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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

विलास, विनाश, विकास और विराग


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ब्रम्हचर्य : आत्मा का नैकट्य 

आज बात ब्रह्मचर्य की है। वह ब्रह्मचर्य जिसके बिना कोई साध ना फलवती नहीं होती। प्रत्येक साधना-पद्धति में ब्रह्मचर्य को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। ब्रह्म का अर्थ होता है आत्मा। आत्मा की उपलब्धि के लिए किया जाने वाला आचरण ब्रह्मचर्य कहलाता है। जो अपनी आत्मा के जितना नजदीक है वह उतना बड़ा ब्रह्मचारी है और जो आत्मा से जितना अधिक दूर है वह उतना बड़ा भ्रमचारी है। हमें ब्रह्मचारी और भ्रमचारी में भेद करके चलना है। जो ब्रह्म को पहचाने और उसका आचरण ब्रह्मचर्यमय होता है वह ब्रह्मचारी तथा जिसे अपने आत्म-ब्रह्म का ज्ञान नहीं, जो भ्रम में जिए वह भ्रमचारी। प्रभो! अनादि से अपने ब्रह्म-स्वरूप को न जान पाने के कारण मैं भ्रमचारी बनकर इस संसार में फिरता हुआ दुखों का पात्र बना रहा, आज आपकी कृपा से मुझे मेरा ज्ञान हुआ, मुझे मेरा परिचय प्राप्त हुआ और अब मैं ब्रह्मचर्य के रास्ते को अंगीकार करके आपके नजदीक आने का मार्ग पकड़ रहा हूँ।

 

बंधुओं! ब्रह्मचर्य बहुत उच्च आध्यात्मिक साधना है। जब कभी भी ब्रह्मचर्य की बात आती है तो उसका सम्बन्ध प्राय: यौन-सदाचार तक सीमित रखा जाता है लेकिन ब्रह्मचर्य का सम्बन्ध केवल यौन सदाचार तक सीमित नहीं है। यौन-संयम मात्र ब्रह्मचर्य नहीं है, ब्रह्मचर्य का मतलब है विशुद्ध आध्यात्मिक दृष्टि से सम्पन्न होकर जीना। ब्रह्म यानी आत्मा की ओर मुड़ना। जो आत्मा के जितना नजदीक है वह उतना बड़ा ब्रह्मचारी और जो आत्मा से जितना दूर है वह उतना अब्रह्मचारी। मतलब आत्मा की निकटता और दूरी ही ब्रह्म और अब्रह्म का द्योतक है। अगर हम ऊँची भूमिका के स्तर से विचार करते हैं तो आत्मा से दूर गए, भ्रम में फसे, आत्मा के नजदीक हुए तो ब्रह्म को पा लिया। हमें आत्मा से दूर कौन ले जाता है? अगर देखा जाए तो हम तो अपने भीतर हैं लेकिन फिर भी भीतर रहकर भी हम अपने आप से कोशों दूर हैं। हमें दूर ले जाने वाला कौन? हमारे भीतर काम-भोग की लालसा और उसे जन्म देने वाला कौन? हमारे मन में पलने वाला अज्ञान। मनुष्य को जब तक अपने ब्रह्म का ज्ञान नहीं होता वह भ्रम में उलझा रहता है। बाह्य तत्वों में उलझकर अपने जीवन का सर्वनाश कर डालता है और जिसे अपने ब्रह्म का ज्ञान हो जाता है वह अपनी प्रवृत्तियों को सीमित, संयमित और नियंत्रित करके अंतर्मुखी चेतना का विकास करता है। ये अंतर्मुखी चेतना ही उसको परम ब्रह्म की अभिव्यक्ति का साधन बनती है। आचार्य कुंदकुंद कहते हैं

जह णाम को वि पुरिसो रायाण जाणिदूण सद्दहदि।

तो तं अणुचरदि पुणो अत्थत्थीओ पयत्तेण।

एवं हि जीवराया णादवो तह य सद्दहेदव्वो।

अणुचरिदव्वो य पुणो सो चेव दु मोक्खकामेणा॥

जैसे कोई अर्थ का अभिलाषी व्यक्ति राजा को जानकर राजा के अनुकूल कृत्य करता है, उस पर श्रद्धान करता है, उसके बारे में जानता है और उसके अनुकूल आचरण करता है ताकि राजा की कृपा का पात्र बनकर कुछ धन पा सके; ऐसे ही यदि तुम्हे मोक्ष की कामना है तो अपने भीतर बैठे जीव रुपी राजा की जानी, पहचानो और उसका अनुशरण करो। मोक्ष की कामना है तो अपने भीतर के ब्रह्म को पहचानो, अपनी आत्मा की जानी। अपने आत्म-ज्ञान के बिना कल्याण संभव नहीं और जिसे आत्मा का ज्ञान हो जाता है, भेद-विज्ञान हो जाता है उसके जीवन में ब्रह्मचर्य बहुत सहजतया घटित हो जाता है।

 

आज मैं अपनी बात एक ब्रह्मचारिणी गाय की कथा से प्रारम्भ कर रहा हूँ। अयोध्या प्रसाद गोयलीय ने अपनी कृति 'गहरे पानी पैठ' में इस घटना का उल्लेख किया है। घटना बहुत पुरानी है। आजादी की लड़ाई के समय वे जेल में थे। वहाँ उनके किसी मित्र ने ये कथा उन्हें सुनाई। ग्वालियर के किसी परिवार में एक गाय पलती थी। उस गाय ने छह बछड़े और बछड़ियों को जन्म दिया। उसके बाद जब उसे गर्भवती बनाने का प्रयास किया गया तो वह गर्भवती नहीं हो सकी। जब बार-बार उसके साथ ऐसा प्रयास किया जाने लगा तो एक दिन उस गाय ने उस घर में पलने वाली एक छोटी बच्ची को सपना दिया और कहा कि मैं ब्रह्मचर्य व्रत ले चुकी हूँ इसलिए मुझे पुन: गर्भवती बनाने का प्रयास न किया जाए अन्यथा मैं कुएँ में कुदकर जान दे दूँगी। बेटी ने घर के लोगों को ये बात बताई लेकिन लोगों की बात समझ में नहीं आई और सबने सपना कहकर टाल दिया कि गाय में कौन सा ब्रह्मचर्य होता है। आदमी ब्रह्मचर्य नहीं पालता गाय कहाँ से पालेगी? उस बच्ची की बात की नजरअंदाज कर दिया गया और जब वापस गाय को गर्भवती बनाने का प्रयास किया गया तो गाय अपने सपने के अनुसार तेज गति से भागी और घर के आँगन के कुएँ में छलांग लगाकर अपनी जान दे दी। ये एक ब्रह्मचारिणी गाय का उदाहरण है। पशु को भी आत्मा का ज्ञान हो जाता है तो उसके अंत:करण में वैराग्य आ जाता है।

