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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

कर्म कैसे करें?  भाग -1 


Vidyasagar.Guru

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हम सभी लोग आज से इस बात पर विचार करने के लिये तैयार हुए हैं कि इस संसार में जो विविधताएँ दिखाई पड़ती हैं, कोई कम ज्ञानवान है, किसी का ज्ञान अधिक है, कोई धनवान है, किसी के जिम्मे दरिद्रता और गरीबी आई है, वृक्ष हैं, अग्नि है, जल है, वायु है, पृथ्वी है, यह पंच भूत तत्व हैं। यह पूरा लोक जो हमें दिखाई देता है, विविधताओं से भरा हुआ है।

 

इस पूरे विश्व को कौन व्यवस्थित करता होगा ? मेरे अपने जीवन को, मेरे से पृथक् अन्य और जीवों के जीवन को, और यहाँ तक कि इस सारे दिखाई देने वाले दृश्य जगत को कौन व्यवस्थित करता होगा ? कौन इसे बनाता है ? कौन इसे मेन्टेन करता है ? और कौन इसके नष्ट होने में सहयोगी बनता है ? इन बातों की जिज्ञासा सबके भीतर होती है और इन प्रश्नों का समाधान सब लोगों ने अपने-अपने ढंग से अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार खोजा है। एक सामान्य रूप से सभी के भीतर जो बहुत अधिक मात्रा में प्रचारित और प्रसारित बात है वो ये है कि जितना भी यह दृश्य जगत दिखाई दे रहा है इसको बनाने वाला भी कोई एक ईश्वर है, इसको मिटाने वाला भी कोई एक ईश्वर है, इसको मेन्टेन करने वाला भी कोई एक ईश्वर है। ईश्वर इन तीन रूपों में इस सारे दृश्य जगत को व्यवस्थित करता है और वह सर्वशक्तिमान है और इतना ही नहीं वह हम सबसे बहुत दूर कहीं-कहीं किसी आकाश में बहुत ऊँचाई पर बैठा हुआ है। ऐसा प्रचारित है और ऐसा लोगों के अन्दर, अधिकांश लोगों के अन्दर यही मान्यता है।  

 

तब बहुत सारे प्रश्न जो हमने अभी उठाये हैं उनका समाधान क्या इस ईश्वर नाम की किसी चीज को मान लेने से मिलता है; कहीं ऐसा तो नहीं कि ये जो विविधता दिखाई पड़ रही है उसके ऐसा मान लेने में कि ये सब, ईश्वर के द्वारा इतनी विविधता बनाई गयी है, ईश्वर चाहे तो इसको मेनेज करे, मेन्टेन करे, और जिस दिन चाहे वो इसको नष्ट कर दे। तब फिर प्रश्न उठेगा कि उस ईश्वर नाम की वस्तु या व्यक्ति को किसने बनाया ? जो इस पूरे संसार को व्यवस्था देता है, उस व्यवस्था देने वाले को किसने बनाया? 

 

तब उसका समाधान ढूँढने के लिये यह कहा गया कि वह हमेशा से है, ठीक है वह हमेशा से है, ओमनीसाइन्ट है, ओमनीपेटेन्ट है, ओमनीप्रजेन्ट है। हर जगह स्थित है, सर्वशक्तिमान है और सब कुछ जानता है। बहुत अच्छी चीज है, इस तरह के ईश्वर की व्यवस्थाएँ बहुत दुरस्त होंगी, बहुत सही होंगी। ऐसे सर्वशक्तिमान ईश्वर को मानने में कोई हर्जा भी नहीं है, पर मुश्किल खड़ी हो जाती है ऐसे सर्वशक्तिमान किसी ईश्वर या कि व्यक्ति या कि किसी वस्तु को मान लेने में सबसे बड़ी समस्या ये खड़ी होती है कि यदि ऐसा ईश्वर हर जगह उपस्थित है, और सब कुछ जानता है तब फिर उसके भीतर कोई दया या करुणा नाम की चीज है या नहीं है? वो किसी को दुःख देता क्यों है ? अगर वो ही इस सारी व्यवस्था को बनाता है तो किसी को दुःख क्यों देता है ? अगर हम यह मानें कि वह दुःख तो हम अपने किये गये कार्य की वजह से पाते हैं, तब फिर ....., तब फिर उस सर्वशक्तिमान ईश्वर की सर्वशक्ति पर विश्वास होगा नहीं। अगर मुझे मेरे किये का फल भोगना ही पड़ेगा तो फिर सर्वशक्तिमान ईश्वर ने क्या किया ? ईश्वर को मैं तब सर्व शक्तिमान मानूँ जबकि वो अग्नि में हाथ डालने पर, ..... अग्नि का स्वभाव है कि वो जलाएगी, ..... और बर्फ के टुकड़े को छूने पर वह मुझे शीतलता का स्पर्श देगी, यह अत्यन्त स्वाभाविक सी बात है। अगर ईश्वर सर्वशक्तिमान है तो अग्नि में हाथ डालने पर वो मुझे शीतलता का अहसास करावे। अपने भक्तों के लिये तो कम से कम करावे और फिर तो कूलर, हीटर, फ्रीज इन सबकी जरूरत नहीं रहेगी, फिर तो बस जरा सा ईश्वर से प्रार्थना करो और अग्नि में हाथ जला तो ऐसा लगेगा जैसे बर्फ में डाला हो और बर्फ की सिल्ली पर हाथ रखा और ऐसा लगेगा कि बिल्कुल जैसे आग में डाला हो। लेकिन ऐसा देखने में तो नहीं आता। देखने में तो यही आता है कि अत्यन्त स्वाभाविक और स्वसंचालित है, यह सारी व्यवस्था। 

