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  1. Vidyasagar.Guru
    बुंदेलखंड में कहते हैं कि ड्योढ़ लगी रहती है, तब गृहस्थी चलती है, ठीक ऐसे ही हमारा संसार चलता है: अाचार्यश्री
     
    हमारे अपने कर्म और हमारा अपना शरीर हमारे संसार के भ्रमण का और इस विविधता का कारण है। यहां तक, हमने इस बात को समझ लिया। कर्म कैसे हैं, वे हमारे साथ बंधते भी है, वे हमारे भोगने में भी आते हैं, वे हमारे करने में भी आते हैं। 

    तीन तरह के हैं, कुछ कर्म हैं जो हम करते हैं, कुछ कर्म हैं जिनका हम फल भोगते हैं। कुछ कर्म हैं जो हमारे साथ फिर से आगे की यात्रा में शामिल हो जाते हैं और इस तरह से यह यात्रा विषयाें का चक्र है इसलिए संसार को चक्र माना है जिसमें निरंतरता बनी रहती है। यह बात नवीन जैन मंदिर के मंगलधाम परिसर में प्रवचन देते हुए अाचार्यश्री विद्यासागर महाराज ने कही। 
    उन्होंने कहा कि ठीक एक गृहस्थी की तरह जैसे किसी गृहस्थी चलाने वाली मां को हमेशा इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि शक्कर कितने दिन की बची और गेहूं कितने दिन का बचा और आटा कितने दिन का बचा। इसके पहले कि वो डिब्बे में हाथ डालकर पूरा साफ करे। ऐसा मौका आता ही नहीं है, दूसरी तैयारी हो जाती है। 

    बुंदेलखंड में कहते हैं कि ड्योढ़ लगी रहती है, तब गृहस्थी चलती है। ड्योढ़ लगी रहती है, मतलब कोई भी चीज एकदम खत्म नहीं होती, खत्म होने के कुछ घंटे पहले ही सही वो शामिल हो जाती है तब चलती है गृहस्थी। ठीक ऐसे ही हमारा संसार चलता है। आचार्यश्री ने कहा कि हम जो भोगते हैं, उसके भोगते समय सावधानी और असावधानी हमारी होती है। दो ही चीजें हैं हमारी अपनी असावधानी जिसको हम अपनी अज्ञानता कह लें, हमारी अपनी आसक्ति। इनसे ही मैं अपने जीवन को विकारी बनाता हूं और इसके लिए मुझे करना क्या चाहिए। मेरे आचरण की निर्मलता और दूसरी मेरी अपनी साधना....समता की साधना। ये दो चीजें हैं। इस संसार की विविधता से बचने के लिए। कुल दो इतना ही मामला है और इतने में ही कुछ लोगों को समझ में आ सकता है, कुछ लोगों को इतने में समझ में नहीं आ सकता। तो आचार्य भगवन्त, तो श्री गुरू तो सभी जीवों का उपकार चाहते हैं। 

    तो फिर इसका विस्तार करते हैं और वह विस्तार अपन करेंगे। जो विस्तार रुचि वाले शिष्य हैं, उनको विस्तार से समझ में आता है जो संक्षेप रुचि वाले हैं उनको बात इतनी ही है समझने की और मध्यम बुद्धि वाले हैं उनको तो विस्तार करके बताना होगी।
  2. Vidyasagar.Guru
    मुनिश्री समतासागर जी  मुनिश्री महासागर जी  मुनिश्री निष्कम्पसागर जी  एलक श्री निश्चयासागर जी   
    अधिक जानकारी 
    https://vidyasagar.guru/clubs/328-group/
    चातुर्मास स्थल जल्द ही अपडेट होगा 
    आपके पास जानकारी हो तो नीचे कमेन्ट मे अपडेट करे 
    मुनि संघ ( सभी महाराज जी एक साथ ) की फोटो भी अपडेट करे 
     
  3. Vidyasagar.Guru

    कर्म कैसे करें
    हम सभी लोगों ने पिछले दिनों अपने जीवन की विविधता और इस संसार की विचित्रता इन दोनों बातों को जानने के लिये एक प्रक्रिया, एक विचार की प्रक्रिया शुरू की थी और हमने यह बहुत अच्छे से समझ लिया है कि हमारे जीवन में जो भी घटित होता है उसका प्रमुख कारण मेरा अपना कर्म है। मैं कर्म निरन्तर करता हूँ, कर्मों का फल भी मुझे ही चखना होता है और इतना ही नहीं, कर्मों का फल चखते समय मेरी जो असावधानी है, मेरी जो गाफिलता है, मेरी जो अज्ञानता है, वो मुझे और नये कर्म बंधन के लिये मजबूर कर देती है। 

    कर्म सिर्फ एक भौतिक प्रक्रिया नहीं है। कर्म एक मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक प्रक्रिया भी है। कर्म दोनों तरह के किये जा सकते हैं। संसार बढ़ाने वाले कर्म भी जो अत्यन्त सांसारिक होते हैं और संसार से पार होने के कर्म भी किये जाते हैं जो कि आध्यात्मिक होते हैं। सवाल सिर्फ इस बात का है कि मुझे संसार बढ़ाने वाले कर्म चुनना है या कि संसार से पार होने के कर्म चुनना है। कोई भी संसार में शरीर धारण करने वाला ऐसा नहीं है जो कर्म ना करे। कर्म सबको करना पड़ता है। वे कर्म सासांरिक है या कि पारमार्थिक या कि आध्यात्मिक हैं, ये हमारे ऊपर निर्भर करता है।
     
    तब फिर हम विचार करें कि हमें ऐसे कर्म करना है जिससे कि कर्मों का बोझ हल्का हो, कर्म का भार हल्का हो। अगर अपने जीवन में हम अपनी अज्ञानता और असावधानीवश कुछ ऐसे खोटे कर्मों को संचित कर भी लेते हैं तो हम उन छोटे कर्मों को अपने सत्कर्मों के द्वारा परिमार्जित भी कर सकते हैं। ये जो आत्म-संयम, जप, तप, दान ये जो आध्यात्मिक कर्म हैं, वे हमारे सांसारिक कर्मों के दबाव को कम करते हैं। उसके भार से हमें मुक्त करने में मदद देते हैं, कौन व्यक्ति है जिससे कि अपनी असावधानी और अज्ञानतावश बुरा नहीं हो जाता। 

    यदि एक क्षण अगर हम चूक गये थे तो क्या हम अगले क्षण अपने को सँभाल नहीं सकते हैं, सँभाल सकते हैं और इतना ही नहीं अपनी उस चूक का फल जो मिलने वाला है उसको भी हल्का कर सकते हैं। जो अपराध हमसे अपनी अज्ञानतावश बन गया है उस अपराध की इन्टेन्सिटी भी हम कम कर सकते हैं। यहाँ तक कि हम आगे सावधान होकर के नये अपराधों से बचकर के अपने जीवन को अच्छा बना सकते हैं। बशर्ते कि हमारा लक्ष्य शुद्ध हो, हमारा संकल्प शुभ हो और हमारा पुरुषार्थ अशुभ से बचते रहने का हो। अगर ये आर्ट हम सीख लें, ये कला हम सीख लें कि हमेशा अपने जीवन की निर्मलता हमारा लक्ष्य है और उस निर्मलता में मेरी अपनी मन, वाणी और शरीर की जो वर्तमान की भली दशा है वो सहायक है, इसीलिये मेरा संकल्प भला करने का है। मेरा संकल्प परोपकार करने का है। संसार के घात-प्रतिघात से मैं अब अपने संसार को, उलझ करके बढ़ाना नहीं चाहता हूँ। इसलिये मेरा संकल्प मैंने शुभ करने का लिया है, ताकि मैं अपने उस शुद्ध लक्ष्य को प्राप्त कर सकूँ और अकेले शुभ का संकल्प कर लेने से काम नहीं चलता। मैं पुरुषार्थ करूँ कि अशुभ से बचता रहूँ। 

    जैसे कि मेरे वस्त्र गन्दे हो जाते हैं तो मेरे मन में ये बात आती है कि ऐसे गन्दे वस्त्र पहिनना ठीक नहीं है। मुझे तो इनको साफ-सुथरा बनाना चाहिये और मेरे मन में ये विश्वास है कि ये साफ-सुथरे बन सकते हैं। तो ऐसे विश्वास के सहारे हम साबुन, सोड़े का उपयोग करके और उन वस्त्रों की मलिनता को हटाते हैं, उनको उज्वल बनाते हैं। भैया ! ये जो जप, तप, आत्म संयम, पश्चाताप, प्रायश्चित्त ये सारी प्रक्रियाएँ साबुन, सोड़े की तरह हैं, जो हमारे अज्ञानतावश बाँधे गये कर्मों की मलिनता को हटाने में हमारी मदद करती हैं। इसलिये ये बात अपन को अब कर्मों को करते समय ध्यान में रखने की है। कर्मों को यदि हम जीतना चाहते हैं, तो कर्म कैसे करें यह टेक्निक सीख लें। आज टेक्नोलॉजी का इतना विकास हुआ है लेकिन कई बार लगने लगता है कि बाह्य जगत की समृद्धि के लिये इतनी टेक्नोलॉजी, इतनी तकनीकी विकसित हुई, लेकिन अपने आत्म जगत की निर्मलता के लिये जो तकनीकी, जो टेक्निक हमारे आचार्य भगवन्तों ने हमें दी थी उसको हम निरन्तर भूलते चले जा रहे हैं। बाह्य जगत में जो भी विकास हुआ है उसके लिये ठीक है कि टेक्नोलॉजी जरूरी है। लेकिन एक टेक्नोलॉजी, एक आर्ट हमारे भीतर अपने जीवन के विकास के लिये भी तो होना चाहिये। अपनी मलिनताओं को हटाने का हम पुरुषार्थ करें और निरन्तर अपने जीवन को उज्ज्वल बनाने का संकल्प हमारे मन में हो, तो हमारी ये कर्म बंध की प्रक्रिया सही मानी जाएगी वरना मैंने देखा है कि जिनको मालूम है कि किस प्रकृति का बंध कहाँ तक होता है, किसका उदय कहाँ तक चलता है और किसकी सत्ता कहाँ तक चलती है और क्या टेक्नोलॉजी है कि हम इन चीजों को अपने भीतर ही सत्ता में नष्ट कर सकते हैं, क्या अपकर्षण है, क्या उत्कर्षण है, क्या उदय है, क्या उदीरणा है और क्या संक्रमण है, सब राई-रत्ती जानते हैं। बैठ जावें तो ऐसी चर्चा करें कि चर्चा सुनकर के सामने वाले को लगे कि अद्भुत है ज्ञान लेकिन जरा जीवन में झाँककर के देखें तो वहाँ सारा कुछ अज्ञानता में व्यतीत हो रहा है। इसलिये मैंने वो सारी बातें बहुत मुख्य नहीं रखीं। हमने तो सिर्फ कर्म सिद्धांत से यही सीखने की कोशिश करी है कि मेरी अपनी अज्ञानता में मेरे से जो कुछ भी बुरा हो गया है, अब मैं उसके लिये रोऊँ, तो रोने से कोई फायदा नहीं होने वाला; जब वो मुझे अपना फल देगा तब उसका फल पाने से मैं बचूँ, बचने की कोशिश करूँ कि मुझे फल ना पाना पड़े? मैं हाय तौबा न मचाऊँ, दुःखी होऊँ तो भी कोई फायदा नहीं होने वाला। मेरा फायदा तो इसमें है कि मेरी अज्ञानता से मैंने अपने भीतर जो खोटे कर्म संचित कर लिये हैं, हो सके तो कोई वर्तमान में ऐसा उद्यम करूँ, ऐसा पुरुषार्थ करूँ जिससे कि इन खोटे कर्मों का दबाव कम हो जावे और आगे के लिये उनकी जो संतति, उनकी जो परम्परा चल रही थी उसको भी हम रोक सकें। बस इतना ही पुरुषार्थ हमें वर्तमान में करना चाहिये। कर्म जो हम करते हैं उनका फल सिर्फ हमें ही मिलता है। यह बात सब जानते हैं लेकिन ध्यान रखना कि इतना ही नहीं है। कर्म का फल वर्तमान में भी मिलता है और दूरगामी परिणाम भी हमारे अपने कर्मों के होते हैं और इतना ही नहीं, अपने ही एक अकेले के जीवन के ऊपर ही नहीं आस-पास के परिवेश और वातावरण पर भी हमारे कर्मों का असर पड़ता है। यह बात भी हमें जरा विचार कर लेनी चाहिये। कर्म करते समय कितनी जिम्मेदारी हमारी है, यह बात हमें समझ में आनी चाहिये। तब फिर हमारे अपने कर्म करने की जो कुशलता है वह हमारे भीतर अपने आप आ जायेगी, कर्म तो करना है लेकिन कुशलता कैसी हमारे अन्दर होनी चाहिये कि ये कर्म मेरी क्षति ना करें। मेरे परिवेश को भी मलिन न करें। 

    मेरे किये हुए कर्म सिर्फ मेरी ही क्षति या मेरा ही उत्थान नहीं करते हैं। मेरे आस-पास के परिवेश की क्षति और आस-पास के परिवेश के उत्थान में भी कारण बनते हैं। इस बात पर भी हमें विचार करना चाहिये। मेरे कर्म मेरे वैयक्तिक नहीं हैं। वे सामाजिक और राष्ट्रीय और अत्यन्त व्यापक हैं। जैसे अपन सब जानते हैं कि अगर परिवार में कोई एक व्यक्ति धर्मात्मा है तो उस परिवार की विश्वसनीयता, उस परिवार के प्रति लोगों के मन में प्रशंसा का भाव, उस परिवार की प्रामाणिकता इन सारी चीजों में बढ़ोतरी होती है। एक व्यक्ति परिवार में धर्मात्मा है तो सारे परिवार को उसका फल मिलता है कि नहीं मिलता। सबको उसकी प्रशंसा और उसकी विश्वसनीयता का लाभ मिलता है कि नहीं मिलता, आज हमें किस चीज का लाभ मिल रहा है। आज हमारे साथ एक चीज सबसे बड़ी जुड़ी है कि हम अपने आचार्य महाराज के शिष्य हैं, उनकी उस तपस्या का फल हमें भी मिल रहा है कि नहीं मिल रहा। जहाँ जाते हैं, वहाँ पर लोग श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। भैया, उनके शिष्य हैं। हमने अभी कुछ भी नहीं किया है, हमने आपसे कोई अभी बात भी नहीं की है, लेकिन उसके बावजूद भी और इसका फल मिलता है कि नहीं मिलता ये सामने उदाहरण है अपने। कोई ऐसी चीज नहीं है सबके देखने में, अनुभव में आती है और इतना ही नहीं है एक मछली सारे तालाब को गंदा करती है, इसका भी उदाहरण सबके सामने है कि अगर दुर्योधन को थोड़ी सी राज्य की लोलुपता नहीं होती तो युद्ध नहीं होता। और एक अकेले गाँधीजी को सत्य और अहिंसा का पालन करते हुए देश को स्वतंत्रता नहीं मिलती अगर उनके शुभ कर्म का सबको फल नहीं मिलता। तीर्थंकर अपनी आत्मा का खुद कल्याण करते हैं, तीर्थंकर की दिव्य ध्वनि को सुनकर के चतुर्विध संघ अपना कल्याण कर लेता है। हमारे किये हुए कर्म दूसरे के उत्थान और पतन दोनों में जिम्मेदार हो जाते हैं। माता-पिता की अपने जैसे कि धन-सम्पत्ति अपने बेटे को मिलती है इतना ही नहीं माता-पिता का कर्ज भी बेटे को ही चुकता करना पड़ता है। दोनों ही स्थितियाँ हैं, उनके किये हुए भले और बुरे कर्मों का असर आने वाली सन्तति पर भी पड़ता है। इतनी सावधानी का काम है कर्म करना। सिर्फ हमारे ही अपने जीवन को वे मुश्किल में नहीं डालते हैं या हमारे ही जीवन का उत्थान नहीं करते; वे आस-पास के परिवेश को भी प्रभावित करते हैं। ये बात हमारे ध्यान में बनी रहे, तब फिर कैसे कर्म करना है। ये अपने मन में अपने आप ही ये विचार आना शुरू होगा। ये सारी चीजें ध्यान में रख करके अब अपन थोड़ा सा आज आगे बढ़ते हैं। 

    एक छोटा सा उदाहरण देख लेवें और फिर उसके बाद अपने को समझना ये है कि मैं जिन कर्मों का फल भोग रहा हूँ वो मैंने किन भावों से बाँधे होंगे। आज अगर मेरी अज्ञानता ज्यादा है, मेरा ज्ञान ढक गया है या कि मेरा अपना विजन क्लियर नहीं है, मेरे अपने जीवन में बहुत सारी गड़बड़ियाँ हैं, उन सबकी जिम्मेदारी मेरे अपने पूर्व किये गये परिणाम हैं। ये अगर मुझे मालूम पड़ जाये कि कौनसे वाले परिणाम से मुझे कैसे वाले कर्मों का बोझ ढोना पड़ता है तो फिर मैं उसके बोझ को हल्का करने के लिये वैसे परिणाम ना करूँ। बहुत आसान सा तरीका है। वो प्रक्रिया पर अब अपन विचार शुरू करेंगे, पर उससे पहले यह बात अपने ध्यान में रखें कि हम जो भी कर्म करेंगे उसके फल में हम आसक्त नहीं होंगे क्योंकि कर्मों का फल हमें दोनों रूपों में आसक्त करता है। जब वो भला फल देता है, तब हमें गाफिल कर देता है। हमारे भीतर अहंकार पैदा करता है और जब वो अपना खोटा फल देता है तब वो हमें संक्लेषित कर देता है और अहंकार और संक्लेष इन दोनों प्रक्रियाओं से मैं और अधिक अपने संसार को बढ़ाता हूँ इसलिये पहली  चीज मैं कर्म के फल में अपनी आसक्ति घटाऊँ और जो कर्म मैं करता हूँ उसको कर्त्तव्य मानकर करूँ। उसमें कर्ता ना बनूँ, ये दूसरी चीज है। पहली चीज कि मैं अपने कर्मों के फल में आसक्ति ना रखू। कर्म करूँ तो कर्त्तव्य मानकर के करूँ, और कर्ता बनकर ना करूँ। अगर ये दोनों चीजें हमारे जीवन में आ जायें कि कर्म का फल भोगते समय क्या सावधानी रखना और कर्म करते समय क्या सावधानी रखना। फिर देखियेगा वे कर्म हमारे जीवन को ऊँचा उठाने वाले ही होंगे। एक उदाहरण है। असल में, हम सब लोग कर्म करने में उतने उत्सुक नहीं हैं, हम तो कर्म के फल में उत्सुक हैं, देखा जाये अगर तो और हमें तो कई बार ऐसा लगता है कि फल मिल जाए, हमें कर्म ना करना पड़े तो और अच्छा है। ये जितनी भी लाटरी वाटरी की प्रक्रिया शुरू हुई उसके पीछे उद्देश्य क्या था कर्म नहीं करने पड़ें और घर बैठे हाथ पे पैसा मिल जावे। “वेल्थ विदाउट वर्क"। गाँधीजी ने इसको एक पाप कहा है। “वेल्थ विदाउट वर्क इज ए सिन" और "नॉलेज विदाउट मोरेलिटी इज ए सिन' नैतिक मूल्य कुछ भी नहीं है और नॉलेज बहुत सारी है तो वो पाप में ले जाएगी आपको, जैसे कि ले जा रही है आज। कितना तो ज्ञान है लोगों के बीच लेकिन नैतिक विकास की कोई चिन्ता नहीं, आध्यात्मिक विकास की कोई चिन्ता नहीं और ज्ञान तो अपार, वो कहाँ ले जाएगा? पतन की तरफ ले जाएगा। ये जो अकर्मण्यता है, कर्म नहीं करने की जो प्रवृत्ति है, लेकिन फल की आकांक्षा बहुत है और इतना ही नहीं खोटे कर्म करके भले की आकांक्षा ये संसार बढ़ाने वाली है। इसके लिये एक उदाहरण अपन समझ लेवें। कितने तरह के लोग हैं और अपन उसमें से कौनसे प्रकार के हैं ये जरा सा विचार कर लें हम। एक वो लोग हैं जो कि कर्म तभी करते हैं जब यह तय हो जावे कि फल क्या मिलेगा। असल में ये फल में ज्यादा रुचि रखते हैं। कर्म में नहीं रखते। ऐसा जीवन में अपने भी कभी-कभी मन में आता होगा कि करना ना पड़े और उसका फल मेरे मन मुताबिक मुझे मिल जावे। 
     
