Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

Administrators
  • Posts

    22,360
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    895

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Everything posted by संयम स्वर्ण महोत्सव

  1. बहुत मीठे, बोल रहे हो अब !, मात्रा सुधारो। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  2. फूलों की रक्षा, काँटों से हो शील की, सादगी से हो। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  3. छाया का भार, नहीं सही परन्तु, प्रभाव तो है। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  4. वैराग्य, न हो, बाढ़ तूफ़ान सम, हो ऊर्ध्व-गामी। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  5. अनेक नामो को धारण करने वाले वर्तमान शासन नायक अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर का जीवन परिचय एवं चारित्र के विकास का वर्णन इस अध्याय में है। 1. बालक महावीर का जन्म कहाँ हुआ था ? बालक महावीर का जन्म कुण्डग्राम (वैशाली) विहार में हुआ था। 2. तीर्थंकर महावीर के पाँच कल्याणक किस-किस तिथि में हुए थे? गर्भकल्याणक - आषाढ़ शुक्ल षष्ठी, शुक्रवार, 17 जून, ई.पू. 599 में। जन्मकल्याणक - चैत्र शुक्ल त्रयोदशी, सोमवार, 27 मार्च, ई.पू. 598 में। दीक्षाकल्याणक - मगसिर कृष्ण दशमी, सोमवार, 29 दिसम्बर, ई.पू.569 में। ज्ञानकल्याणक - वैशाख शुक्ल दशमी, रविवार, 23 अप्रैल, ई.पू.557 में। मोक्षकल्याणक - कार्तिककृष्ण अमावस्या, मङ्गलवार 15 अक्टूबर ई.पू. 527 में विक्रम सं.पूर्व 470 एवं शक पूर्व 605 में । (तीर्थ महा.और उनकी आचार्य परम्परा, भाग-1) 3. बालक महावीर कहाँ से आए थे? बालक महावीर अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान से आए थे। 4. बालक महावीर के माता-पिता एवं दादा-दादी का क्या नाम था ? बालक महावीर की माता का नाम त्रिशला, पिता का नाम राजा सिद्धार्थ तथा दादा का नाम सर्वार्थ, दादी का नाम श्रीमती था। 5. त्रिशला के माता-पिता एवं दादा-दादी का क्या नाम था ? त्रिशला की माता का नाम सुभद्रादेवी, पिताका नाम राजा चेटक, दादा का नाम राजा केक तथा दादी का नाम यशोमति था। 6. राजा चेटक के कितने पुत्र एवं पुत्रियाँ थीं? राजा चेतक के दस पुत्र - धनदत्त, धनभद्र, उपेंद्र, सुदत्त, सिहद्त्त, सुकुम्भोज, अकम्पन, पतंगक, प्रभंजन और प्रभास तथा पुत्रियाँ- त्रिशला, मृगावती, सुप्रभा, प्रभावति, चेलना, ज्येष्ठा और चंदना। चेलना का अपर नाम वसुमति भी था। 7. चेटक का अर्थ क्या होता है? अनेक शत्रुओं को चेटी या दास बना लेने के कारण वह चेटक कहलाने लगे। 8. राजकुमार महावीर की दीक्षा स्थली, दीक्षा वन एवं दीक्षा वृक्ष का क्या नाम था ? राजकुमार महावीर की दीक्षा स्थली कुण्डलपुर, दीक्षा वन-षण्डवन एवं दीक्षा वृक्ष-शालवृक्ष था। 9. राजकुमार महावीर को वैराग्य कैसे हुआ था ? राजकुमार महावीर को वैराग्य जातिस्मरण के कारण हुआ। 10. मुनि महावीर की पारणा कहाँ एवं किसके यहाँ हुई थी ? मुनि महावीर की पारणा राजा कूल के यहाँ कूलग्राम में हुई थी। 11. महावीर का वंश एवं गोत्र कौन-सा था ? महावीर का वंश- नाथ एवं गोत्र - काश्यप था। 12. किस पालकी में बैठकर दीक्षा लेने गए थे? चन्द्रप्रभा पालकी में बैठकर दीक्षा लेने गए थे। 13. मुनि महावीर को केवलज्ञान कहाँ कौन से वृक्ष के नीचे हुआ था ? मुनि महावीर को केवलज्ञान षण्डवन/मनोहर वन (ऋजुकूला नदी) एवं शाल वृक्ष के नीचे हुआ था। 14. तीर्थंकर महावीर के समवसरण में मुनि, आर्यिकाएँ, श्रावक और श्राविकाएँ कितनी थीं? तीर्थंकर महावीर के समवसरण में 14,000 मुनि, 36,000 आर्यिकाएँ 1 लाख श्रावक और 3 लाख श्राविकाएँ थीं। 15. तीर्थंकर महावीर के मुख्य गणधर एवं मुख्य गणिनी एवं मुख्य श्रोता कौन थे? तीर्थंकर महावीर के मुख्य गणधर गौतम, गणिनी चंदना, श्रोता राजा श्रेणिक थे। 16. तीर्थंकर महावीर के यक्ष-यक्षिणी का क्या नाम था ? तीर्थंकर महावीर के यक्ष गुहाक, यक्षिणी सिद्धायनी। 17. तीर्थंकर महावीर के कितने गणधर थे। नाम बताइए? तीर्थंकर महावीर के11 गणधर थे। इन्द्रभूत (गौतम), वायुभूति, अग्निभूति, सुधर्मास्वामी, मौर्य, मौन्द्र, पुत्र, मैत्रेय, अकम्पन, अंधवेला तथा प्रभास थे। 18. तीर्थंकर महावीर का प्रथम समवसरण कहाँ लगा था? तीर्थंकर महावीर का प्रथम समवसरण विपुलाचल पर्वत पर लगा था। 19. तीर्थंकर महावीर की देशना कितने दिन तक और क्यों नहीं खिरी ? तीर्थंकर महावीर की देशना 66 दिन तक नहीं खिरी क्योंकि गणधर का अभाव था। 20. तीर्थंकर महावीर की देशना कब खिरी थी? तीर्थंकर महावीर की देशना श्रावण कृष्ण प्रतिपदा, शनिवार 1 जुलाई, ई.पू. 557 में खिरी थी। 21. तीर्थंकर महावीर के समवसरण में राजा श्रेणिक ने कितने प्रश्न किए थे? तीर्थंकर महावीर के समवसरण में राजा श्रेणिक ने 60 हजार प्रश्न किए थे। 22. तीर्थंकर महावीर ने योग निरोध करने के लिए कितने दिन पहले समवसरण छोड़ा था ? तीर्थंकर महावीर ने योग निरोध करने के लिए दो दिन पहले समवसरण छोड़ा था। 23. तीर्थंकर महावीर को सम्यग्दर्शन किस पर्याय में हुआ था ? तीर्थंकर महावीर को सम्यग्दर्शन सिंह की पर्याय में हुआ था। 24. तीर्थंकर महावीर का तीर्थकाल कितने वर्षों का है? तीर्थंकर महावीर का तीर्थकाल 21 हजार 42 वर्षों का है। (ति.प.4/1285) 25. सिंह से महावीर तक के भव बताइए? सिंह, सौधर्मस्वर्ग में देव, कनकोज्वल राजा, लान्तव स्वर्ग में देव, हरिषेण राजा, महाशुक्र स्वर्ग में देव, प्रिय मित्र नामक राजपुत्र, बारहवें स्वर्ग में देव, नंदराजा, अच्युत स्वर्ग में इन्द्र और तीर्थंकर महावीर। 26. तीर्थंकर महावीर ने तीर्थंकर प्रकृति का बंध कब एवं कहाँ किया था? तीर्थंकर महावीर ने नंदराजा की पर्याय में जब संयम धारण किया था, तब प्रोष्ठिल गुरु के पादमूल में तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया था। 27. सिंह को उपदेश देने वाले मुनियों के क्या नाम थे ? सिंह को उपदेश देने वाले मुनियों के नाम अमितकीर्ति एवं अमितप्रभ मुनि थे। 28. तीर्थंकर पार्श्वनाथ के निर्वाण पश्चात् कितने वर्षों के बाद बालक महावीर का जन्म हुआ था ? तीर्थंकर पार्श्वनाथ के निर्वाण के 178 वर्ष बाद बालक महावीर का जन्म हुआ था। 29.तीर्थंकर महावीर के कितने नाम थे, नाम बताइए? 1.वीर—जन्माभिषेक के समय इन्द्र को शंका हुई कि बालकइतने जलप्रवाहको कैसे सहनकोरेगा। बालक ने अवधिज्ञान से जानकर पैर के अंगूठे से मेरुपर्वत को थोड़ा-सा दबाया, तब इन्द्र को ज्ञात हुआ इनके पास बहुत बल है। इन्द्र ने क्षमा माँगी एवं कहा कि ये तो वीर जिनेन्द्र हैं। 2.वद्धमान-राजा सिद्धार्थ ने कहा जब से बालक प्रियकारिणी के गर्भ में आया उसी दिन से घर, नगर और राज्य में धन-धान्य की समृद्धि प्रारम्भ हो गई, अतएव इस बालक का नाम वर्द्धमान रखा जाए। 3.सन्मति - एक समय संजय और विजय नाम के दो चारण ऋद्धिधारी मुनियों को तत्व सम्बन्धी कुछ जिज्ञासा थी। वर्द्धमान पर दृष्टि पड़ते ही उनकी जिज्ञासा का समाधान हो गया तब मुनियों ने वर्द्धमान का नाम सन्मति रखा। 4.महावीर-वर्द्धमान मित्रों के साथ एक वृक्ष पर क्रीड़ा (खेल) कर रहे थे, तब संगमदेव ने भयभीत करने के लिए एक विशाल सर्प का रूप धारण कर वृक्ष के तने से लिपट गया। सब मित्र डर गए, डाली से कूदे और भाग गए, किन्तु वर्द्धमान सर्प के ऊपर चढ़कर ही उससे क्रीड़ा करने लगे थे। ऐसा देख संगमदेव ने अपने रूप में आकर वर्द्धमान की प्रशंसा कर महावीर नाम दिया। 5.अतिवीर-एक हाथी मदोन्मत्त हो किसी के वश में नहीं हो रहा था। उत्पात मचा रहा था। महावीर को ज्ञात हुआ तो वे जाने लगे, तब लोगों ने मना किया किन्तु वे नहीं माने और चले गए। हाथी महावीर को देख नतमस्तक हो सूंड उठाकर नमस्कार करने लगा। तब जनसमूह ने कुमार की प्रशंसा की और उनका नाम अतिवीर रख दिया। 30. मुनि महावीर पर किसने उपसर्ग किया था ? मुनि महावीर पर उपसर्ग भव नामक यक्ष अथवा स्थाणु नाम रुद्र ने किया। ऐसे दो नाम पुराणों में आते हैं।
