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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

खालीपन, खुलापन, भरापन और भारीपन


Vidyasagar.Guru

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खालीपन, खुलापन, भरापन और भारीपन

पुराने जमाने की बात है। एक श्रेष्ठीपुत्र पिता की आज्ञा से व्यापार के लिए परदेश गया। पिता ने व्यापार के लिए आवश्यक हिदायतें दी और जाते समय उसे कुछ खाली पीपे देते हुए कहा- बेटे तू व्यापार के लिए जा रहा है, पैसे कमाएगा, रास्ते में समुद्री मार्ग आएगा कुछ परेशानियाँ, व्यवधान आ सकते हैं इन पीपों को अपने साथ रखना। सारे पीपे ऊपर से सील्ड पर अंदर से खाली थे। वह व्यापार के लिए गया, काफी पैसा कमाया, खूब धन संग्रह करके जब वह अपने घर लौट रहा था तो रास्ते में समुद्र में भेंवर उठी, नाव का संतुलन बिगड़ने लगा। नाविक ने कहा कि नाव के भार को कम करो। युवक ने सोचा क्या करें? नाव को खाली करने की बात आई तो उसने जितने खाली पीपे थे सब फक दिए। भरे पीपे नाव में ही अपने पास रखे रहा। खाली पीपे फक दिए और भरे पीपे अपने पास ही रखने से नाव का भार बढ़ा और वह नाव डूब गई, उसका जीवन बबाद हो गया। काश उसने खाली पीपे रखे होते तो उनके माध्यम से वह समुद्र को पार भी कर सकता था। उसे इस रहस्य का पता बाद में चला कि खाली पीपे तो तैरते हैं और भरे पीपे डूब जाते हैं। काश! मैंने एक भी पीपा बचा रखा होता तो उसके सहारे इस पार से उस पार हो जाता।

 

खालीपन यानी आकाश जैसी उन्मुक्तता

बंधुओं! मैं आपसे केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि संसार से पार उतरना चाहते हो तो खाली पीपा बनी, पीपे को खाली रखी, खाली होना जरूरी है और इसी खालीपन का नाम है आकिञ्चन्य।

 

आज के चार शब्द हैं- खालीपन, खुलापन, भरापन और भारीपन। आकिञ्चन्य का मतलब है खाली हो जाना। खाली होने से अभिप्राय क्या है? जब सब कुछ त्याग दिया फिर उसके बाद बचा क्या? सर्वस्व त्यागने के बाद क्या बचा? निश्चित रूप से बाहर से त्यागने के बाद कुछ भी नहीं बचा लेकिन सब कुछ त्याग देने के बाद भी बहुत कुछ बचा रहता है। बाहर का त्याग पर्याप्त नहीं है। बाहर के त्याग के बाद भी हमारे भीतर बहुत कुछ भरा रह सकता है। जब तक हम अपने भीतर की खाली नहीं करते तब तक जीवन में आनन्द की अभिव्यक्ति नहीं होती। सब त्यागने के बाद अब कुछ त्यागने की बात क्यों?

 

आकिंचन्य बहोत उछ भूमिका की बात है मेने त्याग दिया लेकिन त्यागने के बाद भी मन में ये भाव आ सकता है कि मैंने हाथी छोड़े, रतन छोड़े, निधियाँ छोड़ीं, वैभव छोड़ा। तेरा था क्या जो तूने छोड़ा है? छोड़ने के बाद भी यदि तू कहता है कि मैंने छोड़ा यानि तू पकड़े हुए है, अभी खाली नहीं हुआ है। सब त्याग देने के बाद भी; और कुछ नहीं तो जिसे त्यागा है उस त्याग का ममत्व बना रहता है। त्याग के बाद त्याग के ममत्व के त्याग का नाम आकिञ्चन्य है। पूरी तरह खाली हो जाना। अध्यात्म की साधना का चरम रूप आकिञ्चन्य है। मेरा कुछ भी नहीं है ये अनुभूति ही मेरे जीवन का यथार्थ है। जब मेरा कुछ है ही नहीं तो मैं छोड़ें कैसे? त्याग देने के बाद भी त्याग के प्रति राग हो सकता है या त्यागी के मन में राग हो सकता है। बाहर से कुछ नहीं है पर भीतर से सब भरा है। यहाँ सब धोती-दुपट्टे में हो, किसी की भी जेब नहीं है, अभी एक पैसा भी तुम्हारे पास नहीं है, जिनकी जेब है उसमें भी दो-चार-दस-बीस-पचास हजार होंगे, उससे ज्यादा नहीं। अगर देखी तो अभी कुछ भी नहीं है, क्यों गणेश जी अभी एक पैसा भी नहीं है पर करोड़पति हो कि नहीं? एक भी पैसा नहीं है लेकिन सभा में विराजमान करोड़पति अपने आप को करोड़पति मान रहा है क्योंकि मन तो जुड़ा हुआ है। मैं कौन हूँ, मेरा स्टेटस क्या है, मेरे पास कितनी सम्पति है, मेरा कितना वैभव है ये सब मन में है कि नहीं? ये सब बाते मन में बैठी हैं यानि बाहर से छोड़ने के बाद भी मन में बहुत कुछ है और जब तक मन में ये बात बैठी है तब तक आप भरे हो। जब तक भरे हो तब तक भारी हो। अपने मन को खाली करो।

 