 

इसके लिये किसी वस्तु या व्यक्ति की कोई आवश्यकता नहीं है। अन्त में सारे जगत की व्यवस्था के बारे में विचार करते-करते भले ही यह बात प्रचारित हो; लेकिन जो दार्शनिक हैं, जो विचारक हैं, जो ऋषि हैं, मुनि हैं, जो तत्व दृष्टा हैं, वे जानते हैं, यहाँ तक कि गीता में श्रीकृष्ण के नाम से कहलवाया है कि ..... 

 

अर्जुन ! इस सृष्टि को मैंने नहीं बनाया, ना कोई इसे बनाता है, ना ये सृष्टि किसी का कर्म है, ना कोई इसका कर्ता है, ना ये सृष्टि किसी का कर्म है। यह तो स्वभाव से ही अपने आप व्यवस्थित है। किसी भी नियम को व्यवस्थित करने के लिये किसी भी अन्य व्यक्ति की आवश्यकता नहीं है, नियमों को बनाने वाला भी कोई नहीं है। नियम शाश्वत हैं। नियम सीधे हैं और स्पष्ट है कि अग्नि का स्वभाव गर्म है। हाथ डालने पर वह बालक हो, चाहे वृद्ध हो, चाहे नौजवान हो, ज्ञानवान हो या गरीब हो, अमीर हो - सबको समान रूप से जलाएगी। यह सार्वभौमिक-सार्वकालिक नियम है। हमारे घर में जलाये या दुकान में जलाये या कि भारत में जलाये और अमेरिका में ना जलाये ऐसा सम्भव नहीं है। इसमें किसी भी ईश्वर की आवश्यकता नहीं है। इतना स्वाभाविक और स्वसंचालित है। 

 

अब फिर भी प्रश्न ज्यों का त्यों बना रहा। जब ये सारा दृश्य जगत, मेरा अपना जीवन और जो दिखाई पड़ रहे हैं जीव, इन सबका जीवन अगर स्वसंचालित और स्वाभाविक है तब फिर ईश्वर का हमारे जीवन में क्या महत्व है ? क्या हम उसको खारिज कर दें? ठीक एक विचारक नीत्से की तरह कि ईश्वर समाप्त हो गया है। अब ईश्वर नहीं रहा। क्या हम भी ऐसा माने कि ईश्वर का कोई Existence (अस्तित्व) नहीं है। परमात्मा नाम की कोई चीज नहीं है, परम ब्रह्म कुछ भी नहीं है। अब हमें यह विचार करना पड़ेगा कि इन सबका इस विविधता में जो दिखाई देती है क्या भागीदारी है। तो देखें आप। ईश्वर एक प्रकाश की तरह है। ईश्वर एक दर्पण की तरह है, और प्रकाश का काम क्या है ? ..... सूरज का काम है कि वो आये और समान रूप से रोशनी बिखेरे। आपने जितने दरवाजे खोले हैं उतना भीतर आयेगा। आपने दरवाजे बन्द रखे हैं, वो भीतर नहीं आयेगा। आप चाहें तो वस्तुओं को उसके प्रकाश में देखकर के समझ सकें तो समझें। वो आपकी कोई मदद नहीं करेगा। वो प्रकाश कर सकता है लेकिन ये मोटर खड़ी हुई है, ये पेड़ है, ये फलानी चीज है। ये ईश्वर नहीं बताएगा। वो प्रकाश की तरह हमें सारी चीजें प्रकाशित कर देगा; अब हमारा फर्ज है कि हम इस विविधता को जानें। इस विविधता में उसका इतना ही हाथ है कि वो इस विविधता का दर्शन करा देता है हमें। वो प्रकाश की तरह है ज्योति की तरह है और या कि वो दर्पण की तरह है। जैसे कि घर से बाहर निकलते समय जरा सा अपना चेहरा दर्पण में देखते हैं और देखते हैं कि कहीं कोई कालिख तो नहीं लगी है और अगर लगी होती है तो उसे अलग कर देते हैं। कालिख दर्पण में नहीं लगी है और न दर्पण पोंछने से कालिख खत्म होगी और न दर्पण हमारी कालिख पोंछेगा। पोंछना हमें पड़ेगी। ईश्वर का काम इतना ही है कि हमारे कालिख को और हमारी उज्ज्वलता को दोनों को दर्पण की तरह बता देता है। 

 

