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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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  1. Vidyasagar.Guru
    जानकारी देते हुए ब्र.  सुनील भैया और मीडिया प्रभारी राहुल सेठी ने बताया की आचार्यश्री विद्यासागरजी महामुनिराज सहित पूरे संघ का चातुर्मास साँवेर रोड स्थित तीर्थोदय धाम प्रतिभास्थली, इंदौर में होगा।
    ५ जुलाई २०२०,  गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर पर सभी मुनियों द्वारा चातुर्मास का संकल्प लिया जाएगा। प्रातः 7 बजे से यह क्रिया आरंभ होगी। इसके साथ ही चार्तुमास स्थापना के पहले दिन आचार्य श्री सहित सभी मुनिराजों का उपवास रहेगा। पूरे दिन चातुर्मास की विधि संपन्न होगी।
     
    आगामी रविवार, 12 जुलाई 2020 को दोपहर 1ः30 बजे से चातुर्मास कलश स्थापना की क्रिया संपन्न होगी। इसी दिन कलश स्थापना करने का सौभाग्य प्राप्त करने वाले पात्रों का चयन भी किया जाएगा। आचार्यश्री के सान्निध्य में जो भी आयोजन होंगे, वे सभी कोरोना संबंधी सरकारी दिशा-निर्देशों के अनुसार होंगे। आचार्यश्री सहित सभी मुनिराजों का मंगल प्रवेश 5 जनवरी 2020 को इंदौर में हुआ था। अब 14 नवम्बर दीपावली तक चातुर्मास का लाभ भी श्रावक-श्राविकाओं व श्रद्धालुओं को मिलेगा। इस बार चातुर्मास का लगभग 5 महीने का होगा अर्थात् 4 जुलाई 2020 से 14 नवंबर 2020 तक।
     
    ● चातुर्मास के मुख्य कार्यक्रम की पूरी जानकारी
    मीडिया प्रभारी राहुल सेठी ने बताया कि इस बार चातुर्मास में अनेक पर्व मनाए तो जाएँगे, लेकिन सभी आयोजनों में कोरोना संबंधी सरकारी दिशा-निर्देशों का पालन किया जाएगा ।
     
    चातुर्मास के प्रमुख पर्व – चातुर्मास प्रारंभ 4 जुलाई, गुरू पूर्णिमा पर्व 5 जुलाई, भगवान पार्श्वनाथजी का मोक्ष कल्याणक मोक्ष सप्तमी 26 जुलाई, सौभाग्य दशमी 29 जुलाई, रक्षाबंधन 3 अगस्त, रोट तीज 21 अगस्त, दशलक्षण महापर्व (पर्यूषण पर्व) 23 अगस्त से आरंभ, सुगंध दशमी (धूपदशमी) 28 अगस्त, दशलक्षण महापर्व का समापन 01 सितम्बर, क्षमावणी पर्व 03 अगस्त, शरद पूर्णिमा 31 अक्टूबर, भगवान महावीर स्वामी निर्वाण कल्याणक महोत्सव-दीपावली 14 नवम्बर।
     
    ● आचार्यश्री के साथ ये मुनिगण कर रहे हैं वर्षायोग
    इस वर्ष आचार्यश्री के संघ में 12 मुनि सम्मिलित हैं- मुनि  श्री १०८ सौम्य सागर महाराज, मुनि  श्री १०८ दुर्लभ सागर महाराज, मुनि  श्री १०८ निर्दोष सागर महाराज, मुनि  श्री १०८ निर्लोभ सागर महाराज, मुनि श्री १०८ नीरोग सागर महाराज,  मुनि  श्री १०८ निरामय सागर महाराज, मुनि  श्री १०८ निराकुल सागर महाराज, मुनि  श्री १०८ निरुपम सागर महाराज, मुनि  श्री १०८ निरापद सागर महाराज, मुनि  श्री १०८ शीतल सागर महाराज, मुनि  श्री १०८ श्रमण सागर महाराज, मुनि  श्री १०८ संधान सागर महाराज शामिल है।
  2. Vidyasagar.Guru
    ऐतिहासिक पंचकल्याणक सागर (भाग्योदय) 8 दिसंबर से 14 दिसंबर पंचकल्याणक
     
    पात्र चयन 04/12/18

    भगवान के माता-पिता
    समाज श्रेष्ठी श्रीमान
    राकेश जी पिड़रुआ

    ध्वजारोहण कर्ता
    समाज श्रेष्ठी श्रीमान
    रमेश महेश संतोष बिलहरा परिवार

    सौधर्म इंद्र
    समाज श्रेष्ठी श्रीमान
    आनंद जी,अजित जी आनंद स्टील परिवार
     
  3. Vidyasagar.Guru
    पर्यूषण पर्व / मोक्ष का साक्षात उपाय है ‘मैं’ छोड़कर दूसरों को क्षमा करना
     
    पर्युषण पर्व पर आज के अतिथि संपादक आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज...
    उन्होंने कहा, पयुर्षण जीवन को सर्वोत्तम तरीके से जीने की कला सिखाने वाले 10 लक्षणों काे व्यवहार में उतारने का पर्व
     
     
    पर्युषण पर्व मोह की नींद में सोए लोगों के लिए सबक लेकर आया है। इन दिनों संसार के मूल कारण- आठ कर्म छूट जाते हैं। कहा भी है- 

    पर्वराज यह आ गया, चला जाएगा काल।
    परंतु कुछ भी ना मिला, टेढ़ी हमारी चाल॥
     

     


    हमारी चाल टेढ़ी है, पर्वराज न आता है, न जाता है। हम चले जा रहे हैं। हमें सांसारिक संबंधों से छुट्टी लेनी है, परिश्रम से नहीं। आचार्यों ने वस्तु के स्वभाव को धर्म बताया है। दस प्रकार के क्षमादि भावों को धर्म कहते हैं। धर्म, अधर्म, आकाश और काल भी वस्तु है। सभी का अपना स्वभाव ही उनका धर्म है। तो आज हम कौन से धर्म का पालन करें, जिससे कल्याण हो।
    स्वभाव तो हमेशा धर्म रहेगा ही, लेकिन इस स्वभाव की प्राप्ति के लिए जो किया जाने वाला धर्म है वह है- ‘खमादिभावो या दसविहो धम्मो’- क्षमादि भाव रूप दस प्रकार का धर्म आज से शुरू हो रहा है। क्षमा धर्म के लिए आज का दिन तय है। क्षमा धर्म की बड़ी महत्ता बताई गई है। करोड़ नारियल चढ़ाने में जितना फल मिलता है, उतना फल एक स्तुति से मिलता है और करोड़ स्तुति का फल एक बार जाप से मिलता है।
    जितना फल करोड़ जाप से मिलता है, उतना एक बार मन-वचन-काय को एकाग्रकर ध्यान से मिलता है। शारीरिक-वाचनिक-मानसिक क्रिया जितनी निर्मल होती जाती है, उतना फल मिलता जाता है। कोटि बार ध्यान से जो फल मिलता है, वह एक क्षमा से मिलता है। क्षमा से बैर नहीं रखना है। मोक्ष का साक्षात उपाय क्षमा है। आप आधि-व्याधि से तो दूर हो सकते हैं, पर उपाधि से दूर होना मुश्किल है, ‘मैं’पना नहीं निकलता।
    आधि मानसिक चिन्ता को कहते हैं और व्याधि शारीरिक बीमारी है। उपाधि बौद्धिक विकार है। समाधि आध्यात्मिक है। क्षमा करने वाले अनंतचतुष्टय का अनुभव करते हैं। पर घाति चतुष्टय का क्या? वहां सुख अनंत है, यहां दुख अनंत है। आत्मा के अहित का कारण कषाय यानी राग-द्वेष जैसे अवगुण हैं। इन्हें हटाने पर ही क्षमा की सच्ची भावना आ पाएगी।
    सर्वोत्तम तरीके से जीने की कला सिखाने वाले 10 लक्षणों
     
    1. उत्तम क्षमा: क्रोध- बैर छोड़कर सभी से क्षमा मांगना और क्षमा करना; उत्तम क्षमा है। 2. उत्तम मार्दव: सब मैं करता हूं- यह सोच अहंकार है। इसे छोड़कर नम्र होना मार्दव धर्म है। 3. उत्तम आर्जव: मन की बात सुनना यानी मन, वचन, कार्य से एक हो जाना आर्जव धर्म है।  4. उत्तम शौच: शुचिता को शौच कहते हैं। मन को निर्मल बनाने का प्रयास उत्तम शौच है। 5. उत्तम सत्य: जो सत्य पर अटल, वो साधक है। ईश्वर को अंतिम सत्य मानना उत्तम सत्य है। 6. उत्तम संयम: स्वस्थ, संतुलित सोच के लिए नियंत्रित जीवन जीना उत्तम संयम है। 7. उत्तम तप: जीवन का सार तप है। भीतर की अपार संभावनाओं को पहचानना उत्तम तप है। 8. उत्तम त्याग: आधी आय परिवार, एक चौथाई आपत्ति के लिए, एक चौथाई दान उत्तम त्याग है। 9. उत्तम आकिंचन्य: कुछ भी मेरा नहीं है, ऐसा व्यवहार और भाव रखना उत्तम आकिंचन्य है। 10. उत्तम ब्रह्मचर्य: ब्रह्म का अर्थ है आत्मा और आत्मा को जानने की कोशिश है ब्रह्मचर्य।   आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ( आचार्य श्री मध्यप्रदेश के नेमावर में चातुर्मास कर रहे हैं)
     
     
     
     


     
  4. Vidyasagar.Guru
    प्रतियोगिता लिंक (गूगल फ़ॉर्म)
    https://docs.google.com/forms/d/e/1FAIpQLSd6rVQgCHej-e56hZiaBYz-7n_pBaednMb-_zBZRi02WgkY-w/viewform?usp=sf_link
     
    उत्तर प्राप्त सूची 
    https://docs.google.com/spreadsheets/d/16caAVuvusGIWxBDhHAEK2LZQbND1GTLzVtubOWGYD1k/edit?usp=sharing
     
     
  5. Vidyasagar.Guru
    *नेमावर से गौरझामर के बिहार के समय, बापौली धाम, फरवरी 2015*
    VID-20190327-WA0060.mp4
     
    *आहार चर्या के लिए यह स्थान निश्चित किया गया था, महंत जी के विशेष आग्रह पर संघ सहित गुरु जी ने उस आश्रम के अंतरंग परिसर में प्रवेश किया एवं आहार हेतु उठने के पहले की जाने वाली भक्तियॉ वहीं पर बैठ कर सभी मुनि महाराजों ने की, इसी दौरान महंत जी सहित सभी शिष्यों ने आचार्य महाराज का पाद प्रक्षालन एवं पुष्पमाला आदि से भक्ति पूजन संपन्न किया।*
    *लाल वस्त्रों में जो स्वामी जी हैं उनका 12 वर्ष से मौन था एवं आश्रम परिसर से बाहर भी नहीं निकले थे परंतु गुरु जी से उन्होंने चर्चा की एवं छोड़ने आश्रम परिसर से बाहर भी निकले थे।*
    इस आश्रम में 50 गिर गाय हैं एवं उन कि सेवा में 12 व्यक्ति (4 व्यक्ति 8 घंटे के लिए) सेवा में रहते हैं (ताकि गोबर आदि के हो जाने पर तुरंत ही उसकी सफाई की जा सके) एवं ये स्वामी जी रात्रि 11:00 बजे से सुबह 3:00 बजे तक यहां ध्यान मुद्रा में स्वयं बैठते हैं।
    उस परिसर में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है।
    *वीतरागी संत के आगे सभी साधक गण नतमस्तक होते हैं*
    यह उस क्षण का एक दुर्लभतम वीडियो है (2:55 मिनट)।
  6. Vidyasagar.Guru
    अभी अभी डोंगरगढ़ मे हुआ परिणाम घोषित 
     
     
     
     

     
     
     
     
    ज्ञान सागर जी प्रश्न प्रतियोगिता अंक तालिका .pdf
  7. Vidyasagar.Guru
    आचार्यश्री ने कहा धन को गाड़ना नहीं उगारना उन्होंने कहा ललितपुर में आज बहुत बदलाब आ गया है पंचकल्याणक के पात्रों का हुआ चयन विनोद कामरा सौधर्मेन्द्र और ज्ञानचंद्र इमलिया बने कुबेर आचार्यश्री के बुंदेली भाषा में प्रवचन सुन श्रोता हुए लोटपोट नगर में बह रही है धर्म की बयार
    ललितपुर- नगर के स्टेशन रोड स्थित क्षेत्रपाल मंदिर में विराजमान संत शिरोमणि राष्ट्र संत आचार्य श्री विद्यासागर जी मुनिराज के दर्शनों के लिए निरंतर तांता लगा रहता है। हजारों की संख्या में जहां नगर के श्रद्धालु क्षेत्रपाल मंदिर में मौजूद रहते हैं वहीं देशभर से बड़ी संख्या में श्रद्धालु उनके दर्शनों के लिए पहुँच रहे हैं। गुरुवार को प्रातः विशाल धर्म सभा का आयोजन किया गया जिसमें सर्वप्रथम मंचासीन त्यागी व्रतियों ब्रह्मचारी भैयागणों ने आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज के चित्र का अनावरण कर दीप प्रज्ज्वलन किया।

    इसके बाद आचार्यश्री की पूजन भक्ति संगीत के साथ की गई। पूजन करने का सौभाग्य जैन पंचायत समिति और पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव समिति के सभी पदाधिकारियों को प्राप्त हुआ। आचार्यश्री के पाद प्रक्षालन का सौभाग्य बड़ा जैन मंदिर के प्रबंधक वीरेंद्र जैन प्रेस परिवार और अटा जैन मंदिर के प्रबंधक भगवानदास संतोष जैन राजेश जैन कैलगुवा परिवार को प्राप्त हुआ वहीं शास्त्र भेंट करने का सुअवसर प्रदीप कुमार प्रसन्न जैन नौहरकला परिवार तथा जैन पंचायत के अध्यक्ष अनिल अंचल परिवार को प्राप्त हुआ।

    आचार्यश्री ने आज के अपने मंगल प्रवचन की शुरुआत बुंदेली भाषा से जैसे ही की धर्मसभा में उपस्थित हजारों श्रद्धालुओं ने तालियों की आवाज गुंजायमान कर दी। आचार्य विद्यासागर जी महाराज ने कहा की तनक-सो का अर्थ क्या होता है? पता है न आपको। इसका अर्थ होता है थोड़ा-सा। अपने स्वभाव की ओर देखना है वह न तनक सा है न मनक सा। उसकी जिसको भनक होती है वही देख सकता है। लोहा और स्वर्ण का उदाहरण देकर समझाते हुए उन्होंने कहा कि लोहा एक धातु है और स्वर्ण भी एक धातु है, लेकिन दोनों में अंतर बहुत है। लोहा कीचड़ में गिर गया तो गया। वैसे ही हमें जैसा हवा पानी मिल जाय तो सब अपना रूप बदलना प्रारंभ कर देते हैं। कीचड़ में गिरा वह लोहा जंग खा जाता है। उसके बाद उसकी दशा बुरी हो जाती है क्योंकि वह पर को अपनाता है। जो मोह के साथ रहता है वह न तो  स्वयं में रहता है न ही पर में  रहता है।
    सोना गाड़ के रख देते हो तो उसे कुछ भी नहीं होता है। क्योंकि वह दूसरों को पकड़ता नहीं है। लोहे की दशा विपरीत है इसलिए उसमें जंग लग जाती है और अंततः वह नष्ट हो जाता है। अब आप ही बताओ कि सोने के हो या और किसी धातु के। भगवान के ऊपर आप धारा पीतल के कलश से करो , चांदी से करो या तनक सी सोने की लुटिया से करो। सभी दर्शक यह सुनकर मुस्करा उठते हैं। उन्होंने दर्शकों से पूछा भगवान को खुश करना बहुत कठिन है न। हम यह समझते हैं  भगवान हम से राजी हो जाएं , वह किसी से न राजी होते हैं न नाराज ।

    ललितपुर मैं 32 वर्ष पूर्व अपने प्रवास का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि आज बहुत बदलाब आ गया है। पहचान मुश्किल है। क्षेत्रपाल मंदिर में विराजमान अभिनन्दन भगवान का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि उनके सामने पहुँचने पर ऐसा लगता है जैसे कोई पंचकल्याणक हो रहा हो। उन्होंने कहा कि आगे के लिए कमाई हो रही है।उन्होंने चंचला लक्ष्मी (धन) की ओर इशारा करते हुए कहा कि गाड़ना नहीं उगारना। उन्होंने कहा इससे भक्त तो बन जाओगे लेकिन भगवान नहीं बन पाओगे। उन्होंने उपस्थित श्रद्धालुओं से मुस्कराते हुए  पूछा कि आप लोगों को भगवान बनना है न। तो एक स्वर में आवाज आई हां। इस पर आचार्यश्री ने मंद-मंद मुस्कराते हुए बुंदेली भाषा में पूंछा-ऊसई-ऊसई की सई में। तो जनसमुदाय ने जबाब दिया सई में यानी सही में भगवान बनना है।