 

हम बनें बिलासी चैतन्य आत्म के

आज की चार बातें- विलास, विनाश, विकास और विराग। विलास आज हर व्यक्ति को प्रिय है। संत कहते हैं तुम्हें विलास प्रिय है, विलासी बनो, मैं आपसे कहता हूँ जितना विलास करना है करो। महाराज! क्या हुआ? आज विलास करने की बात कर रहे हो, विलास तो जीवन का अभिशाप है। मैं फिर दोहरा रहा हूँ, होश में बोल रहा हूँ- तुम्हें जितना विलास करना है करो, जी भरकर करो पर किसका विलास करो? चैतन्य का विलास करो। विलास को दो रूप हैं- एक चैतन्य-विलास, एक भोग-विलास। चैतन्य-विलास का मतलब अपनी आत्मा में रमना, अपनी आत्मा से बंधना, अपनी आत्मा में संतुष्ट होना और कामेच्छा को समाप्त कर डालना। जिसके अन्दर समस्त कामनाए अंतर्लीन हो जाए, जिसका भीतर सारी वासनाएँ विलीन हो जाएँ और जिसके अंदर सारी इच्छाएँ अंतर्धान हो जाएँ उसका नाम है चैतन्य-विलास। विलास का मतलब होता है आनंद, रस, तृप्ति, प्रसन्नता। तुम्हारे भीतर आनंद हो। धर्म आनन्द को छुडाने की बात नहीं करता; धर्म और अध्यात्म मनुष्य के जीवन में सच्चा आनन्द दिलाने की बात करते हैं। विलास चाहिए, केसा विलास? अंदर का विलास, अंदर की तृप्ति जिसमें किसी साधन की जरूरत नहीं। चैतन्य-विलास जो स्वाश्रित है और भोग-विलास जो पराश्रित है। चैतन्य के विलास के लिए किसी दूसरे साधन और व्यक्ति की आवश्यकता नहीं और भोग-विलास सदैव दूसरों के माध्यम से होता है, उसमें सामने किसी की उपस्थिति चाहिए, चाहे वस्तु हो या व्यक्ति। चैतन्य-विलास में कोई सामने नहीं चाहिए बल्कि जब तक कोई सामने है तब तक चैतन्य का विलास ही नहीं है, स्वाश्रित है। चैतन्य के विलास में परम तृप्ति की अनुभूति और भोग के विलास में सदैव आतुरता और अतृप्ति का अनुभव।

 

आपने आज तक किसका विलास किया? सारा जीवन भोग-विलास में खपा दिया और खपा रहे हो इसलिए कि तुम्हें अपने चैतन्य स्वरूप का पता नहीं। जिस मनुष्य के भीतर आत्म-दृष्टि प्रकट हो जाती है उसकी देहासक्ति खत्म हो जाती है। जिसकी देहासक्ति नष्ट होती है उसकी भोगासक्ति खत्म हो जाती है और जिसकी भोगासक्ति खत्म हो जाती है, उसके अंदर की वासना विलुप्त हो जाती है। देहासक्ति से भोगासक्ति और भोगासक्ति से वासना के भाव मन में पैदा होते हैं। ये मनुष्य को भटकाने वाले कारण हैं, इनको खत्म करना है। भेद-विज्ञान करके आत्म ज्ञान करो, आत्म-ज्ञान होते ही देहासक्ति खत्म होती है, आत्मानुरक्ति बढ़ती है, भोगासक्ति नष्ट होती है, अन्दर की विरक्ति बढ़ती है, वासना नष्ट होती है, वात्सल्य प्रकट हो जाता है, अतृप्ति नष्ट होती है और शांति की अनुभूति प्रकट होती है।

 

चैतन्य का विलास चाहते हो तो चैतन्य को पहचानो, तुम कौन हो? जब तक तुम्हारी देह पर दृष्टि रहेगी तब तक चैतन्य का विलास कर ही नहीं सकोगे। सच्चा आनंद नहीं होता। बच्चा रोता है तो माँ कभी-कभी उसे निप्पल पकड़ा देती है, बच्चा मुँह में निप्पल लेकर मग्न हो जाता है, मन ही मन बड़ा खुश होता है कि चलो मुझे निप्पल मिल गया। मैं पूछता हूँ निप्पल दबाने से बच्चों को उस निप्पल में कोई रस मिलता है क्या? क्या है निप्पल में? रस है या रस का भ्रम है? रस का भ्रम है, वह निप्पल उसे रस का भ्रम दे रही है, रस तो उसके मुँह से निकल रहा है लेकिन वह सोच रहा है कि ये सारा रस निप्पल दे रही है। निप्पल को चूसते-चूसते वह थक जाएगा पर उसे तृप्ति नहीं मिल सकती, उसे पुष्टि नहीं मिल सकती अगर उसी निप्पल की जगह माँ का दूध थोड़ी देर पी ले तो पुष्ट हो जाता है।

 

