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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

कर्म कैसे करें? भाग -7


Vidyasagar.Guru

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हम सभी लोगों ने पिछले दिनों अपने जीवन की विविधता और इस संसार की विचित्रता इन दोनों बातों को जानने के लिये एक प्रक्रिया, एक विचार की प्रक्रिया शुरू की थी और हमने यह बहुत अच्छे से समझ लिया है कि हमारे जीवन में जो भी घटित होता है उसका प्रमुख कारण मेरा अपना कर्म है। मैं कर्म निरन्तर करता हूँ, कर्मों का फल भी मुझे ही चखना होता है और इतना ही नहीं, कर्मों का फल चखते समय मेरी जो असावधानी है, मेरी जो गाफिलता है, मेरी जो अज्ञानता है, वो मुझे और नये कर्म बंधन के लिये मजबूर कर देती है। 


कर्म सिर्फ एक भौतिक प्रक्रिया नहीं है। कर्म एक मानसिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक प्रक्रिया भी है। कर्म दोनों तरह के किये जा सकते हैं। संसार बढ़ाने वाले कर्म भी जो अत्यन्त सांसारिक होते हैं और संसार से पार होने के कर्म भी किये जाते हैं जो कि आध्यात्मिक होते हैं। सवाल सिर्फ इस बात का है कि मुझे संसार बढ़ाने वाले कर्म चुनना है या कि संसार से पार होने के कर्म चुनना है। कोई भी संसार में शरीर धारण करने वाला ऐसा नहीं है जो कर्म ना करे। कर्म सबको करना पड़ता है। वे कर्म सासांरिक है या कि पारमार्थिक या कि आध्यात्मिक हैं, ये हमारे ऊपर निर्भर करता है।

 

तब फिर हम विचार करें कि हमें ऐसे कर्म करना है जिससे कि कर्मों का बोझ हल्का हो, कर्म का भार हल्का हो। अगर अपने जीवन में हम अपनी अज्ञानता और असावधानीवश कुछ ऐसे खोटे कर्मों को संचित कर भी लेते हैं तो हम उन छोटे कर्मों को अपने सत्कर्मों के द्वारा परिमार्जित भी कर सकते हैं। ये जो आत्म-संयम, जप, तप, दान ये जो आध्यात्मिक कर्म हैं, वे हमारे सांसारिक कर्मों के दबाव को कम करते हैं। उसके भार से हमें मुक्त करने में मदद देते हैं, कौन व्यक्ति है जिससे कि अपनी असावधानी और अज्ञानतावश बुरा नहीं हो जाता। 


यदि एक क्षण अगर हम चूक गये थे तो क्या हम अगले क्षण अपने को सँभाल नहीं सकते हैं, सँभाल सकते हैं और इतना ही नहीं अपनी उस चूक का फल जो मिलने वाला है उसको भी हल्का कर सकते हैं। जो अपराध हमसे अपनी अज्ञानतावश बन गया है उस अपराध की इन्टेन्सिटी भी हम कम कर सकते हैं। यहाँ तक कि हम आगे सावधान होकर के नये अपराधों से बचकर के अपने जीवन को अच्छा बना सकते हैं। बशर्ते कि हमारा लक्ष्य शुद्ध हो, हमारा संकल्प शुभ हो और हमारा पुरुषार्थ अशुभ से बचते रहने का हो। अगर ये आर्ट हम सीख लें, ये कला हम सीख लें कि हमेशा अपने जीवन की निर्मलता हमारा लक्ष्य है और उस निर्मलता में मेरी अपनी मन, वाणी और शरीर की जो वर्तमान की भली दशा है वो सहायक है, इसीलिये मेरा संकल्प भला करने का है। मेरा संकल्प परोपकार करने का है। संसार के घात-प्रतिघात से मैं अब अपने संसार को, उलझ करके बढ़ाना नहीं चाहता हूँ। इसलिये मेरा संकल्प मैंने शुभ करने का लिया है, ताकि मैं अपने उस शुद्ध लक्ष्य को प्राप्त कर सकूँ और अकेले शुभ का संकल्प कर लेने से काम नहीं चलता। मैं पुरुषार्थ करूँ कि अशुभ से बचता रहूँ। 