अकिचनत्व की अनुभूति वही कर सकता है जिसे अपने आत्मा के स्वरूप का ज्ञान होता है। त्याग बहुत उच्च साधना है। लोग त्याग भी दो प्रकार से करते हैं एक में पर को त्यागते हैं पर परवस्तु को अपना मानकर त्यागते हैं। मैंने त्यागा, मैंने दान दिया, मैंने अपना इतना रुपया इस कार्य में लगाया -ये तुमने कहा। आकिञ्चन्य धर्म भीतर तक का ऑपरेशन करता है। वह कहता है अपने शब्दों को सम्हाल कर बात करो, तुमने 'अपना" क्यों लगाया? तुमने अपना लगाया; तेरा था क्या, लेकर क्या आया था, इस दुनिया में जब आया था तो क्या लेकर आया था, ये बैंक बैलेन्स क्या तू साथ में लेकर आया था, ये धन-दौलत क्या तू साथ में लेकर आया था, क्या लेकर आया था? बोलो। कुछ भी लेकर नहीं आए थे, यहाँ से जाओगे तो क्या लेकर जाओगे? न कुछ लेकर आए हो न कुछ लेकर जाओगे। फिर भी कहते ही मैंने अपना रुपया लगाया; तेरा है क्या? ये शरीर तेरा नहीं तो ये सम्पति तेरी कैसे हो सकती है। गहराई में जाने की बात है। मेरा है क्या जो मैंने दिया? ये तो तेरा अज्ञान है, तेरा मिथ्या अहंकार है कि तू पराई वस्तु पर अपनी मालकियत थोप रहा है। कोई व्यक्ति दूसरों की सम्पति पर अपनी मालकियत थोपे तो उसको आप क्या कहोगे? महाराज! किसी कमजोर को सम्पत्ति पर मालकियत बलवान आदमी को सम्पत्ति हो तो? मान लीजिए कोई व्यक्ति प्राइम मिनिस्टर ऑफ इण्डिया(भारत के प्रधानमन्त्री) की सम्पति को अपनी सम्पत्ति मानकर उसका गर्व करे तो आप क्या कहोगे? इसको आगरा भेजना पडेगा और क्या कहेंगे। पास में तो आगरा ही है। यही कहोगे न कि ये पागल है, प्राइम मिनिस्टर(प्रधानमन्त्री) की सम्पति है नहीं। ये इसका अज्ञान है, यही बोलोगे न कि उसको आगरा तुम जिस सम्पति को अपना मान रहे हो वह किसकी है? बोलो किसकी है? महाराज मेरी है। तुम्हारी हो कैसे गई? तुम्हारे पास है, पर तुम्हारी नहीं है इस सच्चाई को जानो। तुम्हारे पास है, तुम्हारी नहीं है, तुमने उसे अपनी मान रखा है। जिस दिन यथार्थ का ज्ञान होगा उस दिन तुम्हें समझ में आ जाएगा भैया ये मेरी नहीं है, मेरे पास है।

 

कौन ऊँचा मालिक या मुख्तार

मेरी सम्पत्ति और मेरे पास की सम्पत्ति में बड़ा अंतर है। फीलिंग (अनुभूति) में अन्तर है। मान लिया कि तुम्हारे पास जो सम्पति है वह तुम्हारी है तो उस सम्पत्ति को अपने हिसाब से मेनटेन रखो, दावा करो कि जैसा मैं चाहूँगा वैसा ही होगा, ये सम्पति सदैव बनी रहेगी, स्थायी बनी रहेगी। है ऐसी सम्भावना? मेरी सम्पति मेरी बनी हुई है ऐसी आप मान्यता रख रहे हो, सच्चे अर्थों में तो तुम कह रहे हो कि ये सम्पत्ति मेरी है पर तुम्हारी नहीं है। महाराज! तो फिर किसकी है? ये सम्पत्ति कर्म की है। जब ये शरीर ही तुम्हारा नहीं तो सम्पत्ति की बात ही क्या? ये तुम्हारी नहीं है, कर्म की है। कर्म की मर्जी रहने तक तुम्हारे पास है, जिस दिन कर्म चाहेगा एक झटके में छीन लेगा। है तुम्हारे पास ताकत? है तुम्हारे पास सामथ्र्य कि कर्म की मर्जी के बिना एक क्षण भी उस सम्पत्ति को अपने पास रख सको। ये जीवन का यथार्थ है, इसे पहचानो। ध्यान रखो! सम्पति का त्याग दो तरह की मानसिकता से किया जाता है- एक व्यक्ति है जो सम्पति को अपनी मानकर त्यागता है और एक व्यक्ति है जो सम्पति को पर मानकर छोड़ता है। दोनों की मानसिकता में बहुत अन्तर होता है। जो सम्पत्ति को अपनी मानकर त्यागता है उसके मन में अभिमान भी आ सकता है, आता भी है लेकिन जो सम्पति को पर मानकर छोड़ता है उसके मन में किसी प्रकार का अभिमान नहीं आता अपितु अपने आपको दायित्व-मुक्त और निर्भार महसूस करता है।

 

एक उदाहरण देता हु आपके यहाँ कोई व्यक्ति आया पडोसी ही पानी पीने के लिए आया, आपने उसे पानी पिलाया और पानी पीते-पीते अचानक उसका ध्यान आपके जग पर गया, जग पर उसका नाम लिखा है और वह कह रहा है भाईसाहब! ये जग आपके यहाँ कैसे आ गया, ये जग तो मेरा है। अरे! आपका है, क्षमा करना, अभी भेजता हूँ। तुरंत रिटर्न(वापिस) करोगे क्योंकि देख लिया इसका नाम है, मेरा नाम नहीं है। आपकी दुकान पर कोई भूखा आदमी आया, आपने हजार रुपया उसको दिया तो मन में क्या भाव आएगा चलो आज मैंने अपने हजार रुपये एक आदमी के काम के लिए दे दिए, एक भूखे के काम में मेरे हजार रुपये आ गए। हजार का नोट दिया, वह भी त्याग किया और जग वापस किया ये भी त्याग किया पर दोनों में अन्तर है। हजार रुपया देते समय मन में गर्व है और जग लौटाते समय लज्जा है। अन्तर है क्योंकि नोट को अपना मानकर दिया और जग को पराई वस्तु मानकर छोड़ा। आचार्य कुंद कुंद कहेते है

 

