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  1. Vidyasagar.Guru

    कर्म कैसे करें
    हम लोगों ने यह बात बहुत अच्छी तरह से पिछले दिनों समझ ली है कि हम जैसा कर्म करते हैं, उसके प्रतिफलस्वरूप हमें वैसी ही जीवन में सुख-दुःख की प्राप्ति होती है। कोई नहीं चाहता कि वो अपने जीवन में दुःख पाये। जो दुःख बढ़ाने वाले काम करते हैं वो भी ये नहीं चाहते कि उनके जीवन में दुःख आये, पर क्या करें हमारी अपनी अज्ञानता, हमारी अपनी पुरुषार्थहीनता और इतना ही नहीं हमारे अपने जो संस्कारों की प्रबलता है, वो हमें कर्म कैसे करना चाहिये और कर्म का फल भोगते समय क्या सावधानी रखनी चाहिये, यहाँ जाकर के हम गड़बड़ा जाते हैं। 
     
    हमने पिछले दिनों ये बात अपने अनुभवों से और आचार्यों के कहे अनुसार जान ली है कि यदि मैं मनुष्य हूँ तो उसकी जिम्मेदारी मेरी है और अगर कोई पशु के रूप में जीवन जी रहा है तो उसकी जिम्मेदारी उसकी है। देव और नारकी जीव भी इस संसार में अत्यन्त सुख और अत्यन्त दुःख में अपना जीवन व्यतीत करते हैं। अब मुझे यह डिसाइड करना है कि मैं यदि मनुष्य हूँ तो मैंने ऐसा क्या करा होगा कि जिससे कि मैं मनुष्य हुआ हूँ और यदि कोई पशु है तो उसने ऐसा क्या करा होगा जिससे कि उसे इस तरह तिरस्कार भोगना पड़ रहा है ? तिर्यक् शब्द से तिर्यन्च शब्द बना है और उसका अर्थ ही यह है कि जो बोझा ढोता है और हमेशा तिरस्कार को प्राप्त होता है। ऐसे अपने जीवन को व्यतीत कर देता है वो पशु है। छोटा सा कीड़ा भी होगा आप कहेंगे हटाओ, हटाओ, उसको हटाओ। गाय आ रही होगी, उठाओ तो लाठी, भगाकर आवो। छोटे से लेकर के बड़े तक जितने भी तिर्यन्च जाति के जीव हैं, उन सबके साथ हमारा यही व्यवहार होता है। 
     
    लेकिन हम विचार करें कि एक जीव ने इस तरह अपना जीवन जीने की मजबूरी कैसे अपने कर्मों से अर्जित कर ली होगी। क्यों वो इस तरह जीने के लिये मजबूर हो गया ? कल हमने समझा था कि कैसे हम अपना नरक निर्मित कर लेते हैं। कैसे हम अपने परिणामों को बिगाड़ कर के और यहाँ इस संसार में ही नहीं, जब हम यहाँ से ट्रांसमाइग्रेट करते हैं। असल में, ऐसा है कि हम जिस तरह यहाँ जीते हैं उसी तरह आगे के लिये भी जीने के लिये हम तैयारी कर लेते हैं। यहाँ कोई प्रेम से जीता है, शांति से जीता है तो समझियेगा कि वो एक ऐसी जगह जाएगा जहाँ कि उसे एनवायरनमेन्ट ऐसा मिलेगा जहाँ वो शांति से जी सके और यदि जिस व्यक्ति को यहाँ कलुषता और तेरे-मेरे का भाव या बहुत अधिक शोषण की प्रवृत्ति या कि लोगों के दुःख में हर्ष महसूस करने की प्रवृत्ति है तो फिर वो ऐसी जगह जाएगा जहाँ कि उसे ऐसा वातावरण मिले जिसमें कि वो जैसा उसने किया है उस संस्कार के अनरूपये जो एक निश्चित पर्याय मिलती है. एक निश्चित अवस्था में हमें कुछ दिनों तक ठहरना पड़ता है, उसके पीछे कौनसे अपने परिणाम ऐसे होते होंगे? मालूम होना चाहिए ताकि हम सावधान हो जायें। हम कैसे कर्म ना करें जिससे कि हमारा नरक निर्मित हो या जिससे कि हमें जाकर पशु जगत में उत्पन्न होना पड़े और जिन्दगी भर तिरस्कार भोगना पड़े। 