  6. चौबीस तीर्थंकरों में सबसे ज्यादा उपसर्गों को सहन करने वाले तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जीवन परिचय एवं चारित्र के विकास का वर्णन इस अध्याय में है। बालक पार्श्वनाथ का जन्म ईसा पूर्व 877 सन् में बनारस में हुआ था। जब बालक पार्श्वकुमार 16 वर्ष के हो गए तब वे एक दिन क्रीड़ा करने के लिए अपने साथियों के साथ नगर के बाहर गए। वहाँ क्या देखते हैं कि एक तापसी जो उनका नाना महीपाल था, नानी के वियोग में पञ्चाग्नि तप तपने वाला तापसी हो गया था। वह अग्नि में लकड़ी डाल रहा था। पार्श्वकुमार ने उसे रोका और कहा कि तुम क्या कर रहे हो? इसमें एक नाग-नागिन का युगल जल रहा है। जब जलती हुई लकड़ी को चीरा गया तब सचमुच वह जोड़ा जल रहा था। पार्श्वकुमार ने उस युगल को उपदेश दिया। उपदेश सुनते-सुनते उनका मरण हुआ और वह युगल धरणेन्द्र-पद्मावती हुए। कालान्तर में वह तापसी भी संक्लेश को प्राप्त होकर मरण को प्राप्त हुआ और वह संवर नामक ज्योतिषी देव हुआ। 30 वर्ष की आयु में पार्श्वकुमार को वैराग्य उत्पन्न हो गया और उन्होंने समस्त परिग्रह को छोड़कर दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली तथा 4 माह का छद्मस्थ काल रहा और 4 माह के अन्त में 7 दिनों का योग लेकर वे धम्र्यध्यान को बढ़ाते हुए विराजमान थे, तभी आकाश मार्ग से संवरदेव विमान में जा रहा था। उसका विमान रुक गया और उसने विभङ्गज्ञान से इसका कारण जाना तो पूर्व भव का बैर स्पष्ट दिखने लगा तब उस दुर्बुद्धि ने उन पर अनेक प्रकार के उपसर्ग प्रारम्भ कर दिए। प्रत्येक कर्म की अति का होना इति का सूचक है। धरणेन्द्र-पद्मावती ने अवधिज्ञान से यह उपसर्ग जाना तो वह अपने उपकारक पार्श्वनाथ मुनि की रक्षा के लिए आए और उनकी रक्षा की। पार्श्वप्रभु ध्यान में लीन रहे और उन्होंने केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। केवलज्ञान प्राप्त होते ही उपसर्ग दूर हुआ और वह कमठ का जीव संवर भी प्रभु चरणों में अपने किए हुए कर्म की क्षमा माँगता रहा और उसे भी सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो गई। केवलज्ञान होते ही समवसरण की रचना हुई और प्रभु ने अनेक स्थानों पर जाकर धर्मोपदेश दिया। अन्त में आयु का एक माह शेष रहने पर योग निरोध करने के लिए समवसरण छोड़कर सम्मेदशिखरजी पधारे और वहीं से मोक्ष प्राप्त किया। (चौबीसी पुराण में मित्र का नाम सुभौम लिखा है।) 1. बालक पार्श्वनाथ कौन-से स्वर्ग से आए थे? प्राणत स्वर्ग (चौदहवें स्वर्ग) से आए थे। 2. पार्श्वकुमार का अपर नाम क्या था ? पार्श्वकुमार का अपर नाम सुभौम था। (उत्तरपुराण,73/103) 3. पार्श्वकुमार के माता - पिता का क्या नाम था ? माता वामादेवी (ब्राह्मी) पिता विश्वसेन (अश्वसेन) था। 4. पार्श्वकुमार का जन्म किस वंश में हुआ था ? पार्श्वकुमार का जन्म उग्रवंश में हुआ था। 5. पार्श्वनाथ के कल्याणक किन - किन तिथियों में हुए थे? गर्भकल्याणक - वैशाख कृष्ण द्वितीया। जन्मक्रयाणक्र - पौष कृष्ण एकादशी। दीक्षाकल्याणक - पौष कृष्ण एकादशी। ज्ञानकल्याणक - चैत्र कृष्ण चतुर्थी। मोक्षकल्याणक - श्रावण शुक्ल सप्तमी। 6. पार्श्वकुमार की दीक्षा स्थली, दीक्षा वन एवं दीक्षा वृक्ष का क्या नाम था ? पार्श्वकुमार की दीक्षा स्थली-वाराणासी, दीक्षा वन - अश्ववन/अश्वत्थ वन एवं दीक्षा वृक्ष-धाव/देवदारु वृक्ष। 7. मुनि पार्श्वनाथ की पारणा कहाँ एवं किसके यहाँ हुई थी ? मुनि पार्श्वनाथ की पारणा गुलमखेट (द्वारावती) में राजा ब्रह्मदत्त के यहाँ हुई। 8. मुनि पार्श्वनाथ को केवलज्ञान कहाँ एवं किस वृक्ष के नीचे हुआ था ? मुनि पार्श्वनाथ को केवलज्ञान अश्ववन (काशी) में देवदारु वृक्ष के नीचे हुआ था। 9. तीर्थंकर पार्श्वनाथ की आयु एवं ऊँचाई कितनी थी? तीर्थंकर पार्श्वनाथ की आयु 100 वर्ष एवं ऊँचाई 9 हाथ थी। 10. तीर्थंकर पार्श्वनाथ को मोक्ष कहाँ से हुआ था ? तीर्थंकर पार्श्वनाथ को मोक्ष सम्मेदशिखरजी के स्वर्णभद्र कूट से हुआ था। 11. तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने कितने वर्ष उपदेश दिया था ? तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने 69 वर्ष 7 माह उपदेश दिया था | 12. तीर्थंकर पार्श्वनाथ के मुख्य गणधर, मुख्य गणिनी एवं मुख्य श्रोता कौन थे? तीर्थंकर पार्श्वनाथ के मुख्य गणधर स्वयंभू, मुख्य गणिनी सुलोचना एवं मुख्य श्रोता महासेन थे। 13. तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समवसरण में कितने मुनि, आर्यिका, श्रावक और श्राविकाएँ थीं? तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समवसरण में 16,000 मुनि, 38,000 आर्यिकाएँ, 1 लाख श्रावक और 3 लाख श्राविकाएँ थीं। 14. तीर्थंकर पार्श्वनाथ के यक्ष-यक्षिणी का क्या नाम था ? तीर्थंकर पार्श्वनाथ के यक्ष मातंग, यक्षिणी पद्मावती थी। 15. तीर्थंकर पार्श्वनाथ एवं कमठ के पूर्व भव कौन-कौन से थे? पार्श्वनाथ कमठ 1.विश्वभूत ब्राह्मण का पुत्र मरुभूति विश्वभूति ब्राह्मण का पुत्र मरुभूति का बड़ा भाई कमठ 2.वज़घोष हाथी कुक्कुटसर्प 3.सहस्रार स्वर्ग (12 वाँ) में देव धूम प्रभा नरक 4.अग्निवेग विद्याधर अजगर 5.अच्युत स्वर्ग (16 वाँ) में देव छठवें नरक 6.वज्रनाभि चक्रवतीं कुरङ्ग भील 7.मध्यमग्रैवेयक में अहमिन्द्र सप्तम नरक 8.आनन्द राजा सिंह 9.आनत नामक स्वर्ग (13 वाँ) के प्राणत विमान में इन्द्र पाँचवें नरक 10.तीर्थंकर पार्श्वनाथ महीपाल राजा एवं संवर नामक ज्योतिषी देव (पा.च.) 16. तीर्थंकर पार्श्वनाथ का तीर्थकाल कितने वर्ष रहा था ? तीर्थंकर पार्श्वनाथ का तीर्थकाल 278 वर्ष रहा था। (त.प.4/1285) 17. कमठ के जीव ने कितनी बार पार्श्वनाथ के जीव को प्राणों से रहित किया था ? कमठ के जीव ने पाँच बार पार्श्वनाथ के जीव को प्राणों से रहित किया था।
  7. राजा नाभिराय एवं रानी मरुदेवी के इकलौते पुत्र राजकुमार ऋषभदेव ने संसारी प्राणी को आजीविका का क्या साधन बताया तथा उनका जीवन परिचय एवं चारित्र के विकास का वर्णन इस अध्याय में है। भोगभूमि का अवसान हो रहा था और कर्मभूमि का प्रारम्भ। उसी समय बालक ऋषभ का जन्म अयोध्या में हुआ था। उनके पिता राजा नाभिराय एवं माता रानी मरुदेवी थीं। पहले भोगभूमि में भोगसामग्री कल्पवृक्षों से मिलती थी। कर्मभूमि प्रारम्भ होते ही कल्पवृक्षों ने भोगसामग्री देना बंद कर दिया था, जिससे जनता में त्राहित्राहि मच गई। सारे मानव इस समस्या को लेकर राजा नाभिराय के पास पहुँचे। राजा नाभिराय ने कहा इसका समाधान अवधिज्ञानी राजकुमार ऋषभदेव करेंगे। राजकुमार ऋषभदेव ने दु:खी जनता को देखकर आजीविका चलाने के लिए षट्कर्म का उपदेश दिया। जो निम्न प्रकार हैं 1. असि - असि का अर्थ तलवार। जो देश की रक्षा के लिए तलवार लेकर देश की सीमा पर खड़े रहकर देश की रक्षा करते हैं, ऐसे सैनिक एवं नगर की रक्षा के लिए भी सिपाही एवं गोरखा आदि रहते हैं। 2. मसि - मुनीमी करने वाले, लेखा-जोखा रखने वाले, चार्टर्ड एकाउन्टेंट एवं बैंक कैशियर आदि। 3. कृषि - जीव हिंसा का ध्यान रखते हुए खेती करना अर्थात् अहिंसक खेती करना एवं पशुपालन करना। 4. विद्या - बहतर कलाओं को करना अथवा वर्तमान में आई.ए.एस., आई.पी.एस., लेक्चरार, एम.बी.ए., इंजीनियरिंग, डॉक्टरी, एल.एल.बी. आदि शैक्षणिक कार्य करना। 5. शिल्प - सुनार, कुम्हार, चित्रकार, कारीगर, दर्जी, नाई, रसोइया, मूर्तिकार, मकान, मन्दिर आदि के नक़्शे बनाना अदि | 6. वाणिज्य - सात्विक और अहिंसक व्यापार, उद्योग करना। इस उपदेश से मानवों में शान्ति आई और वे इस प्रकार जीवन जीने लगे जो आज तक इसी रूप से चला आ रहा है। कुछ समय के पश्चात् राजकुमार ऋषभदेव का विवाह नंदा एवं सुनंदा नामक दो कन्याओं से हुआ। पिता ने समय देखकर राजकुमार ऋषभदेव का राज्य तिलक कर दिया राजा ऋषभदेव के 101 पुत्र एवं 2 पुत्रियाँ थीं। राजा ऋषभदेव ने अपनी दोनों पुत्रियों को अक्षर एवं अङ्कविद्या सिखाई। ब्राह्मी को अक्षर एवं सुन्दरी को अङ्कविद्या सिखाई जो आज तक चली आ रही है।