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अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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Blog Entries posted by Vidyasagar.Guru

  1. Vidyasagar.Guru
    Subject: Illuminate Minds Everywhere - Let's Extend the Reach to Every Institution!
     

     
    Jai Jinendra!
    As we embark on the noble journey of enlightening minds through the "Vatan Ki Kamaan" quiz, we seek your valuable assistance in ensuring that the light of knowledge reaches every corner.
     
    We encourage you to take a simple yet impactful step – print multiple copies of the specially crafted letter for schools and colleges, available on our website. Share these letters with your family members and friends, urging them to deliver these letters to the Principals of schools and colleges in their vicinity.
     
    Additionally, convey the message that every individual, whether a teacher or not, must actively participate in this initiative. Request them to personally hand-deliver the letters or even send them via registered post for added impact.
     
    Your effort in extending the invitation for the quiz to educational institutions will not only contribute to the success of the campaign but will also help create awareness about the importance of education rooted in our rich cultural heritage.
     
    Let's join hands to make this educational initiative a grand success and spread the light of knowledge far and wide.
     
    With gratitude,
    Team Vatan Ki Kamaan
     
    Download  copy of letter  pdf
     विद्यालय एवं कॉलेज के लिए पत्र.pdf
     
     
    "When you deliver these letters to the Principals of your schools and colleges, please fill out the form below to inform us. This form will help us ensure how many schools and colleges have received the message effectively."
    https://docs.google.com/forms/d/e/1FAIpQLSfmB1KHFnfGtRN9QzQtF8j6JGo_UMaEhK0MnKl8gWLJR-tjHw/viewform?usp=sf_link
     
     
    विषय: मिलके करें प्रयास - हर विद्यालय में पहुचें भारतीय शिक्षा पद्धति की बात 
     
    जय जिनेन्द्र!
    "वतन की कमान" क्विज़ के उद्दीपना कार्य में हम सभी मिलकर एक नोबल यात्रा पर निकले हैं, और हम आपसे यहाँ पर आपकी मूल्यवान सहायता की आवश्यकता है, ताकि ज्ञान की रोशनी हर कोने तक पहुँच सके।
     
    हम आपसे एक सरल लेकिन प्रभावी कदम उठाने की प्रेरित करते हैं - हमारी वेबसाइट पर उपलब्ध स्कूलों और कॉलेजों के लिए विशेष रूप से तैयार किए गए पत्र के कई प्रति प्रिंट करें। इन पत्रों को अपने परिवार के सदस्यों और दोस्तों के साथ साझा करें, और उन्हें प्रेरित करें कि वे इन पत्रों को अपने आस-पास के स्कूल और कॉलेजों के प्रमुखों को पहुँचाएं।
     
    इसके अलावा, संदेश पहुँचाएं कि प्रत्येक व्यक्ति, चाहे वह शिक्षक हो या न हो, इस पहल में सक्रिय रूप से भाग लेना आवश्यक है। उनसे निवेदन करें कि वे इन पत्रों को व्यक्तिगत रूप से हस्ताक्षर करके या उन्हें पोस्ट के माध्यम से भी भेजें, ताकि इसे और प्रभावशाली बनाया जा सके।
     
    आपका प्रयास शिक्षात्मक संस्कृति की धरोहर में आधारित शिक्षा के महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ाने में सहारा प्रदान करने के लिए होगा, और इस अभियान की सफलता में योगदान करेगा।
     
    आइए हाथ मिलाकर इस शिक्षात्मक पहल को एक महान सफलता बनाएं और ज्ञान की रोशनी को दूर-दूर तक फैलाएं।
     
    कृतज्ञता के साथ,
    टीम वतन की कमान
     
    विद्यालय स्कूल का पत्र का pdf  डाउनलोड करें 
    विद्यालय एवं कॉलेज के लिए पत्र.pdf
     
    जब आप इस  पत्र को अपने स्कूल और कॉलेजों के प्रमुखों को पहुंचा दें, तो निम्नलिखित फॉर्म को भरकर हमें अवगत करें। यह फॉर्म हमें यह सुनिश्चित करने में मदद करेगा कि कितने स्कूल और कॉलेजों तक संदेश पहुंचा है
    https://docs.google.com/forms/d/e/1FAIpQLSfmB1KHFnfGtRN9QzQtF8j6JGo_UMaEhK0MnKl8gWLJR-tjHw/viewform?usp=sf_link
     
  2. Vidyasagar.Guru
    नेमावर , 7 अप्रैल 2021
    युग शिरोमणि आचार्य भगवन श्री विद्यासागर जी महाराज का जग जाहिर है कि उनका हर कार्य अनियत ही होता है 
    ऐसा ही हुआ जब आज क्षुल्लक श्री. समताभूषण जी महाराज ( संघस्थ मुनि श्री अक्षयसागर जी महाराज) की ऐलक दीक्षा आचार्य भगवन के हाथ सम्पन्न हुई
    आज प्रातः ही क्षुल्लक जी ने केशलोंच किये थे 
    जिसके पश्चात आचार्य भगवन के मुख से नाम प्रस्फुटित हुआ - *ऐलक श्री उपशम सागर जी महाराज
    विशेष - क्षुल्लक जी लंबे समय से मुनिवर श्री अक्षयसागर जी महाराज के संघ में अद्भुत साधना कर रहे थे।इतनी कम उम्र में आपकी मौन ओर सेवा भाव अत्यंत प्रबल है । मुनिवर माणिक सागर जी की अत्यंत वृद्धवय में भी आपने पिता तुल्य सेवा की जिसके परिणामस्वरूप आचार्यभगवन की कृपा आपको प्राप्त हुई
     



  3. Vidyasagar.Guru
    Join at www.kahoot.it
    or with the Kahoot! app
    Game PIN:
    5281595
     
     
     
     
    विद्यासागर डॉट गुरु is inviting you to a scheduled Zoom meeting for Live Kahoot Quiz Contest
    Topic: कुंडलपुर महा महोत्सव Kahoot प्रतियोगिता Live
    Time: Jan 9, 2022 2:30 PM India
    जुड़ें दो मोबाइल से हमारे साथ 
    एक मोबाईल से  पर Zoom (Youtube), दूसरे  से  जुड़ें Kahoot पर हमारे साथ 
    Join Zoom Meeting
    https://zoom.us/j/3317710589?pwd=eWo5R3FTYmNST3ZrbmFXYXFuOXVsZz09
    Meeting ID: 331 771 0589
    Passcode: 1008
    Kahoot Pin आपको ज़ूम पर दिया जाएगा 
    Zoom फूल होने पर Youtube पर भी जड़ सकते हैं हमारे साथ 
  4. Vidyasagar.Guru
    आचार्य संघ मे होने वाले पंचकल्याणक महोत्सव के माता-पिता बनने का महासौभाग्य श्री सुशील जैन तारादेही वालो को प्राप्त हुआ.!! भगवान के माता पिता बनाने का सौभाग्य श्रेष्टि श्री     सुशील सिंघई श्री मति कविता सिंघई तारादेही वालो को मिला बीना बारह पंचकल्याणक महोत्सव के धनपति कुबेर बनने का महासौभाग्य श्रीमान अनिल जी जैन नैनधरा वालो को प्राप्त हुआ ☀आचार्य श्रीजी ससंघ☀ के सानिध्य मे होने वाले पंचकल्याणक महामहोत्सव के सौधर्म इंद्र बनने का महासौभाग्य श्री अजय जी पारस सागर (देवरी वालों) को प्राप्त हुआ.!! बीना बारह पंचकल्याणक महोत्सव के महायज्ञनायक बनने का महासौभाग्य श्रीमान विमल जी जैन सेठ परिवार देवरी वालो को प्राप्त हुआ बीना बारह पंचकल्याणक महोत्सव के राजा श्रेयांश बनने का महासौभाग्य श्रीमान अनिल कुमार जी कुतपुरा परिवार देवरी वालो को प्राप्त हुआ बीना बारह पंचकल्याणक महोत्सव के राजा सोम बनने का महासौभाग्य श्रीमान प्रमोद जी कोठारी परिवार देवरी वालो को प्राप्त हुआ
     
  5. Vidyasagar.Guru
    प्रश्न 1 - कातंत्र रूपमाला जो दो तीन वर्ष में पढ़ी जाती है, उसे आचार्य श्री ने कितने दिन में पढ़ी?
    प्रश्न 2 - आचार्य श्री विद्यासागर जी दीक्षार्थी से क्या कहते है?
    प्रश्न 3 - "साधुओं पर जिसकी श्रद्धा हट गई वह आचार्य श्री विद्यासागर जी के दर्शन अवश्य करें" ये किसने कहा है?
    प्रश्न 4 - संयमोत्सव वर्ष के समापन पर दूरदर्शन पर आचार्य श्री विद्यासागर जी मौन साधना की परछाइयाँ किसने प्रसारित की?
     
    उत्तर आप नीचे कमेंट पर लिखें |
  6. Vidyasagar.Guru
    आज प्रतिभास्थाली / दयोदय जबलपुर में मआचार्य भगवन विद्यासागर जी महाराज के दर्शन करने पहुँचे..भारत के गृह मंत्री श्री राजनाथ सिंह एंव मध्य प्रदेश के भाजपा  अध्यक्ष राकेश सिंह..!!
    ● श्री राजनाथ सिंह ने गुरु पादप्रक्षालन को किया..!!
    ● दोनों नेताओं ने गुरु पूजन के साथ श्रीफल अर्पित किया..!!
    ● जैन समाज की ऒर से मध्य-प्रदेश के पूर्व वित्त मंत्री श्री जयंत मलैया जी मौजूद रहें..!!
    ● करीब आधे घँटे तक चला गुरु जी से वार्तालाप..!!
    ● देश -प्रदेश के बड़े बड़े नेता समय समय पर गुरु चरणों में देते रहते हैं हाज़िरी..!!
     
     
    समाचार संकलन
    अक्षय रसिया,मड़ावरा

      
  7. Vidyasagar.Guru
    *सिद्धवरकूट आवागमन मार्ग हेतु NHDC से मिली राहत*    
  8. Vidyasagar.Guru
    _*💦🥀नेमावर अपडेट🥀💦*_
    _*✨गुरुवार,1 अगस्त 2019✨*_
    _*गौवंश को किसी ट्रक वाले ने टक्कर लगा कर घायल  कर दिया।* अहो सौभाग्य उस गौवंश का जो सिद्धोदय नेमावर जी के मंदिर जी के बाहर ही *आचार्य श्री विद्यासागर जी मुनिराज* द्वारा बहुत ही करुणा भाव से उसे *णमोकार मंत्र* सुनाया  गया...हम सब ये दृश्य देखकर उपस्थित सभीजन *भाव विभोर* हो गये।_
     
    VID-20190801-WA0065.mp4
  9. Vidyasagar.Guru

    कर्म कैसे करें
    हम सभी लोगों ने कल अपने मौजूदा जीवन को किस तरह हम जी रहे हैं और ये जो संसार में विविधताएँ दिखाई पड़ रही हैं इन सबकी जिम्मेदारी किसकी है, इस बात पर विचार किया था और अन्ततः हम इस निर्णय पर पहुँचे थे कि जो जिस तरह जी रहा है उसकी जिम्मेदारी उसकी खुद की है, किसी और की जिम्मेदारी इसमें नहीं है। 

    "कर्म प्रधान विश्व करि राखा,
    जो जस करहि तस फल चाखा'। 

    ये सारा संसार कर्म प्रधान है, जो जैसा यहाँ कर्म करता है वो वैसा फल पाता है। वैसा फल उसे चखना पड़ता है। जो हम विचार करते हैं वो हमारे मन का कर्म है। जो हम बोलते हैं वो हमारी वाणी का कर्म है, जो हम क्रिया करते हैं या चेष्टा करते हैं वो हमारे शरीर का कर्म है और इतना ही नहीं जो हम करते हैं वह तो कर्म है ही, जो हम भोगते हैं वह भी कर्म है और जो हमारे साथ जुड़ जाता है, संचित हो जाता है, वह भी कर्म है। इस तरह यह सारा संसार हमारे अपने किये हुए कर्मों से हम स्वयं निर्मित करते हैं और यदि हम अपने इस संसार को बढ़ाना चाहें तो इन दोनों की जिम्मेदारी हमारी अपनी है। हर जीव की अपनी व्यक्तिगत है। हर जीव की अपनी स्वतंत्र सत्ता है। एक-दूसरे से हम प्रभावित होकर मन से विचार करते हैं, वाणी से अपन विचारों को व्यक्त करते है, शरीर से चेष्टा या क्रिया करते हैं और इस विचार या कही गई बात को पूरा करने का प्रयत्न करते हैं और इस तरह हमारा संसार किन्हीं क्षणों में बढ़ता भी है और किन्हीं क्षणों में हमारा संसार घट भी जाता है। तो इसीलिये जो संसार की विविधता है वो मेरी अपनी वाणी, मेरी अपने मन और मेरे अपने शरीर से होने वाली क्रियाओं पर निर्धारित है बहुत हद तक। गीता में कर्म के तीन भेद कहे हैं। जैन दर्शन में भी कर्म के तीन भेद कहे हैं। हम दोनों को समझेंकुछ क्रियावान कर्म होते हैं जो हम करते हैं और उनका फल हमें तुरन्त देखने में आता है। हम सुबह से शाम तक जो भी कर्म करते हैं उन कर्मों का फल भी हमें हमारे सामने ही देखने को मिल जाता है। कोई सुबह से नौकरी पर जाता है और एक दिन में जितना काम करता है, शाम को उतने पैसे, उतनी तनख्वाह लेकर के लौटता है। हम यहाँ पर किसी को गाली देते हैं वह हमें तमाचा मार देता है। हमारा गाली देने का कर्म हमें किसी ना किसी रूप में फल देकर के चला जाता है, यह क्रियावान कर्म है। ये हम रोज कर रहे हैं और इसका फल भी लगे हाथ चखने में आ जाता है। चाहे वह शुभ हो या कि अशुभ हो, लेकिन इतना ही नहीं है इससे भी कुछ अधिक है, कुछ ऐसे क्रियावान कर्म हैं, जिनका फल हमें तुरन्त नहीं मिलता है, देर-सवेर मिलता है। वे सब कर्म संचित कहलाते हैं। कुछ कर्मों का फल ही हमें रोज मिलता है, कुछ का फल तो हमें बाद में मिलता है। कर्म हमारे वर्तमान के भी हैं, कर्म हमारे साथ अतीत के भी हैं। कर्म हमारे साथ भविष्य में क्या व्यवहार करेंगे, यह भी वर्तमान में ही हम निर्धारित कर लेते हैं। तो वो जो संचित कर्म हैं वो क्या चीज है, वो जो हमें बाद में फल देते हैं, वो सब संचित कहलाते हैं जैसे कि गेहूँ बोयें, एक सौ बीस दिन के बाद फसल आयेगी। बाजरा बोयेंगे, 90 दिन के बाद आयेगी और अगर आम बोया है तो 5 वर्ष के बाद फल लगेंगे। हमने अपने माता-पिता के साथ खोटा व्यवहार किया है और सम्भव है उसी जीवन में और हमारे बच्चे हमारे साथ वही व्यवहार करें जैसा हमने अपने माता-पिता के साथ किया। तुरन्त देखने में नहीं आता पर उसके ऑफ्टर इफेक्ट्स हमारे सामने देखने में आते हैं, बीज आज बोते हैं, फल बहुत देर के बाद देखने में आता है। एक बेटा बहुत छोटा सा है और वह अपने इकट्ठे किये हुए सामान में चाय के कुल्हड़, मिट्टी के और भी बर्तन, वह सब इकट्ठे करता है। पिता एक दिन उससे पूछते हैं कि तुम यह किसलिये इकट्ठे कर रहे हो ? वह कहता है कि जैसे तुम दादा-दादी को इन मिट्टी के बर्तनों में खिलाते हो वैसे ही जब आप बूढ़े हो जाओगे, तब आपके लिये खिलाऊँगा, इसीलिये मैं जोड़कर रख रहा हूँ और होता यह ही है, हम आज जो करते हैं उसका तुरन्त फल मिलता दिखता है लेकिन उतना ही पूरा नहीं है। क्रियावान के साथ साथ कुछ और है जो कि संचित होता जाता है जिसका फल हमें बाद में भोगना पड़ता है। हम कर्म करते हैं. कर्म हमारे साथ बँधता है और कर्म का फल हमें भोगना पडता है। इन तीन स्टेज में ये कर्म की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। यह भी साथ में है कि यहाँ वर्तमान में जो संचित हमने किया है उसमें से कितना भोगना है। हमारे पास पहले से जो संचित है उसमें से कितना भोगना है। यह कहलाता है प्रारब्ध।
     