जैसे कि मेरे वस्त्र गन्दे हो जाते हैं तो मेरे मन में ये बात आती है कि ऐसे गन्दे वस्त्र पहिनना ठीक नहीं है। मुझे तो इनको साफ-सुथरा बनाना चाहिये और मेरे मन में ये विश्वास है कि ये साफ-सुथरे बन सकते हैं। तो ऐसे विश्वास के सहारे हम साबुन, सोड़े का उपयोग करके और उन वस्त्रों की मलिनता को हटाते हैं, उनको उज्वल बनाते हैं। भैया ! ये जो जप, तप, आत्म संयम, पश्चाताप, प्रायश्चित्त ये सारी प्रक्रियाएँ साबुन, सोड़े की तरह हैं, जो हमारे अज्ञानतावश बाँधे गये कर्मों की मलिनता को हटाने में हमारी मदद करती हैं। इसलिये ये बात अपन को अब कर्मों को करते समय ध्यान में रखने की है। कर्मों को यदि हम जीतना चाहते हैं, तो कर्म कैसे करें यह टेक्निक सीख लें। आज टेक्नोलॉजी का इतना विकास हुआ है लेकिन कई बार लगने लगता है कि बाह्य जगत की समृद्धि के लिये इतनी टेक्नोलॉजी, इतनी तकनीकी विकसित हुई, लेकिन अपने आत्म जगत की निर्मलता के लिये जो तकनीकी, जो टेक्निक हमारे आचार्य भगवन्तों ने हमें दी थी उसको हम निरन्तर भूलते चले जा रहे हैं। बाह्य जगत में जो भी विकास हुआ है उसके लिये ठीक है कि टेक्नोलॉजी जरूरी है। लेकिन एक टेक्नोलॉजी, एक आर्ट हमारे भीतर अपने जीवन के विकास के लिये भी तो होना चाहिये। अपनी मलिनताओं को हटाने का हम पुरुषार्थ करें और निरन्तर अपने जीवन को उज्ज्वल बनाने का संकल्प हमारे मन में हो, तो हमारी ये कर्म बंध की प्रक्रिया सही मानी जाएगी वरना मैंने देखा है कि जिनको मालूम है कि किस प्रकृति का बंध कहाँ तक होता है, किसका उदय कहाँ तक चलता है और किसकी सत्ता कहाँ तक चलती है और क्या टेक्नोलॉजी है कि हम इन चीजों को अपने भीतर ही सत्ता में नष्ट कर सकते हैं, क्या अपकर्षण है, क्या उत्कर्षण है, क्या उदय है, क्या उदीरणा है और क्या संक्रमण है, सब राई-रत्ती जानते हैं। बैठ जावें तो ऐसी चर्चा करें कि चर्चा सुनकर के सामने वाले को लगे कि अद्भुत है ज्ञान लेकिन जरा जीवन में झाँककर के देखें तो वहाँ सारा कुछ अज्ञानता में व्यतीत हो रहा है। इसलिये मैंने वो सारी बातें बहुत मुख्य नहीं रखीं। हमने तो सिर्फ कर्म सिद्धांत से यही सीखने की कोशिश करी है कि मेरी अपनी अज्ञानता में मेरे से जो कुछ भी बुरा हो गया है, अब मैं उसके लिये रोऊँ, तो रोने से कोई फायदा नहीं होने वाला; जब वो मुझे अपना फल देगा तब उसका फल पाने से मैं बचूँ, बचने की कोशिश करूँ कि मुझे फल ना पाना पड़े? मैं हाय तौबा न मचाऊँ, दुःखी होऊँ तो भी कोई फायदा नहीं होने वाला। मेरा फायदा तो इसमें है कि मेरी अज्ञानता से मैंने अपने भीतर जो खोटे कर्म संचित कर लिये हैं, हो सके तो कोई वर्तमान में ऐसा उद्यम करूँ, ऐसा पुरुषार्थ करूँ जिससे कि इन खोटे कर्मों का दबाव कम हो जावे और आगे के लिये उनकी जो संतति, उनकी जो परम्परा चल रही थी उसको भी हम रोक सकें। बस इतना ही पुरुषार्थ हमें वर्तमान में करना चाहिये। कर्म जो हम करते हैं उनका फल सिर्फ हमें ही मिलता है। यह बात सब जानते हैं लेकिन ध्यान रखना कि इतना ही नहीं है। कर्म का फल वर्तमान में भी मिलता है और दूरगामी परिणाम भी हमारे अपने कर्मों के होते हैं और इतना ही नहीं, अपने ही एक अकेले के जीवन के ऊपर ही नहीं आस-पास के परिवेश और वातावरण पर भी हमारे कर्मों का असर पड़ता है। यह बात भी हमें जरा विचार कर लेनी चाहिये। कर्म करते समय कितनी जिम्मेदारी हमारी है, यह बात हमें समझ में आनी चाहिये। तब फिर हमारे अपने कर्म करने की जो कुशलता है वह हमारे भीतर अपने आप आ जायेगी, कर्म तो करना है लेकिन कुशलता कैसी हमारे अन्दर होनी चाहिये कि ये कर्म मेरी क्षति ना करें। मेरे परिवेश को भी मलिन न करें। 


मेरे किये हुए कर्म सिर्फ मेरी ही क्षति या मेरा ही उत्थान नहीं करते हैं। मेरे आस-पास के परिवेश की क्षति और आस-पास के परिवेश के उत्थान में भी कारण बनते हैं। इस बात पर भी हमें विचार करना चाहिये। मेरे कर्म मेरे वैयक्तिक नहीं हैं। वे सामाजिक और राष्ट्रीय और अत्यन्त व्यापक हैं। जैसे अपन सब जानते हैं कि अगर परिवार में कोई एक व्यक्ति धर्मात्मा है तो उस परिवार की विश्वसनीयता, उस परिवार के प्रति लोगों के मन में प्रशंसा का भाव, उस परिवार की प्रामाणिकता इन सारी चीजों में बढ़ोतरी होती है। एक व्यक्ति परिवार में धर्मात्मा है तो सारे परिवार को उसका फल मिलता है कि नहीं मिलता। सबको उसकी प्रशंसा और उसकी विश्वसनीयता का लाभ मिलता है कि नहीं मिलता, आज हमें किस चीज का लाभ मिल रहा है। आज हमारे साथ एक चीज सबसे बड़ी जुड़ी है कि हम अपने आचार्य महाराज के शिष्य हैं, उनकी उस तपस्या का फल हमें भी मिल रहा है कि नहीं मिल रहा। जहाँ जाते हैं, वहाँ पर लोग श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। भैया, उनके शिष्य हैं। हमने अभी कुछ भी नहीं किया है, हमने आपसे कोई अभी बात भी नहीं की है, लेकिन उसके बावजूद भी और इसका फल मिलता है कि नहीं मिलता ये सामने उदाहरण है अपने। कोई ऐसी चीज नहीं है सबके देखने में, अनुभव में आती है और इतना ही नहीं है एक मछली सारे तालाब को गंदा करती है, इसका भी उदाहरण सबके सामने है कि अगर दुर्योधन को थोड़ी सी राज्य की लोलुपता नहीं होती तो युद्ध नहीं होता। और एक अकेले गाँधीजी को सत्य और अहिंसा का पालन करते हुए देश को स्वतंत्रता नहीं मिलती अगर उनके शुभ कर्म का सबको फल नहीं मिलता। तीर्थंकर अपनी आत्मा का खुद कल्याण करते हैं, तीर्थंकर की दिव्य ध्वनि को सुनकर के चतुर्विध संघ अपना कल्याण कर लेता है। हमारे किये हुए कर्म दूसरे के उत्थान और पतन दोनों में जिम्मेदार हो जाते हैं। माता-पिता की अपने जैसे कि धन-सम्पत्ति अपने बेटे को मिलती है इतना ही नहीं माता-पिता का कर्ज भी बेटे को ही चुकता करना पड़ता है। दोनों ही स्थितियाँ हैं, उनके किये हुए भले और बुरे कर्मों का असर आने वाली सन्तति पर भी पड़ता है। इतनी सावधानी का काम है कर्म करना। सिर्फ हमारे ही अपने जीवन को वे मुश्किल में नहीं डालते हैं या हमारे ही जीवन का उत्थान नहीं करते; वे आस-पास के परिवेश को भी प्रभावित करते हैं। ये बात हमारे ध्यान में बनी रहे, तब फिर कैसे कर्म करना है। ये अपने मन में अपने आप ही ये विचार आना शुरू होगा। ये सारी चीजें ध्यान में रख करके अब अपन थोड़ा सा आज आगे बढ़ते हैं। 