एक समय राजा ऋषभदेव अपने राजदरबार में स्वर्ग की अप्सरा नीलाञ्जना का नृत्य देख रहे थे कि उसका अचानक मरण हो गया। इन्द्र ने तुरन्त दूसरी अप्सरा भेजी, किन्तुराजा ऋषभदेव ने अवधिज्ञान से जान लिया कि प्रथम अप्सरा का मरण हो गया है और इन्द्र ने चालाकी से दूसरी अप्सरा भेज दी है। अप्सरा का मरण जानकर उन्हें वैराग्य हो गया और राजपाट भरत-बाहुबली को देकर, दिगम्बरी दीक्षा धारण कर ली। छ: माह का उपवास किया। जब वे पारणा (आहार) करने निकले तब कोई भी श्रावक नवधाभक्ति नहीं जानता था। अतः 7 माह 9 दिन के उपवास और हो गए। विहार करते-करते एक दिन मुनि ऋषभदेव का हस्तिनापुर में आगमन हुआ। मुनि श्री ऋषभदेव का दर्शन करते ही राजा श्रेयांस को जातिस्मरण हो गया कि पिछले आठवें भव में मैंने चारणऋद्धिधारी मुनिराज को नवधाभक्ति पूर्वक आहार दान दिया था। इसी नवधाभक्ति के न मिलने से ऋषभदेव मुनिराज का आहार नहीं हो पा रहा है। फिर क्या था। जब ऋषभदेव मुनि आहार को निकले तो राजा श्रेयांस एवं राजा सोमने प्रथम तीर्थंकर की प्रथम पारणा वैशाख शुक्ल तीज के दिन कराई। तभी से अक्षय तृतीया पर्व प्रचलित है। एक हजार वर्ष तपस्या करने के बाद मुनि ऋषभदेव को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई और समवसरण में दिव्यध्वनि द्वारा धर्म उपदेश दिया। कालांतर में आयु के चौदह दिन शेष रहने पर वे समवसरण को छोड़कर कैलास पर्वत पर चले गए। वहाँ योग निरोध किया और माघ कृष्ण चतुर्दशी को सिद्ध गति अर्थात् मोक्ष को प्राप्त किया | 1. बालक ऋषभदेव कहाँ से आए थे? बालक ऋषभदेव सर्वार्थसिद्धि विमान से आए थे। 2. तीर्थंकर ऋषभदेव के प्रचलित नाम बताइए? श्री आदिनाथ, श्री वृषभनाथ, श्री पुरुदेव, श्री आदि ब्रह्मा, श्री प्रजापति आदि। 3. बालक ऋषभदेव का जन्म कहाँ हुआ था और उस नगरी का दूसरा नाम क्या था ? बालक ऋषभदेव का जन्म अयोध्या में हुआ था और उस नगरी का दूसरा नाम विनीता नगरी था। 4. मुनि ऋषभदेव को दीक्षा के कितने दिन बाद आहार मिला था ? मुनि ऋषभदेव को दीक्षा के 1 वर्ष 39 दिन बाद आहार मिला था। 5. तीर्थंकर ऋषभदेव के यक्ष-यक्षिणी का क्या नाम था ? तीर्थंकर ऋषभदेव के यक्ष का नाम गौमुख, यक्षिणी का नाम चक्रेश्वरी था। 6. राजा ऋषभदेव के कौन से पुत्र सर्वप्रथम मोक्ष गए? राजा ऋषभदेव के अनन्तवीर्य अथवा बाहुबली (इस सम्बन्ध में दो मत हैं) पुत्र सर्वप्रथम मोक्ष गए। 7. भारत देश का नाम भरत वर्ष कब से है ? अनादिकाल से इस क्षेत्र को भरत वर्ष ही कहते हैं। 8. नारी शिक्षा के प्रथम उद्धोषक कौन थे? नारी शिक्षा के प्रथम उद्धोषक राजा ऋषभदेव थे। 9. ऋषभदेव के पाँच कल्याणक किस-किस तिथि में हुए थे? गर्भकल्याणक - आशाद कृष्ण द्वितीय | जन्मकल्याणक - चैत्र कृष्ण नवमी। दीक्षाकल्याणक - चैत्र कृष्ण नवमी। ज्ञानकल्याणक - फाल्गुन कृष्ण एकादशी। मोक्षकल्याणक - माघकृष्ण चतुर्दशी। 10. राजा ऋषभदेव ने कौन-कौन सी वर्णव्यवस्था दी थी? राजा ऋषभदेव ने तीन वणों की व्यवस्था की थी-क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। 11. राजा ऋषभदेव की दीक्षा स्थली, दीक्षा वन एवं दीक्षा वृक्ष का क्या नाम है ? राजा ऋषभदेव की दीक्षा स्थली-प्रयाग, दीक्षा वन-सिद्धार्थ वन एवं दीक्षा वृक्ष-वट वृक्ष है। 12. तीर्थंकर ऋषभदेव के मुख्य गणधर, मुख्य गणिनी एवं मुख्य श्रोता कौन थे ? मुख्य गणधर ऋषभसेन, मुख्य गणिनी ब्राह्मी एवं मुख्य श्रोता भरत थे। 13. तीर्थंकर ऋषभदेव का तीर्थकाल कितने वर्ष रहा था ? तीर्थंकर ऋषभदेव का तीर्थकाल 50 लाख कोटि सागर+ 1 पूर्वाङ्ग प्रमाण रहा था। (त.प.4/1261) मुनि 14. ऋषभदेव को केवलज्ञान कहाँ एवं किस वृक्ष के नीचे हुआ था ? मुनि ऋषभदेव को केवलज्ञान शकटावन (पुरिमतालपुर) में एवं वट वृक्ष के नीचे हुआ था। 15. तीर्थंकर ऋषभदेव के कितने गणधर थे ? तीर्थंकर ऋषभदेव के 84 गणधर थे। 16. ऋषभदेव के समवसरण में कितने मुनि, आर्यिकाएँ, श्रावक एवं श्राविकाएँ थीं? ऋषभदेव के समवसरण में 84,000मुनि, 3,50,000 आर्यिकाएँ, 3 लाख श्रावक एवं 5 लाख श्राविकाएँ थीं। 17. तीर्थंकर ऋषभदेव ने तीर्थंकर प्रकृति का बंध कब और किसके पादमूल में किया था ? पूर्व के तीसरे भव में जब ऋषभदेव वज़नाभि चक्रवर्ती की पर्याय में थे तब सबकुछ त्यागकर वज़सेन तीर्थंकर, जो पिता थे, उनके समवसरण में दिगम्बरी दीक्षा धारण की थी। उसी समय उन्हें तीर्थंकर प्रकृति का बंध हुआ था। 18. तीर्थंकर ऋषभदेव की आयु एवं ऊँचाई कितनी थी? तीर्थंकर ऋषभदेव की आयु 84 लाख पूर्व एवं ऊँचाई 500 धनुष थी।
  8. प्राणीमात्र के कल्याण की भावना एवं सोलहकारण भावना भाने से संसार अवस्था में सर्वोच्च पद तीर्थंकर का प्राप्त होता है। उनके पाँच कल्याणक होते हैं। किस कल्याणक में क्या - क्या होता है, इसका वर्णन इस अध्याय में है। 1. कल्याणक किसे कहते हैं? तीथङ्करों के गर्भ, जन्म, तप (दीक्षा), ज्ञान एवं निर्वाण के समय इन्द्रों, देवों एवं मनुष्यों के द्वारा विशेष रूप से जो उत्सव मनाया जाता है, उसे कल्याणक कहते हैं। 2. पाँच कल्याणक कौन-कौन से होते हैं ? गर्भकल्याणक, जन्मकल्याणक, तपकल्याणक (दीक्षाकल्याणक), ज्ञानकल्याणक एवं मोक्षकल्याणक | 3. गर्भ कल्याणक किसे कहते हैं? सौधर्म इन्द्र अपने दिव्य अवधिज्ञान से तीर्थंकर के गर्भावतरण को निकट जानकर कुबेर को तीर्थंकर के माता - पिता के लिए नगरी का निर्माण करने एवं घर के ऑगन में प्रतिदिन तीन बार साढ़े तीन करोड़ की संख्या का परिमाण लिए हुए धन की धारा (रत्नों की वर्षा) करने की आज्ञा प्रदान करता है। इस प्रकार रत्नों की वर्षा गर्भ में आने से 6 माह पूर्व से जन्म होने तक अर्थात् लगभग 15 माह तक निरन्तर होती है। तीर्थंकर की माता गर्भ धारण के पूर्व रात्रि के अन्तिम पहर में अत्यन्त सुहावने, मनभावन और आह्वादकारी क्रमश: 16 स्वप्नों को देखती है, ये स्वप्न तीर्थंकर के गर्भावतरण के सूचक होते हैं। जैसे ही तीर्थंकर का गर्भावतरण होता है, स्वर्ग से सौधर्म इन्द्र सहित अनेक देव उस नगर की तीन परिक्रमा कर माता - पिता को नमस्कार करते हैं। गर्भ स्थित तीर्थंकर की स्तुति कर महान् उत्सव मनाते हैं। गर्भकल्याणक का उत्सव पूर्ण कर सौधर्म इन्द्र श्री आदि देवकुमारियों को जिन माता के गर्भ शोधन के लिए नियुक्त करता है। ये देवकुमारियाँ जिनमाता की सेवा करती हैं एवं माता का मन धर्मचर्चा में लगाए रखती हैं और सौधर्म इन्द्रदेवों सहित अपने स्थान को वापस चला जाता है। 4. जन्मकल्याणक किसे कहते हैं ? गर्भावधिपूर्ण होते ही जिनमाता तीर्थंकर बालक को जन्म देती है। जन्म होते ही तीनों लोक में आनन्द और सुख का प्रसार होता है। यहाँ तक कि जहाँ चौबीसों घटमार-काट चल रही है, वहाँ नरकों में भी नारकी जीवों को एक क्षण के लिए अपूर्वसुख की प्राप्ति होती है एवं स्वर्ग के इन्द्रों के आसन कम्पायमान हो जाते हैं तथा कल्पवासी, लगते हैं। इन सब कारणों से इन्द्रों एवं देवों को तीर्थंकर के जन्म का निश्चय हो जाता है और तत्काल ही वे अपने आसन से नीचे उतर कर सात कदम आगे चलकर परोक्षरूप से तीर्थंकर (बालक) को नमस्कार कर उनकी स्तुति करते हैं। तदनन्तर सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से सात प्रकार की देव सेना जय-जय करती हुई जन्म नगरी की (1.हरिवंशपुराण, 37/2,3/471) ओर गमन करती है। सौधर्म इन्द्र भी अपनी इन्द्राणी के साथ ऐरावत हाथी पर सवार होकर जन्म नगरी को गमन करते हैं। सौधर्म इन्द्र के साथ सारे देवगण जन्म नगरी की तीन प्रदक्षिणा देते हैं। तदनन्तर शची प्रसूतिगृह में प्रच्छन्न रूप से पहुँचकर जिन माता की तीन प्रदक्षिणा देकर, जिनमाता को मायामयी निद्रा से निद्रित कर, अत्यन्तहर्षऔर उल्लास के साथ जिन बालक की छवि को निहारती हुई बालक को लाकर सौधर्म इन्द्रको सौंप देती है एवं वहाँ एक मायामयी बालक को सुला देती है। सौधर्म इन्द्र तीर्थंकर बालक का दर्शन कर भावविभोर हो जाता है एवं 1000 नेत्र बनाकर तीर्थंकर बालक का रूप देखता है। तत्पश्चात् ऐरा वत हाथी पर आरूढ़ होकर जिन बालक को अपनी गोद में बिठाकर सुमेरु पर्वत पर जाकर पाण्डुकशिला पर क्षीरसागर के जल से तीर्थंकर बालक का 1008 कलशों से अभिषेक करता है, शचीबालक को वस्त्राभूषणों से सुशोभित करती है। पश्चात् इन्द्र बालक के दाहिने पैर के अंगूठे पर जो चिह्न देखता है वही चिह्न उन तीर्थंकर का घोषित कर तीर्थंकर का नामकरण करता है। तत्पश्चात् सौधर्म इन्द्र ऐरावत हाथी पर बालक को विराजमान कर वापस जन्म नगरी को आता है। इन्द्राणी, माता के पास जाकर मायामयी बालक को उठा लेती है और माता की मायामयी निद्रा को दूर कर जिन बालक को माता के पास रखती है। जिनमाता अत्यन्त प्रसन्न होकर बालक का दर्शन करती है। इन्द्र एवं देवगण तीर्थंकर के माता-पिता का विशेष सत्कार कर वापस अपने इन्द्रलोक आ जाते हैं। 