    हमारे अपने संचित किये हुए कर्मों में से कितने पककर के अपना फल देंगे और जिनका फल हमें भोगना पड़ेगा। वो ठीक ऐसा ही है कि हमने आम का पेड़ भी लगाया है और उधर बाजरा भी बोया है, गेहूँ भी बोया है लेकिन सब अपने-अपने टाइम से आयेंगे। मेरे पास कितना समय है, मेरी अपनी लाइफ कितनी है: उस लाइफ में जो-जो आते चले जायेंगे वो अपना फल देंगे; कुछ शेष रह जायेंगे। जो आगे मेरे साथ ट्रेप होकर के जायेंगे और मुझे आगे भी अपना फल देंगे। कोई भी कर्म अपना फल दिये बिना जाता नहीं है। किसी ना किसी रूप में देगा, पर अपना फल देगा। ये हमारा पुरुषार्थ है जिस पर हम बाद में विचार करेंगे कि हमें उस कर्म के फल के साथ कैसा बिहेवियर (बर्ताव) करना है। अभी सिर्फ हम यह समझें कि कर्म हमारे साथ बँधते कैसे हैं ? ये आते कहाँ से हैं और इन को बुलाता कौन है और ये हमें फल चखाने की सामर्थ्य कहाँ से पाते हैं ? कौन इनमें हमें फल चखाने की सामर्थ्य डालता है और ये कितनी देर तक हमारे साथ रहे आते हैं ? यह कौन निर्धारित करता है? ये प्रक्रिया हमें थोड़ी सी विचार करने की है। होता इतना ऑटोमेटिकली (अपने आप) है कि हम अपनी थोड़ी सी बुद्धि से इस सबके बारे में सोच नहीं सकते, पर एक एक प्रक्रिया अगर हमारे सामने रहे कि हाँ इस तरह होता है, बुलाता कौन है इन कर्मों को, ये आते कहाँ से हैं, ये कहीं और से नहीं आते, हमारे कर्मों से हम इन्हें बुलाते हैं, हम जो कुछ भी सुबह से शाम तक मन, वाणी और शरीर के द्वारा करते हैं वह एक तरह का बुलावा है इन कार्यों के लिये और निरन्तर मन-वाणी और शरीर से होने वाले कर्म हमारे साथ संस्कार की तरह जुड़ते चले जाते हैं। फिर उसके बाद हम मजबूर हो जाते हैं, अगर किसी व्यक्ति को गाली देकर के बात करने की आदत बन जाये तो फिर वह प्यार से बात नहीं कर पायेगा। वो जब भी बात करेगा एक-आध उसके मुँह से गाली स्लिप हो जायेगी। स्लिप हो जायेगी, कह रहा हूँ क्योंकि उसके भीतर वैसा संस्कार बन गया है तो इन कर्मों को कोई बुलाता नहीं है। इन कर्मों का संस्कार हमने बहुत-बहुत पुराना अपने ऊपर डाल रखा है। कहीं पानी बह जाये और फिर सूख जाये और अगली बार पानी गिरे तो वो जो एक लाइन बनी रहती है वहीं से बहता है। वो पानी ठीक ऐसा ही हमारे साथ है। हम निरन्तर अपने मन, वाणी और शरीर से कर्मों के संस्कारों को, आमंत्रण देते हैं और फिर इतना ही नहीं हमारे भीतर उठने वाले काम, क्रोध, मान, माया, लोभ ये जितने भी भाव हैं, चाहे वे शुभ हों व अशुभ हों, चाहे वे तीव्र-मंद हों, चाहे वे जान-बूझकर किये गये हों या कि अज्ञानता से हो गये हों, किसी भी तरह के भाव हों, किसी माध्यम से हुए हों, लेकिन हमारे भीतर उठने वाले भाव, कैसा ये कर्म अपना फल चखायेगा इस बात को निर्धारित करते हैं। एक पण्डित जी गाँव में गये, वचनिका के लिये। कोई नहीं था मंदिर में जब पहुँचे। माली जी से कहा कि भई जाओ तो दो-चार लोगों को बुला लाओ; कहना कि भई पण्डित जी आ गये। अब माली जी क्या समझें। माली जी गये और 4-5 लोगों को बुलाकर ले आये। वो 4-5 लोग जैसे ही आये तो पहले वाले से पूछा पण्डित जी ने, आप कैसे, तो उसने कहा कि ये बुला लाये, माली जी हमको, हम तो रिक्शा चलाते हैं। अरे, नहीं, आपको नहीं बुलाया, आप तो जाइये। दूसरे वाले व्यक्ति को देखा तो वो जरा युवा था। पण्डित जी को ध्यान आ गया कि भई शाम को रिजर्वेशन करवा लें, जाना है गाड़ी से, तो यह युवा ठीक है, उससे कहा कि सुनो ये मेरी टिकट बनवा दो, उसको पैसे दिये। पहले वाले को, तुमसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है, तुरन्त वापस लौटा दिया, बुला तो लिया था सबको, 5-7 लोगों को। लेकिन उसमें से किसको कितनी देर रखना है, ये कौन निर्धारित करता है मेरे अपने परिणाम, उससे मेरा कोई ज्यादा सरोकार नहीं है, रिक्शे वाले से, तो जाओ भैया; इनसे थोड़ा सरोकार है, टिकट लेने भेज दिया है। बाकी जो तीन-चार बचे उनसे कहा कि सुनो, चलो थोड़ी अपन बैठकर धर्म चर्चा कर लेते हैं, हम आये हैं तो घण्टे भर उनसे धर्म चर्चा करी, उतनी देर उन 4-5 को रोका घण्टे भर और उसमें से जब विदा लेने लगे तो एक ने कहा कि पण्डित जी आपकी आवाज से तो लग रहा है कि आप फलानी जगह से आये हैं आप।
     
    हाँ भैया। तो हमारी भी उधर रिश्तेदारी है, अरे तो बहुत अच्छा है बैठो आओ अपन बात करें। वो जो वचनिका सुनने वाले थे वो वचनिका सुनकर चले गये, उसमें से एक परिचित निकल आये तो उनके साथ और घण्टे भर हो गया और फिर बाद में परिचय इतना गहरा निकला कि पण्डित जी अब आपको शाम के भोजन के बिना नहीं जाने देंगे। हमारे यहाँ चलो आप, वो उनको अपने घर ले गये। बताइयेगा, किसने निर्धारित किया ये कि कौन कितनी देर साथ रहेगा और कौन-कौन आयेगा। हमने ही बुलाया है और हम ही जितनी देर रखना चाहें रख सकते हैं, ये हमारे ऊपर निर्भर है। कर्म भी ऐसे ही हैं हमारे मन, वाणी और शरीर से इनको हम आमंत्रण देते हैं कि आओ और फिर हमारे अपने परिणाम जैसे होते हैं उसके अनुसार ये हमें फल चखाते हैं, हमारा जिसके साथ जैसा व्यवहार होता है उससे हमें वैसा ही तो मिलता है। वैसा ही फल हमें चखने में आता है। इस तरह यह कर्म की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। क्योंकि सोते, जागते, खाते-पीते, उठते-बैठते, आते-जाते हर स्थिति में, मैं मन, वचन और कर्म की कोई ना कोई क्रिया करता ही रहता हूँ। सोते समय मेरे मन और शरीर की सक्रियता बनी रहती है और इसीलिये निरन्तर मेरे साथ ये कर्म चलते ही रहते हैं। एक क्षण के लिये भी मैं, कोई भी यहाँ पर जीव कर्म से मुक्त नहीं हो पाता, चाहे वो करने वाले कर्म हों, चाहे वो भोगने वाले कर्म हों, चाहे वो संचित होने वाले कर्म हों, एक क्षण के लिये भी यह प्रक्रिया रुकती नहीं है। जैसे कि किसी की दुकान बहुत अच्छी चलती हो और घर आकर के माँ से वो कहे माँ के पूछने पर कि आज तो दुकान बहुत चली, ग्राहकों में उलझे रहे तो माँ कहे कि क्या एक ही ग्राहक में उलझे रहे? कहता है कि नहीं-नहीं ग्राहकों का तांता लगा रहा। एक ही कर्म का फल भोगते रहते हैं हम ऐसा नहीं है, एक ही कर्म करते रहते हैं ऐसा नहीं है, वरन् उसका तांता लगा रहता है। एक के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा, कहने में तो यही आता है कि हम कर्म करते रहें चाहे वो भले हों, चाहे वो बुरे हों, चाहे वो अच्छे भावों से किये हों, चाहे वो तीव्रता से किये हों, चाहे मन्दता से किये हों, चाहे जान-बूझकर किये हों, अज्ञानतावश किये हों, किसी से प्रेरित होकर के किये हों या कि अपने स्वयं सहज भाव से किये हों, निरन्तर कोई ना कोई प्रकार से हम और ये ताँता लगा ही रहता है। कन्टीन्यूटी बनी ही रहती है और ऐसा नहीं है कि आज ही हमने शुरू किया है, हमें याद भी नहीं है जब से हमारा जीवन है तब से यह मन, वाणी और शरीर तीनों की सक्रियता बनी हुई है। जब तक ये मन, वाणी और शरीर की सक्रियता है, तब तक मेरे कर्म आते रहेंगे और जब तक मैं कोई ना कोई शुभ-अशुभ भाव करता रहूँगा काम, क्रोध, मान, माया और लोभ के परिणाम जो विकारी मेरे भीतर उठते हैं वे जब तक चलते रहेंगे, तब तक ये कर्म की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहेगी। कर्म की प्रक्रिया इस तरह की है। 

    इस कर्म की प्रक्रिया में भागीदारी किसकी है, अब इस पर जरा सा विचार करें तो शायद बात और क्लियर हो। ताकि हम जिनकी पार्टनरशिप है वो खत्म कर देखें तो सम्भव है कि इस कर्म बंध की प्रक्रिया से हम निजात पा जावें, क्योंकि प्रक्रिया तो ये निरन्तर चलने वाली है, समझ में आ गया क्योंकि कोई भी क्षण ऐसा नहीं है जिससे हम कर्म से मुक्त हो। यह सब चीजें हम बाद में विचार करेंगे कि भवितव्य क्या है और हमारा वर्तमान का पुरुषार्थ क्या है ? कुछ प्रश्न थे कल कि भाग्य कितना और पुरुषार्थ कितना। और भी कुछ प्रश्न थे इन पर भी विचार करना है। मैं करूँगा पर आज के दिन नहीं। आज तो कर्म की साझेदारी में कौन-कौन मेरे साथ है, इस पर थोड़ा सा विचार करेंगे और इस कर्म बंध की प्रक्रिया को समझेंगे कि उसकी साझेदारी को समझने के बाद अपने आप यह बात समझ में आ जायेगी कि कितना मेरे भाग्य से और कितना मेरे पुरुषार्थ से, और भाग्य को और पुरुषार्थ को कौन निर्धारित करता है ये सब चीज समझ में आयेगी। एक बहुत अच्छा विचार मेरे पास आया था शाम को, किसी ने लिखकर के दिया था कि मुझे अपनी उस परम विशुद्ध अवस्था को प्राप्त करना है। ये बात तो ठीक है लेकिन सिर्फ उस परम विशुद्ध अवस्था को ही प्राप्त करने के लिये मैं सारी चीजें करूँ ये बात सबको हो सकता है कि ठीक ना जान पड़े। तो क्यों ना हम ऐसा करें कि मेरा जो वर्तमान का जीवन है मुझे उसे ही बहुत अच्छे ढंग से जीना है। अगर इतना भी कर लें तो बाकी जो बहुत-बहुत कठिन से विचार हैं कि ईश्वर क्या है और ईश्वर कहाँ रहता है और ईश्वर को बनाया किसने है या कि ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाया है, इन सारी बातों को यदि हम सिर्फ विचार तक ही रखें और करने के लिये तो सिर्फ इतना ही है कि हम अपने लक्ष्य को ध्यान में रखकर के अपने वर्तमान को अगर सुधारें तो क्या यह एक विचार नहीं हो सकता। मैं इस विचार से सहमत हैं। यह भी एक विचार है और हम इतने दिनों से वही करते आ रहे हैं कि हम बाकी सब भूल कर के, बाकी सारे प्रपंच को भुलाकर के, सिर्फ एक ही बात तय कर लें कि कल जैसा मैंने जिया था जीवन, कल मैंने जैसी वाणी बोली थी, कल मैंने जैसे विचार किये थे, कल मैंने शरीर से जैसी चेष्टा की थी जिनसे कि मैं निरन्तर मेरे कर्मों का संसार बढ़ाता हूँ, मैं उसको और बेहतर ढंग से करूँ। कर्मों को बेहतर ढंग से करने का मतलब है कर्मों से मुक्त होना और कोई बहुत बड़ी चीज नहीं है। कर्म जितने बेहतर ढंग से हम करेंगे, बेहतर ढंग क्या है और जो व्यक्ति ये ढंग सीख लेता है वह व्यक्ति कर्मों से पार हो जाता है। यह बात हम आगे समझेंगे और मैं इस विचार से सहमत हूँ। अब हम इस बात को थोड़ा सा डिस्कस कर लेवें कि इसमें भागीदारी किस-किसकी है - मेरे मन, वाणी और शरीर और मेरे अपने भाव उनको रोकने में, उनको सामर्थ्य देने में। कर्मों को जो बँध जाते हैं मेरे साथ, जो बाद में फल देते हैं उनको सामर्थ्य भी मैं ही देता हूँ। मेरे अपने परिणाम उनको सामर्थ्य देते हैं। तब देखें कि कौनसी चीजें हैं। तीन चीजें हैं, मेरी अपनी आसक्ति, मेरा अपना मोह ये कर्मों के बंधन में पहला भागीदार है। इसमें मेरी परवशता है क्योंकि ये संस्कार मोह का और आसक्ति का बहुत पुराना चला आ रहा है, ये मेरे हाथ की नहीं है। यह परवश है साझेदारी। दूसरी है मेरे अपने वर्तमान के पुरुषार्थ का निर्धारण, भला कर्म है या कि बुरा ये साझेदारी मेरे कर्मों के बंधन में इसकी भी है। मेरे वर्तमान पुरुषार्थ की भी साझेदारी है; वो भला भी हो सकता है और बुरा भी हो सकता है। यह निर्धारित मैं करता हूँ। यह मेरे स्ववश है। मोह व आसक्ति में थोड़ा परवश हूँ, लेकिन वर्तमान के पुरुषार्थ जो कि मेरे हाथ में हैं और तीसरी बात इस कर्मबंध की प्रक्रिया के बारे में गाफिलता, लापरवाही और अज्ञानता। ये तीसरा साझीदार है मेरे कर्म बंध की प्रक्रिया में, ये भी मेरे हाथ में है। तीन में से दो मेरे हाथ में हैं। एक में जरा मैं परवश हूँ। ये तीन भागीदार हैं मेरे। इसमें से जिससे मैं परवश हूँ उस पर पहले विचार कर लूँ। ये जो मेरा मोह है, मेरी जो आसक्ति है मेरे जो कर्म करने का ढंग निरन्तर, आज वर्तमान में जो कोई यह कहे कि शांत बैठो तो उसको निठल्ला मानेंगे। क्या कुछ भी नहीं करते हो, कुछ करो, ये जो कुछ करो वाली प्रक्रिया है इस संसार के मोह की वजह से वो मेरी अपनी परवशता जैसी हो गई है कि कछ करो. लगे रहो अशुभ में, लगे हो तो अशुभ में लगे रहो, शुभ में लगे हो तो शुभ में लगे रहो। मुझे शुभ और अशुभ दोनों के बीच साम्य भाव रखकर के जीना है। यह बात ख्याल में ही नहीं आती। मेरा मोह मुझे निरन्तर कर्म करने के लिये प्रेरित करता रहता है, मेरी आसक्ति मुझे निरन्तर संसार के कर्म करने के लिये। थोड़ी देर के लिये जब मोह शांत होता है तब संसार के कर्मों से ऐसा लगने लगता है कि अब बहत हआ, टू इनफ, वर्ना तो कई बार हम संसार के कार्य द्वेषवश छोड़ देते हैं, हमसे नहीं होता कहाँ तक करें हम रागपूर्वक या कि द्वेषपूर्वक; दोनों स्थितियों में मैं निरन्तर कर्म में संलग्न रहता हूँ तो मेरा मोह जो है वो मेरे इस कर्म के बंधन में सबसे बड़ा भागीदार है और मेरा वर्तमान का पुरुषार्थ तो है ही और मेरी अज्ञानता भी है। कर्म कैसे कितनी जल्दी बँध जाते हैं. मैं जानना ही नहीं चाहता। ये है मेरी लापरवाही, मेरी अज्ञानता। मैं अगर थोड़ा सावधान हो जाऊँ तो शायद इस प्रक्रिया में. मैं थोडा सा बदलाहट कर सकता हैं। मैं परिवर्तन भी कर सकता हैं। मोह क्या चीज है. सब कहते हैं कि मोह है क्या चीज ? आचार्य भगवंतों ने उसका लक्षण बताया है; उसे डिफाइन नहीं किया उसका लक्षण बता दिया। अरहंत भगवान के प्रति अश्रद्धा होना और जीवों के प्रति करुणा का अभाव होना यह मोह का लक्षण है। देखें जरा इस पर विचार करें शायद इससे बच सकें हम। 