एक छोटा सा उदाहरण देख लेवें और फिर उसके बाद अपने को समझना ये है कि मैं जिन कर्मों का फल भोग रहा हूँ वो मैंने किन भावों से बाँधे होंगे। आज अगर मेरी अज्ञानता ज्यादा है, मेरा ज्ञान ढक गया है या कि मेरा अपना विजन क्लियर नहीं है, मेरे अपने जीवन में बहुत सारी गड़बड़ियाँ हैं, उन सबकी जिम्मेदारी मेरे अपने पूर्व किये गये परिणाम हैं। ये अगर मुझे मालूम पड़ जाये कि कौनसे वाले परिणाम से मुझे कैसे वाले कर्मों का बोझ ढोना पड़ता है तो फिर मैं उसके बोझ को हल्का करने के लिये वैसे परिणाम ना करूँ। बहुत आसान सा तरीका है। वो प्रक्रिया पर अब अपन विचार शुरू करेंगे, पर उससे पहले यह बात अपने ध्यान में रखें कि हम जो भी कर्म करेंगे उसके फल में हम आसक्त नहीं होंगे क्योंकि कर्मों का फल हमें दोनों रूपों में आसक्त करता है। जब वो भला फल देता है, तब हमें गाफिल कर देता है। हमारे भीतर अहंकार पैदा करता है और जब वो अपना खोटा फल देता है तब वो हमें संक्लेषित कर देता है और अहंकार और संक्लेष इन दोनों प्रक्रियाओं से मैं और अधिक अपने संसार को बढ़ाता हूँ इसलिये पहली  चीज मैं कर्म के फल में अपनी आसक्ति घटाऊँ और जो कर्म मैं करता हूँ उसको कर्त्तव्य मानकर करूँ। उसमें कर्ता ना बनूँ, ये दूसरी चीज है। पहली चीज कि मैं अपने कर्मों के फल में आसक्ति ना रखू। कर्म करूँ तो कर्त्तव्य मानकर के करूँ, और कर्ता बनकर ना करूँ। अगर ये दोनों चीजें हमारे जीवन में आ जायें कि कर्म का फल भोगते समय क्या सावधानी रखना और कर्म करते समय क्या सावधानी रखना। फिर देखियेगा वे कर्म हमारे जीवन को ऊँचा उठाने वाले ही होंगे। एक उदाहरण है। असल में, हम सब लोग कर्म करने में उतने उत्सुक नहीं हैं, हम तो कर्म के फल में उत्सुक हैं, देखा जाये अगर तो और हमें तो कई बार ऐसा लगता है कि फल मिल जाए, हमें कर्म ना करना पड़े तो और अच्छा है। ये जितनी भी लाटरी वाटरी की प्रक्रिया शुरू हुई उसके पीछे उद्देश्य क्या था कर्म नहीं करने पड़ें और घर बैठे हाथ पे पैसा मिल जावे। “वेल्थ विदाउट वर्क"। गाँधीजी ने इसको एक पाप कहा है। “वेल्थ विदाउट वर्क इज ए सिन" और "नॉलेज विदाउट मोरेलिटी इज ए सिन' नैतिक मूल्य कुछ भी नहीं है और नॉलेज बहुत सारी है तो वो पाप में ले जाएगी आपको, जैसे कि ले जा रही है आज। कितना तो ज्ञान है लोगों के बीच लेकिन नैतिक विकास की कोई चिन्ता नहीं, आध्यात्मिक विकास की कोई चिन्ता नहीं और ज्ञान तो अपार, वो कहाँ ले जाएगा? पतन की तरफ ले जाएगा। ये जो अकर्मण्यता है, कर्म नहीं करने की जो प्रवृत्ति है, लेकिन फल की आकांक्षा बहुत है और इतना ही नहीं खोटे कर्म करके भले की आकांक्षा ये संसार बढ़ाने वाली है। इसके लिये एक उदाहरण अपन समझ लेवें। कितने तरह के लोग हैं और अपन उसमें से कौनसे प्रकार के हैं ये जरा सा विचार कर लें हम। एक वो लोग हैं जो कि कर्म तभी करते हैं जब यह तय हो जावे कि फल क्या मिलेगा। असल में ये फल में ज्यादा रुचि रखते हैं। कर्म में नहीं रखते। ऐसा जीवन में अपने भी कभी-कभी मन में आता होगा कि करना ना पड़े और उसका फल मेरे मन मुताबिक मुझे मिल जावे। 

 

 


Technology.pngदूसरे और अच्छे लोग हैं उससे जो ये कहते हैं कि मैं तो अपना कर्म करूँगा, मेरा कर्त्तव्य है और जब मैं अपना कर्त्तव्य बखूबी करूँगा तो उसका फल भी पाऊँगा। मुझे उस फल को लेकर के चिन्तित होने की क्या आवश्यकता। भले कर्म का फल भला मिलता है, बुरे का फल बुरा मिलता है। अब मुझे इसमें ज्यादा चिन्तित होने की भी आवश्यकता क्या है ? ऐसा होता कि भैया कभी-कभी बुरे कर्म का फल भी अच्छा मिल जाता है, या कि अच्छे कर्म का बुरा फल मिल जाता है, ऐसा अगर कुछ नियम होता तो फिर कुछ चिन्ता की बात थी।