चैतन्य-विलास माँ के दूध की तरह है और भोग-विलास निप्पल की तरह है। तुम क्या पसंद करते हो भोग-विलास या चैतन्य-विलास? अभी तक तुमने केवल भोग-विलास का ही रसास्वादन किया है, चैतन्य-विलास का तुम्हें अनुभव ही नहीं हुआ। उस चैतन्य की पहचानो, जिस पल उसे पहचान लोगे तुम्हारी वृति और प्रवृत्ति परिवर्तित हो जाएगी, तुम्हारे सोचने का ढंग बदल जाएगा, तुम्हारे देखने का ढंग बदल जाएगा, तुम्हारा आचार बदलेगा, तुम्हारा विचार बदलेगा, फिर तुम्हें ज्यादा और उपदेश देने की जरूरत नहीं होगी। आचार्य कुंदकुंद कहते हैं- भोगना है तो अपनी चेतना को भोगो, अनुभव करना है तो अपनी चेतना का अनुभव करो। भोग-विलासिता के चक्कर में तो तुमने अनन्त जन्म गँवा दिए, अपने आप को नहीं पहचाना। सद्गुरु की कृपा से यदि तुम्हें अपनी आत्मा का ज्ञान हुआ है तो उसे पहचानने की कोशिश करो। वे कहते हैं

 

एदहि रदो णिच्च संतुष्ट्रो होहि णिच्चमेदहि।

एदेण होहि तितो होहदि तुह उत्तमं सोक्ख।

अपने भीतर के इस चैतन्य में तुम रत रहो, इसी में संतुष्ट हो, इसी में तृप्त हो, इसी में तुम्हें परम सुख की प्राप्ति होगी। देह-दृष्टि से ऊपर उठो, चेतना की दृष्टि को पकडो अगर तुम्हारे भीतर वह चैतन्य-विलास प्रकट हो गया तो फिर तुम्हारे जीवन में किसी विलास की जरूरत नहीं है। देह-दृष्टि से ऊपर उठने के बाद भेद-विज्ञान से सम्पन्न साधक उस परम दृष्टि को प्रकट करते हैं।

 

देहाकर्षण : विवेक का अपकर्षण

आज लोगों की दृष्टि, देह-दृष्टि है, आत्म-दृष्टि है ही नहीं और इसी कारण देहासक्ति होती है। देह से आकृष्ट होकर मनुष्य कदाचार अपनाता है, यौन-दुराचार करता है। आज यौन-अपराध हो रहे हैं, काश! व्यक्ति अपने आपको पहचानता। लोगों का आकर्षण शरीर है, आत्मा की पहचाना ही नहीं। आत्मा की पहचान लोगे तो देहाकर्षण छूट जाएगा, देहाकर्षण छूटते ही तुम्हारे जीवन की धारा बदल जाएगी। देखिए देह के आकर्षण और आत्मा के आकर्षण में कितना अंतर होता है। देह के आकर्षण में भी आकर्षण है और आत्मा के आकर्षण में भी आकर्षण है। रामचन्द्र जी के प्रति सीता का आकर्षण था तो सूर्पनखा भी उनके प्रति कुछ पल के लिए आकृष्ट हुई थी पर दोनों की दृष्टि में जमीन आसमान का अंतर था। सीता ने रामचन्द्र जी को पति के रूप में ही नहीं परमेश्वर के रूप में देखा, सीता-राम का जो सम्बन्ध था वह आत्मिक स्तर का सम्बन्ध था और सूर्पनखा रामचन्द्र जी की ओर आकृष्ट हुई तो उनके रूप पर मुग्ध होकर। ये कथा आप सुनोगे तो बड़े आश्चर्यचकित हो जाओगे।

 

सूर्पनखा का बेटा शम्बुकुमार बाँस के बीड़ों में छिपकर चन्द्रहास नामक खड्ग की सिद्धि कर रहा था। सूर्पनखा रोज उसे भोजन देने आती थी। राम-लक्ष्मण भी उसी वन में आए हुए थे। लक्ष्मण घूमने के लिए गए तो उन्हें एक दिव्य खड्ग लटका हुआ दिखाई पड़ा। जब व्यक्ति के पुण्य का उदय होता है तो अनायास ही बहुमूल्य चीजें उन्हें प्राप्त हो जाती हैं। शम्बुकुमार जिस खड्ग को सिद्ध करने के लिए तपस्या कर रहा था. वह चन्द्रहास खड्ग प्रकट हो चुका था। लक्ष्मण ने जैसे ही उसे देखा तो उसका आह्वान किया। वह खड्ग लक्ष्मण के हाथ में आ गया। उसकी धार की परीक्षा करने के लिए लक्ष्मण ने उसका प्रहार उस बाँस के बीड़े पर किया, एक ही झटके में बांस के साथ भीतर छिपा शम्बुकुमार भी मर गया, उसकी गर्दन धड़ से अलग हो गई। लक्ष्मण जी को बहुत तकलीफ हुई लेकिन क्या कर सकते थे, अनजाने में ये हत्या हो गई। वे लौटकर अपने भाई रामचन्द्र जी के पास आए, उन्हें सारी कथा सुनाई। इधर सूर्पनखा अपने बेटे को भोजन देने के लिए आई तो देखा कि मेरे बेटे का सिर धड़ से अलग है। वह एकदम भाव-विह्वल हो गई। रोती-कलपती चरण-चिह्नों का अनुशरण करती हुए रामचन्द्र जी की कुटिया तक पहुँची। कुटिया में जैसे ही रामचन्द्र जी परं नजर पड़ी तो वह उन पर मुग्ध हो उठी, उसके अंदर की कामासक्ति जाग गई, सब कुछ भूल गई, पुत्र के वियोग को भूल गई, एक ही साथ काम के दस बाणों से बिंध गई। रामचन्द्र जी के पास जाकर सारी लज्जा, मर्यादा और संकोच को त्यागकर अपने आपको प्रप्रोज (समर्पित) कर दिया।

 

