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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

कर्म कैसे करें? भाग -6


Vidyasagar.Guru

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हम सभी एक बात बहुत अच्छी तरह से पिछले दिनों समझ गये हैं कि हम यहाँ निरन्तर नये-नये कार्य करते हैं और अपने किये कर्मों का फल भी चखते हैं और आगे के लिये नये कर्म का संचय भी करते हैं। संसार में कोई भी ऐसा नहीं है, देह को धारण करने वाला जिसे कि कर्म का बन्धन ना हो, चाहे साधु हो या कि एक सामान्य गृहस्थ हो, सभी के जीवन में कर्म बंधन निरन्तर चलता रहता है। हम जब चाहें कि अब हमें कर्म नहीं बाँधना है, तो हमारे चाहने से कर्म का बंधन रुक नहीं सकता। ठीक ऐसे ही जैसे कि एक बार किसी से कर्ज ले लिया, उधार ले लिया तो अब चाहे दिन हो चाहे रात हो, इसका ब्याज निरन्तर बढ़ता ही जायेगा। हम चाहकर के भी उसको रोक नहीं सकते। ठीक ऐसे ही यह कर्म की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। जैसे - बेटा स्कूल से लौटकर आता है, और जल्दी से बस्ता रख और खेलने के लिये दौड़ लगाता है तो माँ पकड़ लेती है, ‘खाना खाकर जाओ फिर बाद में खेलना।' उसको तो खेल की लगी हुई है वो कहता है 'नहीं खाना खाना', तो फिर सुनो 'दूध पीकर जाओ'। जिसको खेल खेलना है उसे कहाँ दूध पीने की फुरसत है। उसको दूध भी नहीं पीना तो फिर कान पकड़ लेती है कि तुम खेलने जाओ मैं मना नहीं करती लेकिन दो में से एक कुछ करना पड़ेगा। या तो खाना खाकर जाओ या कि दूध पीकर जाओ लेकिन बिना उसके तो नहीं जाने दूंगी। 


कर्म बंध की प्रक्रिया भी ऐसी ही है। करना तो पड़ेगा या तो खाना खाके जाओ या कि दूध पीकर जाओ। कर्म तो बँधेगे या तो शुभ कर्म बँधेगे या कि अशुभ कर्म बंधेगे। दो में से एक तो बाँधना ही पड़ेगा। कर्म ना बँधे यह तो बहुत मुश्किल है। जब तक देह धारण करी है तब तक तो कर्मों के बंधन से मुक्ति इतनी आसान नहीं है पर इतनी च्वाइस हमारी है कि हमें शुभ-बाँधना है कि अशुभ बाँधना है। यह हमारी च्वाइस है और हमें इसका लाभ उठाना चाहिये। 


जब कर्म बाँधना ही है, हम कुछ ना कुछ कर्म करते हैं, जिससे कि हमारे जैसे परिणाम बनते हैं वैसे नये कर्म हमारे अन्दर संचित होते हैं। जब ये क्रिया निरन्तर चल ही रही है तो फिर अब मेरा अपना कौशल है, मेरी अपनी दक्षता है, मेरी अपनी आर्ट है। मेरी अपनी टेक्नोलॉजी है कि मैं इससे क्या चाहता हूँ। मेरी च्वाइस क्या है। मैं शुभ को चाहता हूँ कि अशुभ को चाहता हूँ। मैं जैसा चाहूँ, वैसा बाँध सकता हूँ। और भैया कर्म बंध की प्रक्रिया को जीतने का यही उपाय है। मैं मनुष्य हूँ तो यदि देव नहीं बन पाता हूँ तो कम से कम ऐसा तो करूँ कि मनुष्य ही रह आऊँ, ऐसा तो न करूँ कि जिससे मैं पशुता पर उतर जाऊँ। ये तो मेरा विवेक है तो मुझे अगर कर्म बाँधने ही हैं तो ऐसे बाँधूं जिससे कि देवत्व को प्राप्त करूँ। ऐसे बाँधूं, कि कम से कम अपने भीतर की मनुष्यता तो बरकरार बनी रहे। ऐसे खोटे कर्म तो नहीं बाँधूं जिससे कि मुझे पशुता की तरफ या नरक की तरफ उतरना पड़े। बस, हमें अब अपने कर्मों को जीतने के लिये प्रक्रिया करनी है। संसार के घात प्रतिघात से बचने का नाम यही है कि संसार के जो घात-प्रतिघात हैं वे मुझे निरन्तर अशुभ में ले जाते हैं। मैं संसार के घात-प्रतिघात से बचके, परोपकार में लग जाऊँ, कर्मों को जीतने का तीसरा उपाय ये हमारे हाथ में है। 