    अरहंत भगवान के प्रति श्रद्धा नहीं होना। अरहंत भगवान मतलब जो अपनी विशुद्ध अवस्था को प्राप्त कर चुके हैं या कि जो राग-द्वेष के संसार से ऊपर उठ चुके हैं, याने जो वीतरागी हैं तो वीतरागता के प्रति रुचि नहीं होना, संसार के प्रपंच में रुचि होना उसका नाम है मोह। बहुत सीधी सी चीज है राग-द्वेष में रुचि है सुबह से शाम तक और वीतरागता में रुचि नहीं है यही तो मोह है और यही मेरे कर्म बंध की प्रक्रिया का सबसे बड़ा भागीदार है, सबसे बड़ा पार्टनर है ये और दूसरी चीज मेरे अपने सुख-सुविधा के साधनों को जुटाने के लिये मेरे अन्दर की दया और करुणा का अभाव। ये जो दया और करुणा का अभाव है वो भी मोह का लक्षण है और मेरे अपने इस जीवन को सुख-सुविधा जुटाने की जो आसक्ति है वो आसक्ति मेरे भीतर की दया और करुणा को गायब करती है, तो दया और करुणा का अभाव होना भी मोह है। तो फिर मैं क्या करूँ ? मैं इस मोह से बचने के लिये अरहंत भगवान के प्रति या वीतरागता के प्रति अपनी श्रद्धा को जाग्रत कर अपनी रुचि को बढ़ाऊँ, अपना रुझान, अपना झुकाव उस तरफ करूँ। मैं उन चीजों से दूर रहूँ जिनमें कि राग-द्वेष के अवसर ज्यादा हैं। मैं उन चीजों के सम्पर्क में ज्यादा रहूँ जिससे राग-द्वेष घटता हो। जिसमें वीतरागता की तरफ मेरे कदम बढ़ते हों और मैं उन प्रक्रियाओं को दिन भर में करूँ जिनसे मेरे भीतर दया और करुणा का भाव बढ़ता हो। मैं दया और करुणा दोनों को बनाये रखू, तब हो सकता है कि मैं अपने मोह को जीत सकूँ और इस कर्म बंध की प्रक्रिया को कम कर सकूँ। इसके लिये छोटा सा उदाहरण अपन देखें। हमारे भीतर दया और करुणा का किस तरह अभाव हो गया है, एक व्यंग्य किया है किसी ने। हाँ उससे जल्दी समझ में आ जायेगा। मुझे लगता है आज मैंने कोई बहत बढ़िया सी एक कहानी सुनायी भी नहीं है। वो उदाहरण याद रह जायेगा कि मेरी अपनी आसक्ति क्या है ? और इस आसक्ति के चलते मेरे अन्दर की जो वीतरागता के प्रति रुचि और मेरे अन्दर की जो करुणा का भाव, जो कि मेरा अपना स्वभाव है वो कैसे निरोहित हो गया है, कैसे हट गया है। 

    क्या हुआ, एक भिखारी नया आया गाँव में - शहर में। अब वह नया था उसे क्या मालूम कि कौनसी दुकान के सामने जाने से मिलेगा और कौनसी दुकान पर जाने पर नहीं मिलेगा। बाकी जो वहाँ उस गाँव के या शहर के भिखारी थे उनको तो मालूम है कि इस दुकान पर जायेंगे, एक बार कहेंगे एक बार में मिल जायेगा, और इस दुकान पर जायेंगे जरा दो बार कहेंगे, हाथ-पाँव जोड़ेंगे तो मिल जायेगा और इस दुकान पर जाना ही नहीं क्योंकि कितना ही माथा पटक लो, यहाँ नहीं मिलने वाला। और वो माँगने वाला भिखारी जानता नहीं था, बेचारा और वो ऐसी दुकान पर पहुँच गया जहाँ से आज तक किसी को कुछ नहीं मिला और दूसरे भिखारी दूर खड़े मंद-मंद मुस्करा रहे हैं कि नया नया है उसको मालूम नहीं है, बेकार परेशान होगा उस दुकान पर जाकर। अब उसको क्या मालूम लेकिन उस दुकान का जो सेठ था सबको मालूम है कि वो अत्यन्त आसक्त है अपनी धन-सम्पदा में, खुद भी ठीक से नहीं खाता, दूसरों को तो देने का सवाल ही नहीं। अब ऐसे व्यक्ति के बारे में लगाव बहुत था लोगों को कि देखें, भिखारी गया है, बहुत दिनों के बाद, डाँटेगा वो दुष्ट, लेकिन उस दिन उसने डाँटा नहीं, भिखारी को, “क्यों ? क्या चाहिये।" "कुछ मिल जाये मालिक”, “लगता है, नये आये हो।” “आज ही आया हूँ, भगवान आज ही इस शहर में नया आया हूँ।" अच्छा, अब सेठजी को भी जरा मजा आया, पता नहीं कौनसे मूड में थे तो जरा मजा लेने का हुआ। बोले, “सुनो मेरी दोनों आँखें देख रहे हो, तो तुम बता सकते हो मैंने इसमें से कौनसी नकली लगवाई है और कौनसी असली है।" जरा असमंजस में पड़ गया वो लेकिन भिखारी तो भिखारी ही था, उसने दुनिया देखी है लोगों की आँखें देखकर जानता है वो, भले ही नया हो वो और मुश्किल से 30 सैकिण्ड लगे होंगे और कहा कि सेठजी दाहिनी वाली ओरिजनल है बाईं डुप्लीकेट। सेठजी दंग रह गये। सेठजी ने तो यह सोचा था कि यह बता पायेगा नहीं और इसलिये कुछ देऊँगा नहीं। देना भी पड़ेगा क्योंकि कमिट कर चुके थे कि तुम अगर सही बतायेगा तो कुछ दे दूँगा भिक्षा में; तो बड़ी जोर से हँसकर कहा कि तुम आज जीत गया और आज मेरा मन हो रहा है कि तेरे को कुछ दे दूँगा। सारे भिखारी खड़े हैं दूर, देख रहे हैं, नया भिखारी - इसको कुछ मिल रहा है लगता है! लेकिन एक बात, “ मैं तेरे को पूछना चाहता हूँ वो बस बता दे तो मान जाऊँगा।” “ क्या सेठजी ?” “कि तेने पहचाना कैसे कि ये ओरिजनल है और ये डुप्लीकेट है।" तो वो बोला, “इसमें क्या है, जिसमें थोड़ी करुणा झलक रही है, मैं समझ गया कि वही डुप्लीकेट है क्योंकि ओरिजनल वाली में तो सम्भव ही नहीं है कि थोड़ी बहुत करुणा हो, वहाँ तो सिर्फ मोह ही दिखाई पड़ रहा है आसक्ति ही दिखाई पड़ रही है, वो जो डुप्लीकेट आँखें हैं उसमें थोड़ी करुणा दिखाई पड़ रही है।” क्या यह उदाहरण इस बात की सूचना नहीं देता है कि मेरा मोह, मेरी अपनी करुणा को नष्ट कर देता है ? मेरी अपनी जो वास्तविकता है उससे मुझे विमुख कर देता है, मुझे राग-द्वेष में डाल देता है। मुझे वीतरागता से विमुख कर देता है। शायद इसीलिये आचार्यों ने लिखा कि वीतरागता में रुचि होना, जहाँ धर्म की बात हो रही हो, जहाँ आत्मा के विकास की बात हो रही हो, वहाँ इन्टरेस्ट नहीं है, पर जहाँ प्रपंच हो, वहाँ इन्टरेस्ट है। ये ही तो मेरा मोह है। और जहाँ प्राणी मात्र के प्रति करुणा होनी चाहिये, जहाँ क्षण भर को मेरी अन्तत्मिा दया का भाव लाती हो, उसी समय मेरी ये आसक्ति कहती है कि “ठहरो - ऐसे कहाँ तक दया करते रहोगे ? किस-किस पर करोगे?" ऐसा मुझे सलाह देता है मेरा मोह। मुझे इस प्रक्रिया में इस सबसे ज्यादा खतरनाक भागीदार पर विचार करना चाहिये ताकि मैं इस कर्म बंध की प्रक्रिया से बच सकूँ। और दूसरे नम्बर पर मेरे अपने वर्तमान का पुरुषार्थ मुझे भला करना है या बुरा करना है, ये मेरे ऊपर निर्भर है। इसमें किसी का कुछ भी नहीं है। ये बात जरूर है कि भले और बुरे की प्रेरणा मेरे भीतर जो संचित कर्म हैं वे मुझे देते हैं लेकिन कितने भी संचित कर्म बुरे क्यों न हों, मेरी अन्तआत्मा की बात को दबा नहीं पाते हैं। चोरी करने वाले चोर की भी एक बार अन्तआत्मा की आवाज उसे चोरी करने से रोकती है, उसे भला करने की प्रेरणा देती है, इसीलिये मेरे अपने वर्तमान का पुरुषार्थ भला करना है या बुरा करना है इसकी च्वाइस मेरी अपनी है। इस पर मेरा पूरा का पूरा अधिकार है, इसीलिये इस बात पर विचार करना चाहिये कि मुझे अपने जीवन में शुभ और अशुभ में से किसे चुनना है जबकि मेरे सामने दो ही ऑप्शन हैं। शुद्ध - वो तो मेरा लक्ष्य है। लेकिन मेरे सामने ऑप्शन तो शुभ और अशुभ दो में से एक है तो मेरे वर्तमान का पुरुषार्थ शुभ की तरफ होना चाहिये। अशुभ की तरफ नहीं होना चाहिये और तीसरी चीज जब ये कर्मबंध निरन्तर चलता रहता है, तब मैं क्यों इतना लापरवाह हूँ ? तब मैं क्यों इस कर्म बंध की प्रक्रिया को ठीक-ठीक समझना नहीं चाहता हूँ? 

    मुझे समझ लेना चाहिये, क्योंकि कर्म बंध की प्रक्रिया को समझ लेने से मैं उसमें परिवर्तन कर सकता हूँ इसलिये तीसरी भागीदारी भी मेरे हाथ में है ? मैं जितना अपना कर्मबंध की प्रक्रिया में ज्ञान बढ़ाऊँ, उतना मेरे अपने कर्म बंध की प्रक्रिया को बदलने की सुविधा मुझे प्राप्त हो जायेगी। एक उदाहरण है, मैं शायद पहले दे चुका हूँ। मैं जौहरी बाजार में था तब। मुझे आचार्य महाराज ने सुनाया था। मडावरा में एक पण्डितजी थे पं. हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री का बड़ा ज्ञान था। करुणानुयोग का बड़ा ज्ञान था उनको, कर्म फिलासपी बहुत अच्छी जानते थे और वो रोज वचनिका करते थे और समझाते थे कि देखो भैया कर्म कैसे बँधते हैं जैसे अपने परिणाम हों, तीव्र हो, मंद हो, जान-बूझकर अपन करेंगे और कोई-कोई चीजें ऐसी हैं जो अनजाने में हो जाती हैं अपन से। देखो इन सबसे अलग-अलग कर्म बँधते हैं - ऐसा समझाते थे वो हमेशा। उसमें एक व्यक्ति गरीब भी बैठता था - रोज। एक दिन वो पकड़ा गया, चोरी करते पकड़ा गया। पंचायत बैठी, कि भैया तुमने चोरी क्यों की और चोरी भी ऐसी करी गैर बुद्धिमानी की कि अपने ही पास सात घर दूर जहाँ वो रहता था। वहाँ से पाँच-सात घर दूर किसी व्यक्ति का मकान था। उनके यहाँ गायें बँधी थीं सो उनको डालने का भूसा रखा था। भूसे का बोरा वो उठाकर के ले गया और ऐसा बुद्ध कि वो उसमें छेद था सो वो भूसा जो है लाइन बनती गयी उसके घर तक। भैया ने चोरी भी करी तो ऐसी गैर बुद्धिमानी से करी। वो पकड़ में भी आ गया और पकड़ में आया सो कह भी दिया कि चुरा तो हम ही लाये हैं, सारी बात स्वीकार कर ली। लोग जानते हैं कि रोज वचनिका में बैठता है पण्डितजी के। बात कुछ और है, आदमी चोर नहीं मालूम पड़ता, कोई और बात है। क्या बात थी भैया तो उसने कहा - तीन दिन हो गये, न हमारे घर से और न हमारे पेट में भोजन गया, सो हमने सहन कर लिया - पानी पीकर, लेकिन कल हमसे देखा नहीं गया। हमारा छोटा सा बेटा दूध के लिये जिद्द कर रहा था। हमारे पास रोटी का टुकड़ा भी नहीं है, पानी कब तक पिलायें उसको। उसके लिये दूध चाहिये था, सो ये सवा रुपये का बिकेगा और उतने में मुझे दो तीन दिन के लिये इसके लायक दूध आ जायेगा। तब तक कोई और काम देख लूँगा, तो मैंने सोचा कि और ज्यादा चोरी क्यों करना ? 

