और इतना कहकर हँसते हुए हास्य रस ने एक कहावत और कह डाली कि “आधा भोजन कीजिए, दुगुणा पानी पीव, तिगुणाश्रम चउगुणी हँसी वर्ष सवा सौ जीव” अर्थ यह हुआ कि दीर्घायु के लिए हास्य रस का होना अनिवार्य है और फिर -
"प्रसन्नता आसन्न भव्य की आली है
प्रसन्नता एक आश्रय, दिव्य डाली है
जिस पर.....
गुणों के फूलों-फलों के दल
सदा-सदा दोलायित होते हैं।" (पृ. 133)
जो निकट भव्य है, शीघ्र ही सच्चा सुख पाना चाहता है, ऐसे पुरुष के लिए प्रसन्नता ही परम मित्र है। प्रसन्नता वह आलौकिक सहारा है जिसके आश्रय से ही सदगुणों के फल-फूल उत्पन्न होते हैं अर्थात् प्रसन्न व्यक्ति के जीवन में सदा अच्छे-अच्छे गुण विकास को प्राप्त होते हैं। प्रसन्न मानव जीवन में आने वाले हर कष्टों, संकटों को सहन कर लेता है, काँटों के बीच खिलखिलाता गुलाब इस बात का प्रतीक है। प्रसन्नता स्वास्थ्य वर्धक पेय है, जितने भी महापुरुष हुए सभी ने प्रसन्नता (हास्य रस) का सहारा लिया है, इसलिए हमारी उपयोगिता तो आपको स्वीकारनी ही होगी शिल्पी जी!
हास्य की बात सुन शिल्पी बोलता है-अरे हॅसिया! हॅस-हॅस कर अपनी इतनी बढ़ाई मत कर, ज्यादा बातें मत बना। हम तुझसे भी सहमत नहीं हैं। सच्चाई की, तत्वज्ञान की बातों के समान हँसी-हँसी की बात हम स्वीकार नहीं कर सकते। यद्यपि कुछ शोक, उदासीनता को दूर करने के लिए हास्य भाव का होना आवश्यक है यह हम मानते हैं, किन्तु सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हेतु हास्य को भी पूर्णत: छोड़ना होता है। क्योंकि वह भी एक कषाय है ना, और सुनो -
"हॅसन-शीलवाला
प्राय: उतावला होता है
कार्या कार्य का विवेक
गम्भीरता धीरता कहाँ उसमें?
बालक-सम बावला होता है वह "(पृ. 133)
हमेशा हँसते ही रहना जिसका स्वभाव होता है, प्राय: वह जल्दबाजी करने वाला होता है। कब कौन सा कार्य उचित है अथवा अनुचित, कब कहाँ कितना क्या बोलना इत्यादि विवेक नहीं रहता उसमें। शीघ्रता से प्रतिकार करने वाला, जल्दी क्रोधित हो जाता है वह। मन की स्थिरता, चित्त की नम्रता, संतोष, पांडित्य, सहनशीलता, बड़प्पन आदि गुणों का अभाव रहता है एवं बालक सम अज्ञानी रहता है हँसनशील व्यक्ति। इसलिए तो जिनकी बुद्धि आत्म तत्व के प्रति स्थिर हो गई है, ऐसे पुरुष ना ही हँसते हैं और ना ही संसार की मोह माया में फँसते हैं। वे तो मात्र ज्ञाता-दृष्टा रहते हैं।