    इस अवसर पर अपर जिलाधिकारी योगेन्द्र बहादुर  एवं सपा जिलाध्यक्ष ज्योति कल्पनीत भी प्रमुख रूप से उपस्थित रहे। नगर के पत्रकार बंधुओं ने भी बड़ी संख्या में अग्रिम पंक्ति में  बैठकर धर्मलाभ लिया। इस दौरान दानवीर, भामाशाह आर. के.मार्बल समूह के मुखिया अशोक पाटनी मदनगंज-किशनगढ़ राजस्थान, अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी के नव निर्वाचित अध्यक्ष प्रभात जैन, राजा भाई सूरत, पारस चेनल के चेयरमैन पंकज जैन , दिल्ली, विनोद बड़जात्या, कवि चन्द्रसेन भोपाल, केलिफोर्निया से आये प्रदीप कुमार, प्रदीप छतरपुर, मुकेश जैन ढाना सागर और  जिनवाणी चेनल के चेयरमैन आदि बाहर से आये समाज श्रेष्ठियों ने आचार्यश्री के चरणों में श्रीफ़ल समर्पित कर आशीर्वाद लिया।
    संचालन प्रतिष्ठाचार्य ब्र. विनय भैया जी व  ब्र. सुनील भैया जी  ने किया। आहारचर्या के दौरान चौका लगाने वालों में  भारी उत्साह देखा गया। नगर में आज 320 चौके लगाए गए थे जो एक रिकार्ड है।आज आचार्यश्री के आहार कराने का सौभाग्य नरेंद्र जैन छोटे पहलवान परिवार को प्राप्त हुआ। अतिथियों का स्वागत स्वागत अध्यक्ष  नरेन्द्र कड़ंकी, संयोजक प्रदीप सतरवांस, क्षेत्रपाल मंदिर के प्रबंधक द्वय मोदी पंकज जैन पार्षद, राजेन्द्र जैन,  कैप्टन राजकुमार जैन आदि ने किया। 

    श्रीजी का वार्षिक विमानोत्सव शुक्रवार को : जैन पंचायत के अध्यक्ष अनिल अंचल व महामंत्री डॉ. अक्षय टडैया ने बताया कि 23 नवंबर को प्रति बर्ष की भांति इस वर्ष भी श्रीजी की वार्षिक विमान यात्रा भव्य रूप में आचार्य श्री विद्यासागर जी के ससंघ सान्निध्य में प्रातः 6 बजे से निकाली जाएगी। नगर के सभी मंदिरों से श्रीजी के विमान अपने स्थान से प्रारंभ होंगे। श्रीजी की शोभा यात्रा घंटाघर, तुवन चौराहा, वर्णी चौराहा होते हुए क्षेत्रपाल जैन मंदिर पहुँचेगी। आयोजन को लेकर भव्य तैयारी की गई है।

    पंचकल्याणक के पात्रों का हुआ चयन : आचार्यश्री के सान्निध्य में ब्र. विनय भैया के निर्देशन में 24 नवम्बर से दयोदय गौशाला मसौरा परिसर  में होने जा रहे पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं गजरथ महोत्सव के पात्रों का चयन दोपहर में किया गया । जिसमें सौधर्म इंद्र बनने का सौभाग्य विनोद कुमार, देवेंद्र कुमार, मुकेश, राकेश, सुनील कामरा परिवार को प्राप्त हुआ। कुबेर बनने का सौभाग्य ज्ञानचंद्र, संतोष कुमार, सुनील कुमार समस्त इमलिया परिवार को मिलेगा। महायज्ञनायक सेठ शिखरचंद्र , सुभाष, सुरेन्द्र , लोकेश कुमार सराफ किसलवास परिवार व राजा श्रेयांस वीरचन्द्र , विपिन कुमार सराफ न्यू नूतन ज्वेलर्स परिवार को प्राप्त हुआ।

    मूलनायक मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमा पहुँची क्षेत्रपाल मंदिर : गौ शाला में नव निर्मित मंदिर में प्रतिष्ठित होकर विराजमान होने वाली मूलनायक मुनिसुव्रतनाथ की प्रतिमा आज क्षेत्रपाल मंदिर पहुँची, जहां भगवान को निहारने, दर्शन के लिये भक्तों की भीड़ उमड़ पड़ी। प्रतिमा की प्रतिष्ठा पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में होगी।
     

  8. Vidyasagar.Guru
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  9. Vidyasagar.Guru
    प्रतियोगिता क्रमांक 2 में भाग लेने के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें 
    https://docs.google.com/forms/d/e/1FAIpQLSczBH5P00kxUFoWAwGnuVHlPFz4Ti9pBNr01wbDpd1SfsEm8w/viewform?usp=sf_link
     
     

     
     
     
     
    तीन उपहार 
     

  10. Vidyasagar.Guru
    विहार के दौरान कल बड़नगर में मनेगा दीक्षा दिवस। हजारों भक्त होंगे शामिल।
    आचार्यश्री जी मंगल विहार अपडेट
    6 जुलाई, शनिवार, अपरान्ह काल।

    परम् पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ का मंगल विहार जबलपुर से श्री नेमावर जी/ इन्दौर की ओर चल रहा है। कल 7 जुलाई रविवार को तिथि अनुसार परम पूज्य आचार्य भगवन का 52वा दीक्षा दिवस समारोह अत्यन्त भक्तिमय रूप में मंगल विहार मार्ग में ही पड़ने बाले बड़नगर में मनाया जावेगा।
     
    संगस्थ बाल ब्रह्मचारी श्री सुनील भैया जी ने बताया कि कल इस आयोजन में शामिल होने एवम आचार्य भगवन को इन्दौर की ओर ही विहार करने का निवेदन कर अपनी भक्ति प्रदर्शित करने हेतु इन्दौर से 35 बसों एवम अन्य छोटी बाहनों से लगभग 2000 यात्रियों के आने की सम्भावना है। ज्ञातव्य है कि पूज्य आचार्यसंघ का मंगल विहार, ऐसे मार्ग पर चल रहा है जहाँ से नेमावर जी या इन्दोर अथवा नेमावर होकर इन्दौर, दोनों स्थानों की भी सम्भावना बन सकती है। पूज्य गुरुदेव अनियत विहारी है आगे-आगे देखिए किनका पुण्य जागृत होता है।
     
    आज रात्रि विश्राम - बोरखेड़ी
    कल आहार चर्या - बड़नगर
    सम्भावित विहार दिशा - नेमावर/ इन्दौर

    साभार - अनिल जैन बड़कुल, ए बी जैन न्यूज़ समूह
     
    52 वाँ दीक्षा दिवस - 
    वृक्षारोपण महोत्सव -
    नमोस्तु लिख कर विनयांजलि अर्पित करें 
     
    #गुरुजी_का_दीक्षा_दिवस       #हरियाली_से_विनयांजलि
     
  11. Vidyasagar.Guru

    युगद्रष्टा
    आदिम युग के प्रजापति, आदि मानव, आदि तीर्थाधिपति, आदि स्रष्टा वृषभदेव राजा के राज्यमण्डप में प्रतिदिन की भाँति इन्द्र उपस्थित हुआ और प्रभु को भक्ति भाव से प्रणत हो, उनके चित्त को प्रसन्न करने की आज्ञा चाहता है। समुद्र से महा गम्भीर, तीर्थङ्कर की वाणी का मुखरित होना जब युवराज पद में भी दुर्लभ है, अरिहन्त पद हो तो बात ही क्या? पर इन्द्र आया है अपने अनन्य अन्य देवों के साथ, अनेक अप्सराओं को लिए, उसको नाराज करना प्रभु को मुमकिन न था। अरे! जब महापुरुष निर्बल, असहाय, साधारण प्रजा जन के मन को भी प्रसन्न रखते हैं तो फिर यह तो देवलोक का प्रधान इन्द्र है और हमारी प्रसन्नता में ही अपने को भाग्यवान समझता है, शायद यही सोचकर वृषभ राजा मुस्कुराए और इन्द्र ने इस इशारे को स्वीकृति समझा। पर लोग सोचते हैं कि ये उसी भव से मोक्ष जाने वाले हैं और किसी की बात को इतनी जल्दी मंजूरी नहीं देते जितनी कि इन्द्र की। इन्द्र का ही दिया भोजन, आभूषण, वस्त्र आदि स्वीकार करते हैं, इस विशाल भूमण्डल पर भी अनेक सुन्दर ललनाएँ हैं, उनके नृत्य को देखना पसन्द नहीं करते हैं, मात्र इन्द्र की लायी अप्सराओं का ही। अरे! नाभिराज तो कहने के लिए पिता हैं और मरुदेवी जननी मात्र होने से माता। पर इनका सारा ख्याल तो यह इन्द्र और इन्द्राणी रखते हैं, खैर; हमारे लिए तो सौभाग्य की बात है कि हमारे पालन करने वाले वो महामानव हैं कि जिनके जन्म के पहले से रत्न की बरसात होती थी, इन्द्र जन्माभिषेक के लिए मेरुपर्वत पर प्रभु को लेकर गया और प्रतिदिन यह आकाश इन्द्रों की बारात से ऐसा सुशोभित होता है कि लगता ही नहीं कि धरती यहाँ है और आकाश ऊपर है।
     
    इधर यह विचारों का द्वन्द और उधर इन्द्र का आदेश, एक साथ वातावरण बदल गया, लोगों को और कुछ सोचने के लिए अवकाश नहीं, सबका चित्त उस लय में लवलीन । अहो यह अलौकिक संगीत है एक साथ करोड़ों वाद्यों का एक लय में बजना प्रत्येक वाद्य की आवाज अलग अलग सुनना चाहें तो वो भी सुन सकते हैं। बस! हमें मन लगाने की जरूरत है, इन ध्वनियों का आरोहण-अवरोहण ऐसा कि मर्त्यलोक के मानवों द्वारा असम्भव है, यह राग का आलाप, पदों की थिरकन, कब, कौन-सा हाथ किस अंग पर पहुँच जाता है पता नहीं, कभी वह पैर कान के पास, तो कभी-कभी पैर आकाश में ऐसे फैलते मानो कि आकाश में बिजली चमकती, लहराती चली गयी हो, समझ से परे यह नृत्य जादूगर की तरह कला बाज है, ललाट का ऊपर उठना, भ्रू का कटाक्ष, नयनों की चंचलता, हेमकलशों का उघड़ना, कटि का घुमाव, नाभिस्थल का हिलोरें लेना, भुजाओं और पदों का अन्तर ही नहीं समझ पाना, ग्रीवा का घूमना, संगीत के अनुरूप भाव, रस और लय की एकाग्रता, यह सब कुछ अलौकिक है, जो लौकिक पुरुष के लिए सम्भव नहीं क्योंकि विक्रिया का यही तो वैभव है। जनमानस की नीली आँखों में वह नीलाञ्जना नर्तकी तो अञ्जन की तरह लगी रही, मानो उस सुरी को देखने के लिए अनिमेष पलक लगाये, ये मनुष्य नहीं सुर ही हैं। उस नृत्य ने भगवान् के मन को अनुरञ्जित कर दिया, भगवान् का मन तो बहुत विशुद्ध है पर राग की लालिमा में भी अवगाहित है। स्फटिक मणि के नीचे जपापुष्प रखा हो और मणि लाल न हो यह तो असम्भव है, उन सरागी प्रभु का यह राग ही तो जनमानस को उनसे अनुराग करने को मजबूर कर देता है और अचानक नर्तकी बदल गयी, सब लोग देख रहे थे, कोई भी न सोच पाया कि नर्तकी विलीन हो गयी इस देवलोक से, धन्य है यह सम्यग्दृष्टि, जो राग के प्रसंग में भी इतना सावधान और सूक्ष्मदृष्टि रखता है, लोगों का आनन्द अजस्र चल रहा है पर वह हल्की-सी रेखा की तरह भंग हुआ असुख भी सहन नहीं हुआ, क्या बदला है, कुछ भी तो नहीं, वही पृथ्वी, वही इन्द्र, वही अप्सरा का विलास, वही दरबार, वही नृत्य का क्रम, संगीत की वही लय, वही रस है, पर उस ज्ञानी के अन्तस् में वह छोटी लकीर, भेदविज्ञान की एक विराट लकीर खींच गयी।

    इन्द्र उस नृत्य को नहीं देख रहा है। वह प्रभु के मनोभाव उनके मुख कमल से जान रहा है, आज पहली बार जन्म के बाद उस मुख कमल को ऐसा देखा जो और लोगों के लिए देख पाना असम्भव। प्रभु का अन्तस् तो सदा एक-सा, पर आज प्रभु ने कुछ अलग ढंग से इन्द्र को देखा और प्रभु इन्द्र के भाव को समझ गए, अरे! इतना प्रयास हमारे लिए करना पड़ा, मैंने आज फिर गलती की, चर्मनेत्र तो खुले के खुले ही रहे पर अन्तस् में अवधिज्ञान का नेत्र स्फुरित हो गया, मैं इन विषय भोगों में ही खो गया, मैं कौन हूँ ? मेरा क्या कार्य है? और मैं क्या कर रहा हूँ ? मुझ जैसे को भी समझाने के लिए यह प्रसंग रचा गया ठीक ही तो है यह इन्द्र का विवेक है, कभी भी महापुरुष को आमने-सामने, तानन-फानन वचनों से नहीं समझाया जाता। महान् आत्मा भी कभी-कभी गलती करते हैं पर उनको समझाने वाले भी महान् होते हैं। असंयम मार्गणा में भी संयमी-सा जीवन जीने वाले उन प्रभु को असंयम के साथ समझाना अविवेक होगा इसीलिए धैर्य धारण कर इन्द्र ने अपने विवेक का परिचय दिया, आज मैं दुनिया की नजरों में भले ही तीन ज्ञान का धारी, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, दूरद्रष्टा, आदि नायक हूँ पर मैंने वह गलती अभी भी नहीं सुधारी जो मैंने दश भव पूर्व की थी।
     
