श्रमण परम्परा के महाश्रमण : आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज
मुनि अजितसागर
जीवन का रहस्य क्या है ? इसमें रहस्य की बात है, जिसका कोई उत्तर ही नहीं, उसे तो बस खोजते चले जाओ जिसे खोजते-खोजते तुम स्वयं में खो जाओगे और तुम्हारी खोज जारी रहेगी। जो इस खोज में डूब गया वही स्वयं के परमात्मा को पा गया। ऐसा परमात्मा जिसका कोई अंत न हो, अनन्त की गहराई को लिये ऐसा परमात्मा ही होता है। इस परमात्मा की गहराई में डुबकी लगाने वाले और वर्तमान में श्रमण परम्परा को ज्योतिर्मय बनाने वाले एवं परमागम के रहस्य को समझने और समझाने वाले एवं एक नाव की तरह कार्य करने वाले जैसे-नाव कभी भी नदी के उस पार अकेली नहीं जाती अपनी पीठ पर बैठाकर अनेक व्यक्तियों को उस पार पहुँचाती है, वैसे ही अनेक व्यक्तियों को संसार सागर से निकालकर मोक्ष का मार्ग प्रदान करने वाले, अपनी अहनिश साधना के माध्यम से स्वकल्याण के साथ परकल्याण की भावना रखने वाले, जो स्वयं चलते हुए भव्य जीवों को चलाने वाले, ऐसे आचार्य परमेष्ठी आचार्य प्रवर संत शिरोमणि गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज जो एक प्रकाशमान दीप की तरह सबको प्रकाश देने, महान्योगी ज्योतिर्मय महाश्रमणका यह ५०वाँ मुनि दीक्षा का संयम स्वर्ण महोत्सव वर्ष : २०१७-१८, हम सबके लिये पावन पर्व के समान है।
जैनाचार्यों ने जिनागम में आचार्य परमेष्ठी का लक्षण कहा है-जो मोक्षमार्ग पर स्वयं चलते हुए दूसरे भव्य जीवों को चलाते हैं। इसलिये आचार्यश्री कुन्दकुन्द महाराज ने आचार्य भक्ति में लिखा है
"सिस्सानुग्गह्कुसले धम्माइरिए सदा वंदे"
अर्थात् जो शिष्यों के अनुग्रह करने में कुशल होता है, उस धर्माचार्य की सदा वंदना करता हूँ।
भारतीय संस्कृति में जिन शासन की गौरव गाथा गाने वाले और उसके रहस्य को बताने वाले महान्--महान् आचार्य हुए, जिन्होंने संयम का
स्वरूप एवं यथाजात निग्रन्थ स्वरूप को धारण करके भटके-अटके अज्ञानी भव्य जीवों के लिये सही दिशा-बोध देकर श्रमण परम्परा की अखण्डधारा को भारत भूमि पर प्रवाहित किया। उसी श्रमण परम्परा को बीसवीं शताब्दी में महान् चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज ने आगे बढ़ाया और क्रमशः आचार्य परम्परा को आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज, आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज के बाद क्रमश: साहित्य मनीषी वयोवृद्ध चारित्र शिरोमणि शातिमूर्ति आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज नेउस परम्परा को आगे बढ़ाते हुए अपने पद का त्याग कर अपने ही सुयोग्य प्रथम दीक्षित मुनि श्री विद्यासागरजी को अपना आचार्य पद प्रदान करके एक अद्भुत इतिहास रचा था।
आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ने इस बीसवीं एवं इक्कीसवीं शताब्दी में १२० मुनि, १७२ आर्यिका, २० ऐलक, १४ क्षुल्लक और ३ क्षुल्लिकायें आदि अनेक बालयति साधकों को मोक्षमार्ग पर लगाया। जो जिनशासन की शान हैं और वर्तमान युग में मूलाचार की जीवित पहचान हैं। जिनकी आशीष भरी छाँव में हजारों साधक मोक्षमार्ग पर अग्रसर हैं, ऐसे महाश्रमण आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज का ५०वाँ मुनिदीक्षा का संयम स्वर्ण महोत्सव वर्ष हम सबके लिये अति हर्ष का विषय बने। किसी कवि ने कहा है
'जो फरिश्ते कर सकते हैं, कर सकता इंसान भी।
जो फरिश्ते से न हो, वह काम है इंसान का ॥'
जो कार्य देव चाहते हुए भी नहीं कर सकता है, वह कार्य इंसान कर सकता है। इस मनुष्य पर्याय की दुर्लभता वह देवेन्द्र ही समझता है। वह भी तरसता है कि कुछ क्षण के लिये हमें यह मनुष्य पर्याय मिल जाये। इस मनुष्य पर्याय की दुर्लभता की एक युवा हृदय ने आज से ४९ वर्ष पूर्व २१ वर्षीय ब्रह्मचारी श्री विद्याधर जैन अष्टगे जी ने संयम को धारण कर अपनी इस पर्याय को धन्य किया था। जिसे घर के लोग प्यार से पीलू, गिनी, मरी, तोता आदि नाम से बचपन में पुकारा करते थे। कर्नाटक के दक्षिण भारत में बेलगाँव जिले के अन्तर्गत सदलगा ग्राम में आश्विन शुक्ल १५ (शरद पूर्णिमा) १० अक्टूबर, १९४६ के दिन श्रेष्ठीवर श्री मल्लप्पा जी अष्टगे मातु श्रीमति श्रीमंती जी अष्टगे की कुक्षी से आपका जन्म हुआ था। आप अपने गृह की द्वितीय संतान थे। आपका बाल्यकाल खेलकूद और अध्ययन के साथ सन्तदर्शन की भावना से ओतप्रोत रहता था। बालक विद्याधर प्रत्येक कार्य में निपुण थे एवं कृषि कार्य में कुशलता छोटी सी उम्र में प्राप्त कर ली थी। खेल में शतरंज और कैरम में आप मास्टर माने जाते थे। छोटी सी उम्र में बड़ों-बड़ों को पराजित कर देते थे। शिक्षा के क्षेत्र में हमेशा आगे रहने वाले और प्रथम स्थान प्राप्त करना सहज ही काम था।