रामचन्द्र जी ने सुना तो इकदम सहम गए और उसे समझाने की दृष्टि से सोचा कि मैं क्या समझाऊँ, इसे लक्ष्मण ही ठीक ढंग से समझा सकता है। उन्होंने कहा- देखो! तुम्हारी भावना की पूर्ति मैं नहीं कर सकता, मैं विवाहित हूँ, मेरे साथ मेरी धर्मपत्नी है, तुम लक्ष्मण के पास जाकर अपनी इच्छा पूरी कर सकती हो। कहते हैं बावली (पगली) सूर्पनखा लक्ष्मण के पास चली गई। लक्ष्मण के पास जाकर जब उसने अपना प्रस्ताव रखा तो लक्ष्मण तो इकदम तुनक गए, उसको फटकारते हुए बोले- अरे! तुझे शर्म नहीं आती। कुछ पुराणों में लिखा है कि लक्ष्मण ने उसकी नाक काट दी। मुझे नहीं पता लक्ष्मण ने नाक काटी या नहीं काटी लेकिन सूर्पनखा की नाक कट जरूर गई। हमारी भारतीय परम्परा के अनुसार कोई भी क्षत्रिय किसी स्त्री, किसी निशक्त और निरपराध व्यक्ति के ऊपर अस्त्र नहीं चलाता। लक्ष्मण ने सूर्पनखा की नाक नहीं काटी होगी; ऐसा मेरा विश्वास है लेकिन सूर्पनखा की नाक कट गई, क्यों कटी? जब कोई स्त्री सारी मर्यादा और संकोच को त्यागकर किसी पर-पुरुष के पास जाकर अपना प्रणय-प्रस्ताव रखे और ठुकरा दी जाए, इससे बडी नाक कटाई और क्या होगी? उसकी नाक कट गई, रिफ्यूज हो गई। उसकी नाक कटने की कहानी अपनी जगह है। जैन पद्मपुराण के आधार पर मैंने आपको ये बात बताई।

 

विवेक की बाड़, मर्यादा का रक्षण

मैं एक ही बात कहता हूँ- एक तरफ सूर्पनखा का आकर्षण, एक तरफ सीता का आकर्षण। थोड़े और आगे चलो- सीता के प्रति रावण भी आकृष्ट हुआ और सीता के प्रति लक्ष्मण के मन में भी आकर्षण था। रावण ने सीता को सदैव भोग की दृष्टि से देखा और लक्ष्मण ने अपनी पूज्या माँ की दृष्टि से देखा। कहते हैं जब रावण सीता का हरण करके जा रहा था तो सीता ने अपने आभूषणों को इस भाव से रास्ते में उतार कर फेंका कि इधर से रामचन्द्र जी गुजरेंगे तो शायद मेरे गुजरने की पहचान हो जाए। सीता-हरण होने के बाद रामचन्द्र जी जब वहाँ से गुजरे तो अचानक रामचन्द्र जी की दृष्टि उन आभूषणों पर पड़ी, उन्होंने लक्ष्मण से कहा- लक्ष्मण! देखो यह मुकुट सीता का प्रतीत होता है, लक्ष्मण मौन, यह हार सीता का प्रतीत होता है, लक्ष्मण मौन, ये कुण्डल सीता के प्रतीत होते हैं, लक्ष्मण मौन, ये बाजूबंद सीता के प्रतीत होते हैं, लक्ष्मण अब भी मौन थे। अचानक रामचन्द्र जी को सुहाग को चिह्र-स्वरूप एक नुपुर (बिछिया) हाथ लगी, राम ने उस बिछिया को लक्ष्मण को दिखाते हुए लक्ष्मण से फिर कहा- देखो लक्ष्मण! ये नुपुर सीता के प्रतीत होते हैं, उन नुपुरों को देखकर लक्ष्मण ने कहा -

 

नाह जानामि केयूरे नाह जानामि कुण्डले।

नुपुरे त्वभिजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात्।

भैया! मुझे नहीं पता यह मुकुट किसका है, मुझे नहीं पता यह हार किसका है, ये कुण्डल किसके हैं और ये बाजूबंद किसके हैं पर मैं ये पक्के तौर पर कह सकता हूँ कि ये नुपुर तो माता सीता के ही हैं क्योंकि मैं रोज उनकी पाद-वंदना को जाता था तो मेरी दृष्टि उन पर पड़ती थी, मैंने आज तक अपनी आँखें उठाकर उन्हें देखा ही नहीं। ये है उदार-दृष्टि, ये भारतीय संस्कृति का एक रूप है। आप लोगों को ये बात अतिरंजना पूर्ण लग सकती है लेकिन लक्ष्मण जैसे महापुरुष के व्यक्तित्व को अपने बौने हाथों से नापने की कोशिश न करें, आज तो सारी मर्यादाएँ ही खत्म हो गई। अब मर्यादा बचे भी कैसे? जब भाभियाँ देवर की शादी में बीच सड़क पर नाचेंगी तो मर्यादाएँ बचेंगी कैसे? हमारी संस्कृति एकदम तार-तार होती जा रही है।

मैं आपसे कह रहा था कि साकांक्ष प्रेम नाक कटाता है और निष्कांक्ष प्रेम लाज बढ़ाता है। अभी तक तुमने नाक कटाने का काम किया, अब लाज बढ़ाने का काम करो। देहासक्ति तुम्हारी नाक कटाएगी और आत्मानुरक्ति तुम्हारे जीवन को ऊँचा उठाएगी। क्या करना चाहते हो? एक में जीवन का विकास है, दूसरे में जीवन का विनाश है। देह की आसक्ति से मुक्त होकर आत्मा की अनुरक्ति की तरफ ध्यान होना चाहिए। जब ये अनुरक्ति हमारे भीतर प्रकट होगी तब हमारे जीवन का सच्चे अथों में कल्याण होगा। आचार्य श्री ने मूकमाटी में बहुत अच्छी बात कही, उन्होंने लिखा -

 

प्रीत मैं उसे मानता हूँ, जो अंगातीत होता है।

गीत मैं उसे मानता हूँ, जो संगातीत होता है।

अंगातीत प्रीत और संगातीत गीत की अनुभूति ही वास्तविक चैतन्य का विलास है। अंगातीत प्रीत कब होगी? जब देह-दृष्टि खत्म होगी। देह-दृष्टि को खत्म करना बहुत जरूरी है। आचार्य समन्तभद्र महाराज ने ब्रह्मचर्य की बात करते हुए ये नहीं कहा कि स्त्री-पुरुष का एक दूसरे से दूर हट जाना ही ब्रह्मचर्य है, वे कहते हैं- देह-दृष्टि से ऊपर उठने का नाम ब्रह्मचर्य है।