 

पहला उपाय कल हमने विचार किया था। दो उपायों पर हमने विचार किया था कि बाह्य वातावरण से जितनी जल्दी हो सके सामंजस्य बिठा लेना चाहिये। कम्प्रोमाइज और एडजस्टमेन्ट करके आगे बढ़ जाना चाहिये। कौन पड़े झगड़े में। “मैं सबकी सब बातें चुपचाप मान लेता हूँ, लोग कहते हैं सब बातें चुपचाप मानते जाना कमजोरी है, सो मैं उनकी यह बात भी मान लेता है। क्या करूँ, मैं कमजोर हूँ, मेरे से व्यर्थ लड़ा नहीं जाता।" ये एक बार हमारे जीवन का सूत्र बना लेवें, ऐसी कमजोरी हमें स्वीकार है। कम से कम व्यर्थ के घात-प्रतिघात से तो बच जायेंगे। तो पहला उपाय कर्मों को जीतने का यही था और दूसरा था कि प्रतिक्रिया से बच तो पाता नहीं हैं। प्रतिक्रिया तो करनी ही पडती है। लेकिन मेरी प्रतिक्रिया कम से कम हो और जितनी भी हो वो सब पोजिटिव हो। सकारात्मक हो, रचनात्मक हो, कन्सट्रक्टिव हो। किसी की उससे हानि ना हो। मैं प्रतिक्रिया इस तरह की करूँ और तीसरी कर्मों को जीतने की प्रक्रिया है कि मैं देखू कि मेरे कार्यो की जिम्मेदारी तो मुझ पर है पर उसमें से शुभ को चुनना है कि अशुभ को। तो दिन भर में, मैं ज्यादा से ज्यादा शुभ कर्मों को चुनें। जो मुझे करना है वो शुभ ही करूँ और अशुभ से बचूँ। संसार के घात-प्रतिघात में तो सिर्फ अशुभ की तरफ ही बैठना होता है, उसको जरा अपन समझेंगे कि क्या है संसार का घात और प्रतिघात। अभी पहले यह समझ लें कि मैं अपने कर्मों को कैसे शुभ करूँ और कैसे अशुभ कर्मों से बचूँ। 


जैसे ही अगर हम अशुभ कर्म से नहीं भी बच पा रहे हैं और यदि हम शुभ कर्म करना शुरू कर देते हैं तो अशुभ कर्मों का दबाव अपने आप कम होने लगता है और शुभ डोमिनेट हो जाता है। अगर मुझे अपने शुभ कर्मों को बढ़ाना है तो फिर मैं जब भी विचार करूँ तो दूसरे के हित का विचार करूँ। ऐसा विचार न करूँ जिससे कि बैर, विरोध, कलह और असंतोष बढे। मैं अगर बोलँ तो ऐसी वाणी बोलँ जिससे कि दसरे का और मेरा अहित ना हो जिससे कि वातावरण में क्षोभ उत्पन्न ना हो। मैं अगर शरीर से कोई क्रिया करूँ या कि जितने भी मुझे साधन मिले हैं, उन सबका ऐसा उपयोग करूँ जिससे कि मेरे आस-पास के परिवेश में और अव्यवस्था ना फैले, मिसमेनेज ना हो; मेरे अपने शरीर से और मेरे अपने उपयोग में आने वाले साधनों से। क्या मैं इस तरह से अपने वर्तमान के कर्मों को एक दिशा दे सकता हूँ ? दे सकता हूँ। अगर ध्यान में बना रहे तो फौरन हम अपने मन, वाणी और शरीर के द्वारा शुभ क्रियाओं को बढ़ावा दें। शुभ क्रियाओं को बढ़ावा देने से अशुभ का दबाव हमारे ऊपर से कम होता चला जाता है। अगर किसी बच्चे की संगति खोटी हो जाती है तो हम क्या उपाय करते हैं? उसे खोटी संगति से बचाने का उपाय नहीं करते, उसको कहीं ना कहीं किसी दूसरी जगह लगा देते हैं। बिगड़ रहा है, ब्याह कर दो। हो सकता है सँभल जावे। क्या मतलब, क्या मतलब हुआ ? अशुभ से बचाव का एक ही उपाय है कि मैं उसको कहीं शुभ में लगा दूँ। मैं उसको कहीं एंगेज कर दूं भैया ! ऐसी ही जुगत अपने भीतर भी करनी पड़ेगी। अपने मन की कुटेव को सुधारने का यही उपाय है वो तो बार-बार वहीं जाता है। 