    आचार्य भगवन्तों ने लिखा कि अगर ऐसी स्थिति को आप नहीं पाना चाहते तो ध्यान दें ऐसी स्थिति कैसे मिलती है तो “माया तैर्यग्योनस्य'। तिर्यन्च अवस्था में अगर कोई व्यक्ति है तो उसने अपने पूर्व जीवन में बहुत मायाचारी करी होगी। और भी बहुत से कारण हैं लेकिन प्रमुख कारण है, मायाचारी। मायाचारी के मायने क्या है ? मायाचारी के मायने हैं दिखावा, प्रदर्शन। मायाचारी के मायने हैं माया संसार की जोड़-जोड़ कर रखना और मायाचारी के मायने हैं अलग-अलग दिन भर में सैकड़ों किस्म के चेहरे लगा के जीना। मायाचारी के मायने हैं जो जैसा है वैसा ना होकर कुछ और ही होना। इतने सारे अर्थ हैं मायाचारी के। अब समझना पड़ेगा अपन जैसे हैं, वैसे दिखना पसन्द ही नहीं करते। कोई नहीं पसन्द करता। जिस व्यक्ति का जैसा चेहरा है वो उससे बढ़िया दिखना चाहता है। नहीं, अच्छा आप बताओ, झूठ बोल रहा हूँ तो आप बताओ, सबके लिये है ये अपन सोचते हैं, वो फोटोग्राफर से भी कहते हैं जरा बढ़िया सा फोटो खींचना। अरे अब जैसा है वैसा ही आयेगा, वो क्या करेगा क्या बढ़िया कुछ कर देगा। नहीं, लेकिन सबके मन में कैसा भाव रहता है, जैसा हूँ वैसा नहीं। हमारे मन में अपनी एक इमेज होती है कि हमें ऐसे दिखना चाहिये। हम जैसे हैं वैसे नहीं, कुछ अलग, अपने मन में रहता है कि ऐसे दिखना चाहिये और एक और भाव हमारे भीतर रहता है कि लोग हमें किस तरह देखते होंगे। ये सारी स्थितियाँ कहीं ना कहीं ले जाके हमें मायाचारी की तरफ ले जाती हैं। एक फोटोग्राफर ने अपना संस्मरण लिखा कि उसने जब फोटोग्राफी शुरू की तो उसने अपने यहाँ पर एक बाहर बोर्ड लगा दिया कि आप जैसे हैं वैसा फोटो खिंचवाना हो तो ओनली फाइव रुपीज, सिर्फ पाँच रुपये में। आप जैसा सोचते हैं कि ऐसे हैं या ऐसे होना चाहिये वैसा वाला फोटो - टेन रुपीज (दस रुपये)। आप जैसे लोगों को दिखना चाहते हैं वैसा वाला फोटो ट्वन्टी फाइव रुपीज (पच्चीस रुपये) और उसने लिखा अपने संस्मरण में कि पूरी जिन्दगी में फोटोग्राफी करता रहा, और जो सबसे सस्ता फोटो वो किसी ने नहीं खिंचवाया। सबने 25-25 रुपये वाला फोटो खिंचवाया। कोई नहीं चाहता कि मैं जैसा हैं वैसा मेरा फोटो आये। जबकि वो सबसे सस्ता फोटो। इससे क्या ध्वनित होता है ? हमारे भीतर ऐसा भाव या तो संस्कारवश कह लेवें या कि हमारी असावधानी, अज्ञानता कह लेवें। इस वजह से होता है। यदि हम थोड़े से सावधान हो जायें और इस बात के लिये जागृत हो जायें कि भई जैसे हैं वैसे ही रहें ना। अगर अपने को वैसा नहीं पसन्द करते हैं तो अपने को इम्प्रूव करें। एक चेहरा लगाकर के क्यों जिये ? इतना भी यदि हम अपने मन में विचार कर लेवें, तब बहुत सारी चीजें जो जीवन में हम कर रहे हैं उनका स्टाइल चेंज हो जाएगा। कर्म तो सभी कर रहे हैं, बस कर्म करने के पीछे जो मानसिकता है वो बदलने से कर्म का फल बदल जाता है।  