    पण्डितजी हमेशा बताते हैं कि अपन को ज्यादा तीव्र परिणामों से कर्म नहीं करना, मन्दता रखना, कषायें जितनी ज्यादा प्रबल होंगी, उतना तीव्र कर्म बँधेगा। मेरी इतनी ज्यादा लोलुपता नहीं थी, मेरी इतनी ज्यादा कषाय नहीं थी, मुझे तो सवा रुपया चाहिये था। और भी सामान वहाँ रखा था। एक उनकी घड़ी उठा करके ले आते तो और ज्यादा की बिकती और वहीं सोने की अंगूठी रखी थी। हम उसे उठा सकते थे लेकिन हमने सोचा कि अपन को कीमती का क्या करना, कौन कोई अपन को ज्यादा जमा करके रखना है; सवा रुपये का ये ले चलो इससे काम चल जायेगा। भैया मैंने आपको उदाहरण सुनाया। यह किस बात के लिये सूचना दे रहा है। सूचना सिर्फ इस बात की है कि मेरे अपने कर्म-बोध की अज्ञानता मेरे कर्म बंध को ज्यादा बढ़ा देती है। अगर मैं कर्म बंध में सावधानी रखू, मैं उसका ज्ञान रखू तो शायद मैं अपने इस कर्म बंधन की प्रक्रिया में अपने मन मुताबिक परिवर्तन कर सकता हूँ। मैं इतना मजबूर नहीं हूँ। मैं सिर्फ अपनी आसक्ति और मोह की वजह से थोड़ा मजबूर हूँ क्योंकि एक पार्टनर ऐसा है। लेकिन दो ऐसे हैं जिनमें कि मेरा वर्तमान का पुरुषार्थ और मेरा ज्ञान दोनों मिलकर के इस प्रक्रिया को परिवर्तित कर सकते हैं। इस तरह हमने आज थोड़ी सी चर्चा अपनी इस कर्म बंध की प्रक्रिया पर की और हमने समझा कि - कैसे ये कर्म जो हम करते हैं, हमारे साथ बँधते चले जाते हैं। हमें कैसे ये अपना फल देते हैं और ये प्रक्रिया कैसे निरन्तर चलती रहती है। मेरा मोह मेरे वर्तमान का पुरुषार्थ और मेरी अपनी अज्ञानता कर्म बंध के प्रति इसको बढ़ाती चली जाती है। मैं अगर अपने पुरुषार्थ को सँभाल लूँ, मैं अपने ज्ञान को बढ़ा लूँ और मैं अपने मोह को घटाता चलूँ, वीतरागता के प्रति मेरा रुझान बढ़ता जाये तो शायद इस कर्म बंध की प्रक्रिया में कुछ परिवर्तन मैं कर सकता हूँ। इसी भावना के साथ कि हम इस कर्म बंध की प्रक्रिया को समझकर इस कर्म से मुक्त हो सकें। 

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  10. Vidyasagar.Guru
    स्थान एवं पता - श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र पटेरिया जी, गढ़कोटा, जिला- सागर (म.प्र.)
    निकटतम प्रसिद्ध स्थान का नाम -  श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, पटनागंज, रहली,जिला- सागर (म.प्र.), श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, बीनाबारहा,देवरी, जिला- सागर (म.प्र.), श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर, जिला- दमोह (म.प्र.)
    साइज़ - 21 फुट
    पत्थर - वंडर मार्बल
    लागत - 5,54,878रूपये
    पुण्यार्जक का नाम - इंजी. आशीष - सुम्बुल, किंजल, रोणित, सानिया जैन व डॉ. मनीष - डियाना, बोधि जैन सुपुत्र श्रीमती सुषमा जैन निवासी टेक्सास ह्यूस्टन अमेरिका ने अपने पिताजी स्वर्गीय श्री रमेश चंद जैन सुपुत्र स्वर्गीय लाला मोतीलाल जैन (दूधाहेड़ी वाले ) की स्मृति मे बनवाया |
    शिलान्यास तारीख - 9 - जून - 2018
    शिलान्यास सानिध्य प्रतिष्टाचार्य - ब्र.प. सुभाषचन्द्र जैन दमोह म.प्र
    लोकार्पण तारीख - 16 - जुलाई - 2018
    लोकार्पण सानिध्य पिच्छीधारी - आर्यिका 105 कुशलमति माताजी ससंघ, बा.ब्र. राजकुमारी दीदी दमोह , बा.ब्र. सुनीता दीदी पिंडरई, बा.ब्र. सुनीता दीदी राहतगढ़, बा.ब्र. संगीता दीदी गढ़ाकोटा, ब्र. कमलादेवी जैन दमोह बा.ब्र. डॉ. सत्येन्द्र जैन दमोह
    लोकार्पण सानिध्य राजनेता - प. श्रेयांश शास्त्री सागर, क्षेत्र के पदाधिकारी, श्री अनिल सांघेलिया अध्यक्ष श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र पटेरिया जी, गढ़ाकोटा, जिला- सागर (म.प्र.) 2-श्री अमित चौधरी महामंत्री, श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र पटेरिया जी, गढ़ाकोटा
     

















     
     
     
  11. Vidyasagar.Guru
    स्थान एवं पता - श्री पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर, बही चौपाटी, महू नीमच फोर लेन रोड, तहसील मल्हारगढ़, जिला मंदसोर, मध्य प्रदेश
    साइज़ -
    पत्थर - 
    लागत - 
    पुण्यार्जक का नाम - इंजीनियर मुकेश वैभव पिता स्व. डॉ. विजय कुमार संगाई ( गुण आयतन ट्रस्टी), श्री जय कुमार पिता शांतिलाल जी बड़जात्या, श्री यश कुमार पिता सूरजमल जी बाकलीवाल सभी निवासी मंदसोर मध्य प्रदेश
    जी पी एस लोकेशन - 24.178404 75.007215
    शिलान्यास तारीख - 03 मार्च 2018
    शिलान्यास सानिध्य (पिच्छीधारी) - मुनि. श्री विनीत सागर जी महाराज साहब, मुनि. श्री चंद्रप्रभ सागर जी महाराज साहब
    शिलान्यास सानिध्य प्रतिष्टाचार्य - बाल ब्रहमचारी संजय भैया जी मुरैना
    शिलान्यास सानिध्य - राजनेता जिला कांग्रेस उपाध्यक्ष श्री मंगेश जी संगई एवं भाजपा महामंत्री श्री बंसी लाल जी गुर्जर
    लोकार्पण तारीख - 01 जनवरी 2019
    लोकार्पण सानिध्य पिच्छीधारी एवं अन्य (त्यागी व्रती) - रीता दीदी, अपर्णा दीदी एवं बाल ब्रहमचारी संजय भैया जी मुरैना
    लोकार्पण सानिध्य राजनेता - जिला कांग्रेस महामंत्री श्री मंगेश जी संगई
     










     
  12. Vidyasagar.Guru
    जाके जैसे बाप मतारी, उनके वैसे लरका.....
    जैन दर्शन के अनुसार, जिनेन्द्र भगवन अपने शिष्यों, भक्तों को अपना दास नही बल्कि अपने जैसा भगवान बना लेते है इसका उल्लेख श्रीभक्तामरजी स्त्रोत में  पूज्यवर यतिवर मानतुंग आचार्यदेव बड़े गर्व से करते है
     आचार्यश्रेष्ठ के सानिध्य में जब भी  विशाल भव्य आयोजन हो तब उसका सारा  श्रेय आचार्यश्री अपने शिक्षादीक्षा गुरु गुरुणाम आचार्यप्रवर ज्ञानसागरजी महाराज को देते है 
    और कई बार ऐसे अवसर आते है कि अपने आराध्य गुरु के स्मरण, गुणगान करते समय उनके रोम रोम से पुलकित कन्ठ एवम नयनों में श्रद्धाजल छलक उठता है तब लगता है कि साक्षात विद्या के सागर अपने गुरु के स्मरण मात्र से कितने शिशुवत हो जाते है और यही परम्परा वर्तमान में भी विद्यमान है आज भी उनके शिष्य, शिष्याएं जब लम्बी प्रतीक्षा के बाद चरण वंदन करते है तब उन्हें अपने  आराध्य गुरु के प्रति भावों के अतिरेक का विशाल सागर उमड़ पड़ता है
    परमपूज्य आचार्यश्री ने अपने सभी शिष्यों को मात्र अपना शिष्य ही नही बनाया बल्कि अपने ज्ञान, चर्या, तपस्या के अनुरूप अपने जैसा ही बना लिया
    ज्येष्ठ मुनिराजों में निर्यापक श्रमण मुनिपुंगव सुधासागरजी महाराज ने अनेकों तीर्थो का जीर्णोद्धार एवम नए तीर्थो का निर्माण तो कराया ही है बल्कि बहुविख्यात आचार्यश्रेष्ठ स्वामी समन्त्रभद्र के अनुरूप आगमोक्त सिंह गर्जना करते हुए मिथ्यात्व का खंडन किया करते है 
    उनकी गर्जना से बड़े बड़े मिथ्यावादी, एकांतवादी सूरज के निकलते उलूक की तरह भाग जाते है
    आचार्यश्री ने आज अपने प्रवचन में कहा कि मुनिपुंगव के पैरों में दर्द है जिसे अब बड़े बाबा जल्दी ठीक कर देंगे साथ ही यह घोषणा भी कर दी कि आज मुनिपुंगव का कंठ अवरुद्ध है लेकिन कल से फिर दहाड़ेंगे.....
    अब देखो न..... आज ही जब मुनिपुंगव जब अपने आराध्य की चरण वन्दना हेतु कुंडलपुर की ओर आ रहे थे तब लग रहा था कि साक्षात जिनेन्द्र भगवान का विहार हो रहा हो
    लेकिन जब गुरुचरणों में पहुचने के बाद तो ऐसा लगा कि, माँ की गोद से, काफी समय बिछड़ा बालक, माँ को पाकर कैसे पुलकित हो जाता है
    इस दृश्य को जब  हम सबने चेनलों के माध्यम से देख रहे थे तब लग रहा था कि, इतने बड़े ज्येष्ठ श्रमण अपने गुरु के समक्ष कितने शिशुवत हो गए
    और हां आचार्यश्री ने अपने लघुनन्दन को भी अपने स्नेह वात्सल्य से सराबोर करने में कोई कसर नही छोड़ी...
    सुनते है जब किसी गाय के समक्ष उसका बछड़ा आता है तब उन दोनों का वात्सल्य देखने योग्य होता है ऐसे में बिना अपेक्षा, आशा बिना स्वार्थ के अपने पुत्र पर जो स्नेह लाड़ बरसाती है ऐसे में इन दोनों के शरीर से इतनी सकारात्मक ऊर्जा प्रवाहित होती है जिससे आसपास के रहने वालों के बड़े बड़े रोग दूर हो जाते है
    जब गाय बछड़े के वात्सल्य से इतना सम्भव है तो जरा विचार करें कि सर्वाधिक ऊर्जा प्रदाता बड़े बाबा के आभामंडल में छोटे बाबा और मुनिपुंगव कि पावन सानिध्य में कितनी पावन अतिशयकारी ऊर्जा प्रवाहित हो रही होगी इसका आंकलन करना तो किसी भी अत्याधुनिक मशीन या सुपर कम्प्यूटर के वश में नही है
    आज आचार्यश्री के पावन चरणों का, मुनिपुंगव द्वारा अश्रुजल से  *चरणाभिषेक देख लग रहा था कि बुंदेलखंड की यह कहावत आज जीवंत चरितार्थ हो रही थी कि....
    जाके जैसे नदिया नारे,
    वाके वैसे भरक़ा...
    जाके जैसे बाप मतारी,
    वाके वैसे लरका....
     शब्द भाव
    • राजेश जैन भिलाई •
  13. Vidyasagar.Guru
    "प्रिय सदस्यों,
    आपसे अनुरोध है कि 'वतन की कमान' प्रतियोगिता के पोस्टर को मंदिरों में लगाकर इस महत्वपूर्ण अभियान में अपना सहयोग दें। आपका यह कदम इस प्रतियोगिता के प्रचार में बहुत मदद करेगा और और अधिक लोगों को इसमें भाग लेने के लिए प्रेरित करेगा। आइए, मिलकर हम भारतीय शिक्षा की दिशा में एक सार्थक योगदान दें और अपने देश को ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करें।
     
    आपके प्रयास से यह  प्रतियोगिता और भी व्यापक हो सकेगी, और हम सभी मिलकर गुरुजी की इस भावना को साकार कर पाएंगे।"
     याद रखें, जितना बड़ा पोस्टर, उतनी अधिक दृश्यता।
     
    इस कार्य को करने वाले दस भाग्यशाली लोगों को एक विशेष उपहार दिया जाएगा। हम एक लकी ड्रॉ के माध्यम से इन दस विजेताओं का चयन करेंगे। पोस्टर लगाने के बाद, उसके साथ अपनी फोटो खींचें और इस पोस्ट के जवाब में अपलोड करें। फोटोग्राफ साझा करने की अंतिम तिथि 18 जनवरी 2024 है। विजेताओं के नाम 20 जनवरी 2024 को घोषित  किए जाएंगे।
    आचार्य श्री जी का कहना  है कि हर भारतीय इस अमूल्य पुस्तक का अध्ययन करे। आपकी सहायता से यह ज्ञान अनेकों तक पहुंचेगा, और आपका प्रयास ही हमें सबसे बड़ा उपहार है। साथ ही, हम आपके उत्साहवर्धन के लिए विशेष उपहार भी प्रदान कर रहे हैं।"
    "जो पहले पांच लोग इस अभियान में सक्रिय रूप से कदम बढ़ाएंगे, उन्हें निश्चित रूप से विशेष उपहार प्रदान किया जाएगा। आपकी प्रेरणा और सहयोग से प्रत्येक मंदिर में 'वतन की कमान' प्रतियोगिता की जानकारी पहुंचाई जा सकेगी।"
     
    सभी 15 लोगों को  हतकरघा / हस्तशिल्प  के उत्पाद प्रदान किए जाएंगे 
     
    पोस्टर के साथ फोटो निम्न लिंक पर अपलोड करें 
    https://vidyasagar.guru/gallery/category/89-1
     
    पोस्टर डाउनलोड करें 
     
     
     
     

     
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    Watan ki kaman cdr @ sourabh bhiya.cdr
     
  14. Vidyasagar.Guru
    *बिहार अपडेट 6 नवंबर*
    🔅🔅🔅🔅🔅
    *संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर महाराज का मंगल विहार जबलपुर से शहपुरा भिटौनी की ओर चल रहा है* 6 नवंबर को दिन भर में गुरुदेव 14 किलोमीटर चले रात्रि विश्राम बिलखरवा ग्राम में हो रहा है। 
    *7 नवंबर को आहारचर्या सहजपुर ग्राम से 3 किलोमीटर आगे मगरमोहा या क्रिसरोध चौराहा पर होगी* यहां से शहपुरा भिटौनी की दूरी साढ़े 6 किलोमीटर है 
    कल 7 नवंबर की शाम को शहपुरा भिटोनी मैं प्रवेश की प्रबल संभावना है *उल्लेखनीय है 10 से 16 नवंबर तक शहपुरा भिटौनी में* पंचकल्याणक गजरथ महोत्सव का आयोजन होने जा रहा है 
    *पात्रों का चयन 8 नवंबर को दोपहर में होने की संभावना है*
    ---
     
     
    6 नवम्बर प्रातः 6:15
     
    आचार्यश्री जी का हुआ मंगल विहार
    परम् पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ का मंगल विहार पूर्णायु, प्रतिभास्थली, तिलवाराघाट जबलपुर से अभी थोडी देर पहले हुआ।
    सम्भावित दिशा : शहपुरा भिटौनी
    WhatsApp Video 2021-11-06 at 7.06.13 AM.mp4 WhatsApp Video 2021-11-06 at 7.24.13 AM.mp4
  15. Vidyasagar.Guru
    *कुण्डलपुर से 5 मुनिसंघों का एकसाथ विहार*
               दिनांक :- 01 मार्च 2022,मंगलवार
    संत शिरोमणि *आचार्यश्री विद्यासागर जी महामुनिराज* के परम् प्रभावक शिष्य 
    *☀️🌿मुनिश्री अक्षयसागर जी*
    🔅मुनिश्री नेमिसागर जी
    🔅मुनिश्री शैलसागर जी 
    🔅मुनिश्री अचलसागर जी 
    🔅ऐलकश्री उपशमसागर जी
    *(4 मुनिराज,1 ऐलक)*
    *विहार दिशा -*
     
    *☀️🌿 मुनिश्री प्रणम्यसागर जी*
    🔅मुनिश्री चन्द्रसागर जी
    *(2 मुनिराज)*
    *विहार दिशा -*
     
     
     
    *☀️🌿निर्यापक मुनिश्री वीरसागर जी*
    🔅मुनिश्री विशालसागर जी
    🔅मुनिश्री धवलसागर जी
    🔅क्षुल्लकश्री मंथनसागर जी 
    🔅क्षुल्लकश्री मननसागर जी
    🔅क्षुल्लकश्री विचारसागर जी
    🔅क्षुल्लकश्री मगनसागर जी
    🔅क्षुल्लकश्री विरलसागर जी
    *(3 मुनिराज,5 क्षुल्लक)*
    *विहार दिशा-महाराष्ट्र प्रान्त*
     