5. तपकल्याणक किसे कहते हैं ? जन्मकल्याणक के बाद तीर्थंकर का बाल्यकाल व्यतीत होता है एवं युवा होने पर राज्यपद को स्वीकार करते हैं। (वर्तमान चौबीसी में 5 तीर्थंकरों राज्यपद स्वीकार नहीं किया) किसी निमित से उन्हें वैराग्य उत्पन्न हो जाता है तब उसी समय ब्रह्मस्वर्ग से लोकान्तिक देव आकर तीर्थंकर के वैराग्य की प्रशंसा करते हुए स्तुति करते हैं। तत्पश्चात् सौधर्म इन्द्र क्षीर सागर के जल से वैरागी तीर्थंकर का अभिषेक करता है, जिसे दीक्षाभिषेक कहते हैं। तत्पश्चात् कुबेर द्वारा लायी गई पालकी में तीर्थंकर स्वयं बैठ जाते हैं, उस पालकी को मनुष्य एवं विद्याधर 7-7 कदम तक ले जाते हैं, इसके बाद देवतागण उस पालकी को आकाश मार्ग से दीक्षावन तक ले जाते हैं। वहाँ देवों द्वारा रखी हुई चन्द्रकान्तमणि की शिला पर विराजमान हो पद्मासन मुद्रा में पूर्वाभिमुख होकर सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार करके पञ्चमुष्ठी केशलोंच करके वस्त्राभूषण का त्यागकर जिनमुद्रा को धारण करते हुए समस्त पापों को त्याग कर महाव्रतों का संकल्प करते हैं। सौधर्म इन्द्र केशों (बालों) को रत्न के पिटारे में रखकर क्षीरसागर में विसर्जित करता है। दीक्षोपरांत तीर्थंकर (मुनि) की विशेष पूजा-भक्ति कर देवगण अपनेअपने स्थान को चले जाते हैं। (प.पु.3/263-265) 6. ज्ञानकल्याणक किसे कहते हैं ? तीर्थंकर (मुनि) दीक्षा लेने के बाद मौन होकर घोर तपस्या करते हुए धम्र्यध्यान को बढ़ाते हुए क्षपक श्रेणी चढ़ते हुए, 10वें गुणस्थान के अन्त में मोहनीयकर्म का पूर्ण क्षय करते हुए 12 वें गुणस्थान के अन्तिम समय में ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्म का क्षय होते ही केवलज्ञान प्राप्त कर लेते हैं। जिससे जगत् के समस्त चराचर द्रव्यों को और उनकी अनन्त पर्यायों को युगपत्जानने लगते हैं। केवलज्ञान उत्पन्न होते ही देव अपनेअपने यहाँ प्रकट होने वाले चिहों से एवं सौधर्म इन्द्र का आसन कम्पायमान होने से अवधिज्ञान से जान लेते हैं कि तीर्थंकर (मुनि) को केवलज्ञान प्राप्त हो गया है, अतः इन्द्र एवं देव अपने स्थान से उठकर सात कदम आगे बढ़कर तीर्थंकर को नमस्कार करते हैं। सौधर्म इन्द्र सभी देवों के साथ तीर्थंकर के दर्शन-पूजन करने आते हैं एवं सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर समवसरण की रचना करता है। जिसमें तीर्थंकर विराजमान होते हैं, इन्द्र, देव, मनुष्य तथा तिर्यञ्च तीर्थंकर के दर्शन-पूजन करते एवं धर्मोपदेश सुनते हैं। 7. तीर्थंकरों देशना दिन में कितने बार होती है एवं कितने समय तक होती है? तीर्थंकरों की देशना दिन में चार बार होती है-प्रात:, मध्याह्न, सायंकाल एवं मध्यरात्रि में तथा चक्रवर्ती आदि विशेष पुरुष के आने से अकाल में भी देशना हो जाती है। एक बार में 3 मुहूर्त अर्थात् 2 घंटा 24 मिनट तक देशना होती है, जिसे दिव्यध्वनि कहते हैं। (गो.जी.जी. 356) 8. मोक्षकल्याणक किसे कहते हैं? तीर्थंकर का जब मोक्ष का समय निकट आ जाता हैं, तब वे समवसरण को छोड़कर जहाँ से निर्वाण (मोक्ष) होना है, वहाँ जाकर योग निरोध कर 14 वें गुणस्थान में आते ही पाँच हृस्व अक्षर (अ, इ, उ, ऋ,लू) के उच्चारण में जितना समय लगता है उसके अन्त में ही चार अघातिया कर्मो का क्षय कर निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं। उसी समय इन्द्र एवं देव तीर्थंकर की निर्वाण भूमि में आते हैं और तीर्थंकर के परम पवित्र शरीर को रत्नमयी पालकी में विराजमान कर नमस्कार करते हैं। तदनन्तर अग्निकुमार देव अपने मुकुट से उत्पन्न अग्नि के द्वारा तीर्थंकर के शरीर का अन्तिम संस्कार करते हैं। पश्चात् उस भस्म को मस्तक पर लगाकर उन जैसा बनने की भावना भाते हैं। फिर समस्त इन्द्र मिलकर आनन्द नाटक करते हैं। इस प्रकार सभी देव विधिपूर्वक तीर्थंकर के निर्वाणकल्याणक की पूजन कर एवं उस स्थान पर वज़सूची से चरण चिह्न बनाकर अपने-अपने स्थान वापस चले जाते हैं। (म.पु.47/343-354)
  9. तीर्थंकरों को केवल ज्ञान होते ही उनके सातिशय पुण्य से समवसरण की रचना होती है। ऐसे समवसरण की विशेषताओं का वर्णन इस अध्याय में है। 1. समवसरण क्या है ? तीर्थंकरों के धर्मोपदेश देने की सभा का नाम समवसरण है। 2. समवसरण की विशेषताएँ बताइए? तीर्थंकरों को केवल ज्ञान उत्पन्न होने के बाद सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर विशेष रत्न एवं मणियों से समवसरण की रचना करता है। यह समवसरण भूतल से 5000 धनुष ऊपर आकाश के अधर में बारह योजन विस्तृत एक गोलाकार इन्द्र नीलमणि की शिला होती है। इस शिला पर समवसरण की रचना बनाई जाती है। (1धनुष = 4 हाथ अर्थात् 6 फीट) अत: यह समवसरण 30,000 फीट ऊपर रहता है। (ति.प.4/724-725) चारों दिशाओं में 20000-20000 सीढ़ियाँ होती हैं, इन सीढ़ियों से बिना परिश्रम के चढ़ जाते हैं। जैसे—आज लिफ्ट से ऊपर चढ़ जाते हैं एवं एसकेलेटर में मात्र खड़े हो जाते हैं और सीढ़ियाँ चलती रहती हैं। प्रत्येक दिशा में सीढ़ियों से लगा एक मार्ग होता है, जो समवसरण के केन्द्र में स्थित गंधकुटी के प्रथम पीठ तक जाता है। समवसरण में आठ भूमियाँ होती हैं- 1. चैत्य प्रासाद भूमि, 2. जल खातिका भूमि, 3. लतावन भूमि, 4. उपवन भूमि, 5. ध्वज भूमि, 6. कल्पवृक्ष भूमि, 7. भवन भूमि, 8. श्रीमण्डप भूमि एवं इसके आगे स्फटिक मणिमय वेदी है। इस वेदी के आगे एक के ऊपर एक क्रमश: तीन पीठ होती हैं। प्रथम पीठ, द्वितीय पीठ, तृतीय पीठ के ऊपर ही गंधकुटी होती है। इस गंधकुटी में स्थित सिंहासन में रचे हुए कमल से 4 अङ्गल ऊपर तीर्थंकर अष्ट प्रातिहार्यों के साथ आकाश में विराजमान रहते हैं। समवसरण के बाहरी भाग में मार्ग के दोनों तरफ दो-दो नाट्यशालायें अर्थात् कुल 16 नाट्यशालाएँ होती हैं, जिनमें 32-32 देवांगनाएँ नृत्य करती रहती हैं। इन द्वारों के भीतर प्रविष्ट होने पर कुछ आगे चारों दिशाओं में चार मान स्तम्भ होते हैं, जिन्हें देखने से मानी व्यक्तियों का मान गलित हो जाता है। श्री मण्डप भूमि में स्फटिक मणिमय '16 दीवारों' से विभाजित बारह कोठे होते हैं जिनमें बारह सभाएँ होती हैं। तीर्थंकर की दाई ओर से क्रमश: 1. गणधर एवं समस्त मुनि, 2. कल्पवासी देवियाँ, 3. आर्यिकाएँ एवं श्राविकाएँ, 4. ज्योतिषी देवियाँ 5. व्यन्तर देवियाँ, 6. भवनवासी देवियाँ, 7. भवनवासी देव, 8. व्यन्तर देव, 9. ज्योतिषी देव, 10. कल्पवासी देव, 11. चक्रवर्ती एवं मनुष्य, 12. पशु-पक्षी बैठते हैं। (ति.प.4/866-872) योजनों विस्तार वाले समवसरण में प्रवेश करने व निकलने में मात्र अन्तर्मुहूर्त का ही समय लगता है। समवसरण में मात्र संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव ही आते हैं। समवसरण में तीन लोक के जीव आते हैं,क्योंकि अधोलोक से भवनवासी और व्यन्तर देव भी वहाँ आते हैं। समवसरण में तीर्थंकर के महात्म्य से आतंक, रोग, मरण, भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी नहीं लगती है एवं हमेशा बैर रखने वाले सर्प नेवला, मृग-मृगेन्द्र भी एक साथ बैठते हैं और तीर्थंकर का उपदेश सुनते हैं। गुरुवर आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ने इससे सम्बन्धित एक दोहा लिखा है:- पानी भरते देव हैं, वैभव होता दास। मृग-मृगेन्द्र मिल बैठते, देख दया का वास। (सर्वोदय शतक, 29) 3. समवसरण व्रत के कितने उपवास होते हैं एवं कब से प्रारम्भ होते हैं? एक वर्ष पर्यन्त प्रत्येक चतुर्दशी को एक उपवास करें। इस प्रकार 24 उपवास करें। यह व्रत किसी भी चतुर्दशी से प्रारम्भ कर सकते है तथा "ओं ह्रीं जगदापद्विनाशाये सकलगुड करडय श्रीसर्वज्ञाय अर्हत्परमेष्टिने नम:" इस मन्त्र का त्रिकाल जाप करें।