 

मलबीज मलयोनि गलन्मल पूतिगन्धि बीभत्सम्।

पश्यन्नङ्गमनङ्गाद् विरमति यो ब्रह्मचारी सः॥

जो अपने शरीर को मल की योनि, मल का बीज, पूति, गन्ध, बीभत्स रूप में देखते हुए, अंग को इस प्रकार विकृत, अशुचि देखते हुए जो अनंग यानी काम से विरक्त होता है सच्चे अर्थों में वह ब्रह्मचारी होता है।

 

काम-भोग की कथाएँ बहुत पुरानी हैं, अनादि से ही करते आए हो, आज तक मिला क्या? आज तक का अनुभव क्या है? कभी सोचा है क्या मिला? सिवाय प्यास, अतृप्ति और आकुलता के आज तक कुछ नहीं मिला। किसी को तृप्ति नहीं मिली, आज एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो कहे कि मैंने काम (इच्छा-पूर्ति) करके अपने आपको तृप्त किया है। संत कहते हैं- काम इच्छा के माध्यम से कामना को तृप्त करना तो अग्नि को घृत से शान्त करने की चेष्टा है। जलती हुई ज्वाला में घी की आहूति दोगे तो क्या होगा वह ज्वाला बढ़ेगी या कम होगी? बढ़ेगी, क्योंकि काम से काम की पूर्ति नहीं होती और आग से आग को बुझाया नहीं जा सकता, उसे तो आध्यात्मिक दृष्टि से ही सम्पन्न किया जा सकता है इसलिए देह-दृष्टि से मुक्त होकर भेद विज्ञान को प्राप्त करें। जिसके हृदय में ऐसे भेद-विज्ञान की भावना विकसित हो जाती है वह संसार में कभी भी रुकता नहीं।

 

जैनाचार्यों ने ब्रह्मचर्य को चैतन्य का विलास बताते हुए इसकी बड़ी उच्च व्याख्या की है। ब्रह्मचर्य की साधना जिस प्रकार से जैन साधनापद्धति में है वैसी कहीं नहीं है। दुनिया में जब कभी भी ब्रह्मचर्य की बात आती है तो केवल उसे ब्रह्मचर्य माना जाता है जो मात्र स्त्री का संसर्ग त्याग देता है। हमारे जैन आचार्य कहते हैं- स्त्री का त्यागी ब्रह्मचारी है सो है ही, एक गृहस्थ भी ब्रह्मचारी है, एक गृहस्थ भी ब्रह्मचारी बन सकता है। बनना चाहते हो? गृहस्थ और ब्रह्मचारी? गृहस्थ भी ब्रह्मचारी है किसके बल पर? स्वदार-संतोष व्रत का पालन करते हुए, विवाह के बंधन में बंधने के बाद एक से अपना सम्बन्ध सीमित करते हुए स्त्री-पुरुष पति और पत्नी के बीच बस एक के अतिरिक्त सभी स्त्री-पुरुषों के प्रति पवित्र दृष्टि को रख ले तो वह ब्रह्मचारी है। अपनी पत्नी या अपने पति के अतिरिक्त संसार की हर स्त्री में माँ, बहिन और बेटी का रूप देखना और हर पुरुष में पिता, पुत्र और भाई का रूप देखना ये ब्रह्मचर्य की एक बहुत बड़ी साधना है। एक गृहस्थ के जीवन में भी ऐसा हो सकता है। यौन-सदाचार और संयम का अनुपालन कौन कर सकता है? जो आत्मदृष्टा हो, उसके जीवन में ही ऐसा हो सकता है। जिसके अंदर में आत्मा का ज्ञान नहीं है वह सामाजिक भय, कानूनी जटिलताओं या अन्य मर्यादायों के डर से भले ही शील की पाल ले लेकिन अन्त:प्रेरित शील उसके जीवन में घटित नहीं हो सकता। जिसके अंदर आत्मा का ज्ञान है उसके लिए किसी बाहरी दबाव की जरुरत नहीं, वह स्व-प्रेरणा से ब्रह्मचर्य का पालन करता है।

 

महाराज छत्रसाल जिन्होंने कुण्डलपुर के बड़े बाबा के जिन मंदिर का जीणोद्धार कराया; एक रोज एक युवती उनके पास आ पहुँची और उस युवती ने कहा कि मैं आप जैसा प्रतापवान और ज्ञानवान पुत्र चाहती हूँ। छत्रसाल महाराज ने कहा- भगवान आपकी इच्छा पूरी करे। उस युवती ने कहा कि मेरी ये इच्छा आपके सहयोग के बिना पूरी नहीं हो सकती। राजा छत्रसाल ने कहा- तुम्हारी इच्छापूर्ति में मैं क्या सहयोग कर सकता हूँ? उस स्त्री ने कहा- एक पुरुष के संयोग के बिना कोई स्त्री किसी पुत्र को जन्म कैसे दे सकती है? मेरे पति इसमें अक्षम हैं। छत्रसाल जी ने जैसे ही सुना, वे एक पल का विलम्ब किए बिना उसके चरणों में गिर पड़े और कहा- ले माँ यदि तुझे मुझ जैसे पुत्र की जरूरत है तो आज से मैं ही तेरा पुत्र हूँ तुम मुझे स्वीकार कर लो। ये एक आध्यात्मिक दृष्टि है। हमारे देश के राजा-महाराजा भी ऐसी अध्यात्म-दृष्टि से सम्पन्न हुआ करते थे। अतीत के राजा-महाराजाओं के चरित्र को पलटें और आज के शासकों को देखें।

 

छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन का एक प्रसग है। जब उनको मराठा सैनिक कल्याण राज्य पर विजय प्राप्त कर लौटने को बाद उनके पास आए तो शिवाजी महाराज ने खुश होकर पूछा- मेरे लिए क्या लाए? उनके सैनानियों ने कल्याण नरेश की पुत्रवधु को उनके सामने खड़ा करते हुए कहा कि हम आपके लिए विश्व की सबसे सुंदर स्त्री लेकर आए हैं। छत्रपति महाराज ने सुना तो इकदम सकपका गए, अपने आसन से खडे हो गए और बोले- ये अपराध तुमने कैसे कर लिया? इतना गंदा काम तुमने कैसे किया? तुम्हें मालूम नहीं कि कल्याण नरेश की पुत्रवधु केवल कल्याण नरेश की ही पुत्रवधु नहीं हमारी-तुम्हारी भी पुत्रवधु है, पुत्रवधु नहीं, वह तो हमारी-तुम्हारी बहिन है। तुमने बहुत गंदा काम किया है, ये हमारी बहिन है, आज से ये मेरी ही नहीं वरन सम्पूर्ण मराठवाड़े की बहिन है। तुम ससम्मान इन्हें वापस कल्याण तक पहुँचाओ।

 

ये दृष्टि किसके अंदर होती है? जिसको अपनी आत्मा का ज्ञान हो, जो शील, संयम, सदाचार की महिमा को जानता हो। आज इन्हीं का नाम लेने वालों के जीवन में बढ़ते हुए कदाचार को देखो तो बड़ा आश्चर्य होता है। अपने जीवन में आध्यात्मिक दृष्टि विकसित होनी चाहिए। ब्रह्मचर्य का मतलब है ऑख की पवित्रता। आँखों में पवित्रता ही ब्रह्मचर्य है। अगर तुम्हारे अंदर ब्रह्मचर्य है तो आँखों में पवित्रता आ जाएगी, किसी को देखकर तुम्हारा मन नहीं डोलेगा। एक दिन एक युवक ने मुझसे पूछा- महाराज! आप दिगम्बर मुद्रा में रहते हैं, आपके पास अनेक स्त्रियाँ आती हैं, बैठती हैं, बातचीत भी करती हैं, क्या कभी आपका मन नहीं डोलता? उस युवक ने साहस पूर्वक पूछा। ये विचार आपके मन में भी आ सकता है। मैंने उससे एक ही सवाल किया- ये बताओ, जब कभी भी तुम अपनी माँ-बहिन के पास रहते हो तो क्या तुम्हारा मन डोलता है? बोला- महाराज! कभी नहीं डोलता, उस समय मन में पवित्रता आ जाती है। मैंने कहाबस, यही अंतर है हममें और तुममें, तुम्हारे लिए तो कोई एक माँ और कोई एक बहिन है, मेरी नजर में तो संसार की सारी स्त्रियाँ माँ और बहिन की तरह हैं। ऑखों में ये पवित्रता आते ही ब्रह्मचर्य का विलास प्रकट होगा। पवित्रता चाहिए, दृष्टि की पवित्रता चैतन्य को विलास को जन्म देती है और दृष्टि की अपवित्रता भोग-विलास में फसा देती है। अभी तक भोग-विलास में ही फसे हुए हो। आज तक का इतिहास है चैतन्य का विलास आत्मा का विकास करता है और भोग-विलास आत्मा का विनाश करता है। किधर बढ़ रहे हो विकास की तरफ या विनाश की तरफ? आज तक तुमने किया क्या है?आचार्य कुंदकुंद कहते हैं

 

सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा।

एयक्तस्सुवलभो णवरि ण सुलभो विह तस्स।

 

संस्कार पड़े हैं जनमों-जनमों के

तुम्हारे द्वारा काम, भोग और बंध की कथाएँ जन्म-जन्मान्तरों से सुनने में आई हैं, परिचय में आई हैं, अनुभव में आई हैं, तुमने जन्म-जन्मान्तरों तक अगर सुना है, परिचय किया है, अनुभव किया है तो केवल काम, भोग और बंध की कथा का। अगर परिचय पाना है तो उसका परिचय पाओ जो आज तक अपरिचित रहा है और जिसको परिचय को बाद अन्य कोई परिचय बाकी न हो। भोग करना है तो उसका भोग करो जिसके बाद भोगने की इच्छा ही न रहे, अनुभव करना है तो उसका अनुभव करो जिसके बाद फिर कोई, अनुभव ही बाकी न रहे, उस तत्व को पहचानो। अभी तक तुमने जो कुछ भी किया है वह सब पुनरावृत्ति है।

 

स्कूल में मास्टर साहब ने बच्चों को कुत्ते पर लेख लिखकर लाने का सबक (गृहकार्य) दिया। सब बच्चे लेख लिखकर लाए, एक बच्चे का लेख देखकर मास्टर साहब बड़े आश्चर्यचकित हो गए। वह उस बच्चे से बोले- लेख तो तुमने बहुत सुंदर लिखा है, तुम्हारा लेख बहुत अच्छा है लेकिन मामला क्या है? ठीक ऐसा ही लेख पिछले वर्ष तुम्हारा बड़ा भाई लिखकर लाया था, उस लेख और इस लेख में एक हलन्त और मात्रा का भी अंतर नहीं है मामला क्या है? उस बच्चे ने कहा- सर कुत्ता वही है तो लेख दूसरा कहाँ से आएगा।

 