आचार्य महाराज ने लिखा है कि इस मन की क्या कहें, इसकी चाल तो श्वान के समान है, कितनी ही बढ़िया-बढ़िया चीजें खिलाओ, लेकिन आखरी में जाकर के नाली का पानी पीता और गन्दगी खाता है। इस मन की कुटेव है यह। इस मन की चाल है। 


ये हमेशा अशुभ के संस्कार से ग्रसित है, इसलिये अशुभ में जाता है। उपाय इसको बचाने का यही है अब; जंजीर से बाँध के तो किसी को रखा जा सकता है लेकिन मन को तो नहीं जंजीर से बाँध के रखा जा सकता है। तो इसको बाँधने का उपाय सिर्फ यही है कि मैं इसको शभ कार्यों में लगाये रहँ। ये सारे जो भी अपन विभिन्न अवसर आते हैं उन सब में जो धर्मध्यान करने की शुरूआत करते हैं, उसका उद्देश्य क्या था ? अपने कर्मों को जीतने का उद्देश्य ही था कि मैं जितना ज्यादा से ज्यादा शुभ कार्यों में लगा रहूँगा उतना ही मैं अशुभ से बच गया। घंटे भर यहाँ बैठे हैं संसार के प्रपंच से अपने आप बच गये। कहना नहीं पड़ा कि मैं एक घण्टे के लिये संसार छोड़ता हूँ। कह के आये क्या ? कोई नहीं कह के आया होगा, कम्पाउण्ड के भीतर - “मैं तो घण्टे भर प्रवचन सुनने जा रहा हूँ।" मैं प्रवचन सुन रहा हूँ इसका मतलब है कि मेरा संसार का प्रपंच छूट गया है, इसीलिये सबसे अच्छा उपाय है कि अगर जब मुझे कर्म करना ही है तब फिर मैं उसमें से शुभ को चुनूँ और अधिक से अधिक समय अपना शुभ कार्य में लगाऊँ। परोपकार के कार्य में लगाऊँ। “योगः कर्म सुकौशलम् । कर्म की कुशलता ही है योग, ऐसा लिखा हुआ है, वो कर्मों की कुशलता क्या है, यह जरा समझ लें। जैसे भैया किसी की आँख न हो तो क्या उसको देख करके हम अपनी आँख फोड़ लेते हैं क्या ? किसी का हाथ ना हो तो क्या अपना हाथ तोड़ लेते हैं, किसी के पैर ना हो तो क्या अपना पैर तोड़ लेते हैं? ऐसा तो कोई नहीं करता, तो फिर दूसरे को गुस्सा आता है तो हम क्यों गुस्सा करते हैं ? अब आ गया, समझ में, आना बड़ा कठिन है इतना ही है। घात-प्रतिघात से बचने का उपाय यही है कि मैं जरा सा तो विचार करूँ कि जब मैं दूसरे की आँख फूटी देखकर अपनी नहीं फोड़ता हूँ तो दूसरे को गुस्सा करते देखकर के गुस्सा क्यों करता हैं। दूसरे को गाली देता देखकर के मैं भी क्यों गाली देने लगता हूँ ? इतनी छोटी सी चीज, इस अशुभ की प्रवृत्ति से बचने के लिये ऐसा विचार अनिवार्य है कि जैसे मैं दूसरे को कुएँ में गिरते देखकर स्वयं नहीं गिरता हूँ। मैं तो बच जाता हूँ। वरना लोगों को यह लगता है कि अरे, कुछ नहीं रखा इन बातों में, मैं इसलिये कर रहा हूँ कि दुनिया तो कर रही है, कौन अपन ही अकेले कर रहे हैं। तो फिर अपने हाथ से अपना पतन करना है और सबकी तरफ ना देखकर के और अपनी तरफ देखने की प्रक्रिया की कि मैंने दिन भर में क्या कमाया। मैंने मनुष्य होने के लिये पहले कुछ कमाया होगा, सो आज मनुष्य हूँ। आगे की मेरी तैयारी क्या है, या तो पशुता की तरफ जाऊँ या कि नरक में जाऊँ, या कि देवत्व की तरफ ऊँचा उठू। 