और तीसरे प्रकार के लोग थोड़े और निश्चिन्त हैं, वे तो ये कहते हैं कि मैं तो कर्म करता हूँ, फल तो भगवान पर छोड़ता हूँ। ये भक्त किस्म के लोग होते हैं और दूसरे किस्म के लोग गृहस्थ हैं और पहले किस्म के लोग अकर्मण्य हैं। अकर्मण्य व्यक्ति कहेगा कि मैं तो कर्म तभी करूँगा जब मुझे फल मिलने की तय कर दो आप। बल्कि मुझे पहले ही फल दे दो फिर देखेंगे, काम तो बाद में करेंगे। पैसा पहले धर दो, तुम्हारा काम हो जावेगा। पैसा रखो पहले। ये क्या है ? ये अकर्मण्यता की तरफ ले जाने वाली प्रक्रिया शरू हो रही है कि नहीं हो रही ? अवार्ड पहले वर्क बाद में। गृहस्थ सिर्फ इतना मानकर कर्म करे कि उसका कर्त्तव्य है। अच्छा करूँगा, अच्छा फल मिलेगा, बुरा करूँगा, बुरा फल मिलेगा। भक्त व्यक्ति थोड़ा और निश्चिन्त रहता है। 


वो कहता है कि मैं तो अपना कर्म करता हूँ, बाकी मैं सब भगवान पर छोड़ता हूँ। वो जाने, हालाँकि भगवान इस प्रपंच में नहीं पड़ता लेकिन मेरी श्रद्धा, मेरी भक्ति मुझे निश्चिन्त करने के लिये यह अच्छा उपाय है कि वो जाने, मैं तो निश्चिन्त हूँ। मुझे चिन्ता करने की कोई बात नहीं, जैसे बच्चे लोग कहते हैं कि भाई मुझे क्या चिन्ता करना, कैसे कमा रहे हैं, क्या कर रहे हैं पिताजी जानें। और चौथे प्रकार के वे हैं जो थोड़े और ज्यादा ज्ञानी हैं। ये कहते हैं कि कर्म मैं करूँगा, मुझे उसके फल की कोई आकांक्षा नहीं है। ऐसा निष्काम कर्म करने वाले तो बहुत बिरले साधुजन जिनको स्थितप्रज्ञ कहते हैं, जो अपने कर्म के फल में समता धारण करते हैं। जो अच्छा फल मिलने पर एक्साइट नहीं होते और बुरा फल मिलने पर डिप्रेस नहीं होते और साम्यभाव से अपना कर्म करते चले जाते हैं। ऐसे बिरले ही हैं। हम भी कभी ऐसा कर्म करके देखें और पाँचवें प्रकार के और हैं जो न कर्म करते हैं और ना कर्म का फल चाहते हैं। जो कहते हैं कि ना तो मैं कर्म करता हूँ, न मुझे कर्म के फल की आकांक्षा है। ऐसे या तो बहुत पहुँचे हैं या एकदम निठल्ले हैं। अब ये डिसाइड कौन करेगा? ये तो उनके अपने परिणाम डिसाइड करेंगे। सांसारिक कार्यों को नहीं करना और उनके फल की आकांक्षा भी नहीं रखना। ये तो बहुत पहुँचा हुआ व्यक्ति ही हो सकता है और या फिर निठल्ला आलसी व्यक्ति हो सकता है जो कि अपने जीवन के लिये कोई कर्म ही ना करे। और उसके फल के प्रति भी अज्ञानी बना रहे। अब हमें इन पाँच में से कौनसा होना है ये विचार स्वयं करना चाहिये। कर्म तो सभी कर रहे हैं, फल की आसक्तिपूर्वक भी कर रहे हैं और सहज भाव से भी कर रहे हैं। 


अच्छा करूँगा तो अच्छा फल मिलेगा और कुछ लोग हैं जो कि कर्म के समय भी समता भाव धारण करते हैं। सबसे बढ़िया तो यही है कि मैं या तो कर्म के फल को भोगते समय समता भाव धारण करूँ और या फिर जो है हमेशा शुभ कर्म करने के लिये तैयार रहूँ। चाहे मेरे खोटे कर्मों का फल मुझे तकलीफ भी पहुँचाये तब भी मैं अपने स्वधर्म में, अपने आत्म कर्म में लगा रहूँ, अपने कर्तव्य का पालन करता रहूँ। या तो ऐसा कर लें और या फिर समता भाव धारण कर लें। तो कर्मों पर विजय आसानी से हो सकती है, थोड़ा सा विचार अब मुझे इस बात पर करना है कि कितने तरह के कर्म हैं जो कि मुझे मेरे जीवन को निर्मित करने में अपना पार्ट अदा करते हैं, उनका अपना कितना हाथ है मेरे इस जीवन में। 