ये सच है, हर प्राणी अनादि काल से एक ही कुत्ते पर लेख लिखता आ रहा है, वह है काम-भोग का लेख, आहार, भय, मैथुन या परिग्रह का लेख। चार संज्ञाओं का लेख लिखते आए हो, भोग विलास में फसे हो, चैतन्य के विलास को पहचानो। तुम्हारी आत्मा का पतन इसी के कारण हुआ है लेकिन क्या करें? लोगों को आज रस नहीं आता, आज पूरे विश्व में एक आध्यात्मिक क्रांति की आवश्यकता है क्योंकि वर्तमान की भोग-विलासिता की वृत्ति ने मनुष्य की चेतना की जडाक्रान्त कर दिया है। उसकी सोच और समझ खत्म हो गई है। जड़ता इस तरह से हावी होती जा रही है जिसका कोई ठिकाना नहीं, मीडिया ने तो इसे और अधिक हवा दे दी। हमारे सारे संस्कार नष्ट हो रहे हैं। सब गड़बड़ होता जा रहा है। कहाँ हमारे महा ब्रह्मचर्य का उच्च आदर्श और आज कहाँ "लिव इन रिलेशनशिप' जैसा कान्सेप्ट? मनुष्य को भोग की आग में झोंकने जैसा कुकृत्य है। इसके दुष्परिणाम भी आ रहे हैं। समाज इसे भोग रहा है। सावधान होना चाहिए। शील, संयम, सदाचार का संकल्प लेना चाहिए। अपनी भोगासक्ति को बंद करना चाहिए। मैं यहाँ उपस्थित लोगों से आज के ब्रह्मचर्य धर्म के दिन कहना चाहता हूँ कि प्रारम्भिक रूप में केवल दो संकल्प लें कि विवाह-पूर्व कोई सम्बन्ध नहीं बनाऊँगा और विवाहेतर सम्बन्ध नहीं बनाऊँगा तो मैं समझता हूँ आपका ब्रह्मचर्य सार्थक हो जाएगा। विवाह-पूर्व सम्बन्ध नहीं और विवाहेतर सम्बन्ध नहीं लेकिन क्या करें आज के तथाकथित सेलिब्रिटी लोग भी यह कहते हैं कि विवाह-पूर्व या विवाहेतर सम्बन्धों में कुछ भी गलत नहीं। सच्चे अर्थों में ऐसे लोग भारत के वंशज नहीं कहला सकते। ऐसे लोगों को भारत में जगह भी नहीं मिलनी चाहिए। जिन्होंने भारत की आत्मा को नहीं पहचाना वे ही ऐसा बोल सकते हैं।

 

मातृवत् परदारेषु परद्रव्येषु लोष्ठवत्।

आत्मवत्सर्वभूतेषु यः पश्यति सः पण्डितः॥

ये उद्घोष जिस देश में गूंजा, उस देश में इस प्रकार की प्रवृत्तियाँ बहुत गंदी हैं। इस गंदी प्रवृत्ति से समाज को जितनी जल्दी संभव हो बचना और बचाना चाहिए।

 

हमारे युवा : भटकती दिशा 

बंधुओं मैं क्या बताऊँ। आज जो समाज की तस्वीर उभर रही है वह बड़ी बीभत्स और घिनौनी है। आप सब को पता नहीं नई पीढ़ी में बहुत जबरदस्त भटकाव आ रहा है। मनुष्य की बढ़ती हुई भोग-लालसा ने सम्बन्धों की पवित्रता को भी संदिग्ध बना दिया है। मैं अपने अनुभवों के आधार पर कहता हूँ कि भाई-बहिन के सम्बन्धों की पवित्रता भी अब नष्ट हो रही है। सावधान हो जाओ, मेरे पास ऐसे भी प्रकरण आए हैं जिनमें सगे भाई-बहिन के मध्य भी सम्बन्ध बने हैं। बहुत घिनौना रूप है, रोंगटे खड़े हो जाते हैं सुनकर। आज के युवक-युवतियों में जबरदस्त भटकाव है। इसलिए मैं कहना चाहता हूँ 10-11 साल की उम्र हो जाने के बाद बहिन और भाई को कभी एक साथ नहीं रखना चाहिए, मर्यादा को सुरक्षित रखना चाहिए। हमारे यहाँ कुछ व्यवस्थाएँ दी गई थी ताकि उस तरह की शारीरिक, भौतिक और मानसिक परिस्थितियों से बचा जाए और लोग यौन-कदाचार से बच सकें। आज सह-शिक्षा (को-ऐजुकेशन) के कारण ये सब गड़बड़ियाँ हो रही हैं। हमारे शास्त्रकार कहते हैं

 

तारुण्ये इन्द्रियनिग्रह दुष्करम्।

तरुण अवस्था में इन्द्रियों का निग्रह करना बहुत कठिन है। आज के इस उन्मुक्त वातावरण और सह शिक्षा की व्यवस्था ने सारी व्यवस्थाओं को चरमरा दिया है, सत्यानाश कर दिया है। कल शाम के 'शंका समाधान' में आपके बीच का एक युवक बोला कि मेरे साथ पढ़ने वाले दो सौ लड़कों में से मैं सिर्फ दस को ही अपना मित्र बना सका जो एल्कोहल (शराब) नहीं लेते, बाकी सब लेने वाले मिले। एल्कोहल ही नहीं, अन्य प्रकार के अनाचार भी आज बढ़ते जा रहे हैं। कोई भी इनसे अछूता नहीं बचा। सावधान होने की जरूरत है। यदि यही स्थितियाँ बनी रहीं तो हमारे समाज की क्या दशा होगी? हमारे संस्कार कहाँ जीवित रहेंगे? महाविनाश के गर्त में सब जा रहे हैं। उस महाविनाश से बचना और बचाना है तो सावधानी की जरूरत है। 

 

मैंने पहले भी कहा था आज फिर कह रहा हूँ- आज उच्च शिक्षा में भेजना युग की आवश्यकता है। युवक-युवतियों की उच्च-शिक्षा सम्पन्न होनी चाहिए पर वे अपनी लिमिटेशन (मर्यादा) को कभी भूले नहीं, अपनी बोन्ड्रीज (सीमाओं) का ख्याल रखें और उसके प्रति प्रतिबद्ध रहें तो कभी भटकाव नहीं आ सकता। इसके लिए शुरु से गुरुओं के साथ जुड़ाव जरूरी है। यदि बच्चों का गुरुओं से जुड़ाव होगा तो वे कभी भटकगे नहीं और यदि कदाचित भटक जाते हैं तो कभी आकर प्रायश्चित लेने का भी भाव करते हैं। अभी तीन दिन पहले दो बच्चे मेरे पास आकर बोले- महाराज श्री! आप से कुछ समय चाहिए। मैं व्यस्त था, मैंने कहा- अभी नहीं। नहीं महाराज! अभी चाहिए और एकान्त में चाहिए। दोनों बच्चों ने अपनी बात कही- महाराज! हम भटक गए, हमने शराब का भी पान किया और हमने सम्बन्ध भी बनाए। महाराज! हमारा मार्ग प्रशस्त कीजिए, अब हम शुद्ध जीवन जीना चाहते हैं। भटकाव में आकर हमने ऐसा कर लिया। दोनों इंजीनियरिंग के छात्र थे, माहौल के कारण भटके लेकिन गुरुओं से जुड़े रहने के कारण सम्हल गए।