ये अगर हमारे मन में विचार आ जावें तो फिर हम आसानी से परोपकार या कि शुभ कार्यों में अपने मन को लगा सकते हैं। दूसरी चीज, क्या होता है परोपकार करने से और शुभ कार्य करने से। एक बार तो गलती कर ली और फिर उसके बाद में कुछ प्रायश्चित्त इत्यादि करने से होगा क्या? बहुत कुछ होता है। सांसारिक कार्यों में लगा हुआ व्यक्ति अपने पूर्व संचित कर्मों का दुरुपयोग करके आगामी जीवन के लिये और पाप कार्यों को कमाता है और परमार्थ के कार्यों में, परोपकार के कार्यों में लगा हुआ व्यक्ति अपने पूर्व संचित कर्मों को जो शुभ हैं, उनको बढ़ा लेता है और अशुभ कर्मों को घटा लेता है। दोनों ही कर रहे हैं कार्य। आप चाहे सांसारिक कार्य करें या कि पारमार्थिक कार्य करें। सांसारिक कार्य करने वाले को लगता जरूरत है अपन को कि कितना ऐशो-आराम है, सो ठीक है, आगे के लिये कर्मों की स्थिति इतनी प्रबल बँधेगी और इतने समय के लिये बँधेगी कि अभी दिखाई नहीं पड़ेगी। अभी तो जो व्यक्ति बेईमानी कर रहा है, फलता-फूलता नजर आता है, इसके माइने यह नहीं है कि यह बेईमानी का फल है, ये किसी पुरानी ईमानदारी का फल है और होता क्या है, जब हम वर्तमान में बेईमानी करते हैं, अशुभ कर्म करते हैं तो हमारे भीतर अशुभ कर्मों की ड्यूरेशन और पोटेशिलिटी दोनों बढ़ जाती हैं और जितनी ड्यूरेशन होगी उतने समय के बाद वह अपना फल देना शुरू करेगा। इसलिये अभी बाँधे गये अशुभ कर्म तुरन्त दिखाई नहीं पड़ते। बहत देर के बाद आयेंगे सो भैया फलते-फूलते दिखाई देते हैं और कर रहे हैं बेईमानी, और एक आदमी जो कि बिल्कुल ईमानदारी से जीवन जी रहा है वह शुभ कर्मों को बहुत डोमिनेट होकर बाँध रहा है, वे देर से उदय में आयेंगे, अभी शुभ उदय में नहीं आ रहा है, लेकिन जो पड़े हुए अशुभ हैं उनकी उदीरणा होकर के समय से पहले उदय में आकर के खिर रहे हैं सो तकलीफ में दिखाई पड़ रहा है। ईमानदार आदमी जब भी तकलीफ में दिखाई पड़े तो समझना इसने तो अपना हिसाब चुकता करना शुरू कर दिया और बेईमान आदमी फलता-फूलता दिखाई पड़े तो समझ लेना कि संसार बढ़ रहा है। भगवान् रुष्ट हैं कि भोग-विलास की सामग्री फैलाकर के इसको संसार में भटका रहे हैं, और यदि इसकी भोग-विलास की सामग्री छीन ली तो अब इसका संसार अल्प रह गया लगता है। यही प्रक्रिया है।

