा हूँ कि धार्मिक कार्यों में समय की सीमा की क्या आवश्यकता है, उन्हें तो जितनी चाहे देर तक करना चाहिये। लेकिन ध्यान रखना अपने कर्त्तव्य से विमुख होना धर्मात्मा होने का लक्षण नहीं है। मैं सुबह से पूजा विस्तारूँ, और ना मुझे अपने बच्चों के भोजन की चिन्ता है, और ना मेरे अपने परिवार की और सुबह से विस्तारी और शाम तक कर रहा हूँ। कहने को तो मैं पूजा कर रहा हूँ। वाह भैया, तब तो फिर बहुत अच्छा है। मैं अपने कर्त्तव्य को और दायित्व को पहिचानूँ। दोनों में बहुत फर्क है। धर्म-ध्यान करना मेरा दायित्व है लेकिन इसके साथ कितनी देर तक कैसा क्या करना ये मेरा कर्त्तव्य है। पढ़ना मेरा दायित्व है, क्योंकि मैं विद्यार्थी हूँ, लेकिन कर्त्तव्य यह है कि समय से स्कूल में पहुँचूँ िऐसा नहीं है कि मुझे तो पढ़ना है दो बजे पहुँचूँगा मैं स्कूल। 12 बजे स्कूल लगता है तो 12 बजे ही पहुँचना पड़ेगा। ये मेरा कर्त्तव्य है। मुझे तो भोजन करना है, सुबह से शाम तक कभी भी कर सकता हूँ। ऐसे नहीं चलेगा। मेरा कर्त्तव्य है कि जब माँ थाली परोस के बुला रही है, तब उस समय पहुँच जाऊँ बाकी काम छोड़कर के या फिर बाकी काम इस तरह व्यवस्थित करूँ कि समय पर पहुँचूँ। इसलिये ये भी आवश्यक है। यह जवाब भी मुझे जरूरी था देना। हम इस तरह बाह्य वातावरण से सामंजस्य नहीं बना पाते हैं। हमें अपने कर्त्तव्य को पहले ध्यान में रख कर के अपने कर्म करना चाहिये और प्रतिक्रिया जितनी हो सके कम करें और अगर करें भी तो पोजिटिव हो। अगर किसी ने हमारे ऊपर गर्म चाय डाल दी है, जैसे सुकरात के ऊपर उनकी जीवनसाथी ने डाल दी थी और सारे मित्र उनके सामने हक्के बक्के रह गये थे कि अब तो मामला बिगड़ा और तब भी सुकरात ने मुस्करा करके कहा था कि बहुत-बहुत धन्यवाद मेरी जीवनसाथी, को ऐसी हिसाब से डाली कि आधा ही जल पाया, आधा तो फिर भी बचा हुआ हैं। कुछ नहीं बिगड़ा, हो सकता है पूरा जल जाता लेकिन धन्यवाद उसको। ऐसी प्रतिक्रिया करने का यदि हम कुछ उपाय कर लेवें तो भैया, हमारे वर्तमान के कर्म भी सुधर जाएँगे और हम उनको जीत सकेंगे। अपने जीवन को अच्छा बना पायेंगे। 

 

इसी भावना के साथ बोलिये आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी मुनि महाराज की जय। 
००० 

 

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