 

जो बच्चे गुरु से जुड़े रहेंगे वे कभी बर्बाद नहीं हो सकेंगे और जो बच्चे धर्म और गुरुओं से दूर रहेंगे वे कभी भी आबाद नहीं हो सकेंगे, कभी भी कहीं भी भटक सकते हैं। इसलिए आप लोगों को चाहिए कि अपने साथ अपने बच्चों को भी इस तरीके से जोड़ें। मानता हूँ कि बच्चे रोज नहीं आ सकते, उनकी दिनचर्याएँ कुछ इस तरह की होती हैं, पढ़ाई का बोझ उनके ऊपर इतना होता है। मैं तो अब सोचता हूँ कि समय-समय पर कुछ ऐसे कार्यक्रम दो-तीन दिन के होने चाहिए जो केवल बच्चों के लिए हों, युवक-युवतियों के लिए हों और उन्हें सही मार्गदर्शन दिया जाए एक वकशाप की तरह ताकि वे एक आध्यात्मिक चेतना को जगा सकें। इसकी शुरुआत जयपुर से हो रही है। जयपुर चातुर्मास का योग कुछ ऐसा है कि कई अच्छी शुरुआत यहाँ हो रही हैं। मैंने णमोकार महामंत्र के कोटि-जाप के लिए दस साल से सोच रखा था, अनायास यहाँ हो गया। वकशाप के सम्बन्ध में मैंने कलकत्ता में सोचा था कि इसको शुरु करना है पर योग जयपुर में लगा है ताकि जीवन में बदलाव आए, संस्कृति का जो क्षरण हो रहा है उसे रोका जा सको, चेतना का विकास हो।

 

बंधुओं! भोग-विलास को त्यागें और चैतन्य-विलास से अनुराग हो तो हमारा जीवन धन्य होगा। चैतन्य को विलास से जीवन का विकास है और भोग के विलास से जीवन का विनाश है इसलिए मन में विराग के भाव आने चाहिए। अगर तुम्हारे अंत:करण में वैराग्य हो तो दुनिया की कोई ताकत तुम्हें हिला नहीं सकती और जिस मनुष्य के मन में वैराग्य न हो वह जीवन में कभी टिक नहीं सकता। ये वैराग्य ही भेद विज्ञान को जन्म देता है और वैराग्य से ही भेद-विज्ञान पुष्ट होता है। वैराग्य जीवन के लिए बहुत जरुरी है। यह हमारी आध्यात्मिक सम्पदा है, इसे अपने भीतर जगाकर रखना चाहिए। विषयों के प्रति अनासक्ति का भाव, विषयों के प्रति हेयदृष्टि की वृद्धि, यही वैराग्य है। ये अच्छे-अच्छे लोगों के जीवन में भी नहीं दिखता। अच्छे-अच्छे बुजुर्गों के भी अंदर की भोगासक्ति मंद नहीं होती तो बड़ा आश्चर्य होता है कि लोग कहाँ जा रहे हैं। आचार्य श्री ने मूक माटी में बहुत अच्छी बात लिखी

 

वासना का सम्बन्ध,

न तन से, न वसन से,

अपितु माया से प्रभावित मन से है।

अपना मन अच्छा रखो, माया से मुक्त करके रखो तो हमारा जीवन धन्य होगा अन्यथा सब नष्ट हो जाएगा। शुकदेव जी आजन्म दिगम्बर थे ऐसा कहा जाता है। भागवत का प्रसंग है एक बार शुकदेव जी एक तालाब के पास से निकले। उस तालाब में कुछ युवतियाँ स्नान कर रही थीं, शुकदेव जी कब निकले उन्हें पता ही नहीं चला और स्त्रियाँ भी अपने स्नान में मग्न रहीं। थोड़ी देर बाद वहीं से व्यास जी निकले। व्यास जी जब उधर से गुजरे तो स्त्रियों ने अपने-अपने वस्त्रों से अपने अंगो को आच्छादित करना शुरु कर दिया, ढकने लगीं। ये देखकर व्यास जी को बड़ा अटपटा लगा। व्यास जी ने स्त्रियों से कहा- मैं ये क्या देख रहा हूँ? अभी मेरा जवान बेटा इधर से गुजरा तब तो तुमने कोई प्रतिकार नहीं किया और मैं वृद्ध इधर से गुजर रहा हूँ तो तुम मुझे देखकर अपने शरीर को ढक रही ही बात क्या है? उन स्त्रियों ने व्यास जी को जो बात कही वह बहुत मनन करने योग्य है। उन्होंने कहा- व्यास महाराज! शुकदेव जी कब आए और कब गए हमें पता नहीं लेकिन आपने अपनी उपस्थिति का बोध करा दिया। हम तो इतना ही जानते हैं कि जवान होने के बाद भी शुकदेव जी के मन में बुढ़ापा है और बूढ़े होने के बाद भी आपका मन अभी तक जवान बना हुआ है तभी तो इस तरफ आकृष्ट हुए हो।

 

बूढ़े होने के बाद भी मन में जवानी, ये आसक्ति विनाश का कारण है। अपने आप को रोको, अपने आप को टोको, अपने आप को थामों। तन काम नहीं करता तब भी मन में इच्छाएँ जगती रहती हैं। ये इच्छाएँ विनाश का कारण हैं, इन इच्छाओं से मुक्त होंगे तो हमारा जीवन धन्य होगा।

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