तो कुछ कर्म ऐसे हैं जो कि मेरे शरीर के आकार-प्रकार और रंग-रूप का निर्धारण करते हैं, कुछ कर्म ऐसे हैं जो कि मेरे ऊँचे और नीचे होने का भाव मेरे अन्दर उत्पन्न करने में कारण बनते हैं कि मैं ऊँचा हूँ या कि मैं नीचा हूँ, इसके लिये भी मेरे अन्दर कुछ कर्म हैं जो कि निमित्त बनते हैं। कुछ कर्म हैं जो कि मुझे शरीर में, कितने समय तक किस शरीर में रुके रहना है, इस बात को निर्धारित करने में कारण बनते हैं। ऐसे भी कुछ कर्म हैं जो कि मेरी चेतना को, मेरे आचरण को विकृत करने वाले हैं, उसमें कारण बनते हैं। वो भी कर्म मेरे भीतर हैं । कुछ कर्म हैं जो कि मेरे ज्ञान को ढक लेते हैं, कुछ कर्म हैं जो कि मेरी दृष्टि के मार्ग को ढकने वाले हैं। कुछ कर्म हैं जो मेरे दान, लाभ, भोग, उपभोग तथा मेरी सामर्थ्य में बाधा डालने वाले और कुछ कर्म और हैं जो मेरे सुख और दुःख में कारण बनते हैं। ऐसे आठ प्रकार के कर्म हैं। आचार्य भगवन्तों ने इन्हें नाम दिये हैं। मेरे अपने ज्ञान को ढकने वाला, मेरी अज्ञानता को बढ़ाने वाला ज्ञानावरणी कर्म है। मेरे अपने दृष्टि को कम और ज्यादा बढ़ाने वाला, मेरे अपने सामान्य प्रतिभा को कमजोर करने वाला दर्शनावरणी कर्म है। मेरे सुख-दुःख में निमित्त बनने वाला वेदनीय कर्म है। मेरी चेतना को. मेरी श्रद्धा को. मेरे आचरण को विकत कर देने वाला मोहनीय कर्म है। मझे एक शरीर में निश्चित समय तक रोके रखने वाला मेरा आयु कर्म है और मुझे ऊँचे और नीचे कुल का भान कराने में निमित्त बनने वाला गोत्र कर्म है। मेरे शरीर के आकार-प्रकार, रूप रंग का निर्धारण करने वाला नाम कर्म है और मेरे दान, लाभ, भोग, उपभोग और मेरी सामर्थ्य में बाधा डालने वाला अन्तराय कर्म है। ये कर्म मेरे अपने जीवन में, मैं स्वयं संचित करता हूँ, अपने परिणामों से। ये बहुत फिजिकल नहीं है, बहत भौतिक नहीं है, ये हमारे साथ इन्टरमिगल करते हैं, हमारे साथ ट्रेप हो जाते हैं। ये बहुत भौतिक मालूम पड़ते हैं लेकिन ये बहुत मानसिक, बहुत भावनात्मक कर्म हैं जिनमें कि मेरा अपना पुरुषार्थ काम आता है। मैंने ऐसा पहले जीवन में क्या पुरुषार्थ करा इससे कि मुझे वर्तमान का जीवन मिला। इस पर विचार जरूर करना चाहिये। कर्म सिद्धांत पढ़ने वाले को और ज्यादा विचार ना करे तो इतना तो जरूर करना चाहिये कि मेरी मौजूदा हालत की जिम्मेदारी किसकी है ? मेरी मौजूदा स्थिति के लिये मेरी कौनसी भावदशा जिम्मेदार रही होगी। पहले और आज वर्तमान की भाव दशा कैसी है, जिससे कि मैं अपने आगामी जीवन का निर्धारण अपने हाथ से करूँगा? अगर इतनी बात हमारे ध्यान में रही आये तब समझियेगा कि वाकई में इन कर्मों को ठीक-ठीक समझ लिया है, हमारी कर्म के बारे में अज्ञानता हट गई है। वरना तो इस संसार में कर्मों से पार पाने वाले बहुत बिरले ही हैं। कर्मों से पार पा जाना इतना आसान नहीं है। हमारे ही अपने कर्मों से हम पार नहीं पा पाते। तो देखें एक-एक करके अपन देखेंगे कि कौनसी भाव दशा है जो मेरे इस जीवन के लिये कारण बनी हुई है। मेरे ज्ञान में कमी है। मेरा अज्ञान बहुत है। कोई तो बात होगी। मेरे पास किताब नहीं होगी शायद इसलिये मेरा ज्ञान कम है। मुझे कोई पढ़ाने वाला ठीक नहीं मिला होगा, ठीक इसलिये मेरा ज्ञान कम है। मुझे जरा स्कूल नहीं मिला अच्छा इसलिये मेरा ज्ञान कम है। मुझे कुछ फेसिलिटीज नहीं मिली हैं इसलिये मेरा ज्ञान कम है। बहुत से कारणों पर हमारा ध्यान जाता है। सो ठीक है भैया, किसी के पास पुस्तक नहीं है, पर कई लोग ऐसे भी होते हैं कि जिनके पास पुस्तक नहीं होती फिर भी ज्ञान बहुत होता है। कई लोग ऐसे हैं जिनको कि ठीक-ठाक गुरु नहीं मिला है, द्रोणाचार्य नहीं मिल पाये थे एकलव्य को, लेकिन फिर भी धनुर्विद्या तो उसने सीख ली थी तो फिर मैं कैसे मानूं कि गुरु के नहीं मिलने पर मुझे ज्ञान नहीं होगा या कि किताब के नहीं मिलने से मुझे ज्ञान नहीं हुआ है और या कि मुझे कोई अच्छा स्कूल नहीं मिला, पढ़ने के लिये या बहुत छोटे स्कूल में पढ़ रहा हूँ। आज तो सब यही सोचते हैं कि बड़े स्कूल में पढूंगा, बड़े कॉलेज में पढूँगा, कोई बड़े इन्स्टीट्यूट में पढूंगा तो बहुत ज्ञानवान हो जाऊँगा। सोच तो हमारा यही है, लेकिन ये सारी चीजें बहुत बाहरी हैं। मेरे ज्ञान और अज्ञान को निर्धारित करने वाली ये चीजें नहीं हैं। मेरे भीतर मेरे अपने परिणाम, मेरे ज्ञान और अज्ञान को निर्धारित करते हैं कि कितना मेरे ज्ञान का क्षयोपशम होगा। मेरे अपने परिणाम निर्धारित करते हैं। आचार्य भगवन्तों ने एक सूत्र लिखा ..... “तत्प्रदोष निह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः"। 


ज्ञान पर आवरण और दर्शन पर आवरण लाने वाले उसको कम करने वाले ये जो ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म हैं जो हमारे साथ, हम खुद उनको ट्रेप कर लेते हैं, हम खुद उनको अटेच कर लेते हैं, उनके पीछे भावदशा क्या है ? प्रदोष ? किसी के ज्ञान की कथा करते समय, जैसे कि ज्ञान की चर्चा चल रही है, बैठे-बैठे सुन तो रहे हैं, लेकिन भीतर ही भीतर ईर्ष्या का भाव है, कोई ज्ञान की अच्छी बातें कर रहा है और उसकी बातें सुन भी रहे हैं लेकिन प्रशंसा का तो एक शब्द मुँह से नहीं निकला है और ना मन में प्रशसा का भाव है बल्कि उल्टा मन में ईर्ष्या का भाव चल रहा है अगर, तो मानियेगा कि हमारे ज्ञान को हम अपने हाथ से खुद ढक रहे हैं। अपने अज्ञान का इजाफा हम खुद अपने हाथ से बढ़ा रहे हैं। जबकि कुछ भी नहीं देखने में आ रहा है कि क्या कर रहे हैं। कुछ तो नहीं किया मैंने। मैं तो धर्म सभा में बढिया बैठा था। मैं तो सनने गया था. ज्ञान की बातें. लेकिन मेरा अज्ञान और बढ़ गया। बढ़ेगा कैसे नहीं क्योंकि भाव दशा तो उस ज्ञान की कथा के समय, ज्ञान की कथा करने वाले से और उस सच्चे ज्ञान से आपके मन में ईर्ष्या का भाव था। 

