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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. ८-११-२०१५ भीलवाड़ा (राजः) अनेकान्त के पनघट श्रुतधर परमपूज्य गुरुवर श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में ज्ञान पिपासु का नमोस्तु-नमोस्तु-नमोस्तु… हे समाधान गुरुवर! आज आपको इस पत्र के माध्यम से विद्याधर की जन्म स्थली सदलगा की भौगोलिक स्थिति एवं सांस्कृतिक विरासत से परिचित करवा रहा हूँ वह इसलिए कि वर्तमान में आपके इस अलबेले शिष्य ने सम्पूर्ण भूगोल को एक-सा कर रखा है अर्थात् इन्होंने अपनी संयममय ज्ञान की किरणों से सम्पूर्ण विश्व को अनेकान्तमयी प्रकाश से आलोकित कर रखा है। जिससे सीमातीत विश्व में धर्म तत्त्व विस्तरित हो रहा है। सदलगा के भाई महावीर अष्टगे जी ने बताया- भौगोलिक - सांस्कृतिक संस्कारों ने जगाया महापुरुषत्व ‘‘सदलगा एक छोटा सा ग्राम है जो कर्नाटक प्रान्त के बेलगाँव जिलान्तर्गत चिक्कौड़ी तहसील में स्थित है। महाराष्ट्र और कर्नाटक प्रान्त की सीमा रेखा पर बसा हैं बीच में एक नदी के द्वारा दोनों प्रान्तों का विभाजन हुआ है। यह नदी भी सदलगा के ही मध्य से बहती है जिसका नाम 'दूधगंगा' है। इस नदी ने पूर्व में भोज ग्राम के पास वेदगंगा को अपने में शरण दी है। उस नदी के किनारे विद्याधर का जन्म हुआ और दूध के समान धवल यश प्राप्त किया तथा वेदगंगा के समान ज्ञानगंगा गुरुवर ज्ञानसागर जी महाराज के चरणों में शरण प्राप्त की। सदलगा ग्राम से साँगली होते हुए लगभग ८० कि.मी. की दूरी पर कुण्डल तीर्थक्षेत्र है और २२५ कि.मी. की दूरी पर कुलभूषण, देशभूषण महाराज की निर्वाण स्थली एवं चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर जी महाराज की समाधिस्थली कुन्थलगिरि सिद्धक्षेत्र है। कुम्भोज बाहुबलि अतिशयक्षेत्र सदलगा से ३० कि.मी पर तथा अतिशयक्षेत्र स्तवनिधी भी २८ कि.मी. की दूरी पर ही है। सदलगा से १५ कि.मी. की दूरी पर ही आचार्य शान्तिसागर जी महाराज की जन्मभूमि भोजग्राम है तथा १९ कि.मी. की दूरी पर कोथली ग्राम है जो आचार्य देशभूषण जी महाराज का जन्म स्थान है वह आज शान्तिगिरि के नाम से प्रसिद्ध हो गया है। उसके समीप ही वर्तमान के आचार्य विद्यानन्द जी महाराज का जन्मस्थान शेड़वाल ग्राम है। शेडवाल में ही चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर जी महाराज की प्रेरणा से त्यागी आश्रम बनाया गया है। सदलगा से मात्र ३० कि.मी. की दूरी पर ही अक्कि वाट ग्राम है। यह वही अक्किवाट है जहाँ महातपोनिधि मुनि श्री विद्यासागर जी की समाधिस्थली बनी हुई है। यहाँ से ७-८ कि.मी. की दूरी पर कागवाड़ की गुफा है और ४५ कि.मी. की दूरी पर कोल्हापुर शहर है जहाँ महाराज शिवाजी के पिताजी राज्य किया करते थे। जिला बेलगाँव वर्तमान में पर्यटन स्थल के रूप में जाना जाता है तथा हवाई यातायात के लिए हवाई अड्डा भी बना हुआ है।” सदलगा में धर्म श्रद्धालु निवास करते हैं। सभी धर्म श्रद्धालुओं ने अपने-अपने धर्मायतन बना रखे हैं। ग्राम में तीन दिगम्बर जैन मंदिर हैं। जो पाषाण से निर्मित हैं। प्रथम कलबसदि (छोटा जैन मंदिर) १000 वर्ष प्राचीन है। द्वितीय दोडुबसदि (बड़ा जैन मंदिर) हैं और तृतीय शिखरबसदि (जमींदारों का जैन मंदिर) २०० वर्ष प्राचीन हैं। इस तरह यह सदलगा ग्राम महापुरुषों की पवित्र भूमियों से चहुओर घिरा हुआ है। ऐसी पवित्र भौगोलिक-सांस्कृतिक भूमि के मध्य पूर्व पुण्य के प्रभाव से ही विद्याधर जन्मे। किसी महापुरुष का निर्माण अनेकों जन्म के पुण्य परमाणुओं से ही तो हुआ करता है। ऐसे पुण्यार्जन कराने वाले धर्म को नमन करता हूँ। आपका शिष्यानुशिष्य
  2. तथापि, स्वर न ही ध्येय है, न उपादेय स्वर न ही अमेय है, न सुधा-पेय साधक यह जान ले भली-भाँति!" और चिन्तन की मुद्रा में डूबता है शिल्पी- “ओ श्रवणा! कितनी बार श्रवण किया स्वर का ओ मनोरमा ! कितनी बार स्मरण किया स्वर का कब से चल रहा है। संगीत-गीत यह ? कितना काल अतीत में व्यतीत हुआ, पता हो, बता दो...! भीतरी भाग भीगे नहीं अभी तक दोनों बहरे अंग रहे कहाँ हुए हरे भरे ? हे नीराग हरे! अब बोल नहीं, माहौल मिले! संगीत को सुख की रीढ़ कह कर स्वयं की प्रशंसा मत करो सही संगीत की हिंसा मत करो अरे श्रृंगार! संगीत उसे मैं मानता हूँ जो संगातीत होता है। और प्रीति उसे मैं मानता हूँ। Even then, The gamut is neither the aim, nor beneficial The voice is neither boundless nor a nectar-like drinkable The devotee should know it very well ! " And The Artisan sinks into the posture of thinking- - 0, thou strength of hearing ! How many times The voice was heard, O thou heart-winner ! How many times The voice was recollected Since how long has been going on This music and song ? What period in the past Has been spent, if known to thee, please tell...! The innermost heart has not yet been drenched Both the organs remained deaf Where were they found verdant ? O thou passionlessly green ! No set speeches now, real environment is needed! Don't indulge in self-praise By saying music the back-bone of delight, Don't crush the genuine music O thou Sentiment of love ! The music of my regard is that Which plays beyond worldly attachments or possessiveness And Accepted as love is it...