     

    दूसरे और अच्छे लोग हैं उससे जो ये कहते हैं कि मैं तो अपना कर्म करूँगा, मेरा कर्त्तव्य है और जब मैं अपना कर्त्तव्य बखूबी करूँगा तो उसका फल भी पाऊँगा। मुझे उस फल को लेकर के चिन्तित होने की क्या आवश्यकता। भले कर्म का फल भला मिलता है, बुरे का फल बुरा मिलता है। अब मुझे इसमें ज्यादा चिन्तित होने की भी आवश्यकता क्या है ? ऐसा होता कि भैया कभी-कभी बुरे कर्म का फल भी अच्छा मिल जाता है, या कि अच्छे कर्म का बुरा फल मिल जाता है, ऐसा अगर कुछ नियम होता तो फिर कुछ चिन्ता की बात थी।
    और तीसरे प्रकार के लोग थोड़े और निश्चिन्त हैं, वे तो ये कहते हैं कि मैं तो कर्म करता हूँ, फल तो भगवान पर छोड़ता हूँ। ये भक्त किस्म के लोग होते हैं और दूसरे किस्म के लोग गृहस्थ हैं और पहले किस्म के लोग अकर्मण्य हैं। अकर्मण्य व्यक्ति कहेगा कि मैं तो कर्म तभी करूँगा जब मुझे फल मिलने की तय कर दो आप। बल्कि मुझे पहले ही फल दे दो फिर देखेंगे, काम तो बाद में करेंगे। पैसा पहले धर दो, तुम्हारा काम हो जावेगा। पैसा रखो पहले। ये क्या है ? ये अकर्मण्यता की तरफ ले जाने वाली प्रक्रिया शरू हो रही है कि नहीं हो रही ? अवार्ड पहले वर्क बाद में। गृहस्थ सिर्फ इतना मानकर कर्म करे कि उसका कर्त्तव्य है। अच्छा करूँगा, अच्छा फल मिलेगा, बुरा करूँगा, बुरा फल मिलेगा। भक्त व्यक्ति थोड़ा और निश्चिन्त रहता है। 

    वो कहता है कि मैं तो अपना कर्म करता हूँ, बाकी मैं सब भगवान पर छोड़ता हूँ। वो जाने, हालाँकि भगवान इस प्रपंच में नहीं पड़ता लेकिन मेरी श्रद्धा, मेरी भक्ति मुझे निश्चिन्त करने के लिये यह अच्छा उपाय है कि वो जाने, मैं तो निश्चिन्त हूँ। मुझे चिन्ता करने की कोई बात नहीं, जैसे बच्चे लोग कहते हैं कि भाई मुझे क्या चिन्ता करना, कैसे कमा रहे हैं, क्या कर रहे हैं पिताजी जानें। और चौथे प्रकार के वे हैं जो थोड़े और ज्यादा ज्ञानी हैं। ये कहते हैं कि कर्म मैं करूँगा, मुझे उसके फल की कोई आकांक्षा नहीं है। ऐसा निष्काम कर्म करने वाले तो बहुत बिरले साधुजन जिनको स्थितप्रज्ञ कहते हैं, जो अपने कर्म के फल में समता धारण करते हैं। जो अच्छा फल मिलने पर एक्साइट नहीं होते और बुरा फल मिलने पर डिप्रेस नहीं होते और साम्यभाव से अपना कर्म करते चले जाते हैं। ऐसे बिरले ही हैं। हम भी कभी ऐसा कर्म करके देखें और पाँचवें प्रकार के और हैं जो न कर्म करते हैं और ना कर्म का फल चाहते हैं। जो कहते हैं कि ना तो मैं कर्म करता हूँ, न मुझे कर्म के फल की आकांक्षा है। ऐसे या तो बहुत पहुँचे हैं या एकदम निठल्ले हैं। अब ये डिसाइड कौन करेगा? ये तो उनके अपने परिणाम डिसाइड करेंगे। सांसारिक कार्यों को नहीं करना और उनके फल की आकांक्षा भी नहीं रखना। ये तो बहुत पहुँचा हुआ व्यक्ति ही हो सकता है और या फिर निठल्ला आलसी व्यक्ति हो सकता है जो कि अपने जीवन के लिये कोई कर्म ही ना करे। और उसके फल के प्रति भी अज्ञानी बना रहे। अब हमें इन पाँच में से कौनसा होना है ये विचार स्वयं करना चाहिये। कर्म तो सभी कर रहे हैं, फल की आसक्तिपूर्वक भी कर रहे हैं और सहज भाव से भी कर रहे हैं। 

    अच्छा करूँगा तो अच्छा फल मिलेगा और कुछ लोग हैं जो कि कर्म के समय भी समता भाव धारण करते हैं। सबसे बढ़िया तो यही है कि मैं या तो कर्म के फल को भोगते समय समता भाव धारण करूँ और या फिर जो है हमेशा शुभ कर्म करने के लिये तैयार रहूँ। चाहे मेरे खोटे कर्मों का फल मुझे तकलीफ भी पहुँचाये तब भी मैं अपने स्वधर्म में, अपने आत्म कर्म में लगा रहूँ, अपने कर्तव्य का पालन करता रहूँ। या तो ऐसा कर लें और या फिर समता भाव धारण कर लें। तो कर्मों पर विजय आसानी से हो सकती है, थोड़ा सा विचार अब मुझे इस बात पर करना है कि कितने तरह के कर्म हैं जो कि मुझे मेरे जीवन को निर्मित करने में अपना पार्ट अदा करते हैं, उनका अपना कितना हाथ है मेरे इस जीवन में। 

    तो कुछ कर्म ऐसे हैं जो कि मेरे शरीर के आकार-प्रकार और रंग-रूप का निर्धारण करते हैं, कुछ कर्म ऐसे हैं जो कि मेरे ऊँचे और नीचे होने का भाव मेरे अन्दर उत्पन्न करने में कारण बनते हैं कि मैं ऊँचा हूँ या कि मैं नीचा हूँ, इसके लिये भी मेरे अन्दर कुछ कर्म हैं जो कि निमित्त बनते हैं। कुछ कर्म हैं जो कि मुझे शरीर में, कितने समय तक किस शरीर में रुके रहना है, इस बात को निर्धारित करने में कारण बनते हैं। ऐसे भी कुछ कर्म हैं जो कि मेरी चेतना को, मेरे आचरण को विकृत करने वाले हैं, उसमें कारण बनते हैं। वो भी कर्म मेरे भीतर हैं । कुछ कर्म हैं जो कि मेरे ज्ञान को ढक लेते हैं, कुछ कर्म हैं जो कि मेरी दृष्टि के मार्ग को ढकने वाले हैं। कुछ कर्म हैं जो मेरे दान, लाभ, भोग, उपभोग तथा मेरी सामर्थ्य में बाधा डालने वाले और कुछ कर्म और हैं जो मेरे सुख और दुःख में कारण बनते हैं। ऐसे आठ प्रकार के कर्म हैं। आचार्य भगवन्तों ने इन्हें नाम दिये हैं। मेरे अपने ज्ञान को ढकने वाला, मेरी अज्ञानता को बढ़ाने वाला ज्ञानावरणी कर्म है। मेरे अपने दृष्टि को कम और ज्यादा बढ़ाने वाला, मेरे अपने सामान्य प्रतिभा को कमजोर करने वाला दर्शनावरणी कर्म है। मेरे सुख-दुःख में निमित्त बनने वाला वेदनीय कर्म है। मेरी चेतना को. मेरी श्रद्धा को. मेरे आचरण को विकत कर देने वाला मोहनीय कर्म है। मझे एक शरीर में निश्चित समय तक रोके रखने वाला मेरा आयु कर्म है और मुझे ऊँचे और नीचे कुल का भान कराने में निमित्त बनने वाला गोत्र कर्म है। मेरे शरीर के आकार-प्रकार, रूप रंग का निर्धारण करने वाला नाम कर्म है और मेरे दान, लाभ, भोग, उपभोग और मेरी सामर्थ्य में बाधा डालने वाला अन्तराय कर्म है। ये कर्म मेरे अपने जीवन में, मैं स्वयं संचित करता हूँ, अपने परिणामों से। ये बहुत फिजिकल नहीं है, बहत भौतिक नहीं है, ये हमारे साथ इन्टरमिगल करते हैं, हमारे साथ ट्रेप हो जाते हैं। ये बहुत भौतिक मालूम पड़ते हैं लेकिन ये बहुत मानसिक, बहुत भावनात्मक कर्म हैं जिनमें कि मेरा अपना पुरुषार्थ काम आता है। मैंने ऐसा पहले जीवन में क्या पुरुषार्थ करा इससे कि मुझे वर्तमान का जीवन मिला। इस पर विचार जरूर करना चाहिये। कर्म सिद्धांत पढ़ने वाले को और ज्यादा विचार ना करे तो इतना तो जरूर करना चाहिये कि मेरी मौजूदा हालत की जिम्मेदारी किसकी है ? मेरी मौजूदा स्थिति के लिये मेरी कौनसी भावदशा जिम्मेदार रही होगी। पहले और आज वर्तमान की भाव दशा कैसी है, जिससे कि मैं अपने आगामी जीवन का निर्धारण अपने हाथ से करूँगा? अगर इतनी बात हमारे ध्यान में रही आये तब समझियेगा कि वाकई में इन कर्मों को ठीक-ठीक समझ लिया है, हमारी कर्म के बारे में अज्ञानता हट गई है। वरना तो इस संसार में कर्मों से पार पाने वाले बहुत बिरले ही हैं। कर्मों से पार पा जाना इतना आसान नहीं है। हमारे ही अपने कर्मों से हम पार नहीं पा पाते। तो देखें एक-एक करके अपन देखेंगे कि कौनसी भाव दशा है जो मेरे इस जीवन के लिये कारण बनी हुई है। मेरे ज्ञान में कमी है। मेरा अज्ञान बहुत है। कोई तो बात होगी। मेरे पास किताब नहीं होगी शायद इसलिये मेरा ज्ञान कम है। मुझे कोई पढ़ाने वाला ठीक नहीं मिला होगा, ठीक इसलिये मेरा ज्ञान कम है। मुझे जरा स्कूल नहीं मिला अच्छा इसलिये मेरा ज्ञान कम है। मुझे कुछ फेसिलिटीज नहीं मिली हैं इसलिये मेरा ज्ञान कम है। बहुत से कारणों पर हमारा ध्यान जाता है। सो ठीक है भैया, किसी के पास पुस्तक नहीं है, पर कई लोग ऐसे भी होते हैं कि जिनके पास पुस्तक नहीं होती फिर भी ज्ञान बहुत होता है। कई लोग ऐसे हैं जिनको कि ठीक-ठाक गुरु नहीं मिला है, द्रोणाचार्य नहीं मिल पाये थे एकलव्य को, लेकिन फिर भी धनुर्विद्या तो उसने सीख ली थी तो फिर मैं कैसे मानूं कि गुरु के नहीं मिलने पर मुझे ज्ञान नहीं होगा या कि किताब के नहीं मिलने से मुझे ज्ञान नहीं हुआ है और या कि मुझे कोई अच्छा स्कूल नहीं मिला, पढ़ने के लिये या बहुत छोटे स्कूल में पढ़ रहा हूँ। आज तो सब यही सोचते हैं कि बड़े स्कूल में पढूंगा, बड़े कॉलेज में पढूँगा, कोई बड़े इन्स्टीट्यूट में पढूंगा तो बहुत ज्ञानवान हो जाऊँगा। सोच तो हमारा यही है, लेकिन ये सारी चीजें बहुत बाहरी हैं। मेरे ज्ञान और अज्ञान को निर्धारित करने वाली ये चीजें नहीं हैं। मेरे भीतर मेरे अपने परिणाम, मेरे ज्ञान और अज्ञान को निर्धारित करते हैं कि कितना मेरे ज्ञान का क्षयोपशम होगा। मेरे अपने परिणाम निर्धारित करते हैं। आचार्य भगवन्तों ने एक सूत्र लिखा ..... “तत्प्रदोष निह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः"। 

    ज्ञान पर आवरण और दर्शन पर आवरण लाने वाले उसको कम करने वाले ये जो ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म हैं जो हमारे साथ, हम खुद उनको ट्रेप कर लेते हैं, हम खुद उनको अटेच कर लेते हैं, उनके पीछे भावदशा क्या है ? प्रदोष ? किसी के ज्ञान की कथा करते समय, जैसे कि ज्ञान की चर्चा चल रही है, बैठे-बैठे सुन तो रहे हैं, लेकिन भीतर ही भीतर ईर्ष्या का भाव है, कोई ज्ञान की अच्छी बातें कर रहा है और उसकी बातें सुन भी रहे हैं लेकिन प्रशंसा का तो एक शब्द मुँह से नहीं निकला है और ना मन में प्रशसा का भाव है बल्कि उल्टा मन में ईर्ष्या का भाव चल रहा है अगर, तो मानियेगा कि हमारे ज्ञान को हम अपने हाथ से खुद ढक रहे हैं। अपने अज्ञान का इजाफा हम खुद अपने हाथ से बढ़ा रहे हैं। जबकि कुछ भी नहीं देखने में आ रहा है कि क्या कर रहे हैं। कुछ तो नहीं किया मैंने। मैं तो धर्म सभा में बढिया बैठा था। मैं तो सनने गया था. ज्ञान की बातें. लेकिन मेरा अज्ञान और बढ़ गया। बढ़ेगा कैसे नहीं क्योंकि भाव दशा तो उस ज्ञान की कथा के समय, ज्ञान की कथा करने वाले से और उस सच्चे ज्ञान से आपके मन में ईर्ष्या का भाव था। 
    जहाँ प्रशंसा की जानी चाहिये थी ज्ञान की, हमने ज्ञान की प्रशंसा नहीं करी बल्कि उससे हमने द्वेष और कर लिया। हमारा ज्ञान ढक गया। हमारे अज्ञान में बल्कि और बढ़ोतरी हो गयी। किसी कारणवश किसी बहाने में “नहीं हैं", "मैं नहीं जानता हूँ," ऐसा कह देना पुस्तक और गुरु के बारे में, पुस्तक माँगने पर कहना कि “नहीं है", पूछने पर कहना कि “मुझे नहीं मालूम।" आपने यह ज्ञान कैसे प्राप्त किया, बड़ा अच्छा ज्ञान है आपका। मैंने खुद अपने द्वारा अर्जित किया है। अपने गुरु के प्रति जिनसे कि ज्ञान सीखा है, एक अक्षर भी जिससे सीखा है उसके प्रति हमारे मन में जिस गुरु से ज्ञान हासिल किया है उसका नाम छिपाने की कोशिश मत करना। मन में ऐसा भाव तक नहीं लाना, वरना हमारे ही ज्ञान में कमी आती है। 

    आचार्य महाराज तो सुनाते हैं कोई घटना, कि किसी महाराज के जीवन में ऐसा हुआ कि उनका ज्ञान का क्षयोपशम इतना बढ़ गया कि गुरुजी से भी ज्यादा हो गया। अब उनको इस बात में शर्म आने लगी, लोग पूछते थे जबकि आपका इतना उत्कृष्ट ज्ञान ? तो उनको इस बात में शर्म आने लगी कि कैसे कहें कि इन गुरुजी से सीखा। वो तो बिल्कुल ही बद्ध हैं। उनका नाम बताकर हमें क्या मिलने वाला है ? नहीं मैंने अपने आप. मैंने अपने पुरुषार्थ से इस ज्ञान को अर्जित किया है। ऐसा अहंकार उनके भीतर आ गया और अपने गुरु का नाम छिपा लिया और गुरु के प्रति अविनय का भाव आ गया। उसका परिणाम उनके जीवन में ही देखने में आ गया कि इतना कुन्दन सा शरीर था, धीरे-धीरे पूरा काला (ब्लेकिश) होता चला गया। थोड़ी असावधानी हो गयी इसलिये ऐसी स्थिति बन गयी लेकिन जैसे ही उनके शरीर में परिवर्तन होना शुरू हआ. उनका ध्यान चला गया और उनको अपनी गलती का अहसास हुआ। तो कहते हैं कि अत्यन्त पश्चाताप किया। गुरु के चरणों में जाकर माफी माँगी और कहते हैं कि कुछ दिनों के अन्दर उनका शरीर ज्यों का त्यों हो गया। भैया, अपने किये हुए कर्मों का तुरन्त भी परिणाम मिलता है और दूरगामी परिणाम भी होता है, बहुत सावधानी की आवश्यकता है। अरे भाई अपन ने ज्ञान हासिल कर लिया है तो जिस पुस्तक से हासिल किया है, जिन गुरुजनों के चरणों में बैठकर हासिल किया है, उनके प्रति आदर और उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने में अपना क्या जा रहा है, लेकिन उन क्षणों में मेरा अहंकार मुझे शांत नहीं बैठने देता। मुझे याद है कुछ सतना वाले आकर बैठे हैं और उन्हीं के सतना में जब हम सन् बानवे में चतुर्मास करने गये थे तब इतवार के दिन प्रश्नोत्तरी आहार के बाद होती थी और सैकड़ों लोग बैठे हुये हैं और प्रश्नोत्तरी के दौरान एक के बाद एक प्रश्न आते चले जा रहे हैं और मैं जवाब देता चला जा रहा हूँ आचार्य महाराज का स्मरण करके, और एक प्रश्न उस बीच में ऐसा आया कि अद्भुत है आपका ज्ञान, इस क्षण में तो ऐसा  लग रहा है कि जैसे आपकी जिह्वा पर सरस्वती आकर बैठ गयी हो और उसे पढ़कर के मेरे मन में भी तीस सैकण्ड के लिये यह विचार आ गया कि सचमुच मेरे पास ज्ञान की अच्छी सामर्थ्य है और आप आश्चर्य करेंगे कि अगले वाले प्रश्न का उत्तर जबकि मुझे 2-5 सैकण्ड से ज्यादा नहीं लगते लेकिन एक मिनट तक मुझे अगले वाले प्रश्न का उत्तर नहीं सूझा और अगले ही क्षण मेरे मन में आया कि ये क्या कर रहा हूँ। मैं तो आचार्य श्री का आशीर्वाद लेकर गद्दी पर बैठा हुआ हूँ। मैं थोड़े ही उत्तर दे रहा हूँ, उत्तर तो वो ही दे रहे हैं। जैसे ही ये भाव आया और उसके बाद प्रश्न के उत्तर ज्यों के त्यों बनने लगे।
     