    *☀️🌿मुनिश्री विशदसागर जी*
    🔅मुनिश्री निराकुलसागर जी
    *(2मुनिराज )*
    *विहार दिशा-*
    का मंगल विहार सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर से अभी अभी हुआ ।
  16. Vidyasagar.Guru
    खुरई के नवीन जैन मंदिर में अाचार्यश्री के प्रवचन हुए
    खुरई
    बुंदेलखण्ड वासियों की मधुर एवं कर्णप्रिय वाणी श्रवण कर जो आत्मीयता, धार्मिकता, समर्पण, त्याग, तपस्चर्या एवं एकता का परिदृश्य होता है, वैसी वाणी अन्यत्र कम ही देखने मिलती है। यहां के वाशिंदों की बोली मन में उत्साह एवं उमंग को संचारित कर देती है।
    मन में संगीत की तरंगे प्रवाहित होने लगती है, पंकज की तरह आसमां को छू जाती हैं। अंधकारमय जीवन में प्रकाश भर देती है। वैसे भारत की संस्कृति का गुणगान संपूर्ण विश्व करता है, जितने भी शोध कार्य हो रहे हैं वह हमारे प्राचीन ग्रंथों में वर्णित सूत्रों के आधार पर हो रहे हैं। जैन धर्म अति प्राचीन धर्म है, इसके मूल ग्रंथों में आज से हजारों लाखों वर्ष पूर्व लिखा गया वह सभी प्रमाणिक एवं विज्ञान की कसौटी पर आज भी खरा उतरता है। यह बात नवीन जैन मंदिरजी में आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज ने प्रवचन देते हुए कही।

    उन्हाेंने कहा कि शिक्षा हमें किसकी, किसको एवं क्यों दी जा रही है इस पर भी मंथन जरूरी है। उन्होंने कटाक्ष करते हुए कहा कि हम नागरिक नहीं हैं क्याेंकि हमारे नगरों में रहने की तो योग्यता नहीं है, हम 'स्मार्ट सिटी' बना रहे हैं, तहसील को जिला एवं जिला को राजधानी बनाने ललायित हैं। श्रम के क्षेत्र में हम शून्य होते जा रहे हैं। तीसरे विश्व युद्ध की कगार पर खड़े हैं हम अपनी पहचान खोते जा रहे हैं, यह धारणा ठीक नहीं है। मैं दुनिया के ममत्व एवं भ्रांतियां देख आश्चर्यचकित हूं। अरे! कुछ बन सको या न बन सको, कम से कम नेक इंसान तो बन जाओ। उन्हाेंने कहा कि वर्तमान समय में हम विदेशी वस्तुएं अपनाने लगे हैं, स्वदेशी वस्तुएं अपनाने में हम बैकवर्ड कहलाने लगते हैं, यह धारणा ठीक नहीं।
    हमें हस्त करघा उद्योग को विकसित करना होगा
    , पूर्ण स्वदेशी एवं अहिंसक वस्तुओं का प्रयोग कर एक बार पुनः भारत के गौरव को बनाकर 'सोने की चिड़िया' के राष्ट्र का सम्मान दिलाना होगा, तभी हम एवं हमारा राष्ट्र खुशहाल हो सकेगा, तब ही हम अपने धर्म की रक्षा कर पाएंगे।
    इस अवसर पर  अनेक दान दाताओं ने दान की घोषणा की। पाठशाला के नौनिहाल बच्चों ने भी अपनी अपनी गुल्लकों से लगभग 21 हजार की दान राशि प्रदान कर आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज से आशीर्वाद लिया।
     
  17. Vidyasagar.Guru
    ब्रम्हचर्य : आत्मा का नैकट्य 
    आज बात ब्रह्मचर्य की है। वह ब्रह्मचर्य जिसके बिना कोई साध ना फलवती नहीं होती। प्रत्येक साधना-पद्धति में ब्रह्मचर्य को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। ब्रह्म का अर्थ होता है आत्मा। आत्मा की उपलब्धि के लिए किया जाने वाला आचरण ब्रह्मचर्य कहलाता है। जो अपनी आत्मा के जितना नजदीक है वह उतना बड़ा ब्रह्मचारी है और जो आत्मा से जितना अधिक दूर है वह उतना बड़ा भ्रमचारी है। हमें ब्रह्मचारी और भ्रमचारी में भेद करके चलना है। जो ब्रह्म को पहचाने और उसका आचरण ब्रह्मचर्यमय होता है वह ब्रह्मचारी तथा जिसे अपने आत्म-ब्रह्म का ज्ञान नहीं, जो भ्रम में जिए वह भ्रमचारी। प्रभो! अनादि से अपने ब्रह्म-स्वरूप को न जान पाने के कारण मैं भ्रमचारी बनकर इस संसार में फिरता हुआ दुखों का पात्र बना रहा, आज आपकी कृपा से मुझे मेरा ज्ञान हुआ, मुझे मेरा परिचय प्राप्त हुआ और अब मैं ब्रह्मचर्य के रास्ते को अंगीकार करके आपके नजदीक आने का मार्ग पकड़ रहा हूँ।
     
    बंधुओं! ब्रह्मचर्य बहुत उच्च आध्यात्मिक साधना है। जब कभी भी ब्रह्मचर्य की बात आती है तो उसका सम्बन्ध प्राय: यौन-सदाचार तक सीमित रखा जाता है लेकिन ब्रह्मचर्य का सम्बन्ध केवल यौन सदाचार तक सीमित नहीं है। यौन-संयम मात्र ब्रह्मचर्य नहीं है, ब्रह्मचर्य का मतलब है विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि से सम्पन्न होकर जीना। ब्रह्म यानी आत्मा की ओर मुड़ना। जो आत्मा के जितना नजदीक है वह उतना बड़ा ब्रह्मचारी और जो आत्मा से जितना दूर है वह उतना अब्रह्मचारी। मतलब आत्मा की निकटता और दूरी ही ब्रह्म और अब्रह्म का द्योतक है। अगर हम ऊँची भूमिका के स्तर से विचार करते हैं तो आत्मा से दूर गए, भ्रम में फसे, आत्मा के नजदीक हुए तो ब्रह्म को पा लिया। हमें आत्मा से दूर कौन ले जाता है? अगर देखा जाए तो हम तो अपने भीतर हैं लेकिन फिर भी भीतर रहकर भी हम अपने आप से कोशों दूर हैं। हमें दूर ले जाने वाला कौन? हमारे भीतर काम-भोग की लालसा और उसे जन्म देने वाला कौन? हमारे मन में पलने वाला अज्ञान। मनुष्य को जब तक अपने ब्रह्म का ज्ञान नहीं होता वह भ्रम में उलझा रहता है। बाह्य तत्वों में उलझकर अपने जीवन का सर्वनाश कर डालता है और जिसे अपने ब्रह्म का ज्ञान हो जाता है वह अपनी प्रवृत्तियों को सीमित, संयमित और नियंत्रित करके अंतर्मुखी चेतना का विकास करता है। ये अंतर्मुखी चेतना ही उसको परम ब्रह्म की अभिव्यक्ति का साधन बनती है। आचार्य कुंदकुंद कहते हैं
    जह णाम को वि पुरिसो रायाण जाणिदूण सद्दहदि।
    तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण।
    एवं हि जीवराया णादवो तह य सद्दहेदव्वो।
    अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेणा॥
    जैसे कोई अर्थ का अभिलाषी व्यक्ति राजा को जानकर राजा के अनुकूल कृत्य करता है, उस पर श्रद्धान करता है, उसके बारे में जानता है और उसके अनुकूल आचरण करता है ताकि राजा की कृपा का पात्र बनकर कुछ धन पा सके; ऐसे ही यदि तुम्हे मोक्ष की कामना है तो अपने भीतर बैठे जीव रुपी राजा की जानी, पहचानो और उसका अनुशरण करो। मोक्ष की कामना है तो अपने भीतर के ब्रह्म को पहचानो, अपनी आत्मा की जानी। अपने आत्म-ज्ञान के बिना कल्याण संभव नहीं और जिसे आत्मा का ज्ञान हो जाता है, भेद-विज्ञान हो जाता है उसके जीवन में ब्रह्मचर्य बहुत सहजतया घटित हो जाता है।
     
    आज मैं अपनी बात एक ब्रह्मचारिणी गाय की कथा से प्रारम्भ कर रहा हूँ। अयोध्या प्रसाद गोयलीय ने अपनी कृति 'गहरे पानी पैठ' में इस घटना का उल्लेख किया है। घटना बहुत पुरानी है। आजादी की लड़ाई के समय वे जेल में थे। वहाँ उनके किसी मित्र ने ये कथा उन्हें सुनाई। ग्वालियर के किसी परिवार में एक गाय पलती थी। उस गाय ने छह बछड़े और बछड़ियों को जन्म दिया। उसके बाद जब उसे गर्भवती बनाने का प्रयास किया गया तो वह गर्भवती नहीं हो सकी। जब बार-बार उसके साथ ऐसा प्रयास किया जाने लगा तो एक दिन उस गाय ने उस घर में पलने वाली एक छोटी बच्ची को सपना दिया और कहा कि मैं ब्रह्मचर्य व्रत ले चुकी हूँ इसलिए मुझे पुन: गर्भवती बनाने का प्रयास न किया जाए अन्यथा मैं कुएँ में कुदकर जान दे दूँगी। बेटी ने घर के लोगों को ये बात बताई लेकिन लोगों की बात समझ में नहीं आई और सबने सपना कहकर टाल दिया कि गाय में कौन सा ब्रह्मचर्य होता है। आदमी ब्रह्मचर्य नहीं पालता गाय कहाँ से पालेगी? उस बच्ची की बात की नजरअंदाज कर दिया गया और जब वापस गाय को गर्भवती बनाने का प्रयास किया गया तो गाय अपने सपने के अनुसार तेज गति से भागी और घर के आँगन के कुएँ में छलांग लगाकर अपनी जान दे दी। ये एक ब्रह्मचारिणी गाय का उदाहरण है। पशु को भी आत्मा का ज्ञान हो जाता है तो उसके अंत:करण में वैराग्य आ जाता है।
     
    हम बनें बिलासी चैतन्य आत्म के
    आज की चार बातें- विलास, विनाश, विकास और विराग। विलास आज हर व्यक्ति को प्रिय है। संत कहते हैं तुम्हें विलास प्रिय है, विलासी बनो, मैं आपसे कहता हूँ जितना विलास करना है करो। महाराज! क्या हुआ? आज विलास करने की बात कर रहे हो, विलास तो जीवन का अभिशाप है। मैं फिर दोहरा रहा हूँ, होश में बोल रहा हूँ- तुम्हें जितना विलास करना है करो, जी भरकर करो पर किसका विलास करो? चैतन्य का विलास करो। विलास को दो रूप हैं- एक चैतन्य-विलास, एक भोग-विलास। चैतन्य-विलास का मतलब अपनी आत्मा में रमना, अपनी आत्मा से बंधना, अपनी आत्मा में संतुष्ट होना और कामेच्छा को समाप्त कर डालना। जिसके अन्दर समस्त कामनाए अंतर्लीन हो जाए, जिसका भीतर सारी वासनाएँ विलीन हो जाएँ और जिसके अंदर सारी इच्छाएँ अंतर्धान हो जाएँ उसका नाम है चैतन्य-विलास। विलास का मतलब होता है आनंद, रस, तृप्ति, प्रसन्नता। तुम्हारे भीतर आनंद हो। धर्म आनन्द को छुडाने की बात नहीं करता; धर्म और अध्यात्म मनुष्य के जीवन में सच्चा आनन्द दिलाने की बात करते हैं। विलास चाहिए, केसा विलास? अंदर का विलास, अंदर की तृप्ति जिसमें किसी साधन की जरूरत नहीं। चैतन्य-विलास जो स्वाश्रित है और भोग-विलास जो पराश्रित है। चैतन्य के विलास के लिए किसी दूसरे साधन और व्यक्ति की आवश्यकता नहीं और भोग-विलास सदैव दूसरों के माध्यम से होता है, उसमें सामने किसी की उपस्थिति चाहिए, चाहे वस्तु हो या व्यक्ति। चैतन्य-विलास में कोई सामने नहीं चाहिए बल्कि जब तक कोई सामने है तब तक चैतन्य का विलास ही नहीं है, स्वाश्रित है। चैतन्य के विलास में परम तृप्ति की अनुभूति और भोग के विलास में सदैव आतुरता और अतृप्ति का अनुभव।
     
    आपने आज तक किसका विलास किया? सारा जीवन भोग-विलास में खपा दिया और खपा रहे हो इसलिए कि तुम्हें अपने चैतन्य स्वरूप का पता नहीं। जिस मनुष्य के भीतर आत्म-दृष्टि प्रकट हो जाती है उसकी देहासक्ति खत्म हो जाती है। जिसकी देहासक्ति नष्ट होती है उसकी भोगासक्ति खत्म हो जाती है और जिसकी भोगासक्ति खत्म हो जाती है, उसके अंदर की वासना विलुप्त हो जाती है। देहासक्ति से भोगासक्ति और भोगासक्ति से वासना के भाव मन में पैदा होते हैं। ये मनुष्य को भटकाने वाले कारण हैं, इनको खत्म करना है। भेद-विज्ञान करके आत्म ज्ञान करो, आत्म-ज्ञान होते ही देहासक्ति खत्म होती है, आत्मानुरक्ति बढ़ती है, भोगासक्ति नष्ट होती है, अन्दर की विरक्ति बढ़ती है, वासना नष्ट होती है, वात्सल्य प्रकट हो जाता है, अतृप्ति नष्ट होती है और शांति की अनुभूति प्रकट होती है।
     
    चैतन्य का विलास चाहते हो तो चैतन्य को पहचानो, तुम कौन हो? जब तक तुम्हारी देह पर दृष्टि रहेगी तब तक चैतन्य का विलास कर ही नहीं सकोगे। सच्चा आनंद नहीं होता। बच्चा रोता है तो माँ कभी-कभी उसे निप्पल पकड़ा देती है, बच्चा मुँह में निप्पल लेकर मग्न हो जाता है, मन ही मन बड़ा खुश होता है कि चलो मुझे निप्पल मिल गया। मैं पूछता हूँ निप्पल दबाने से बच्चों को उस निप्पल में कोई रस मिलता है क्या? क्या है निप्पल में? रस है या रस का भ्रम है? रस का भ्रम है, वह निप्पल उसे रस का भ्रम दे रही है, रस तो उसके मुँह से निकल रहा है लेकिन वह सोच रहा है कि ये सारा रस निप्पल दे रही है। निप्पल को चूसते-चूसते वह थक जाएगा पर उसे तृप्ति नहीं मिल सकती, उसे पुष्टि नहीं मिल सकती अगर उसी निप्पल की जगह माँ का दूध थोड़ी देर पी ले तो पुष्ट हो जाता है।
     
    चैतन्य-विलास माँ के दूध की तरह है और भोग-विलास निप्पल की तरह है। तुम क्या पसंद करते हो भोग-विलास या चैतन्य-विलास? अभी तक तुमने केवल भोग-विलास का ही रसास्वादन किया है, चैतन्य-विलास का तुम्हें अनुभव ही नहीं हुआ। उस चैतन्य की पहचानो, जिस पल उसे पहचान लोगे तुम्हारी वृति और प्रवृत्ति परिवर्तित हो जाएगी, तुम्हारे सोचने का ढंग बदल जाएगा, तुम्हारे देखने का ढंग बदल जाएगा, तुम्हारा आचार बदलेगा, तुम्हारा विचार बदलेगा, फिर तुम्हें ज्यादा और उपदेश देने की जरूरत नहीं होगी। आचार्य कुंदकुंद कहते हैं- भोगना है तो अपनी चेतना को भोगो, अनुभव करना है तो अपनी चेतना का अनुभव करो। भोग-विलासिता के चक्कर में तो तुमने अनन्त जन्म गँवा दिए, अपने आप को नहीं पहचाना। सद्गुरु की कृपा से यदि तुम्हें अपनी आत्मा का ज्ञान हुआ है तो उसे पहचानने की कोशिश करो। वे कहते हैं
     
    एदहि रदो णिच्च संतुष्ट्रो होहि णिच्चमेदहि।
    एदेण होहि तितो होहदि तुह उत्तमं सोक्ख।
    अपने भीतर के इस चैतन्य में तुम रत रहो, इसी में संतुष्ट हो, इसी में तृप्त हो, इसी में तुम्हें परम सुख की प्राप्ति होगी। देह-दृष्टि से ऊपर उठो, चेतना की दृष्टि को पकडो अगर तुम्हारे भीतर वह चैतन्य-विलास प्रकट हो गया तो फिर तुम्हारे जीवन में किसी विलास की जरूरत नहीं है। देह-दृष्टि से ऊपर उठने के बाद भेद-विज्ञान से सम्पन्न साधक उस परम दृष्टि को प्रकट करते हैं।
     