  3. स्वर के बिना स्वागत किसविध सम्भव है शाश्वत भास्वत सुख का ! स्वर संगीत का प्राण है संगीत सुख की रीढ़ है और सुख पाना ही सबका ध्येय इस विषय में सन्देह को गेह कहाँ ? नि:सन्देह कह सकते हैं- विदेह बनना हो...तो स्वर की देह को स्वीकारता देनी होगी। हे देहिन्! हे शिल्पिन्!" इस पर साफ-साफ कहता है शिल्पी का साफ-सुथरा साफा जो खादी का है- ‘‘पुरुष और प्रकृति के संघर्ष से खर-नश्वर प्रकृति से उभरते हैं स्वर! पर, परम पुरुष से नहीं। दुःस्वर हो या सुस्वर सारे स्वर नश्वर हैं। भले ही अविनश्वर हों ईश्वर परमेश्वर ये परन्तु, उनके स्वर तो नश्वर ही हैं।’’ श्रवण-सुख सो… स्वर में निहित क्यों न हो, कुछ सीमा तक-प्राथमिक दशा में अविनश्वर सुख का बाह्य साधन स्वर रह्य हो How the reception of the eternal luminous happiness Is possible without voice! Voice is the vital life-breath of music Music is the back-bone of delight And To attain happiness is the aim of all beings Where is any room for doubt in this matter ? It can be asserted, beyond doubt- To attain the incorporeal existence...indeed The embodiment of voice has to be recognized O Thou incarnate Soul ! O Thou Artisan ! " On hearing this, utters in clear terms Artisan's neat and clean turban Made of hand-spun cloth- Due to the friction of the Mundane Soul- with the Functional (kārmic) nature The gamut arises Through the pungent-transient Functional nature! But, not from the Supreme Being'-(Purusa). Whether harsh or melodious All the sounds are perishable. These Divine Powers and Almighty Might well be immortal But, Their voices, indeed, are transient ! Why not that joy of hearing... Should be treasured up within the voice , In the primary condition - upto a limit – ‘The voice' might have been The external means for the eternal happiness
  4. किस लय में रीत जाते हैं ? किसलय ये किसलिए किस लय में गीत गाते हैं...?” अर्थ और परमार्थ की सूक्ष्मता कुछ और उजाले में लाई जाती है : ‘‘अन्तिम भाग, बाल का भार भी जिस तुला में तुलता है वह कोयले की तुला नहीं साधारण-सी, सोने की तुला कहलाती है असाधारण! सोना तो तुलता है सो...अतुलनीय नहीं है और.. तुला कभी तुलती नहीं है। सो...अतुलनीय रही है और परमार्थ तुलता नहीं कभी ...अर्थ की तुला में अर्थ को तुला बनाना अर्थशास्त्र का अर्थ ही नहीं जानना है और सभी अनर्थों के गर्त में युग को ढकेलना है। अर्थशास्त्री को यह अर्थ क्या ज्ञात है?" इस प्रसंग में ‘स्वर' का स्मरण तक नहीं हो सका यूँ दबे-मुख से निकले शृंगार के कुछ स्वर! स्वर को भास्वर ईश्वर की उपमा मिली है। ‘‘ईश्वर ने भी स्वर को अपनाया Fall vacant into what cadence ? In what rhythm do these sprouts Sing a song, and for what reason...?" Some more light is thrown on the fineness of the wealth and the most Sublime Truth: “ The balance in which the last particle, Even the weight of a hair is weighed Is not an ordinary balance for coal, It is called an extra-ordinary balance for gold ! The gold indeed is weighed Hence...it is not inestimable And The balance itself is never weighed So...it has been matchless, And The most Sublime Truth can never be weighed Upon the scale of money ! The usage of wealth as a balance Is to deny the very meaning of economics And It really means to push the Age Into the blind-pit of all the absurdities. Does an economist know this purport ? " In this context, even the recollection Of the “voice' couldn't take place, Thus, some notes of the Sentiment of Love Issued forth from the pressed lips ! The voice' has been compared to the radiant God. “Even the God Himself owned the “voice."
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