    मैंने अपने जीवन में ऐसा कई-कई बार अनुभव किया है। मैं आपको ये इसलिये कह रहा हूँ कि कभी भी अपने छोटे-छोटे क्षयोपशम ज्ञान के अहंकार में, अपने गुरु या कि अपने किसी शास्त्र से जिससे कि हमने यह सारी विद्या हासिल की है, उसका नाम छिपाने का प्रयत्न नहीं करना। ना अपने बच्चों को ऐसी सलाह देना, बल्कि विद्या तो बाँटने से बढ़ती है। दो ही चीजें हैं संसार में जो बाँटने से घटती नहीं हैं। ज्ञान या कि प्रेम कितना ही बाँटो, बढ़ता चला जाता है। इनमें कभी भी जो है और अहंकार नहीं करना। मात्सर्य-देने योग्य ज्ञान को नहीं देना, जानते हुये भी देने से इन्कार कर देना। भीतर कौनसा भाव है। कलुषता का भाव है कि मेरे ज्ञान दे देने से इसका बढ़ जायेगा। ये मेरे से आगे न निकल जायें। ऐसा करते हैं बच्चे, अपनी पोजिशन बनाने के लिये और दूसरे को बुक नहीं देंगे, दूसरों को बताएंगे नहीं अपनी प्रोब्लम्स, सामान्य पढ़ाई में भी। ये तो फिर तत्व ज्ञान की बात है। तत्त्व ज्ञान के समय अगर कोई ऐसा करे तब तो भारी अज्ञानता का ही कारण है। आगे भी अज्ञानता ही हाथ में आने वाली है, इसलिये भैया जब भी कोई बात अपन को मालूम है, तत्त्व की बात है, और कोई पूछे तो इन्कार नहीं करना, देने योग्य ज्ञान है और पाने वाला भी उसकी योग्यता रखता है तो मन में कलुषता रखकर के, इसको क्यों बताऊँ ? इसका ज्ञान बढ़ जाएगा, ऐसा भाव रख करके बताने से इन्कार नहीं करना। जब भी कोई चाहे, हाँ भैया आपके कल्याण की, करुणापूर्वक उसको दो बातें कह देना, तो ही अपना ज्ञान बढ़ेगा। आज मैं इसलिये कह रहा हूँ कि आज अपन को अगर ज्ञान नहीं है तो उसका कारण क्या है ? मैंने कभी ऐसे खोटे भाव किये होंगे जिससे कि मेरा अज्ञान तो ज्यादा है, ज्ञान कमती है। हम अब रोना नहीं रो सकते कि मेरी अज्ञानता क्यों है। अगर रोना ही हो तो अपने पुराने परिणामों पर रोयें हम कि कैसे खोटे परिणाम किये होंगे जिससे कि मेरा ज्ञान इतना अल्प है। मुझे अपने कल्याण की बात ही नहीं सूझती। मैं उस ज्ञान की बात कर रहा हूँ नहीं तो ऐसा वाला ज्ञान नहीं है। ऐसा वाला ज्ञान तो बहुत लोगों के पास है। ऐसा ज्ञान जिससे कल्याण की बात सूझे वो है ज्ञान। दुनिया भर की जानकारी हासिल करने वाला क्षयोपशम कोई ज्यादा काम का नहीं है। क्षयोपशम वो है जिससे कि सारभूत जो चीजें हैं उनको जानने की सामर्थ्य प्राप्त हो। ऐसे ज्ञान की बात जिसके जानने के बाद मैं अपने कल्याण की बात जानने के लिये उत्सुक हो जाऊँ। संसार को जानने के लिये तो बहुत लोगों के पास बहुत सारा ज्ञान है, वो ज्ञान नहीं। मैं अपने सारभूत तत्व को जानने के लिये, उस ज्ञान का सदुपयोग क्यों नहीं कर पा रहा हूँ। मैंने ऐसे कौनसे खोटे भाव किये होंगे जिनसे कि मेरा इन चीजों में ज्ञान नहीं जाता है, किताब पढ़ने को कहें अगर धर्म की तो मन नहीं लगेगा और अगर कोई पत्रिका अभी खींचकर के बैठ जाएँ तो जब तक पूरी ना हो जाए तब तक छोड़ें नहीं। और अगर अपने कल्याण की दो लाइनें लिखी हुई हैं तो उसमें मन नहीं लगेगा, उठकर के चले जाएंगे, ये क्या चीज है ? कौनसे ऐसे परिणाम मैंने खोटे किये होंगे पहले जिससे कि मेरी संसार के प्रपन्च को जानने में तो बहुत रुचि होती है और इन चीजों को जानने में जिनसे कि मेरा कल्याण है, अरुचि हो जाती है।

    मैंने पहले मात्सर्य किया होगा। सच्चे ज्ञान को देने में मैंने कोताही की होगी, कंजूसी की होगी। इसीलिये आज मुझे सच्चा ज्ञान पाने में और मुश्किल पड़ रही है। “तत्प्रदोष निह्नवमात्सर्यान्तराया" ज्ञान और ध्यान के साधनों में बाधा डालना। ये भी अपन वर्तमान में विचार करें कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं दूसरे के सच्चे ज्ञान में बाधा डाल रहा हूँ। बच्चे तो कह रहे हैं कि हम जा रहे हैं। वहाँ पर प्रवचन सुनेंगे। “हाँ सुनो प्रवचन, फेल हो जाओगे, घर से बाहर कर दूंगा”। पढ़ना-लिखना है नहीं बस वहीं पर जा रहे हैं, सुनने के लिये महाराज के पास जा रहे हैं। अरे वाह ! सच्चे ज्ञान के लिये तो आप रोक रहे हैं और संसार का ज्ञान बढ़ाने के लिये कह रहे हैं। “एक जीव की जीविका एक जीव का उद्धार।" एक से सिर्फ जिससे आजीविका चलने वाली है वो ज्ञान तो खूब देवो, जिससे जीवन का उद्धार हो उस ज्ञान में बाधा डालो। इससे जो है मेरा ही अज्ञान बढ़ेगा। मेरे ही ज्ञान को ढकने वाला काम कर रहा हूँ मैं। अगर कोई सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति के लिये लालायित है तो कभी उसमें बाधा मत डालना। हमारी दादी हमें दस पैसे देती थीं, अपनी अलमारी साफ करवाने के लिये। हाँ यहाँ पर हैं एक अम्माजी। बिल्कुल दादी जैसी लगती हैं उनको देखकर मुझे याद भी आ जाती है, दादी की, मैंने उनसे कहा भी था। ..... तो उनकी आदत थी, “हे भैया! हमारी अलमारी कौन साफ करेगा।" उसमें सब धर्म के ग्रन्थ रखे रहते थे और वो हर हफ्ते उनकी अलमारी साफ करने के लिये लालच देतीं। दस पैसे ले लो। हम कहते थे, हम करेंगे क्योंकि दस पैसे बहुत होते थे उस समय में, सन् 70 और 71 की बात है। तो हम दस पैसे के लिये अलमारी साफ करते। साफ करते-करते, वो पहले बहुत छोटी-छोटी किताबें चलती थीं, छोटी सी किताब 'दादी हम ले लें'। “हाँ ले लो ...... ले लो, तुम तो ले लो।" वो चाहती यही थीं। दस पैसे के लालच में धर्म की किताबें 
    उठायेगा, पलटेगा, धरेगा, सम्पर्क में आयेगा पता नहीं। कौनसी चीज इसके लिये अच्छी लग जावे सो अपने बस्ते में रख लेगा। बस्ते में रखेगा तो एक दिन खोलकर पढ़ेगा और चार लाइनें अगर धर्म की पढ़ लीं तो इसका कल्याण हो जाएगा, बस ये ललक है, अपने भीतर यह नहीं है, आज मैं यह कहना चाह रहा हूँ। अपने बच्चों के प्रति और अपने परिवारजनों के प्रति कितनी ललक है, अपने भीतर कि चार लाइनें पढ़ लेगा अपने कल्याण की, तो इसका कल्याण हो जाएगा। इसको कौनसा उपाय करूँ जिससे थोड़ा सा समय अपने कल्याण की बातें सीखने में भी लगाये। मन दिन भर लगा रहता है संसार की चीजें जानने के लिये। डिस्कवरी चैनल पर दो घण्टे से बैठा हुआ है। लेकिन डिस्कवर करना है अपने आपको, अपनी चेतना को, इसके लिये क्या कोई समय नहीं है। ठीक है वो नालेज खराब नहीं है भैया, लेकिन उसके साथ इसका कॉम्बीनेशन भी तो होना चाहिये। इस आत्म-ज्ञान की ललक भी तो होनी चाहिये, नहीं तो कल के दिन हमारा अज्ञान बढ़ता चला जाएगा। आप यह नहीं सोचना कि आज वर्तमान में बहुत बच्चे ज्ञानवान हैं, बहुत बातें जानते हैं। कितना क्षयोपशम है, कितना बढ़िया है इनका। इस प्रकार के क्षयोपशम की बात नहीं कर रहा हूँ मैं। ऐसा क्षयोपशम तो बहुत मिल जाएगा मुफ्त (फोकट) में। ज्ञान का वो क्षयोपशम जिससे हम रिलेवेन्ट रिएलिटी को जान सकें, जो सारभूत सच्चाई है उसको जान सकें। और सारभूत सच्चाई तो सात तत्व ही हैं। इनको जानने में हमें जो सामर्थ्य प्राप्त होती है उस सामर्थ्य को प्राप्त करने के लिये परिणाम सँभालना चाहिये। 

    और दो कारण और बचे - असादना और उपघात। ज्ञान का अनादर कर देना और ज्ञानी का अनादर कर देना। वाणी से और शरीर से; वचनिका चल रही है। कोई बात अच्छी लग भी रही है, लेकिन उसे कुछ नहीं आता है। ऐसा कह देना। तत्त्व की तो चर्चा ही नहीं करी। ये लो, इत्ते ही में वाणी से या शरीर से, वहाँ मन में ईर्ष्या करी थी। प्रदोष में और यहाँ वाणी और शरीर से असादना कर दी। बाजू वाले से चर्चा में लग गये, अच्छी वचनिका चल रही है लेकिन अपन बाजू वाले से सटे हैं। हाँ उसमें लिखा हुआ है कि धर्म चर्चा करते समय दो लोग आपस में इशारा करें या वाणी से कुछ कहना शुरू कर देवें तो समझना यही तो असादना है ज्ञान की। ये बहुत हो जाती है देख लो आप। और उपघात, सच्चे ज्ञान का नाश ही कर देना, अर्थात् उसे अज्ञान कह देना यह उपघात है। जो धर्म की बात है उसको तो अज्ञान कह देना और जो संसार बढ़ाने वाली बात है, इसकी। यह ज्ञान है ऐसा कह देना। सम्यक् ज्ञान को तो ज्ञान नहीं कहेंगे और मिथ्या ज्ञान को ज्ञान कह रहे हैं। इस तरह हमने सम्यक् ज्ञान की प्रशंसा नहीं की और उसकी आसादना के साथ-साथ उपघात कर दिया, उसका नाश ही कर दिया। पहले तो उसका अनादर किया और बाद में उसको नष्ट कर दिया। अब बताइयेगा कि हमें अपने जीवन में कैसे सच्चा ज्ञान प्राप्त होगा। तो भैया अगर हमें सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है तो उसकी जिम्मेदारी किसी किताब की नहीं है. किसी गरु की नहीं है और ना किसी स्कल और कॉलेज की है। इसकी जिम्मेदारी मेरे अपने भावों की है, मुझे अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिये। मेरे अपने परिणाम मुझे इन सब चीजों से वंचित रखते हैं और यदि मैं अपने परिणाम सँभाल लूँ तो ये सच्चा ज्ञान और सच्चा ज्ञान पाने की सामर्थ्य मेरे भीतर है। मैं उस सामर्थ्य को बढ़ा सकता हूँ| उस सामर्थ्य को ढकने वाले जो भाव हैं, उन सबसे मैं बचूँऐसे कर्म न करूँ जिससे कि मेरा सच्चा ज्ञान ढकने की सामर्थ्य, अनन्त ज्ञान की सामर्थ्य मेरी ढक जावे। मैं अब अपने परिणाम सँभाल करके अपनी उस अनन्त ज्ञान की सामर्थ्य को प्रकट करूँ। ऐसे कर्म करूं जिससे कि मुझे ऐसी सामर्थ्य प्राप्त हो। 

    इसी भावना के साथ बोलो आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज की जय। 
    ००० 
     
  4. Vidyasagar.Guru

    कर्म कैसे करें
    हम सभी एक बात बहुत अच्छी तरह से पिछले दिनों समझ गये हैं कि हम यहाँ निरन्तर नये-नये कार्य करते हैं और अपने किये कर्मों का फल भी चखते हैं और आगे के लिये नये कर्म का संचय भी करते हैं। संसार में कोई भी ऐसा नहीं है, देह को धारण करने वाला जिसे कि कर्म का बन्धन ना हो, चाहे साधु हो या कि एक सामान्य गृहस्थ हो, सभी के जीवन में कर्म बंधन निरन्तर चलता रहता है। हम जब चाहें कि अब हमें कर्म नहीं बाँधना है, तो हमारे चाहने से कर्म का बंधन रुक नहीं सकता। ठीक ऐसे ही जैसे कि एक बार किसी से कर्ज ले लिया, उधार ले लिया तो अब चाहे दिन हो चाहे रात हो, इसका ब्याज निरन्तर बढ़ता ही जायेगा। हम चाहकर के भी उसको रोक नहीं सकते। ठीक ऐसे ही यह कर्म की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। जैसे - बेटा स्कूल से लौटकर आता है, और जल्दी से बस्ता रख और खेलने के लिये दौड़ लगाता है तो माँ पकड़ लेती है, ‘खाना खाकर जाओ फिर बाद में खेलना।' उसको तो खेल की लगी हुई है वो कहता है 'नहीं खाना खाना', तो फिर सुनो 'दूध पीकर जाओ'। जिसको खेल खेलना है उसे कहाँ दूध पीने की फुरसत है। उसको दूध भी नहीं पीना तो फिर कान पकड़ लेती है कि तुम खेलने जाओ मैं मना नहीं करती लेकिन दो में से एक कुछ करना पड़ेगा। या तो खाना खाकर जाओ या कि दूध पीकर जाओ लेकिन बिना उसके तो नहीं जाने दूंगी। 

    कर्म बंध की प्रक्रिया भी ऐसी ही है। करना तो पड़ेगा या तो खाना खाके जाओ या कि दूध पीकर जाओ। कर्म तो बँधेगे या तो शुभ कर्म बँधेगे या कि अशुभ कर्म बंधेगे। दो में से एक तो बाँधना ही पड़ेगा। कर्म ना बँधे यह तो बहुत मुश्किल है। जब तक देह धारण करी है तब तक तो कर्मों के बंधन से मुक्ति इतनी आसान नहीं है पर इतनी च्वाइस हमारी है कि हमें शुभ-बाँधना है कि अशुभ बाँधना है। यह हमारी च्वाइस है और हमें इसका लाभ उठाना चाहिये। 

    जब कर्म बाँधना ही है, हम कुछ ना कुछ कर्म करते हैं, जिससे कि हमारे जैसे परिणाम बनते हैं वैसे नये कर्म हमारे अन्दर संचित होते हैं। जब ये क्रिया निरन्तर चल ही रही है तो फिर अब मेरा अपना कौशल है, मेरी अपनी दक्षता है, मेरी अपनी आर्ट है। मेरी अपनी टेक्नोलॉजी है कि मैं इससे क्या चाहता हूँ। मेरी च्वाइस क्या है। मैं शुभ को चाहता हूँ कि अशुभ को चाहता हूँ। मैं जैसा चाहूँ, वैसा बाँध सकता हूँ। और भैया कर्म बंध की प्रक्रिया को जीतने का यही उपाय है। मैं मनुष्य हूँ तो यदि देव नहीं बन पाता हूँ तो कम से कम ऐसा तो करूँ कि मनुष्य ही रह आऊँ, ऐसा तो न करूँ कि जिससे मैं पशुता पर उतर जाऊँ। ये तो मेरा विवेक है तो मुझे अगर कर्म बाँधने ही हैं तो ऐसे बाँधूं जिससे कि देवत्व को प्राप्त करूँ। ऐसे बाँधूं, कि कम से कम अपने भीतर की मनुष्यता तो बरकरार बनी रहे। ऐसे खोटे कर्म तो नहीं बाँधूं जिससे कि मुझे पशुता की तरफ या नरक की तरफ उतरना पड़े। बस, हमें अब अपने कर्मों को जीतने के लिये प्रक्रिया करनी है। संसार के घात प्रतिघात से बचने का नाम यही है कि संसार के जो घात-प्रतिघात हैं वे मुझे निरन्तर अशुभ में ले जाते हैं। मैं संसार के घात-प्रतिघात से बचके, परोपकार में लग जाऊँ, कर्मों को जीतने का तीसरा उपाय ये हमारे हाथ में है। 
     