    देहाकर्षण : विवेक का अपकर्षण
    आज लोगों की दृष्टि, देह-दृष्टि है, आत्म-दृष्टि है ही नहीं और इसी कारण देहासक्ति होती है। देह से आकृष्ट होकर मनुष्य कदाचार अपनाता है, यौन-दुराचार करता है। आज यौन-अपराध हो रहे हैं, काश! व्यक्ति अपने आपको पहचानता। लोगों का आकर्षण शरीर है, आत्मा की पहचाना ही नहीं। आत्मा की पहचान लोगे तो देहाकर्षण छूट जाएगा, देहाकर्षण छूटते ही तुम्हारे जीवन की धारा बदल जाएगी। देखिए देह के आकर्षण और आत्मा के आकर्षण में कितना अंतर होता है। देह के आकर्षण में भी आकर्षण है और आत्मा के आकर्षण में भी आकर्षण है। रामचन्द्र जी के प्रति सीता का आकर्षण था तो सूर्पनखा भी उनके प्रति कुछ पल के लिए आकृष्ट हुई थी पर दोनों की दृष्टि में जमीन आसमान का अंतर था। सीता ने रामचन्द्र जी को पति के रूप में ही नहीं परमेश्वर के रूप में देखा, सीता-राम का जो सम्बन्ध था वह आत्मिक स्तर का सम्बन्ध था और सूर्पनखा रामचन्द्र जी की ओर आकृष्ट हुई तो उनके रूप पर मुग्ध होकर। ये कथा आप सुनोगे तो बड़े आश्चर्यचकित हो जाओगे।
     
    सूर्पनखा का बेटा शम्बुकुमार बाँस के बीड़ों में छिपकर चन्द्रहास नामक खड्ग की सिद्धि कर रहा था। सूर्पनखा रोज उसे भोजन देने आती थी। राम-लक्ष्मण भी उसी वन में आए हुए थे। लक्ष्मण घूमने के लिए गए तो उन्हें एक दिव्य खड्ग लटका हुआ दिखाई पड़ा। जब व्यक्ति के पुण्य का उदय होता है तो अनायास ही बहुमूल्य चीजें उन्हें प्राप्त हो जाती हैं। शम्बुकुमार जिस खड्ग को सिद्ध करने के लिए तपस्या कर रहा था. वह चन्द्रहास खड्ग प्रकट हो चुका था। लक्ष्मण ने जैसे ही उसे देखा तो उसका आह्वान किया। वह खड्ग लक्ष्मण के हाथ में आ गया। उसकी धार की परीक्षा करने के लिए लक्ष्मण ने उसका प्रहार उस बाँस के बीड़े पर किया, एक ही झटके में बांस के साथ भीतर छिपा शम्बुकुमार भी मर गया, उसकी गर्दन धड़ से अलग हो गई। लक्ष्मण जी को बहुत तकलीफ हुई लेकिन क्या कर सकते थे, अनजाने में ये हत्या हो गई। वे लौटकर अपने भाई रामचन्द्र जी के पास आए, उन्हें सारी कथा सुनाई। इधर सूर्पनखा अपने बेटे को भोजन देने के लिए आई तो देखा कि मेरे बेटे का सिर धड़ से अलग है। वह एकदम भाव-विह्वल हो गई। रोती-कलपती चरण-चिह्नों का अनुशरण करती हुए रामचन्द्र जी की कुटिया तक पहुँची। कुटिया में जैसे ही रामचन्द्र जी परं नजर पड़ी तो वह उन पर मुग्ध हो उठी, उसके अंदर की कामासक्ति जाग गई, सब कुछ भूल गई, पुत्र के वियोग को भूल गई, एक ही साथ काम के दस बाणों से बिंध गई। रामचन्द्र जी के पास जाकर सारी लज्जा, मर्यादा और संकोच को त्यागकर अपने आपको प्रप्रोज (समर्पित) कर दिया।
     
    रामचन्द्र जी ने सुना तो इकदम सहम गए और उसे समझाने की दृष्टि से सोचा कि मैं क्या समझाऊँ, इसे लक्ष्मण ही ठीक ढंग से समझा सकता है। उन्होंने कहा- देखो! तुम्हारी भावना की पूर्ति मैं नहीं कर सकता, मैं विवाहित हूँ, मेरे साथ मेरी धर्मपत्नी है, तुम लक्ष्मण के पास जाकर अपनी इच्छा पूरी कर सकती हो। कहते हैं बावली (पगली) सूर्पनखा लक्ष्मण के पास चली गई। लक्ष्मण के पास जाकर जब उसने अपना प्रस्ताव रखा तो लक्ष्मण तो इकदम तुनक गए, उसको फटकारते हुए बोले- अरे! तुझे शर्म नहीं आती। कुछ पुराणों में लिखा है कि लक्ष्मण ने उसकी नाक काट दी। मुझे नहीं पता लक्ष्मण ने नाक काटी या नहीं काटी लेकिन सूर्पनखा की नाक कट जरूर गई। हमारी भारतीय परम्परा के अनुसार कोई भी क्षत्रिय किसी स्त्री, किसी निशक्त और निरपराध व्यक्ति के ऊपर अस्त्र नहीं चलाता। लक्ष्मण ने सूर्पनखा की नाक नहीं काटी होगी; ऐसा मेरा विश्वास है लेकिन सूर्पनखा की नाक कट गई, क्यों कटी? जब कोई स्त्री सारी मर्यादा और संकोच को त्यागकर किसी पर-पुरुष के पास जाकर अपना प्रणय-प्रस्ताव रखे और ठुकरा दी जाए, इससे बडी नाक कटाई और क्या होगी? उसकी नाक कट गई, रिफ्यूज हो गई। उसकी नाक कटने की कहानी अपनी जगह है। जैन पद्मपुराण के आधार पर मैंने आपको ये बात बताई।
     
    विवेक की बाड़, मर्यादा का रक्षण
    मैं एक ही बात कहता हूँ- एक तरफ सूर्पनखा का आकर्षण, एक तरफ सीता का आकर्षण। थोड़े और आगे चलो- सीता के प्रति रावण भी आकृष्ट हुआ और सीता के प्रति लक्ष्मण के मन में भी आकर्षण था। रावण ने सीता को सदैव भोग की दृष्टि से देखा और लक्ष्मण ने अपनी पूज्या माँ की दृष्टि से देखा। कहते हैं जब रावण सीता का हरण करके जा रहा था तो सीता ने अपने आभूषणों को इस भाव से रास्ते में उतार कर फेंका कि इधर से रामचन्द्र जी गुजरेंगे तो शायद मेरे गुजरने की पहचान हो जाए। सीता-हरण होने के बाद रामचन्द्र जी जब वहाँ से गुजरे तो अचानक रामचन्द्र जी की दृष्टि उन आभूषणों पर पड़ी, उन्होंने लक्ष्मण से कहा- लक्ष्मण! देखो यह मुकुट सीता का प्रतीत होता है, लक्ष्मण मौन, यह हार सीता का प्रतीत होता है, लक्ष्मण मौन, ये कुण्डल सीता के प्रतीत होते हैं, लक्ष्मण मौन, ये बाजूबंद सीता के प्रतीत होते हैं, लक्ष्मण अब भी मौन थे। अचानक रामचन्द्र जी को सुहाग को चिह्र-स्वरूप एक नुपुर (बिछिया) हाथ लगी, राम ने उस बिछिया को लक्ष्मण को दिखाते हुए लक्ष्मण से फिर कहा- देखो लक्ष्मण! ये नुपुर सीता के प्रतीत होते हैं, उन नुपुरों को देखकर लक्ष्मण ने कहा -
     
    नाह जानामि केयूरे नाह जानामि कुण्डले।
    नुपुरे त्वभिजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात्।
    भैया! मुझे नहीं पता यह मुकुट किसका है, मुझे नहीं पता यह हार किसका है, ये कुण्डल किसके हैं और ये बाजूबंद किसके हैं पर मैं ये पक्के तौर पर कह सकता हूँ कि ये नुपुर तो माता सीता के ही हैं क्योंकि मैं रोज उनकी पाद-वंदना को जाता था तो मेरी दृष्टि उन पर पड़ती थी, मैंने आज तक अपनी आँखें उठाकर उन्हें देखा ही नहीं। ये है उदार-दृष्टि, ये भारतीय संस्कृति का एक रूप है। आप लोगों को ये बात अतिरंजना पूर्ण लग सकती है लेकिन लक्ष्मण जैसे महापुरुष के व्यक्तित्व को अपने बौने हाथों से नापने की कोशिश न करें, आज तो सारी मर्यादाएँ ही खत्म हो गई। अब मर्यादा बचे भी कैसे? जब भाभियाँ देवर की शादी में बीच सड़क पर नाचेंगी तो मर्यादाएँ बचेंगी कैसे? हमारी संस्कृति एकदम तार-तार होती जा रही है।
    मैं आपसे कह रहा था कि साकांक्ष प्रेम नाक कटाता है और निष्कांक्ष प्रेम लाज बढ़ाता है। अभी तक तुमने नाक कटाने का काम किया, अब लाज बढ़ाने का काम करो। देहासक्ति तुम्हारी नाक कटाएगी और आत्मानुरक्ति तुम्हारे जीवन को ऊँचा उठाएगी। क्या करना चाहते हो? एक में जीवन का विकास है, दूसरे में जीवन का विनाश है। देह की आसक्ति से मुक्त होकर आत्मा की अनुरक्ति की तरफ ध्यान होना चाहिए। जब ये अनुरक्ति हमारे भीतर प्रकट होगी तब हमारे जीवन का सच्चे अथों में कल्याण होगा। आचार्य श्री ने मूकमाटी में बहुत अच्छी बात कही, उन्होंने लिखा -
     
    प्रीत मैं उसे मानता हूँ, जो अंगातीत होता है।
    गीत मैं उसे मानता हूँ, जो संगातीत होता है।
    अंगातीत प्रीत और संगातीत गीत की अनुभूति ही वास्तविक चैतन्य का विलास है। अंगातीत प्रीत कब होगी? जब देह-दृष्टि खत्म होगी। देह-दृष्टि को खत्म करना बहुत जरूरी है। आचार्य समन्तभद्र महाराज ने ब्रह्मचर्य की बात करते हुए ये नहीं कहा कि स्त्री-पुरुष का एक दूसरे से दूर हट जाना ही ब्रह्मचर्य है, वे कहते हैं- देह-दृष्टि से ऊपर उठने का नाम ब्रह्मचर्य है।
     
    मलबीज मलयोनि गलन्मल पूतिगन्धि बीभत्सम्।
    पश्यन्नङ्गमनङ्गाद् विरमति यो ब्रह्मचारी सः॥
    जो अपने शरीर को मल की योनि, मल का बीज, पूति, गन्ध, बीभत्स रूप में देखते हुए, अंग को इस प्रकार विकृत, अशुचि देखते हुए जो अनंग यानी काम से विरक्त होता है सच्चे अर्थों में वह ब्रह्मचारी होता है।
     
    काम-भोग की कथाएँ बहुत पुरानी हैं, अनादि से ही करते आए हो, आज तक मिला क्या? आज तक का अनुभव क्या है? कभी सोचा है क्या मिला? सिवाय प्यास, अतृप्ति और आकुलता के आज तक कुछ नहीं मिला। किसी को तृप्ति नहीं मिली, आज एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो कहे कि मैंने काम (इच्छा-पूर्ति) करके अपने आपको तृप्त किया है। संत कहते हैं- काम इच्छा के माध्यम से कामना को तृप्त करना तो अग्नि को घृत से शान्त करने की चेष्टा है। जलती हुई ज्वाला में घी की आहूति दोगे तो क्या होगा वह ज्वाला बढ़ेगी या कम होगी? बढ़ेगी, क्योंकि काम से काम की पूर्ति नहीं होती और आग से आग को बुझाया नहीं जा सकता, उसे तो आध्यात्मिक दृष्टि से ही सम्पन्न किया जा सकता है इसलिए देह-दृष्टि से मुक्त होकर भेद विज्ञान को प्राप्त करें। जिसके हृदय में ऐसे भेद-विज्ञान की भावना विकसित हो जाती है वह संसार में कभी भी रुकता नहीं।
     
    जैनाचार्यों ने ब्रह्मचर्य को चैतन्य का विलास बताते हुए इसकी बड़ी उच्च व्याख्या की है। ब्रह्मचर्य की साधना जिस प्रकार से जैन साधनापद्धति में है वैसी कहीं नहीं है। दुनिया में जब कभी भी ब्रह्मचर्य की बात आती है तो केवल उसे ब्रह्मचर्य माना जाता है जो मात्र स्त्री का संसर्ग त्याग देता है। हमारे जैन आचार्य कहते हैं- स्त्री का त्यागी ब्रह्मचारी है सो है ही, एक गृहस्थ भी ब्रह्मचारी है, एक गृहस्थ भी ब्रह्मचारी बन सकता है। बनना चाहते हो? गृहस्थ और ब्रह्मचारी? गृहस्थ भी ब्रह्मचारी है किसके बल पर? स्वदार-संतोष व्रत का पालन करते हुए, विवाह के बंधन में बंधने के बाद एक से अपना सम्बन्ध सीमित करते हुए स्त्री-पुरुष पति और पत्नी के बीच बस एक के अतिरिक्त सभी स्त्री-पुरुषों के प्रति पवित्र दृष्टि को रख ले तो वह ब्रह्मचारी है। अपनी पत्नी या अपने पति के अतिरिक्त संसार की हर स्त्री में माँ, बहिन और बेटी का रूप देखना और हर पुरुष में पिता, पुत्र और भाई का रूप देखना ये ब्रह्मचर्य की एक बहुत बड़ी साधना है। एक गृहस्थ के जीवन में भी ऐसा हो सकता है। यौन-सदाचार और संयम का अनुपालन कौन कर सकता है? जो आत्मदृष्टा हो, उसके जीवन में ही ऐसा हो सकता है। जिसके अंदर में आत्मा का ज्ञान नहीं है वह सामाजिक भय, कानूनी जटिलताओं या अन्य मर्यादायों के डर से भले ही शील की पाल ले लेकिन अन्त:प्रेरित शील उसके जीवन में घटित नहीं हो सकता। जिसके अंदर आत्मा का ज्ञान है उसके लिए किसी बाहरी दबाव की जरुरत नहीं, वह स्व-प्रेरणा से ब्रह्मचर्य का पालन करता है।
     
    महाराज छत्रसाल जिन्होंने कुण्डलपुर के बड़े बाबा के जिन मंदिर का जीणोद्धार कराया; एक रोज एक युवती उनके पास आ पहुँची और उस युवती ने कहा कि मैं आप जैसा प्रतापवान और ज्ञानवान पुत्र चाहती हूँ। छत्रसाल महाराज ने कहा- भगवान आपकी इच्छा पूरी करे। उस युवती ने कहा कि मेरी ये इच्छा आपके सहयोग के बिना पूरी नहीं हो सकती। राजा छत्रसाल ने कहा- तुम्हारी इच्छापूर्ति में मैं क्या सहयोग कर सकता हूँ? उस स्त्री ने कहा- एक पुरुष के संयोग के बिना कोई स्त्री किसी पुत्र को जन्म कैसे दे सकती है? मेरे पति इसमें अक्षम हैं। छत्रसाल जी ने जैसे ही सुना, वे एक पल का विलम्ब किए बिना उसके चरणों में गिर पड़े और कहा- ले माँ यदि तुझे मुझ जैसे पुत्र की जरूरत है तो आज से मैं ही तेरा पुत्र हूँ तुम मुझे स्वीकार कर लो। ये एक आध्यात्मिक दृष्टि है। हमारे देश के राजा-महाराजा भी ऐसी अध्यात्म-दृष्टि से सम्पन्न हुआ करते थे। अतीत के राजा-महाराजाओं के चरित्र को पलटें और आज के शासकों को देखें।
     
    छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन का एक प्रसग है। जब उनको मराठा सैनिक कल्याण राज्य पर विजय प्राप्त कर लौटने को बाद उनके पास आए तो शिवाजी महाराज ने खुश होकर पूछा- मेरे लिए क्या लाए? उनके सैनानियों ने कल्याण नरेश की पुत्रवधु को उनके सामने खड़ा करते हुए कहा कि हम आपके लिए विश्व की सबसे सुंदर स्त्री लेकर आए हैं। छत्रपति महाराज ने सुना तो इकदम सकपका गए, अपने आसन से खडे हो गए और बोले- ये अपराध तुमने कैसे कर लिया? इतना गंदा काम तुमने कैसे किया? तुम्हें मालूम नहीं कि कल्याण नरेश की पुत्रवधु केवल कल्याण नरेश की ही पुत्रवधु नहीं हमारी-तुम्हारी भी पुत्रवधु है, पुत्रवधु नहीं, वह तो हमारी-तुम्हारी बहिन है। तुमने बहुत गंदा काम किया है, ये हमारी बहिन है, आज से ये मेरी ही नहीं वरन सम्पूर्ण मराठवाड़े की बहिन है। तुम ससम्मान इन्हें वापस कल्याण तक पहुँचाओ।
     
    ये दृष्टि किसके अंदर होती है? जिसको अपनी आत्मा का ज्ञान हो, जो शील, संयम, सदाचार की महिमा को जानता हो। आज इन्हीं का नाम लेने वालों के जीवन में बढ़ते हुए कदाचार को देखो तो बड़ा आश्चर्य होता है। अपने जीवन में आध्यात्मिक दृष्टि विकसित होनी चाहिए। ब्रह्मचर्य का मतलब है ऑख की पवित्रता। आँखों में पवित्रता ही ब्रह्मचर्य है। अगर तुम्हारे अंदर ब्रह्मचर्य है तो आँखों में पवित्रता आ जाएगी, किसी को देखकर तुम्हारा मन नहीं डोलेगा। एक दिन एक युवक ने मुझसे पूछा- महाराज! आप दिगम्बर मुद्रा में रहते हैं, आपके पास अनेक स्त्रियाँ आती हैं, बैठती हैं, बातचीत भी करती हैं, क्या कभी आपका मन नहीं डोलता? उस युवक ने साहस पूर्वक पूछा। ये विचार आपके मन में भी आ सकता है। मैंने उससे एक ही सवाल किया- ये बताओ, जब कभी भी तुम अपनी माँ-बहिन के पास रहते हो तो क्या तुम्हारा मन डोलता है? बोला- महाराज! कभी नहीं डोलता, उस समय मन में पवित्रता आ जाती है। मैंने कहाबस, यही अंतर है हममें और तुममें, तुम्हारे लिए तो कोई एक माँ और कोई एक बहिन है, मेरी नजर में तो संसार की सारी स्त्रियाँ माँ और बहिन की तरह हैं। ऑखों में ये पवित्रता आते ही ब्रह्मचर्य का विलास प्रकट होगा। पवित्रता चाहिए, दृष्टि की पवित्रता चैतन्य को विलास को जन्म देती है और दृष्टि की अपवित्रता भोग-विलास में फसा देती है। अभी तक भोग-विलास में ही फसे हुए हो। आज तक का इतिहास है चैतन्य का विलास आत्मा का विकास करता है और भोग-विलास आत्मा का विनाश करता है। किधर बढ़ रहे हो विकास की तरफ या विनाश की तरफ? आज तक तुमने किया क्या है?आचार्य कुंदकुंद कहते हैं
     
    सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा।
    एयक्तस्सुवलभो णवरि ण सुलभो विह तस्स।
     
    संस्कार पड़े हैं जनमों-जनमों के
    तुम्हारे द्वारा काम, भोग और बंध की कथाएँ जन्म-जन्मान्तरों से सुनने में आई हैं, परिचय में आई हैं, अनुभव में आई हैं, तुमने जन्म-जन्मान्तरों तक अगर सुना है, परिचय किया है, अनुभव किया है तो केवल काम, भोग और बंध की कथा का। अगर परिचय पाना है तो उसका परिचय पाओ जो आज तक अपरिचित रहा है और जिसको परिचय को बाद अन्य कोई परिचय बाकी न हो। भोग करना है तो उसका भोग करो जिसके बाद भोगने की इच्छा ही न रहे, अनुभव करना है तो उसका अनुभव करो जिसके बाद फिर कोई, अनुभव ही बाकी न रहे, उस तत्व को पहचानो। अभी तक तुमने जो कुछ भी किया है वह सब पुनरावृत्ति है।
     
    स्कूल में मास्टर साहब ने बच्चों को कुत्ते पर लेख लिखकर लाने का सबक (गृहकार्य) दिया। सब बच्चे लेख लिखकर लाए, एक बच्चे का लेख देखकर मास्टर साहब बड़े आश्चर्यचकित हो गए। वह उस बच्चे से बोले- लेख तो तुमने बहुत सुंदर लिखा है, तुम्हारा लेख बहुत अच्छा है लेकिन मामला क्या है? ठीक ऐसा ही लेख पिछले वर्ष तुम्हारा बड़ा भाई लिखकर लाया था, उस लेख और इस लेख में एक हलन्त और मात्रा का भी अंतर नहीं है मामला क्या है? उस बच्चे ने कहा- सर कुत्ता वही है तो लेख दूसरा कहाँ से आएगा।
     
    ये सच है, हर प्राणी अनादि काल से एक ही कुत्ते पर लेख लिखता आ रहा है, वह है काम-भोग का लेख, आहार, भय, मैथुन या परिग्रह का लेख। चार संज्ञाओं का लेख लिखते आए हो, भोग विलास में फसे हो, चैतन्य के विलास को पहचानो। तुम्हारी आत्मा का पतन इसी के कारण हुआ है लेकिन क्या करें? लोगों को आज रस नहीं आता, आज पूरे विश्व में एक आध्यात्मिक क्रांति की आवश्यकता है क्योंकि वर्तमान की भोग-विलासिता की वृत्ति ने मनुष्य की चेतना की जडाक्रान्त कर दिया है। उसकी सोच और समझ खत्म हो गई है। जड़ता इस तरह से हावी होती जा रही है जिसका कोई ठिकाना नहीं, मीडिया ने तो इसे और अधिक हवा दे दी। हमारे सारे संस्कार नष्ट हो रहे हैं। सब गड़बड़ होता जा रहा है। कहाँ हमारे महा ब्रह्मचर्य का उच्च आदर्श और आज कहाँ "लिव इन रिलेशनशिप' जैसा कान्सेप्ट? मनुष्य को भोग की आग में झोंकने जैसा कुकृत्य है। इसके दुष्परिणाम भी आ रहे हैं। समाज इसे भोग रहा है। सावधान होना चाहिए। शील, संयम, सदाचार का संकल्प लेना चाहिए। अपनी भोगासक्ति को बंद करना चाहिए। मैं यहाँ उपस्थित लोगों से आज के ब्रह्मचर्य धर्म के दिन कहना चाहता हूँ कि प्रारम्भिक रूप में केवल दो संकल्प लें कि विवाह-पूर्व कोई सम्बन्ध नहीं बनाऊँगा और विवाहेतर सम्बन्ध नहीं बनाऊँगा तो मैं समझता हूँ आपका ब्रह्मचर्य सार्थक हो जाएगा। विवाह-पूर्व सम्बन्ध नहीं और विवाहेतर सम्बन्ध नहीं लेकिन क्या करें आज के तथाकथित सेलिब्रिटी लोग भी यह कहते हैं कि विवाह-पूर्व या विवाहेतर सम्बन्धों में कुछ भी गलत नहीं। सच्चे अर्थों में ऐसे लोग भारत के वंशज नहीं कहला सकते। ऐसे लोगों को भारत में जगह भी नहीं मिलनी चाहिए। जिन्होंने भारत की आत्मा को नहीं पहचाना वे ही ऐसा बोल सकते हैं।
     
    मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्।
    आत्मवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पण्डितः॥
    ये उद्घोष जिस देश में गूंजा, उस देश में इस प्रकार की प्रवृत्तियाँ बहुत गंदी हैं। इस गंदी प्रवृत्ति से समाज को जितनी जल्दी संभव हो बचना और बचाना चाहिए।
     
    हमारे युवा : भटकती दिशा 
    बंधुओं मैं क्या बताऊँ। आज जो समाज की तस्वीर उभर रही है वह बड़ी बीभत्स और घिनौनी है। आप सब को पता नहीं नई पीढ़ी में बहुत जबरदस्त भटकाव आ रहा है। मनुष्य की बढ़ती हुई भोग-लालसा ने सम्बन्धों की पवित्रता को भी संदिग्ध बना दिया है। मैं अपने अनुभवों के आधार पर कहता हूँ कि भाई-बहिन के सम्बन्धों की पवित्रता भी अब नष्ट हो रही है। सावधान हो जाओ, मेरे पास ऐसे भी प्रकरण आए हैं जिनमें सगे भाई-बहिन के मध्य भी सम्बन्ध बने हैं। बहुत घिनौना रूप है, रोंगटे खड़े हो जाते हैं सुनकर। आज के युवक-युवतियों में जबरदस्त भटकाव है। इसलिए मैं कहना चाहता हूँ 10-11 साल की उम्र हो जाने के बाद बहिन और भाई को कभी एक साथ नहीं रखना चाहिए, मर्यादा को सुरक्षित रखना चाहिए। हमारे यहाँ कुछ व्यवस्थाएँ दी गई थी ताकि उस तरह की शारीरिक, भौतिक और मानसिक परिस्थितियों से बचा जाए और लोग यौन-कदाचार से बच सकें। आज सह-शिक्षा (को-ऐजुकेशन) के कारण ये सब गड़बड़ियाँ हो रही हैं। हमारे शास्त्रकार कहते हैं
     
    तारुण्ये इन्द्रियनिग्रह दुष्करम्।
    तरुण अवस्था में इन्द्रियों का निग्रह करना बहुत कठिन है। आज के इस उन्मुक्त वातावरण और सह शिक्षा की व्यवस्था ने सारी व्यवस्थाओं को चरमरा दिया है, सत्यानाश कर दिया है। कल शाम के 'शंका समाधान' में आपके बीच का एक युवक बोला कि मेरे साथ पढ़ने वाले दो सौ लड़कों में से मैं सिर्फ दस को ही अपना मित्र बना सका जो एल्कोहल (शराब) नहीं लेते, बाकी सब लेने वाले मिले। एल्कोहल ही नहीं, अन्य प्रकार के अनाचार भी आज बढ़ते जा रहे हैं। कोई भी इनसे अछूता नहीं बचा। सावधान होने की जरूरत है। यदि यही स्थितियाँ बनी रहीं तो हमारे समाज की क्या दशा होगी? हमारे संस्कार कहाँ जीवित रहेंगे? महाविनाश के गर्त में सब जा रहे हैं। उस महाविनाश से बचना और बचाना है तो सावधानी की जरूरत है। 
     
    मैंने पहले भी कहा था आज फिर कह रहा हूँ- आज उच्च शिक्षा में भेजना युग की आवश्यकता है। युवक-युवतियों की उच्च-शिक्षा सम्पन्न होनी चाहिए पर वे अपनी लिमिटेशन (मर्यादा) को कभी भूले नहीं, अपनी बोन्ड्रीज (सीमाओं) का ख्याल रखें और उसके प्रति प्रतिबद्ध रहें तो कभी भटकाव नहीं आ सकता। इसके लिए शुरु से गुरुओं के साथ जुड़ाव जरूरी है। यदि बच्चों का गुरुओं से जुड़ाव होगा तो वे कभी भटकगे नहीं और यदि कदाचित भटक जाते हैं तो कभी आकर प्रायश्चित लेने का भी भाव करते हैं। अभी तीन दिन पहले दो बच्चे मेरे पास आकर बोले- महाराज श्री! आप से कुछ समय चाहिए। मैं व्यस्त था, मैंने कहा- अभी नहीं। नहीं महाराज! अभी चाहिए और एकान्त में चाहिए। दोनों बच्चों ने अपनी बात कही- महाराज! हम भटक गए, हमने शराब का भी पान किया और हमने सम्बन्ध भी बनाए। महाराज! हमारा मार्ग प्रशस्त कीजिए, अब हम शुद्ध जीवन जीना चाहते हैं। भटकाव में आकर हमने ऐसा कर लिया। दोनों इंजीनियरिंग के छात्र थे, माहौल के कारण भटके लेकिन गुरुओं से जुड़े रहने के कारण सम्हल गए।
     
    जो बच्चे गुरु से जुड़े रहेंगे वे कभी बर्बाद नहीं हो सकेंगे और जो बच्चे धर्म और गुरुओं से दूर रहेंगे वे कभी भी आबाद नहीं हो सकेंगे, कभी भी कहीं भी भटक सकते हैं। इसलिए आप लोगों को चाहिए कि अपने साथ अपने बच्चों को भी इस तरीके से जोड़ें। मानता हूँ कि बच्चे रोज नहीं आ सकते, उनकी दिनचर्याएँ कुछ इस तरह की होती हैं, पढ़ाई का बोझ उनके ऊपर इतना होता है। मैं तो अब सोचता हूँ कि समय-समय पर कुछ ऐसे कार्यक्रम दो-तीन दिन के होने चाहिए जो केवल बच्चों के लिए हों, युवक-युवतियों के लिए हों और उन्हें सही मार्गदर्शन दिया जाए एक वकशाप की तरह ताकि वे एक आध्यात्मिक चेतना को जगा सकें। इसकी शुरुआत जयपुर से हो रही है। जयपुर चातुर्मास का योग कुछ ऐसा है कि कई अच्छी शुरुआत यहाँ हो रही हैं। मैंने णमोकार महामंत्र के कोटि-जाप के लिए दस साल से सोच रखा था, अनायास यहाँ हो गया। वकशाप के सम्बन्ध में मैंने कलकत्ता में सोचा था कि इसको शुरु करना है पर योग जयपुर में लगा है ताकि जीवन में बदलाव आए, संस्कृति का जो क्षरण हो रहा है उसे रोका जा सको, चेतना का विकास हो।
     
    बंधुओं! भोग-विलास को त्यागें और चैतन्य-विलास से अनुराग हो तो हमारा जीवन धन्य होगा। चैतन्य को विलास से जीवन का विकास है और भोग के विलास से जीवन का विनाश है इसलिए मन में विराग के भाव आने चाहिए। अगर तुम्हारे अंत:करण में वैराग्य हो तो दुनिया की कोई ताकत तुम्हें हिला नहीं सकती और जिस मनुष्य के मन में वैराग्य न हो वह जीवन में कभी टिक नहीं सकता। ये वैराग्य ही भेद विज्ञान को जन्म देता है और वैराग्य से ही भेद-विज्ञान पुष्ट होता है। वैराग्य जीवन के लिए बहुत जरुरी है। यह हमारी आध्यात्मिक सम्पदा है, इसे अपने भीतर जगाकर रखना चाहिए। विषयों के प्रति अनासक्ति का भाव, विषयों के प्रति हेयदृष्टि की वृद्धि, यही वैराग्य है। ये अच्छे-अच्छे लोगों के जीवन में भी नहीं दिखता। अच्छे-अच्छे बुजुर्गों के भी अंदर की भोगासक्ति मंद नहीं होती तो बड़ा आश्चर्य होता है कि लोग कहाँ जा रहे हैं। आचार्य श्री ने मूक माटी में बहुत अच्छी बात लिखी
     
    वासना का सम्बन्ध,
    न तन से, न वसन से,
    अपितु माया से प्रभावित मन से है।
    अपना मन अच्छा रखो, माया से मुक्त करके रखो तो हमारा जीवन धन्य होगा अन्यथा सब नष्ट हो जाएगा। शुकदेव जी आजन्म दिगम्बर थे ऐसा कहा जाता है। भागवत का प्रसंग है एक बार शुकदेव जी एक तालाब के पास से निकले। उस तालाब में कुछ युवतियाँ स्नान कर रही थीं, शुकदेव जी कब निकले उन्हें पता ही नहीं चला और स्त्रियाँ भी अपने स्नान में मग्न रहीं। थोड़ी देर बाद वहीं से व्यास जी निकले। व्यास जी जब उधर से गुजरे तो स्त्रियों ने अपने-अपने वस्त्रों से अपने अंगो को आच्छादित करना शुरु कर दिया, ढकने लगीं। ये देखकर व्यास जी को बड़ा अटपटा लगा। व्यास जी ने स्त्रियों से कहा- मैं ये क्या देख रहा हूँ? अभी मेरा जवान बेटा इधर से गुजरा तब तो तुमने कोई प्रतिकार नहीं किया और मैं वृद्ध इधर से गुजर रहा हूँ तो तुम मुझे देखकर अपने शरीर को ढक रही ही बात क्या है? उन स्त्रियों ने व्यास जी को जो बात कही वह बहुत मनन करने योग्य है। उन्होंने कहा- व्यास महाराज! शुकदेव जी कब आए और कब गए हमें पता नहीं लेकिन आपने अपनी उपस्थिति का बोध करा दिया। हम तो इतना ही जानते हैं कि जवान होने के बाद भी शुकदेव जी के मन में बुढ़ापा है और बूढ़े होने के बाद भी आपका मन अभी तक जवान बना हुआ है तभी तो इस तरफ आकृष्ट हुए हो।
     