दर्पण के सामने अगर अंगीठी जलती हुई रखी जाए तो वह सिर्फ जलती हुई अंगीठी को दिखाएगा, लेकिन उससे प्रभावित नहीं होगा, वो जलेगा नहीं। बर्फ का टुकड़ा - सिल्ली पूरी दर्पण के सामने रख दी जाये तो बर्फ की सिल्ली से दर्पण को ठण्डी (सर्दी) और गर्मी का कोई अहसास नहीं होगा, वो तो सिर्फ दिखा देगा कि ये है, ये है। 

 

ऐसा ही है ईश्वर। वो सिर्फ दर्पण के समान है। उस पर कालिख नहीं है, उसमें कालिख दिखती अवश्य है। कालिख हमें अपने आचरण और साधना से स्वयं हटानी पड़ेगी। ईश्वर हटायेगा नहीं। ईश्वर से यदि हम अपने चेहरे पर लगी हुई कालिख को हटाने की आशा करते हैं तो ये तो ईश्वर के साथ अन्याय है जैसे दर्पण से ये अपेक्षा रखना कि वो हमारे चेहरे पर लगी कालिख दिखाएगा और साथ में वो कालिख पोंछने का इन्तजाम भी करेगा, ठीक ऐसा ही है, ईश्वर से अपेक्षा रखना कि वो हमारी अपनी कमियों को, हमारी अच्छाइयों और बुराइयों को दिखाने के साथ उनकी व्यवस्था भी देगा। व्यवस्था देना उसका काम नहीं है। उसके माध्यम से व्यवस्थित हो जाना, ये हमारा अपना दायित्व है। 

 

ईश्वर का रोल हमारे जीवन में इतना ही है एक दर्पण की तरह और वो दर्पण भी ऐसा है जो कि चीजों को अपने में दिखा तो देता है लेकिन उनसे प्रभावित नहीं होता है। ठीक ऐसा ही हमें हमारा ईश्वर स्वीकार्य है और ऐसा ही उसका सहयोग हमें स्वीकार्य है। तब तब ईश्वर का महत्व भी है और ईश्वर के पाने का मतलब क्या है? परमात्मा को पाने, परमात्मा के दर्शन करने, परमात्मा में लीन हो जाने, इन सबके मायने क्या हैं फिर ? ऐसे शब्द बहत से सनने में आते हैं। परमात्मा में लीन हो जाना. परमात्मा को प्राप्त कर लेना. परमात्मा का साक्षात्कार कर लेगा, ब्रह्म का साक्षात्कार कर लेना। जहाँ ये कहा जाता है कि “अहम् ब्रह्मानि” मैं ही ब्रह्म हूँ। वहाँ पर ये इशारा किया जाता है कि मैं सिर्फ मनुष्य नहीं हूँ। मैं सिर्फ किसी का पुत्र या किसी का पिता या किसी की माँ नहीं हूँ। मैं परमात्मा की हैसियत का हूँ। मैं ब्रह्मस्वरूप हूँ और परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है जिससे कि मुझे मिलने जाना है, जिसका कि मुझे दर्शन करना हो, या जिसका मुझे सामना हो। परमात्मा एक अवस्था है जो कि हर आत्मा को प्राप्त हो सकती है। वह परम विशुद्ध अवस्था है। इसलिये परमात्मा से मिलना अन्ततः अपने ही परमविशुद्ध स्वरूप का साक्षात्कार करना, उससे मिलना और उसमें लीन हो जाना, परमात्मा में लीन होना, अपने आपमें अपने शुद्ध स्वरूप में लीन होना है। हम एक पेड़ की पत्ती नहीं बना सकते, विज्ञान एक शैल (कोशिका) नहीं बना सकता अपने शरीर का, तो फिर ये किसने बनाया होगा, तो हमारे पास जब इसका कोई उत्तर नहीं था तो हमने कहा ईश्वर ! ईश्वर ने बनाया, सर्वशक्तिमान है, वो ही सब व्यवस्था बनाता रहता है। 

 

एक घर की व्यवस्था बनाने वाले को कितनी मुश्किलें और कितना संक्लेश उठाना पड़ता है, कितना हर्ष-विषाद में वो डूबा रहता है, और क्या पूरे विश्व की व्यवस्था बनाने वाला क्या उसी हर्ष विषाद और उसमें डूबा रहेगा। नहीं वो दर्पण के समान अत्यन्त निर्मल है, सारी चीजें उसमें झलक सकती हैं, लेकिन वो उन चीजों से बिना प्रभावित हुए सिर्फ दिखाता है और अपने आपमें लीन रहता है। वो इस सब प्रपंच में नहीं है। ये बात तो स्पष्ट हो गई कि ये जो ईश्वर जो हमारी अपनी भ्रान्ति है और जो अपने आपको बचाने का उपाय हमने खोज लिया था, बस डाल दो सारा उसके ऊपर, अच्छा है तो बुरा है तो। इसमें भी थोड़ा सा लाभ तो है। थोड़ा लाभ ये है कि ईश्वर पर अगर सब कुछ डालने की तैयारी हो तो भी बड़ी शांति मिल सकती है। इस विविधताओं भरे संसार से हम धीरे से ऊपर उठ सकते हैं अगर ऐसी चीज आ जावे तो। लेकिन मजा हमारे साथ यह है कि अगर कुछ अच्छा होता है तो उसका श्रेय हम लेते हैं, बुरा होता है तो ईश्वर पर डालने का मन होता है कि क्या करें, ईश्वर को यही मंजूर था। ये दोहरा हिसाब हमारे साथ है। या तो हम माने कि “जा-विधि राखे राम, ता-विधि रहिये।” फिर सुख और दुःख दोनों में समता रखनी पड़ेगी। इन विविधताओं के बीच में भी, एकरूपता कायम करके रखनी पड़ेगी। ईश्वर की उपस्थिति का अहसास सिर्फ एक बात की हमें मदद करता है, एक बात में हमें सहायक बनता है, हमारे अपने परिणामों में होने वाले हर्ष-विषाद को शांत रखने में। ईश्वर की खोज और ईश्वर के सहयोग दोनों बातों को दो छोटे से उदाहरणों से समझ लें। 