  10. जो समवसरण में विराजमान होकर धर्म का सच्चा उपदेश देते हैं, जिन्हें तीन लोक के जीव नमस्कार करते हैं ऐसे तीर्थंकर प्रभु की महिमा का वर्णन इस अध्याय में है। 1. तीर्थंकर किसे कहते हैं? "तरंति संसार महार्णवं येन तत्तीर्थम्" अर्थात् जिसके द्वारा संसार सागर से पार होते हैं, वह तीर्थ है और इसी तीर्थ के प्रवर्तक तीर्थंकर कहलाते हैं। धर्म का अर्थ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र है। चूंकि इनके द्वारा संसार सागर से तरते हैं,इसलिए इन्हें तीर्थ कहा है और जो तीर्थ (धर्म) का उपदेश देते हैं, वे तीर्थंकर कहलाते हैं। 2. तीर्थंकर कितने होते हैं? वैसे तीर्थंकर तो अनन्त हो चुके, किन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्र में अवसर्पिणी के चतुर्थ काल में एवं उत्सर्पिणी के तृतीय काल में (दु:षमा-सुषमा) क्रमश: एक के बाद एक चौबीस तीर्थंकर होते हैं। 3. चौबीस तीर्थंकर के चिह्न सहित नाम बताइए? 4. विदेहक्षेत्र में कितने तीर्थंकर होते हैं? विदेह क्षेत्र में 20 तीर्थंकर तो विद्यमान रहते ही हैं, किन्तु 5 विदेह में अधिक से अधिक 160 हो सकते हैं। 5. अढ़ाईद्वीप में एक साथ अधिक-से-अधिक कितने तीर्थंकर हो सकते हैं? अढ़ाईद्वीप में एक साथ अधिक से अधिक 170 (विदेह में 160, भरत में 5, ऐरावत में 5) तीर्थंकर हो सकते हैं। 6. क्या कभी एक साथ 170 तीर्थंकर हुए थे? सुनते हैं कि अजितनाथ तीर्थंकर के समय एक साथ 170 तीर्थंकर हुए थे। 7. तीर्थंकरों के कितने कल्याणक होते हैं? तीर्थंकरों के पाँच कल्याणक होते हैं। गर्भ, जन्म, दीक्षा या तप, ज्ञान और मोक्ष कल्याणक। 8. क्या भरत, ऐरावत एवं विदेह सभी जगह पाँच कल्याणक वाले तीर्थंकर होते हैं? नहीं। भरत, ऐरावत में पाँच कल्याणक वाले ही तीर्थंकर होते हैं। किन्तु विदेह क्षेत्र में 2, 3 और 5 कल्याणक वाले भी होते हैं। दो में ज्ञान और मोक्ष कल्याणक, तीन में दीक्षा, ज्ञान और मोक्ष कल्याणक होते हैं। 9. तीर्थंकर की कौन-कौन सी विशेषताएँ होती हैं? तीर्थंकरों की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं:- 1. तीर्थंकर के दाढ़ी-मूँछ नहीं होती है। (बी.पा.टी.32/98) 2. तीर्थंकर बालक माता का दूध नहीं पीते किन्तु सौधर्म इन्द्र जन्माभिषेक के बाद उनके दाहिने हाथ के आँगूठे में अमृत भर देता है जिसे चूसकर बड़े होते हैं। 3. जीवन भर (दीक्षा के पूर्व) देवों के द्वारा दिया गया ही भोजन एवं वस्त्राभूषण ग्रहण करते हैं। 4. तीर्थंकर स्वयं दीक्षा लेते हैं। 5. तीर्थंकर को बालक अवस्था में, गृहस्थ अवस्था में एवं मुनि अवस्था में भी मन्दिर जाना आवश्यक नहीं होता। उनका अन्य मुनि से, गृहस्थ अवस्था में साक्षात्कार भी नहीं होता। 6. तीर्थंकरों के कल्याणकों के समय पर नारकी जीवों को भी कुछ क्षण के लिए आनन्दकी अनुभूति होती है। 7. तीर्थंकर मात्र सिद्ध परमेष्ठी को नमस्कार करते हैं। अतः नमःसिद्धेभ्यः बोलते हैं। 8. तीर्थंकरों के 46 मूलगुण होते हैं। 9. तीर्थंकर सर्वाङ्ग सुन्दर होते है। 10. तीर्थंकर के चिह्न कौन रखता है? जब सौधर्म इन्द्र तीर्थंकर बालक का पाण्डुकशिला पर जन्माभिषेक करता है। उस समय तीर्थंकर के दाहिने पैर के अँगूठे पर जो चिह्न दिखता है, वह इन्द्र उन्हीं तीर्थंकर का वह चिह्न निश्चित कर देता है। 11. कौन से क्षेत्र के तीर्थंकर का कौन-सी शिला पर जन्माभिषेक होता है? भरत क्षेत्र के तीर्थंकरों का पाण्डुकशिला पर, पश्चिम विदेह के तीर्थंकरों का पाण्डु कम्बला शिला पर, ऐरावत क्षेत्र के तीर्थंकरों का रक्त शिला एवं पूर्व विदेह के तीर्थंकरों का रक्त कम्बला शिला पर जन्माभिषेक होता है। (সি.সা.633 / 634) 12. कौन से तीर्थंकरों के शरीर का वर्ण कौन-सा था ? कृत्रिम-अकृत्रिम-जिनचैत्य की पूजा के अध्र्य में तीर्थंकरों के शरीर का वर्ण इस प्रकार कहा है द्वी कुन्देन्दु—तुषार—हार–धवलौ, द्वाविन्द्रनील-प्रभौ, द्वौ बन्धूक-सम-प्रभौ जिनवृषौ, द्वौ च प्रियङ्गुप्रभौ । शेषाः षोडश जन्म-मृत्यु-रहिताः संतप्त-हेम-प्रभासम् । ते संज्ञान-दिवाकराः सुर-नुताः सिद्धिं प्रयच्छन्तु नः । किसी कवि ने तीर्थंकरों के वर्ण के विषय निम्न प्रकार कहा है दो गोरे दो सांवरे, दो हरियल दो लाल। सोलह कंचन वरण हैं, तिन्हें नवाऊँ भाल। अर्थ – चन्द्रप्रभ एवं पुष्पदन्त सफेद वर्ण मुनिसुव्रतनाथ एवं नेमिनाथ शष्याम वर्ण / नील वर्ण पद्मप्रभ एवं वासुपूज्य लाल वर्ण सुपार्श्वनाथ एवं पार्श्वनाथ हरित वर्ण शेष सोलह तीर्थंकरों का पीत वर्ण विशेष - मुनिसुव्रतनाथ एवं नेमिनाथ का वर्ण त्रि.सा. 847-849 के अनुसार श्याम वर्ण है। 13. कौन से तीर्थंकर कहाँ से मोक्ष पधारे? ऋषभदेव कैलाश पर्वत से, वासुपूज्य चम्पापुर से, नेमिनाथ गिरनार से, महावीर स्वामी पावापुर से एवं शेष तीर्थंकर तीर्थराज सम्मेदशिखर जी से मोक्ष पधारे। 14. अ वर्ण से प्रारम्भ होने वाले तीर्थंकरों नाम बताइए? आदिनाथ, अजितनाथ, अभिनन्दननाथ, अनन्तनाथ, अरनाथ एवं अतिवीर। 15. व वर्ण से प्रारम्भ होने वाले तीर्थंकरों नाम बताइए? वृषभनाथ, वासुपूज्य, विमलनाथ और वर्द्धमान। 16. श, स से प्रारम्भ होने वाले तीर्थंकरों के नाम बताइए? सम्भवनाथ,सुमतिनाथ,सुपार्श्वनाथ,सुविधिनाथ,शीतलनाथ,श्रेयांसनाथ,शान्तिनाथ एवं सन्मति | 17. कितने तीर्थंकरों के चिह्न एकेन्द्रिय हैं ? चार। पद्मप्रभाका लालकमल, चन्द्रप्रभाका चन्द्रमा, शीतलनाथ का कल्पवृक्ष और नमिनाथका नीलकमल 18. कौन से तीर्थंकर का चिह्न दो इन्द्रिय है ? तीर्थंकर नेमिनाथ का शंख चिह्न दो इन्द्रिय है। 19. कितने तीर्थंकरों के चिह्न अजीव हैं? तीन। स्वस्तिक, वज़दण्ड और कलश। 2O. कितने तीर्थंकरों के चिह्न पञ्चेन्द्रिय हैं? शेष 16 तीर्थंकरों के चिह्न पञ्चेन्द्रिय हैं। 21. उन तीर्थंकरों के चिह्न बताइए जो बोझा ढोने वाले पशु हैं? वे चार तीर्थंकरों के चिह्न हैं- बैल, हाथी, घोड़ा और भैंसा। 22. उन तीर्थंकरों के चिह्न बताइए जो जल में रहते हैं? जल में रहने वाले - लालकमल, मगर, मछली, कछुआ, नीलकमल, शंख और सर्प चिह्न हैं। 23. एक तीर्थंकर के उस चिह्नको बताइए जिसके शरीर में काँटे होते हैं? सेही के शरीर में काँटे होते हैं। 24. चौबीस तीर्थंकरों के चिह्न में सबसे तेज दौड़ने वाला प्राणी कौन-सा है? हिरण सबसे तेज दौड़ने वाला प्राणी है। 25. ऐसे कितने तीर्थंकर हैं, जिनके नाम जिस वर्ण (अक्षर) से प्रारम्भ होते हैं, उसी वर्ण से चिह्नप्रारम्भ होता है ? वृषभनाथ का वृषभ, सुपार्श्वनाथ का स्वस्तिक, चन्द्रप्रभ का चन्द्रमा, नमिनाथ का नीलकमल और सन्मति का सिंह। 26. ऐसे कौन से तीर्थंकर हैं जिनका जन्म उत्तम आकिञ्चन्य धर्म के दिन हुआ था ? वीर (महावीर स्वामी) का। 27. कितने तीर्थंकरों की बारात निकली थी ? बीस तीर्थंकरों। 28. तीर्थंकरों सामान्य अरिहंतों में क्या अंतर है? तीर्थंकरों के कल्याणक होते हैं, सामान्य अरिहंतों के नहीं। तीर्थंकरों के चिह्न होते हैं, सामान्य अरिहंतों के नहीं। तीर्थंकरों का समवसरण होता है, सामान्य अरिहंतों के नहीं।उनकी गंधकुटी होती है। तीर्थंकरों के गणधर होते हैं, सामान्य अरिहंतों के नहीं। तीर्थंकरों को जन्म से ही अवधिज्ञान होता है, सामान्य अरिहंतों के लिए नियम नहीं है। तीर्थंकरों को दीक्षा लेते ही मनः पर्ययज्ञान होता है, सामान्य अरिहंतों के लिए नियम नहीं है। तीर्थंकर अपनी माता की अकेली संतान होते हैं, सामान्य अरिहंतों के अनेक भाई-बहिन हो सकते हैं। तीर्थंकर जब तक गृहस्थ अवस्था में रहते हैं तब तक उनके परिवार में किसी का मरण नहीं होता है, किन्तु सामान्य अरिहंतों के लिए नियम नहीं है। भाव पुरुषवेद वाले ही तीर्थंकर बनते हैं, किन्तु सामान्य अरिहंत तीनों भाववेद वाले बन सकते हैं। तीर्थंकरों के समचतुरस संस्थान ही होता है, किन्तु सामान्य अरिहंतों के छ: संस्थानों में से कोई भी हो सकता है | तीर्थंकरों के प्रशस्त विहायोगतिका ही उदय रहता, किन्तु सामान्य अरिहंतों के दोनों में से कोई भी हो सकता है। तीर्थंकरों के सुस्वर नाम कर्म का ही उदय रहेगा, सामान्य अरिहंतों के दोनों में से कोई भी हो सकता है। चौथे नरक से आने वाले तीर्थंकर नहीं बन सकते किन्तु सामान्य अरिहंत बन सकते हैं। तीर्थंकरों की माता को सोलह स्वप्न आते हैं, सामान्य अरिहंतों के लिए यह नियम नहीं है। तीर्थंकरों के श्रीवत्स का चिह्न नियम से रहता है, सामान्य अरिहंतों के लिए नियम नहीं है। तीर्थंकरों की दिव्य ध्वनि नियम से खिरती है, सामान्य अरिहंतों के लिए नियम नहीं है। जैसे - मूक केवली की नहीं खिरती है। 