बाल्यकाल व्यतीत होते ही जवानी की ओर कदम बढ़े, उस भरी जवानी में जीवन के रहस्य को जानने की जिज्ञासा युवा मन में समाई। एक दिन सदलगा के समीप शेड़वाल ग्राम में आचार्यश्री शांतिसागरजी महाराज का ससंघ आगमन हुआ। आप पहुँच गये उनके वचनामृत को सुनने के लिये और मिल गया वह सूत्र जीवन के रहस्यमय दर्शन कराने वाला, उपजा हृदय में वैराग्य, छूटने लगा संसार का राग और चिंतन चलने लगा जिन्दगी का सही राज पाने के लिये। जीवन का रहस्य कैसे पाया जाता है किसी ने कहा है
'जिन्दगी का राज वह इंसान पा सकता है।
जो रंज में भी खुशियों के गीत गाता है।॥”
जीवन के रहस्य की खोज के लिये २० वर्ष की अल्पायु में बढ़ चले कदम संयम की ओर। सन् १९६७ में आचार्य देशभूषणजी महाराज से आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत लेकर कुछ समय उनके पास रहे, बाद में राजस्थान की ओर आ गये, वयोवृद्ध तपोनिधि मुनि श्री ज्ञानसागरजी महाराज के पास रहकर आपने जैन दर्शन, न्याय, अध्यात्म, ग्रंथों का अध्ययन किया। इतनी वृद्ध अवस्था में भी मुनि श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने योग्य पात्र को पाकर अपना सारा ज्ञान का भण्डार दे दिया। एक दिन वह भी आ गया जो ज्ञान दान के साथ संयम का दान भी मुनि श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने ब्रह्मचारी श्री विद्याधरजी को दिया। वह पावन दिन था आषाढ़ शुक्ल ५, वि० सं० २०२५, ३० जून, १९६८, रविवार। इस दिन राजस्थान के अजमेर में निग्रन्थ यथाजात रूप मुनि दीक्षा के संस्कार हुए। अपार जनसमूह के सामने श्री विद्याधर जी को मुनि श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने मुनिदीक्षा प्रदान कर उनके वस्त्रों का त्याग करा दिगम्बर निग्रंथ स्वरूप को धारण कराया था। देवों ने इस महोत्सव को मनाया और भीषण गर्मी के समय बादलों की एक घटा आई और जल वर्षा करने लगी। मुनि श्री ज्ञानसागरजी ने ब्रह्मचारी श्री विद्याधरजी को मुनि श्री विद्यासागर बनाया था। उनके द्वारा प्रथम दीक्षित मुनि श्री विद्यासागरजी महाराज संयम-साधना के साथ स्वाध्याय ध्यान करने लगे। इसके बाद आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने अपने प्रथम योग्य शिष्य को अपना आचार्य-पद त्याग कर मार्गशीर्ष कृष्ण २, वि० सं० २०२९, दिनांक २२ नवम्बर, १९७२ को नसीराबाद, जिला-अजमेर, राजस्थान में अपना आचार्य-पद देकर आचार्य विद्यासागर बना दिया और अपने ही शिष्य को निर्यापकाचार्य बनाकर समाधिमरण किया।
ऐसे महान् योगी साधक का यह ५०वाँ मुनि दीक्षा का संयम स्वर्ण महोत्सव वर्ष हम सबके लिये वैराग्य का मार्ग दिखाने वाला है और संयम की ओर अग्रसर करने की प्रेरणा देने वाला है। श्रमण परम्परा के महान् श्रमण का यह स्वर्णिम मुनि दीक्षा वर्ष हम सबके लिये एक हर्ष का विषय बने। हमें जिनमें भगवान् महावीर स्वामी के शासन की चर्या दिखती है, और आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी का साक्षात् मूलाचार झलकता है, ऐसे गुरु महाराज के इस पावन मुनि दीक्षा वर्ष में हम सब यही मंगल भावना करते हैं कि जिनशासन के महानतम आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागरजी महाराज शतायु हों और हमारे कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते रहें, हम उनके अनुसार कल्याण के मार्ग पर चलते रहें। ऐसे गुरुवर सदा जयवंत रहें, उनके चरणों में हम सदा झुकते रहें।
॥ इति ॥
मुनि अजितसागर
बमीठ, जिला-छतरपुर (म० प्र०)
दिनांक-०९.०१.२०१७
दिन-सोमवार