 

रविन्द्रनाथ टैगोर ने लिखा कि उन्हें ईश्वर की खोज थी। गीतांजलि में उन्होंने ईश्वर के गीत गाये और उनके पड़ौसी ने उनसे पूछा कि आपको कभी ईश्वर का साक्षात्कार हुआ। तो बहुत मुश्किल में पड़े थे। उन्होंने अपने संस्मरण में लिखा है कि फिर मुझे ईश्वर की जितनी दरकार नहीं थी; उतनी मुझे लालसा थी उस पड़ौसी से बचकर रहने की, क्योंकि उसने सीधा पूछ लिया था कि ईश्वर का साक्षात्कार हुआ कि नहीं? अगर कोई ईश्वर के बारे में बात करे और हमसे कोई सीधा पूछ ले कि आप इतनी बातें कर रहे हैं, देखा है कभी उसको, तो हम बगलें झाँकने लगेंगे। हम यहाँ से वहाँ हो जाएँगे कि देखा देखा तो है ही नहीं। पर है वो, तो फिर चलें उसकी खोज करें। तो रविन्द्र नाथ ने लिखा कि मैं खोज पर निकला और मुझे पता भी मिल गया उसका कि फलानी बिल्डिंग में रहता है। मैं एड्रेस बिल्कुल नक्की करके, वहाँ गया और गाड़ी से नीचे उतरा और जैसा कहा गया था, वैसा ही किया। और मैं जब ऊपर सीढ़ियाँ चढ़ रहा था तो मेरे मन में विचार आया कि ईश्वर के पास जाने से पहले जरा विचार कर लेना चाहिये कि अगर वो मिल गया तो उससे बात क्या करेंगे। और चुपचाप जाना चाहिए। मैंने जूते उतार लिये और उतार करके हाथ में ले लिये - दबे पाँव ..... सामने जाकर के देखा तो नेमप्लेट बिल्कुल ठीक लगी थी। ईश्वर यहीं रहता है। यहाँ तक तय हो गया। रविन्द्रनाथ ने वर्णन किया है उसके पास बिल्कुल दबे पाँव पहुँचा हूँ। जैसे ही दरवाजा खटखटाने का मेरा मन हुआ, पर हाथ रुक गये कि ईश्वर की खोज में, मैं अगर लगा रहूँ तो कम से कम ये अनुभव तो होता है कि ईश्वर है। लेकिन जिस दिन मैं ईश्वर को इस तरह से जीता जागता पा लूँगा, फिर तो उसकी खबर भी नहीं लेऊँगा मैं। ऐसे तो बहुत से लोग हैं जिनसे मैं परिचित हैं और जिनसे मिल लिया है मैंने और फिर मैं भूल जाता हूँ, उनको उनसे मिलने के बाद। अच्छा यही है कि मैं ना मिलूँ और उसे खोजता रहूँ ताकि मुझे ईश्वर का ध्यान बना रहे। ईश्वर की खोज मुझे ईश्वर की याद बनाये रखने में मदद करती है कि मैं खोजता रहूँ और अगर मैंने ऐसा पा लिया और फिर भी मैं संसार में रहँ तो फिर ईश्वर को भूल जाऊँगा मैं। ईश्वर को पाने के बाद फिर संसार में रहने के लिये कोई आवश्यकता नहीं। 

 