    एक ही कर्म 10 लोग कर रहे हैं पर सब अपने-अपने अभिप्राय से कर रहे हैं तो वही कर्म उनके लिये अलग-अलग फल देगा। अभिप्राय बहुत कीमती है। कई बार ऐसा होता है कि अनजाने में नहीं चाहते हुये भी संस्कारवश, हमारा अभिप्राय मायाचारी का हो जाता है और सब इस चीज को जानते हैं कि त्रिलोक मण्डल हाथी का पर्व जीवन अगर किसी को मालूम हो तो वे एक बहुत बड़े मुनि महाराज थे। वे एक गाँव में गये और वहाँ उस गाँव में जिस दिन वे पहुँचे उसके पहले एक और मुनि महाराज थे, वो महीने-महीने उपवास करने वाले बड़े तेजस्वी महाराज थे। वे वहाँ से गये और इनका वहाँ ऐसा कोई इन्सीडेन्स हुआ उसी जगह पर ये जाके बैठ गये। लोग तो इसी इम्प्रेशन में आये कि ये वो ही वाले मुनि महाराज हैं जो तपस्वी हैं और सबने इनकी पूजा-अर्चना करी और वाहवाही करी कि धन्य है हमारा सौभाग्य जो ऐसे महाराज के दर्शन हुए, जो इतने तपस्वी हैं। और ये चुपचाप सुनते रहे भीतर अभिप्राय गड़बड़ा गया। मिल रही है प्रशंसा तो आनन्दित होओ, एन्जाए करो। नहीं हैं वैसे तो भी एन्जाय करो। अभिप्राय खोटा हआ। और इतने से खोटे अभिप्राय से, वे मुनि महाराज चाहते तो कह देते कि मैं वो वाला मुनि महाराज नहीं हूँ जिसकी कि आप प्रशंसा कर रहे हैं, मैं तो आज ही यहाँ आकर बैठा हूँ लेकिन भीतर में, और मन में आ गया कि ठीक है। उतने की वजह से, उस मायाचारी की वजह से तिर्यन्च आयु का बंध हुआ और त्रिलोक मण्डल हाथी की पर्याय प्राप्त हुई। ये प्रथमानुयोग का उदाहरण है। बहुत सावधानी की आवश्यकता है। हमें, हम जैसे हैं, कोई भले ही हमें उससे ज्यादा माने, पर अपने भीतर अपने को उससे ज्यादा नहीं मानना चाहिये। जितना है उतना ही ठीक है। अन्यथा अपने हाथ से हम अपना घाटा करेंगे। 