    हाँ! हाँ! दशभव पूर्व में! जम्बूद्वीप में मेरुपर्वत से पश्चिम दिशा की ओर विदेहक्षेत्र में एक गन्धिला नाम का देश है उसमें सिंहपुर नाम का नगर है, उस नगर में एक श्रीषेण नाम का राजा था उसकी स्त्री सुन्दरी थी, उसके दो पुत्र थे, उनमें ज्येष्ठ पुत्र जयवर्मा था और छोटा भाई श्रीवर्मा । यह बड़ापन और छोटापन तो जन्म की अपेक्षा से है वस्तुतः गुणों से व्यक्ति बड़ा और छोटा होता है। छोटा पुत्र सुभग था, जो स्वभाव से ही सबको प्यारा लगता था। उसकी क्रीड़ा भी मन को प्रसन्न करती थी, उसका उत्साह, प्रज्ञा, कमनीयता आदि गुण ऐसे थे जो बड़े भाई में भी न थे। जयवर्मा को लगता था कि माता-पिता श्रीवर्मा का ही ज्यादा ख्याल रखते हैं, उसे ही ज्यादा प्रोत्साहित करते हैं। परस्पर में कुछ अलग व्यवहार देखकर किसी को ठेस पहुँचती है, तो कोई खुश होता है। वस्तुतः कोई भी व्यक्ति अपने आप को निर्गुण नहीं समझता है प्रत्युत दूसरे के गुण भी उसे दोष दिखते हैं और ऐसी स्थिति में मात्सर्य भाव अवश्य पैदा होता है। छोटे भाई के प्रति अनुराग तो था ही ऊपर से पिता ने राज्यपाट भी श्रीवर्मा को दे दिया। जयवर्मा से रहा न गया, वह अपने दुर्भाग्य को कोसता हुआ घर से निकल गया। संयोग से उसे स्वयंप्रभ नाम के एक निर्ग्रन्थ गुरु मिले। गुरु को देखकर उसे कुछ सम्बल मिला। व्यक्ति को दुःख के समय जिस किसी की सहानुभूति मिले वही उसका परम मित्र होता है। संसार की स्थिति से उसे कुछ वैराग्य तो हुआ पर वह वैराग्य नहीं वस्तुतः जीवन के प्रति निराशा थी। निराशा और वैराग्य में बहुत अन्तर होता है। दोनों में भेद कर पाना प्रत्येक व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं। मन दोनों में उदास हो जाता है, मुख भी कुछ फीका पड़ जाता है पर बाद में दोनों में क्या अन्तर है यह रहस्य खुलता है। निराशा जब बढ़ती जाती है तो व्यक्ति बेचैन हो जाता है, आलसी हो जाता है और परेशानसा रहता है जब तक कि कोई आशा की किरण न फूटे पर वैराग्य ठीक इससे विपरीत है। वैराग्य जैसे-जैसे बढ़ता है व्यक्ति की सांसारिक कामनाएँ छूटती जाती हैं और नित प्रतिदिन आनन्दित होता हुआ अनाकुल चित्त हो जाता है। वैराग्य के साथ यदि ज्ञान का पुट भी हो तो मुक्ति उसके हाथ में है। उसने गुरु महाराज से दीक्षा ले ली और निर्ग्रन्थ श्रमण बन गया। सच कहता हूँ-गुरुकुल में रहे बिना ब्रह्मचर्य व्रत दृढ़ नहीं हो सकता और शास्त्रज्ञान बिना भोगों की रुचि नहीं छूट सकती। अभी जयवर्मा नव दीक्षित था; कि एक दिन आकाश में उसने एक विद्याधर को बड़े ठाट-बाट के साथ गमन करते देखा और उसका सोया हुआ भोग रूपी सर्प जाग गया, फल यह हुआ कि उस सर्प ने तात्कालिक वैराग्य को डस लिया, नशा चढ़ गया और भोगों की चित्त में तीव्राकांक्षा हुई, मुझे भी भगवन् ऐसा ही वैभव मिले, विलासता मिले। मन मूर्च्छित हो गया था, निदान बंध हो चुका था। काल की बलिहारी कि, बाहर से भी एक भयंकर सर्प बिल से बाहर निकला और उसके तन को डस लिया। प्राण पखेरू उड गए पर भोग का वह भाव साथ गया और फलित हुआ। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं जिस निर्ग्रन्थता को पाकर व्यक्ति तीर्थङ्कर, चक्रवर्ती, इन्द्र जैसे पदों के लिए पुण्य उपार्जन करके मोक्ष को प्राप्त होता है, उससे उसने विद्याधर का पद पाया। अरे! मणि को बेचकर धूल खरीदना कौन आश्चर्य की बात है, प्रत्युत मूढ़ता की बात है। कोई बात नहीं थोड़ी देर के लिए ही सही, कोई भी अच्छा संस्कार, अच्छा भाव ही देता है बशर्ते कि भवितव्यता अच्छी हो। गलती तो हर कोई करता है पर गलती करके सुधर जाने वाला महान् होता है। भगवान् बनने वाली आत्मा भी धीरे-धीरे विकास पथ पर आरूढ़ है।
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    अगर हां तो शुरू करे प्रयास - नीचे कमेंट में लिखे - हां मुझे वेबसाइट पर लॉग इन करना आ गया हैं - और में सामूहिक स्वाध्याय करना चाहता हु |
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    "जैनाचार्य 108 विद्या सागर स्वर्ण संयम कीर्ति स्तंभ"
    स्थान - अतिशय क्षेत्र करगुवा जी झांसी 
    लोकार्पण दिनांक - 2 अक्टूबर 2017
    प्रेषक - सुमत कुमार जैन,(अछरोनी वाले ) झांसी
    पुन्यार्जक - सुमत कुमार जैन, शीला जैन 
    लागत राशि - २४००००







     
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    आचार्य भगवन श्री 108 विद्यासागर जी महाराज जी के ससंघ खुरई में विराजमान है आज उनके सानिध्य में समस्त जैन समाज ने आचार्य भगवन का आशीर्वाद प्राप्त किया और आचार्य श्री के आशीर्वाद से बनेगा 126 फुट ऊँचा सहस्त्रकूट जिनालय बनने की हुई घोषणा और यह सौभाग्य विजय कुमार जी,संजय कुमार जी,विजय फाउंड्री वाले समस्त खुरई परिवार वाले को नींव से लेकर शिखर तक जिनालय बनाने का सौभाग्य प्राप्त हुआ 
     
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    खालीपन, खुलापन, भरापन और भारीपन
    पुराने जमाने की बात है। एक श्रेष्ठीपुत्र पिता की आज्ञा से व्यापार के लिए परदेश गया। पिता ने व्यापार के लिए आवश्यक हिदायतें दी और जाते समय उसे कुछ खाली पीपे देते हुए कहा- बेटे तू व्यापार के लिए जा रहा है, पैसे कमाएगा, रास्ते में समुद्री मार्ग आएगा कुछ परेशानियाँ, व्यवधान आ सकते हैं इन पीपों को अपने साथ रखना। सारे पीपे ऊपर से सील्ड पर अंदर से खाली थे। वह व्यापार के लिए गया, काफी पैसा कमाया, खूब धन संग्रह करके जब वह अपने घर लौट रहा था तो रास्ते में समुद्र में भेंवर उठी, नाव का संतुलन बिगड़ने लगा। नाविक ने कहा कि नाव के भार को कम करो। युवक ने सोचा क्या करें? नाव को खाली करने की बात आई तो उसने जितने खाली पीपे थे सब फक दिए। भरे पीपे नाव में ही अपने पास रखे रहा। खाली पीपे फक दिए और भरे पीपे अपने पास ही रखने से नाव का भार बढ़ा और वह नाव डूब गई, उसका जीवन बबाद हो गया। काश उसने खाली पीपे रखे होते तो उनके माध्यम से वह समुद्र को पार भी कर सकता था। उसे इस रहस्य का पता बाद में चला कि खाली पीपे तो तैरते हैं और भरे पीपे डूब जाते हैं। काश! मैंने एक भी पीपा बचा रखा होता तो उसके सहारे इस पार से उस पार हो जाता।
     
    खालीपन यानी आकाश जैसी उन्मुक्तता
    बंधुओं! मैं आपसे केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि संसार से पार उतरना चाहते हो तो खाली पीपा बनी, पीपे को खाली रखी, खाली होना जरूरी है और इसी खालीपन का नाम है आकिञ्चन्य।
     
    आज के चार शब्द हैं- खालीपन, खुलापन, भरापन और भारीपन। आकिञ्चन्य का मतलब है खाली हो जाना। खाली होने से अभिप्राय क्या है? जब सब कुछ त्याग दिया फिर उसके बाद बचा क्या? सर्वस्व त्यागने के बाद क्या बचा? निश्चित रूप से बाहर से त्यागने के बाद कुछ भी नहीं बचा लेकिन सब कुछ त्याग देने के बाद भी बहुत कुछ बचा रहता है। बाहर का त्याग पर्याप्त नहीं है। बाहर के त्याग के बाद भी हमारे भीतर बहुत कुछ भरा रह सकता है। जब तक हम अपने भीतर की खाली नहीं करते तब तक जीवन में आनन्द की अभिव्यक्ति नहीं होती। सब त्यागने के बाद अब कुछ त्यागने की बात क्यों?
     
    आकिंचन्य बहोत उछ भूमिका की बात है मेने त्याग दिया लेकिन त्यागने के बाद भी मन में ये भाव आ सकता है कि मैंने हाथी छोड़े, रतन छोड़े, निधियाँ छोड़ीं, वैभव छोड़ा। तेरा था क्या जो तूने छोड़ा है? छोड़ने के बाद भी यदि तू कहता है कि मैंने छोड़ा यानि तू पकड़े हुए है, अभी खाली नहीं हुआ है। सब त्याग देने के बाद भी; और कुछ नहीं तो जिसे त्यागा है उस त्याग का ममत्व बना रहता है। त्याग के बाद त्याग के ममत्व के त्याग का नाम आकिञ्चन्य है। पूरी तरह खाली हो जाना। अध्यात्म की साधना का चरम रूप आकिञ्चन्य है। मेरा कुछ भी नहीं है ये अनुभूति ही मेरे जीवन का यथार्थ है। जब मेरा कुछ है ही नहीं तो मैं छोड़ें कैसे? त्याग देने के बाद भी त्याग के प्रति राग हो सकता है या त्यागी के मन में राग हो सकता है। बाहर से कुछ नहीं है पर भीतर से सब भरा है। यहाँ सब धोती-दुपट्टे में हो, किसी की भी जेब नहीं है, अभी एक पैसा भी तुम्हारे पास नहीं है, जिनकी जेब है उसमें भी दो-चार-दस-बीस-पचास हजार होंगे, उससे ज्यादा नहीं। अगर देखी तो अभी कुछ भी नहीं है, क्यों गणेश जी अभी एक पैसा भी नहीं है पर करोड़पति हो कि नहीं? एक भी पैसा नहीं है लेकिन सभा में विराजमान करोड़पति अपने आप को करोड़पति मान रहा है क्योंकि मन तो जुड़ा हुआ है। मैं कौन हूँ, मेरा स्टेटस क्या है, मेरे पास कितनी सम्पति है, मेरा कितना वैभव है ये सब मन में है कि नहीं? ये सब बाते मन में बैठी हैं यानि बाहर से छोड़ने के बाद भी मन में बहुत कुछ है और जब तक मन में ये बात बैठी है तब तक आप भरे हो। जब तक भरे हो तब तक भारी हो। अपने मन को खाली करो।
     
    अकिचनत्व की अनुभूति वही कर सकता है जिसे अपने आत्मा के स्वरूप का ज्ञान होता है। त्याग बहुत उच्च साधना है। लोग त्याग भी दो प्रकार से करते हैं एक में पर को त्यागते हैं पर परवस्तु को अपना मानकर त्यागते हैं। मैंने त्यागा, मैंने दान दिया, मैंने अपना इतना रुपया इस कार्य में लगाया -ये तुमने कहा। आकिञ्चन्य धर्म भीतर तक का ऑपरेशन करता है। वह कहता है अपने शब्दों को सम्हाल कर बात करो, तुमने 'अपना" क्यों लगाया? तुमने अपना लगाया; तेरा था क्या, लेकर क्या आया था, इस दुनिया में जब आया था तो क्या लेकर आया था, ये बैंक बैलेन्स क्या तू साथ में लेकर आया था, ये धन-दौलत क्या तू साथ में लेकर आया था, क्या लेकर आया था? बोलो। कुछ भी लेकर नहीं आए थे, यहाँ से जाओगे तो क्या लेकर जाओगे? न कुछ लेकर आए हो न कुछ लेकर जाओगे। फिर भी कहते ही मैंने अपना रुपया लगाया; तेरा है क्या? ये शरीर तेरा नहीं तो ये सम्पति तेरी कैसे हो सकती है। गहराई में जाने की बात है। मेरा है क्या जो मैंने दिया? ये तो तेरा अज्ञान है, तेरा मिथ्या अहंकार है कि तू पराई वस्तु पर अपनी मालकियत थोप रहा है। कोई व्यक्ति दूसरों की सम्पति पर अपनी मालकियत थोपे तो उसको आप क्या कहोगे? महाराज! किसी कमजोर को सम्पत्ति पर मालकियत बलवान आदमी को सम्पत्ति हो तो? मान लीजिए कोई व्यक्ति प्राइम मिनिस्टर ऑफ इण्डिया(भारत के प्रधानमन्त्री) की सम्पति को अपनी सम्पत्ति मानकर उसका गर्व करे तो आप क्या कहोगे? इसको आगरा भेजना पडेगा और क्या कहेंगे। पास में तो आगरा ही है। यही कहोगे न कि ये पागल है, प्राइम मिनिस्टर(प्रधानमन्त्री) की सम्पति है नहीं। ये इसका अज्ञान है, यही बोलोगे न कि उसको आगरा तुम जिस सम्पति को अपना मान रहे हो वह किसकी है? बोलो किसकी है? महाराज मेरी है। तुम्हारी हो कैसे गई? तुम्हारे पास है, पर तुम्हारी नहीं है इस सच्चाई को जानो। तुम्हारे पास है, तुम्हारी नहीं है, तुमने उसे अपनी मान रखा है। जिस दिन यथार्थ का ज्ञान होगा उस दिन तुम्हें समझ में आ जाएगा भैया ये मेरी नहीं है, मेरे पास है।
     
    कौन ऊँचा मालिक या मुख्तार
    मेरी सम्पत्ति और मेरे पास की सम्पत्ति में बड़ा अंतर है। फीलिंग (अनुभूति) में अन्तर है। मान लिया कि तुम्हारे पास जो सम्पति है वह तुम्हारी है तो उस सम्पत्ति को अपने हिसाब से मेनटेन रखो, दावा करो कि जैसा मैं चाहूँगा वैसा ही होगा, ये सम्पति सदैव बनी रहेगी, स्थायी बनी रहेगी। है ऐसी सम्भावना? मेरी सम्पति मेरी बनी हुई है ऐसी आप मान्यता रख रहे हो, सच्चे अर्थों में तो तुम कह रहे हो कि ये सम्पत्ति मेरी है पर तुम्हारी नहीं है। महाराज! तो फिर किसकी है? ये सम्पत्ति कर्म की है। जब ये शरीर ही तुम्हारा नहीं तो सम्पत्ति की बात ही क्या? ये तुम्हारी नहीं है, कर्म की है। कर्म की मर्जी रहने तक तुम्हारे पास है, जिस दिन कर्म चाहेगा एक झटके में छीन लेगा। है तुम्हारे पास ताकत? है तुम्हारे पास सामथ्र्य कि कर्म की मर्जी के बिना एक क्षण भी उस सम्पत्ति को अपने पास रख सको। ये जीवन का यथार्थ है, इसे पहचानो। ध्यान रखो! सम्पति का त्याग दो तरह की मानसिकता से किया जाता है- एक व्यक्ति है जो सम्पति को अपनी मानकर त्यागता है और एक व्यक्ति है जो सम्पति को पर मानकर छोड़ता है। दोनों की मानसिकता में बहुत अन्तर होता है। जो सम्पत्ति को अपनी मानकर त्यागता है उसके मन में अभिमान भी आ सकता है, आता भी है लेकिन जो सम्पति को पर मानकर छोड़ता है उसके मन में किसी प्रकार का अभिमान नहीं आता अपितु अपने आपको दायित्व-मुक्त और निर्भार महसूस करता है।
     
    एक उदाहरण देता हु आपके यहाँ कोई व्यक्ति आया पडोसी ही पानी पीने के लिए आया, आपने उसे पानी पिलाया और पानी पीते-पीते अचानक उसका ध्यान आपके जग पर गया, जग पर उसका नाम लिखा है और वह कह रहा है भाईसाहब! ये जग आपके यहाँ कैसे आ गया, ये जग तो मेरा है। अरे! आपका है, क्षमा करना, अभी भेजता हूँ। तुरंत रिटर्न(वापिस) करोगे क्योंकि देख लिया इसका नाम है, मेरा नाम नहीं है। आपकी दुकान पर कोई भूखा आदमी आया, आपने हजार रुपया उसको दिया तो मन में क्या भाव आएगा चलो आज मैंने अपने हजार रुपये एक आदमी के काम के लिए दे दिए, एक भूखे के काम में मेरे हजार रुपये आ गए। हजार का नोट दिया, वह भी त्याग किया और जग वापस किया ये भी त्याग किया पर दोनों में अन्तर है। हजार रुपया देते समय मन में गर्व है और जग लौटाते समय लज्जा है। अन्तर है क्योंकि नोट को अपना मानकर दिया और जग को पराई वस्तु मानकर छोड़ा। आचार्य कुंद कुंद कहेते है
     
    जह णाम कोवि पुरिसो परदव्वमिण ति जाणिनुं मुयदि।
    तह सव्वे परभावे, णादूण विमुंचदे णाणी॥
    जैसे कोई व्यक्ति पर द्रव्य को पर जानकर छोड़ देता है बस वही उसका वास्तविक प्रत्याख्यान होता है। पर को पर जानकर छोड़ा, मेरा कुछ है ही नहीं, ग्रहण करने की बात बहुत उथली है। ग्रहण करना और छोड़ना बहुत ऊपर की बाते हैं। गहरी बात तो है कि मेरा कुछ है ही नहीं, सब छोड़ दो। आकिञ्चन्य यानी भीतर-बाहर से खाली हो जाना। जब खाली हो जाओगे तो निश्चिन्त रहोगे। अभी आप सब यहाँ खाली होकर बैठे हो, खाली हो इसलिए खुले हुए भी बैठे हो, निश्चिन्त हो। जिस समय आपकी जेब में कुछ रकम हो उस समय इतने निश्चिन्त बैठ पाते हो? जेब में रकम हो और मोटी रकम; जितनी मोटी रकम उतनी ज्यादा चिन्ता होती है, ध्यान वहीं जाता है, यहीं तो जेबकतरों को संकेत मिल जाता है कि माल कहाँ है। बार-बार हाथ जा रहा है जरूर जेब भरी होगी। अभी आपके पास कुछ नहीं है इसलिए निश्चिन्त हो, कुछ भी हो जाए धोती-दुपट्टा कोई क्या ले जाएगा। जो जितना खाली होता है वह उतना खुला होता है और जो जितना भरा होता है उसका मन उतना भारी होता है। खाली करने में सबसे बड़ा बाधक तत्व यदि कुछ है तो हमारे मन की आसक्ति अथवा ममता है। अंदर पलने वाली आसक्ति या ममता ही हमे इस संसार में रुलाती है, हमें उलझाती है, ये ही बंधन का कारण है। आचार्य कहते हैं
     