यह प्रतीक है कि एक बार अगर ईश्वर को पा लिया तो फिर संसार समाप्त हो जायेगा। ईश्वर को पाना अपने संसार को समाप्त कर देना है और कुछ नहीं। ये प्रतीकात्मक है, ईश्वर को पाना और इतना ही नहीं ईश्वर मदद कैसी करता है हमारे सारे कार्यों में, हमारी इस विविधता के बीच भी। हमारी इन विषमताओं के बीच भी। हमें समता का पाठ सिखाता है। जैसे कि हमने आपको उदाहरण दिया था पहले आज वो बहुत जरूरी है उसको याद करना। विनोबा की माँ जामण डालकर दही जमाती थी और राम का नाम लेती थी। विनोबा जब बड़े हो गये तो उन्होंने कहा कि माँ और सब बातें समझ में आती हैं। ये बताओ दही जामण से जमता है या ईश्वर का नाम लेने से ? यह क्लियर (स्पष्ट) कर दो। आगे हमें बहुत जरूरत पड़ेगी। आप तो अभी जमाती हैं, पर हम रोज देखते हैं कि जावण भी डालती हैं और राम का नाम भी लेती हैं। इसका मतलब है कि दोनों से ही जमता है क्या ? या किसी एक से जमता है ? अगर किसी एक से जमता है तो या तो जावण डालना बन्द करो या कि भगवान का नाम लेना बन्द करो। ये क्या मामला है, तो उनकी माँ ने हँसकर के कहा कि बेटे जामन देने से ही दूध का दही बनता है। जामण से ही जमता है तो फिर ईश्वर की क्या आवश्यकता ? बेटे, सिर्फ इतनी आवश्यकता है कि कल जब सुबह बहुत अच्छा दही जम जाएगा तो मुझे यह अहंकार ना आ जाये कि मैंने जमाया है, इसलिये राम का नाम ले लिया। मेरी श्रद्धा मेरे इस कर्तापने और अहंकार को कि मैं करता हूँ, इसको नष्ट करती है। इसलिये ईश्वर के प्रति श्रद्धा भी आवश्यक है। ईश्वर का इतना बड़ा रोल है। यह सहयोग बहुत जरूरी है ईश्वर का जीवन में। मैं उसके प्रति श्रद्धा रखू और अपने अहंकार को .... और अगर कल के दिन नहीं जमता है तो मैं किसी को शिकायत न करूँ। मैं किसी को दोषी ना ठहराऊँ। मैं संक्लेश न करूँ। इससे मुझे ईश्वर बचा लेता है। मुझे अहंकार और संक्लेश दोनों से बचाने में मदद करता है। ईश्वर की मेरे जीवन में मदद इतनी ही है। मैं ज्ञानवान हूँ तो मुझे अहंकारी बनने से रोकता है। बस इतना रोल है उसका और ये बहुत बड़ी चीज है इस तरह यदि हम देखें तो कुछ हद तक तो हमने इस बात को बहुत क्लियर कर लिया कि हाँ सचमुच है ये ऐसा ही। 

 

देखें अपन ! अग्नि को गरम बनाने में किसी का हाथ नहीं है, बर्फ को ठण्डा बनाने में किसी का हाथ नहीं है। उसी तरह दूध में पानी मिलाने का किसी का काम है क्या। नहीं, हमेशा से है। तिल में तेल भरने का ..... किसी का काम है क्या ? हमारी बुआ पहली बार विदेश गईं तो वह यहाँ से जलेबी लेकर गई थीं - जलेबी ..... वो सुनाती हैं, टेबल टेनिस की वो रही थीं खिलाड़ी तो वहाँ खेलने गई थीं उस समय उस जमाने में, अब तो वहीं पर बस गईं, तो हम लोगों को बाद में आकर के बताया कि वो लोग बहुत आश्चर्य कर रहे थे। वे मेरे से पूछने लगे कि ये जो गोल-गोल चीज है वो बनी कैसे, इसमें वो जो सीरा है वो इन्जेक्शन से भरा है क्या ? अब उनने तो यह वाली डिश देखी ही नहीं थी, ये भर कैसे गया, उसमें सीरा भरा होगा सीरिंज से। ठीक ऐसा ही ..... हमारे मन में प्रश्न उठ सकता है कि दूध में पानी किसने मिलाया ? हमारे जीवन को ऐसा किसने बनाया? नहीं दूध में पानी जैसे हमेशा से है ऐसा ही संसार में यह जीव विकारी अवस्था को हमेशा से प्राप्त है। सुख-दुःख, कमी-बेशी, ज्ञान-धन, दरिद्रता ये सब हमेशा से हैं। जैसे कि दूध में पानी है, किसी ने उसको मिलाया नहीं है, स्वाभाविक है, जैसे कि तिल में तेल किसी ने भरा नहीं है वो ..... जैसे ही तिल उगता है उसमें तेल भी हमेशा है। जैसे ही मनुष्य जन्म लेता है वो अपने साथ अपने विकारों को लेकर आता है। ये विकार हैं क्या चीज ? 