जह णाम कोवि पुरिसो परदव्वमिण ति जाणिनुं मुयदि।

तह सव्वे परभावे, णादूण विमुंचदे णाणी॥

जैसे कोई व्यक्ति पर द्रव्य को पर जानकर छोड़ देता है बस वही उसका वास्तविक प्रत्याख्यान होता है। पर को पर जानकर छोड़ा, मेरा कुछ है ही नहीं, ग्रहण करने की बात बहुत उथली है। ग्रहण करना और छोड़ना बहुत ऊपर की बाते हैं। गहरी बात तो है कि मेरा कुछ है ही नहीं, सब छोड़ दो। आकिञ्चन्य यानी भीतर-बाहर से खाली हो जाना। जब खाली हो जाओगे तो निश्चिन्त रहोगे। अभी आप सब यहाँ खाली होकर बैठे हो, खाली हो इसलिए खुले हुए भी बैठे हो, निश्चिन्त हो। जिस समय आपकी जेब में कुछ रकम हो उस समय इतने निश्चिन्त बैठ पाते हो? जेब में रकम हो और मोटी रकम; जितनी मोटी रकम उतनी ज्यादा चिन्ता होती है, ध्यान वहीं जाता है, यहीं तो जेबकतरों को संकेत मिल जाता है कि माल कहाँ है। बार-बार हाथ जा रहा है जरूर जेब भरी होगी। अभी आपके पास कुछ नहीं है इसलिए निश्चिन्त हो, कुछ भी हो जाए धोती-दुपट्टा कोई क्या ले जाएगा। जो जितना खाली होता है वह उतना खुला होता है और जो जितना भरा होता है उसका मन उतना भारी होता है। खाली करने में सबसे बड़ा बाधक तत्व यदि कुछ है तो हमारे मन की आसक्ति अथवा ममता है। अंदर पलने वाली आसक्ति या ममता ही हमे इस संसार में रुलाती है, हमें उलझाती है, ये ही बंधन का कारण है। आचार्य कहते हैं

 

बध्यते मुच्यते जीवः सममो निर्ममः क्रमात् |

तस्मात् सर्वप्रयत्नेन निर्ममत्वं विचिन्तयेत् ||

 

ममत्व से बन्धान, निर्ममत्व से मुक्ति

ये जीव ममता के कारण बंधन को प्राप्त होता है और निर्ममत्व से मुक्त होता है इसलिए यदि तुम्हारे मन में मुक्ति की अभिलाषा है तो सर्व-प्रयत्नों से निर्ममत्व की प्राप्त करो। ममता या आसक्ति चार चीजों से होती है- शरीर से, सम्पति से, सामग्री से और सम्बन्धी से। शरीर से ममत्व, सम्पति से ममत्व, सामग्री से ममत्व और सम्बन्धी से ममत्व।

 

सबसे पहला राग शरीर का राग होता है, देह को व्यक्ति अपना मानता है। देहानुराग व्यक्ति को उसके प्रति आसक्त बना देता है। निज-पर देह के साथ आसक्ति मनुष्य को अन्धा बना देती है, उसके कारण व्यक्ति बहुत दुखी होता है। इस देहासक्ति को देह की वास्तविकता के चिंतन से क्षीण किया जा सकता है। शरीर की अशुचिता का स्मरण करने वाला व्यक्ति देहासक्ति से बचता है इसलिए हमें अपनी देहासक्ति को मन्द करने का प्रयास करना चाहिए। पर क्या बताएँ शरीर के प्रति ऐसी आसक्ति होती है कि चौबीसों घण्टे व्यक्ति उसे ही सजाने-संवारने में लगा रहता है। संत कहते हैं- ठीक है; लग जाओ लेकिन इस देह की वास्तविकता का थोड़ा विचार तो करो, जिस देह के बारे में तुम सोच रहे हो, अभी जहाँ हो उससे पच्चीस-पचास वर्ष पीछे मुड़कर देखो तो तुम्हें दिखाई पड़ेगा नंग-धड़ग खेलता हुआ एक नन्हा सा शिशु, और पीछे जाओगे तो तुम्हें नजर आएगा माँ की कोख में उल्टा लटका हुआ एक विकासोन्मुखी भ्रूण और अभी जहाँ हो उससे पच्चीस-पचास वर्ष आगे बढ़कर देखो तुम्हें तो तुम्हे दिखाई पड़ेगा लाठियों के सहारे चलता हुआ, हाँपता-काँपता एक वृद्ध और थोड़े आगे बढ़ोगे तो तुम्हें दिखाई पड़ेगी एक सुलगती हुई चिता जिसमें तुम्हारा अपना ये सुंदर सलौना रूप धू-धू कर जलता हुआ प्रतीत होगा। यही है इस देह की कहानी, यही है इस काया की कथा और यही है जीवन की वास्तविकता।

किस पर मुग्ध हो रहे हो? शरीर पर आसक्त मत हो, शरीर का उपयोग करो, ये शरीर मेरा नहीं है, ये मेरे साथ जाने वाला नहीं है, ये कभी भी विनष्ट हो जाने वाला है, इस पर आसक्ति मेरे अन्दर के अज्ञान की परिणति है। मुझे इस पर आसक्त नहीं होना है। शरीर का उपयोग करके अपने भीतर के अशरीरी तत्व को प्राप्त करना है। एक सम्यग्दृष्टि भी शरीर का उपयोग करता है और एक अज्ञानी व्यक्ति भी शरीर का उपयोग करता है। सम्यग्दृष्टि अपने शरीर को मोक्ष का साधन मानकर उसका उपयोग करता है और मिथ्यादृष्टि अपने आपको ही शरीर रूप मानकर चौबीस घण्टे उसमें ही रमा रहता है। उसकी स्थिति घोड़े की तरह होती है। जो घोड़े पर सवार होता है, जो घोड़े की सवारी करता है उसको रईस बोला जाता है करने वाला होता है, चौबीस घण्टे उस घोड़े की सेवा में लगा रहता है उसे सईश कहते हैं। सईश घोड़े की चाकरी करने वाला और रईश घोड़े का उपयोग करने वाला। आप रईस बनना पसंद करते हो या सईश बनना पसंद करते हो? रईस बनो, सईशपने को छोड़ दो। देह का उपयोग करो। देह के इस घोड़े पर सवारी करो, इसकी सेवा मत करो। जिस दिन तुम इस शरीर को पर मान लोगे उसी दिन रईसों की श्रेणी में आ जाओगे। दुनिया में तथाकथित जितने रईश लोग हैं अध्यात्मवेत्ताओं की दृष्टि में सब सईश हैं, सब चाकर हैं, गुलाम हैं। ऊपर से उनकी रईशी दिख रही है पर उनके भीतर ऐसा कुछ भी नहीं है। वह तत्व हमारे भीतर प्रकट होना चाहिए। उस तत्व को हम अपने भीतर प्रकट करें लेकिन क्या करें आखिरी-आखिरी समय तक लोगों की अपने शरीर के प्रति आसक्ति बनी रहती है। 70-70, 80-80 साल की उम्र होने के बाद भी खिजाब लगाने की आदत नहीं छूटती। आप बने हैं, दाँत गिर गए हैं, गाल बिल्कुल धस गए है लेकिन फिर भी अन्दर की ममता और आसक्ति बड़ी विचित्र होती है |