जहाँ प्रशंसा की जानी चाहिये थी ज्ञान की, हमने ज्ञान की प्रशंसा नहीं करी बल्कि उससे हमने द्वेष और कर लिया। हमारा ज्ञान ढक गया। हमारे अज्ञान में बल्कि और बढ़ोतरी हो गयी। किसी कारणवश किसी बहाने में “नहीं हैं", "मैं नहीं जानता हूँ," ऐसा कह देना पुस्तक और गुरु के बारे में, पुस्तक माँगने पर कहना कि “नहीं है", पूछने पर कहना कि “मुझे नहीं मालूम।" आपने यह ज्ञान कैसे प्राप्त किया, बड़ा अच्छा ज्ञान है आपका। मैंने खुद अपने द्वारा अर्जित किया है। अपने गुरु के प्रति जिनसे कि ज्ञान सीखा है, एक अक्षर भी जिससे सीखा है उसके प्रति हमारे मन में जिस गुरु से ज्ञान हासिल किया है उसका नाम छिपाने की कोशिश मत करना। मन में ऐसा भाव तक नहीं लाना, वरना हमारे ही ज्ञान में कमी आती है। 


आचार्य महाराज तो सुनाते हैं कोई घटना, कि किसी महाराज के जीवन में ऐसा हुआ कि उनका ज्ञान का क्षयोपशम इतना बढ़ गया कि गुरुजी से भी ज्यादा हो गया। अब उनको इस बात में शर्म आने लगी, लोग पूछते थे जबकि आपका इतना उत्कृष्ट ज्ञान ? तो उनको इस बात में शर्म आने लगी कि कैसे कहें कि इन गुरुजी से सीखा। वो तो बिल्कुल ही बद्ध हैं। उनका नाम बताकर हमें क्या मिलने वाला है ? नहीं मैंने अपने आप. मैंने अपने पुरुषार्थ से इस ज्ञान को अर्जित किया है। ऐसा अहंकार उनके भीतर आ गया और अपने गुरु का नाम छिपा लिया और गुरु के प्रति अविनय का भाव आ गया। उसका परिणाम उनके जीवन में ही देखने में आ गया कि इतना कुन्दन सा शरीर था, धीरे-धीरे पूरा काला (ब्लेकिश) होता चला गया। थोड़ी असावधानी हो गयी इसलिये ऐसी स्थिति बन गयी लेकिन जैसे ही उनके शरीर में परिवर्तन होना शुरू हआ. उनका ध्यान चला गया और उनको अपनी गलती का अहसास हुआ। तो कहते हैं कि अत्यन्त पश्चाताप किया। गुरु के चरणों में जाकर माफी माँगी और कहते हैं कि कुछ दिनों के अन्दर उनका शरीर ज्यों का त्यों हो गया। भैया, अपने किये हुए कर्मों का तुरन्त भी परिणाम मिलता है और दूरगामी परिणाम भी होता है, बहुत सावधानी की आवश्यकता है। अरे भाई अपन ने ज्ञान हासिल कर लिया है तो जिस पुस्तक से हासिल किया है, जिन गुरुजनों के चरणों में बैठकर हासिल किया है, उनके प्रति आदर और उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने में अपना क्या जा रहा है, लेकिन उन क्षणों में मेरा अहंकार मुझे शांत नहीं बैठने देता। मुझे याद है कुछ सतना वाले आकर बैठे हैं और उन्हीं के सतना में जब हम सन् बानवे में चतुर्मास करने गये थे तब इतवार के दिन प्रश्नोत्तरी आहार के बाद होती थी और सैकड़ों लोग बैठे हुये हैं और प्रश्नोत्तरी के दौरान एक के बाद एक प्रश्न आते चले जा रहे हैं और मैं जवाब देता चला जा रहा हूँ आचार्य महाराज का स्मरण करके, और एक प्रश्न उस बीच में ऐसा आया कि अद्भुत है आपका ज्ञान, इस क्षण में तो ऐसा  लग रहा है कि जैसे आपकी जिह्वा पर सरस्वती आकर बैठ गयी हो और उसे पढ़कर के मेरे मन में भी तीस सैकण्ड के लिये यह विचार आ गया कि सचमुच मेरे पास ज्ञान की अच्छी सामर्थ्य है और आप आश्चर्य करेंगे कि अगले वाले प्रश्न का उत्तर जबकि मुझे 2-5 सैकण्ड से ज्यादा नहीं लगते लेकिन एक मिनट तक मुझे अगले वाले प्रश्न का उत्तर नहीं सूझा और अगले ही क्षण मेरे मन में आया कि ये क्या कर रहा हूँ। मैं तो आचार्य श्री का आशीर्वाद लेकर गद्दी पर बैठा हुआ हूँ। मैं थोड़े ही उत्तर दे रहा हूँ, उत्तर तो वो ही दे रहे हैं। जैसे ही ये भाव आया और उसके बाद प्रश्न के उत्तर ज्यों के त्यों बनने लगे।