29. किन तीर्थंकर के साथ कितने राजाओं ने दीक्षा ली थी ? ऋषभदेव के साथ 4000 राजाओं ने, वासुपूज्य के साथ 676 राजाओं ने, मल्लिनाथ एवं पार्श्वनाथ के साथ 300-300 राजाओं ने, भगवान् महावीर ने अकेले एवं शेष तीर्थंकरों के साथ 1000-1000 राजाओं ने दीक्षा ली थी। (ति.प.,4/675-76) 30. कौन से तीर्थंकर ने कौन सी वस्तु से प्रथम पारणा की थी? ऋषभदेव ने इक्षुरस से एवं शेष सभी तीर्थंकरों ने क्षीरान्न अर्थात् दूध व अन्न से बने अनेक व्यञ्जनों की खीर आदि से पारणा की थी। 31. तीर्थंकरों पारणा कराने वाले दाताओं के शरीर का रङ्ग कौन-सा था? आदि के दो दाता राजाश्रेयांस, राजा ब्रह्मदत/सुवर्ण और अन्तकेदो दाताराजा ब्रह्मदत और राजा कूल/नन्दन श्यामवर्ण के थे। अन्य सभी दाता तपाये हुए सुवर्ण के समान वर्ण वाले थे। 32. कौन से तीर्थंकर किस आसन से मोक्ष पधारे ? वृषभनाथ, वासुपूज्य और नेमिनाथ (1, 12, 22) तो पद्मासन से एवं शेष सभी तीर्थंकर कायोत्सर्गासन (खड्गासन) से मोक्ष पधारे थे, किन्तु समवसरण में सभी तीर्थंकर पद्मासन से ही विराजमान होते हैं। 33. ऐसे तीर्थंकर कितने हैं, जिनके समवसरण में मुनियों से आर्यिकाएँ कम थीं? धर्मनाथ एवं शान्तिनाथ तीर्थंकर के समवसरण में मुनियों से आर्यिकाएँ कम थीं। 34. कौन से तीर्थंकर के समवसरण का कितना विस्तार था ? वृषभदेव का 12 योजन एवं आगे-आगे नेमिनाथ तक प्रत्येक तीर्थंकर में / योजन घटाते जाना है एवं पार्श्वनाथ एवं महावीर में / योजन, / योजन घटाना है। तब पार्श्वनाथ का 1.25 योजन एवं महावीर स्वामी का 1 योजन का था। (ति.प.4–724-25) नोट- 4 कोस = 1 योजन, 2 मील = 1 कोस एवं 1.5 किलोमीटर का 1 मील अर्थात् 1 योजन में 12 किलोमीटर होते हैं। 35. किन तीर्थंकर ने योग निरोध करने के लिए कितने दिन पहले समवसरण छोड़ा था ? ऋषभदेव ने 14 दिन पहले, महावीर स्वामी ने 2 दिन पहले एवं शेष सभी तीर्थंकरो ने 1 माह पहले योग निरोध करने के लिए समवसरण छोड़ दिया था। 36. सबसे कम समय में कौन से तीर्थंकर को केवलज्ञान हुआ था ? मल्लिनाथ को मात्र 6 दिनों में केवलज्ञान हुआ था। 37. कौन से तीर्थंकर को सबसे अधिक दिनों में केवलज्ञान हुआ था ? ऋषभदेव को 1000 वर्ष में केवलज्ञान हुआ था। 38. सबसे कम गणधर कौन से तीर्थंकर के थे ? सबसे कम मात्र 10 गणधर पार्श्वनाथ तीर्थंकर के थे। 39. सबसे अधिक गणधर कौन से तीर्थंकर के थे? सबसे अधिक 116 गणधर सुमतिनाथ तीर्थंकर के थे। 40. सभी तीर्थंकर के कुल कितने गणधर थे? सभी तीर्थंकर के कुल 1452 गणधर थे। 41. सबसे ज्यादा शिष्य मण्डली कौन से तीर्थंकर की थी ? सबसे ज्यादा शिष्य मण्डली पद्मप्रभ की 3,30,000 थी। 42. तीर्थंकर के सहस्रनामों से स्तुति किसने कहाँ पर की थी ? सौधर्म इन्द्र ने तीर्थंकर की स्तुति केवलज्ञान होने के बाद समवसरण में की थी। 43. पाँच बाल ब्रह्मचारी तीर्थंकर के नाम कौन-कौन से हैं? वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर। 44. तीन पदवियों से विभूषित तीर्थंकर के नाम ? शान्तिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ। ये तीनों तीर्थंकर, चक्रवर्ती एवं कामदेव तीनों पदों के धारक थे। 45. किन तीर्थंकर पर मुनि अवस्था में उपसर्ग हुआ था ? सुपार्श्वनाथ, पार्श्वनाथ एवं महावीर। 46. जिसने तीर्थंकर प्रकृति का बंध किया वह जीव किस भव में मोक्ष चला जाएगा ? दो, तीन कल्याणक वाले उसी भव से एवं पाँच कल्याणक वाले तीसरे भव से मोक्ष चले जाएंगे। 47. तीर्थंकर प्रकृति का बंध कौन कहाँ करता है? कर्मभूमि का मनुष्य केवली, श्रुतकेवली के पादमूल में सोलहकारण भावना तथा विश्व कल्याण की भावना भाता हुआ तीर्थंकर प्रकृति का बंध करता है। 48. तीर्थंकर चौबीस ही क्यों होते हैं? आचार्य सोमदेव से जब यह प्रश्न किया गया तब उनका उत्तर था ‘इस मान्यता में कोई अलौकिकता नहीं है, क्योंकि लोक में अनेक ऐसे पदार्थ हैं जैसे-ग्रह, नक्षत्र, राशि, तिथियाँ और तारागण जिनकी संख्या काल योग से नियत है।” तीर्थंकर सर्वोत्कृष्ट होते हैं। अत: उनके जन्मकाल योग भी विशिष्ट उत्कृष्ट ही होना चाहिए या होते हैं। ज्योतिषाचार्यों का (जिनमें स्व.डॉ.नेमीचन्द आरा भी थे) मत है कि प्रत्येक कल्पकाल के दु:षमासुषमा काल में ऐसे उत्तम काल योग 24 ही पड़ते हैं, जिनमें तीर्थंकर का जन्म होता है या हो सकता है। विष्णु के भी अवतार 24 ही हैं, बौद्धों ने भी 24 बुद्ध और ईसाइयों ने भी 24 ही पुरखे स्वीकार किए हैं। 49. तीस चौबीसी के 720 तीर्थंकर कैसे कहे जाते हैं? अढ़ाई द्वीप में 5 भरत क्षेत्र और 5 ऐरावत क्षेत्र = कुल 10 क्षेत्र हैं। इनमें प्रत्येक क्षेत्र में तीनों कालों के 7272 तीर्थंकर होते हैं। अत: 10 क्षेत्रों के तीनों काल सम्बन्धी 720 तीर्थंकर कहे जाते हैं।
  11. सृष्टि का परिवर्तन अनादिकाल से चला आ रहा है, वह कभी रुकता नहीं है। इसमें परिवर्तन किस प्रकार से होता है। इसका वर्णन इस अध्याय में है। 1. भरत-ऐरावत क्षेत्र में सृष्टि का क्या क्रम चलता है? भरत एवं ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्डों में अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी काल के दो विभाग होते हैं। जिसमें मनुष्यों एवं तिर्यच्चों की आयु, शरीर की ऊँचाई, बुद्धि, वैभव आदि घटते जाते हैं, वह अवसर्पिणी काल कहलाता है एवं जिसमें आयु, शरीर की ऊँचाई, बुद्धि, वैभव आदि बढ़ते जाते हैं वह उत्सर्पिणी काल कहलाता है। 2. एक कल्पकाल कितने वर्षों का होता है? 20 कोड़ाकोड़ी सागर का एक कल्पकाल होता है। जिसमें 10 कोड़ाकोड़ी सागर का अवसर्पिणी काल एवं 10 कोड़ाकोड़ी सागर का उत्सर्पिणी काल होता है। दोनों मिलाकर एक कल्पकाल कहलाता है। (ति.प.4/319) उदाहरण - यह क्रम ट्रेन के अप, डाउन के समान चलता रहता है। जैसे - ट्रेन बॉम्बे से हावड़ा एवं हावड़ा से बॉम्बे आती-जाती है। 3. अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी के कितने भेद हैं एवं कौन-कौन से हैं? सुषमा–सुषमा काल, सुषमा काल, सुषमा–दुःषमा काल, दुःषमा–सुषमा काल, दुःषमा काल एवं दुःषमा–दुषमा काल। ये छ: भेद अवसर्पिणी काल के हैं। इससे विपरीत उत्सर्पिणी काल के भी छ: भेद हैं। दुषमा-दुःषमा काल, दुःषमा काल, दुःषमा–सुषमा काल, सुषमा–दुःषमा काल, सुषमा काल एवं सुषमा–सुषमा काल। इन्हें दुखमा-सुखमा भी कहते हैं। 4. सुषमा-दु:षमा का क्या अर्थ है? समा काल के विभाग को कहते हैं। सु और दुर उपसर्ग क्रम से अच्छे और बुरे के अर्थ में आते हैं। सु और दुर उपसर्गों को पृथक्-पृथक् समा के साथ जोड़ देने से व्याकरण के नियमानुसारस का ष हो जाता है। अत: सुषमा और दुषमा की सिद्धि होती है। जिनके अर्थ क्रम से अच्छा काल और बुरा काल होता है।(म.पु. 3/19) 5. अवसर्पिणी के प्रथम तीन कालों में एवं उत्सर्पिणी के अन्त के तीन कालों में कौन सी भूमि रहती है एवं उसकी कौन-कौन सी विशेषताएँ हैं? उनमें भोगभूमि रहती है। विशेषताएँ निम्न प्रकार हैं भोगभूमि के जीवों का आहार तो होता है किन्तु नीहार (मल-मूत्र) नहीं होता। भोग भूमियाँपुरुष 72 कलाओं सहित और स्त्रियाँ 64 गुणों से समन्वित होती है। (वसु,श्रा., 263) यहाँ के मनुष्य अक्षर, गणित, चित्र आदि64 कलाओं में स्वभाव से ही निपुण होते हैं। यहाँ विकलेन्द्रिय एवं असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव नहीं होते हैं। यहाँ दिन-रात का भेद नहीं होता एवं शीत, गर्मी की वेदना भी नहीं है। यहाँ सुन्दर-सुन्दर नदियाँ, कमलों से भरी वापिकाएँ, रत्नों से भरी पृथ्वी एवं कोमल घास होती है। युगल संतान (बेटा-बेटी) का जन्म होता है एवं इनके जन्म होते ही पिता को छींक आने से एवं माँ को जम्भाई आने से मरण हो जाता है। युगल संतान ही पति-पत्नी के रूप में रहते हैं, जिन्हें वे आपस में आर्य और आर्या कहकर पुकारते हैं। मृत्यु के बाद इनका शरीर कपूरवत उड़ जाता है। यहाँ नपुंसक वेद वाले नहीं होते हैं। मात्र स्त्री तथा पुरुष वेद होते हैं। इन्हें भोगोपभोग सामग्री कल्पवृक्षों से ही मिलती है। यहाँ के मनुष्यों में 9000 हाथियों के बराबर बल पाया जाता है। (ति.