 

एक युवक रास्ते पर चला जा रहा था। जंगली रास्ता था, अचानक धोखे से वह एक कुएँ में गिर गया, कुआँ ज्यादा गहरा नहीं था, पानी भी ज्यादा नहीं था। घुटने से नीचे पानी था। अब वह नीचे गिर तो गया लेकिन किसी की सहायता के बिना बाहर निकल पाना संभव नहीं था। कुआँ करीब 10-12 फीट गहरा था, अब साढ़े 5 फीट का आदमी उसमें से कैसे निकले? एक वृद्ध वहाँ से गुजरा, उसने देखा कि कोई युवक कुएँ में गिरा हुआ है, उसने उसकी तरफ देखकर पूछा भाई! क्या बात है तुम कुएँ में कैसे गिर गए? युवक बोला मैं कुएँ में गिरा थोड़े न हूँ मैं तो कुएँ में उतरा हूँ, इस कुएँ में अमृत रसायन है। अमृत रसायन क्या होता है? बोला तुम्हें नहीं पता, इस कुएँ के जल मे जो डुबकी लगा लेता है वह चिर जवान होता है। बोले क्या बोलते हो? हाँ, मैं भी तुम्हारी तरह बूढ़ा था मुझे जब इस कुएँ के रहस्य का पता लगा तो मैं कुद गया और देखो मैं कैसा जवान हो गया। बोले अच्छा, इस कुएँ में कुदने से आदमी जवान हो जाता है? बोले हाँ जवान हो जाता है। तो क्या मैं भी जवान हो जाऊँगा? युवक बोला- हाँ तुम भी जवान हो जाओगे विश्वास न हो तो ट्राई कर लो। वृद्ध ने आव देखा न ताव, धम्म से कुएँ में क्द गया। जब वृद्ध कुएँ में कुदा तो वह नवयुवक उसके ऊपर चढ़कर खुद तो कुएँ से बाहर निकल गया और वह बूढ़ा बेचारा वहीं ठिठुरता रह गया।

 

बंधुओ! ये तो एक काल्पनिक कथा है लेकिन ये जीवन का एक बहुत बड़ा यथार्थ भी है। शरीर की आसक्ति में फंसे हुए लोग अपने जीवन की ऐसे ही दुर्गति कर डालते हैं।

 

मोह के कैसे-कैसे पर्दे?

दूसरा नम्बर सम्पत्ति। लोग मेरी सम्पत्ति, मेरी सम्पत्ति का भाव मन में पाले रहते हैं। संत कहते हैं जब तक मैं और मेरे पन का भाव है तब तक दुख है। इसलिए इसे भी हटाओ। शरीर, सम्पति, सामग्री और सम्बन्धी के प्रति मैं और मेरे पन का भाव आने पर तुम दुखी कैसे होते हो? जिस चीज के प्रति स्वामित्व का भाव होता है वह हमें प्रभावित करती है और जब मनुष्य उससे प्रभावित होता है तो दुखी हुए बिना नहीं रहता। दो उदाहरण आपको बता रहा हूँ।

 

एक सेठ का इकलौता बेटा चार साल की उम्र में खो गया। सेठ ने बहुत खोजा पर बेटा नहीं मिला। सेठ बहुत दुखी हुआ। काफी मन्नतों के बाद तो वह बेटा हुआ था और वह भी चार साल की उम्र में खो गया। बेटे को खोजते-खोजते दिन बीतते गए पर बेटा नहीं मिला। समय के साथ-साथ सेठ ने बेटे को भुला दिया। दस-बारह साल बाद सेठ को एक नौकर की आवश्यकता पड़ी। सेठ के पास किसी ने सोलहा साल को एक युवक को भेजा, सेठ ने उसे काम पर लगा लिया। सेठानी रात-दिन उससे काम कराती, न ढंग से खाने देती, न पीने देती, उसे निरन्तर काम में इधर से उधर दौड़ाती रहती। वह ढंग से सो भी नहीं पाता था। ये रोज का क्रम था। बेचारा नौकर अपनी किस्मत पर रोता हुआ काम कर रहा था। एक रोज उसे उठने में विलम्ब हो गया, सेठानी ने जोर से चिल्लाया। चिल्लाने के बाद भी जब नौकर की तरफ से कोई आवाज नहीं आई, कोई जबाब नहीं मिला तो वह चिल्लाते-चिल्लाते उग्र हो गई और नजदीक पहुँचकर उसकी चादर तेजी से खीचीं। चादर हटने पर देखा कि वह जो बेसुध पड़ा हुआ है। सेठानी उसका हाथ खीचतें हुए झुंझलाकर बोली- ये क्या नाटक चल रहा है, दिन चढ़ गया है, तुम अभी तक सो रहे हो, ये कोई सोने का समय है, यहाँ सोने के लिए आए हो कि काम करने के लिए? वह नौकर बेसुध था, सेठानी ने उसका हाथ पकड़ा तो उसका सारा शरीर तप रहा था, 105 डिग्री ट्रेम्प्रेचर (बुखार) था। सेठानी ने जैसे ही उसका हाथ खींचा तो उसके हाथ में लिखा हुआ गुदना दिखाई पड़ा। उस गुदने में उस लड़के का नाम था। अरे ये गुदना! ये नाम, ये तो मेरे बेटे का नाम था, इसके हाथ में ये गुदना लिखा है। चेहरे को गौर से देखा तो अरे। ये तो मेरे बेटे से मिलता-जुलता है। हाय! ये कहाँ चला गया था, ये तो मेरा बेटा है। 'मेरा बेटा है" कहते हुए रोना-चिल्लाना शुरु कर दिया, अपने पति को बुलवाकर कहा- देखो इसका कैसा हाल हो गया, ये अपना बेटा है। पति भी नजदीक से देखकर बोला- हाँ, ये अपना ही बेटा है, चेहरा भी मिलता है, ये कहाँ खो गया था और यहाँ कैसे आया इसका पता लगाओ। सेठानी बोली- ये सब बातें बाद में पहले डॉक्टर को दिखाओ इलाज करवाओ पहेचान होने से पहेले भी वह लड़का था और अब भी वह लड़का है लेकिन पहले नौकर था अब बेटा हो गया। जब तक नौकर था तब तक उस पर इतना कष्ट हुआ पर कोई फर्क नहीं पड़ा लेकिन जब मन में बेटा जुड़ गया तो मन विह्वल हो उठा, अच्छी तरह से उसकी चिकित्सा, सेवा-सुश्रुषा में लग गए।