    पहला उपाय कल हमने विचार किया था। दो उपायों पर हमने विचार किया था कि बाह्य वातावरण से जितनी जल्दी हो सके सामंजस्य बिठा लेना चाहिये। कम्प्रोमाइज और एडजस्टमेन्ट करके आगे बढ़ जाना चाहिये। कौन पड़े झगड़े में। “मैं सबकी सब बातें चुपचाप मान लेता हूँ, लोग कहते हैं सब बातें चुपचाप मानते जाना कमजोरी है, सो मैं उनकी यह बात भी मान लेता है। क्या करूँ, मैं कमजोर हूँ, मेरे से व्यर्थ लड़ा नहीं जाता।" ये एक बार हमारे जीवन का सूत्र बना लेवें, ऐसी कमजोरी हमें स्वीकार है। कम से कम व्यर्थ के घात-प्रतिघात से तो बच जायेंगे। तो पहला उपाय कर्मों को जीतने का यही था और दूसरा था कि प्रतिक्रिया से बच तो पाता नहीं हैं। प्रतिक्रिया तो करनी ही पडती है। लेकिन मेरी प्रतिक्रिया कम से कम हो और जितनी भी हो वो सब पोजिटिव हो। सकारात्मक हो, रचनात्मक हो, कन्सट्रक्टिव हो। किसी की उससे हानि ना हो। मैं प्रतिक्रिया इस तरह की करूँ और तीसरी कर्मों को जीतने की प्रक्रिया है कि मैं देखू कि मेरे कार्यो की जिम्मेदारी तो मुझ पर है पर उसमें से शुभ को चुनना है कि अशुभ को। तो दिन भर में, मैं ज्यादा से ज्यादा शुभ कर्मों को चुनें। जो मुझे करना है वो शुभ ही करूँ और अशुभ से बचूँ। संसार के घात-प्रतिघात में तो सिर्फ अशुभ की तरफ ही बैठना होता है, उसको जरा अपन समझेंगे कि क्या है संसार का घात और प्रतिघात। अभी पहले यह समझ लें कि मैं अपने कर्मों को कैसे शुभ करूँ और कैसे अशुभ कर्मों से बचूँ। 

    जैसे ही अगर हम अशुभ कर्म से नहीं भी बच पा रहे हैं और यदि हम शुभ कर्म करना शुरू कर देते हैं तो अशुभ कर्मों का दबाव अपने आप कम होने लगता है और शुभ डोमिनेट हो जाता है। अगर मुझे अपने शुभ कर्मों को बढ़ाना है तो फिर मैं जब भी विचार करूँ तो दूसरे के हित का विचार करूँ। ऐसा विचार न करूँ जिससे कि बैर, विरोध, कलह और असंतोष बढे। मैं अगर बोलँ तो ऐसी वाणी बोलँ जिससे कि दसरे का और मेरा अहित ना हो जिससे कि वातावरण में क्षोभ उत्पन्न ना हो। मैं अगर शरीर से कोई क्रिया करूँ या कि जितने भी मुझे साधन मिले हैं, उन सबका ऐसा उपयोग करूँ जिससे कि मेरे आस-पास के परिवेश में और अव्यवस्था ना फैले, मिसमेनेज ना हो; मेरे अपने शरीर से और मेरे अपने उपयोग में आने वाले साधनों से। क्या मैं इस तरह से अपने वर्तमान के कर्मों को एक दिशा दे सकता हूँ ? दे सकता हूँ। अगर ध्यान में बना रहे तो फौरन हम अपने मन, वाणी और शरीर के द्वारा शुभ क्रियाओं को बढ़ावा दें। शुभ क्रियाओं को बढ़ावा देने से अशुभ का दबाव हमारे ऊपर से कम होता चला जाता है। अगर किसी बच्चे की संगति खोटी हो जाती है तो हम क्या उपाय करते हैं? उसे खोटी संगति से बचाने का उपाय नहीं करते, उसको कहीं ना कहीं किसी दूसरी जगह लगा देते हैं। बिगड़ रहा है, ब्याह कर दो। हो सकता है सँभल जावे। क्या मतलब, क्या मतलब हुआ ? अशुभ से बचाव का एक ही उपाय है कि मैं उसको कहीं शुभ में लगा दूँ। मैं उसको कहीं एंगेज कर दूं भैया ! ऐसी ही जुगत अपने भीतर भी करनी पड़ेगी। अपने मन की कुटेव को सुधारने का यही उपाय है वो तो बार-बार वहीं जाता है। 

    आचार्य महाराज ने लिखा है कि इस मन की क्या कहें, इसकी चाल तो श्वान के समान है, कितनी ही बढ़िया-बढ़िया चीजें खिलाओ, लेकिन आखरी में जाकर के नाली का पानी पीता और गन्दगी खाता है। इस मन की कुटेव है यह। इस मन की चाल है। 

    ये हमेशा अशुभ के संस्कार से ग्रसित है, इसलिये अशुभ में जाता है। उपाय इसको बचाने का यही है अब; जंजीर से बाँध के तो किसी को रखा जा सकता है लेकिन मन को तो नहीं जंजीर से बाँध के रखा जा सकता है। तो इसको बाँधने का उपाय सिर्फ यही है कि मैं इसको शभ कार्यों में लगाये रहँ। ये सारे जो भी अपन विभिन्न अवसर आते हैं उन सब में जो धर्मध्यान करने की शुरूआत करते हैं, उसका उद्देश्य क्या था ? अपने कर्मों को जीतने का उद्देश्य ही था कि मैं जितना ज्यादा से ज्यादा शुभ कार्यों में लगा रहूँगा उतना ही मैं अशुभ से बच गया। घंटे भर यहाँ बैठे हैं संसार के प्रपंच से अपने आप बच गये। कहना नहीं पड़ा कि मैं एक घण्टे के लिये संसार छोड़ता हूँ। कह के आये क्या ? कोई नहीं कह के आया होगा, कम्पाउण्ड के भीतर - “मैं तो घण्टे भर प्रवचन सुनने जा रहा हूँ।" मैं प्रवचन सुन रहा हूँ इसका मतलब है कि मेरा संसार का प्रपंच छूट गया है, इसीलिये सबसे अच्छा उपाय है कि अगर जब मुझे कर्म करना ही है तब फिर मैं उसमें से शुभ को चुनूँ और अधिक से अधिक समय अपना शुभ कार्य में लगाऊँ। परोपकार के कार्य में लगाऊँ। “योगः कर्म सुकौशलम् । कर्म की कुशलता ही है योग, ऐसा लिखा हुआ है, वो कर्मों की कुशलता क्या है, यह जरा समझ लें। जैसे भैया किसी की आँख न हो तो क्या उसको देख करके हम अपनी आँख फोड़ लेते हैं क्या ? किसी का हाथ ना हो तो क्या अपना हाथ तोड़ लेते हैं, किसी के पैर ना हो तो क्या अपना पैर तोड़ लेते हैं? ऐसा तो कोई नहीं करता, तो फिर दूसरे को गुस्सा आता है तो हम क्यों गुस्सा करते हैं ? अब आ गया, समझ में, आना बड़ा कठिन है इतना ही है। घात-प्रतिघात से बचने का उपाय यही है कि मैं जरा सा तो विचार करूँ कि जब मैं दूसरे की आँख फूटी देखकर अपनी नहीं फोड़ता हूँ तो दूसरे को गुस्सा करते देखकर के गुस्सा क्यों करता हैं। दूसरे को गाली देता देखकर के मैं भी क्यों गाली देने लगता हूँ ? इतनी छोटी सी चीज, इस अशुभ की प्रवृत्ति से बचने के लिये ऐसा विचार अनिवार्य है कि जैसे मैं दूसरे को कुएँ में गिरते देखकर स्वयं नहीं गिरता हूँ। मैं तो बच जाता हूँ। वरना लोगों को यह लगता है कि अरे, कुछ नहीं रखा इन बातों में, मैं इसलिये कर रहा हूँ कि दुनिया तो कर रही है, कौन अपन ही अकेले कर रहे हैं। तो फिर अपने हाथ से अपना पतन करना है और सबकी तरफ ना देखकर के और अपनी तरफ देखने की प्रक्रिया की कि मैंने दिन भर में क्या कमाया। मैंने मनुष्य होने के लिये पहले कुछ कमाया होगा, सो आज मनुष्य हूँ। आगे की मेरी तैयारी क्या है, या तो पशुता की तरफ जाऊँ या कि नरक में जाऊँ, या कि देवत्व की तरफ ऊँचा उठू। 

    ये अगर हमारे मन में विचार आ जावें तो फिर हम आसानी से परोपकार या कि शुभ कार्यों में अपने मन को लगा सकते हैं। दूसरी चीज, क्या होता है परोपकार करने से और शुभ कार्य करने से। एक बार तो गलती कर ली और फिर उसके बाद में कुछ प्रायश्चित्त इत्यादि करने से होगा क्या? बहुत कुछ होता है। सांसारिक कार्यों में लगा हुआ व्यक्ति अपने पूर्व संचित कर्मों का दुरुपयोग करके आगामी जीवन के लिये और पाप कार्यों को कमाता है और परमार्थ के कार्यों में, परोपकार के कार्यों में लगा हुआ व्यक्ति अपने पूर्व संचित कर्मों को जो शुभ हैं, उनको बढ़ा लेता है और अशुभ कर्मों को घटा लेता है। दोनों ही कर रहे हैं कार्य। आप चाहे सांसारिक कार्य करें या कि पारमार्थिक कार्य करें। सांसारिक कार्य करने वाले को लगता जरूरत है अपन को कि कितना ऐशो-आराम है, सो ठीक है, आगे के लिये कर्मों की स्थिति इतनी प्रबल बँधेगी और इतने समय के लिये बँधेगी कि अभी दिखाई नहीं पड़ेगी। अभी तो जो व्यक्ति बेईमानी कर रहा है, फलता-फूलता नजर आता है, इसके माइने यह नहीं है कि यह बेईमानी का फल है, ये किसी पुरानी ईमानदारी का फल है और होता क्या है, जब हम वर्तमान में बेईमानी करते हैं, अशुभ कर्म करते हैं तो हमारे भीतर अशुभ कर्मों की ड्यूरेशन और पोटेशिलिटी दोनों बढ़ जाती हैं और जितनी ड्यूरेशन होगी उतने समय के बाद वह अपना फल देना शुरू करेगा। इसलिये अभी बाँधे गये अशुभ कर्म तुरन्त दिखाई नहीं पड़ते। बहत देर के बाद आयेंगे सो भैया फलते-फूलते दिखाई देते हैं और कर रहे हैं बेईमानी, और एक आदमी जो कि बिल्कुल ईमानदारी से जीवन जी रहा है वह शुभ कर्मों को बहुत डोमिनेट होकर बाँध रहा है, वे देर से उदय में आयेंगे, अभी शुभ उदय में नहीं आ रहा है, लेकिन जो पड़े हुए अशुभ हैं उनकी उदीरणा होकर के समय से पहले उदय में आकर के खिर रहे हैं सो तकलीफ में दिखाई पड़ रहा है। ईमानदार आदमी जब भी तकलीफ में दिखाई पड़े तो समझना इसने तो अपना हिसाब चुकता करना शुरू कर दिया और बेईमान आदमी फलता-फूलता दिखाई पड़े तो समझ लेना कि संसार बढ़ रहा है। भगवान् रुष्ट हैं कि भोग-विलास की सामग्री फैलाकर के इसको संसार में भटका रहे हैं, और यदि इसकी भोग-विलास की सामग्री छीन ली तो अब इसका संसार अल्प रह गया लगता है। यही प्रक्रिया है।
     
    जब भी हम विचार करें शुभ और अशुभ का और वर्तमान को देखकर के उससे मिलान करें तो ध्यान रखना शुभ का फल शुभ ही है, अशुभ का फल कभी शुभ नहीं हो सकता और कभी शुभ का फल अशुभ भी नहीं हो सकता। ये चीज हमारे मन में हमेशा ध्यान में रहे और हम शुभ की तरफ आगे बढ़ते चले जायें। एक छोटा सा उदाहरण अपन देखेंगे और आज अपनी बात कर्मों को जीतने की इतनी हो जाएगी। कल तो सामान्य से विषय पर अपन चर्चा करेंगे और फिर इसको कन्टीन्यू करेंगे। इस प्रक्रिया को एक दिन का गेप भी होना चाहिये। एक दिन का गेप मतलब कल किसी जनरल विषय पर। सण्डे है कल, अपन सण्डे करेंगे। अपन आज इतनी चीज और समझ लेवें। देखो ! अपन बैठे हैं, समझने के लिये बैठे हैं, मुझे सब कुछ समझ में आ गया हो ऐसा बिल्कुल मत मानना। मुझे भी उतना ही समझ में आया। समझ में जिसको आता है वो जब तक अपने जीवन में उसको नहीं कर लेवे तब तक उसकी वो समझदारी उसके किसी काम की नहीं है। 

    समझ तो बहुत लोगों के पास है अपन तो यह समझने के लिए बैठे हैं कि क्या-क्या और कैसे कर लेवें जिससे अपना काम हो जावे । बाकी पण्डिताई-वण्डिताई तो छोड़ो। विद्वता तो बहुत लोगों के पास है। इसलिये ये मानकर के कि मैं इतनी बातों में से क्या कर पाऊँगा, कितना जीवन में पोसिबल है, बस वो शुरू करता हूँ। आज ही से शुरू करता हूँ फिर अगली बार फिर देखेंगे। अभी इसी जीवन में थोड़े ही मोक्ष होने वाला है। अगले बार करेंगे, फिर मेहनत करेंगे थोड़ी, तब होवेगा। 

    क्या हुआ ? एक भविष्यवाणी हुई कि ये जो राजा का बेटा है, इसको, राज सिंहासन मिलेगा और दूसरा एक मंत्री का बेटा था तो कहते हैं कि इसका भविष्य ऐसा है कि इसको शूली लगेगी। दोनों ने सुना। राजा के बेटे को आ गया अहंकार कि देखा मेरा पुण्य और अब तो मैं राजा बन ही जाऊँगा और जनाब ने अपनी सत्ता और सम्पत्ति का दुरुपयोग शुरू कर दिया। ऐशो-आराम जो कुछ भी हो सकती थी, बुरी आदतें, वो अब शुरू कर दीं। अब तो राजा बनूँगा। भविष्यवाणी हो गई राजा बनूँगा और दूसरे मंत्री के पुत्र ने कहा कि शूली लगेगी। इसका मतलब ये है कि मैं कुछ गलत नहीं करूँगा। सावधानी बरतनी है और वो फूंक-फूंक के कदम रखने लगा और दूसरे जनाब लड़खड़ाके चलने लगे। ठीक, समझ गये आप। इतना तो सब समझते हैं और स्थिति क्या हुई वो दिन आ गया। दोनों ने कहा कि अभी तक तो हमारे जीवन में न इसको गद्दी मिली और न इसको शूली लगी। चल के देखते हैं, आज आखिरी दिन है, पूछते हैं ज्योतिषी महाराज से कि क्या है आपके ऐसे झूठे प्रडिक्सन्स - भविष्यवाणियाँ ऐसी झूठी करते हैं आप। तो चले दोनों और जो राजा का पुत्र था उसको ठोकर लगी और नीचे गिरा तो देखा कि उस पत्थर को हटाने पर वहाँ पर ढेर सारी अशर्फियाँ मिल गयीं तो पॉकेट में रखीं और आगे बढ़े। मंत्री का पुत्र भी पीछे-पीछे जा रहा था। उसको बहुत जोर से एक काँटा लगा। निकाला तो खून निकलने लगा, पट्टी बाँध ली .... पहुँच गया वो भी ज्योतिषी के यहाँ पर। कहा कि आपकी सारी भविष्यवाणी झूठी निकली। न इनको गद्दी मिली और न मुझको शूली हुई। बोले, “सुनो! रास्ते में बताओ क्या-क्या हुआ। “आज आ रहे थे तो हमको दो-चार दस अशर्फियाँ मिलीं और इनको काँटा लग गया।” हो गया काम - तुम्हारे अपने वर्तमान के दुष्कर्मों से मिलती हुई गद्दी थोड़े से सोने के सिक्कों में सीमित होकर रह गयी और इसकी शूली अकेले काँटों में सिमट करके रह गयी।
     ये ध्यान रखना कि जो कुछ भी हम संचित करके लाये हैं हम अपने वर्तमान के शुभ और अशुभ में बहुत सारे चेंजेज करते रहते हैं। इसलिये जब भी कर्म करने का मन हो शुभ करना। शुभ को करने से हमारे अशुभ का दबाव घटता है, शुभ का प्रभाव बढ़ने लगता है और अगर हम संचित करके तो शुभ लाये हैं और वर्तमान में अगर खोटे कर्म करेंगे तो शुभ का प्रभाव घटेगा और अशुभ का बढ़ने लगेगा। जीवन में यह देखने में आता है। अब हमारी कुशलता क्या है ? घात-प्रतिघात से बचने की कुशलता इतनी ही है कि अगर कोई हमारे ऊपर घात करता है तो हम प्रतिघात ना करें या कि स्वघात ना करें। हाँ ! किसी ने मुझे गाली दी तो मैं उसे गाली देता हूँ या मारता हूँ, ये प्रतिघात है और इतना ही नहीं मैं गाली देके अपना मन खट्ठा करता हूँ यह स्वघात है। एकदम अपने प्राण ले लेना लेकिन अपनी जान को सांसत में डालना, अपनी इन्द्रिय और मन को तकलीफ पहुँचाना, अपने मन में संक्लेशित होना, संक्लेश का उपाय करना, ये भी तो अपना ही घात है। दूसरे के संक्लेशित से अपने मन को संक्लेशित कर देना। प्रतिक्रिया तो हम एक बार पोजिटिव कर लेंगे लेकिन कोई हमारे ऊपर घात करे और हम प्रतिघात ना करें और बिल्कुल साइलेंट रह जायें, भीतर कुछ भी न हो ऐसा बहुत मुश्किल है। किसी ने गाली दी और हम प्रसन्न। भारी ऊँची विद्या है ये जिसको आ जाये। बाकी विद्यायें तो सबको आती होगी, ये वाली विद्या जिसको आ जाये, वो जीत गया, वो संसार से पार हो गया, और इसका एक उदाहरण कन्हैयालाल प्रभाकर मिश्रा ने लिखा। 