 
जब भी हम विचार करें शुभ और अशुभ का और वर्तमान को देखकर के उससे मिलान करें तो ध्यान रखना शुभ का फल शुभ ही है, अशुभ का फल कभी शुभ नहीं हो सकता और कभी शुभ का फल अशुभ भी नहीं हो सकता। ये चीज हमारे मन में हमेशा ध्यान में रहे और हम शुभ की तरफ आगे बढ़ते चले जायें। एक छोटा सा उदाहरण अपन देखेंगे और आज अपनी बात कर्मों को जीतने की इतनी हो जाएगी। कल तो सामान्य से विषय पर अपन चर्चा करेंगे और फिर इसको कन्टीन्यू करेंगे। इस प्रक्रिया को एक दिन का गेप भी होना चाहिये। एक दिन का गेप मतलब कल किसी जनरल विषय पर। सण्डे है कल, अपन सण्डे करेंगे। अपन आज इतनी चीज और समझ लेवें। देखो ! अपन बैठे हैं, समझने के लिये बैठे हैं, मुझे सब कुछ समझ में आ गया हो ऐसा बिल्कुल मत मानना। मुझे भी उतना ही समझ में आया। समझ में जिसको आता है वो जब तक अपने जीवन में उसको नहीं कर लेवे तब तक उसकी वो समझदारी उसके किसी काम की नहीं है। 


समझ तो बहुत लोगों के पास है अपन तो यह समझने के लिए बैठे हैं कि क्या-क्या और कैसे कर लेवें जिससे अपना काम हो जावे । बाकी पण्डिताई-वण्डिताई तो छोड़ो। विद्वता तो बहुत लोगों के पास है। इसलिये ये मानकर के कि मैं इतनी बातों में से क्या कर पाऊँगा, कितना जीवन में पोसिबल है, बस वो शुरू करता हूँ। आज ही से शुरू करता हूँ फिर अगली बार फिर देखेंगे। अभी इसी जीवन में थोड़े ही मोक्ष होने वाला है। अगले बार करेंगे, फिर मेहनत करेंगे थोड़ी, तब होवेगा। 


क्या हुआ ? एक भविष्यवाणी हुई कि ये जो राजा का बेटा है, इसको, राज सिंहासन मिलेगा और दूसरा एक मंत्री का बेटा था तो कहते हैं कि इसका भविष्य ऐसा है कि इसको शूली लगेगी। दोनों ने सुना। राजा के बेटे को आ गया अहंकार कि देखा मेरा पुण्य और अब तो मैं राजा बन ही जाऊँगा और जनाब ने अपनी सत्ता और सम्पत्ति का दुरुपयोग शुरू कर दिया। ऐशो-आराम जो कुछ भी हो सकती थी, बुरी आदतें, वो अब शुरू कर दीं। अब तो राजा बनूँगा। भविष्यवाणी हो गई राजा बनूँगा और दूसरे मंत्री के पुत्र ने कहा कि शूली लगेगी। इसका मतलब ये है कि मैं कुछ गलत नहीं करूँगा। सावधानी बरतनी है और वो फूंक-फूंक के कदम रखने लगा और दूसरे जनाब लड़खड़ाके चलने लगे। ठीक, समझ गये आप। इतना तो सब समझते हैं और स्थिति क्या हुई वो दिन आ गया। दोनों ने कहा कि अभी तक तो हमारे जीवन में न इसको गद्दी मिली और न इसको शूली लगी। चल के देखते हैं, आज आखिरी दिन है, पूछते हैं ज्योतिषी महाराज से कि क्या है आपके ऐसे झूठे प्रडिक्सन्स - भविष्यवाणियाँ ऐसी झूठी करते हैं आप। तो चले दोनों और जो राजा का पुत्र था उसको ठोकर लगी और नीचे गिरा तो देखा कि उस पत्थर को हटाने पर वहाँ पर ढेर सारी अशर्फियाँ मिल गयीं तो पॉकेट में रखीं और आगे बढ़े। मंत्री का पुत्र भी पीछे-पीछे जा रहा था। उसको बहुत जोर से एक काँटा लगा। निकाला तो खून निकलने लगा, पट्टी बाँध ली .... पहुँच गया वो भी ज्योतिषी के यहाँ पर। कहा कि आपकी सारी भविष्यवाणी झूठी निकली। न इनको गद्दी मिली और न मुझको शूली हुई। बोले, “सुनो! रास्ते में बताओ क्या-क्या हुआ। “आज आ रहे थे तो हमको दो-चार दस अशर्फियाँ मिलीं और इनको काँटा लग गया।” हो गया काम - तुम्हारे अपने वर्तमान के दुष्कर्मों से मिलती हुई गद्दी थोड़े से सोने के सिक्कों में सीमित होकर रह गयी और इसकी शूली अकेले काँटों में सिमट करके रह गयी।