 

बंधुओं! ये किस बात का द्योतक है? वह लड़का पहले भी बेटा था और बाद में भी बेटा था लेकिन जब तक लड़के के साथ मेरा नहीं जुड़ा था तब तक कोई दुख नहीं था, मेरा जुड़ते ही दुख शुरु हो गया। दुनिया में कुछ भी घटित हो जाए तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, अखबार पढ़ते हो- तीन मरे और तेरह घायल, रोज पढ़ते हो पर तुम्हें कुछ फर्क नहीं पड़ता लेकिन जिनसे तुम्हारा जुड़ाव है उनमें से किसी के साथ कुछ हो जाए तो मन प्रभावित हो जाता है।

 

एक आदमी का किसी महानगर के बीच चौराहे पर चार मंजिला मकान था। उस मकान में आग लग गई, आग की लपटों में मकान धू-धू करके जल रहा था और वह रो रहा था, विलाप कर रहा था- मेरा सर्वनाश हो गया, सब कुछ मिट गया, मेरा कुछ नहीं बचा। लोग उसे सान्त्वना दे रहे थे, इसी बीच उसका एक परिचित आया और बोला- भैया! रो क्यों रहे हो? तुम्हें रोने की कोई जरूरत नहीं है, इस मकान का सौदा हो गया है, कल ही तुम्हारे बेटे ने इस

 

मकान को बेचने का एग्रीमेन्ट किया है, मुझे पक्का पता है। बोलाअच्छा? बोले हाँ! मैं झूठ नहीं बोल रहा हूँ, मकान तो बिक चुका है। मकान बिकने की बात सुनकर वह व्यक्ति हँसने लगा। मकान अब भी जल रहा है पर अब वह हँस रहा है। पन्द्रह मिनट बाद उसका बेटा बदहवास सी हालत में आया और बोला पापा! गड़बड़ हो गई। पूछा क्या हो गया? बेटा बोला- सामने वाला सौदे से मुकर गया है कि मकान में आग लग गई है, अब कुछ नहीं बचा। बेटे की बात सुनकर वह व्यक्ति फिर से रोने लगा। अरे भाई! क्या हो गया? मकान पहले भी जल रहा था, अब भी जल रहा है; जब मकान के साथ 'मेरा' जुड़ा तो वह मकान मातम का कारण बन गया और 'मेरा' हटा तो वही मकान आनन्द का कारण बन गया। जहाँ-जहाँ मेरापन है वहा दुःख है | इसी ममत्व को दूर करने का नाम आकिंचन्य है |

 

‘ममेदमभिसन्धिनिवृत्तिराकिञ्चन्यम्'।

सब ठाठ यहीं रह जायेगा

'यह मेरा है' इस प्रकार के अभिप्राय को दूर करने का नाम आकिञ्चन्य है, इसी को बोलते है खालीपन। शरीर की आसक्ति को खत्म करो। सम्पत्ति की बात कर रहे हो, ये जड़ सम्पति है, अपनी निजी सम्पत्ति को देखो। मनुष्य के जीवन की ये बड़ी विचित्रता है वह धन-वैभव के पीछे सारी जिदगी पागल रहता है पर अपने भीतर के गुण-वैभव का उसे पता ही नहीं चलता। धन-वैभव को मत देखो, गुण-वैभव को देखो। तुम्हारे अंदर भरा हुआ जो अपार भण्डार है उसे पहचानने की कोशिश करो। जो तुम्हारा है उस पर तुम्हारा ध्यान नहीं और जो तुम्हारा नहीं है उसके पीछे तुम पागल हो। अपने को पहचानो, अपने को सम्हालो। जो शाश्वत है, स्थायी है, तुम्हारा स्वभाव है उसका संरक्षण करो लेकिन तुम शाश्वत को भूलकर भंगुर के पीछे लग रहे हो, स्थायी को भूलकर क्षणिक के पीछे पागल हो रहे हो, निजी को भूलकर पराये की सेवा में लगे हो और स्वभाव को त्याग कर विभाव के पीछे भाग रहे हो। पहचानो, अपनी सम्पति क्या है? तुमने पर को अपना मान लिया है। पर को जब तक अपना मानते रहोगे दुखी बने रहोगे और जिस दिन अपने आप को पहचान लोगे सुखी हो जाओगे। ये सम्पति, जड़ सम्पत्ति है इसका कोई अंत नहीं। सम्पत्ति को साथ रखी लेकिन सम्पत्ति में स्वामित्व मत रखी, उसमें आसक्त मत हो। सम्पत्ति के लिए मत जियो, सम्पत्ति का जितना उपयोग करना है करो, उसमें आसक्त मत बनो।

कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर ने एक बहुत अच्छी बात लिखी। उन्होने लिखा- मैं अपने एक धनी मित्र के यहाँ मिलने के लिए गया। उसका बहुत अच्छा मकान था, उसने अपना मकान दिखाया, बड़े ठाट-बाट। सब कुछ दिखाकर उसने पूछा- मेरा घर पसन्द आया? मैंने कहा- हाँ! बहुत अच्छा; पर तभी मुझे ऐसा लगा कि मेरे इस उत्तर पर मकान मुस्कुरा रहा है और उसकी मुस्कुराहट में मिठास नहीं व्यंग्य है। मैंने पूछा- क्यों जी! तुम क्यों हँसे? मकान बोलाबस यूँ ही; तुम्हारे मित्र की बात सुनकर हँसी आ गई। इसमें हँसने की क्या बात? अरे! इसमें हँसने के सिवाय और बात ही क्या है? ये कहता है मेरा घर, यही इसका बाप कहा करता था और यही इसके बाप का बाप, दोनों न जाने कहाँ चले गए हैं? हाँ दोनों की तस्वीरें जरूर मेरी दीवारों पर टंगी हुई हैं जिन्हें मेरे एक छोटे से छेद में रहने वाली हजार दीमकों में से कोई नन्ही सी दीमक कुछ ही पलों में चट कर सकती है। मैंने देखा मकान अब भी मुस्कुरा रहा था।

 

बंधुओं! मकान ही क्या, संसार की हर वस्तु मनुष्य की इस अज्ञानता पर हँसती है, जिन्हें वह अपना मानने का भ्रम पालता है। काश! तुम पहचान पाते तुम्हारा क्या है, तुम्हारी अपनी सम्पति क्या है? ये सब पराई हैं, तुम्हारी नहीं। इन्हें छोड़ो, इनसे विमुख हो और अपने को पहचानने की चेष्टा करो। जो अपने को पहचान लेता है वह पराये में कभी नहीं उलझता। कभी आपने सोचा है कि आपके जीवन की दशा क्या है? एक दिन सब छूटने वाला है। आप ये गीत गुनगुनाते हो

 

‘जिंदगी इक किराये का घर है

इसको इक दिन बदलना पड़ेगा।

मौत तुझको जब आवाज देगी

तुमको घर से निकलना पड़ेगा।'

जिंदगी एक किराये का घर है, एक दिन तुम्हें इस घर से निकलना ही होगा, इस सच्चाई को पहचानो। चाहे अरबपति हो, चाहे करोड़पति हो, चाहे लखपति हो या हजारपति या भिखारी जब तक रह रहें हैं, रह रहें हैं। झोपड़ी में रहने वाला भी रह रहा है, महलों में रहने वाला भी रह रहा है, झोपड़ी और महल तो यहाँ फिर भी टिके रह सकते हैं लेकिन उनमें रहने वाला कभी टिकने वाला नहीं है, एक दिन उसे खाली करना पड़ेगा। झोपड़ी में हो तो झोपड़ी खाली करके जाओगे, महलों में हो तो महल खाली करना पड़ेगा। ये तुम्हारे अंदर का अज्ञान ही तो है जो बार-बार तुम्हें उस ओर आकृष्ट करता है, तुम्हें अपनी ओर खींचता है कि आओ-आओ-आओ। तुम पकड़े हुए हो ये अज्ञानता है, इस अज्ञानता को जब तक दूर नहीं करोगे जीवन सुखी नहीं होगा।

 

कहाँ-कहाँ जुड़ जाता लगाव!

तीसरा है सामग्री के प्रति लगाव। सामग्री से व्यक्ति को बहुत लगाव होता है। सामग्री यानि तुमने जो अपने घर-परिवार के साथ चाहे तुम्हारे घर के बर्तन-भांडे हों, चाहे अन्य चीजें हैं, वे भी एक प्रकार से सम्पत्ति का अंश हैं। मनुष्य के मन में उनके प्रति जुड़ाव बना रहता है, उन्हीं के पीछे लगा रहता है। तुम्हारी अवधारणा है कि सामग्री जुटाने से अधिक से अधिक सुख पाया जा सकता है। सुख पाने के लिए मनुष्य सामग्री जोड़ता है पर बंधुओं! आपने कभी इस बात की पड़ताल करने की कोशिश की कि सामग्री जोड़ने से सुख मिला भी या नहीं। आज तुम्हारे पास जितने संसाधन हैं आज से पच्चीस वर्ष पहले इतने संसाधन नहीं थे, फिर दूसरी तरफ देखो आज जितना टेंशन है क्या पच्चीस वर्ष पहले ऐसा टेंशन था? फिर ये अवधारणा कितनी सही है कि सामग्री से सुख मिलता है? सामग्री से सुख मिलता है ये तुम्हारा अज्ञान है। सामग्री के मोह को छोड़ो, सुख को पहचानो।

 

आखिरी है सम्बन्धी। सम्बन्धी जनों के प्रति मोह। ये मेरा बेटा, ये मेरी पत्नी, ये मेरे पिता, ये मेरे भाई, ये मेरी बहन। जो मेरे की बाते हैं ये सब अज्ञानता है। आचार्य कुंदकुंद कहते हैं ये सब अप्रतिबुद्धता है, इनके व्यामोह में फसा हुआ व्यक्ति गहन सुषुप्ति में जी रहा है। तीन प्रकार की आत्माएँ हैं- एक प्रसुप्त आत्मा, एक प्रबुद्ध आत्मा और एक जागृत आत्मा। प्रसुप्त आत्मा वह है जो गहन मोह के अंधकार में जी रहे हैं, गहन सुषुप्ति में जी रहे हैं, जिन्हें अपने होने का भी पता नहीं, संसार में जी रहे हैं, मैं कौन, मेरा कौन इसका कुछ अता-पता ही नहीं वह प्रसुप्त है।

 