 
मैंने अपने जीवन में ऐसा कई-कई बार अनुभव किया है। मैं आपको ये इसलिये कह रहा हूँ कि कभी भी अपने छोटे-छोटे क्षयोपशम ज्ञान के अहंकार में, अपने गुरु या कि अपने किसी शास्त्र से जिससे कि हमने यह सारी विद्या हासिल की है, उसका नाम छिपाने का प्रयत्न नहीं करना। ना अपने बच्चों को ऐसी सलाह देना, बल्कि विद्या तो बाँटने से बढ़ती है। दो ही चीजें हैं संसार में जो बाँटने से घटती नहीं हैं। ज्ञान या कि प्रेम कितना ही बाँटो, बढ़ता चला जाता है। इनमें कभी भी जो है और अहंकार नहीं करना। मात्सर्य-देने योग्य ज्ञान को नहीं देना, जानते हुये भी देने से इन्कार कर देना। भीतर कौनसा भाव है। कलुषता का भाव है कि मेरे ज्ञान दे देने से इसका बढ़ जायेगा। ये मेरे से आगे न निकल जायें। ऐसा करते हैं बच्चे, अपनी पोजिशन बनाने के लिये और दूसरे को बुक नहीं देंगे, दूसरों को बताएंगे नहीं अपनी प्रोब्लम्स, सामान्य पढ़ाई में भी। ये तो फिर तत्व ज्ञान की बात है। तत्त्व ज्ञान के समय अगर कोई ऐसा करे तब तो भारी अज्ञानता का ही कारण है। आगे भी अज्ञानता ही हाथ में आने वाली है, इसलिये भैया जब भी कोई बात अपन को मालूम है, तत्त्व की बात है, और कोई पूछे तो इन्कार नहीं करना, देने योग्य ज्ञान है और पाने वाला भी उसकी योग्यता रखता है तो मन में कलुषता रखकर के, इसको क्यों बताऊँ ? इसका ज्ञान बढ़ जाएगा, ऐसा भाव रख करके बताने से इन्कार नहीं करना। जब भी कोई चाहे, हाँ भैया आपके कल्याण की, करुणापूर्वक उसको दो बातें कह देना, तो ही अपना ज्ञान बढ़ेगा। आज मैं इसलिये कह रहा हूँ कि आज अपन को अगर ज्ञान नहीं है तो उसका कारण क्या है ? मैंने कभी ऐसे खोटे भाव किये होंगे जिससे कि मेरा अज्ञान तो ज्यादा है, ज्ञान कमती है। हम अब रोना नहीं रो सकते कि मेरी अज्ञानता क्यों है। अगर रोना ही हो तो अपने पुराने परिणामों पर रोयें हम कि कैसे खोटे परिणाम किये होंगे जिससे कि मेरा ज्ञान इतना अल्प है। मुझे अपने कल्याण की बात ही नहीं सूझती। मैं उस ज्ञान की बात कर रहा हूँ नहीं तो ऐसा वाला ज्ञान नहीं है। ऐसा वाला ज्ञान तो बहुत लोगों के पास है। ऐसा ज्ञान जिससे कल्याण की बात सूझे वो है ज्ञान। दुनिया भर की जानकारी हासिल करने वाला क्षयोपशम कोई ज्यादा काम का नहीं है। क्षयोपशम वो है जिससे कि सारभूत जो चीजें हैं उनको जानने की सामर्थ्य प्राप्त हो। ऐसे ज्ञान की बात जिसके जानने के बाद मैं अपने कल्याण की बात जानने के लिये उत्सुक हो जाऊँ। संसार को जानने के लिये तो बहुत लोगों के पास बहुत सारा ज्ञान है, वो ज्ञान नहीं। मैं अपने सारभूत तत्व को जानने के लिये, उस ज्ञान का सदुपयोग क्यों नहीं कर पा रहा हूँ। मैंने ऐसे कौनसे खोटे भाव किये होंगे जिनसे कि मेरा इन चीजों में ज्ञान नहीं जाता है, किताब पढ़ने को कहें अगर धर्म की तो मन नहीं लगेगा और अगर कोई पत्रिका अभी खींचकर के बैठ जाएँ तो जब तक पूरी ना हो जाए तब तक छोड़ें नहीं। और अगर अपने कल्याण की दो लाइनें लिखी हुई हैं तो उसमें मन नहीं लगेगा, उठकर के चले जाएंगे, ये क्या चीज है ? कौनसे ऐसे परिणाम मैंने खोटे किये होंगे पहले जिससे कि मेरी संसार के प्रपन्च को जानने में तो बहुत रुचि होती है और इन चीजों को जानने में जिनसे कि मेरा कल्याण है, अरुचि हो जाती है।