    बध्यते मुच्यते जीवः सममो निर्ममः क्रमात् |
    तस्मात् सर्वप्रयत्नेन निर्ममत्वं विचिन्तयेत् ||
     
    ममत्व से बन्धान, निर्ममत्व से मुक्ति
    ये जीव ममता के कारण बंधन को प्राप्त होता है और निर्ममत्व से मुक्त होता है इसलिए यदि तुम्हारे मन में मुक्ति की अभिलाषा है तो सर्व-प्रयत्नों से निर्ममत्व की प्राप्त करो। ममता या आसक्ति चार चीजों से होती है- शरीर से, सम्पति से, सामग्री से और सम्बन्धी से। शरीर से ममत्व, सम्पति से ममत्व, सामग्री से ममत्व और सम्बन्धी से ममत्व।
     
    सबसे पहला राग शरीर का राग होता है, देह को व्यक्ति अपना मानता है। देहानुराग व्यक्ति को उसके प्रति आसक्त बना देता है। निज-पर देह के साथ आसक्ति मनुष्य को अन्धा बना देती है, उसके कारण व्यक्ति बहुत दुखी होता है। इस देहासक्ति को देह की वास्तविकता के चिंतन से क्षीण किया जा सकता है। शरीर की अशुचिता का स्मरण करने वाला व्यक्ति देहासक्ति से बचता है इसलिए हमें अपनी देहासक्ति को मन्द करने का प्रयास करना चाहिए। पर क्या बताएँ शरीर के प्रति ऐसी आसक्ति होती है कि चौबीसों घण्टे व्यक्ति उसे ही सजाने-संवारने में लगा रहता है। संत कहते हैं- ठीक है; लग जाओ लेकिन इस देह की वास्तविकता का थोड़ा विचार तो करो, जिस देह के बारे में तुम सोच रहे हो, अभी जहाँ हो उससे पच्चीस-पचास वर्ष पीछे मुड़कर देखो तो तुम्हें दिखाई पड़ेगा नंग-धड़ग खेलता हुआ एक नन्हा सा शिशु, और पीछे जाओगे तो तुम्हें नजर आएगा माँ की कोख में उल्टा लटका हुआ एक विकासोन्मुखी भ्रूण और अभी जहाँ हो उससे पच्चीस-पचास वर्ष आगे बढ़कर देखो तुम्हें तो तुम्हे दिखाई पड़ेगा लाठियों के सहारे चलता हुआ, हाँपता-काँपता एक वृद्ध और थोड़े आगे बढ़ोगे तो तुम्हें दिखाई पड़ेगी एक सुलगती हुई चिता जिसमें तुम्हारा अपना ये सुंदर सलौना रूप धू-धू कर जलता हुआ प्रतीत होगा। यही है इस देह की कहानी, यही है इस काया की कथा और यही है जीवन की वास्तविकता।
    किस पर मुग्ध हो रहे हो? शरीर पर आसक्त मत हो, शरीर का उपयोग करो, ये शरीर मेरा नहीं है, ये मेरे साथ जाने वाला नहीं है, ये कभी भी विनष्ट हो जाने वाला है, इस पर आसक्ति मेरे अन्दर के अज्ञान की परिणति है। मुझे इस पर आसक्त नहीं होना है। शरीर का उपयोग करके अपने भीतर के अशरीरी तत्व को प्राप्त करना है। एक सम्यग्दृष्टि भी शरीर का उपयोग करता है और एक अज्ञानी व्यक्ति भी शरीर का उपयोग करता है। सम्यग्दृष्टि अपने शरीर को मोक्ष का साधन मानकर उसका उपयोग करता है और मिथ्यादृष्टि अपने आपको ही शरीर रूप मानकर चौबीस घण्टे उसमें ही रमा रहता है। उसकी स्थिति घोड़े की तरह होती है। जो घोड़े पर सवार होता है, जो घोड़े की सवारी करता है उसको रईस बोला जाता है करने वाला होता है, चौबीस घण्टे उस घोड़े की सेवा में लगा रहता है उसे सईश कहते हैं। सईश घोड़े की चाकरी करने वाला और रईश घोड़े का उपयोग करने वाला। आप रईस बनना पसंद करते हो या सईश बनना पसंद करते हो? रईस बनो, सईशपने को छोड़ दो। देह का उपयोग करो। देह के इस घोड़े पर सवारी करो, इसकी सेवा मत करो। जिस दिन तुम इस शरीर को पर मान लोगे उसी दिन रईसों की श्रेणी में आ जाओगे। दुनिया में तथाकथित जितने रईश लोग हैं अध्यात्मवेत्ताओं की दृष्टि में सब सईश हैं, सब चाकर हैं, गुलाम हैं। ऊपर से उनकी रईशी दिख रही है पर उनके भीतर ऐसा कुछ भी नहीं है। वह तत्व हमारे भीतर प्रकट होना चाहिए। उस तत्व को हम अपने भीतर प्रकट करें लेकिन क्या करें आखिरी-आखिरी समय तक लोगों की अपने शरीर के प्रति आसक्ति बनी रहती है। 70-70, 80-80 साल की उम्र होने के बाद भी खिजाब लगाने की आदत नहीं छूटती। आप बने हैं, दाँत गिर गए हैं, गाल बिल्कुल धस गए है लेकिन फिर भी अन्दर की ममता और आसक्ति बड़ी विचित्र होती है |
     
    एक युवक रास्ते पर चला जा रहा था। जंगली रास्ता था, अचानक धोखे से वह एक कुएँ में गिर गया, कुआँ ज्यादा गहरा नहीं था, पानी भी ज्यादा नहीं था। घुटने से नीचे पानी था। अब वह नीचे गिर तो गया लेकिन किसी की सहायता के बिना बाहर निकल पाना संभव नहीं था। कुआँ करीब 10-12 फीट गहरा था, अब साढ़े 5 फीट का आदमी उसमें से कैसे निकले? एक वृद्ध वहाँ से गुजरा, उसने देखा कि कोई युवक कुएँ में गिरा हुआ है, उसने उसकी तरफ देखकर पूछा भाई! क्या बात है तुम कुएँ में कैसे गिर गए? युवक बोला मैं कुएँ में गिरा थोड़े न हूँ मैं तो कुएँ में उतरा हूँ, इस कुएँ में अमृत रसायन है। अमृत रसायन क्या होता है? बोला तुम्हें नहीं पता, इस कुएँ के जल मे जो डुबकी लगा लेता है वह चिर जवान होता है। बोले क्या बोलते हो? हाँ, मैं भी तुम्हारी तरह बूढ़ा था मुझे जब इस कुएँ के रहस्य का पता लगा तो मैं कुद गया और देखो मैं कैसा जवान हो गया। बोले अच्छा, इस कुएँ में कुदने से आदमी जवान हो जाता है? बोले हाँ जवान हो जाता है। तो क्या मैं भी जवान हो जाऊँगा? युवक बोला- हाँ तुम भी जवान हो जाओगे विश्वास न हो तो ट्राई कर लो। वृद्ध ने आव देखा न ताव, धम्म से कुएँ में क्द गया। जब वृद्ध कुएँ में कुदा तो वह नवयुवक उसके ऊपर चढ़कर खुद तो कुएँ से बाहर निकल गया और वह बूढ़ा बेचारा वहीं ठिठुरता रह गया।
     
    बंधुओ! ये तो एक काल्पनिक कथा है लेकिन ये जीवन का एक बहुत बड़ा यथार्थ भी है। शरीर की आसक्ति में फंसे हुए लोग अपने जीवन की ऐसे ही दुर्गति कर डालते हैं।
     
    मोह के कैसे-कैसे पर्दे?
    दूसरा नम्बर सम्पत्ति। लोग मेरी सम्पत्ति, मेरी सम्पत्ति का भाव मन में पाले रहते हैं। संत कहते हैं जब तक मैं और मेरे पन का भाव है तब तक दुख है। इसलिए इसे भी हटाओ। शरीर, सम्पति, सामग्री और सम्बन्धी के प्रति मैं और मेरे पन का भाव आने पर तुम दुखी कैसे होते हो? जिस चीज के प्रति स्वामित्व का भाव होता है वह हमें प्रभावित करती है और जब मनुष्य उससे प्रभावित होता है तो दुखी हुए बिना नहीं रहता। दो उदाहरण आपको बता रहा हूँ।
     
    एक सेठ का इकलौता बेटा चार साल की उम्र में खो गया। सेठ ने बहुत खोजा पर बेटा नहीं मिला। सेठ बहुत दुखी हुआ। काफी मन्नतों के बाद तो वह बेटा हुआ था और वह भी चार साल की उम्र में खो गया। बेटे को खोजते-खोजते दिन बीतते गए पर बेटा नहीं मिला। समय के साथ-साथ सेठ ने बेटे को भुला दिया। दस-बारह साल बाद सेठ को एक नौकर की आवश्यकता पड़ी। सेठ के पास किसी ने सोलहा साल को एक युवक को भेजा, सेठ ने उसे काम पर लगा लिया। सेठानी रात-दिन उससे काम कराती, न ढंग से खाने देती, न पीने देती, उसे निरन्तर काम में इधर से उधर दौड़ाती रहती। वह ढंग से सो भी नहीं पाता था। ये रोज का क्रम था। बेचारा नौकर अपनी किस्मत पर रोता हुआ काम कर रहा था। एक रोज उसे उठने में विलम्ब हो गया, सेठानी ने जोर से चिल्लाया। चिल्लाने के बाद भी जब नौकर की तरफ से कोई आवाज नहीं आई, कोई जबाब नहीं मिला तो वह चिल्लाते-चिल्लाते उग्र हो गई और नजदीक पहुँचकर उसकी चादर तेजी से खीचीं। चादर हटने पर देखा कि वह जो बेसुध पड़ा हुआ है। सेठानी उसका हाथ खीचतें हुए झुंझलाकर बोली- ये क्या नाटक चल रहा है, दिन चढ़ गया है, तुम अभी तक सो रहे हो, ये कोई सोने का समय है, यहाँ सोने के लिए आए हो कि काम करने के लिए? वह नौकर बेसुध था, सेठानी ने उसका हाथ पकड़ा तो उसका सारा शरीर तप रहा था, 105 डिग्री ट्रेम्प्रेचर (बुखार) था। सेठानी ने जैसे ही उसका हाथ खींचा तो उसके हाथ में लिखा हुआ गुदना दिखाई पड़ा। उस गुदने में उस लड़के का नाम था। अरे ये गुदना! ये नाम, ये तो मेरे बेटे का नाम था, इसके हाथ में ये गुदना लिखा है। चेहरे को गौर से देखा तो अरे। ये तो मेरे बेटे से मिलता-जुलता है। हाय! ये कहाँ चला गया था, ये तो मेरा बेटा है। 'मेरा बेटा है" कहते हुए रोना-चिल्लाना शुरु कर दिया, अपने पति को बुलवाकर कहा- देखो इसका कैसा हाल हो गया, ये अपना बेटा है। पति भी नजदीक से देखकर बोला- हाँ, ये अपना ही बेटा है, चेहरा भी मिलता है, ये कहाँ खो गया था और यहाँ कैसे आया इसका पता लगाओ। सेठानी बोली- ये सब बातें बाद में पहले डॉक्टर को दिखाओ इलाज करवाओ पहेचान होने से पहेले भी वह लड़का था और अब भी वह लड़का है लेकिन पहले नौकर था अब बेटा हो गया। जब तक नौकर था तब तक उस पर इतना कष्ट हुआ पर कोई फर्क नहीं पड़ा लेकिन जब मन में बेटा जुड़ गया तो मन विह्वल हो उठा, अच्छी तरह से उसकी चिकित्सा, सेवा-सुश्रुषा में लग गए।
     
    बंधुओं! ये किस बात का द्योतक है? वह लड़का पहले भी बेटा था और बाद में भी बेटा था लेकिन जब तक लड़के के साथ मेरा नहीं जुड़ा था तब तक कोई दुख नहीं था, मेरा जुड़ते ही दुख शुरु हो गया। दुनिया में कुछ भी घटित हो जाए तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, अखबार पढ़ते हो- तीन मरे और तेरह घायल, रोज पढ़ते हो पर तुम्हें कुछ फर्क नहीं पड़ता लेकिन जिनसे तुम्हारा जुड़ाव है उनमें से किसी के साथ कुछ हो जाए तो मन प्रभावित हो जाता है।
     
    एक आदमी का किसी महानगर के बीच चौराहे पर चार मंजिला मकान था। उस मकान में आग लग गई, आग की लपटों में मकान धू-धू करके जल रहा था और वह रो रहा था, विलाप कर रहा था- मेरा सर्वनाश हो गया, सब कुछ मिट गया, मेरा कुछ नहीं बचा। लोग उसे सान्त्वना दे रहे थे, इसी बीच उसका एक परिचित आया और बोला- भैया! रो क्यों रहे हो? तुम्हें रोने की कोई जरूरत नहीं है, इस मकान का सौदा हो गया है, कल ही तुम्हारे बेटे ने इस
     
    मकान को बेचने का एग्रीमेन्ट किया है, मुझे पक्का पता है। बोलाअच्छा? बोले हाँ! मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ, मकान तो बिक चुका है। मकान बिकने की बात सुनकर वह व्यक्ति हँसने लगा। मकान अब भी जल रहा है पर अब वह हँस रहा है। पन्द्रह मिनट बाद उसका बेटा बदहवास सी हालत में आया और बोला पापा! गड़बड़ हो गई। पूछा क्या हो गया? बेटा बोला- सामने वाला सौदे से मुकर गया है कि मकान में आग लग गई है, अब कुछ नहीं बचा। बेटे की बात सुनकर वह व्यक्ति फिर से रोने लगा। अरे भाई! क्या हो गया? मकान पहले भी जल रहा था, अब भी जल रहा है; जब मकान के साथ 'मेरा' जुड़ा तो वह मकान मातम का कारण बन गया और 'मेरा' हटा तो वही मकान आनन्द का कारण बन गया। जहाँ-जहाँ मेरापन है वहा दुःख है | इसी ममत्व को दूर करने का नाम आकिंचन्य है |
     
    ‘ममेदमभिसन्धिनिवृत्तिराकिञ्चन्यम्'।
    सब ठाठ यहीं रह जायेगा
    'यह मेरा है' इस प्रकार के अभिप्राय को दूर करने का नाम आकिञ्चन्य है, इसी को बोलते है खालीपन। शरीर की आसक्ति को खत्म करो। सम्पत्ति की बात कर रहे हो, ये जड़ सम्पति है, अपनी निजी सम्पत्ति को देखो। मनुष्य के जीवन की ये बड़ी विचित्रता है वह धन-वैभव के पीछे सारी जिदगी पागल रहता है पर अपने भीतर के गुण-वैभव का उसे पता ही नहीं चलता। धन-वैभव को मत देखो, गुण-वैभव को देखो। तुम्हारे अंदर भरा हुआ जो अपार भण्डार है उसे पहचानने की कोशिश करो। जो तुम्हारा है उस पर तुम्हारा ध्यान नहीं और जो तुम्हारा नहीं है उसके पीछे तुम पागल हो। अपने को पहचानो, अपने को सम्हालो। जो शाश्वत है, स्थायी है, तुम्हारा स्वभाव है उसका संरक्षण करो लेकिन तुम शाश्वत को भूलकर भंगुर के पीछे लग रहे हो, स्थायी को भूलकर क्षणिक के पीछे पागल हो रहे हो, निजी को भूलकर पराये की सेवा में लगे हो और स्वभाव को त्याग कर विभाव के पीछे भाग रहे हो। पहचानो, अपनी सम्पति क्या है? तुमने पर को अपना मान लिया है। पर को जब तक अपना मानते रहोगे दुखी बने रहोगे और जिस दिन अपने आप को पहचान लोगे सुखी हो जाओगे। ये सम्पति, जड़ सम्पत्ति है इसका कोई अंत नहीं। सम्पत्ति को साथ रखी लेकिन सम्पत्ति में स्वामित्व मत रखी, उसमें आसक्त मत हो। सम्पत्ति के लिए मत जियो, सम्पत्ति का जितना उपयोग करना है करो, उसमें आसक्त मत बनो।
    कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने एक बहुत अच्छी बात लिखी। उन्होने लिखा- मैं अपने एक धनी मित्र के यहाँ मिलने के लिए गया। उसका बहुत अच्छा मकान था, उसने अपना मकान दिखाया, बड़े ठाट-बाट। सब कुछ दिखाकर उसने पूछा- मेरा घर पसन्द आया? मैंने कहा- हाँ! बहुत अच्छा; पर तभी मुझे ऐसा लगा कि मेरे इस उत्तर पर मकान मुस्कुरा रहा है और उसकी मुस्कुराहट में मिठास नहीं व्यंग्य है। मैंने पूछा- क्यों जी! तुम क्यों हँसे? मकान बोलाबस यूँ ही; तुम्हारे मित्र की बात सुनकर हँसी आ गई। इसमें हँसने की क्या बात? अरे! इसमें हँसने के सिवाय और बात ही क्या है? ये कहता है मेरा घर, यही इसका बाप कहा करता था और यही इसके बाप का बाप, दोनों न जाने कहाँ चले गए हैं? हाँ दोनों की तस्वीरें जरूर मेरी दीवारों पर टंगी हुई हैं जिन्हें मेरे एक छोटे से छेद में रहने वाली हजार दीमकों में से कोई नन्ही सी दीमक कुछ ही पलों में चट कर सकती है। मैंने देखा मकान अब भी मुस्कुरा रहा था।
     