 

अब बस यहाँ से शुरू करते हैं अपन अपनी यात्रा। कितने दिन चलेगी उतने दिन जब तक कि समझ में नहीं आ जावेगी। बस ..... जिस दिन समझ में आ जाये, अपना काम पूरा हो गया। और कोई आवश्यकता नहीं है ज्यादा उलझने की, ज्ञान उतना ही आवश्यक है जितना कि लगी हई भीतर की गठानों को खोल देवे और हमें उन्मुक्त कर देवे, उलझनों से पार कर देवे, हमें चीज स्पष्ट सामने आने लगे, ठीक इतना ही आवश्यक है। 

 

 उसके लिये अपन ने यह प्रक्रिया शुरू की है। यहाँ तक पहुँच गये कि मेरे अपने विकार हमेशा से हैं सबके भीतर, जो भी दिखाई पड़ रहा है वो सारा खेल इसी विकार का है और वो विकार आते कहाँ से हैं, हमेशा से हैं। ..... उनका कारण भी मुझे अपने भीतर खोजना पड़ेगा और उनका कारण मेरे अपने विकारों का मेरा अपनी आसक्ति, मेरी अपनी अज्ञानता, मेरा अपना ये शरीर, इन विकारों को आगे बढ़ाने में मदद देता है और मेरे अन्दर के जो विकार हैं वो मेरे द्वारा ही जेनरेट होते हैं, किसी और के द्वारा नहीं। मैं विकार से ग्रसित हूँ हमेशा से और उन विकारों की जिम्मेदारी मेरी अपनी है, व्यक्तिगत है। एक Vicious (विशयस) सर्कल है, जिससे हम अपने विचार की क्रियाएँ, अपनी संवाद की क्रियाएँ, अपने बॉडी की, शारीरिक क्रियाएँ हमेशा करते रहते हैं और इस शरीर के माध्यम से हमारे भीतर जो भी भाव आते हैं, विचार और अनुभूति होती है वे सारा इस विविधता के लिये रेग्यूलेट (क्रियान्वन) करती हैं और कोई अतिरिक्त नहीं है। 

 

हमारे अपने कर्म और हमारा अपना शरीर हमारे संसार के भ्रमण का और इस विविधता का कारण है। यहाँ तक, हमने इस बात को समझ लिया। कर्म कैसे हैं ? वे हमारे साथ बँधते भी हैं, वे हमारे भोगने में भी आते हैं, वे हमारे करने में भी आते हैं; तीन तरह के हैं, कुछ कर्म हैं जो हम करते हैं, कुछ कर्म हैं जिनका हम फल भोगते हैं। कुछ कर्म हैं जो हमारे साथ फिर से आगे की यात्रा में शामिल हो जाते हैं और इस तरह से यह यात्रा विशयस सर्कल है, इसलिये संसार को चक्र माना है, जिसमें निरन्तरता बनी रहती है। ठीक एक गृहस्थी की तरह जैसे बनी रहती है। ठीक एक गृहस्थी की तरह जैसे किसी गृहस्थी चलाने वाली माँ को हमेशा इस बात का ध्यान रखना पड़ता है कि शक्कर कितने दिन की बची और गेहँ कितने दिन का बचा और आटा कितने दिन का बचा। इसके पहले कि वो डिब्बे में हाथ डालकर पूरा साफ करे। ऐसा मौका आता ही नहीं है, दूसरी तैयारी हो जाती है। बुंदेलखण्ड में कहते हैं कि ड्योढ़ लगी रहती है, तब गृहस्थी चलती है। ड्योढ़ लगी रहती है, मतलब कोई भी चीज एकदम खत्म नहीं होती, खत्म होने के कुछ घण्टे पहले ही सही, कुछ मिनिट पहले वो शामिल हो जाती है, तब चलती है गृहस्थी। ठीक ऐसे ही हमारा संसार चलता है। हम जो भोगते हैं, उसके भोगते समय सावधानी और असावधानी हमारी होती है। दो ही चीजें हैं हमारी अपनी असावधानी जिसको हम अपनी अज्ञानता कहलें; हमारी अपनी आसक्ति। इनसे ही मैं अपने जीवन को विकारी बनाता हूँ और इसके लिये मुझे करना क्या चाहिये ? मेरे आचरण की निर्मलता और दूसरी मेरी अपनी साधना ..... समता की साधना। ये दो चीजें हैं। इस संसार की विविधता से बचने के लिये। कुल तो इतना ही मामला है और इतने में ही कुछ लोगों को समझ में आ सकता है, कुछ लोगों को इतने में समझ में नहीं आ सकता। तो आचार्य भगवन्त, तो श्री गुरू तो सभी जीवों का उपकार चाहे हैं। तो फिर इसका विस्तार करते हैं और वो विस्तार अपन करेंगे। जो विस्तार रुचि वाले शिष्य हैं, उनको विस्तार से समझ में आता है, जो संक्षेप रुचि वाले हैं उनको बात इतनी ही है समझने की, और मध्यम बुद्धि वाले हैं उनको तो विस्तार करके बताना होगी। इसमें कई क्रॉस क्यूशचन्स उठेंगे। मन में बहुत सारी बातें आयेंगी। ये प्रक्रिया वन साइडेड (एकतरफा) चलाने का मेरा मन नहीं है। अभी तक चलाई है हमने वन साइडेड कि मैं ही मैं आकर के आपको सब बातें बोलता रहूँ और आप बिल्कुल चुप बैठे सुनते रहे। अब मामला जरा दूसरा है। 

 