    आज यही तो अपन कर रहे हैं। अपनी माली हालत जैसी है उसको किसी को नहीं दिखाना चाह रहे हैं; सबको ये दिखाना चाह रहे हैं कि हाँ उससे भी बेहतर जीवन जी रहे हैं। अपन रास्ते में किसी से मिलो और उससे पूछा - कैसे हो, कहेगा बहुत बढ़िया। कैसा चल रहा है, एकदम बहुत बढ़िया। सामने वाला भी सोचता है, अरे यार सच्ची में ही इनका बढ़िया चल रहा होगा। मैं आपसे यह नहीं कह रहा हूँ कल से आप ऐसा शुरू कर दो कि आपको जो भी मिले उससे कहें कि हमारा तो कुछ ठीक नहीं सब गड़बड़ चल रहा है। लेकिन हम लोगों का कई बार ऐसी चीजें जो न बडी औपचारिकताएँ निर्मित कर ली हैं कि इनमें हम इतने मजबूर हो गये हैं, अपनी इन सब चीजों को जो कि वास्तविकता है उसको हम इगनोर कर देते हैं। और जो वास्तविकता नहीं है उसको हम प्रकट करते हैं। एक बार अगर हमारे जीवन में ये दिखावा आ जावे। फिर हमारे स्टेटस का सवाल है। घर में हमारे जो-जो चीजें है उनमें से अधिकांश रखना सिर्फ लोगों के दिखाने के लिये है। अगर इतनी चीजें नहीं रखेंगे तो फिर बेटे की शादी में इतने ज्यादा पैसे नहीं मिलेंगे और बिटिया की शादी नहीं होगी, बहुत मुश्किल होगा, दिखाना पड़ता है, ये इतना बड़ा घर मेरा और इतना सब कुछ देखिये मैं देऊंगा, उस फाइव स्टार होटल में आपको फर्स्ट क्लास में मेरिज करूँगा तो वहाँ पर इतना दिखावा। जबकि होना क्या है, जीवन जीना है और जो जीवन दिखावे से शुरू हो रहा है उस जीवन में उपलब्धि क्या होगी, भूल जाते हैं हम बहुत सारी चीजें आज दिखावे के लिये, प्रदर्शन के लिये, आ गई जिनका की जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है। चाहे पहनना-ओढ़ना हो, चाहे खाना-पीना हो, गहना हो, सारी चीजों में हम क्या कर रहे हैं ? हमारा अभिप्राय कहीं ना कहीं खोटा हो जाता है। अभिप्राय में हमारे मायाचारी आ जाती है कि ऐसा करूँ जिससे कि लोग इस तरह समझें। ऐसा करने से क्या होगा ? तिर्यन्च आयु का बन्ध होगा। इस तरफ हमारा ध्यान जाना चाहिये। आज जरूर हमने किसी पुण्य से मनुष्य जीवन पाया है लेकिन इस मनुष्य जीवन में अगर हमने इस तरह की चीज अपने जीवन में शामिल कर ली है तो कल के दिन ये वाला जो मनुष्य पर्याय है वो पूरी होने पर मेरी तैयारी कहाँ की होगी। मुझे बहुत आश्चर्य होता है, मुझे लगता था ये सुअर कैसे बनता होगा? कोई जीव तो है उसे शूकर की पर्याय कैसे मिलती होगी ? मांसाहारी जीव भी हो तो उसके छोटे से बच्चे को गोद में लेने का मन करेगा। शेर के बच्चे को भी गोद में लेने का मन करेगा। बहुत प्यारा लगेगा जबकि शूकर के छोटे बच्चे को भी छूना पसन्द नहीं करेंगे। बताओ आप जबकि छोटे बच्चे तो किसी के भी हों, बहुत प्यारे लगते हैं। साँप के बच्चे को भी छोटा बच्चा पकड़ना चाहेगा इतना सुन्दर लग रहा है। लेकिन शूकर के बच्चे को नहीं पकड़ेगा। ये पर्याय कैसे पाई होगी। उसमें लिखा हुआ है कि जो व्यक्ति अत्यन्त अहंकारी होता है और इतना ही नहीं, जो मुनिजनों के साथ कुटिलता का व्यवहार करता है, उनके साथ छल-कपट करता है, वो शूकर की पर्याय ..... जिसे कोई फिर छूना पसंद नहीं करता है। एक किताब निकली है ‘भावत्रयी' जिसमें कौनसी पर्याय हम किस भाव से पाते हैं ये लिखा है, उसमें मैंने यह पढ़ा। बहुत दिन से मन में यह प्रश्न था। अभी पिछले बार की ही ये बात है ये किताब नई फिर से प्रिन्ट हुई और उसमें पढ़ा। ऐसे-ऐसे भाव हमारे हो जाते हैं। हम देखते हैं संसार की विविधता तो हमारे मन में प्रश्न तो उठते होंगे कि ये ऐसा कैसे बना ? ये ऐसा कैसे हो गया होगा? इसने क्या किया होगा? ऐसा अगर हम विचार करें तो कम से कम इतना तो हो सकता है कि वैसे परिणाम होने लगें तो अपने को संभाल लें भैया, अपने को ही करना है। नहीं तो ये स्थिति बनेगी अपनी। इस अपेक्षा से ये लिखा जा रहा है आचार्य भगवन्तों के द्वारा कि अपने परिणाम हम सँभालें कि कैसे परिणाम कर लेने से हमें कैसी खोटी पर्याय प्राप्त हो जाती है और इतना ही नहीं हम लोग फिर अब जब मायाचारी करते हैं और वो छिपती नहीं है वो तो प्रकट हो जाती है तो हम तर्क देते हैं। अपनी मायाचारी प्रकट होने लगने पर ये भी अपन के स्वभाव में है इसको बदलना पड़ेगा। 