    बंधुओं! मकान ही क्या, संसार की हर वस्तु मनुष्य की इस अज्ञानता पर हँसती है, जिन्हें वह अपना मानने का भ्रम पालता है। काश! तुम पहचान पाते तुम्हारा क्या है, तुम्हारी अपनी सम्पति क्या है? ये सब पराई हैं, तुम्हारी नहीं। इन्हें छोड़ो, इनसे विमुख हो और अपने को पहचानने की चेष्टा करो। जो अपने को पहचान लेता है वह पराये में कभी नहीं उलझता। कभी आपने सोचा है कि आपके जीवन की दशा क्या है? एक दिन सब छूटने वाला है। आप ये गीत गुनगुनाते हो
     
    ‘जिंदगी इक किराये का घर है
    इसको इक दिन बदलना पड़ेगा।
    मौत तुझको जब आवाज देगी
    तुमको घर से निकलना पड़ेगा।'
    जिंदगी एक किराये का घर है, एक दिन तुम्हें इस घर से निकलना ही होगा, इस सच्चाई को पहचानो। चाहे अरबपति हो, चाहे करोड़पति हो, चाहे लखपति हो या हजारपति या भिखारी जब तक रह रहें हैं, रह रहें हैं। झोपड़ी में रहने वाला भी रह रहा है, महलों में रहने वाला भी रह रहा है, झोपड़ी और महल तो यहाँ फिर भी टिके रह सकते हैं लेकिन उनमें रहने वाला कभी टिकने वाला नहीं है, एक दिन उसे खाली करना पड़ेगा। झोपड़ी में हो तो झोपड़ी खाली करके जाओगे, महलों में हो तो महल खाली करना पड़ेगा। ये तुम्हारे अंदर का अज्ञान ही तो है जो बार-बार तुम्हें उस ओर आकृष्ट करता है, तुम्हें अपनी ओर खींचता है कि आओ-आओ-आओ। तुम पकड़े हुए हो ये अज्ञानता है, इस अज्ञानता को जब तक दूर नहीं करोगे जीवन सुखी नहीं होगा।
     
    कहाँ-कहाँ जुड़ जाता लगाव!
    तीसरा है सामग्री के प्रति लगाव। सामग्री से व्यक्ति को बहुत लगाव होता है। सामग्री यानि तुमने जो अपने घर-परिवार के साथ चाहे तुम्हारे घर के बर्तन-भांडे हों, चाहे अन्य चीजें हैं, वे भी एक प्रकार से सम्पत्ति का अंश हैं। मनुष्य के मन में उनके प्रति जुड़ाव बना रहता है, उन्हीं के पीछे लगा रहता है। तुम्हारी अवधारणा है कि सामग्री जुटाने से अधिक से अधिक सुख पाया जा सकता है। सुख पाने के लिए मनुष्य सामग्री जोड़ता है पर बंधुओं! आपने कभी इस बात की पड़ताल करने की कोशिश की कि सामग्री जोड़ने से सुख मिला भी या नहीं। आज तुम्हारे पास जितने संसाधन हैं आज से पच्चीस वर्ष पहले इतने संसाधन नहीं थे, फिर दूसरी तरफ देखो आज जितना टेंशन है क्या पच्चीस वर्ष पहले ऐसा टेंशन था? फिर ये अवधारणा कितनी सही है कि सामग्री से सुख मिलता है? सामग्री से सुख मिलता है ये तुम्हारा अज्ञान है। सामग्री के मोह को छोड़ो, सुख को पहचानो।
     
    आखिरी है सम्बन्धी। सम्बन्धी जनों के प्रति मोह। ये मेरा बेटा, ये मेरी पत्नी, ये मेरे पिता, ये मेरे भाई, ये मेरी बहन। जो मेरे की बाते हैं ये सब अज्ञानता है। आचार्य कुंदकुंद कहते हैं ये सब अप्रतिबुद्धता है, इनके व्यामोह में फसा हुआ व्यक्ति गहन सुषुप्ति में जी रहा है। तीन प्रकार की आत्माएँ हैं- एक प्रसुप्त आत्मा, एक प्रबुद्ध आत्मा और एक जागृत आत्मा। प्रसुप्त आत्मा वह है जो गहन मोह के अंधकार में जी रहे हैं, गहन सुषुप्ति में जी रहे हैं, जिन्हें अपने होने का भी पता नहीं, संसार में जी रहे हैं, मैं कौन, मेरा कौन इसका कुछ अता-पता ही नहीं वह प्रसुप्त है।
     
    एक बार एक व्यक्ति से किसी ने कहा भैया तुम यहाँ क्या कर रहे हो, तुम्हें पता नहीं? बोले क्या? तुम्हारी पत्नी विधवा हो गई है। इतना सुनते ही उसने रोना शुरु कर दिया। 'पति के जिंदा रहते पत्नी विधवा हो गई।' ये समाचार सुनकर पति रो रहा है। ये क्या है? ये है गहन सुषुप्ति जिसमें व्यक्ति को अपने होने का भी पता न चले। मैं कौन हूँ और मेरा क्या है इसका जिसे पता नहीं वह सुषुप्ति में जीने वाला अप्रतिबुद्ध आत्मा है। जिसने जान लिया और मान भी लिया कि शरीर भिन्न है, सम्पति भिन्न है, सम्बन्धी भिन्न हैं, मेरे आत्मा के अतिरिक्त संसार का एक परमाणु भी मेरा नहीं है वह प्रबुद्ध तो हो गया लेकिन अभी भी फसा हुआ है घर गृहस्थी में, गोरख धन्धे में वह प्रबुद्ध है। वह उन सब में रमा हुआ है पर अंदर से जानता है कि ये मेरे नहीं हैं, अनासक्त होकर जीता है। अनासक्त होकर जी रहा है लेकिन अभी फसा हुआ है। जल से भिन्न कमल की तरह है लेकिन पूरी तरह दूर नहीं है। तीसरी अवस्था है जागृत आत्मा, जिसने एक बार मुँह मोड़ा तो मोड़ लिया। अब दिखना ही नहीं है तो उसमें तत्पर क्यों? छूटा सी छूटा। अपने में खो गया। प्रसुप्त अवस्था से ऊपर उठो, प्रबुद्ध अवस्था को पाओ और जागृत आत्मा की श्रेणी में आने की कोशिश करोगे तो अपने जीवन को आगे बढ़ा सकोगे।
     
    ये चार हमारे लिए बाधक हैं। शरीर, सम्पति, सामग्री और सम्बन्धी का मोह ये सब उलझा कर रखते हैं और इनमें उलझने वाला ही भारी होता है। भार का मतलब? भार यानी बोझ। एक आदमी कुछ अशांत सा दिख रहा था। उससे किसी ने पूछा- भाई! क्या बात है, कुछ अशांत से दिख रहे हो? वह बोला- बहुत वजन है। भाई! खाली तो दिख रहे हो तुम पर कौन सा वर्डन(भार) है? बिल्कुल खाली हो, सौ ग्राम भी वजन तुम्हारे पास दिख नहीं रहा फिर भी बोल रहे हो बहुत वर्डन है, बड़ा बोझ है। अरे! भाई। दिमाग पर बोझ है। किस चीज का बोझ है? बोला- काम का बोझ है, जिम्मेदारियों का बोझ है। बोले दिखता तो नहीं है, क्या काम तुम्हारे पास आ गए, कौन सी जिम्मेदारियाँ तुम्हारे पास आ गई? वह बोलाकाम और जिम्मेदारियाँ तो हैं। ध्यान रखना। काम कुछ भार नहीं बनते, जिम्मेदारियाँ बोझ नहीं बनती; काम और जिम्मेदारी बोझ तभी बनती हैं जब मनुष्य उन्हें ओढ़ लेता है। ये हमारी मान्यता का बोझ है। लोक में सबसे भारी यदि कुछ है तो वह है हमारी मान्यता, जो हमारे ममत्व और आसक्ति से होती है। जिसके सिर पर जितनी क्षमता उसके सिर पर उतना बोझ और जिसके सिर पर जितना बोझ वह उतना दुखी। जो जितना भारी है वह उतना दुखी है। इस ममत्व को खाली करो। खालीपन आते ही खुलापन आएगा। एकदम इन्जॉय(आनन्द) करो। किसी से कोई मतलब नहीं, किसी प्रकार का किसी तरह का कोई टेंशन नहीं, आनन्द से जियो, निर्दन्द्वता का जीवन, निस्संगता का जीवन। खुलापन चाहते हो कि नहीं चाहते हो? सब कहते हैं कि महाराज! हम लोग फ्रीडम चाहते हैं, खुलापन चाहते हैं। आज किसी से भी बात करो खासकर यंग जनरेशन(नई पीढ़ी) के युवको से बात करो तो कहते हैं- हम फ्रीडम चाहते हैं। मैंने कहा- हमारा अध्यात्म फ्रीडम की ही तो बात करता है और जिसे तुम फ्रीडम मानते हो उसमें तुम बंध जाते हो।
     
    एक युवक ने कहा- महाराज! हम फ्राफीडम(स्वतन्त्रता) चाहते हैं, हम अपने हिसाब से चुनाव करना चाहते हैं। एक लड़की से उसका रिलेशन(सम्बन्ध) बन गया, वह लड़की के साथ शादी करना चाहता था। मैंने कहा- ठीक है, तू कह तो रहा है फ्रीडम चाहता हूँ लेकिन तेरे को फ्रीडम मिलेगी नहीं। ध्यान रखना। उससे बंधने के बाद सारी जिंदगी भर के लिए गुलाम बन जाएगा। अभी कह रहा है फ्रीडम, पर बंध जाने के बाद जिंदगी भर का गुलाम जैसा कि इसगुल्म को भी आग प्रीम के नाम पारस्वाकर करता है।
     
    पति-पत्नी दोनों एक पार्क में गए। पत्नी ने एक पेड़ के छोटे से लता-मण्डप को दिखाते हुए कहा कि आपको पता है ये वही लता-मण्डप है जिसमें आज से बीस साल पहले हम दोनों आए थे। हम दोनों छिप गए थे, अगर उस दिन पिता जी ने देख लिया होता तो बड़ी गड़बड़ हो जाती। पति यह सुनते ही एकदम रोने लगा। पत्नी ने पूछा- आप रो क्यों रहे हो? मैंने तो खुशी मनाने की बात सुनाई और आप रो रहे हो। तब पति बोला- काश! उस दिन पिता जी ने हमको देख लिया होता और हम पकड़े जाते तो अच्छा होता। पत्नी ने पूछा ऐसा क्यों? पति ने कहा- अगर उस समय पकड़े जाते तो आज मैं आजाद होता। जिसको लोग फ्रीडम मानते हैं वह उसकी गुलामी है। ये अज्ञानता है।
     
    एक लड़के ने मुझसे कहा- महाराज! मैं एक लड़की से प्यार करता हूँ और वह हमारे हिसाब से जैन धर्म को स्वीकार करने के लिए तैयार है, जैसा मैं चाहता हूँ वह वैसा ही करेगी। मैंने कहाबस! यही खतरनाक है। उसने पूछा क्यों? मैंने कहा- ये बताओ तुमसे कोई तुम्हारे धर्म को त्यागने की बात करे तो क्या तुम उसको त्याग दोगे? बोला- नहीं महाराज! मैं तो धर्म को नहीं त्यागूँगा। मैंने फिर कहा- किसी भी हालत में धर्म को त्यागने की बात हो तो? वह बोला- नहीं, मैं किसी भी हालत में धर्म को त्याग नहीं सकता, मैं धर्म के प्रति निष्ठावान हूँ। तब मैंने कहा- निष्ठावान व्यक्ति कभी भी अपने धर्म को नहीं त्यागता, जो आज अपने धर्म को त्याग सकता है वह कल तुमको भी त्याग सकता है। इसकी क्या गारंटी है, इसका क्या भरोसा कि कल वह तुम्हें भी न त्याग दे? ये मोह है, इस मोह के आवेग में आकर ऐसी भाषा का प्रयोग हो रहा है। सच्चाई को जानोगे तो कभी भ्रम में नहीं पड़ोगे। आज तुम्हें वह अच्छी लग रही है और तुम उसे अच्छे लग रहे हो, हो सकता है कल दोनों एक-दूसरे को बुरे लगने लगी। इसलिए पहले विवाह होता है, बाद में विवाद, फिर तलाक। मामला गड़बड़ हो जाता है। जहाँ सम्हलना है वहाँ सम्हलना चाहिए।
     
    अकिञ्चन्य : खालीपन से खुलेपन की यात्रा
    मैं आपसे कह रहा हूँ फ्रीडम चाहते हो तो मोह, ममता और आसक्ति के वजन को उतारो, यही सबसे बड़ा बोझ है। ये बोझ जिसके ऊपर हावी होगा वह कभी सुखी नहीं होगा। आचार्य कुन्दकुन्द ने आकिञ्चन्य अंग के बारे में कहा कि वह निस्संग होता है इसलिए निर्द्धन्द्र होता है। निस्संग यानी, किसी भी प्रकार की आसक्ति नहीं, परिग्रह नहीं, खाली। खालीपन होगा तो खुलापन होगा। तत्त्व ज्ञान को बल पर मन को खाली करो।
     
    एगो मे सास्सदो आदा णाणदसणलक्खणो | 
    सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ||
    मैं अकेला हूँ, मैं एक मात्र ज्ञान-दर्शन लक्षण वाला शाश्वत आत्मतत्व हूँ, मुझसे बाहर के जितने भी पदार्थ हैं वे सब संयोग लक्षण वाले हैं, मेरे नहीं हैं और मैं भी उनका नहीं हूँ -ये पहचान अपने मन में रखी। सबके बीच में रहो पर अपने में रमी इसी का नाम है खालीपन और खुलापन। अपने आपको जितना भरोगे उतना भारी होगे। सब भर रहे हैं। भर-भर के अपने आपको भारी बना रहे हैं। जितने भरोगे उतने भारी होगे और भारी चीज कहाँ जाती है? नीचे और नीचे क्या है? कहाँ जाने की तैयारी है? आपको कहाँ जाना है? आप लोग तो बनिया हो, व्यापारी हो तराजू से तो सबका परिचय है। तराजू के दो पलड़े होते हैं एक पलड़ा नीचे और दूसरा पलड़ा ऊपर। कौन सा पलड़ा ऊपर होता है और कौन सा पलड़ा नीचे होता है? एक संदेश ले लो जितना भार होगा उतने भारी होगे और भारी होगे तो नीचे जाओगे। जितना भार मुक्त होगे उतने हल्के होगे और जितने हल्के होगे उतने ऊपर उठोगे।
    एक व्यक्ति की धर्मपत्नी गुजर गई, वह बहुत फूट-फूट कर रो रहा है। आस-पड़ोस की महिलाएँ आई, उसे सान्त्वना दी। एक युवक ने पूछा- भाई। सालभर पहले तुम्हारी दादी गुजरी तुम इतना नहीं रोए, छह महीने पहले तुम्हारी माँ गुजरी तब भी तुम इतना नहीं रोए, आज तुम्हारी पत्नी गुजरी तो तुम इतना रो रहे हो, पत्नी से इतना ज्यादा लगाव था क्या? बोले लगाव-अगाव छोडो, दादी गुजरी तो पूरे मौहल्ले की माताएँ आकर बोलीं- बेटे दादी चली गई तो क्या हुआ हम तो हैं, माँ गुजरी तब भी अड़ोस-पड़ोस की सारी महिलाएँ आ गई और बोलीं- चिंता मत कर, माँ गई है, अभी हम तो हैं लेकिन आज पत्नी मरी है तो अभी तक एक भी औरत नहीं आई। सब अपने लिए रोते हैं। ये रोना अज्ञान है इसलिए इसे छोड़ी। बस ये चार सूत्र याद रखो- खालीपन, खुलापन, भरापन और भारीपन। हमें भरापन और भारीपन को छोड़ना है तथा खालीपन और खुलापन को आत्मसात करना है तब हम अपने जीवन के इस अकिञ्चनत्व को प्राप्त कर पाऐंगे। आचार्य कहते हैं
     