एक बार एक व्यक्ति से किसी ने कहा भैया तुम यहाँ क्या कर रहे हो, तुम्हें पता नहीं? बोले क्या? तुम्हारी पत्नी विधवा हो गई है। इतना सुनते ही उसने रोना शुरु कर दिया। 'पति के जिंदा रहते पत्नी विधवा हो गई।' ये समाचार सुनकर पति रो रहा है। ये क्या है? ये है गहन सुषुप्ति जिसमें व्यक्ति को अपने होने का भी पता न चले। मैं कौन हूँ और मेरा क्या है इसका जिसे पता नहीं वह सुषुप्ति में जीने वाला अप्रतिबुद्ध आत्मा है। जिसने जान लिया और मान भी लिया कि शरीर भिन्न है, सम्पति भिन्न है, सम्बन्धी भिन्न हैं, मेरे आत्मा के अतिरिक्त संसार का एक परमाणु भी मेरा नहीं है वह प्रबुद्ध तो हो गया लेकिन अभी भी फसा हुआ है घर गृहस्थी में, गोरख धन्धे में वह प्रबुद्ध है। वह उन सब में रमा हुआ है पर अंदर से जानता है कि ये मेरे नहीं हैं, अनासक्त होकर जीता है। अनासक्त होकर जी रहा है लेकिन अभी फसा हुआ है। जल से भिन्न कमल की तरह है लेकिन पूरी तरह दूर नहीं है। तीसरी अवस्था है जागृत आत्मा, जिसने एक बार मुँह मोड़ा तो मोड़ लिया। अब दिखना ही नहीं है तो उसमें तत्पर क्यों? छूटा सी छूटा। अपने में खो गया। प्रसुप्त अवस्था से ऊपर उठो, प्रबुद्ध अवस्था को पाओ और जागृत आत्मा की श्रेणी में आने की कोशिश करोगे तो अपने जीवन को आगे बढ़ा सकोगे।

 

ये चार हमारे लिए बाधक हैं। शरीर, सम्पति, सामग्री और सम्बन्धी का मोह ये सब उलझा कर रखते हैं और इनमें उलझने वाला ही भारी होता है। भार का मतलब? भार यानी बोझ। एक आदमी कुछ अशांत सा दिख रहा था। उससे किसी ने पूछा- भाई! क्या बात है, कुछ अशांत से दिख रहे हो? वह बोला- बहुत वजन है। भाई! खाली तो दिख रहे हो तुम पर कौन सा वर्डन(भार) है? बिल्कुल खाली हो, सौ ग्राम भी वजन तुम्हारे पास दिख नहीं रहा फिर भी बोल रहे हो बहुत वर्डन है, बड़ा बोझ है। अरे! भाई। दिमाग पर बोझ है। किस चीज का बोझ है? बोला- काम का बोझ है, जिम्मेदारियों का बोझ है। बोले दिखता तो नहीं है, क्या काम तुम्हारे पास आ गए, कौन सी जिम्मेदारियाँ तुम्हारे पास आ गई? वह बोलाकाम और जिम्मेदारियाँ तो हैं। ध्यान रखना। काम कुछ भार नहीं बनते, जिम्मेदारियाँ बोझ नहीं बनती; काम और जिम्मेदारी बोझ तभी बनती हैं जब मनुष्य उन्हें ओढ़ लेता है। ये हमारी मान्यता का बोझ है। लोक में सबसे भारी यदि कुछ है तो वह है हमारी मान्यता, जो हमारे ममत्व और आसक्ति से होती है। जिसके सिर पर जितनी क्षमता उसके सिर पर उतना बोझ और जिसके सिर पर जितना बोझ वह उतना दुखी। जो जितना भारी है वह उतना दुखी है। इस ममत्व को खाली करो। खालीपन आते ही खुलापन आएगा। एकदम इन्जॉय(आनन्द) करो। किसी से कोई मतलब नहीं, किसी प्रकार का किसी तरह का कोई टेंशन नहीं, आनन्द से जियो, निर्दन्द्वता का जीवन, निस्संगता का जीवन। खुलापन चाहते हो कि नहीं चाहते हो? सब कहते हैं कि महाराज! हम लोग फ्रीडम चाहते हैं, खुलापन चाहते हैं। आज किसी से भी बात करो खासकर यंग जनरेशन(नई पीढ़ी) के युवको से बात करो तो कहते हैं- हम फ्रीडम चाहते हैं। मैंने कहा- हमारा अध्यात्म फ्रीडम की ही तो बात करता है और जिसे तुम फ्रीडम मानते हो उसमें तुम बंध जाते हो।

 

एक युवक ने कहा- महाराज! हम फ्राफीडम(स्वतन्त्रता) चाहते हैं, हम अपने हिसाब से चुनाव करना चाहते हैं। एक लड़की से उसका रिलेशन(सम्बन्ध) बन गया, वह लड़की के साथ शादी करना चाहता था। मैंने कहा- ठीक है, तू कह तो रहा है फ्रीडम चाहता हूँ लेकिन तेरे को फ्रीडम मिलेगी नहीं। ध्यान रखना। उससे बंधने के बाद सारी जिंदगी भर के लिए गुलाम बन जाएगा। अभी कह रहा है फ्रीडम, पर बंध जाने के बाद जिंदगी भर का गुलाम जैसा कि इसगुल्म को भी आग प्रीम के नाम पारस्वाकर करता है।

 

पति-पत्नी दोनों एक पार्क में गए। पत्नी ने एक पेड़ के छोटे से लता-मण्डप को दिखाते हुए कहा कि आपको पता है ये वही लता-मण्डप है जिसमें आज से बीस साल पहले हम दोनों आए थे। हम दोनों छिप गए थे, अगर उस दिन पिता जी ने देख लिया होता तो बड़ी गड़बड़ हो जाती। पति यह सुनते ही एकदम रोने लगा। पत्नी ने पूछा- आप रो क्यों रहे हो? मैंने तो खुशी मनाने की बात सुनाई और आप रो रहे हो। तब पति बोला- काश! उस दिन पिता जी ने हमको देख लिया होता और हम पकड़े जाते तो अच्छा होता। पत्नी ने पूछा ऐसा क्यों? पति ने कहा- अगर उस समय पकड़े जाते तो आज मैं आजाद होता। जिसको लोग फ्रीडम मानते हैं वह उसकी गुलामी है। ये अज्ञानता है।

 