जरूर अवगत करायें ताकि कल हम उन चीजों पर भी विचार कर सकें। ये प्रक्रिया इस तरह चलेगी तो शायद बहुत अच्छे से हम इस चीज को यहाँ नहीं पूछेगे, लेकिन आप अपने मन में उठने वाली शंकाओं को मेरे से पूछे। मैं उन सब पर विचार करके कल उस चीज को पहले कहूँ, फिर बाद में आगे की प्रक्रिया को शुरू करूँ। कुछ प्रश्न तो हमारे उसी प्रक्रिया में पूरे हो जाएँगे। हम जो कहेंगे या समझेंगे बैठकर के, ये दोनों तरह से डिस्कशन होना चाहिए तब बात समझ में आयेगी। 

 

चक्र कैसा है ? चक्र मेरी असावधानी और आसक्ति है। और कुछ भी नहीं है। ये चीज तो बिल्कुल स्पष्ट हो गई। विविधताओं का कारण सबकी अपनी असावधानी। जो जितना सावधान है वो उस विविधता से पार है। जो जितना असावधान है वो उस विविधता में चमत्कृत हो जाता है। बस जो सावधान है वो संसार से आसानी से बाहर निकल जाता है और जो विविधताओं को देखकर के उनका समाधान खोजने की कोशिश नहीं करता बल्कि वे विविधताएँ उसे आकृष्ट करती हैं और उसकी आसक्ति को बढ़ाती हैं। जो आसक्त हो जाता है ..... तो फँस जाता है, ट्रेप हो जाता है उससे सारी चीजें। जिस चीज का जितना आकर्षण होगा, हम उस चीज से उतना बँध जाएंगे। बँधना और कोई बड़ी चीज नहीं है। मेरी आसक्ति मुझे इन चीजों की विविधताओं से बाँध लेती है। और मैं सावधान हो जाऊँ, और मैं अनासक्त होकर गुजरूँ तो ये संसार अपनी जगह ज्यों का त्यों है। मैं इस चक्र से पार हो जाता हूँ। मैं परिधि से पार होकर सेन्टर में आ जाता हूँ। और हम सब की कोशिश सिर्फ इतनी है कि इस संसार की परिधि पर चक्कर खाते जिन्दगी निकल गई, और मुझे अब इस चक्कर को छोड़ करके अपने सेन्टर, अपने केन्द्र में स्थापित करना है अपने आपको। प्रक्रिया इतनी ही है। 

 

वो जो मैं उदाहरण कह रहा था। चार मित्र थे और चारों के मन में आया कि वे कुछ जीवन में हासिल करें। कोई ऐसी चीज जिससे कि उनको संतोष हो। सब लोगों के मन में यही बात आती है कि यहाँ कुछ ऐसा हासिल कर लें जिससे कि संतोष हो, लेकिन सबके अपने संतोष का ढंग अलग-अलग है। कोई थोड़े में सन्तुष्ट है। कोई उससे ज्यादा में सन्तुष्ट है। कोई और ज्यादा में सन्तुष्ट है और कोई सन्तुष्ट नहीं है। जो जितना यहाँ सन्तुष्ट है वो उतना संसार से पार है और जो जितना असन्तुष्ट है उसका संसार उतना बड़ा है। 

 

 तो चारों मित्र चले। किसी ने बताया इस रास्ते जाओ। यहाँ पर जगह-जगह तुम्हें बहुत कीमती चीजें मिलेंगी। उन्होंने कहा चलते हैं चले वो ..... चारों एक साथ चले और जैसे ही कुछ किलोमीटर पहँचे वहाँ पर दिखाई पड़ी एक ताँबे की खदान। कहानी प्रतीकात्मक है, पढ़ी होगी आपने भी, ताँबे की खदान मिली। चार में से एक ने कहा, अरे ..... अरे ..... इतनी कीमती चीज ले लो बस, इससे जीवन चल जायेगा। जितनी लेना है उतनी ले लो। 

 

बाकी तीन ने कहा, नहीं, इससे कुछ नहीं होने वाला। ये बहुत हल्की धातु है। जरा ..... जब ताँबे की मिली है तो बताने वाला बताता है कि बहुत मिलता है। तो थोड़े और आगे चलो। हाँ ..... चौथा वाला वहीं रुक गया, तीन आगे बढ़ गये। कुछ किलोमीटर चले, अब की बार चाँदी की खदान मिली। उन्होंने कहा, देखो ..... मैंने कहाँ था ना। वो चौथा वाला बिल्कुल बुद्ध। ऐसा ही लगता है यहाँ पर, ऐसा ही लगता है सबको और उनमें से भी, तीन में से तीसरे वाले ने कहा कि मुझे तो संतोष है। चाँदी की बहुत कीमत है। दो ने समझाया उसको कि बताने वाले ने देखा कितना सही बताया था, ताँबे की और चाँदी की मिल गई है तो अब निश्चित रूप से सोने की मिलेगी। तुम कहाँ रुक रहे हो यहाँ पर। उसने कहा नहीं ..... नहीं ..... मैं रुकता हूँ ..... रुक गया वो। 

 

