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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. शिल्पी इतना ही कह पाया था कि उसकी बुद्धि/मति भी बिगड़ने लगी, भयभीत हो गई, कारण की सामने भय-महाभय आकर खड़ा हो गया। जिसका मुख बड़ी गुफा के समान खुला हुआ, आँखें सिंदूर के समान लाल, मुख से आधी बाहर निकली खून से लिप्त जीभ, जिसमें से खून की बूंदे टपक रहीं थीं, घूर-चूर कर शिल्पी की मति को देख रहा था। मति ने भी उसको देखा लगा, मैं पाताल में गिरते-गिरते बची, प्राण निकलते-निकलते रुक गए। उसकी आँखों में चक्करसा आने लगा, धुंधलापन छा गया और भयभीत मति बचाओ – बचाओ चिल्लाती हुई शिल्पी की छाती से चिपक गई। तुरन्त शिल्पी ने अभय का हाथ मति के सिर पर फेरा बस इतना ही पर्याप्त था कि मति की पलकों में जागृति आई, मति के सिर की लटें कुछ हिली सी। इधर अभय प्रदाता शिल्पी खड़ा है तो सामने भय डटा हुआ है बीच में खड़ी है कुछ डरी-कुछ निर्भय शिल्पी की मति, देखना है कि किस ओर प्रभावित होती है वह। कुछ ही क्षण व्यतीत हुए कि चेतन शक्ति का भरपूर प्रभाव पड़ा, पौद्गलिक भय का प्रभाव प्राणहीन हुआ और भय रहित अभया बनती है शिल्पी की मति वह।
  2. शिल्पी के समक्ष अपनी बात नहीं बनते, अपनी चाल नहीं चलते देख हास्य रस ने मुख मोड़ लिया और अपने साथी रौद्र रस को याद किया जो कि माटी के बहुत भीतर, गहरे में उबल रहा था, क्रूर-दया रहित भयंकर नाग के समान काला था। हास्य रस की पराजय सुन उसका पित्त भड़क उठा, मन क्रोध से भर फूलने लगी, नाक से लाल-लाल धूम्र मिश्रित क्रोध की लपटें निकलने लगीं। “नाक में दम कर रक्खा” कहावत ठीक ही लग रही है, क्योंकि क्रोध का भंडार नाक में ही छुपा होता है, इसमें थोड़ा भी सन्देह नहीं भीतर बारुद भरा हो और बम की बत्ती पर जलती हुई अगरबत्ती और लगा दी जाए तो बम फूटता ही है वैसी ही दशा रौद्ररस की प्रकट हो रही है। सात्विक गुणों का विनाश, तामसिक और राजसिक गुणों की अधिकता यहाँ देखी जा रही है। शिल्पी यह सब देख रहा है और चन्द्रमा के समान प्रसन्न मुद्रा में, निभौंकता के साथ रौद्र से कहता है कि-अब अपना ज्यादा परिचय मत दो, हम तुम्हारी प्रवृत्ति जानते हैं किन्तु इतना जरूर याद रखो "रुद्रता विकृति है विकार समिट-शीला होती है भद्रता है प्रकृति का प्रकार अमिट - लीला होती है।" (पृ. 135) तुम जो अपना रूप दिखा रहे हों, यह आत्मा का स्वभाव नहीं है। इसका प्रभाव कुछ समय के लिए पड़ सकता है, लेकिन इससे तुम्हारा अपना जीवन ही शीघ्र नष्ट हो जाएगा। इसलिए रुद्रता छोड़ भद्रता सरलता को अपनाओ, क्योंकि सरलता आत्मा का स्वभाव है, जो कभी भी नष्ट नहीं होता, शाश्वत होकर शाश्वत पद दिलाने में कारण बनता है। और क्या तुमने यह सूक्ति नहीं सुनी? "आमद कम और खर्चा ज्यादा, लक्षण है मिट जाने का। कूबत कम और गुस्सा ज्यादा, लक्षण है पिट जाने का।।" अर्थात् आमदनी (धन की आय) कम हो और खर्चा ज्यादा हो तो परिवार का सुख चैन मिट जाता है, ताकत कम हो और गुस्सा ज्यादा आवे तो पिटने के आसार (लक्षण) समझ में आते हैं।