    अकिञ्चनोऽहमित्यास्स्व त्रैलोक्याधिपतिर्भवेः।
    योगिगम्यं तव प्रोक्तं रहस्यं परमात्मनः॥
    'मैं आकिञ्चन्य हूँ। इस बात की एक पल की अनुभूति कर लो, तीन लोक के अधिपति बन जाओगे। मैंने योगियों के द्वारा गम्य परमात्मा का रहस्य बताया है। आज तक परमात्मापने को जिन्होंने भी पाया है इसी खालीपन के बल पर पाया है। हम भी अपने आपको खाली करें ताकि खुलेपन का आनन्द ले सकें।
  16. Vidyasagar.Guru
    आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज चातुर्मास कलश स्थापित,
    हेलीकॉप्टर से आए लाभार्थी,
    आचार्यश्री बोले- शतरंज की सेना की तरह साधक भी कदम बढ़ा दे तो फिर पीछे नहीं हटता
     
    पावन वर्षायोग चतुर्मास 2019 कलश स्थापना अपडेट मुनि नियम सागरजी (दक्षिण भारत मे विराजमान) एवं मुनि सुधासागर जी को आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज ने निर्यापक की उपाधि दी।  
    जैन तीर्थ सिद्धोदय क्षेत्र में आचार्य विद्यासागरजी महाराज  के ससंघ चातुर्मास को लेकर कलश स्थापना कार्यक्रम रविवार को हुआ। इसमें देश के कई प्रांतों सहित विदेश से भी अनुयायी नेमावर पहुंचे। कलश स्थापना के लाभार्थी हेलीकॉप्टर आए।
     
    सभी कलश आचार्यश्री के मुखारविंद से मंत्रों के उच्चारण से स्थापित किए गए। कलश विश्व शांति और विश्व कल्याण के उद्देश्य और वर्षा योग के निर्विघ्न संपन्न होने की कामना से स्थापित किए गए हैं।
     
    आचार्यश्री के चातुर्मास के दौरान लगातार विभिन्न धार्मिक आयोजनों की पूर्ण तैयारी ट्रस्ट द्वारा समाज जन के सहयोग से की गई है। पिछले वर्ष बुंदेलखंड के खजुराहो में आचार्य भगवन का चातुर्मास हुआ था और इस बार मालवा के नेमावर को चातुर्मास का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
     
    52वां चातुर्मास है यह आचार्यश्री  : 2 चातुर्मास कर चुके नेमावर में (1997 और 2002), यह तीसरा है हालांकि यह पहला अवसर है जब चातुर्मास स्थापना का कार्यक्रम आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी के पहले ही हो गया।
     
    2 प्रदेशों के लाभार्थी: 52 संकल्प कलश स्थापित किए गए हैं।
    सुनील कुमार जैन पाली राजस्थान, आरके मार्बल किशनगढ़ राजस्थान सुंदरलाल बीड़ीवाला इंदौर को स्थापित करने का लाभ मिला।
     
    आज ये होगा :
    आचार्य संघ चतुर्दशी को धार्मिक और शास्त्रों में उल्लेखित विधि अनुसार मंत्रोच्चार कर चातुर्मास की शुरुआत करेंगे। आचार्यश्री सहित सभी मुनियों का सोमवार को उपवास भी रहेगा।
    आचार्यश्री के आशीर्वचन... प्रवचन में आचार्य विद्यासागरजी महाराज  ने कहा शतरंज के खेल में राजा आगे भी बढ़ता है और पीछे भी हटता है। ऊंट हमेशा तिरछा चलता है एवं घोड़ा ढाई घर चलता है, हाथी भी सीधे आगे पीछे चलता है लेकिन पैदल सेना तो हमेशा आगे बढ़ती है, वह कभी पीछे नहीं हटती। उसी प्रकार राष्ट्र रक्षा में लगे सैनिक राष्ट्र की रक्षा से कभी पीछे नहीं हटते। वैसे ही भगवान वृषभनाथ और महावीर भगवान की चर्या चली आ रही है। उस परंपरा का पालन करने वाला साधक भी एक बार जो कदम आगे बढ़ा देता है, तो फिर कभी पीछे नहीं हटता। पंचम काल अभी शेष है और धर्म का अभी अभाव नहीं हो सकता।
     
    दोपहर 1 बजे उतरा हेलीकॉप्टर : किशनगढ़ राजस्थान से आरके मार्बल वालों का परिवार प्राइवेट हेलीकाप्टर से 1 बजे नेमावर पहुंचा, जो निर्माणाधीन त्रिकाल चौबीसी जिनालय प्रांगण में उतरा।
     
    विधायक ने गोशाला को दिए 5 लाख : खातेगांव विधायक आशीष शर्मा ने विधायक निधि से पांच लाख रुपए नेमावर गोशाला के लिए देने की घोषणा की।
     
    आईएएस, न्यायाधीश पहुंचे आशीर्वाद लेने : आईएएस राहुल जैन, कन्नौद के न्यायाधीश, गंजबासौदा विधायक लीना संजय जैन, खातेगांव विधायक आशीष शर्मा, खातेगांव एसडीएम शोभाराम सोलंकी, नायब तहसीलदार अर्पित मेहता आदि ने भी आचार्यश्री को श्रीफल भेंट कर आशीर्वाद प्राप्त किया।
     



     
  17. Vidyasagar.Guru
    सागर/  संत शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागर महाराज बिहार कर 12 मार्च को सुबह 7:30 बजे पटना गंज रहली पहुंचे यहां पर हजारों लोगों ने उनकी अगवानी की इस अवसर पर क्षेत्रीय विधायक और लोक निर्माण विभाग के मंत्री पंडित गोपाल भार्गव ने आचार्य श्री को श्रीफल भेंट कर आशीर्वाद लिया। 
     


    मुनि सेवा समिति के सदस्य मुकेश जैन ढाना ने बताया कि उन्होंने आचार्य श्री को बताया कि मध्यप्रदेश के बजट में देवरी से जैन तीर्थ क्षेत्र बीनाबारह की सड़क और बैतूल जिले में प्रसिद्ध जैन तीर्थ क्षेत्र मुक्तागिरी की सड़क के निर्माण के लिए राशि का प्रावधान किया है और वह लगातार प्रयासरत हैं जहां भी सड़क की जरूरत है वह स्वीकृत करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे इस अवसर पर आचार्य श्री जी ने उन्हें आशीर्वाद दिया इस अवसर पर ब्रह्मचारी विनय भैया बंडा, मुकेश जैन ढाना, राकेश जैन चांदपुर, कपिल जैन बरोदा, शैलेंद्र जैन शालू सहित बड़ी संख्या में प्रमुख समाज जन उपस्थित थे आचार्य श्री ससंघ पटनागंज पहुंचे लोगों ने रास्ते भर खड़े होकर के गुरुदेव के दर्शन किए और जगह-जगह रंगोली डाली और आचार्य भगवन की आरती की आचार्य श्री जी सबसे पहले पटनागंज के बड़े बाबा भगवान महावीर स्वामी के दर्शन करने के लिए पहुंचे उसके बाद संत निवास में पहुंचे। संघ में मुनि श्री प्रसादसागर, मुनि श्री चंद्रप्रभसागर, मुनि श्री निरामयसागर और एलक सिद्धांत सागर महाराज है इस अवसर पर एलक सिद्धांत सागर महाराज ने मंत्री गोपाल भार्गव से भी चर्चा की उल्लेखनीय है एलक सिद्धांतसागर महाराज गृहस्थ अवस्था के गढ़ाकोटा के निवासी हैं।
  18. Vidyasagar.Guru
    *जरा याद करो बलिदान* 
    21 अक्टूबर 2018 दिन रविवार को खजुराहो में राष्ट्र संत परम पूज्य आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज के मंगल आशीर्वाद और सानिध्य में होगा - “जरा याद करो बलिदान” कार्यक्रम जिसके तहत आजादी के लिए मर मिटने वाले शहीद परिवारों के वर्तमान वंशजों को दिया जाएगा "*स्वराज सम्मान*" कार्यक्रम में अपनी उपस्थिति दर्ज कराएं |
     
    स्थान - खजुराहो जैन मंदिर
    समय - 2:00 बजे से 4:00 बजे तक
    दिनांक - 21 अक्टूबर 2018 दिन रविवार
    आयोजक - चातुर्मास समिति व सकल दिगंबर जैन समाज
     
     
  19. Vidyasagar.Guru

    कर्म कैसे करें
    हम सभी लोग आज से इस बात पर विचार करने के लिये तैयार हुए हैं कि इस संसार में जो विविधताएँ दिखाई पड़ती हैं, कोई कम ज्ञानवान है, किसी का ज्ञान अधिक है, कोई धनवान है, किसी के जिम्मे दरिद्रता और गरीबी आई है, वृक्ष हैं, अग्नि है, जल है, वायु है, पृथ्वी है, यह पंच भूत तत्व हैं। यह पूरा लोक जो हमें दिखाई देता है, विविधताओं से भरा हुआ है।
     
    इस पूरे विश्व को कौन व्यवस्थित करता होगा ? मेरे अपने जीवन को, मेरे से पृथक् अन्य और जीवों के जीवन को, और यहाँ तक कि इस सारे दिखाई देने वाले दृश्य जगत को कौन व्यवस्थित करता होगा ? कौन इसे बनाता है ? कौन इसे मेन्टेन करता है ? और कौन इसके नष्ट होने में सहयोगी बनता है ? इन बातों की जिज्ञासा सबके भीतर होती है और इन प्रश्नों का समाधान सब लोगों ने अपने-अपने ढंग से अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार खोजा है। एक सामान्य रूप से सभी के भीतर जो बहुत अधिक मात्रा में प्रचारित और प्रसारित बात है वो ये है कि जितना भी यह दृश्य जगत दिखाई दे रहा है इसको बनाने वाला भी कोई एक ईश्वर है, इसको मिटाने वाला भी कोई एक ईश्वर है, इसको मेन्टेन करने वाला भी कोई एक ईश्वर है। ईश्वर इन तीन रूपों में इस सारे दृश्य जगत को व्यवस्थित करता है और वह सर्वशक्तिमान है और इतना ही नहीं वह हम सबसे बहुत दूर कहीं-कहीं किसी आकाश में बहुत ऊँचाई पर बैठा हुआ है। ऐसा प्रचारित है और ऐसा लोगों के अन्दर, अधिकांश लोगों के अन्दर यही मान्यता है।  
     
    तब बहुत सारे प्रश्न जो हमने अभी उठाये हैं उनका समाधान क्या इस ईश्वर नाम की किसी चीज को मान लेने से मिलता है; कहीं ऐसा तो नहीं कि ये जो विविधता दिखाई पड़ रही है उसके ऐसा मान लेने में कि ये सब, ईश्वर के द्वारा इतनी विविधता बनाई गयी है, ईश्वर चाहे तो इसको मेनेज करे, मेन्टेन करे, और जिस दिन चाहे वो इसको नष्ट कर दे। तब फिर प्रश्न उठेगा कि उस ईश्वर नाम की वस्तु या व्यक्ति को किसने बनाया ? जो इस पूरे संसार को व्यवस्था देता है, उस व्यवस्था देने वाले को किसने बनाया? 
     
    तब उसका समाधान ढूँढने के लिये यह कहा गया कि वह हमेशा से है, ठीक है वह हमेशा से है, ओमनीसाइन्ट है, ओमनीपेटेन्ट है, ओमनीप्रजेन्ट है। हर जगह स्थित है, सर्वशक्तिमान है और सब कुछ जानता है। बहुत अच्छी चीज है, इस तरह के ईश्वर की व्यवस्थाएँ बहुत दुरस्त होंगी, बहुत सही होंगी। ऐसे सर्वशक्तिमान ईश्वर को मानने में कोई हर्जा भी नहीं है, पर मुश्किल खड़ी हो जाती है ऐसे सर्वशक्तिमान किसी ईश्वर या कि व्यक्ति या कि किसी वस्तु को मान लेने में सबसे बड़ी समस्या ये खड़ी होती है कि यदि ऐसा ईश्वर हर जगह उपस्थित है, और सब कुछ जानता है तब फिर उसके भीतर कोई दया या करुणा नाम की चीज है या नहीं है? वो किसी को दुःख देता क्यों है ? अगर वो ही इस सारी व्यवस्था को बनाता है तो किसी को दुःख क्यों देता है ? अगर हम यह मानें कि वह दुःख तो हम अपने किये गये कार्य की वजह से पाते हैं, तब फिर ....., तब फिर उस सर्वशक्तिमान ईश्वर की सर्वशक्ति पर विश्वास होगा नहीं। अगर मुझे मेरे किये का फल भोगना ही पड़ेगा तो फिर सर्वशक्तिमान ईश्वर ने क्या किया ? ईश्वर को मैं तब सर्व शक्तिमान मानूँ जबकि वो अग्नि में हाथ डालने पर, ..... अग्नि का स्वभाव है कि वो जलाएगी, ..... और बर्फ के टुकड़े को छूने पर वह मुझे शीतलता का स्पर्श देगी, यह अत्यन्त स्वाभाविक सी बात है। अगर ईश्वर सर्वशक्तिमान है तो अग्नि में हाथ डालने पर वो मुझे शीतलता का अहसास करावे। अपने भक्तों के लिये तो कम से कम करावे और फिर तो कूलर, हीटर, फ्रीज इन सबकी जरूरत नहीं रहेगी, फिर तो बस जरा सा ईश्वर से प्रार्थना करो और अग्नि में हाथ जला तो ऐसा लगेगा जैसे बर्फ में डाला हो और बर्फ की सिल्ली पर हाथ रखा और ऐसा लगेगा कि बिल्कुल जैसे आग में डाला हो। लेकिन ऐसा देखने में तो नहीं आता। देखने में तो यही आता है कि अत्यन्त स्वाभाविक और स्वसंचालित है, यह सारी व्यवस्था। 
     
    इसके लिये किसी वस्तु या व्यक्ति की कोई आवश्यकता नहीं है। अन्त में सारे जगत की व्यवस्था के बारे में विचार करते-करते भले ही यह बात प्रचारित हो; लेकिन जो दार्शनिक हैं, जो विचारक हैं, जो ऋषि हैं, मुनि हैं, जो तत्व दृष्टा हैं, वे जानते हैं, यहाँ तक कि गीता में श्रीकृष्ण के नाम से कहलवाया है कि ..... 
     
    अर्जुन ! इस सृष्टि को मैंने नहीं बनाया, ना कोई इसे बनाता है, ना ये सृष्टि किसी का कर्म है, ना कोई इसका कर्ता है, ना ये सृष्टि किसी का कर्म है। यह तो स्वभाव से ही अपने आप व्यवस्थित है। किसी भी नियम को व्यवस्थित करने के लिये किसी भी अन्य व्यक्ति की आवश्यकता नहीं है, नियमों को बनाने वाला भी कोई नहीं है। नियम शाश्वत हैं। नियम सीधे हैं और स्पष्ट है कि अग्नि का स्वभाव गर्म है। हाथ डालने पर वह बालक हो, चाहे वृद्ध हो, चाहे नौजवान हो, ज्ञानवान हो या गरीब हो, अमीर हो - सबको समान रूप से जलाएगी। यह सार्वभौमिक-सार्वकालिक नियम है। हमारे घर में जलाये या दुकान में जलाये या कि भारत में जलाये और अमेरिका में ना जलाये ऐसा सम्भव नहीं है। इसमें किसी भी ईश्वर की आवश्यकता नहीं है। इतना स्वाभाविक और स्वसंचालित है। 
     
    अब फिर भी प्रश्न ज्यों का त्यों बना रहा। जब ये सारा दृश्य जगत, मेरा अपना जीवन और जो दिखाई पड़ रहे हैं जीव, इन सबका जीवन अगर स्वसंचालित और स्वाभाविक है तब फिर ईश्वर का हमारे जीवन में क्या महत्व है ? क्या हम उसको खारिज कर दें? ठीक एक विचारक नीत्से की तरह कि ईश्वर समाप्त हो गया है। अब ईश्वर नहीं रहा। क्या हम भी ऐसा माने कि ईश्वर का कोई Existence (अस्तित्व) नहीं है। परमात्मा नाम की कोई चीज नहीं है, परम ब्रह्म कुछ भी नहीं है। अब हमें यह विचार करना पड़ेगा कि इन सबका इस विविधता में जो दिखाई देती है क्या भागीदारी है। तो देखें आप। ईश्वर एक प्रकाश की तरह है। ईश्वर एक दर्पण की तरह है, और प्रकाश का काम क्या है ? ..... सूरज का काम है कि वो आये और समान रूप से रोशनी बिखेरे। आपने जितने दरवाजे खोले हैं उतना भीतर आयेगा। आपने दरवाजे बन्द रखे हैं, वो भीतर नहीं आयेगा। आप चाहें तो वस्तुओं को उसके प्रकाश में देखकर के समझ सकें तो समझें। वो आपकी कोई मदद नहीं करेगा। वो प्रकाश कर सकता है लेकिन ये मोटर खड़ी हुई है, ये पेड़ है, ये फलानी चीज है। ये ईश्वर नहीं बताएगा। वो प्रकाश की तरह हमें सारी चीजें प्रकाशित कर देगा; अब हमारा फर्ज है कि हम इस विविधता को जानें। इस विविधता में उसका इतना ही हाथ है कि वो इस विविधता का दर्शन करा देता है हमें। वो प्रकाश की तरह है ज्योति की तरह है और या कि वो दर्पण की तरह है। जैसे कि घर से बाहर निकलते समय जरा सा अपना चेहरा दर्पण में देखते हैं और देखते हैं कि कहीं कोई कालिख तो नहीं लगी है और अगर लगी होती है तो उसे अलग कर देते हैं। कालिख दर्पण में नहीं लगी है और न दर्पण पोंछने से कालिख खत्म होगी और न दर्पण हमारी कालिख पोंछेगा। पोंछना हमें पड़ेगी। ईश्वर का काम इतना ही है कि हमारे कालिख को और हमारी उज्ज्वलता को दोनों को दर्पण की तरह बता देता है। 
     