प., 4/324-381) यहाँ के मनुष्य एवं तिर्यञ्चों का वज़ऋषभनाराचसंहनन एवं समचतुरस्र संस्थान होता है। सुषमा-सुषमा काल की विशेषताएँ इस काल में सुख ही सुख होता है। यह भोगप्रधान काल है, इसे उत्कृष्ट भोगभूमि का काल कहते हैं। इस काल में जन्मे युगल 21 दिनों में पूर्ण वृद्धि को प्राप्त हो जाते हैं। जिसका क्रम इस प्रकार है। शय्या पर आँगूठा चूसते हुए 3 दिन, उपवेशन (बैठना) 3 दिन, अस्थिर गमन 3 दिन, स्थिर गमन 3 दिन, कलागुण प्राप्ति 3 दिन, तारुण्य 3 दिन और सम्यक्र गुण प्राप्ति की योग्यता 3 दिन। यहाँ के जीव 21 दिन के बाद सम्यग्दर्शन प्राप्त करने की योग्यता प्राप्त कर लेते हैं। तीन दिन के बाद चौथे दिन बेर के बराबर आहार लेते हैं । इस काल के प्रारम्भ में मनुष्यों की ऊँचाई 6000 धनुष एवं आयु 3 पल्य की होती है एवं अन्त में घटते-घटते ऊँचाई 4000 धनुष एवं आयु 2 पल्य रह जाती है। यह काल 4 कोड़ाकोड़ी सागर का होता है। इसमें शरीर का वर्ण स्वर्ण (रा.वा.3/29/2) के समान होता है। (ति.प.4/324-398) सुषमा काल की विशेषताएँ प्रथम काल की अपेक्षा सुख में हीनता होती जाती है। इसे मध्यम भोगभूमिका काल कहा जाता है। इस काल में जन्मे युगल 35 दिनों में पूर्ण वृद्धि को प्राप्त हो जाते हैं। जैसे- प्रथम काल में सात प्रकार की वृद्धियों में 3-3 दिन लगते हैं तो यहाँ 5-5 दिन लगते हैं। 3.2 दिन के बाद तीसरे दिन बहेड़ा के बराबर आहार लेते हैं। इस काल के प्रारम्भ में मनुष्यों की ऊँचाई 4000 धनुष एवं आयु 2 पल्य की होती है एवं अन्त में घटते घटते ऊँचाई 2000 धनुष एवं आयु एक पल्य की रह जाती है। यह काल3 कोड़ाकोड़ी सागर का होता है। इसमें शरीर का वर्ण श्वेत रंग के समान रहता है। (तप4/399-406) सुषमा-दुषमा काल की विशेषताएँ द्वितीय काल की अपेक्षा सुख में हीनता होती जाती है। इसे जघन्य भोगभूमिका काल कहते हैं। इस काल में जन्मे युगल 49 दिनों में पूर्ण वृद्धि को प्राप्त हो जाते हैं। जैसे -द्वितीयकाल में 7 प्रकार की वृद्धियों में 5-5 दिन लगते हैं तो यहाँ 7-7 दिन लगते हैं। 1 दिन के बाद दूसरे दिन आंवले के बराबर आहार लेते हैं। इस काल में प्रारम्भ में मनुष्यों की ऊँचाई 2000 धनुष एवं आयु 1 पल्य की होती है एवं अन्त में घटते घटते ऊँचाई 500 धनुष (त्रि.सा.783) एवं आयु 1 पूर्व कोटि की रह जाती है। यह काल 2 कोड़ाकोड़ी सागर का होता है, इसमें शरीर का वर्ण नीले रङ्ग (रा.वा.3/29/2) के समान रहता है। कुछ कम पल्य का आठवां भाग शेष रहने पर कुलकरों का जन्म प्रारम्भ हो जाता है। वे तब भोगभूमि के समापन से आक्रान्त मनुष्यों को जीवन जीने की कला का उपाय बताते हैं। इन्हें मनु भी कहते हैं। अन्तिम कुलकर से प्रथम तीर्थंकर की उत्पति होती है। (ति.प.4/407-516) दु:षमा-सुषमा की विशेषताएँ यह काल अधिक दु:ख एवं अल्प सुख वाला है तथा इस काल के प्रारम्भ से ही कर्मभूमि प्रारम्भ हो जाती है। कल्पवृक्षों की समाप्ति होने से अब जीवन यापन के लिए षट्कर्म प्रारम्भ हो जाते हैं। असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प और वाणिज्य ये षट्कर्म हैं। शलाका पुरुषों का जन्म एवं मोक्ष भी इसी काल में होता है। चतुर्थ काल का जन्मा पञ्चम काल में मोक्ष जा सकता है, किन्तु पञ्चम काल का जन्मा पञ्चम काल में मोक्ष नहीं जा सकता। युगल सन्तान के जन्म का नियम नहीं होना एवं माता-पिता के द्वारा बच्चों का पालन किया जाना प्रारम्भ हो जाता है। इस काल के मनुष्य प्रतिदिन (एक बार) आहार करते हैं। इस काल के प्रारम्भ में मनुष्यों की ऊँचाई 500 धनुष एवं आयु 1 पूर्व कोटि की होती है एवं अन्त में घटते-घटते ऊँचाई 7 हाथ एवं आयु 120 वर्ष की रह जाती है। यह काल 42,000 वर्ष कम 1 कोड़ाकोड़ी सागर का होता है, इसमें पाँच वर्ण वाले मनुष्य होते हैं। छ: संहनन एवं छ: संस्थान वाले मनुष्य एवं तिर्यञ्च होते हैं। (त्रि.सा.,783-85) नोट - 84 लाख * 84 लाख * 1 करोड़ वर्ष = एक पूर्व कोटि वर्ष दु:षमा काल की विशेषताएँ यह काल दु:ख वाला है तथा इस काल के मनुष्य मंदबुद्धि वाले होते हैं। इस काल में मनुष्य अनेक बार (न एक इति अनेक अर्थात् दो बार को भी अनेक बार कह सकते हैं) भोजन करते हैं। इस काल के प्रारम्भ में मनुष्यों की ऊँचाई 7 हाथ एवं आयु 120 वर्ष की होती है एवं अन्त में घटते घटते ऊँचाई 3 हाथ या 3.5 हाथ एवं आयु 20 वर्ष की रह जाती है। यह काल 21,000 वर्ष का होता है। इसमें पाँच वर्ण वाले किन्तु कान्ति से हीन युक्त शरीर होते हैं। अन्तिम तीन संहननधारी मनुष्य एवं तिर्यञ्च होते हैं। पाँच सौ वर्ष बाद उपकल्की राजा व हजार वर्ष बाद एक कल्की राजा उत्पन्न होता है। इक्कीसवाँ अन्तिम कल्की राजा जलमंथन, मुनिराज से टैक्स माँगेगा पर मुनि महाराज क्या दें? राजा कहता है प्रथम ग्रास दीजिए, मुनि महाराज दे देते हैं और जिससे पिण्डहरण नामक अन्तराय करके वापस आ जाते हैं। वे अवधिज्ञान से जानलेते हैं कि अब पञ्चम काल का अन्त है। तीन दिन की आयु शेष है। चारों (वीरांगज मुनि, सर्वश्री आर्यिका, अग्निल श्रावक, पंगुश्री श्राविका) सल्लेखना ग्रहण कर लेते हैं। कार्तिक कृष्ण अमावस्या को प्रात:काल शरीर त्यागकर सौधर्मस्वर्ग में देव होते हैं, मध्याह्न में असुरकुमारदेव धर्म द्रोही कल्की को समाप्त कर देता है और सूर्यास्त के समय अग्नि नष्ट हो जाती है। इस प्रकार पञ्चम काल का अन्त होता है। (ति.प.,4/1486-1552) नोट- प्रत्येक कल्की के समय एक अवधिज्ञानी मुनि नियम से होते हैं। दु:षमा-दु:षमा काल की विशेषताएँ यह काल दु:ख ही दु:ख वाला है तथा इस काल के प्रारम्भ में मनुष्यों की ऊँचाई 3 हाथ या 3.5 हाथ एवं आयु 20 वर्ष की होती है एवं अन्त में घटते-घटते ऊँचाई 1 हाथ एवं आयु 15 या 16 वर्ष रह जाती है। यह काल भी 21,000 वर्ष का होता है। इसमें शरीर का रङ्ग धुएँ के समान काला होता है। इस काल के मनुष्यों का आहार बारम्बार कंदमूल फल आदि होता है। सब नग्न और भवनों से रहित होकर वनों में घूमते हैं। इस काल के मनुष्य प्राय: पशुओं जैसा आचरण करने वाले क्रूर, बहरे, अंधे, गूंगे, बन्दर जैसे रूप वाले और कुबड़े बौने शरीर वाले अनेक रोगों से सहित होते हैं। इस काल में जन्म लेने वाले नरक व तिर्यञ्चगति से आते हैं एवं मरण कर वहीं जाते हैं। इस काल के अन्त में संवर्तक (लवा) नाम की वायु, पर्वत, वृक्ष और भूमि आदि को चूर्ण करती हुई दिशाओं के अन्त पर्यन्त भ्रमण करती है, जिससे वहाँ स्थित जीव मूछिंत हो जाते हैं और कुछ मर भी जाते हैं। इससे व्याकुलित मनुष्य और तिर्यञ्च शरण के लिए विजयार्ध पर्वत और गङ्गा-सिंधु की वेदी में स्वयं प्रवेश कर जाते हैं तथा दयावान् विद्याधर और देव,मनुष्य एवं तिर्यञ्चों में से बहुत से जीवों को वहाँ ले जाकर सुरक्षित रख देते हैं। (त्रि सा., 865) इसके पश्चात् क्रमश: 7-7 दिन तक 7 प्रकार की कुवृष्टि होती है। उस समय गंभीर गर्जना से सहित मेघ तुहिन (ओला), क्षार जल,विष, धूम, धूलि, वज़ एवं जलती हुई दुष्प्रेक्ष्य ज्वाला की 7-7 दिन वर्षा होती है अर्थात्कुल 49 दिन तक वर्षा होती है। अवशेष रहे मनुष्य उन वर्षाओं से नष्ट हो जाते हैं। विष एवं अग्नि की वर्षा से दग्ध हुई पृथ्वी 1 योजन तक (मोटाई में) चूर्ण हो जाती है। इस प्रकार 10 कोड़ाकोड़ी सागर का यह अवसर्पिणी काल समाप्त हो जाता है। उसके बाद उत्सर्पिणी काल के प्रारम्भ में सुवृष्टि प्रारम्भ होने से नया युग प्रारम्भ हो जाता है। उत्सर्पिणी के प्रथम काल में मेघों द्वारा क्रमश: जल, दूध, घी, अमृत, रस (त्रि सा. 868) आदि की वर्षा 7-7 दिन होती है। यह भी 49 दिन तक होती है। इस वर्षा से पृथ्वी स्निग्धता, धान्य तथा औषधियों को धारण कर लेती है। बेल,लता, गुल्म और वृक्ष वृद्धि को प्राप्त होते हैं। शीतल गंध को ग्रहण कर वे मनुष्य और तिर्यञ्च गुफाओं से बाहर निकलते हैं। उस समय मनुष्य पशुओं जैसा आचरण करते हुए क्षुधित होकर वृक्षों के फल, मूल व पते आदि को खाते हैं। इस काल में आयु, ऊँचाई, बुद्धि बल आदि क्रमश: बढ़ने लगते हैं। इसका नाम भी दुषमा-दुषमा काल है। (ति.