दो आगे बढ़ गये। मिलना थी सोने की ..... मिली ..... क्यों नहीं मिलेगी ? सोने वाली खदान भी मिल गई। तब दो में से एक कहता है कि बस अब बहुत हुआ। एक ने कहा, सुनो जब सोने की मिली है तो अब हीरे-जवाहरात की तय है। जयपुर आने ही वाला है अब बस जस्ट, जब सारे स्टोपेज छोड़ दिये आपने तो अब बस थोड़ी देर और चलो। और वो आगे बढ़ गया। तीन ताँबे, चाँदी और सोने में सन्तुष्ट होकर के रह गये। आप इसको अपने ऊपर घटित मत करना भैया, नहीं तो आप जरूर नाराज हो जाएँगे और अभी मुझे आपके साथ रहना है कुछ दिन (हँसकर) ..... नाराज नहीं करूँगा। लेकिन हम किस तरह से फँस जाते हैं। हमारी अपनी असावधानी कितनी है, हमारे अन्दर के विकार जो कि अनादिकाल से चले आ रहे हैं किस तरह हमें असावधान कर देते हैं, किस तरह अपनी असावधानी से हम आसक्त हो जाते हैं और किस तरह इस जाल - सर्किल में फिर से शामिल हो जाते हैं और फिर एक उलझन अपने हाथ से खड़ी कर लेते हैं नये सिरे से। 

 

चौथे वाले ने देखा कि हीरे-जवाहरात की खदान तो आई ही नहीं। लेकिन इतना जरूर है कि एक व्यक्ति सामने जरूर बैठा है वो शायद कुछ सूचना देगा, पहुँचा उसके पास। देखा तो उस व्यक्ति के ऊपर एक चक्र घूम रहा था बहुत तेजी से .....बिल्कुल अधर में, ऐसा भी नहीं कि उसके ऊपर कोई कील हो जिस पर घूम रहा हो वो, तो बस चक्र घूम रहा था और वो बड़ा परेशान था, भूखा-प्यासा बेहाल था। कपड़े सब फट गये थे, जर्जर थे, पर चक्र घूम रहा है और वो बैठा है।

 

पूछा उससे कि मामला क्या है ? उसने कहा कि पहले यह बताओ तुम मेरी मदद करोगे क्या ? करूँगा, तो फिर मैं तुम्हें हीरे-जवाहरात की तो खदान बता सकता हूँ। उसने कहा, सुनो तुम मेरी जगह आना स्वीकार करो तो मैं तुम्हें बता सकता हूँ। उसने कहा, ठीक है। इसमें क्या बात है पर मुझे ये जो चक्र है ना इसकी वजह से सूझता नहीं है, मेरा ये चक्र तुम ले लो तो फिर मैं बाहर खड़ा होकर तुम्हें बता सकता हूँ कि वो खदान कहाँ है ? उसका मेप बना दूंगा। मैं जरा इससे मुक्त हो जाऊँ बस तुम सिर्फ इतनी भावना करो कि मैं मुक्त हो जाऊँ और मुझे हीरे-जवाहरात की खदान का पता बतायें। उसने कहा, मैं भावना करता हूँ कि तुम मुक्त होओ और मुझे जल्दी से बताओ - बस इतना ही कहना था कि वो चक्र उसके ऊपर आकर के फिट हो गया और बाहर खड़े होकर उसने कहा कि हीरे-जवाहरात की यहाँ पर कोई खदान नहीं है वो भीतर ही है। मैं मुक्त हो गया अब मुझे चाँदी-सोने और उसकी भी नहीं चाहिये। सीधा यहाँ से घर जाऊँगा, यहाँ से सीधा, अब मुझे कुछ भी नहीं चाहिये। अब कोई और दूसरा आयेगा जब उस चक्र को संभालेगा तब तुम मुक्त होगे। प्रतीकात्मक है, ये ऐसा नहीं समझना कि कोई हमारे इस चक्कर को स्वीकार कर ले तो हम उस दिन चक्कर से मुक्त हो जायेंगे; नहीं हम जिस दिन चाहें, उस चक्कर से मुक्त होना चाहें, हम मुक्त हो सकते हैं। हमारी अपनी सावधानी और हमारी अनासक्ति इस संसार के चक्र से मुक्त  कर सकती है लेकिन इस चक्र को पहले समझ लें। समझेंगे अपन। ये चक्र कैसे शुरू हुआ इससे मुक्त होने का उपाय क्या है ? इन सब पर अपन क्रमशः विचार करेंगे। 

 

इसी भावना के साथ कि हम इस सारी प्रक्रिया को समझ करके और अपने जीवन को इस संसार के चक्र से मुक्त कर सकेंगे। 

3 Comments


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आप सब की बहुत बहुत अनुमोदना. आप बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं. ऐसा अमूल्य ज्ञान उपलब्ध कराया आप ने, बहुत शुक्रिया. Please Keep Going. 😇 जय जीनेंद्र. 🙏

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बहुत बहुत अनुमोदना ,स्वाध्याय करने मै बहुत ही आनंद आया और बहुत कुछ सिखने को भी मिला|😊🙏🏻धन्यवाद ,जय जिनेन्‍द्र 🙏🏻

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