    क्या हुआ एक बार एक व्यक्ति के घर में धोबी होगा। उसके यहाँ गधा था कपड़े वगैरह ले जाने के लिये। तो दूसरा कोई धोबी आया और उसने कहा कि क्यों भैया आज हमारा तो थोड़ा गधा अस्वस्थ सा है आप अपना वाला दे दो। अब उसको तो देना नहीं था, कहीं गया हुआ है ऐसा कह दिया। अब लेकिन गधा तो भीतर बँधा है, उसी समय आवाज आ गई उसकी, जो बाहर लौटने वाला था लगता तो है भीतर है वो मालिक बोलता है कि तुम्हें कैसे मालूम कि भीतर है तो वो बोला कि गधा ही तो आवाज दे रहा है। तो बोला कि निकलो बाहर निकलो मैं ऐसे आदमी पर विश्वास नहीं करता जिसे मनुष्य की आवाज पर तो विश्वास ना हो। मैं कह रहा हूँ मेरी बात पर तो विश्वास नहीं है और गधे की बात पर विश्वास कर रहे हो। आरगूमेन्ट देखो आप, उसका तर्क देखो आप। वो कह रहा है निकलो आप, मैं ऐसे आदमी को गधा दे ही नहीं सकता। जिनको मेरी बात पर भरोसा नहीं है और गधे की बात पर भरोसा है। ये तो एक उदाहरण है ऐसा हम अपने जीवन में कितना कुछ करते हैं कभी याद करें कि अपने काम बनाने के लिये छोटी-छोटी सी चीजों में हम किस तरह से छल कर लेते हैं। किस तरह से दूसरे के साथ कपट कर लेते हैं। दूसरे के साथ तो छोड़ो अन्ततः वह होता अपने ही साथ है। आत्म प्रवंचना सबसे निकृष्ट मानी गई है। सोचते हैं दूसरे को ठग रहे हैं पर ठगते स्वयं को हैं। अच्छा, जिनके बाल सफेद हो जाते हैं तो वो अपने बालों में खिजाब लगाकर उसको काला बनाते हैं। तो क्या वो दूसरे को ठग रहे हैं, अरे अपने को ठग रहे हैं। एक व्यक्ति को बहुत सारे काले बालों में एक सफेद बाल दिखा। उसने उखाड़कर उसे अलग कर दिया। लोगों ने बोला क्यों ? तो बोले - अरे इतने सारे काले बालों में वो सुन्दर नहीं लगता था इसलिये ही तो अलग कर दिया जबकि भीतर में स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, अब बुढ़ापा आने वाला है। अब मेरे जीवन का अन्त निकट आने वाला है। इस बात को स्वीकार नहीं कर पाने की वजह से हम अपने साथ छल कर रहे हैं और उसको या तो काला बनाने की प्रक्रिया करते हैं या उसको हटाने की प्रक्रिया करते हैं। ये छोटा सा उदाहरण है कैसे हम अपने जीवन में अपने आपको ठगते हैं। आपके यहाँ पर वो कवि उन्होंने लिखी है एक कविता - 
     
    धोखा देने वाला धोखा दे रहा है इस अदा से कि वो जो
    दे रहा है धोखा नहीं है, ऐसा नहीं है कि खाने वाला बुद्ध है।
    धोखा खाने वाला धोखा खा रहा है इस अदा से कि वो जो 
    खा रहा है वो धोखा नहीं है।
    धोखा धोखा होने के बाद भी फल रहा है, 
    दोनों मजे में हैं दोनों का काम चल रहा है। 