    ऐसा जीवन में एक सामान्य गृहस्थ के भी संभव हो सकता है क्या? मैं तो ऐसी चीजें पढ़ता रहता हूँ और मुझे लगता है कि हम लोग कितनी बातें जानते हैं, लेकिन एक सामान्य व्यक्ति इस घात-प्रतिघात की प्रक्रिया से कैसे अपने को बचा लेता है। उन्होंने लिखा। उनके अपने जीवन की घटना कि मेरे एक बहुत अच्छे मित्र और इतने पक्के मित्र कि कोई सोच भी नहीं सकता कि दोनों में कभी कोई आपस में कोई तकरार हो सकती है? लेकिन ऐसा हुआ कि मित्र की जीवन साथी नहीं रहीं और मित्र की एक ही बेटी, उसके ब्याह की चर्चा थी। जिम्मेदारी मित्र के नाते मेरी भी थी तो मैंने अपने रिश्तेदार के बेटे से उस बेटी के ब्याह की चर्चा चलाई और मामला कुछ खटाई में पड़ गया और हम दोनों के बीच में कुछ तकरार हो गई। घटना इतनी ही थी। होता है जिन्दगी में इस तरह से बहुत होता है और उन्होंने लिखा कि 4 लोग और जो तैयार ही खड़े थे .....। अगर दो लोगों की दोस्ती हो तो ये ध्यान रखना कि चार लोगों की आँख लगी हुई है। “महिमा मृगी कौन सुक्रत की विषखण खल विद्वाची" महिमा और मृगी दोनों सावधान रहे। जंगल में घूमती हुई हिरणी हमेशा ध्यान रखे कि शिकारी का बाण उसका पीछा कर रहा है और जो सुकृत कर रहा है, जो पुण्य कार्य कर रहा है वो हमेशा ध्यान रखे कि चार खल लोगों की आँखें उसके ऊपर लगी हैं। तो बोले कि वो चार लोग पता नहीं क्या इसी का इंतजार कर रहे थे कि इन दोनों में जरा तकरार तो हो फिर इनकी लड़ाई का मजा इनकी दोस्ती बड़ी छनती है। ..... बोले ..... हमारे मित्र को ऐसा-ऐसा समझा-बुझा दिया कि हमारे मित्र ने हमारे ऊपर - कि हमारी जीवनसाथी की धरोहर ये खा गये, ऐसा दीवानी मुकदमा लगा दिया। मुझे पहले तो थोड़ी गुस्सा आई अपने मित्र पर, कि इतने वर्षों की मित्रता और एक क्षण के अन्दर ये हो गया और फिर उसके बाद हँसी आई कि मैंने तो खाई ही नहीं और ये व्यर्थ ही मेरे ऊपर दोष लगा रहे हैं, देखेंगे, निपटेंगे, जो होगा देखेंगे। पर है तो मेरा मित्र, ये बात अभी भी मन से नहीं गई थी। सामने वाले के मन से चली गई हो तो चली गई हो। और कहते हैं कन्हैया लाल मिश्र कि मैं रास्ते से चला जाता था, आमना-सामना ही नहीं हो रहा था। दूरी धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। वो सामने से आते दिखाई पड़े सो मुझे देख लिया उन्होंने, सो बचकर निकलने लगे। मैं तो बचकर जाने वाला था नहीं। मैं सामने पहुँच गया और कंधे पर हाथ रखा कि अरे मैं तो सोच रहा था कि जब अपन ने दोस्ती निभाई है तब दुश्मनी भी जमकर निभायेंगे। अभी तो तुमने मुकदमे की शुरूआत ही की है अभी से क्यों बचकर भाग रहे हो। हम तो ये सोच रहे थे कि अच्छे जमकर मुकदमा भी लड़ेंगे और मान लो तुम्हें जेल हो गई तो तुम्हारा और तुम्हारी बेटी का, दोस्ती के नाते हम ध्यान रखेंगे और अगर हमें जेल हो गई तो जब हम छूटे तो दोस्ती के नाते सबसे पहले तुम ही मिलो। अब, देखो आप, यह विचारों की श्रेष्ठता देखो। ये घात-प्रतिघात से बचने की प्रक्रिया देखें आप, बहुत सांसारिक प्रक्रिया। कहते हैं कि इतना सुनते ही वे मित्र ..... हाथ पकड़ लिया उनसे कहने लगे, 'घर चलो'। यहाँ नहीं, रास्ते में नहीं। घर ले जाकर के बिठा करके और मेरे मना करते-करते भी और मेरे पैरों पर सिर रखकर के फूट-फूट कर रोये। उस दिन का दिन है कि आज का दिन कहाँ का मुकदमा और कहाँ की दुश्मनी, फिर से ज्यों का त्यों दोनों अब बड़े प्रेम से अपना जीवन जीते हैं। भैया संसार में कर्म अगर करना है तो कर्म कैसे करना है, इसकी कुशलता अगर हमें आ जावे तो हम कर्मों से मुक्त हो सकते हैं। 

    इन अशुभ कर्मों से बचें और जितना बन सके उतना शुभ कार्य, परोपकार के कार्य करें। अगर कोई हमारे प्रति दुर्व्यवहार भी करे, तब भी हमारी सज्जनता है कि हम उसके प्रति सद्भावना और सद्व्यवहार बनाये रखें। तब जीत हमारी है वरना तो यहाँ सब हारे हुए हैं और हमेशा से अपने कर्मों से हारते आये हैं। एक मौका तो अपने जीवन में ऐसा भी लेना चाहिये कि अब, अब हम नहीं हारें। कर्म हमसे हार जावें। हम ऐसे कार्य करें कि अपने किये हुए पुराने कर्मों को हरा दें और अपने आप की जीत हम हासिल कर लें। ऐसी स्वतन्त्रता हमारी है। कर्म करने में व्यक्ति भले ही स्वतंत्र ना हो लेकिन कर्म को कैसे करना है, भले करना है या कि बुरे करना है, इसमें तो हमारी अपनी स्वतंत्रता है। इसी भावना के साथ कि हम कर्मों को जीतने की इस प्रक्रिया को अपने जीवन में जितनी बनेगी उतनी शामिल करेंगे। 

    "बोलिये - आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज की जय।” 
    ००० 
  5. Vidyasagar.Guru
    तभी वहाँ ऊर्ध्वलोक की उच्चतम शाखा पर बैठा एक सम्यक् द्रष्टा स्वयं भोगों में लिप्त होने पर भी एक दृष्टि में ही विश्व की व्यवस्था को भी देख रहा है। कहाँ पर कौन-सा युग चल रहा है और कहाँ अब क्या आयेगा? यह विभाजन भी उसकी प्रज्ञा में है। उसे ज्ञात है कि इस भरतक्षेत्र में अब कर्मभूमि का आरब्ध हुआ है और एक ब्रह्मांश इस भूवलय पर अवतरित हो चुका है। जन्म और जन्म से पहले और जन्म के बाद के सारे कर्त्तव्य मैंने किए। आज वह लक्ष-लक्ष जीवों का उद्धार करने के लिए कटिबद्ध है। राज्याभिषेक हुआ है और राजा के योग्य सभी कर्त्तव्यों का निर्वाह भी। प्रजा को, पुत्रों को, पुत्रियों को उन्होंने पढ़ाया, ज्ञान, विज्ञान, कला कौशल में निपुणता भी दी। सराग अवस्था के योग्य कार्य को कृषि आदि कर्म को सिखाकर अपनी विराट-प्रज्ञा का परिचय दिया। कल्याण के भावों से ओतप्रोत प्रजाजनों के दुःख का निवारण उनकी आजीविका से होता है, इसी विचार से उन्होंने जीवों को दुःख से उबारा, पर इस कायिक दुःख से मुक्त होना कोई सच्चा सुख नहीं। सुख तो समीचीन पथ के ज्ञान और उसके अनुरूप आचरण से प्राप्त होगा। आज यह मुग्ध जनता इस आर्यावर्त में धर्म क्या है? सम्यक् सुख कहाँ है? इन विचारों से भी उन्मुक्त है। जब तक कोई चेता स्वयं प्रबुद्ध हो आचरण नहीं करेगा तब तक इन स्वाभाविक भोले प्राणियों की बुद्धि स्वतः सोचने से दूर रहेगी। कर्मभूमि का आचरण करना तो ये सीख गए पर धर्म का आचरण कब उद्भूत होगा? इन नाभेय महाराज को क्या यही अपना पूर्ण कर्त्तव्य लग रहा है? क्या महाराज ऋषभ यह सोचते हैं कि मैं इस तरह प्रजा का पालनकर उन्हें दुःख मुक्ति का पाठ पढ़ा रहा हूँ। नहीं, यह तो औपचारिक प्रबोधन है। धर्म का सही बोध तो उन्हें स्वयं चरितार्थ करके सिखाना होगा। बीस लाख पूर्व का कुमार काल बीत गया है और त्रेसठ लाख पूर्व का दीर्घकाल इस पृथ्वी का उपभोग करते बीत चला, पर ये प्रभु स्वयं निश्चिन्त हैं।
     
    देख रहा हूँ कि अभी भी ये आनन्दित हैं मदमस्त हाथियों को दुलारने में, चंचल घोड़ों की तीव्रगति में, अपने पार्श्व में बैठी वनिता विलासनाओं में, माण्डलीक राजाओं से अर्चित पद कमलों की पराग में, सम्बोधन की सहज धारा में, स्वराजत्व की एक अपूर्व अस्मिता उनके चेहरे पर खिल रही है। अनवरत सुखों की ऐन्द्रिय लिप्सा में आमूलचूल अवगाहित। अहो! लख रहा हूँ भोगों का सुख कितना उत्कट और कितना अभीप्सित होता है। विषयों के तदाकार परिणमन में विषयी सुधबुध भूल जाता है। अत्यधिक मनोवांछित सुख की सहज प्राप्ति भी सम्यक्-सुख की अवभासना नहीं होने देती। उस अपूर्व सुख की विचार परिणति की लहर भी आज निस्तब्ध है, त्रिज्ञान के चिदार्णव में। प्राक्तन संस्कार की अनिल यहाँ तक पहुँचने से बाधित है। मोह की यह प्रबलता अवर्णनीय है।
     
    हाँ, यह ठीक होगा, विश्व की इन सत्ताओं में क्षणभंगुरता का ज्ञान कराने का यह अच्छा उपाय है। नीलाञ्जना की आयु कुछ ही क्षण शेष है। स्मरण मात्र से प्रभु के चरणों में आगत उस अंगना को राजमहल ले जाया गया। राज दरबार में प्रभु उपस्थित हैं और नृत्य प्रक्रम का प्रारम्भ हुआ। नर्तकी विलीन हो गयी और नव नर्तकी तत्क्षण उसी कला में लीन हो गयी। प्रभु ऋषभ नृत्य देख रहे हैं। पर आज नृत्य को रोकने का कोई इशारा नहीं, बहुत देर हो गयी। नृत्य के अनुभावों के अनुरूप मानसिक-कायिक-वाचनिक व्यापार भी नहीं। कुछ ही देर बाद नर्तन रुक गया, पर प्रभु उसी मुद्रा में मानो कहीं दूर चले गए और पार्थिव व्यामोह से पार वो देख रहे हैं, इस आत्मा के इस संसृति में कर्मकृत अपूर्व नृत्य । बहुत देर हो गयी स्वामिन् ! आपकी निश्चिन्तता निश्चेत सी लगने लगी है और सहसा नयन बन्द हो गए। इन्द्र की तरफ देख प्रभो मुस्कुराये और मन ही मन कहा हे वज्रपाणि! मैं अब पात्रपाणि बनूँगा। नीलाञ्जना के नव रसों के विलोकन से विलक्षण अब नवचेतन रस का पान होगा। आज मेरी निद्रा भंग हुई। विगत की सभी क्रीड़ा देख चुका हूँ।
    ये माता-पिता-भाई-बन्धु-पुत्र-पुत्रियाँ सब अपने-अपने परिणमन में परिणत हैं । यह मेरा व्यामोह जो मैं इन्हें अपना मान आनन्दित होता रहा। हमारे भोग्य, उपभोग्य की सामग्री हो अथवा सागर तक फैली वसुन्धरा हो, मैंने ही तो  इसे अपना मान रखा है। क्या यह चपला लक्ष्मी किसी की इस संसृति में सदा सखी रही है? भोगभूमियों के वे सुख भोगने वाले भोक्ता सब चले गए, यह भोग्य पदार्थ किसके हुए ? अशाश्वत और अविश्वसनीय इस जगत् को मैंने क्या भोगा? कौन-सा आनन्द है जो चिरकाल तक स्थायी रहा। ये महल, उद्यान, वस्त्र, दिव्यभोज, अलंकार सामग्री से कब मुझे संतुष्टि हुई? प्रत्युत प्रतिपल और-और चाह बढ़ती गयी। इन्द्र की सब सम्पदा है तो परायत्त हुई इसलिए यह सुख का कारण नहीं और यदि मेरे सुकृत के विपाक का यह परिणाम है तो भी वह सदा रहने वाली नहीं। पुष्प की गन्ध उड़ रही है यह मोही को नहीं दिखता किन्तु वह पुष्प ही दिखता है और जब निर्गन्ध हो जाता है तो वही उसको दुःख पहुँचाता है, दु:ख की प्रचुरता में मैं डूबा और इतना दीर्घकाल सुखाभास का आभास नहीं। संस्कार या मोहिनी का इस मेदिनी पर अचूक प्रभाव है।
     
    जब ये मात-पितु मृत्यु को प्राप्त होंगे तो मुझे दुःख अवश्य होगा और ये मृत्यु को प्राप्त न हों, यह तो असम्भव है। फिर यह संयोग जो कि वियोग की योनि है, सुख की योनि कैसे हो सकती है? स्वतत्त्व की शरण छोड़कर पर भ्रमणा में शरण की अनुभूति मिथ्या है। वह नीलाञ्जना मेरे सामने-सामने चली गयी। कितना सुन्दर रूप था, कितनी रम्य मुस्कान थी उसकी, सब कुछ विलीन हो गया एक क्षण में । मैं यहाँ उसको एक क्षण भी पकड़ न सका। ऐसी कितनी और-और ललनाओं ने मेरा चित्त अनुरंजित किया पर मैं अपने में देखता हूँ तो कहीं कुछ रखा हुआ नहीं दिखता, जिसे देख मैं स्वयं को सुखी महसूस करूँ सिवाय उन विलासों की स्मृति के और यह स्मृति भी चिरस्थायी नहीं । यदि यह स्मृति भी सुख को देती तो भी उचित था किन्तु इस स्मृति से एक अलग मूर्छा उत्पन्न होती है, एक अलक्ष्य नीरसता मानो कि मैं सब कुछ हार गया और निराश हो स्मृति मात्र के स्वप्नों में जी रहा हूँ। आयु कर्म के इस सत्य खेल से बेखबर प्राणी शरण्य के विवेक से दूर रह बहुमूल्य मनुष्यता का आकलन नहीं कर पाता।
     
    देख चुका हूँ अपने दिव्यज्ञान से कि, यह जीव ही कभी पुत्र होता है तो कभी पत्नी, कभी मित्र तो कभी पिता। मोह की यह लीला अनवरत इस चतुर्गति के मंच पे जीव खेल रहा है, दूसरों को लुभाता है, दूसरे से लोभित होता है। एक-दूसरे के संयोग की अनुकूलता में हर्षित; तो उसी संयोग की प्रतिकूलता में खेद खिन्न हो बैर धारण कर लेता है और भव-भव उसी अग्नि को बुझाने में चले जाते हैं। चारों गति में यह भ्रमणा और भ्रान्ति जारी है।
     
    जीव जैसे कर्म करता है वैसा ही फल स्वयं अकेला भोगता है। अकेला ही पाप करता है, तो अकेला ही नरक में जाता है, तिर्यंच बनता है। अकेला ही पुण्य करता है, तो अकेला ही भोगता है। अकेला ही चक्री बनता है, अकेला ही कामदेव, अकेला ही नारायण और अकेला ही तीर्थङ्कर । अकेला ही स्वर्गीय सुख भोगता है तो स्वयं ही मोक्ष सुख भी वरता है। जमाने को अपनाना चाहता है, साथ-साथ मरने की कसमें खाता है, पर कौन किसका साथ देता है? अपने-अपने परिणामों से सब पृथक्-पृथक् आयु बाँधते हैं और उसका उपभोग करते हैं।
     
    साक्षात् पृथक्-पृथक् दिखने वाले इस परिवार में, साक्षात् विपरीत स्वभाव वाली इस देह में एकत्व का भान और तदनुरूप परिणमन में हर्षविषाद करता यह जीव जागता हुआ भी सोता रहता है। सम्यग्ज्ञानी भी इस जागृति से इतनी दूर जा सकता है तो मोह के निबिड़ अन्धकार में डूबे इन प्राणियों को कुछ नहीं दिख रहा हो, इसमें उन बेचारों का क्या अपराध? और कच्चे दुर्गन्धित गीले घड़े में बैठा यह आत्मा भी क्षण-क्षण बाहर निकल रहा है, पर उसका अवभासन नहीं, प्रत्युत काया को अपनी मान सुखदुःख को महसूस करता है। क्षण-क्षण क्षरित इस काया में अक्षय सुख की अवमानना, पुष्ट और बलिष्ठ बनाकर सुखी बनने की धारणा निश्चित ही अज्ञान की बलिहारी है। अपनी देह में अनुराग छोड़ परकीय देह को भी अपनी अतृप्त क्षुधा के आहरण में लगा लेता है। चर्म मात्र मक्खी के पंख की पतली सी परत से ढकी अत्यन्त बीभत्सता और अपवित्र सामग्री की एकत्रता को अपनी मान मदमस्त हस्ती-सा अविवेक कृत्य करता है और हर्षित होता है। कभी भी मन-वचन-काय के स्पंदन कहूँ या फंदन कहूँ जिनमें बंधा जीव का एक-एक प्रदेश इस उलझन से उबर नहीं पाया और मोह कषाय तथा क्रियाओं की विभिन्नता से पुण्य-पाप के चक्र में झूलता रहता है। इन कर्मास्रव  को जानकर, मैं शीघ्र इनसे बचने का प्रयास करूँ तभी यह मनोभावन कार्यकारी है अन्यथा चिंतन मनन मात्र से क्या? जब तक समीचीन ज्ञान नहीं, जब तक अणुव्रत और महाव्रतों का पालन नहीं तब तक संवर कहाँ? इस संसार के कारणों से मुक्ति कहाँ ? गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय जिसमें हों, ऐसे चारित्र को धारण किए बिना इस संसृति में दुःखों का अभाव नहीं और यह तब तक सम्भव नहीं जब तक विषयों से विरक्ति न हो। जब तक इस परिकर के बन्धन से ही मुक्त नहीं तो अन्तस् के सुदृढ़ बन्धन से मुक्ति का भाव क्या करेगा?
     
