पाठ्यपुस्तक १ - प्रणामांजलि
यह प्रथम पाठ्यपुस्तक है जो आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के दीक्षा दिवस पर पाठकों तक पहुँचेगी। इसमें आचार्य श्री विद्यासागरजी द्वारा इन पचास वर्षों में अपने गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज को जिन-जिन रूपों में स्मरण किया गया है, उन विषयों को 10 अध्यायों के रूप में बाँटा गया है। एक दिव्य पुरुष आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज का निर्माण जिनके द्वारा हुआ है ऐसे अलौकिक पुरुष आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज को वह जिस समर्पित भाव से एवं याचक भाव से स्मरण करते हैं, वे भाव आत्मा को स्पन्दित कर देते हैं। जिनको पूरी दुनिया भगवान तुल्य मानती है, वो स्वयं अपने गुरु का गुणगान करते नजर आते हैं तो युगों-युगों से चली आ रही भारत की गुरु-शिष्य परंपरा जीवंत हो जाती है।
पाठ्यपुस्तक २ - अनिर्वचनीय व्यक्तित्व
इस पाठ्यपुस्तक में आचार्यश्री के धरा पर अवतरण, दिव्य चेतना की प्रासि से लेकर आचार्य पद की प्राप्ति तक की यात्रा है। एक आचार्य के रूप में इतने बड़े संघ के संचालन की नीति, सरल हृदयी परंतु दृढ़ अनुशासक की उनकी भूमिका और आगम के अनुरूप श्रेष्ठतम आचरण पर प्रकाश डाला गया है। उनका बाह्य व्यक्तित्व जितना आकर्षक एवं सौम्य है उतना ही आभ्यन्तरीय व्यक्तित्व भी निर्मल एवं पवित्र है। मर्यादा पुरूषोत्तम कुशल साधक के रूप में उनके जीवन का यह हिस्सा सामान्य श्रावक ही नहीं वरन समस्त साधु समाज के लिए भी प्रेरणा और चिंतन का विषय है। संस्मरणों के माध्यम से आचार्यश्रीजी के अन्तरंग की साधना को जिस तरह से प्रस्तुत किया गया है वह भावुक पाठकों के हृदय में सीधे उतर कर सच्चरित्रवान बनने की प्रेरणा देती है।
पाठ्यपुस्तक ३ - श्रमण परंपरा संप्रवाहक
इस पाठ्यपुस्तक में श्रमण संस्कृति की अनादिकालीनता सिद्ध की गई है एवं तीर्थकर महावीर स्वामी जी की श्रमण परम्परा की आचार्य श्री विद्यासागरजी द्वारा आगमानुसार किस तरह से संवद्धित किया गया, इसका वर्णन है। जैन समाज द्वारा आज भी अपनी मूल संस्कृति को उसके मूलरूप में ही जीवित रखा गया है।
जैनदर्शन में आत्मा के मोक्ष की प्राप्ति में सल्लेखना पूर्वक मरण का अपना एक विशेष महत्व बताया गया है। सल्लेखना क्यों, जैसे नाजुक विषयों पर वैज्ञानिक दृष्टि से बात रखी गयी है। गुरुदेव की सोच इतनी विशाल है कि वो हर विषय वैज्ञानिक, ताकिक और भावनात्मक पहलुओं से व्याख्या करते हैं।
पाठ्यपुस्तक ४ - सर्वविध साहित्य संवर्द्धक
प्रथम खण्ड : गुरुवर की साहित्यिक यात्रा
कालिदास, माघ, हर्ष और भारवी जैसे कवियों की परंपरा को समृद्ध करने वाले श्रमणाचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज के सुशिष्य आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज की साहित्यिक कला कौशल विरासत में प्राप्त है। कभी वो कवि मन हो जाते हैं तो कभी गूढ़चिंतक, कभी वो आलोचक बन जाते हैं तो कभी भाषा विद्वान्। आपके द्वारा विभिन्न भाषाओं एवं विभिन्न विधाओं में साहित्य की विपुल संवर्द्धना हुई है। संस्कृत भाषा में छह शतक, धीवरोदय (अप्रकाशित चम्पू काव्य), शारदानुति, पंचास्तिकाय (अप्रकाशित काव्य) एवं पचास के करीब जापानी छंद 'हाइकू'। हिन्दी भाषा में मूकमाटी महाकाव्य, छह शतक एवं पाँच सौ के करीब 'हाइकू'। कन्नड, हिन्दी, बंगला, प्राकृत एवं अंग्रेजी भाष में कविताएँ आपके द्वारा साहित्य जगत् को प्रदान की गई हैं। और प्रवचनसार, नियमसार, रत्नकरण्डक श्रावकाचार आदि २२ आर्ष प्रणीत ग्रंथों, संस्कृत की ९ भक्तियों एवं स्वरचित संस्कृत के छहों शतकों का हिन्दी भाषा में पद्यानुवाद भी किया गया है। इस पाठयपुस्तक में आपके द्वारा रचित साहित्य के विभिन्न आयामों पर प्रकाश डाला गया है।