मैंने पहले मात्सर्य किया होगा। सच्चे ज्ञान को देने में मैंने कोताही की होगी, कंजूसी की होगी। इसीलिये आज मुझे सच्चा ज्ञान पाने में और मुश्किल पड़ रही है। “तत्प्रदोष निह्नवमात्सर्यान्तराया" ज्ञान और ध्यान के साधनों में बाधा डालना। ये भी अपन वर्तमान में विचार करें कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं दूसरे के सच्चे ज्ञान में बाधा डाल रहा हूँ। बच्चे तो कह रहे हैं कि हम जा रहे हैं। वहाँ पर प्रवचन सुनेंगे। “हाँ सुनो प्रवचन, फेल हो जाओगे, घर से बाहर कर दूंगा”। पढ़ना-लिखना है नहीं बस वहीं पर जा रहे हैं, सुनने के लिये महाराज के पास जा रहे हैं। अरे वाह ! सच्चे ज्ञान के लिये तो आप रोक रहे हैं और संसार का ज्ञान बढ़ाने के लिये कह रहे हैं। “एक जीव की जीविका एक जीव का उद्धार।" एक से सिर्फ जिससे आजीविका चलने वाली है वो ज्ञान तो खूब देवो, जिससे जीवन का उद्धार हो उस ज्ञान में बाधा डालो। इससे जो है मेरा ही अज्ञान बढ़ेगा। मेरे ही ज्ञान को ढकने वाला काम कर रहा हूँ मैं। अगर कोई सम्यक् ज्ञान की प्राप्ति के लिये लालायित है तो कभी उसमें बाधा मत डालना। हमारी दादी हमें दस पैसे देती थीं, अपनी अलमारी साफ करवाने के लिये। हाँ यहाँ पर हैं एक अम्माजी। बिल्कुल दादी जैसी लगती हैं उनको देखकर मुझे याद भी आ जाती है, दादी की, मैंने उनसे कहा भी था। ..... तो उनकी आदत थी, “हे भैया! हमारी अलमारी कौन साफ करेगा।" उसमें सब धर्म के ग्रन्थ रखे रहते थे और वो हर हफ्ते उनकी अलमारी साफ करने के लिये लालच देतीं। दस पैसे ले लो। हम कहते थे, हम करेंगे क्योंकि दस पैसे बहुत होते थे उस समय में, सन् 70 और 71 की बात है। तो हम दस पैसे के लिये अलमारी साफ करते। साफ करते-करते, वो पहले बहुत छोटी-छोटी किताबें चलती थीं, छोटी सी किताब 'दादी हम ले लें'। “हाँ ले लो ...... ले लो, तुम तो ले लो।" वो चाहती यही थीं। दस पैसे के लालच में धर्म की किताबें 
उठायेगा, पलटेगा, धरेगा, सम्पर्क में आयेगा पता नहीं। कौनसी चीज इसके लिये अच्छी लग जावे सो अपने बस्ते में रख लेगा। बस्ते में रखेगा तो एक दिन खोलकर पढ़ेगा और चार लाइनें अगर धर्म की पढ़ लीं तो इसका कल्याण हो जाएगा, बस ये ललक है, अपने भीतर यह नहीं है, आज मैं यह कहना चाह रहा हूँ। अपने बच्चों के प्रति और अपने परिवारजनों के प्रति कितनी ललक है, अपने भीतर कि चार लाइनें पढ़ लेगा अपने कल्याण की, तो इसका कल्याण हो जाएगा। इसको कौनसा उपाय करूँ जिससे थोड़ा सा समय अपने कल्याण की बातें सीखने में भी लगाये। मन दिन भर लगा रहता है संसार की चीजें जानने के लिये। डिस्कवरी चैनल पर दो घण्टे से बैठा हुआ है। लेकिन डिस्कवर करना है अपने आपको, अपनी चेतना को, इसके लिये क्या कोई समय नहीं है। ठीक है वो नालेज खराब नहीं है भैया, लेकिन उसके साथ इसका कॉम्बीनेशन भी तो होना चाहिये। इस आत्म-ज्ञान की ललक भी तो होनी चाहिये, नहीं तो कल के दिन हमारा अज्ञान बढ़ता चला जाएगा। आप यह नहीं सोचना कि आज वर्तमान में बहुत बच्चे ज्ञानवान हैं, बहुत बातें जानते हैं। कितना क्षयोपशम है, कितना बढ़िया है इनका। इस प्रकार के क्षयोपशम की बात नहीं कर रहा हूँ मैं। ऐसा क्षयोपशम तो बहुत मिल जाएगा मुफ्त (फोकट) में। ज्ञान का वो क्षयोपशम जिससे हम रिलेवेन्ट रिएलिटी को जान सकें, जो सारभूत सच्चाई है उसको जान सकें। और सारभूत सच्चाई तो सात तत्व ही हैं। इनको जानने में हमें जो सामर्थ्य प्राप्त होती है उस सामर्थ्य को प्राप्त करने के लिये परिणाम सँभालना चाहिये। 


और दो कारण और बचे - असादना और उपघात। ज्ञान का अनादर कर देना और ज्ञानी का अनादर कर देना। वाणी से और शरीर से; वचनिका चल रही है। कोई बात अच्छी लग भी रही है, लेकिन उसे कुछ नहीं आता है। ऐसा कह देना। तत्त्व की तो चर्चा ही नहीं करी। ये लो, इत्ते ही में वाणी से या शरीर से, वहाँ मन में ईर्ष्या करी थी। प्रदोष में और यहाँ वाणी और शरीर से असादना कर दी। बाजू वाले से चर्चा में लग गये, अच्छी वचनिका चल रही है लेकिन अपन बाजू वाले से सटे हैं। हाँ उसमें लिखा हुआ है कि धर्म चर्चा करते समय दो लोग आपस में इशारा करें या वाणी से कुछ कहना शुरू कर देवें तो समझना यही तो असादना है ज्ञान की। ये बहुत हो जाती है देख लो आप। और उपघात, सच्चे ज्ञान का नाश ही कर देना, अर्थात् उसे अज्ञान कह देना यह उपघात है। जो धर्म की बात है उसको तो अज्ञान कह देना और जो संसार बढ़ाने वाली बात है, इसकी। यह ज्ञान है ऐसा कह देना। सम्यक् ज्ञान को तो ज्ञान नहीं कहेंगे और मिथ्या ज्ञान को ज्ञान कह रहे हैं। इस तरह हमने सम्यक् ज्ञान की प्रशंसा नहीं की और उसकी आसादना के साथ-साथ उपघात कर दिया, उसका नाश ही कर दिया। पहले तो उसका अनादर किया और बाद में उसको नष्ट कर दिया। अब बताइयेगा कि हमें अपने जीवन में कैसे सच्चा ज्ञान प्राप्त होगा। तो भैया अगर हमें सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है तो उसकी जिम्मेदारी किसी किताब की नहीं है. किसी गरु की नहीं है और ना किसी स्कल और कॉलेज की है। इसकी जिम्मेदारी मेरे अपने भावों की है, मुझे अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिये। मेरे अपने परिणाम मुझे इन सब चीजों से वंचित रखते हैं और यदि मैं अपने परिणाम सँभाल लूँ तो ये सच्चा ज्ञान और सच्चा ज्ञान पाने की सामर्थ्य मेरे भीतर है। मैं उस सामर्थ्य को बढ़ा सकता हूँ| उस सामर्थ्य को ढकने वाले जो भाव हैं, उन सबसे मैं बचूँऐसे कर्म न करूँ जिससे कि मेरा सच्चा ज्ञान ढकने की सामर्थ्य, अनन्त ज्ञान की सामर्थ्य मेरी ढक जावे। मैं अब अपने परिणाम सँभाल करके अपनी उस अनन्त ज्ञान की सामर्थ्य को प्रकट करूँ। ऐसे कर्म करूं जिससे कि मुझे ऐसी सामर्थ्य प्राप्त हो। 


इसी भावना के साथ बोलो आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज की जय। 
००० 

 

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