    दोनों का काम चल रहा है। धोखा देने वाले का भी, धोखा खाने वाले का भी। जो धर्म की जगह पर अधर्म का उपदेश करें तो वह भी अभिप्राय का खोटापन है जिससे कि तिर्यन्च आयु का बंध होता है। अत्यन्त छलकपट में रुचि लेना, स्वयं तो छलकपट करना ही लेकिन अगर कोई नहीं जानता है तो उसे भी छलकपट करने के लिए प्रेरित करना। अरे तुम तो ऐसा करो, तुम्हारा काम बन जाएगा। ऐसा भी अपन करते हैं। स्वयं तो कर ही रहे हैं लेकिन दूसरे को भी वैसा छल कपट करने की सलाह देते हैं। यह भी हमारे लिये तिर्यन्च गति में ले जाएगा। जाति, कुल और शील में दूषण लगाना। दूसरे के लिये इस तरह अपवादित कर देना। उससे भी तिर्यन्च आयु का बंध होता है। क्योंकि आपने दूसरे को अपवादित करके उसका भी तिरस्कार करना चाहा था, इसलिये आपको भी बाद में तिरस्कार मिलेगा। उस पर्याय में जीवन भर तिरस्कार मिलेगा और फिर कह रहे हैं कि विसंवाद करने में रुचि लेना। झगड़ा सुलझता हो इसमें रुचि नहीं, झगड़ा कैसे होता हो, इस बात में रुचि लेना। कैसे और बढ़ जावे ऐसे विसंवाद से अपन को बचना चाहिये। 

     झगड़े की भी जड़ क्या होती है ? दूसरे के तिरस्कार का भाव और तो कुछ नहीं होता। फिर कहते हैं मिथ्या साधनों से आजीविका चलाना। स्पष्ट है आज वर्तमान में अपनी आजीविका के लिये कैसे-कैसे धोखाधड़ी के काम करना पड़ रहे हैं, एक तरफ तो बहुत परिग्रह जोड़ने की लालसा और उससे अगर बच भी गये तो दूसरी तरफ इस तरह छल-कपट के परिणाम के साथ तो तिर्यन्च आयु बँधेगी और जीवन भर फिर तिरस्कार ही होता रहेगा और फिर कह रहे हैं कि सद्गुणों का लोप करना। ये बहुत देखने में आता है। दूसरे के सद्गुण देखने की इच्छा नहीं होती। दुर्गण की दृष्टि जाती है और जब क्या होता है किसी के भीतर सद्गुण हैं और वो ना देखे जायें तो उनका लोप ही हो गया। बताइये किसी के अन्दर, वो तो ये कह रहे हैं कि सौ भी दुर्गुण हैं लेकिन एक सद्गुण है तो हमें तो सद्गुणों को देखना चाहिये और अगर हम दुर्गुण को देख रहे हैं तो धीरे-धीरे वो सद्गुण भी उसके भीतर से लुप्त हो जायेगा। तब इस प्रवृत्ति से बचना चाहिये कि अपन दूसरे के भी दुर्गुणों को देखें। 

    और आखरी बात बहुत अधिक आर्त परिणाम के साथ मरण करना। बहुत आर्त परिणाम, बहुत दुःख के परिणाम के साथ को जो प्राप्त होते हैं तब उनके लिये भी यही दुःखद स्थिति प्राप्त हो जाती है। हमें यह सावधानी रखनी चाहिये। कोई हमारे आस-पास अगर मरण के समय बहुत आर्त ध्यान करता है हमें समझना चाहिये और स्वयं भी अपने जीवन में हमें सावधानी रखनी चाहिये कि ज्यादा आर्त परिणाम करूँगा, तिर्यन्च आयु बँधेगी, क्योंकि आयु का बंध कभी भी हो सकता है। हमारे परिणामों से रोज एक ही परिणाम से सातों कर्मों में स्थिति अनुभाग पड़ेगा किसी में कम किसी में ज्यादा। ये उसका केलकुलेशन है। मैंने उसके बारे में ज्यादा डिटेल आपसे नहीं कहा। उसका सामान्य रूप से एक उदाहरण है कि अगर एक ग्रास भी हम खाते हैं तो वह सात धातुओं में कन्वर्ट होगा, ठीक इसी तरह से एक परिणाम करते हैं तो सबमें हिस्सा जाता है उसका। जो जिस भाव से किया जा रहा है उसमें थोड़ा डोमिनेट रहेगा बाकि सबमें थोड़ा-थोड़ा जाएगा। लेकिन आयु कर्म की प्रक्रिया बिल्कुल अलग है। ये जितनी भी अपन चर्चा कर रहे हैं आयु कर्म की कर रहे हैं। 