प.4/1588-1575) दु:षमा काल- इस काल में भी क्रमश: आयु, ऊँचाई, बुद्धि आदि बढ़ते रहते हैं। इस काल में 1000 वर्ष शेष रहने पर क्रमशः 14 कुलकर होते हैं, जो कुलानुरूप आचरण और अग्नि आदि से भोजन पकाना आदि सिखाते हैं। (ति.प.4/1588-1590) दु:षमा-सुषमा काल- इस काल में आयु, ऊँचाई, बल आदि में क्रमश: वृद्धि होती हुई अन्तिम कुलकर से प्रथम तीर्थंकर महापद्म (राजा श्रेणिक का जीव) होंगेबाद में 23 तीर्थंकर और होंगे। अन्तिमतीर्थंकर अनन्तवीर्य होंगे जिनकी आयु एक पूर्व कोटि एवं ऊँचाई 500 धनुष होगी। आगे सुषमा-दुषमा चौथाकाल, सुषमा पाँचवाँ काल एवं सुषमा-सुषमा छठा काल होता है। इन तीनों कालों में क्रमश: जघन्य, मध्यम और उत्तम भोगभूमि होगी। इनमें आयु, ऊँचाई क्रमश: बढ़ती रहती है। छठा काल सुषमा-सुषमा समाप्त होने पर एक कल्प काल पूरा होता है। विशेष - कल्पकाल का प्रारम्भ उत्सर्पिणी से होता है एवं समापन अवसर्पिणी में। ऐसे असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीकाल बीत जाने पर एक हुण्डावसर्पिणी काल आता है। जिसमें कुछ अनहोनी (विचित्र) घटनाएँ घटती हैं। वर्तमान में हुण्डावसर्पिणी काल चल रहा है, जिसमें कुछ विचित्र घटनाएँ घट रही हैं। जैसे - तृतीय काल सुषमा-दुषमा के कुछ समय शेष रहने पर ही वर्षा होने लगी एवं विकलचतुष्क जीवों की उत्पत्ति होने लगी एवं इसी काल में कल्पवृक्षों का अन्त एवं कर्मभूमि का प्रारम्भ होना। तृतीय काल में प्रथम तीर्थंकर का जन्म एवं निर्वाण होना। भरत चक्रवती की हार होना। भरत चक्रवर्ती द्वारा की गयी ब्राह्मण वंश की उत्पति का होना। नौवें तीर्थंकर से सोलहवें तीर्थंकर पर्यन्त, जिनधर्म का विच्छेद होना। (9वें-10वें तीर्थंकर के बीच में 1/4 पल्य, 10वें-11वें के बीच में 1/2 पल्य, 11वें-12वें के बीच में 3/4 पल्य, 12वें 13वें के बीच में 1 पल्य, 13वें-14वें के बीच में 3/4 पल्य, 14वें-15वें के बीच में 1/2 पल्य एवं 15वें - 16वें के बीच में 1/4 पल्य अर्थात् कुल 4 पल्य तक मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका कोई भी नहीं थे ) विशेष : असंख्यात वर्षों का एक पल्य होता है। तीर्थंकर ऋषभदेव ने तीसरे काल में जन्म लिया और इसी काल में मोक्षगए, 3 तीर्थंकर चक्रवर्तीपद के धारी भी थे एवं त्रिपृष्ठ (प्रथम नारायण) यही जीव तीर्थंकर महावीर हुआ। इस प्रकार 63 शलाका पुरुषों में से 5 शलाका पुरुष कम हुए। अर्थात् दुषमा-सुषमा काल में 58 शलाका पुरुष हुए। 11 रुद्र और 9 कलह प्रिय नारद हुए। तीन तीर्थंकरों पर मुनि अवस्था में उपसर्ग होना। (7वें, 23वें एवं 24वें) कल्की उपकल्कियों का होना। तृतीय, चतुर्थ एवं पञ्चमकाल में धर्म को नाश करने वाले कुदेव और कुलिंगी भी होते हैं। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, वज्राग्नि आदि का गिरना। तीर्थंकरों का जन्म अयोध्या के अलावा अन्य स्थानों से होना एवं मोक्ष भी सम्मेदशिखरजी के अलावा अन्य स्थानों से होना। (ति.प.,4/1637-1645) 6. क्या सम्पूर्ण भरत-ऐरावत क्षेत्रों में काल का प्रभाव पड़ता है? नहीं। भरत ऐरावत क्षेत्रों में स्थित 5 5 म्लेच्छ खण्डों में तथा विजयार्ध की विद्याधर श्रेणियों में दुषमा सुषमा काल के आदि से लेकर अन्त पर्यन्त के समान ही हानि-वृद्धि होती है। (ति.प.4/1607) 7. भोगभूमि के अन्त में दण्ड व्यवस्था क्या रहती है ? आदि के पाँच कुलकर अपराधी को ‘हा’ अर्थात् हाय तुमने यह बुरा किया मात्र इतना ही दण्डदेते थे। आगे के पाँच 'हा–मा' अर्थात् हायतुमने यह बुरा किया अब नहींकरना तथा शेषकुलकर 'हा–मा–धिक् अर्थात् हाय तुमने यह बुरा किया अब नहीं करना, धिक्कार है, इस प्रकार का दण्ड देते थे। 8. विदेह क्षेत्र एवं स्वयंभूरमण द्वीप व स्वयंभूरमण समुद्र में काल व्यवस्था कैसी रहती है ? विदेहक्षेत्र में सदैव चतुर्थकाल के प्रारम्भवत् तथा स्वयंभूरमणद्वीप के परभाग में एवं स्वयंभूरमण समुद्र में दुषमा काल सदृश वर्तना होती है। देवगति में निरन्तर प्रथम काल सदृश और नरकगति में निरन्तर छठवें काल सदृश वर्तना होती है (यहाँ अत्यन्तसुख एवं अत्यन्त दु:ख की विवक्षा है आयु आदि की नहीं) (त्रि.सा.884) 9. क्या इतनी विशाल- विशाल अवगाहना होती है, यह तो आश्चर्यकारी लगती है ? वर्तमान में कुछ ऐसे प्रमाण मिले हैं, जिससे ये अवगाहना आश्चर्यकारी नहीं लगती है, बल्कि सही लगती है। कुछ प्रमाण निम्नलिखित हैं द्वारिका के समुद्रतल के अन्दर खोज करने वाले राष्ट्रीय समुद्र विज्ञानसंस्थान के समुद्रपुरातत्व विभाग के द्वारा किए गए उत्खनन की रिपोर्ट के अनुसार समुद्र में डूबे मकानों की ऊँचाई 200 से 600 मीटर है। इनके कमरे के दरवाजे 20 मीटर ऊँचे हैं। विशेष यह अवशेष द्वारिका के अशुभ तैजस पुतले के द्वारा जल जाने के बाद के बचे हुए हैं। यदि दरवाजे 20 मीटर ऊँचे (लगभग 70 फीट) हैं तो इनमें रहने वाले व्यक्ति 50-60 फीट से कम ऊँचे नहीं होंगे,जैन आगम के अनुसार तीर्थंकर नेमिनाथ की अवगाहना 10 धनुष अर्थात् 60 फीट थी। अत: यह सिद्ध होता है कि इतनी अवगाहना होती थी। वर्तमान में जिसे विज्ञान 30 से 50 फीट लम्बा डायनासोर मानता है, वह आज से कई करोड़ वर्ष पूर्व छिपकली का ही रूप है। मास्को में 1993 में एक ग्लेशियर सरका था। उसके अन्दर एक नरकंकाल मिला जो 23 फीट लम्बा था। वैज्ञानिक इसे 2 से 4 लाख वर्ष पूर्व का मानते हैं। यह नरकंकाल श्रीराजमल जी देहली के अनुसार आज भी मास्को के म्यूजियम में रखा हुआ है। बड़ौदा (गुजरात) के म्यूजियम में कई लाख वर्ष पूर्व का छिपकली का अस्थिपंजर रखा है। जो 10–12 फीट लम्बा है। तिब्बत की गुफाओं में कई लाख वर्ष पूर्व के चमड़े के जूते मिले हैं, जिनकी लम्बाई कई फीट है। भारत और मानव संस्कृति (लेखक श्री विशंबरनाथ पांडे, पृष्ठ 112-115) के अनुसार मोहनजोदड़ो हड़प्पा की खुदाई से यह सिद्ध हो गया है कि मानवों के अस्थिपंजर के आधार से पूर्वकाल में मनुष्यों की आयु अधिक व लम्बाई भी अधिक होती थी। फ्लोरिडा में एक दस लाख वर्ष पुराना बिल्ली का धड़ मिला है, जिसमें बिल्ली के दांत 7 इंच लम्बे हैं। अमेरिका में 5.5 करोड़ वर्ष पूर्व का कॉकरोच का ढाँचा मिला है। ये कॉकरोच चूहे के बराबर बड़े होते थे। रोम के पास कैसल दी गुड़ों में तीन लाख वर्ष पुरानी हाथियों की हड़ी मिली है, इनमें से कुछ हाथी के दाँत 10 फीट लम्बाई के हैं।
  12. भरोसा ही क्या ?, काले बाल वालों का, बिना संयम। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  13. हमारे दोष, जिनसे फले फूले, वे बन्धु कैसे ? हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  14. हमारे दोष, जिनसे गले धुले, वे शत्रु कैसे ? हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  15. सहयोगिनी, परस्पर में आँखें, मंगल झरी। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  16. काश न देता, आकाश, अवकाश, तू कहाँ होता ? हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  17. गर्व गला लो, गले लगा लो जो हैं, अहिंसा प्रेमी हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  18. पूर्णा-पूर्ण तो, सत्य हो सकता पै, बहुत नहीं। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  19. अधम-पत्ते, तोड़े, कोंपलें बढ़े, पौधा प्रसन्न ! हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  20. व्याकुल व्यक्ति, सम्मुख हो कैसे दूँ, उसे मुस्कान…! हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  21. उर सिर से, महा वैसा ज्ञान से, दर्शन होता। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  22. बिना ज्ञान के, आस्था को भीति कभी, छू न सकती। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  23. दृश्य से दृष्टा, ज्ञेय से ज्ञाता महा, सो अध्यात्म है। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  24. किस ओर तू…!, दिशा मोड़ दे, युग-, लौट रहा है। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  25. मधुर बनो, दाँत तोड़ गन्ना भी, लोकप्रिय है। हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है। आओ करे हायकू स्वाध्याय आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। इसके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
×
×
  • Create New...