द्वितीय खण्ड : सुभाषितामृत -
आचार्यश्रीजी के प्रवचनों के बीच में अनेक ऐसे सुभाषित वचन और क्रांतिकारी पंक्तियाँ होती हैं जिन पर पूरे शास्त्र लिखे जा सकते हैं। कहा भी गया है कि जीवन बदलने के लिए लंबे-लंबे पोथी-पत्रों की जरूरत नहीं है। कब, कहाँ कौन सी एक लाइन सुनकर जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन हो जाए, कोई नहीं जानता। इस पाठ्यपुस्तक में उनके महान् साहित्य और मर्मस्पर्शी प्रवचनों से अनेक ऐसे विचारों को प्रस्तुत किया गया है जो पाठक के सोचने के तरीके को बदलने की ताकत रखते हैं। आपके व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व पर २ डी.लिट्., २७ पी.एच्.डी., ८ एम.फिल., २ एम.एड. एवं ६ एम.ए. के लघु शोध प्रबंध अब तक लिखे जा चुके हैं। आपके साहित्य में जीवन के समग्र पहलुओं पर विचार किया गया है। इस कारण आपके साहित्य से विश्व साहित्य की संवर्द्धना हुई है।
पाठ्यपुस्तक ५ - तीर्थ शिरोमणि
प्रथम खण्ड : भवोदधिपोत
एक महान् तीर्थोंद्वारक और तीर्थप्रणेता के रूप में आचार्यश्री जैन समाज के हृदय में युगोंयुगों तक स्थापित रहेंगे। कुण्डलपुर बड़ेबाबा से लेकर नेमावर सिद्धोदयक्षेत्र तक और सर्वोदय
अमरकंटक से लेकर विदिशा शीतलधाम एवं रामटेक क्षेत्र तक गुरुदेव के आशीर्वाद से विशाल तीर्थ बने हैं। ये तीर्थ आने वाली सदियों तक जिन संस्कृति का परचम लहराएँगे। यह पाठ्यपुस्तक आपको तीर्थ क्या है, तीर्थ की महत्ता क्या है एवं जैन तीर्थ संवर्धन में गुरुदेव का योगदान क्या है, इससे परिचित कराएगी।
द्वितीय खण्ड : अर्हन्निर्माण
इस पाठ्यपुस्तक में आगमोत जिनबिम्ब प्रतिष्ठा का संक्षित वर्णन है। जो स्वयं भगवान् बनने चले हैं एवं अनेक भव्यात्माओं को भी साथ लिए हैं, ऐसे भावी भगवान् आचार्य श्री विद्यासागरजी द्वारा जिनबिम्बों की प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर, कैसे भगवान् बना जाता है इस पर आधारित जो प्रवचन दिए हैं, उन प्रवचनांशों को प्रस्तुत किया गया है।
पाठ्यपुस्तक ६ - राष्ट्रगरिमा संजीवक
प्रथम खण्ड : शिक्षा से निर्वाह नहीं निर्माण
प्राचीन भारत में शिक्षण कार्य गुरुकुलों में चारित्रनिष्ठ साधकों द्वारा किया जाता था। इससे विद्यार्थियों का निर्वाह नहीं, निर्माण हुआ करता था। आचार्य श्री विद्यासागरजी की प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति में गहरी आस्था है। गुरुकुल परंपरा को पुनर्जीवित करने का उन्होंने बीड़ा उठाया है। उनका संदेश है 'शिक्षा अर्थ सापेक्ष न होकर कर्म और कौशल सापेक्ष हो'।
वे चाहते हैं कि आज विदेशी शिक्षा पद्धति से प्रदूषित होते जा रहे समाज में प्राचीन भारतीय गुरुकुल शिक्षण पद्धति का अनुसरण करते हुए सम सामयिक शिक्षा के साथ-साथ बच्चों के मन में संस्कारों का पल्लवन हो सके और आदर्श प्राचीन भारतीय संस्कृति के प्रति प्रेम के अंकुर फूट सकें। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु ही उनके आशीर्वाद से 'प्रतिभास्थली' रूप तीन शिक्षण संस्थान खड़े किए गए हैं। इनमें ब्रह्मचारणी बहनों के रूप में आदर्श शिक्षकों / गुरुओं की पौध तैयार कि गई है, जो निस्पृह व नि:स्वार्थ भाव से बिना वेतन की अपेक्षा किए इस सेवा कार्य को तन-मन से कर रही हैं। एक महान् शिक्षाविद् के रूप में प्राचीन और वर्तमान शिक्षा के बारे में उनके क्रांतिकारी विचारों को इस पाठ्यपुस्तक में प्रस्तुत किया गया है।
द्वितीय खण्ड : शील की रक्षा, देश की सुरक्षा