  3. और इतना कहकर हँसते हुए हास्य रस ने एक कहावत और कह डाली कि “आधा भोजन कीजिए, दुगुणा पानी पीव, तिगुणाश्रम चउगुणी हँसी वर्ष सवा सौ जीव” अर्थ यह हुआ कि दीर्घायु के लिए हास्य रस का होना अनिवार्य है और फिर - "प्रसन्नता आसन्न भव्य की आली है प्रसन्नता एक आश्रय, दिव्य डाली है जिस पर..... गुणों के फूलों-फलों के दल सदा-सदा दोलायित होते हैं।" (पृ. 133) जो निकट भव्य है, शीघ्र ही सच्चा सुख पाना चाहता है, ऐसे पुरुष के लिए प्रसन्नता ही परम मित्र है। प्रसन्नता वह आलौकिक सहारा है जिसके आश्रय से ही सदगुणों के फल-फूल उत्पन्न होते हैं अर्थात् प्रसन्न व्यक्ति के जीवन में सदा अच्छे-अच्छे गुण विकास को प्राप्त होते हैं। प्रसन्न मानव जीवन में आने वाले हर कष्टों, संकटों को सहन कर लेता है, काँटों के बीच खिलखिलाता गुलाब इस बात का प्रतीक है। प्रसन्नता स्वास्थ्य वर्धक पेय है, जितने भी महापुरुष हुए सभी ने प्रसन्नता (हास्य रस) का सहारा लिया है, इसलिए हमारी उपयोगिता तो आपको स्वीकारनी ही होगी शिल्पी जी! हास्य की बात सुन शिल्पी बोलता है-अरे हॅसिया! हॅस-हॅस कर अपनी इतनी बढ़ाई मत कर, ज्यादा बातें मत बना। हम तुझसे भी सहमत नहीं हैं। सच्चाई की, तत्वज्ञान की बातों के समान हँसी-हँसी की बात हम स्वीकार नहीं कर सकते। यद्यपि कुछ शोक, उदासीनता को दूर करने के लिए हास्य भाव का होना आवश्यक है यह हम मानते हैं, किन्तु सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हेतु हास्य को भी पूर्णत: छोड़ना होता है। क्योंकि वह भी एक कषाय है ना, और सुनो - "हॅसन-शीलवाला प्राय: उतावला होता है कार्या कार्य का विवेक गम्भीरता धीरता कहाँ उसमें? बालक-सम बावला होता है वह "(पृ. 133) हमेशा हँसते ही रहना जिसका स्वभाव होता है, प्राय: वह जल्दबाजी करने वाला होता है। कब कौन सा कार्य उचित है अथवा अनुचित, कब कहाँ कितना क्या बोलना इत्यादि विवेक नहीं रहता उसमें। शीघ्रता से प्रतिकार करने वाला, जल्दी क्रोधित हो जाता है वह। मन की स्थिरता, चित्त की नम्रता, संतोष, पांडित्य, सहनशीलता, बड़प्पन आदि गुणों का अभाव रहता है एवं बालक सम अज्ञानी रहता है हँसनशील व्यक्ति। इसलिए तो जिनकी बुद्धि आत्म तत्व के प्रति स्थिर हो गई है, ऐसे पुरुष ना ही हँसते हैं और ना ही संसार की मोह माया में फँसते हैं। वे तो मात्र ज्ञाता-दृष्टा रहते हैं।
  4. धर्म संस्कृति 4 - संस्कृति प्रवाह विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/sagar-boond-samaye/dharm-sanskriti-pravah/
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