 ये ध्यान रखना कि जो कुछ भी हम संचित करके लाये हैं हम अपने वर्तमान के शुभ और अशुभ में बहुत सारे चेंजेज करते रहते हैं। इसलिये जब भी कर्म करने का मन हो शुभ करना। शुभ को करने से हमारे अशुभ का दबाव घटता है, शुभ का प्रभाव बढ़ने लगता है और अगर हम संचित करके तो शुभ लाये हैं और वर्तमान में अगर खोटे कर्म करेंगे तो शुभ का प्रभाव घटेगा और अशुभ का बढ़ने लगेगा। जीवन में यह देखने में आता है। अब हमारी कुशलता क्या है ? घात-प्रतिघात से बचने की कुशलता इतनी ही है कि अगर कोई हमारे ऊपर घात करता है तो हम प्रतिघात ना करें या कि स्वघात ना करें। हाँ ! किसी ने मुझे गाली दी तो मैं उसे गाली देता हूँ या मारता हूँ, ये प्रतिघात है और इतना ही नहीं मैं गाली देके अपना मन खट्ठा करता हूँ यह स्वघात है। एकदम अपने प्राण ले लेना लेकिन अपनी जान को सांसत में डालना, अपनी इन्द्रिय और मन को तकलीफ पहुँचाना, अपने मन में संक्लेशित होना, संक्लेश का उपाय करना, ये भी तो अपना ही घात है। दूसरे के संक्लेशित से अपने मन को संक्लेशित कर देना। प्रतिक्रिया तो हम एक बार पोजिटिव कर लेंगे लेकिन कोई हमारे ऊपर घात करे और हम प्रतिघात ना करें और बिल्कुल साइलेंट रह जायें, भीतर कुछ भी न हो ऐसा बहुत मुश्किल है। किसी ने गाली दी और हम प्रसन्न। भारी ऊँची विद्या है ये जिसको आ जाये। बाकी विद्यायें तो सबको आती होगी, ये वाली विद्या जिसको आ जाये, वो जीत गया, वो संसार से पार हो गया, और इसका एक उदाहरण कन्हैयालाल प्रभाकर मिश्रा ने लिखा। 