    दर्पण के सामने अगर अंगीठी जलती हुई रखी जाए तो वह सिर्फ जलती हुई अंगीठी को दिखाएगा, लेकिन उससे प्रभावित नहीं होगा, वो जलेगा नहीं। बर्फ का टुकड़ा - सिल्ली पूरी दर्पण के सामने रख दी जाये तो बर्फ की सिल्ली से दर्पण को ठण्डी (सर्दी) और गर्मी का कोई अहसास नहीं होगा, वो तो सिर्फ दिखा देगा कि ये है, ये है। 
     
    ऐसा ही है ईश्वर। वो सिर्फ दर्पण के समान है। उस पर कालिख नहीं है, उसमें कालिख दिखती अवश्य है। कालिख हमें अपने आचरण और साधना से स्वयं हटानी पड़ेगी। ईश्वर हटायेगा नहीं। ईश्वर से यदि हम अपने चेहरे पर लगी हुई कालिख को हटाने की आशा करते हैं तो ये तो ईश्वर के साथ अन्याय है जैसे दर्पण से ये अपेक्षा रखना कि वो हमारे चेहरे पर लगी कालिख दिखाएगा और साथ में वो कालिख पोंछने का इन्तजाम भी करेगा, ठीक ऐसा ही है, ईश्वर से अपेक्षा रखना कि वो हमारी अपनी कमियों को, हमारी अच्छाइयों और बुराइयों को दिखाने के साथ उनकी व्यवस्था भी देगा। व्यवस्था देना उसका काम नहीं है। उसके माध्यम से व्यवस्थित हो जाना, ये हमारा अपना दायित्व है। 
     
    ईश्वर का रोल हमारे जीवन में इतना ही है एक दर्पण की तरह और वो दर्पण भी ऐसा है जो कि चीजों को अपने में दिखा तो देता है लेकिन उनसे प्रभावित नहीं होता है। ठीक ऐसा ही हमें हमारा ईश्वर स्वीकार्य है और ऐसा ही उसका सहयोग हमें स्वीकार्य है। तब तब ईश्वर का महत्व भी है और ईश्वर के पाने का मतलब क्या है? परमात्मा को पाने, परमात्मा के दर्शन करने, परमात्मा में लीन हो जाने, इन सबके मायने क्या हैं फिर ? ऐसे शब्द बहत से सनने में आते हैं। परमात्मा में लीन हो जाना. परमात्मा को प्राप्त कर लेना. परमात्मा का साक्षात्कार कर लेगा, ब्रह्म का साक्षात्कार कर लेना। जहाँ ये कहा जाता है कि “अहम् ब्रह्मानि” मैं ही ब्रह्म हूँ। वहाँ पर ये इशारा किया जाता है कि मैं सिर्फ मनुष्य नहीं हूँ। मैं सिर्फ किसी का पुत्र या किसी का पिता या किसी की माँ नहीं हूँ। मैं परमात्मा की हैसियत का हूँ। मैं ब्रह्मस्वरूप हूँ और परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है जिससे कि मुझे मिलने जाना है, जिसका कि मुझे दर्शन करना हो, या जिसका मुझे सामना हो। परमात्मा एक अवस्था है जो कि हर आत्मा को प्राप्त हो सकती है। वह परम विशुद्ध अवस्था है। इसलिये परमात्मा से मिलना अन्ततः अपने ही परमविशुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार करना, उससे मिलना और उसमें लीन हो जाना, परमात्मा में लीन होना, अपने आपमें अपने शुद्ध स्वरूप में लीन होना है। हम एक पेड़ की पत्ती नहीं बना सकते, विज्ञान एक शैल (कोशिका) नहीं बना सकता अपने शरीर का, तो फिर ये किसने बनाया होगा, तो हमारे पास जब इसका कोई उत्तर नहीं था तो हमने कहा ईश्वर ! ईश्वर ने बनाया, सर्वशक्तिमान है, वो ही सब व्यवस्था बनाता रहता है। 
     
    एक घर की व्यवस्था बनाने वाले को कितनी मुश्किलें और कितना संक्लेश उठाना पड़ता है, कितना हर्ष-विषाद में वो डूबा रहता है, और क्या पूरे विश्व की व्यवस्था बनाने वाला क्या उसी हर्ष विषाद और उसमें डूबा रहेगा। नहीं वो दर्पण के समान अत्यन्त निर्मल है, सारी चीजें उसमें झलक सकती हैं, लेकिन वो उन चीजों से बिना प्रभावित हुए सिर्फ दिखाता है और अपने आपमें लीन रहता है। वो इस सब प्रपंच में नहीं है। ये बात तो स्पष्ट हो गई कि ये जो ईश्वर जो हमारी अपनी भ्रान्ति है और जो अपने आपको बचाने का उपाय हमने खोज लिया था, बस डाल दो सारा उसके ऊपर, अच्छा है तो बुरा है तो। इसमें भी थोड़ा सा लाभ तो है। थोड़ा लाभ ये है कि ईश्वर पर अगर सब कुछ डालने की तैयारी हो तो भी बड़ी शांति मिल सकती है। इस विविधताओं भरे संसार से हम धीरे से ऊपर उठ सकते हैं अगर ऐसी चीज आ जावे तो। लेकिन मजा हमारे साथ यह है कि अगर कुछ अच्छा होता है तो उसका श्रेय हम लेते हैं, बुरा होता है तो ईश्वर पर डालने का मन होता है कि क्या करें, ईश्वर को यही मंजूर था। ये दोहरा हिसाब हमारे साथ है। या तो हम माने कि “जा-विधि राखे राम, ता-विधि रहिये।” फिर सुख और दुःख दोनों में समता रखनी पड़ेगी। इन विविधताओं के बीच में भी, एकरूपता कायम करके रखनी पड़ेगी। ईश्वर की उपस्थिति का अहसास सिर्फ एक बात की हमें मदद करता है, एक बात में हमें सहायक बनता है, हमारे अपने परिणामों में होने वाले हर्ष-विषाद को शांत रखने में। ईश्वर की खोज और ईश्वर के सहयोग दोनों बातों को दो छोटे से उदाहरणों से समझ लें। 
     
    रविन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा कि उन्हें ईश्वर की खोज थी। गीतांजलि में उन्होंने ईश्वर के गीत गाये और उनके पड़ौसी ने उनसे पूछा कि आपको कभी ईश्वर का साक्षात्कार हुआ। तो बहुत मुश्किल में पड़े थे। उन्होंने अपने संस्मरण में लिखा है कि फिर मुझे ईश्वर की जितनी दरकार नहीं थी; उतनी मुझे लालसा थी उस पड़ौसी से बचकर रहने की, क्योंकि उसने सीधा पूछ लिया था कि ईश्वर का साक्षात्कार हुआ कि नहीं? अगर कोई ईश्वर के बारे में बात करे और हमसे कोई सीधा पूछ ले कि आप इतनी बातें कर रहे हैं, देखा है कभी उसको, तो हम बगलें झाँकने लगेंगे। हम यहाँ से वहाँ हो जाएँगे कि देखा देखा तो है ही नहीं। पर है वो, तो फिर चलें उसकी खोज करें। तो रविन्द्र नाथ ने लिखा कि मैं खोज पर निकला और मुझे पता भी मिल गया उसका कि फलानी बिल्डिंग में रहता है। मैं एड्रेस बिल्कुल नक्की करके, वहाँ गया और गाड़ी से नीचे उतरा और जैसा कहा गया था, वैसा ही किया। और मैं जब ऊपर सीढ़ियाँ चढ़ रहा था तो मेरे मन में विचार आया कि ईश्वर के पास जाने से पहले जरा विचार कर लेना चाहिये कि अगर वो मिल गया तो उससे बात क्या करेंगे। और चुपचाप जाना चाहिए। मैंने जूते उतार लिये और उतार करके हाथ में ले लिये - दबे पाँव ..... सामने जाकर के देखा तो नेमप्लेट बिल्कुल ठीक लगी थी। ईश्वर यहीं रहता है। यहाँ तक तय हो गया। रविन्द्रनाथ ने वर्णन किया है उसके पास बिल्कुल दबे पाँव पहुँचा हूँ। जैसे ही दरवाजा खटखटाने का मेरा मन हुआ, पर हाथ रुक गये कि ईश्वर की खोज में, मैं अगर लगा रहूँ तो कम से कम ये अनुभव तो होता है कि ईश्वर है। लेकिन जिस दिन मैं ईश्वर को इस तरह से जीता जागता पा लूँगा, फिर तो उसकी खबर भी नहीं लेऊँगा मैं। ऐसे तो बहुत से लोग हैं जिनसे मैं परिचित हैं और जिनसे मिल लिया है मैंने और फिर मैं भूल जाता हूँ, उनको उनसे मिलने के बाद। अच्छा यही है कि मैं ना मिलूँ और उसे खोजता रहूँ ताकि मुझे ईश्वर का ध्यान बना रहे। ईश्वर की खोज मुझे ईश्वर की याद बनाये रखने में मदद करती है कि मैं खोजता रहूँ और अगर मैंने ऐसा पा लिया और फिर भी मैं संसार में रहँ तो फिर ईश्वर को भूल जाऊँगा मैं। ईश्वर को पाने के बाद फिर संसार में रहने के लिये कोई आवश्यकता नहीं। 
     
    यह प्रतीक है कि एक बार अगर ईश्वर को पा लिया तो फिर संसार समाप्त हो जायेगा। ईश्वर को पाना अपने संसार को समाप्त कर देना है और कुछ नहीं। ये प्रतीकात्मक है, ईश्वर को पाना और इतना ही नहीं ईश्वर मदद कैसी करता है हमारे सारे कार्यों में, हमारी इस विविधता के बीच भी। हमारी इन विषमताओं के बीच भी। हमें समता का पाठ सिखाता है। जैसे कि हमने आपको उदाहरण दिया था पहले आज वो बहुत जरूरी है उसको याद करना। विनोबा की माँ जामण डालकर दही जमाती थी और राम का नाम लेती थी। विनोबा जब बड़े हो गये तो उन्होंने कहा कि माँ और सब बातें समझ में आती हैं। ये बताओ दही जामण से जमता है या ईश्वर का नाम लेने से ? यह क्लियर (स्पष्ट) कर दो। आगे हमें बहुत जरूरत पड़ेगी। आप तो अभी जमाती हैं, पर हम रोज देखते हैं कि जावण भी डालती हैं और राम का नाम भी लेती हैं। इसका मतलब है कि दोनों से ही जमता है क्या ? या किसी एक से जमता है ? अगर किसी एक से जमता है तो या तो जावण डालना बन्द करो या कि भगवान का नाम लेना बन्द करो। ये क्या मामला है, तो उनकी माँ ने हँसकर के कहा कि बेटे जामन देने से ही दूध का दही बनता है। जामण से ही जमता है तो फिर ईश्वर की क्या आवश्यकता ? बेटे, सिर्फ इतनी आवश्यकता है कि कल जब सुबह बहुत अच्छा दही जम जाएगा तो मुझे यह अहंकार ना आ जाये कि मैंने जमाया है, इसलिये राम का नाम ले लिया। मेरी श्रद्धा मेरे इस कर्तापने और अहंकार को कि मैं करता हूँ, इसको नष्ट करती है। इसलिये ईश्वर के प्रति श्रद्धा भी आवश्यक है। ईश्वर का इतना बड़ा रोल है। यह सहयोग बहुत जरूरी है ईश्वर का जीवन में। मैं उसके प्रति श्रद्धा रखू और अपने अहंकार को .... और अगर कल के दिन नहीं जमता है तो मैं किसी को शिकायत न करूँ। मैं किसी को दोषी ना ठहराऊँ। मैं संक्लेश न करूँ। इससे मुझे ईश्वर बचा लेता है। मुझे अहंकार और संक्लेश दोनों से बचाने में मदद करता है। ईश्वर की मेरे जीवन में मदद इतनी ही है। मैं ज्ञानवान हूँ तो मुझे अहंकारी बनने से रोकता है। बस इतना रोल है उसका और ये बहुत बड़ी चीज है इस तरह यदि हम देखें तो कुछ हद तक तो हमने इस बात को बहुत क्लियर कर लिया कि हाँ सचमुच है ये ऐसा ही। 
     
    देखें अपन ! अग्नि को गरम बनाने में किसी का हाथ नहीं है, बर्फ को ठण्डा बनाने में किसी का हाथ नहीं है। उसी तरह दूध में पानी मिलाने का किसी का काम है क्या। नहीं, हमेशा से है। तिल में तेल भरने का ..... किसी का काम है क्या ? हमारी बुआ पहली बार विदेश गईं तो वह यहाँ से जलेबी लेकर गई थीं - जलेबी ..... वो सुनाती हैं, टेबल टेनिस की वो रही थीं खिलाड़ी तो वहाँ खेलने गई थीं उस समय उस जमाने में, अब तो वहीं पर बस गईं, तो हम लोगों को बाद में आकर के बताया कि वो लोग बहुत आश्चर्य कर रहे थे। वे मेरे से पूछने लगे कि ये जो गोल-गोल चीज है वो बनी कैसे, इसमें वो जो सीरा है वो इन्जेक्शन से भरा है क्या ? अब उनने तो यह वाली डिश देखी ही नहीं थी, ये भर कैसे गया, उसमें सीरा भरा होगा सीरिंज से। ठीक ऐसा ही ..... हमारे मन में प्रश्न उठ सकता है कि दूध में पानी किसने मिलाया ? हमारे जीवन को ऐसा किसने बनाया? नहीं दूध में पानी जैसे हमेशा से है ऐसा ही संसार में यह जीव विकारी अवस्था को हमेशा से प्राप्त है। सुख-दुःख, कमी-बेशी, ज्ञान-धन, दरिद्रता ये सब हमेशा से हैं। जैसे कि दूध में पानी है, किसी ने उसको मिलाया नहीं है, स्वाभाविक है, जैसे कि तिल में तेल किसी ने भरा नहीं है वो ..... जैसे ही तिल उगता है उसमें तेल भी हमेशा है। जैसे ही मनुष्य जन्म लेता है वो अपने साथ अपने विकारों को लेकर आता है। ये विकार हैं क्या चीज ? 
     