    इस दुर्धर चारित्र के अनुष्ठान बिना कर्ममल्ल हार नहीं सकता। अनन्तकाल से इस जीव पर विजेता बना, यह कर्म-शत्रु मन और इन्द्रियजय के बिना जर्जरित हो धूलिमात्र कैसे बनेगा? समय पाकर तो अपना बल दिखा यह चला जाता है, पर अपनी सेना को छोड़ जाता है और उसी से जूझता यह जीव सर्वहारा-सा खड़ा रहता है। अब मन की हर बात मानने से दूर रहकर इस शरीर को भी निस्पन्द बना स्वरूप में लीन होकर इस कर्म को जीतूंगा।
    इधर यह रज्जू पर्यन्त अपनी कटि को फैलाये और उस पर दोनों हाथ रखकर जिसने ब्रह्मलोक को छू लिया। चौदह राजू की दीर्घता को लिए यह लोक राक्षस सा अपने में अनन्तानन्त जीव जन्तुओं को डुबोये सदा से अपनी विजय पर हँस रहा है। उस विजय की अट्टहास से इतना झाग, इतनी वायु और इतना जल उसके मुँह से गिरा कि वह योजनों मोटे वातवलयों का रूप धारण कर गया।
     
    जिसने अपने दोनों पैरों को फैलाकर स्वयंभूरमण समुद्र को छू लिया। जिसके दोनों पैरों के बीच जीव इतने संतप्त हैं और दुःखी है कि उसका कोई उपमान नहीं। एक पैर से दूसरे पैर तक फैले जाल सप्त पृथ्वियों का रूप ले चुके हैं। जिसके चारों ओर कज्जल लेप की निगोद आत्मायें उसकी गोद में से परित्राण चाहती हैं, पर विफल हैं। ऐसे इस राक्षस से अनिर्लिप्त और उसके मस्तक पर विराजमान वे आत्मायें धन्य हैं, जहाँ इस राक्षस की दुर्गन्ध का ग्रहण नहीं।
     
    उस भीमकाय राक्षस की पदचाप में दबा कदाचित् कोई आत्मा बाहर निकलता है तो कुछ श्वास बढ़ा पाता है। उसके पदों के दबाव में इतनी घुटन कि वहाँ वह एक श्वास में अठारह बार मर जाता और अठारह बार जीवन पाता था। अनन्त जीवों का पिण्ड रूप आहार और क्रिया से छुटकारा मिलता है, तो पृथ्वी आदि काया को अपनाता है। फिर वनस्पति में कुछ जीवन जीकर, त्रसत्व को पाता है। यहाँ कुछ हलन-चलन आती है, पहले स्पर्श मात्र से जीवत्व का भान हो कर्मफल भोगता रहता है। शनैः शनैः यह जीव रसत्व की अनुभूति, सूंघने की शक्ति और इस जगत् को देखने की योग्यता भी पाता है और शब्द या ध्वनि की झंकार सुनकर चौंक उठता है, पर मन बिना हिताहित विवेक से विकल ही रहता है । कदाचित् मन मिला तो अत्यन्त रुद्र कार्य करने वाला तिर्यंच हुआ और तीव्र अशुभ लेश्याओं से नरकवास को आवास बनाता है। तीव्र दुःखों से पीड़ित एक-एक अणु जीव का जैसे तैसे आयु पूर्ण कर छुटकारा पाता है तो कभी दुर्लभता से मनुष्य जन्म पाता है। पर मिथ्यात्व और तीव्र कषाय से मुक्ति कहाँ? कदाचित् उत्तम गोत्र पाता है, कुल पाता है पर धन-वैभव से हीन रहता है। कदाचित् वो भी मिल जाये तो पूर्ण बलिष्ठ इन्द्रियाँ नहीं पाता। कभी इन्द्रिय पूर्ण भी हों तो अनेक रोगों से युक्त शरीर मिलता है। कदाचित् थोड़ा जीवन निरोग रहकर हर्ष से बिताता है तो अचानक रोगों की आक्रामकता से अत्यन्त दु:खी होता है। दाद-खाज, रोग रहित शरीर है पर आयु की अल्पता का दुःख, आयु पूर्ण मिले तो सदाचार के साथ जीवन बिताना अतीव दुष्कर है। कदाचित् व्यसन से रहित भी हो जाय पर परम गुरु का योग नहीं । दैवयोग से वह भी प्राप्त हो तो उनकी संगति का क्षण कहाँ? उनकी वाणी सुनने का लाभ महाभागी को ही है। उससे भी कठिन है उनकी प्रसन्न दृष्टि, कर कमलों की करुण छाया, उससे भी दुर्लभतर है, उनका आज्ञा देना, बहुत कठिन है, फिर उस आज्ञा का प्रसन्नता से पालन होना। समझो जगत् में सबसे बड़ा खजाना मिल गया, यदि सद्गुरु की देशना में डूबकर साम्य ग्रहण हो। सम्यग्बोधि का लाभ हो। उनके इशारे से चारित्र का ग्रहण हो संसार की विपरीत परिस्थितियों में भी उस चारित्र का आजन्म उत्साह से अनुपालन अति दुर्लभ है। कषायों से रहित सदा शुक्ललेश्या से समत्व की आराधना नितान्त कठिन है और निकट भवितव्यता हो, तब यह सब अनाकांक्ष वृत्ति से हो। 
    इसीलिए यह मनुज जन्म देवों महेन्द्रों के लिए भी आकांक्ष्य है। फिर भी दुर्लभतम इन अनेक संयोगों को पाकर इन विषयभोगों की लिप्सा में जीवन बिता देना मानो राख के लिए रत्नों की भस्म बनाना है या धागे के लिए हार को तोड़ना है। इस मनुजत्व की अन्तिम दुरन्त अलब्धता है महानिर्वाण।।
    __ वह निर्वाण कुछ और नहीं स्वकीय धर्म है, जो वस्तु का निरापेक्ष स्वभाव है। आत्मा की स्वतन्त्र उपलब्धि है। पर वह धर्म बहुत बाद में प्राप्त होता है। पहले क्षमा आदि दशधर्म को आत्मसात् करना होता है और वह तभी सम्भव है, जब समीचीन दृष्टि, ज्ञान और चारित्र की लीनता हो, पर यह तभी सुलभ है, जब दयायुत अहिंसा का भाव स्व-पर दोनों के लिए हो। इन अनेक परम्पराओं से गुजरना होगा, सभी से अपने आत्मा को श्रृंगारित करना होगा। सभी धर्म हैं, एक में विलीन होकर ही दूसरे की उपलब्धि होती है। अब यह अनुचिन्तन मेरा अनुवर्तन करे।
     
    इसलिए मैं...................और इधर सुदूर तक यह मनोभाव व्याप्त होता हुआ लोकान्त तक पहुँच गया। उन अंधियारी गलियों में भी जहाँ अन्य जीव तो क्या देव भी उसे पार करने में असमर्थ होते हैं।
     
    अरुणवरद्वीप के चारों ओर योजनों तक प्रसरित उन तमस्काय मार्गों से इस आर्यद्वीप में हंसों की धवलता से रंगित वे अनेक देवगण आ गए, जिन्हें देवों में पूजनीयता प्राप्त है, जो इस भव के बाद मुक्ति वरण करेंगे। जो देवर्षि कहे जाते हैं। निरन्तर बारह भावनाओं में रत रहते हैं और जो उन भावनाओं को भाकर वन गमन को तैयार होते हैं, ऐसे महानिष्क्रमणशीलों की प्रशंसा कर गद्गद होते हैं। श्रुत पारगामी हैं, विषयों से विरक्त हैं। ललनाओं के ललित अवलोकन भी जिनके दृष्टि पथ में क्या अन्तर्मन में भी नहीं आते। लौकान्तिक देवों की यह विश्रुति सभी देवगण जानते हैं। वैराग्य की इस अनुशंसा में किसी ने कहा भगवन्! आप इस वसुधा को अब धर्मामृत से सिंचित करें। कर्म करने का उपदेश तो आप दे चुके हैं तो किसी ने कहा-आदिम पुरुष! आपका यह विचार अनन्त जीवों के उद्धार का प्रबल सेतु बनेगा, जिस पर आरूढ़ हो भव्य जीव सम्यक् सुख प्राप्त कर सकेंगे। हे प्रजापति! इन दुरन्त दारुण भोगों से निस्तरण पाना बहुत कष्टप्रद है। मोह और काम की महावासनाओं से यह जगत् जल रहा है, इसे आत्मिक बोध से शीतल करो। आप सम्यक् ज्ञाता हैं, आपका बल अजेय है। हे महाबल! आप मनोहर अंग के धारी हैं। ओ! ललिताङ्ग! वज्रसम दुर्जेयजंघा वाले आप वज्रजंघ हैं। आप मही पर महापूज्य हैं। हे आर्य! आप दिव्य श्री को धारण करने वाले हैं। हे श्रीधर! आपकी विधि ही उत्तम है। हे सुविधि! आप अब अच्युत इन्द्र अर्थात् अविनाशी नाथ हैं । हे अच्युतेन्द्र! आप वज्रसम अभेद नाभि युत हैं । हे वज्रनाभि! आपसे ही इस विश्व को सर्व प्रयोजन की सिद्धि होगी। हे सर्वार्थसिद्ध! आपकी यह पार्थिव देह चरम है, अब तक आपने इस धरा पर अवतरित हो इस वसुधा को पूत बना दिया। हे दशावतार चरम तीर्थ! आपकी यह दशा इस सृष्टि के निर्माण के लिए अलौकिक अवतरण हैं। आपके रूप अनेक हैं, आप संसार खार अपार-पार-तार-अवतार-द शा व ता र ............हैं।
     
    इन्द्र ने कम्पित आसन की सम्भावना से महानिष्क्रमण की अतुलबेला को जाना। सर्व देव चले स्वकीय विमान यानों पे अविलम्ब आरूढ़ हो। सारा नगर आकीर्ण हो गया देव संकुलता से। तभी महाराज ऋषभ ने राजभार को पुत्र भरत को सौंपा और बाहुबली को युवराज और विभक्त महीखण्ड पोदनपुर का अधिपति । कच्छ, महाकच्छ राजाओं को भी राज्य विभक्त कर दिया और अन्य, प्रधान मांडलिकों को भी। इधर देव-समाज तप कल्याणक मनाने आया तो इधर महामहिम राजगण भरत का राज्यपट्ट देखने आये। पिता ने विभूति का सर्वदत्ति से त्याग किया और पुत्र ने उसे स्वीकारा । लक्ष्मी ने देखा कि अब तप लक्ष्मी महाराज ऋषभ को प्रिय हो गयी इसलिए यहाँ अब अपना कोई कार्य नहीं इसलिए सौत से ईर्ष्या कर स्वाभाविक स्त्री स्वभाव का परिचय दे, भरतराज की चेरी बन गयी। प्रजागण परेशान हैं, सोच-सोच कर कि यह हो क्या रहा है? लगता है अपने स्वामी कोई नया कार्य करने जा रहे हैं, इसीलिए ये देवता गण फिर से अयोध्या नगरी में आये हैं । पर सुन रहा हूँ अब ये राजभवन में नहीं रहेंगे वन में जायेंगे। पता नहीं कुछ दिन वहाँ पर रहकर फिर आयेंगे या नहीं। अपने पुत्र को इस भरतखण्ड का राजा बनाकर भरत को भरत का भारत बना दिया यह जनश्रुति दिग्दिगन्त तक फैल गयी है। महाराज ऋषभ के सभी कार्य अचिन्त्य होते हैं । शक्र भी इनके विचारों को जानने में अक्षम हैं। हम लोग तो अपने स्वामी को छोड़ेंगे नहीं, उन्हीं का अनुसरण करेंगे, वो वन में जायेंगे तो हम भी चलेंगे। नहीं, नहीं वो गए तो फिर लौटकर नहीं आयेंगे और इस राज परिवार के कार्य भी नहीं मिलेंगे, इसीलिए पुत्र को राज्य देकर जा रहे हैं। इधर भरत स्वर्ण, गो, गज आदि प्रजाओं को बाँट रहे हैं, तो उधर ऋषभदेव सभी कुछ छोड़ चलने वाले हैं। भरत राजा के लिए सिंहासन तैयार किया गया है तो इधर ऋषभ राजा के लिए यह पालकी बनी है, देव शिल्पियों के द्वारा, क्या अनोखा वातावरण है, कहीं घूम-घूम कर कोई खुशी का इजहार कर रहा है तो कहीं कोई दुःखी भी है कि अब महाराज नाभेय हमें छोड़ कर जा रहे हैं।
     
     अरे! देखो-देखो महाराज गृह से बाहर आये हैं । सभी को सम्बोधित कर रहे हैं, माता मरुदेवी का करुण रुदन देखो। इधर यह सौभाग्यवती मन ही मन रो-रो कर दु:ख के घूंट पी रही है साथ ही सुनन्दा भी ऐसे कँप रही है, मानो कोई वज्रपात की आशंका है। माँ पूछ रहीं है ऋषभ! मेरे लाल! क्या हुआ तुझे अचानक नृत्य देखने के बाद तुझे क्या हो गया? पुत्र! तुम मेरी कोख के एकमात्र पूत थे, तुम्हीं से यह जीवन सारभूत लगता था। तुम्हें देखकर ये सारी वनितायें मुझे ऐश्वर्यवान् कहती थीं। हे वत्स! मत जाओ रुक जाओ, बताओ कहाँ जा रहे हो? कब आओगे। इन बंधुओं को कौन संबल देगा? क्या माँ की तरफ देखोगे भी नहीं एक बार पीछे मुड़ के तो देखो मेरी छाती फटी जा रही है। ऋषभ! तुम इतने कठोर कैसे हो गए? इस तमाम भीड़ को चीरते हुए प्रांगण से बाहर निकल गए कि इन्द्र ने स्वामी को हाथ का इशारा दिया और वे पालकी पे सवार हो गए। सुदर्शन पालकी की दर्शनीयता सन्तोष नहीं देती, देखतेदेखते जी नहीं भरा कि प्रभु के बैठते ही ये राजा लोग सात पैंड तक ले गए, फिर विद्याधर लोग सात पैंड तक ले गए। पश्चात् वैमानिक और भवनत्रिक देव अपने कन्धों पर उस पालकी को आकाश में ले चले। इन्द्र ने भी स्वयं पालकी को ढो कर अपना देवत्व सफल किया। हजारों राजागण, क्षत्रियजन, प्रजाजन, विद्याधर साथ चल रहे हैं। देवांगनाओं के विलसित नृत्य, तपकल्याणक के मंगल पाठ, बन्दीजनों के द्वारा उच्चस्वर में जय-जयकार, नगाड़ों, कलहों, पाटलों के कर्ण भेदी निनादों से सारी दिशायें बहरी हो चली। ऐसा लग रहा है मानो आज सारा भूमण्डल एक दिशा में गतिमान है और दिशा प्रदाता का अनुगमन कर रहा है। महारानियों ने अपनी पीड़ा को अमंगल के भय से पी लिया। भरत आदि सौ भ्रातगण बाहुबली के साथ मौन हो चल रहे हैं मानो उनको सब कुछ मालूम हो कि यह क्या हो रहा है ? पुत्रियाँ माँ को समझा रही हैं। रास्ता नहीं दिखता पर स्वतः रास्ता बन जाता है। महाराज नाभिराज स्वयं रानी मरु के साथ पीछे-पीछे चले जा रहे हैं, यशस्वती और सुनन्दा को छोड़ सभी अन्तःपुर की रानियाँ आगे जाने से रोकी गयीं और इसी कोलाहल को सहज देखते हुए वे शीघ्र ही वन में पहुँच गए।
     
    सिद्धार्थक वन में बासन्ती छायी है। वन की मधुर-मृदु-तरल वायु ने प्रभु का स्वागत किया। पहले से ही रखी एक शिला पर देव ऋषभ आसीन हुए। चन्द्रमणि से निर्मित उस शिला के उद्योत में विशुद्धि का ब्रह्मा आकर स्वमेव हर्षित हो गया। जय-जय की आवाज और पुष्पों की अनवरत वृष्टि मंगलगानों का अपूर्व सुखद वातावरण धीरे-धीरे शान्त हुआ। स्नेह बन्धन तो टूट चुके थे, फिर भी उस शिला पर बैठकर प्रभु ने सबको एक-पलक से निहारा और मौन प्रीति को चहुँ ओर बिखेर दिया। सन्तुष्ट पर, असहमत यह लोक निस्तब्ध था, देखने को इस अवतार की प्रतिक्रिया कि-तड़-तड़ टूट गया बाजूबन्द, विशाल किरीट पद रज में गिरा, वक्षःस्थल का हार गिरते-गिरते सारे उद्यान में मोतियों और मणियों से लिप गया। नीलाभ श्वेत वस्त्र अन्दर की विरक्तता से डरकर उड़ने लगा। जन-जन-परिजन और शक्रराज ने उन स्मृतियों को अपने करण्डक में संभाला।
     
    सिद्धों की साक्षी में अपने आत्मा को साक्षी बना देवों की समक्षता में विश्व के प्रति पदार्थ को अभोग्य समझ छोड़ दिया। आज से मेरा आत्मा ही मेरा भोग है, मैं मात्र इसका भोक्ता और यह ही अवशेष है उपभोग्य के योग्य। आज से किसी भी चेतन-अचेतन तत्त्व का बन्धक नहीं, मैं निर्बन्ध हुआ और पर से मैं अबाधित। सर्व चराचर जगत् के प्रति मनसा वाचा कर्मणा मैं किंचित् भी बाधा का कारण न बनूँगा। सामायिक ही परम आचरण है, तब तक जब तक कि शिवांगना से लिप्त न हो जाऊँ।
     
    चैत्रमास की नवमी को उत्तराषाढ़ नक्षत्र के शुभ योग में यह विचारते हुए वह जातरूप इस कर्मयुग के आदि में प्रथम प्रकट होकर, बासन्ती के रोमरोम में एकाकार होने को उद्यत हुआ। अरुणाचल की उदित दिशा में मुख करके विराजित हैं और दोनों करों से ललाट तक लहराते कुन्तल केशों को एक साथ पञ्चमुष्टि से उखाड़ दिया मानों संसृति की वल्लरियाँ अब कभी अंकुरित नहीं होगी। ब्रह्मरन्ध्र के तेज से स्फुरित हो, आविर्भूत हुआ अपर मार्तण्ड। वे केश समेट लिए माँ ने अपने आंचल में । इन्द्र ने अपने पिटारे में और क्षीरसमुद्र में अवगाहित कर पवित्र कर दिया उनके अस्तित्व को। महाश्रमण, महाचेता, प्रथम तीर्थकर्ता आदिम जात-रूप, नैर्ग्रन्थ्य की पराकाष्ठा, निरहंकारता की असीम सीमा बन व्याप्त हो गयी। वह महाकाय पूर्ण रूप से काय के उत्सर्ग से स्व में विलीन हो गया। आज मैं पृथ्वी पर हूँ या नहीं, मैंने भूमि का ऋण मुक्त किया और अणु-अणु की सत्ता का आदर किया ऐसा पहली बार अबोझ महसूस हुआ। आज मार्दव धर्म पूर्ण प्रकट हुआ इससे पहले यह आत्मिक काषायिक भार रहितपना अनुभूत नहीं हुआ और कायोत्सर्ग में अवगाहित होता हुआ मात्र स्वानुभूति और स्वप्रकाश परिलक्षित हो रहा है। सूर्य भी अन्तिम रश्मि को ललाट पर न्यौछावर कर अस्तंगत हुआ और समस्त परिकर स्वकीय धाम को प्रस्थान किया।
     
    पर यहाँ पट प्रति पट आत्म अन्धकार के टूटते जा रहे हैं। न जाने कहाँ से इस देह बल को उत्सर्जित करने पर अद्भुत आत्मबल प्रकट होने लगा। जैसे रात्रि में औषधियाँ वन में स्वयं प्रदीप्त होने लगती हैं, वैसे ही अवधिज्ञान की सर्वोत्कृष्ट और मनःपर्ययज्ञान की विपुलमतिता सहज प्रकट हो गयी। वह शक्ति रश्मियाँ चहुँ ओर बिखर गयी कि किसी को शिरः, नासिका, अक्षि, कर्ण रोग हों और वह उस काया के इर्द गिर्द भी योजन दूर हो तो उसे सर्व शान्ति की प्राप्ति हो जाये। जिन्होंने परकीय मनःप्रणाली को जानने की किंचित् चेष्टा नहीं की इसलिए मनःपर्ययज्ञान की उत्कृष्ट लब्धि को पाया। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान सम्बन्धी सकल शक्तियाँ परिस्फुटित हुईं।