ऐसा जीवन में एक सामान्य गृहस्थ के भी संभव हो सकता है क्या? मैं तो ऐसी चीजें पढ़ता रहता हूँ और मुझे लगता है कि हम लोग कितनी बातें जानते हैं, लेकिन एक सामान्य व्यक्ति इस घात-प्रतिघात की प्रक्रिया से कैसे अपने को बचा लेता है। उन्होंने लिखा। उनके अपने जीवन की घटना कि मेरे एक बहुत अच्छे मित्र और इतने पक्के मित्र कि कोई सोच भी नहीं सकता कि दोनों में कभी कोई आपस में कोई तकरार हो सकती है? लेकिन ऐसा हुआ कि मित्र की जीवन साथी नहीं रहीं और मित्र की एक ही बेटी, उसके ब्याह की चर्चा थी। जिम्मेदारी मित्र के नाते मेरी भी थी तो मैंने अपने रिश्तेदार के बेटे से उस बेटी के ब्याह की चर्चा चलाई और मामला कुछ खटाई में पड़ गया और हम दोनों के बीच में कुछ तकरार हो गई। घटना इतनी ही थी। होता है जिन्दगी में इस तरह से बहुत होता है और उन्होंने लिखा कि 4 लोग और जो तैयार ही खड़े थे .....। अगर दो लोगों की दोस्ती हो तो ये ध्यान रखना कि चार लोगों की आँख लगी हुई है। “महिमा मृगी कौन सुक्रत की विषखण खल विद्वाची" महिमा और मृगी दोनों सावधान रहे। जंगल में घूमती हुई हिरणी हमेशा ध्यान रखे कि शिकारी का बाण उसका पीछा कर रहा है और जो सुकृत कर रहा है, जो पुण्य कार्य कर रहा है वो हमेशा ध्यान रखे कि चार खल लोगों की आँखें उसके ऊपर लगी हैं। तो बोले कि वो चार लोग पता नहीं क्या इसी का इंतजार कर रहे थे कि इन दोनों में जरा तकरार तो हो फिर इनकी लड़ाई का मजा इनकी दोस्ती बड़ी छनती है। ..... बोले ..... हमारे मित्र को ऐसा-ऐसा समझा-बुझा दिया कि हमारे मित्र ने हमारे ऊपर - कि हमारी जीवनसाथी की धरोहर ये खा गये, ऐसा दीवानी मुकदमा लगा दिया। मुझे पहले तो थोड़ी गुस्सा आई अपने मित्र पर, कि इतने वर्षों की मित्रता और एक क्षण के अन्दर ये हो गया और फिर उसके बाद हँसी आई कि मैंने तो खाई ही नहीं और ये व्यर्थ ही मेरे ऊपर दोष लगा रहे हैं, देखेंगे, निपटेंगे, जो होगा देखेंगे। पर है तो मेरा मित्र, ये बात अभी भी मन से नहीं गई थी। सामने वाले के मन से चली गई हो तो चली गई हो। और कहते हैं कन्हैया लाल मिश्र कि मैं रास्ते से चला जाता था, आमना-सामना ही नहीं हो रहा था। दूरी धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। वो सामने से आते दिखाई पड़े सो मुझे देख लिया उन्होंने, सो बचकर निकलने लगे। मैं तो बचकर जाने वाला था नहीं। मैं सामने पहुँच गया और कंधे पर हाथ रखा कि अरे मैं तो सोच रहा था कि जब अपन ने दोस्ती निभाई है तब दुश्मनी भी जमकर निभायेंगे। अभी तो तुमने मुकदमे की शुरूआत ही की है अभी से क्यों बचकर भाग रहे हो। हम तो ये सोच रहे थे कि अच्छे जमकर मुकदमा भी लड़ेंगे और मान लो तुम्हें जेल हो गई तो तुम्हारा और तुम्हारी बेटी का, दोस्ती के नाते हम ध्यान रखेंगे और अगर हमें जेल हो गई तो जब हम छूटे तो दोस्ती के नाते सबसे पहले तुम ही मिलो। अब, देखो आप, यह विचारों की श्रेष्ठता देखो। ये घात-प्रतिघात से बचने की प्रक्रिया देखें आप, बहुत सांसारिक प्रक्रिया। कहते हैं कि इतना सुनते ही वे मित्र ..... हाथ पकड़ लिया उनसे कहने लगे, 'घर चलो'। यहाँ नहीं, रास्ते में नहीं। घर ले जाकर के बिठा करके और मेरे मना करते-करते भी और मेरे पैरों पर सिर रखकर के फूट-फूट कर रोये। उस दिन का दिन है कि आज का दिन कहाँ का मुकदमा और कहाँ की दुश्मनी, फिर से ज्यों का त्यों दोनों अब बड़े प्रेम से अपना जीवन जीते हैं। भैया संसार में कर्म अगर करना है तो कर्म कैसे करना है, इसकी कुशलता अगर हमें आ जावे तो हम कर्मों से मुक्त हो सकते हैं। 


इन अशुभ कर्मों से बचें और जितना बन सके उतना शुभ कार्य, परोपकार के कार्य करें। अगर कोई हमारे प्रति दुर्व्यवहार भी करे, तब भी हमारी सज्जनता है कि हम उसके प्रति सद्भावना और सद्व्यवहार बनाये रखें। तब जीत हमारी है वरना तो यहाँ सब हारे हुए हैं और हमेशा से अपने कर्मों से हारते आये हैं। एक मौका तो अपने जीवन में ऐसा भी लेना चाहिये कि अब, अब हम नहीं हारें। कर्म हमसे हार जावें। हम ऐसे कार्य करें कि अपने किये हुए पुराने कर्मों को हरा दें और अपने आप की जीत हम हासिल कर लें। ऐसी स्वतन्त्रता हमारी है। कर्म करने में व्यक्ति भले ही स्वतंत्र ना हो लेकिन कर्म को कैसे करना है, भले करना है या कि बुरे करना है, इसमें तो हमारी अपनी स्वतंत्रता है। इसी भावना के साथ कि हम कर्मों को जीतने की इस प्रक्रिया को अपने जीवन में जितनी बनेगी उतनी शामिल करेंगे। 


"बोलिये - आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज की जय।” 
००० 

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