    अब बस यहाँ से शुरू करते हैं अपन अपनी यात्रा। कितने दिन चलेगी उतने दिन जब तक कि समझ में नहीं आ जावेगी। बस ..... जिस दिन समझ में आ जाये, अपना काम पूरा हो गया। और कोई आवश्यकता नहीं है ज्यादा उलझने की, ज्ञान उतना ही आवश्यक है जितना कि लगी हई भीतर की गठानों को खोल देवे और हमें उन्मुक्त कर देवे, उलझनों से पार कर देवे, हमें चीज स्पष्ट सामने आने लगे, ठीक इतना ही आवश्यक है। 
     
     उसके लिये अपन ने यह प्रक्रिया शुरू की है। यहाँ तक पहुँच गये कि मेरे अपने विकार हमेशा से हैं सबके भीतर, जो भी दिखाई पड़ रहा है वो सारा खेल इसी विकार का है और वो विकार आते कहाँ से हैं, हमेशा से हैं। ..... उनका कारण भी मुझे अपने भीतर खोजना पड़ेगा और उनका कारण मेरे अपने विकारों का मेरा अपनी आसक्ति, मेरी अपनी अज्ञानता, मेरा अपना ये शरीर, इन विकारों को आगे बढ़ाने में मदद देता है और मेरे अन्दर के जो विकार हैं वो मेरे द्वारा ही जेनरेट होते हैं, किसी और के द्वारा नहीं। मैं विकार से ग्रसित हूँ हमेशा से और उन विकारों की जिम्मेदारी मेरी अपनी है, व्यक्तिगत है। एक Vicious (विशयस) सर्कल है, जिससे हम अपने विचार की क्रियाएँ, अपनी संवाद की क्रियाएँ, अपने बॉडी की, शारीरिक क्रियाएँ हमेशा करते रहते हैं और इस शरीर के माध्यम से हमारे भीतर जो भी भाव आते हैं, विचार और अनुभूति होती है वे सारा इस विविधता के लिये रेग्यूलेट (क्रियान्वन) करती हैं और कोई अतिरिक्त नहीं है। 
     
    हमारे अपने कर्म और हमारा अपना शरीर हमारे संसार के भ्रमण का और इस विविधता का कारण है। यहाँ तक, हमने इस बात को समझ लिया। कर्म कैसे हैं ? वे हमारे साथ बँधते भी हैं, वे हमारे भोगने में भी आते हैं, वे हमारे करने में भी आते हैं; तीन तरह के हैं, कुछ कर्म हैं जो हम करते हैं, कुछ कर्म हैं जिनका हम फल भोगते हैं। कुछ कर्म हैं जो हमारे साथ फिर से आगे की यात्रा में शामिल हो जाते हैं और इस तरह से यह यात्रा विशयस सर्कल है, इसलिये संसार को चक्र माना है, जिसमें निरन्तरता बनी रहती है। ठीक एक गृहस्थी की तरह जैसे बनी रहती है। ठीक एक गृहस्थी की तरह जैसे किसी गृहस्थी चलाने वाली माँ को हमेशा इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि शक्कर कितने दिन की बची और गेहँ कितने दिन का बचा और आटा कितने दिन का बचा। इसके पहले कि वो डिब्बे में हाथ डालकर पूरा साफ करे। ऐसा मौका आता ही नहीं है, दूसरी तैयारी हो जाती है। बुंदेलखण्ड में कहते हैं कि ड्योढ़ लगी रहती है, तब गृहस्थी चलती है। ड्योढ़ लगी रहती है, मतलब कोई भी चीज एकदम खत्म नहीं होती, खत्म होने के कुछ घण्टे पहले ही सही, कुछ मिनिट पहले वो शामिल हो जाती है, तब चलती है गृहस्थी। ठीक ऐसे ही हमारा संसार चलता है। हम जो भोगते हैं, उसके भोगते समय सावधानी और असावधानी हमारी होती है। दो ही चीजें हैं हमारी अपनी असावधानी जिसको हम अपनी अज्ञानता कहलें; हमारी अपनी आसक्ति। इनसे ही मैं अपने जीवन को विकारी बनाता हूँ और इसके लिये मुझे करना क्या चाहिये ? मेरे आचरण की निर्मलता और दूसरी मेरी अपनी साधना ..... समता की साधना। ये दो चीजें हैं। इस संसार की विविधता से बचने के लिये। कुल तो इतना ही मामला है और इतने में ही कुछ लोगों को समझ में आ सकता है, कुछ लोगों को इतने में समझ में नहीं आ सकता। तो आचार्य भगवन्त, तो श्री गुरू तो सभी जीवों का उपकार चाहे हैं। तो फिर इसका विस्तार करते हैं और वो विस्तार अपन करेंगे। जो विस्तार रुचि वाले शिष्य हैं, उनको विस्तार से समझ में आता है, जो संक्षेप रुचि वाले हैं उनको बात इतनी ही है समझने की, और मध्यम बुद्धि वाले हैं उनको तो विस्तार करके बताना होगी। इसमें कई क्रॉस क्यूशचन्स उठेंगे। मन में बहुत सारी बातें आयेंगी। ये प्रक्रिया वन साइडेड (एकतरफा) चलाने का मेरा मन नहीं है। अभी तक चलाई है हमने वन साइडेड कि मैं ही मैं आकर के आपको सब बातें बोलता रहूँ और आप बिल्कुल चुप बैठे सुनते रहे। अब मामला जरा दूसरा है। 
     
    जरूर अवगत करायें ताकि कल हम उन चीजों पर भी विचार कर सकें। ये प्रक्रिया इस तरह चलेगी तो शायद बहुत अच्छे से हम इस चीज को यहाँ नहीं पूछेगे, लेकिन आप अपने मन में उठने वाली शंकाओं को मेरे से पूछे। मैं उन सब पर विचार करके कल उस चीज को पहले कहूँ, फिर बाद में आगे की प्रक्रिया को शुरू करूँ। कुछ प्रश्न तो हमारे उसी प्रक्रिया में पूरे हो जाएँगे। हम जो कहेंगे या समझेंगे बैठकर के, ये दोनों तरह से डिस्कशन होना चाहिए तब बात समझ में आयेगी। 
     
    चक्र कैसा है ? चक्र मेरी असावधानी और आसक्ति है। और कुछ भी नहीं है। ये चीज तो बिल्कुल स्पष्ट हो गई। विविधताओं का कारण सबकी अपनी असावधानी। जो जितना सावधान है वो उस विविधता से पार है। जो जितना असावधान है वो उस विविधता में चमत्कृत हो जाता है। बस जो सावधान है वो संसार से आसानी से बाहर निकल जाता है और जो विविधताओं को देखकर के उनका समाधान खोजने की कोशिश नहीं करता बल्कि वे विविधताएँ उसे आकृष्ट करती हैं और उसकी आसक्ति को बढ़ाती हैं। जो आसक्त हो जाता है ..... तो फँस जाता है, ट्रेप हो जाता है उससे सारी चीजें। जिस चीज का जितना आकर्षण होगा, हम उस चीज से उतना बँध जाएंगे। बँधना और कोई बड़ी चीज नहीं है। मेरी आसक्ति मुझे इन चीजों की विविधताओं से बाँध लेती है। और मैं सावधान हो जाऊँ, और मैं अनासक्त होकर गुजरूँ तो ये संसार अपनी जगह ज्यों का त्यों है। मैं इस चक्र से पार हो जाता हूँ। मैं परिधि से पार होकर सेन्टर में आ जाता हूँ। और हम सब की कोशिश सिर्फ इतनी है कि इस संसार की परिधि पर चक्कर खाते जिन्दगी निकल गई, और मुझे अब इस चक्कर को छोड़ करके अपने सेन्टर, अपने केन्द्र में स्थापित करना है अपने आपको। प्रक्रिया इतनी ही है। 
     
    वो जो मैं उदाहरण कह रहा था। चार मित्र थे और चारों के मन में आया कि वे कुछ जीवन में हासिल करें। कोई ऐसी चीज जिससे कि उनको संतोष हो। सब लोगों के मन में यही बात आती है कि यहाँ कुछ ऐसा हासिल कर लें जिससे कि संतोष हो, लेकिन सबके अपने संतोष का ढंग अलग-अलग है। कोई थोड़े में सन्तुष्ट है। कोई उससे ज्यादा में सन्तुष्ट है। कोई और ज्यादा में सन्तुष्ट है और कोई सन्तुष्ट नहीं है। जो जितना यहाँ सन्तुष्ट है वो उतना संसार से पार है और जो जितना असन्तुष्ट है उसका संसार उतना बड़ा है। 
     
     तो चारों मित्र चले। किसी ने बताया इस रास्ते जाओ। यहाँ पर जगह-जगह तुम्हें बहुत कीमती चीजें मिलेंगी। उन्होंने कहा चलते हैं चले वो ..... चारों एक साथ चले और जैसे ही कुछ किलोमीटर पहँचे वहाँ पर दिखाई पड़ी एक ताँबे की खदान। कहानी प्रतीकात्मक है, पढ़ी होगी आपने भी, ताँबे की खदान मिली। चार में से एक ने कहा, अरे ..... अरे ..... इतनी कीमती चीज ले लो बस, इससे जीवन चल जायेगा। जितनी लेना है उतनी ले लो। 
     
    बाकी तीन ने कहा, नहीं, इससे कुछ नहीं होने वाला। ये बहुत हल्की धातु है। जरा ..... जब ताँबे की मिली है तो बताने वाला बताता है कि बहुत मिलता है। तो थोड़े और आगे चलो। हाँ ..... चौथा वाला वहीं रुक गया, तीन आगे बढ़ गये। कुछ किलोमीटर चले, अब की बार चाँदी की खदान मिली। उन्होंने कहा, देखो ..... मैंने कहाँ था ना। वो चौथा वाला बिल्कुल बुद्ध। ऐसा ही लगता है यहाँ पर, ऐसा ही लगता है सबको और उनमें से भी, तीन में से तीसरे वाले ने कहा कि मुझे तो संतोष है। चाँदी की बहुत कीमत है। दो ने समझाया उसको कि बताने वाले ने देखा कितना सही बताया था, ताँबे की और चाँदी की मिल गई है तो अब निश्चित रूप से सोने की मिलेगी। तुम कहाँ रुक रहे हो यहाँ पर। उसने कहा नहीं ..... नहीं ..... मैं रुकता हूँ ..... रुक गया वो। 
     
    दो आगे बढ़ गये। मिलना थी सोने की ..... मिली ..... क्यों नहीं मिलेगी ? सोने वाली खदान भी मिल गई। तब दो में से एक कहता है कि बस अब बहुत हुआ। एक ने कहा, सुनो जब सोने की मिली है तो अब हीरे-जवाहरात की तय है। जयपुर आने ही वाला है अब बस जस्ट, जब सारे स्टोपेज छोड़ दिये आपने तो अब बस थोड़ी देर और चलो। और वो आगे बढ़ गया। तीन ताँबे, चाँदी और सोने में सन्तुष्ट होकर के रह गये। आप इसको अपने ऊपर घटित मत करना भैया, नहीं तो आप जरूर नाराज हो जाएँगे और अभी मुझे आपके साथ रहना है कुछ दिन (हँसकर) ..... नाराज नहीं करूँगा। लेकिन हम किस तरह से फँस जाते हैं। हमारी अपनी असावधानी कितनी है, हमारे अन्दर के विकार जो कि अनादिकाल से चले आ रहे हैं किस तरह हमें असावधान कर देते हैं, किस तरह अपनी असावधानी से हम आसक्त हो जाते हैं और किस तरह इस जाल - सर्किल में फिर से शामिल हो जाते हैं और फिर एक उलझन अपने हाथ से खड़ी कर लेते हैं नये सिरे से। 
     
    चौथे वाले ने देखा कि हीरे-जवाहरात की खदान तो आई ही नहीं। लेकिन इतना जरूर है कि एक व्यक्ति सामने जरूर बैठा है वो शायद कुछ सूचना देगा, पहुँचा उसके पास। देखा तो उस व्यक्ति के ऊपर एक चक्र घूम रहा था बहुत तेजी से .....बिल्कुल अधर में, ऐसा भी नहीं कि उसके ऊपर कोई कील हो जिस पर घूम रहा हो वो, तो बस चक्र घूम रहा था और वो बड़ा परेशान था, भूखा-प्यासा बेहाल था। कपड़े सब फट गये थे, जर्जर थे, पर चक्र घूम रहा है और वो बैठा है।
     
    पूछा उससे कि मामला क्या है ? उसने कहा कि पहले यह बताओ तुम मेरी मदद करोगे क्या ? करूँगा, तो फिर मैं तुम्हें हीरे-जवाहरात की तो खदान बता सकता हूँ। उसने कहा, सुनो तुम मेरी जगह आना स्वीकार करो तो मैं तुम्हें बता सकता हूँ। उसने कहा, ठीक है। इसमें क्या बात है पर मुझे ये जो चक्र है ना इसकी वजह से सूझता नहीं है, मेरा ये चक्र तुम ले लो तो फिर मैं बाहर खड़ा होकर तुम्हें बता सकता हूँ कि वो खदान कहाँ है ? उसका मेप बना दूंगा। मैं जरा इससे मुक्त हो जाऊँ बस तुम सिर्फ इतनी भावना करो कि मैं मुक्त हो जाऊँ और मुझे हीरे-जवाहरात की खदान का पता बतायें। उसने कहा, मैं भावना करता हूँ कि तुम मुक्त होओ और मुझे जल्दी से बताओ - बस इतना ही कहना था कि वो चक्र उसके ऊपर आकर के फिट हो गया और बाहर खड़े होकर उसने कहा कि हीरे-जवाहरात की यहाँ पर कोई खदान नहीं है वो भीतर ही है। मैं मुक्त हो गया अब मुझे चाँदी-सोने और उसकी भी नहीं चाहिये। सीधा यहाँ से घर जाऊँगा, यहाँ से सीधा, अब मुझे कुछ भी नहीं चाहिये। अब कोई और दूसरा आयेगा जब उस चक्र को संभालेगा तब तुम मुक्त होगे। प्रतीकात्मक है, ये ऐसा नहीं समझना कि कोई हमारे इस चक्कर को स्वीकार कर ले तो हम उस दिन चक्कर से मुक्त हो जायेंगे; नहीं हम जिस दिन चाहें, उस चक्कर से मुक्त होना चाहें, हम मुक्त हो सकते हैं। हमारी अपनी सावधानी और हमारी अनासक्ति इस संसार के चक्र से मुक्त  कर सकती है लेकिन इस चक्र को पहले समझ लें। समझेंगे अपन। ये चक्र कैसे शुरू हुआ इससे मुक्त होने का उपाय क्या है ? इन सब पर अपन क्रमशः विचार करेंगे। 
     
    इसी भावना के साथ कि हम इस सारी प्रक्रिया को समझ करके और अपने जीवन को इस संसार के चक्र से मुक्त कर सकेंगे। 
  20. Vidyasagar.Guru
    _*🏳‍🌈🚩इंदौर भव्य पंचकल्याणक पात्र चयन 🚩🏳‍🌈*_
      दिनांक - 19 जनवरी 2020  रविवार
    _विश्ववन्दनीय आचार्य देव विद्यासागर जी महाराज के ससंघ सानिध्य में पंचकल्याणक महोत्सव *इंदौर महानगर* में *चमेली देवी पार्क में*  26 जनवरी 2020 से 01 फरवरी 2020 तक आयोजित है...!!_
    _उसी महोत्सव के लिये आज खुला है पुण्य का महाद्वार...._
     
    ◆ भगवान के माता पिता
    श्रावक श्रेष्ठी श्रीमान संजय जी श्री मति नीलू जी जैन( मैक्स परिवार ) इंदौर
    ▪सौधर्म इंद्र महापात्र
    श्रावक श्रेष्ठी श्री मान
    सचिन जी उधोगपति 555 कलश 555 श्रीफल
     ▪ धनपति कुबेर
    आलोक जी राजेंद्र जी आकाश जी कोयला परिवार
           *207 कलश 207 श्रीफल
           
    ▪ महायज्ञनायक
    सुंदर लाल जी डबडेरा परिवार
           126 कलश  126 श्रीफल
     
          
     ▪ राजा श्रेयांश
    मनीष कुमार जी प्रकाश चंद जी बेगमगंज भोपाल
           108 कलश  108 श्रीफल
    ▪ भरत चक्रवर्ती
    सुरेश जी दिवाकर इंदौर गौरझामर प्रवासी
           45 कलश  45 श्रीफल
    ▪ बाहुबली
    सुधीर जी जैन डिस्कवर परिवार
          36 कलश  36 श्रीफल
    ▪ ईशान इंद्र
    विमल, मनोज जी बाकलीवाल इंदौर
           108 कलश 108 श्रीफल
    🔹 26/01/19 से 01/02/19 मे होने जा रहा है पंचकल्याणक महामहोत्सव
     
     
    🔶 इंदौर पंचकल्याणक महोत्सव...
    ●▬▬▬▬🚩❖✹❖🚩▬▬▬▬●
    📯 दिनांक- 26 जनवरी से 01 फरवरी 2020 तक
    💫 संत शिरोमणि आचार्य भगवन 108 श्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ के मंगल सानिध्य में होने जा रहे पंचकल्याणक महोत्सव इंदौर के पात्र-
    🔹भगवान के माता-पिता
    👑 श्रेष्ठी श्रीमति नीलू जैन श्री संजय जी जैन मैक्स इंदौर
    🔹सौधर्म इन्द्र-
    👑 श्रेष्ठी श्री सचिन जी जैन उधोगपति इंदौर
    🔹धनपति कुबेर-
    👑 श्रेष्ठी श्री आलोक जी राजेन्द्र जी आकाश जी जैन सिंघई कोयला परिवार इंदौर
    🔹महायज्ञ नायक-
    👑 श्रेष्ठी श्री सुंदरलाल सुशील जी जैन डबडेरा परिवार इंदौर
    🔹ईशान इन्द्र-
    👑 श्रेष्ठी श्री विमल जी मनोज जी बाकलीवाल इंदौर
    🔹 सानत इन्द्र-
    👑 श्रेष्ठी श्री जितेन्द्र जी नीरज जी अंकित जी जैन इंदौर
    🔹 माहेन्द्र इन्द्र-
    👑 श्रेष्ठी श्री देवेन्द्र कुमार मनोजकुमार जैन आरोन वाले इंदौर
    🔹राजा श्रेयांश-
    👑 श्रेष्ठी श्री मनीष कुमार प्रकाशचंद्र जी जैन बेगमगंज वाले भोपाल
    🔹भरत चक्रवर्ती-
    👑 श्रेष्ठी श्री सुरेशकुमार जी जैन दिवाकर गौरझामरवाले
    🔹बाहुवली-
    👑 श्रेष्ठी श्री सुधीर जी जैन डिस्कवर परिवार इंदौर

     सभी के पुण्य की बहुत बहुत अनुमोदना...
     
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