    इसमें तो आठ मौके आते हैं पूरे जीवन में, जिसमें कि कभी भी हमें आयु बंध सकती है। दो-तिहाई जीवन बीतने पर पहला मौका, शेष बचेगी उसका दो-तिहाई बीतने पर दूसरा मौका, शेष बची फिर दो-तिहाई बीतने पर तीसरा मौका। 81 साल की आयु है तो चौवन साल में पहला मौका आयु बंध का आयेगा, शेष 27 में जब 18 निकल जाएँगे, दूसरा मौका, बची 9 में से फिर 6 निकल जाएँगे तब तीसरा मौका, बची 3 साल में से फिर दो साल निकल गये चौथा मौका। 1 वर्ष बची उसमें से फिर 8 माह निकल गये फिर पाँचवाँ मौका। 4 महीने बची, मोटा हिसाब 3 महीने निकाल दो, छठा मौका। 1 महीना बचा उसमें से भी बीस दिन निकल गये सातवाँ मौका। 10 दिन बचे उसमें से भी 6 निकल गये आठवाँ मौका। फिर भी नहीं बँधी तो एक आवली एक समय मरण से पहले आयु बँधेगी। बस इतने ही अवसर हैं आयु बँध के। और इनमें हमें नहीं मालूम कि कब आयेगा वो अवसर और उस समय हमारे परिणाम कैसे होंगे? बस जैसे होंगे वैसी ही आयु मिल जायेगी। जीवन भर अच्छा किया है और आयु बंध के समय चूक गये। मुनि महाराज ने जीवन भर तपस्या करी थी और आयु बँध का वो ही समय था जिस समय उनके भीतर छल-कपट आया। तिर्यन्च होना पड़ा बहुत बाद में उनको अपने पुण्य का भी फल मिला। 