    बूढ़े होने के बाद भी मन में जवानी, ये आसक्ति विनाश का कारण है। अपने आप को रोको, अपने आप को टोको, अपने आप को थामों। तन काम नहीं करता तब भी मन में इच्छाएँ जगती रहती हैं। ये इच्छाएँ विनाश का कारण हैं, इन इच्छाओं से मुक्त होंगे तो हमारा जीवन धन्य होगा।
  18. Vidyasagar.Guru
    परम पूज्य आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज के करकमलों से कल दी जाएगी छुल्लक दीक्षा। सूत्रों के अनुसार लगभग 23 दीक्षाएँ संभावित है (संख्या में आंशिक परिवर्तन संभव है)
    दीक्षार्थियों के गृहनगर के अलावा जबलपुर में भी दीक्षा पूर्व बिनोली, मेहँदी आदि के मांगलिक कार्यक्रम आयोजित किये गए। इसके उपरान्त आज दीक्षार्थियों का केशलोंच कार्यक्रम भी दिन में जारी रहा। दीक्षार्थियों के परिजन एवम अन्य निकटतम बन्धुओं का आगमन भी जबलपुर में होने लगा है। गुरुकृपा से सब ओर उत्साह का संचार देखने मिल रहा है।
    दीक्षा कार्यक्रम कल 14 अगस्त को दोपहर 1 बजे से, दयोदय तीर्थ, गौशाला तिलवारा घाट जबलपुर में सम्पन्न होगा।
     
     
    *बिग ब्रेकिंग....*
    *27 दीक्षाए होगी पूर्णायु जबलपुर में...*
    सागर / *संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर महाराज* के पावन आशीर्वाद व कर कमलों से  *14 अगस्त शनिवार* को *27 ब्रह्मचारी भैयाओ को छुल्लक दीक्षा* दी जाएगी। *दोपहर 1 बजे से पूर्णायु चिकित्सालय प्रतिभास्थली दयोदय गौशाला जबलपुर* में यह कार्यक्रम होगा। 
    सूचना प्रदाता- *बाल ब्रह्मचारी वाणी भूषण विनय भैया बंडा*
    🙏🙏🙏🙏🙏
     *मुकेश जैन ढाना*
     *एमडी न्यूज़ सागर*
    *🛕जबलपुर क्षुल्लक दीक्षा शुभ सूचना*
    *⛳१००८ श्री नेमिनाथ भगवान के जन्म एवं दीक्षा कल्याणक की तिथि श्रावण शुक्ल ६ के शुभ दिवस तदनुसार १४/०८/२०२१, शनिवार को, दोपहर १:०० बजे आचार्यश्री विद्यासागर जी महाराज* के करकमलों द्वारा दयोदय पशु संवर्धन एवं पर्यावरण केन्द्र परिसर, तिलवारा घाट, जबलपुर में संभवतः २७ पुण्य आत्माओं को क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की जाएंगी। 
    *📡पारस चैनल के माध्यम से दीक्षा के कार्यक्रम का सीधा प्रसारण संभवतः १:३० बजे से किया जाएगा*
    *🙏🏽सभी दीक्षार्थियों के वैराग्य भावना एवं सातिशय पुण्य की बहुत बहुत अनुमोदना*
    *⛳जिनशासन जयवंत हो⛳*
        *🛕जिनशासन संघ🛕*
     
  19. Vidyasagar.Guru
    आमंत्रण 
    चेतन कृति प्रतियोगिता (करो दर्शन - पहचानो कौन ?) का परिणाम  की घोषणा आज 3: 30 बजे Youtube पर होगी 
     
     
    उपहार स्वरूप आज दो विजेताओं को प्राप्त होगा श्रमदान ब्रांड के हथकरघा पर बने 100% सूती, अहिंसक , गर्मी में विशेष आरामदायक चादर|
    आचार्य श्री विद्यासागर चैनल को जरूर subscribe करें |
  20. Vidyasagar.Guru
    दिगम्बर जैन समाज बागीदौरा 
    जिला - बांसवाडा (राजस्थान) 
    संत शिरोमणि संयम कीर्ति स्तंभ
     
    स्थान - आचार्य विद्यासागर सर्कल बागीदौरा, बागीदौरा से बांसवाडा मुख्य सडक मार्ग पर
    साईज - 27.5 फीट
    पत्थर - संगमरमर
    लागत - 11 लाख रू.
    निर्माण पुण्यार्जक - 
    शाह प्रशीष/कन्हैयालालजी बागीदौरा मेहता अभिषेक/हीरालालजी बागीदौरा दोसी पुनमचन्दजी/दोवाचन्दजी बागीदौरा (पी. डी. परिवार) गॉधी वर्धमान/मगनलालजी (अनमोल पेट्रोल पंप बागीदौरा) दोसी मीठी बेन/रतनपालजी/नाथुलालजी बागीदौरा दोसी धीरज/राजेन्द्र कुमार बागीदौरा (मन मोबाईल) सवोत निखिल/रमेशचन्द्रजी बागीदौरा दोसी बसंती बेन/रतनलालजी बागीदौरा शाह जीतमल/नाथुलालजी A.V.S. परिवार बागीदौरा दिगंबर जैन समाज बागीदौरा जी.पी.एस. लोकेशन - https://goo.gl/maps/fEVpkYmUdZ42
    शिलान्यास तारीख -  16 जून 2018
    शिलान्यास-मार्गदर्शन प्रेरणा - परम पूज्य मुनि पुंगव श्री सुधासागरजी महाराज ससंघ, मुनि श्री समतासागरजी महाराज ससंघ
    लोकार्पण तारीख - 18 नवम्बर 2018
    लोकार्पण सान्निध्य - प.पू. वात्सल्य मूर्ति मुनिश्री समतासागरजी महाराज, प.पू. ऐलक श्री निश्चयसागरजी महाराज
    मुख्य अतिथि - श्री महावीरजी अष्टगे, श्रीमति अलका अष्टगे सदलगा, कर्नाटक
    लोकार्पण कर्ता का विवरण -  मास्टर अतिशय श्रीमति लीना - श्री सुलभ दोसी,  श्रीमति शैला - श्री अशोक कुमार दोसी हाल मुकाम मुम्बई (निवासी - बागीदौरा)
    कार्यकारिणी समिति - आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज 50वां संयम स्वर्णिम महोत्सव समिति दिगम्बर जैन समाज बागीदौरा
    अध्यक्ष - विनोद चन्द्र दौसी (मो. नं. - 7073549357)
    सदस्य - महेन्द्र दोसी, जयन्तिलाल मेहता, केसरीमल मेहता, दिलीप M. दोसी
     



     




  21. Vidyasagar.Guru
    🙏🏻श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र चन्द्रगिरि डोंगरगढ़ में विराजमान मुनि संघ में निर्यापक श्रमणों से प्राप्त निर्देशानुसार अधिकृत सूचना यह है कि दिनांक 25 फरवरी रविवार के निर्धारित कार्यक्रम के बाद मुनि संघों के विहार कुंडलपुर सिद्ध क्षेत्र की ओर होने की संभावना है।
    वहां पर आचार्य श्री के द्वारा दीक्षित श्रमण संघ एवं आर्यिका संघों की उपस्थिति में होने वाले आचार्य पद प्रतिष्ठापना की सूचना  सभी निर्यापक श्रमणों एवं वरिष्ठ मुनिराजों की सहमति से दिनांक सहित यथा समय समस्त समाज बंधुओं को सूचित कर दी जाएगी।
    अतएव अनधिकृत सूचनाओं पर ध्यान न दें।?>

     
    अध्यक्ष  किशोर जैन  9425563160
    कार्याध्यक्ष विनोद बड़जात्या 9425252525 
    महामंत्री चंद्रकांत जैन 9407909950
     
     
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  22. Vidyasagar.Guru
    मंजिल का कोई कद नहीं होता है, लघु पथ से वह गुरु पथ की ओर जाता है: आचार्यश्री
     
     
    रविवार, आज वीरवार भी है। दूर- दूर से मेहमान आए हैं। इस बड़ी पंचायत में उन्हें पहले जगह मिलना चाहिए। आज यहां मुझे लघु रास्ते से लाया गया तो मैने पूछा यह नया- नया सा लग रहा है। जब मन में जानने की जिज्ञासा होती है तो वह उसका पूरी स्पष्टता से समाधान भी चाहती है। मैं अल्प समय में उसका अंतरंग में ध्यान रख कर बताता हूं कि आपकी जिज्ञासा जानने में नहीं जीने की इच्छा को लेकर होती है। भगवान राम रघुकुल के भी थे और गुरुकुल के भी। इसलिए उनका जीवन हर किसी व्यक्ति के लिए आकर्षण का केंद्र बना रहता है। गुरुकुल के भाव राम के जीवन में हमेशा बने रहे। भगवान श्रीराम लघुपथ को चुन कर पगडंडियों पर चलते थे। उन्होंने अपने आपको हमेशा लघु माना। मंजिल का कोई कद नहीं हुआ करता है। लघु पथ से वह गुरु पथ की ओर जाता है। 

    हम लोग खूब आकुल- व्याकुल रहते हैं और जो भगवान से संबंध रखते हैं। उनमें आकुलता नहीं रहती है। आप अपने आपको भूलोगे तो अपने बन जाओगे। क्योंकि इसमें भीतरी छवि और आत्म तत्व की बात होती है। हमें ऊपर की शक्ल देख कर संतुष्ट नहीं होना चाहिए बाहर की छवि को अच्छा देखना चाहिए लेकिन उन्हें भीतरी सोच के साथ रखना चाहिए। जैसे कि डाक्टर ऊपर की शक्ल देख कर नहीं भीतरी आकृति देख कर संतुष्ट होता है। वही चिकित्सा अंदर की करता है उसका असर ऊपर से नजर आता है। 
     

     
    जैसे सोने को कभी चमकाया नहीं जाता है वह भट्टी में जाते ही और चमकदार हो जाता है भट्टी में वह जलता नहीं है। अपने को लघु बनाना बड़ी वस्तु है हम खुद को तो आरोग्यधाम बनना चाहते हैं। जबकि इसकी रोक धाम आयुर्वेदिक इलाज में है। यह बहुत प्राचीन पद्धति है। चीन इसमें बहुत आगे बढ़ गया है परंतु उसे यह नहीं पता कि नाड़ी से क्या होता है। हमारा इतिहास बताता है कि हमारे यहां नाड़ी देखकर रोग का पता लगा लिया जाता था। जो लोगों की व्याधि को जान सकता है वह आयुर्वेदिक है। आयु क्या है, आत्मा क्या है। यह जाने बिना चिरायु को जाना नहीं जा सकता है। चिरंजीव कोई नहीं हो सकता है चिरंजीव तो सिर्फ भगवान ही होते हैं, जो अनंत काल तक जीते हैं। हम तो पूर्ण आयु की कामना कर सकते हैं। बीच में अकाल मरण ना हो आयु को पूर्ण करके मृत्यु हो। पूर्ण आयु के लिए सम्यक दर्शन सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र की आवश्यकता है शिष्य की दृष्टि हमेशा गुरु के ऊपर रहनी चाहिए, जबकि गुरु की दृष्टि सभी शिष्यों के ऊपर रहती है। 

    मौसम बदलने पर सुकमाल व्यक्ति को कुछ ना कुछ रोग हो जाता है तापमान के माध्यम से आयुर्वेदिक दवाएं दी जाती हैं। यदि अच्छी नींद आ जाए और भूख मिट जाएं तो आप के रोग अपने आप दूर हो जाते हैं। 12 वर्षों के अध्ययन के बाद नाड़ी के वैद्य बनते हैं तब वह रोग पकड़ने में माहिर हो जाते हैं। भाग्योदय तीर्थ में विराजमान आचार्यश्री विद्यासागर महाराज ने रविवारीय धर्मसभा को दोपहर में संबोधित किया। उन्होंंने जो वचन कहे, उन्हें हम यहां जस का तस दे रहे हैं। 

    रविवार, आज वीरवार भी है। दूर- दूर से मेहमान आए हैं। इस बड़ी पंचायत में उन्हें पहले जगह मिलना चाहिए। आज यहां मुझे लघु रास्ते से लाया गया तो मैने पूछा यह नया- नया सा लग रहा है। जब मन में जानने की जिज्ञासा होती है तो वह उसका पूरी स्पष्टता से समाधान भी चाहती है। मैं अल्प समय में उसका अंतरंग में ध्यान रख कर बताता हूं कि आपकी जिज्ञासा जानने में नहीं जीने की इच्छा को लेकर होती है। भगवान राम रघुकुल के भी थे और गुरुकुल के भी। इसलिए उनका जीवन हर किसी व्यक्ति के लिए आकर्षण का केंद्र बना रहता है। गुरुकुल के भाव राम के जीवन में हमेशा बने रहे। भगवान श्रीराम लघुपथ को चुन कर पगडंडियों पर चलते थे। उन्होंने अपने आपको हमेशा लघु माना। मंजिल का कोई कद नहीं हुआ करता है। लघु पथ से वह गुरु पथ की ओर जाता है। 

    हम लोग खूब आकुल- व्याकुल रहते हैं और जो भगवान से संबंध रखते हैं। उनमें आकुलता नहीं रहती है। आप अपने आपको भूलोगे तो अपने बन जाओगे। क्योंकि इसमें भीतरी छवि और आत्म तत्व की बात होती है। हमें ऊपर की शक्ल देख कर संतुष्ट नहीं होना चाहिए बाहर की छवि को अच्छा देखना चाहिए लेकिन उन्हें भीतरी सोच के साथ रखना चाहिए। जैसे कि डाक्टर ऊपर की शक्ल देख कर नहीं भीतरी आकृति देख कर संतुष्ट होता है। वही चिकित्सा अंदर की करता है उसका असर ऊपर से नजर आता है। 

    जैसे सोने को कभी चमकाया नहीं जाता है वह भट्टी में जाते ही और चमकदार हो जाता है भट्टी में वह जलता नहीं है। अपने को लघु बनाना बड़ी वस्तु है हम खुद को तो आरोग्यधाम बनना चाहते हैं। जबकि इसकी रोक धाम आयुर्वेदिक इलाज में है। यह बहुत प्राचीन पद्धति है। चीन इसमें बहुत आगे बढ़ गया है परंतु उसे यह नहीं पता कि नाड़ी से क्या होता है। हमारा इतिहास बताता है कि हमारे यहां नाड़ी देखकर रोग का पता लगा लिया जाता था। जो लोगों की व्याधि को जान सकता है वह आयुर्वेदिक है। आयु क्या है, आत्मा क्या है। यह जाने बिना चिरायु को जाना नहीं जा सकता है। चिरंजीव कोई नहीं हो सकता है चिरंजीव तो सिर्फ भगवान ही होते हैं, जो अनंत काल तक जीते हैं। हम तो पूर्ण आयु की कामना कर सकते हैं। बीच में अकाल मरण ना हो आयु को पूर्ण करके मृत्यु हो। पूर्ण आयु के लिए सम्यक दर्शन सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र की आवश्यकता है शिष्य की दृष्टि हमेशा गुरु के ऊपर रहनी चाहिए, जबकि गुरु की दृष्टि सभी शिष्यों के ऊपर रहती है। 

    मौसम बदलने पर सुकमाल व्यक्ति को कुछ ना कुछ रोग हो जाता है तापमान के माध्यम से आयुर्वेदिक दवाएं दी जाती हैं। यदि अच्छी नींद आ जाए और भूख मिट जाएं तो आप के रोग अपने आप दूर हो जाते हैं। 12 वर्षों के अध्ययन के बाद नाड़ी के वैद्य बनते हैं तब वह रोग पकड़ने में माहिर हो जाते हैं।
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