     
    फलस्वरूप कोई भी इस आभा से अपने हृदय, श्वासादि रोग को विनष्ट कर विवेक, पाण्डित्व, प्रतिवादित्व आदि उपलब्ध कर सकता है। अष्टांग महानिमित्त के ज्ञाता आप आपो-आप हुए। विक्रियाद्धिर् , चारणद्धिर् प्रज्ञाश्रमणत्व, आकाशगामित्व ऋद्धियाँ बलवती हुई। पर इन सबका कोई प्रयोग नहीं, यही तो रहस्य है कि जब मन, वचन, काय से कुछ नहीं ग्रहण करने का संकल्प लिया है तो सब कुछ स्वतः चरणों में आ गिरता है। सारी रात देवताओं ने उत्सव मनाए और शक्तियों ने प्रभु को अपना निलय। आशीविर्ष, दृष्टिविष ऋद्धि उपलब्ध हुई पर रोष-तोष से मुक्त जिनेश को उनसे क्या प्रयोजन? फलतः उन चरणों में द्वेषी-विद्वेष मुक्त होगा और कोई भी स्थावरजंगमकृत विष प्रयोग अमृत बन संतृप्त होगा। अत्युग्र तप करने पर भी संक्लेश का अभाव, सदा भासुर दीप्त देह की दीप्तऋद्धि परकीय वचनों को और चक्रवर्ती के कटक को भी स्तंभित करने की शक्ति सहज प्राप्य है । रस, रुधिर आदि धातुएँ तप्त हो शक्ति बन गयीं। तप्ततप, महातप की शक्तियों से अग्नि और जल का स्तंभन फलित है। घोर तप, घोर गुण, घोर पराक्रम, घोर-ब्रह्मचर्य की शक्तियाँ विषरोग, भय, बलिनाश, भूतप्रेत भय विनाश करने में समर्थ हुईं। सच ही तो है जो धर्म का पालन करता है, धर्म उसका पालन-रक्षण करता है। यद्यपि प्रभु की देह में रोग, भय आदि विकृतियाँ सम्भव नहीं, पर विश्व कल्याण की भावनाओं का फल कुछ विचित्र ही है। सर्वौषधि, श्वेलौषधि, जल्लौषधि, आमौषधि, विष्टौषधि, ऋद्धियाँ ऐसी सुशोभित हुई मानों देह कोई औषधि का कल्पवृक्ष ही हो, जिनके स्मरण से मनुष्य, देवकृत उपसर्गों का, अकाल मृत्यु का, जन्मान्तरों के विद्वेष का, अपस्मार प्रलापन का और गजमारि रोगों और बाधाओं का विनाश क्रमशः होता है। स्वकल्याण से ही पर कल्याण संभव है, यह आप मौन रहकर कह रहे थे। मनोबल, वचनबल, कायबल ऋद्धियाँ, गोमारी, अजमारी, महिषमारी दूर करने को समर्थ हुईं। पूर्व भव में किए गए रस परित्याग तप की अनाकांक्षा के फलस्वरूप, क्षीरस्रावी, सर्पिषस्रावी, मधुरस्रावी, अमृतस्रावी ऋद्धियाँ प्रकट हो, अठारह प्रकार के कुष्ठ रोग, सभी प्रकार के ज्वर, सकल उपसर्ग और सर्वव्याधियों के विनाशन से परोपकार की उत्कृष्टता से द्रवित हो गयीं। क्षेत्रज अक्षीणऋद्धि महानस और आलय के भेद से सदाकाल जीवों को अभय देने में तत्पर हुई। नितप्रतिपल वर्द्धमान चारित्र, भय को चीरता हुआ आपकी निषद्या को सिद्धायतन बनाकर आगामी जीवों को धन-धान्य समृद्धि से परिपूर्ण करेगा तभी तो आगत नमि, विनमि ने प्रभु के चरणों में मनोवांछित फल प्राप्त कर लिया और भगवति महति महावीरत्व की जय-जय निनादों से इन्द्र स्तुति कर प्रणिपात हो गया। महाश्रमण समाधि सुख में लीन....लीन विलीन हो गया।
     
    एक मात्र केवलज्ञान को छोड़कर सब कुछ लोट-पोट हो रहा है, स्वयं में स्वयमेव ही। यह विश्व आज क्यों इस ज्ञान में लुढ़क गया? मैं तो अनाकांक्षी हूँ इन सबका। भेद भी नहीं किया मैंने कि क्या हेय है? क्या उपादेय है? मात्र जो है सो है। अस्ति को अस्ति रूप में, नास्ति को नास्ति रूप में देख रहा हूँ। अस्ति कभी नास्ति नहीं हो सकता, नास्ति कभी अस्ति नहीं। घृणा और राग से परे प्रत्येक को लखना ही वीतरागता है, सो किसी द्रव्य को ज्ञेय बनाना भी रुचता नहीं, मात्र आत्मा ही ज्ञाता है, वही ज्ञायक है, वही ज्ञेय है, वही ध्येय उसी की परिणतियाँ ध्यान है, वही ध्याता है, सब कुछ स्व में स्व के लिए, फिर भी प्रतिबिम्बत हो रहे हैं। मुकुरन्दवत् निर्मलचिति में सकल चराचर। स्वभाव में रहना ही समभाव है।
     
    पर इधर ये कोई चार हजार संख्यक पुरुष भी रूपायित हो गए मेरे बाह्य रूप में। भक्ति से आपूरित हैं, पर मुक्ति से अनजाने । स्वयं नाथ हैं, स्वयं अपने स्वामी हैं पर, मुझे स्वामी मान अज्ञान से खड़े हैं और व्याकुलित हैं। उच्च वंशोत्पन्न कुलीन राजाओं को भी अन्तर्जगत् की विराटता का भान नहीं। ये कच्छ-महाकच्छ भी दीक्षित हुए हैं। दीक्षित होकर फिर किसके लिए प्रतीक्षित हैं ये ? जो इच्छाओं को तिलाञ्जलि दे निष्काम हुआ वह प्रकाम पूर्ण हुआ। मेरे साथ ये भी क्षुत् तृषित हैं, पर अधीर होते जा रहे हैं। मैं तो संकल्पित हूँ वर्षार्ध से पूर्व न हिलने को। मन इनको प्रबोधन देने के लिए करुण रस में आप्लावित हो रहा है, पर यह करुणा अभी असामयिक है। अब सम्बोधन के स्वर मुखरित नहीं होंगे। स्वयं पूर्ण हुए बिना किसको ज्ञान और क्यों ? पर कल्याण स्वयं पूर्ण होने से सहज है। करुणा का अर्थ स्वयं दुःखी होना नहीं, न ही दूसरे के दुःखों को संभालना। करुणा तो आत्म स्वभाव है। निष्काम स्वभाव में लीन होना यथार्थ कारुण्य है, अन्य सब तो महामोह की भ्रान्ति है। करुणा, दया, अनुकम्पा जैसे गंभीर शब्दों के बहाने अपने राग का पोषण मिथ्या है।
     
    देख रहा हूँ दिन-महीने ऋतु पर ऋतु गुजर गयीं और ये उन्मग्न होकर मुझे तरह-तरह की उलाहना दे रहे हैं । स्वभाव से अतिमृदु, ऋजु हैं, असहिष्णु हैं। स्नेह, भय और मोह से दीक्षित हुए हैं, इसीलिए भाव शून्य हैं।
     
    किंचित् विकल्प के साथ देव पुनः अन्तश्चेतना में गहरे उतरते चले गए और सह दीक्षितों में से कितने ही धैर्य छोड़कर प्रभु की धीरता, निसंगता की चर्चा करने लगे। कितने ही स्थान छोड़ पुनः गृह जाने लगे, कितने ही स्वामी भक्ति से उनके निकट आ रहने लगे, कितने ही राजा भरत के डर से नहीं गए तो कितने ही राजर्षि ऋषभ के भय से नहीं गए। प्रार्थना और स्तुति करते-करते जब वे थक गए और प्रभु योग से चलायमान नहीं हुए तो वे लोग हाथों से फल और तालाब पर पानी पीने लगे। उन्हें पता नहीं कि यह निर्ग्रन्थ रूप कितना  अनमोल और पवित्र है। देव भी जिसकी रक्षा करते हैं, ऐसे इस रूप की रक्षा करना ही आत्मधर्म है। अनाचरण की वृत्ति देख उस उद्यान में निवासित वन देवताओं ने ध्वनित किया-अरे अनार्यो! यह दिगम्बर रूप जब तीर्थङ्करों, चक्रवर्ती, बलदेवों जैसी पुण्य आत्माओं द्वारा भी धारण करने योग्य है, तो तुम लोग इस भेष में कातर कार्य मत करो। इस रूप में अनादत्त मृत्तिका व जल का ग्रहण भी महापाप है। यदि शूरता नहीं तो पुरातन भेष को अपनाओ पर, इस असि मार्ग पर कष्ट से भय नहीं करो। तभी कितने ही लोग वल्कल की लंगोट पहन लिए, कितने ही भस्म लपेट जटाधारी हो गए, कितने ही एकदण्डी और त्रिदण्डी नाम से विख्यात हो गए। पाषण्डों में प्रमुख परिव्राजक भगवान् का नाती मरीच कुमार बना । योगशास्त्र और सांख्यशास्त्र की व्याख्या से भोले जनों को मोहित कर उनका गुरु बन गया। अनेक-अनेक मनचाहे भ्रामक उपदेशों से सबने अपना-अपना सम्प्रदाय बनाया और उदर पोषण में संलग्न हुए।
     
    भगवान् ऋषभदेव इस अलौकिक मार्ग के वेत्ता थे। पूर्व संस्कारों से और सम्यग्ज्ञान से पुनीत आत्मा को विशुद्ध से विशुद्धतर बनाते हुए लगभग छह मास होने को हैं। विशुद्ध शिला पर कायोत्सर्ग से खड़े वह स्वर्ग और अपवर्ग की सीढ़ी से आभासित हो रहे हैं। न खेद, न चिन्ता, न आर्त, न वीर्य की पिघलन। पर शरीर अपने धर्म को दिखा रहा है। जठराग्नि प्रज्वलित है और स्वानुभूति के पीयूष से शमित भी। इस युग के आदि में भोजन-विधि को बताना मुख्य औचित्य-पूर्ण कार्य है। महाक्षुधा के शमन के लिए ही यह लोक चिन्तित रहता है और इसकी पूर्ति न होने पर महापाप में प्रवृत्त भी हो जाता है। यदि मैं इसी तरह कायोत्सर्ग में लीन रहा तो यह मार्ग एकान्त उत्सर्ग का रूप धारण कर लेगा और अपवाद के छल से अन्यथा प्रवर्तन होगा। अनेकान्त की समीचीन चर्या में तीर्थ प्रणेता का अटल और अवश्यंभावी नियम है कि तीर्थ गंगोत्री को वह अपने आचरण से चलाये। अनेक प्रकार के असंयम और उपकरणों का आश्रय लेकर स्वार्थसिद्धि करना अनुचित है। सभी तीर्थ प्रणेताओं के द्वारा विहित एषणा की समीचीन विधि जो कि विदेहक्षेत्र में भी एक समान है, कर्मभूमि के प्रारम्भ में प्रारम्भ करना अत्यावश्यक है। भोजन यदि विहित विधि से सम्यक् चारित्र के अनुष्ठान के लिए ग्रहण किया जाता है तो वह
    परिग्रह नहीं। संयम की सिद्धि के लिए निर्दोष आहार ग्रहण करना साध्य के लिए साधन है। कायक्लेश उतना ही हो जिससे मनःक्लेश न होने पाये क्योंकि मनः संक्लेश पापानुबन्ध का हेतु है।
     
    अतः निर्दोष आहार लेकर मन को विशुद्ध बनाना और तत्त्वचिन्तन कर इन्द्रिय को जीतना धर्म है। इन्द्रियजय से ही शम भाव है और शम भाव से मोक्ष। यही सोचकर उस सिद्धार्थ उद्यान में खड़े प्रभु ने आँखें खोली और अपनी प्रज्ञा आलोक को साथ लिए रवि के आलोक में गमन किया। प्रभु का गमन अयोध्या की ओर हुआ। पुरजन चिन्तित होने लगे, सभी लोग देखने आने लगे। यह क्यों वापस अयोध्या में आ रहे हैं? इनको क्या चाहिए। अरे! आओआओ देखो अपने स्वामी जिन्होंने अपने को धन दिया था। अरे! देखो वे ही महाराज ऋषभ अब नग्न हो कितने सौम्य लग रहे हैं, इनका तन तो देखो कनक-सा दैदीप्यमान है। अरे! पूछो ना इनको क्या चाहिए? महाराज कुछ ग्रहण करो। स्वामिन् रुको! रुको! हे देव! इस आलय में आओ, हे श्रमण! कुछ तो बोलो। हे पूज्य! यह सब कुछ आपका ही है, आपको क्या चाहिए, हे महापुरुष! न हास्य है न विलास, मुख हर्षविषाद से रहित, जीवरक्षा से कदमों का परिवर्तन, मौन की गंभीरता, किंचित् इशारे के अभिप्राय से शून्य वह महाश्रमण घूमकर पुनः उद्यान में आ गए और पुनः देह से पार, अपरिचित को देखने जानने में लीन हो गए।
     
    नवप्रभात हुआ, नहीं मालूम ये पग कहाँ रुकेंगे, ज्ञान है भविष्य को जानने का, शक्ति है भूमि के अधिकार की, पर अब अकिंचन को किसी भी ऋद्धि का प्रयोग नहीं करना है। थोड़ी दूर जाने पर लगा कि यह रामपुर है। चारों ओर कोलाहल मच गया। महाराज ऋषभ अपने नगर में आ रहे हैं। उनका अभिप्राय किसी को ज्ञात नहीं, छह महीने से उन्होंने न कुछ खाया न कुछ पिया। रोको-इनको-रोको! लाओ मिष्ठान्न लाओ, खीर दिखाओ, लाडू दिखाओ, दूध दिखाओ, पर ये चरण चलाचल हैं, क्या चाहते हैं कुछ समझ नहीं आता। कल अयोध्या में भ्रमण कर वापस आ गए थे। महाराज भरत ने भी रोका पर रुके नहीं, माँ की ममता अश्रुओं में बह रही थी पर इन चरणों को बाँध न सकी। अब ये पुनः लौटते हुए दिखते हैं उद्यान की ओर..........।
     
    नहीं मालूम यह कब तक चलेगा, कब मिलेगा विधिवत् आहार, तात्कालिक विकल्प से भी सामायिक निराबाध चल रही है। अनियत कालीन सामायिक की पूर्णता तो आत्मा के यथार्थ दर्शन से होगी। देह का यह संयोग ही अशेष संयोग का मूल है। इसी से दुःख की परम्परा अनाहत चलती है। विदेही का स्पर्शन कितना सुखद है और कितना स्वतन्त्र । स्वतन्त्र, स्व ही मुख्य है, स्व ही आनन्द है, स्व ही चित् है, स्व ही वह है, वह सो मैं हूँ, मैं ही, मैं ............चहुँ ओर मेरे ही रूप, मेरे ही खेल, सबमें मैं, स्व में मैं, पर में भी मैं.............सत्ता का विस्तार .........महासत्ता का निर्विकार दर्शन........अनुभूति फैली है देह की पृथक् भावना में और मात्र जाननहारा-देखनहारा-लखनहारानिराकारा-चिद्-आकारा-सारा।
     
    बीत गए कितने ही दिन, जा चुका हूँ कहाँ-कहाँ? स्मृति की आवश्यकता नहीं, प्रतिपल जो निराकुल बन गया है। पर कल्याण का भाव आया किन्तु विधि का बन्धन कितना दृढ़तर है। छह महीने के अनवरत कायोत्सर्ग से भी उसका फन्दन नहीं टूटा। कितना दुर्लभ है सम्यक् विधि से विश्व का कल्याण। पर होगा ऐसे ही। यह मार्ग अवरुद्ध नहीं होगा, क्योंकि सुख की अभिलाषा में मात्र मैं ही नहीं यह लोक भी अभिलाषी है।
     
    कितने ही महीने बीत गए, ये देव प्रतिदिन उद्यान से आते हैं, सर्व प्रयास करके हम लोग थक गए, स्वयं भरत और बाहुबली भी चिन्तित हैं। परमपिता के गूढ अभिप्राय को जब ये समर्थ राजपुत्र नहीं समझ सकते तो हम और आप क्या करें? धन, पैसा, धान्य, स्त्री, पुत्र, सुन्दर कुलीन कन्याएँ, सारा राज्य सब कुछ तो भेंट करना चाहा पर कुछ भी स्वीकृत की आहट नहीं, लगभग छह महीने होने को हैं..... । इन्द्र भी कहाँ सोया? देव समूह कहाँ गया? कोई बताने वाला नहीं, सब लोग भ्रमित से हैं मानो किसी कुदेव की छाया में सबका ज्ञान आच्छादित हो गया हो।
     
