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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर से विहार हुआ। गर्मियों में मेरे पैर में हरपिश रोग हो गया था जिसके कारण पैर में दर्द बना रहता था, ज्यादा दूर तक चल नहीं पाता था। पैर का दर्द बढ़ रहा था मैं नसरुल्लागंज में कक्ष के बाहर बैठा था। आचार्य भगवन् विहार करने के उद्देश्य से कक्ष के बाहर आ गये। मुझे वहीं बैठा देखकर मेरे करीब आ गये और सहानुभूति भरे शब्दों में बोले - क्यों कुंथु ! कैसा है पैर का दर्द ? मैंने नमोऽस्तु करते हुए कहा - आचार्य श्री जी पैर में दर्द बढ़ता ही जा रहा है, ज्यादा तेज चलते नहीं बन रहा है। तब आचार्य महाराज ने कंधे पर हाथ का सहारा देते हुये मुझे उठाया और बोले - चलो, चलना तो है, विहार करना है। उनकी यह वात्सल्य एवं करुणा भरी दृष्टि और हाथ का स्पर्श पाते ही उनके प्रति आँखों से कृतज्ञता के आंसू बह निकले और बोल उठा- जी आचार्य श्री। आचार्य श्री आगे निकल गये, मैं भी समय पर विहार करता हुआ गन्तव्य पर पहुँच गया। तब आचार्य श्री ने कहा - क्यों कुन्थु आ गये? मैंने कहा - जी आचार्य श्री। आपके आशीर्वाद से मैं आ गया। तत्काल आचार्य श्री बोले - आशीर्वाद के सिवाय मैं क्या दे सकता हूँ भैया ! मैंने फौरन कहा - आपने सब कुछ तो दे दिया। अब जो बचा है (मोक्ष) वह भी आपके आशीर्वाद से मिल जावेगा। शुद्धोपयोगी, वीतरागी गुरुदेव का यह वात्सल्य पाना हमारा परम सौभाग्य ही है, उनके रोम-रोम से करुणा टपकती है। जीवन्त करुणा की मूर्ति के दर्शन मुझे हर क्षण उनमें होते रहते हैं। हृदय मिला पर सदय ना, अदय बना चिर-काल। अदया का अब विलय हो, चाहूँ दीन दयाल॥
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