आचार्यश्रीजी को भारतीय संस्कृति के पोषक, प्रचारक और संरक्षक के रूप में जाना जाता है। यह पाठ्यपुस्तक भारतीय संस्कृति-संस्कार और जैन संस्कृति संस्कार एवं जैन संस्कृति ने भारतीय संस्कृति पर क्या प्रभाव डाला और वैश्वीकरण ने भारतीय संस्कृति पर क्या प्रभाव डाला इन विषयों पर आचार्यश्रीजी की दृष्टि / चिंतन से आपको अवगत कराएगी। तृतीय खण्ड : वतन को बचाओ पतन से –
जैन दर्शन सूक्ष्मतम अहिंसा में विश्वास करता है और अहिंसा ही विश्व की अधिकांश समस्याओं का समाधान है। इस पाठ्यपुस्तक में जैन दर्शन तथा अन्य दर्शनों में अहिंसा की महत्ता पर प्रकाश डाला गया है। आचार्यश्रीजी को 'सर्वोच्च अहिंसक' क्यों कहा जाता है, इस पाठ्यपुस्तक में आप जानेंगे। मांस निर्यात निषेध, अहिंसा दीक्षा के साथ-साथ हिंसा रोकने के लिए अहिंसक व्यवसाय करने का भी गुरुदेव ने शंखनाद किया, जो अपने आप में अनूठा है। फलत: शांतिधारा दुग्ध योजना, जैविकीय खेती, हथकरघा संवर्धन की मुहिम देश के कोने-कोने में फैल रही है। अहिंसा को कैसे जिया जाता है, जीवन में कैसे उतारा जा सकता है, राष्ट्र और समाज के समक्ष इसके जीवन्त उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। चतुर्थ खण्ड : इण्डिया हटाओ भारत लौटाओ -
यह अद्भुत पाठ्यपुस्तक एक श्रमण के राष्ट्र निर्माण के संकल्प की विलक्षण गाथा से आपको परिचित कराती है। इंडिया नहीं भारत बोली, अंग्रेजी नहीं हिन्दी बोली, कार्य और व्यवहार में मातृभाषा का उपयोग करो, मतदान, राजतंत्र, लोकतंत्र, स्वदेशिता, स्वरोजगार आदि विषयों पर गुरुदेव के विचार क्रांतिकारी हैं। इन भारतीयता प्रधान विचारों की देश के प्रधानमंत्री से लेकर मूर्धन्य बुद्धिजीवियों ने भी सराहना की है। गुरुदेव भारतीय संस्कृति के प्रखर रक्षक और हिमायती हैं। यह पाठ्यपुस्तक देश के जनप्रतिनिधियों, शासकों, प्रशासकों, नीति निर्धारकों, राष्ट्र निर्माताओं के लिए दिशा सूचक है, जिससे राष्ट्र निर्माण का कार्य सुचारु रूप से हो सके।
पाठ्यपुस्तक ७ - आस्था के ईश्वर
आचार्य श्री विद्यासागरजी 'महाराजा' हैं और महाराजा के चरणों में राजा-प्रजा, विद्वान् और कवि, बुद्धिजीवी एवं सामान्य सभी नतमस्तक होते हैं, कभी ज्ञान की ललक में, कभी आशीर्वाद की चाह में, कभी मार्गदर्शन की आशा लिए। उनके अद्भुत व्यक्तित्व की शरण में जो भी आता है, वह उनका हो जाता है। उनके आभामण्डल में आकर प्रत्येक भव्यात्मा को आनंद की अनुभूति होती है, एक अलौकिक शांति का एहसास होता है। भारत के लगभग सभी शीर्षस्थ राजनेताओं, अधिकारियों और बुद्धिजीवियों ने आचार्यश्रीजी के चरणों में माथा टेका है। इन सौभाग्यशाली व्यक्तियों द्वारा गुरु दर्शनों से हुई रोमांचकारी अनुभूतियों को इस पाठ्यपुस्तक में प्रस्तुत किया गया है, जिन्हें पढ़कर गुरुओं के प्रति आस्था बलवती हो उठती है।
विभिन्न जाति, धर्म, प्रांत और कार्यक्षेत्र की इन शीर्षस्थ विभूतियों की गुरुदेव और उनके चिंतन के प्रति आस्था, यह बताती है कि आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागरजी महाराज जाति और धर्म जैसे छोटे बंधनों से परे एक महान् चिंतक और राष्ट्रसंत हैं। दुनिया के विभिन्न देशों से उच्चशिक्षित नौकरी पेशेवरों ने अपना काम छोड़कर गुरुदेव की प्रेरणा से समाजहित में जीवन समर्पित कर दिया है, यह विश्वस्तर पर विश्वसंत के रूप में गुरुदेव के प्रभाव का परिचायक है।
इस पाठ्यक्रम का हिस्सा बनने वाले प्रतिभागी गुरुदेव के एक अंश को भी जीवन में उतार पायें तो अद्भुत परिवर्तन निश्चित है, क्योंकि इस पाठ्यक्रम का हिस्सा बनना भी बहुत बड़ा सौभाग्य है। इस अवसर का पूरी शक्ति से लाभ उठाकर पहले भीतर से बदलें और फिर बाहर को बदलें।