एक लड़के ने मुझसे कहा- महाराज! मैं एक लड़की से प्यार करता हूँ और वह हमारे हिसाब से जैन धर्म को स्वीकार करने के लिए तैयार है, जैसा मैं चाहता हूँ वह वैसा ही करेगी। मैंने कहाबस! यही खतरनाक है। उसने पूछा क्यों? मैंने कहा- ये बताओ तुमसे कोई तुम्हारे धर्म को त्यागने की बात करे तो क्या तुम उसको त्याग दोगे? बोला- नहीं महाराज! मैं तो धर्म को नहीं त्यागूँगा। मैंने फिर कहा- किसी भी हालत में धर्म को त्यागने की बात हो तो? वह बोला- नहीं, मैं किसी भी हालत में धर्म को त्याग नहीं सकता, मैं धर्म के प्रति निष्ठावान हूँ। तब मैंने कहा- निष्ठावान व्यक्ति कभी भी अपने धर्म को नहीं त्यागता, जो आज अपने धर्म को त्याग सकता है वह कल तुमको भी त्याग सकता है। इसकी क्या गारंटी है, इसका क्या भरोसा कि कल वह तुम्हें भी न त्याग दे? ये मोह है, इस मोह के आवेग में आकर ऐसी भाषा का प्रयोग हो रहा है। सच्चाई को जानोगे तो कभी भ्रम में नहीं पड़ोगे। आज तुम्हें वह अच्छी लग रही है और तुम उसे अच्छे लग रहे हो, हो सकता है कल दोनों एक-दूसरे को बुरे लगने लगी। इसलिए पहले विवाह होता है, बाद में विवाद, फिर तलाक। मामला गड़बड़ हो जाता है। जहाँ सम्हलना है वहाँ सम्हलना चाहिए।

 

अकिञ्चन्य : खालीपन से खुलेपन की यात्रा

मैं आपसे कह रहा हूँ फ्रीडम चाहते हो तो मोह, ममता और आसक्ति के वजन को उतारो, यही सबसे बड़ा बोझ है। ये बोझ जिसके ऊपर हावी होगा वह कभी सुखी नहीं होगा। आचार्य कुन्दकुन्द ने आकिञ्चन्य अंग के बारे में कहा कि वह निस्संग होता है इसलिए निर्द्धन्द्र होता है। निस्संग यानी, किसी भी प्रकार की आसक्ति नहीं, परिग्रह नहीं, खाली। खालीपन होगा तो खुलापन होगा। तत्त्व ज्ञान को बल पर मन को खाली करो।

 

एगो मे सास्सदो आदा णाणदसणलक्खणो | 

सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ||

मैं अकेला हूँ, मैं एक मात्र ज्ञान-दर्शन लक्षण वाला शाश्वत आत्मतत्व हूँ, मुझसे बाहर के जितने भी पदार्थ हैं वे सब संयोग लक्षण वाले हैं, मेरे नहीं हैं और मैं भी उनका नहीं हूँ -ये पहचान अपने मन में रखी। सबके बीच में रहो पर अपने में रमी इसी का नाम है खालीपन और खुलापन। अपने आपको जितना भरोगे उतना भारी होगे। सब भर रहे हैं। भर-भर के अपने आपको भारी बना रहे हैं। जितने भरोगे उतने भारी होगे और भारी चीज कहाँ जाती है? नीचे और नीचे क्या है? कहाँ जाने की तैयारी है? आपको कहाँ जाना है? आप लोग तो बनिया हो, व्यापारी हो तराजू से तो सबका परिचय है। तराजू के दो पलड़े होते हैं एक पलड़ा नीचे और दूसरा पलड़ा ऊपर। कौन सा पलड़ा ऊपर होता है और कौन सा पलड़ा नीचे होता है? एक संदेश ले लो जितना भार होगा उतने भारी होगे और भारी होगे तो नीचे जाओगे। जितना भार मुक्त होगे उतने हल्के होगे और जितने हल्के होगे उतने ऊपर उठोगे।

एक व्यक्ति की धर्मपत्नी गुजर गई, वह बहुत फूट-फूट कर रो रहा है। आस-पड़ोस की महिलाएँ आई, उसे सान्त्वना दी। एक युवक ने पूछा- भाई। सालभर पहले तुम्हारी दादी गुजरी तुम इतना नहीं रोए, छह महीने पहले तुम्हारी माँ गुजरी तब भी तुम इतना नहीं रोए, आज तुम्हारी पत्नी गुजरी तो तुम इतना रो रहे हो, पत्नी से इतना ज्यादा लगाव था क्या? बोले लगाव-अगाव छोडो, दादी गुजरी तो पूरे मौहल्ले की माताएँ आकर बोलीं- बेटे दादी चली गई तो क्या हुआ हम तो हैं, माँ गुजरी तब भी अड़ोस-पड़ोस की सारी महिलाएँ आ गई और बोलीं- चिंता मत कर, माँ गई है, अभी हम तो हैं लेकिन आज पत्नी मरी है तो अभी तक एक भी औरत नहीं आई। सब अपने लिए रोते हैं। ये रोना अज्ञान है इसलिए इसे छोड़ी। बस ये चार सूत्र याद रखो- खालीपन, खुलापन, भरापन और भारीपन। हमें भरापन और भारीपन को छोड़ना है तथा खालीपन और खुलापन को आत्मसात करना है तब हम अपने जीवन के इस अकिञ्चनत्व को प्राप्त कर पाऐंगे। आचार्य कहते हैं

 

अकिञ्चनोऽहमित्यास्स्व त्रैलोक्याधिपतिर्भवेः।

योगिगम्यं तव प्रोक्तं रहस्यं परमात्मनः॥

'मैं आकिञ्चन्य हूँ। इस बात की एक पल की अनुभूति कर लो, तीन लोक के अधिपति बन जाओगे। मैंने योगियों के द्वारा गम्य परमात्मा का रहस्य बताया है। आज तक परमात्मापने को जिन्होंने भी पाया है इसी खालीपन के बल पर पाया है। हम भी अपने आपको खाली करें ताकि खुलेपन का आनन्द ले सकें।

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