    तभी कुरुजांगल देश के हस्तिनागपुर नगरी के राजा, कुरुवंश के शिरोमणि सोमप्रभ के छोटे भ्राता श्रेयांसकुमार को रात्रि के अन्तिम प्रहर में स्वप्न दर्शन हुआ। स्वप्न फल जानकर सोचा कि ऐसा अतिथि आयेगा जो मेरु-सा उन्नत हो और समुद्र-सा गंभीर। कुछ देर बाद खबर आयी कि अति उन्नत, महावीर, धर्म के प्रवर्तक महा दिगम्बर महाराज ऋषभ के कदम आज हस्तिनागपुर की ओर पड़ रहे हैं। अनेक देश, नगर, ग्रामों में भ्रमण करते हुए आज स्वामी अपने नगर पधार रहे हैं। कुतूहल की दौड़ में सारा नगर आनन्दित हो गया। राजा सोमप्रभ और राजकुमार श्रेयांस, दोनों ही अन्तःपुर, सेनापति और मंत्रियों के साथ उठकर राजगृह से बाहर आये और प्रभु को प्रांगण में देख हर्षातिरेक से प्रभु के चरण कमलों को प्रणाम किया तदनन्तर प्रदक्षिणा दी। साक्षात् भगवान् की इस भक्ति में दोनों भ्राता रोमाञ्चित हो गए। सौधर्म और ऐशान इन्द्र की तरह दोनों ने प्रभु को गृह प्रवेश के लिए कहा। उच्चासन पर भक्ति पूर्वक बैठाया और जलादि समर्पित कर पाद-प्रक्षालन कर अपने पापों को प्रक्षालित किया। अतीव पूजा और भक्ति से सारा महल गुञ्जायमान हो गया। भगवान् की तपोपूत आभा में प्रवेश करते ही राजा श्रेयांस को जातिस्मरण हो आया और आठ भव पूर्व वज्रजंघ के साथ जो श्रीमती ने चारण युगल को आहारदान दिया था, वह पुण्य संस्कार आज फलीभूत हुआ। आहार की यथावत् विधि का स्मरणकर राजा श्रेयांस आहार देने को उद्यत हुए। एक तरफ स्वामी खड़े हैं और सामने हैं राजा श्रेयांस। राजा ने प्रभु के पाणिपात्र में शुद्धिपूर्वक इक्षु रस की अक्षयधारा को छोड़ दिया। तत्काल ही गगन से रत्नवृष्टि, पुष्पवृष्टि होने लगी, नगाड़ों की गम्भीर ध्वनि बजने लगी, मन्दमन्द शीतल सुगन्धित समीर बहने लगा और जय-जय......धन्य धन्य.......धन्य यह पात्र, धन्य यह दान-धन्य है, यह दाता-जयवन्त हो, यह धर्म जो श्रावक और श्रमण के दो कूलों के बीच निर्बाध प्रवाहित हो रहा है। धन्य है यह धर्मरथ, जो आमने-सामने खड़े राजा और महाराजा मानो धर्म के दो पहिये ही हों और इक्षु की धार इस धर्म की अखण्ड धुरा हो। धन्य यह दान, जो अनुमोदना करने वालों को भी पुण्य देता है। आहार पश्चात् दोनों भ्राता प्रभु के पीछे-पीछे जाते हुए अपने को कृतकृत्य समझते हुए, गद्गद हो रहे, कभी चरणों को देखते तो कभी देह यष्टि को, मानो आज उन्हें सब कुछ मिल गया। चक्रवर्ती, इन्द्र को भी जिन्होंने लज्जित कर दिया ऐसे दोनों भ्राता बहुत दूर तक प्रभु को भेजकर रुक-रुककर-पुनः-पुनः प्रणाम कर वापस लौटे। लौटते हुए दोनों भाइयों को सम्पूर्ण नगरी बधाई दे रही है कह रही है कि आज धर्मरथ का प्रवर्तन हुआ। आज यह मुक्तिमार्ग गतिमान हुआ। खड़े हुए पात्र और दाता ने आज बता दिया है कि धर्म दो प्रकार का है। धर्म के दोनों पहियों का यथास्थान महत्त्व है। इनके बीच की इक्षुधारा श्रावक और श्रमण के मध्य यथोचित दूरी बनाये हुए हैं। इस दानधारा के प्रवाह से ही विशुद्धि के स्रोत श्रावक में फूट पड़ते हैं । यह इक्षुधारा दोनों चक्रों को कसे हुए हैं। दोनों धर्म के बीच की दूरी यदि बाधित हुई तो धर्मरथ अग्रसर नहीं होगा। अकिंचन की मनः तुष्टि श्रावक को भूरि-भूरि आशीष देती जा रही है। न दाता को अभिमान है, न पात्र को दीनता, मौनपूर्वक सब कुछ चल रहा है और भावों की प्रसन्नता प्रकट हो गयी पञ्च आश्चर्य के रूप में। आज इस प्रक्रम को देखने वाले धन्य हो गए। समस्त आर्यावर्त में हवा की तरह राजा श्रेयांस के घर महाराज ऋषभ की आहारचर्या चर्चित हो गयी। भरत, शीघ्रातिशीघ्र हाथ जोड़े राजा श्रेयांस के घर आये और राजा श्रेयांस को बहुत-बहुत मांगलिक वन्दनीय वचनों से अलंकृत किया। महाराज ऋषभ यदि प्रथम तीर्थ-प्रणेता' हैं, तो आप भी प्रथम ‘दान-तीर्थ' प्रणेता हैं।
     
    आपका यह कुरुवंश धन्य है। आश्चर्य से राजा भरत ने अगम्य को जानने का समाचार पूछा, श्रेयांस ने सब कुछ यथावत् कहा। देवों ने राजा श्रेयांस की पूजा की और तब से वह तृतीया तिथि ज्येष्ठ मास की 'अक्षय तृतीया पर्व' के रूप में प्रतिष्ठित हो गयी, जो आज भी प्रचलित है। स्वयं भरत ने प्रथम ‘दान तीर्थ' की वन्दना की। एक साल का उपवास पूर्ण करने वाले परमेश्वर को दान देने वाले हे कुरुराज! आज आपका यश दिग्-दिगन्त तक सदा के लिए अमिट हो गया। आपको छोड़कर इस सम्मान का भागीदार कोई नहीं बन सका। परमात्मा को अपने गृह में ठहराने वाले हे पुण्यतीर्थ! आप ही कुरु कुल के सूर्य हैं।
     
    व्रत और दान से चलने वाला यह दया धर्म आपने गतिशील कर दिया। सकल जन, इन्द्र, खेचरों और देवेन्द्रों को भी संतोष देने वाले इस कृत्य का बखान असंभव है। यह कह चक्रेश्वर अयोध्या की ओर हर्षाश्रु से दिशा बनाते चल पड़े।
  6. Vidyasagar.Guru
    सम्बन्ध 
     नदी बहती है सदा 
     किनारे बन जाते हैं!
     नदी बदलती है रास्ता
     किनारे मुड़ जाते हैं!
     नदी उफनती है कभी
     किनारे डूब जाते हैं!
     नदी समा जाती है सागर में
     किनारे छूट जाते हैं!
     संबंधों की सार्थकता 
     मानो जीवन के प्रवाह की 
     पूर्णता में है!
     
    Relationship
     The river banks are forged
     When a river flows.
     When river changes its course,
     The river banks too are changed.
     When the river overflows,
     The banks drown in the flow.
     When the river reaches the sea,
     The banks are left behind.
     I suppose, relationship are fulfilling
     Only when they help
     Our life to flow.
  7. Vidyasagar.Guru
    सिद्धोदयसिद्धक्षेत्र #नेमावर
    आहारचर्या  शुभ संदेश🏳‍🌈🏳‍🌈🏳‍🌈🏳‍🌈🏳‍🌈🏳‍🌈🏳‍🌈
        🗓०९,सितंबर,१९ सोमवार🗓 
    पर्वाधिराज दशलक्षण पर्व का सप्तम दिन ( उत्तम तप  धर्म )
    ✨आज परम पूज्य संत शिरोमणि १०८ आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज✨को आहार कराने का सौभाग्य*
      ⛳श्री मान राजा भैया सूरत  निवासी एवं उनके पूरे परिवार को प्राप्त हुआ⛳
    *👏🏽आहार दान देने वालों की अनुमोदना👏🏽*
    ✍🏻 *अक्षय बाकलीवाल खातेगांव*
     
  8. Vidyasagar.Guru
    ♦️आहारचर्या*♦️
            *डोगरगढ़ छ.ग.*
    दिनांक 18 /०७/२०२३_
    *आगम की पर्याय,महाश्रमण युगशिरोमणि १०८ आचार्य श्री विद्यासागर जी महामुनिराज के आहार कराने का सौभाग्य _कविता दीदी प्रतिभास्थली  प्रवीण जैन योगेश जैन विनय जैन   निर्यपक मुनि प्रसाद सागर जी  जी गृहस्थ अवस्था के बहन व बहनोई *  एवं उनके परिवार को प्राप्त हुआ है।
    इनके पूण्य की अनुमोदना करते है।
                💐🌸💐🌸
    *भक्त के घर भगवान आ गये*
              🌹🌹🌹🌹
     
     
     


  9. Vidyasagar.Guru
    *सिद्धोदय_सिद्ध_क्षेत्र #नेमावर*
    *आहारचर्या*  *शुभ संदेश*🏳‍🌈🏳‍🌈🏳‍🌈🏳‍🌈🏳‍🌈🏳‍🌈🏳‍🌈
        *🗓०८,सितंबर,१९ रविवार🗓* 
    *पर्वाधिराज दशलक्षण पर्व का छठवाँ दिन ( उत्तम सयम धर्म )*
    *✨आज परम पूज्य संत शिरोमणि १०८ आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज✨*को आहार कराने का सौभाग्य*
      *⛳श्री मान अशोक जी पाटनी ( आर. के मार्बल ग्रुप ) किशनगढ़ निवासी एवं उनके पूरे परिवार को प्राप्त हुआ⛳*
    *👏🏽आहार दान देने वालों की अनुमोदना👏🏽*
    ✍🏻 *अक्षय बाकलीवाल खातेगांव*
       
  10. Vidyasagar.Guru
    आचार्यश्री विद्यासागर जी के ५० वे  दीक्षा वर्ष में संयम कीर्ति स्तम्भ बना हो तो आप जानकारी प्रेषित करें , ताकि आने वाली स्मारिका में  प्रकाशित किया जा सके |
    निम्न बिन्दूओ पर जानकारी की आवश्यकता होगी 
    सामान्य जानकारी 
    1. स्थान  एवं पता ((निकटतम प्रसिद्ध स्थान का नाम) 
    2. साइज़ (माप) / पत्थर / लागत 
    3. कीर्ति स्तम्भ का फोटो (Full view) 
    4. पुण्यार्जक का नाम (व्यक्तिगत है तो व्यक्ति का नाम अथवा सामूहिक है तो समूह का नाम)
    5. जी पी एस लोकेशन
    6. शिलान्यास विवरण 
    6.1  शिलान्यास तारीख
    6.2 शिलान्यास सानिध्य (पिच्छीधारी 
    6.3 शिलान्यास सानिध्य प्रतिष्टाचार्य 
    6.4  शिलान्यास सानिध्य राजनेता
    6.5 शिलान्यास के चित्र / फोटोग्राफ्स 
    7. लोकार्पण विवरण 
    7.1  लोकार्पण तारीख
    7.2 लोकार्पण सानिध्य पिच्छीधारी एवं अन्य (त्यागी व्रती)
    7.3 लोकार्पण सानिध्य राजनेता 
    7.4 लोकार्पण के चित्र / फोटोग्राफ्स 
    निम्न में से किसी एक स्थान पर भेजे 
    1 स्वयं www.Vidyasagar.Guru वेबसाइट पर डाले 
    https://vidyasagar.guru/keerti-stambh/
    2 google form पर डाले https://goo.gl/forms/oN06gvCbJUvumAIn1
    3 ईमेल पर भेजे  info@vidyasagar.guru 
    4 whatsapp करें 9694078989
    5 डाक अथवा कोरियर से इस पते पे भेजे 
    सौरभ जैन 14/55 शिप्रा पथ मानसरोवर जयपुर राजस्थान ३०२०२०
    सम्पूर्ण विवरण समाज के लेटर पैड पर लिख कर  प्रेषित करें । साथ मे अखबार की कतरन भी भेजें
    संपर्क सूत्र 
     
    सौरभ जैन जयपुर - 9694078989
    आप सुनिश्चित करे की आपके यहाँ बना कीर्ति स्तम्भ नीचे लिंक पर जरूर दिखे
    |https://vidyasagar.guru/blogs/blog/28-1
  11. Vidyasagar.Guru
    छुईखदान छत्तीसगड में 
    संत शिरोमणी गुरुदेव श्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ के पावन सानिध्य मे छुईखदान मे मानस्तंभ मे श्री जी को विराजमान किया
     
     
     
     
  12. Vidyasagar.Guru
    सुबह की तलाश
     कई बार सोचा
     कि सुबह होते ही
     पक्षियों का
     मधुर गान सुनूंगा !
     कि सुबह होते ही
     उगते सूरज
     खिलते फूल 
     और बहती नदी का
     सौंदर्य देखूंगा !
     किसी वृक्ष के नीचे
     शीतल शिला पर
     अपने में मगन होकर बैठूंगा !
     पर अपने ही 
     मन के मलिन अँधेरे में 
     अपने ही जीवन के 
     आर्त स्वरों में
     और अपने ही बनाये बंधनों में
     घिरा सिमटा में
     सुबह की तलाश में हूँ !
     
    In Search of meaning
     Often I thought that
     I would listen to the birds
     When they sing at dawn.
     That I would
     Watch the rising Sun,
     Watch the flawer as it blossoms,
     Watch the river’s liveliness
     As it flows by.
     And I thought I would sit
     Under a tree on a rock
     And go deep in my own soul.
     But lost in the darkness
     Of my own dark mind,
     Lost in the distresses sounds
     Of my own mean life,
     Lost in the fetters
     Of my own making,
     I am looking still
     For that morning.
  13. Vidyasagar.Guru
    एक अनुभूति
     जितनी दूर
      देखता हूँ
     उतनी ही 
     रिक्तता पाता हूँ 
     जितना निकट
      आता हूँ
     उतना ही 
     भर जाता हूँ!
     
    A Feeling
    There is only emptiness
    And more emptiness
    As I look farther
    And farther.
    When I come nearer,
    I am more and more
    Fulfilled.
  14. Vidyasagar.Guru
    चिड़िया
     मैं देखता हूँ
     चिड़िया
     रोज आती है!
     और मैं जानता हूँ
     वही चिड़िया
     रोज नहीं आती !
     पर वह दूसरी है
     मैं ऐसा कैसे कहूँ!
     अच्छा हुआ
     मैंने कोई नाम नहीं दिया
     उसे चिड़िया ही
      रहने दिया!
     
    Bird
    I watch the bird as it comes
    Each day;
    I know its not the same bird
    Which comes each day.
    Yet how should I say
    That this bird
    Is a different bird!
    I am glad
    I did not name the bird.
    Now the bird is
    Just a bird.
  15. Vidyasagar.Guru
    आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ सानिध्य मे हुआ त्रि मंजिला समवशरण एवं चतुर्दिक चार सहस्त्रकूट जिनालयों का शिलान्यास
     
     
     
     
     
     
     
     
    🌴🛕अतिशय क्षेत्र में छोटे बाबा ने रचा इतिहास🛕🌴
    श्री अंतरिक्ष पार्श्वनाथ जी तीर्थ क्षेत्र,शिरपुर जैन में पूज्य संत शिरोमणि आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज ससंघ के सानिध्य एवम आशिर्वाद से..२१ दिसम्बर २०२२, दिन बुधवार...
    🛕प्रात:भव्य त्रिमंजिला समवसरण 252 फीट एवं चतुर्दिक चार सहस्कूट जिनालयों का एक साथ भव्य शिलान्यास बा. ब्र. वाणी भूषण प्रतिष्ठा सम्राट विनय भैया जी के निर्देशन में हजारो  जन समुदाय की मेदनी के बीच हुआ और इस क्षेत्र पर इतिहास रचा गया।
    मुख्य मन्दिर जी के पुण्यार्जक लाभार्थी परिवार निम्न अनुसार है  :-👇 
    श्रेष्ठी श्रीमान श्री रतनलाल जी कँवरीलाल जी पाटनी परिवार आर के मार्बल परिवार (किशनगढ़ राज.) श्रेष्ठी श्रीमान श्री प्रभात सवाईलालजी श्रीमती इंदूजी जैन जुहू (मुम्बई) श्रेष्ठी श्रीमान श्री राजा भाई शाह एवं श्रीमती रेखा जी  शाह -(सूरत) गुजरात   
          💧💧💧💧💧💧💧💧
    सहस्त्र कूट जिनालय के पुण्यार्जक लाभार्थी परिवार:-👇
    जिनालय क्रमांक 1 श्रेष्ठी श्रीमान श्री अतुल जी सराफ एवं श्रीमती संगीता जी सराफ- पुणे-बारामती (महाराष्ट्र) जिनालय क्रमांक 2 श्रेष्ठी श्रीमान श्री नवीन जी जैन श्रीमती शिल्पी जी जैन - दिल्ली-गुड़गांव। जिनालय क्रमांक 3 श्रेष्ठी श्रीमान श्री शीतल जी दोशी श्रीमती वृशाली जी दोशी-पुणे (महाराष्ट्र) जिनालय क्रमांक 4 श्रेष्ठी श्रीमान श्री दिलीप जी घेवारे श्रीमती नीता जी घेवारे- ठाणे (मुम्बई)
     
     

  16. Vidyasagar.Guru
    शीशा देने वाला
     जब भी मैं रोया करता 
     माँ कहती-
     यह लो शीशा,
     देखो इसमें 
     कैसे तो लगती है 
     रोनी सूरत अपनी 
     अनदेखे ही शीशा 
     मैं सोच-सोचकर
     अपनी रोनी सूरत 
     हंसने लगता!
     एक बार रोई थी माँ भी 
     नानी के मरने पर 
     फिर मरते दम तक
     माँ को मैंने खुलकर हँसते 
     कभी नहीं देखा!
     माँ के जीवन में शायद 
     शीशा देने वाला
     अब कोई नहीं था!
     सबके जीवन में ऐसे ही
     खो जाता होगा
     कोई शीशा देने वाला !
     
    Mirror Holder
    Whenever I cried
    My mother held up
    A mirror and said,
    ‘Look,this is how you look
    When you weep.’
    I laughed then,
    Imagining my
    Weepy face without even
    Glancing at the mirror.
    Mother too cried once
    When her mother died.
    After that my mother
    Did not laugh as she used to
    Till she died.
    Perhaps there was no one
    To hand a mirror to my mother.
    Perhaps we lose
    One by one,those who 
    Show us our face
    By holding up a mirror.
  17. Vidyasagar.Guru
    ‌🚩 *पिच्छिका परिवर्तन समारोह 2023* 🚩 
            🛕 *डोंगरगढ़  छत्तीसगढ़*🛕
    ➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖
    धर्मानुरागी बन्धुवर,
               *सादर जय-जिनेन्द्र जी।*
       *आचार्य भगवन 108 श्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ का*
      *दिनांक 15 नवम्बर 2023 दिन बुधवार प्रातः 08•00 बजे को भव्य पिच्छिका परिवर्तन समारोह डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़*
    www.Vidyasagar.guru
  18. Vidyasagar.Guru

    सूचना
    💫 धरती के देवता, हम सभी के भगवन् ,अनियत विहारी, अध्यात्म सरोवर के राजहंस, परम पूज्य युग श्रेष्ठ , संत शिरोमणि आचार्यश्री १०८ विद्यासागर जी महामुनिराज के आज प्रातः कालीन बेला में केशलोंच डोणगाव जिला बुलढाणा   में संपन्न हुये।
  19. Vidyasagar.Guru

    सल्लेखना सूचना
    क्षुल्लक 105 श्री आल्हादसागर की महाराज जी की समाधि सांय 4 50 पर डोंगरगढ़ में हुई
     

     
    🙏समाधि मरण सूचना 🙏
    अपडेट न्युज डोंगरगढ
    तीर्थ क्षेत्र चंद्रगिरी डोंगरगढ़ की पावन पुण्यधरोवर में समाधिमरण प्राप्त 
       संत शिरोमणि आचार्यश्री विद्यासागर जी महामुनिराज के कर कमलों से तीर्थ क्षेत्र चन्द्रगिरी डोंगरगढ़,(छ.ग) में बारामती, महाराष्ट्र के निवासी 98 वर्षीय ब्र.वालचंद काका संघवी(दशम प्रतिमाधारी आल्हादसागर जी) की क्षुल्लक दीक्षा सम्पन्न हुई थी
    क्षुल्लक श्री अल्हाद सागरजी महाराजजी को आज दोपहर 4:50 मी.पर समाधिमरण प्राप्त हुआ
     🙏ॐ अर्हम् 🙏
     
     
     

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