    जैसे हम देखते हैं कि कुत्ता तो हो जाता है लेकिन कार में घूम रहा है ए.सी. में। जीवन भर के पुण्य अभी हैं तो लेकिन आयु बंध के समय चूक गये थे सो वह पर्याय मिली। कई मनुष्य हैं जो आयु बंध के समय अच्छे परिणाम करके मनुष्य बन गये हैं लेकिन जीवन भर दाने-दाने को तरसते हैं पशुवत् जीवन जीना पड़ता है। ये बात हमें अपने जीवन में अनुभव में रोज देखने में आती है इसीलिये बहुत सावधानी की आवश्यकता है इन आयु बंध के समय, एक दिन में आयु के बंध की चर्चा कर रहा हूँ। चाहता तो मैं चारों आयु बंध की एक दिन में ही कर सकता था कि ठीक है इन परिणामों से आयु बँधती है, लेकिन बहुत सेन्सीटिव मामला है आयु के बंध का, तो इसके मायने हैं कि हमें हमेशा सावधानी रखनी चाहिये। अभी थोडा बहत कर लो क्या फर्क पडता है। बाद को सँभाल लेंगे। नहीं. उस समय अगर हम चूक गये तो हमेशा के लिये चूक गये, ऐसा सोचकर के सावधानी रखने की आवश्यकता है और मायाचारी से बचने का भाव, अपने अभिप्राय को खोटा नहीं होने देने का भाव और सावधानी हमेशा बनाये रखें। एक छोटा सा उदाहरण है कि एक सेल्समैन की नियुक्ति की गई थी। वो विदेश की कोई महिला थीं यहाँ इण्डिया में, बहुत सच्ची घटना है। तो वो लेडिज़ सेल्समैन थीं और उनका काम सिर्फ यह था कि जो कस्टोमर आये उसको, सिर्फ उसकी पसन्द में मदद करना। उसको कपड़े पसंद करवाने में, उसकी हैल्प करना। च्वाइस के मुताबिक सिर्फ इतना काम था। एक आई फेमिली तो उसमें उनको एक साड़ी खरीदना था, उनको जो साड़ी पसन्द आ रही थी माँ को, सेल्समैन उनसे कह रही थीं कि ये आपके शरीर पर इतनी बढ़िया नहीं लग रही, आप दूसरी ये ले लीजियेगा और वाकई में वो जो दूसरी, जिसकी सलाह दे रही थी वो बहुत अच्छी थी। लेकिन अब क्या करें कस्टमर का मन वही है, वो उनको मने और लोगों को देखने में उतनी अच्छी नहीं लग रही थी वो ही लेके गईं। और जब वो लेके चली गई तो जो और कस्टमर थे उन्होंने कहा कि आप वो दिखाइयेगा जो आप उनके लिये सजेस्ट कर रही थीं, वो साड़ी हमें दिखाइयेगा। पूछा कि कितनी कीमत है बोले क्या बताऊँ, ये तो कुल 300 रुपए की है वो जो ले गई हैं वो तो 500 रुपए की थी। मैं उनको ये सजेस्ट कर रही थी कि ये आपके ज्यादा अच्छी लगेगी। तो उस कस्टमर को बड़ा आश्चर्य हुआ। असल में, जो व्यक्ति जितना निश्चल होगा वो उतना प्रामाणिक होगा। निश्छलता से और निष्कपट होने से प्रमाणिकता आती है। विश्वास बनता है। हम सोचते हैं कि छल-कपट करने से लाभ होगा। नहीं ..... प्रामाणिकता नहीं बनती। कोई भी व्यक्ति हमें प्रमाणिक नहीं मानेगा अगर हम उसके साथ छल कर रहे होंगे तो। जब ग्राहक ने कहा कि आप तो इतनी बड़ी सेल्समैन हैं। आप उन्हें जब वो 500 वाली पसन्द कर रहे थे तो आप उन्हें 300 वाली क्यों पसन्द करने को कह रहे थे कि ये ज्यादा अच्छी लगेगी। तो मालूम उन्होंने क्या कहा कि मैं यहाँ पर अपने ग्राहक के साथ छल करने के लिये नियुक्त नहीं की गई हूँ बल्कि उसकी पसन्द को समर्थन करने के लिये नियुक्त की गई हैं। मुझे उससे छल करके क्या करना है ? मैं अपनी दुकान में 500 की कीमत की राशि बेचने के लिये उसको ये कहूँ कि नहीं ये अच्छी लग रही नही 300 की अच्छी लग रही है तो मैं उनसे यही कहूँगी कि ये ही अच्छी लग रही है। ये एक उदाहरण है। ऐसा क्या अपने जीवन में अपन नहीं कर सकते हैं। लेकिन अपन तो जल्दी से अपना ईमान खो देते हैं। छोटी-छोटी सी चीजों को लेकर के, वो भी सांसारिक चीजों को लेकर के। और जल्दी से अपने परिणाम खोटे कर लेते हैं। अभिप्राय अपना अच्छा रहे, दिखावे का ना रहे। दूसरे को ठगने का धोखा देने का ना रहे। जीवन भर अगर हम इस चीज को बनाये रखें तो फिर निश्चिन्त हो जायें कि हमको फिर अब तिर्यन्च में नहीं जाना पड़ेगा। हमने ऐसे परिणाम ही नहीं किये जिससे कि हमें उस स्थिति को प्राप्त करना पड़े। इसी भावना के साथ कि हम हमेशा अपने परिणाम सँभालते रहें। उन चीजों से बचें जो कि हमारे लिये अहितकारी हैं। 
     
    ऐसे भावों के साथ बोलिये आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी मुनि महाराज की जय। 
    ००० 
     
  2. Vidyasagar.Guru

    कर्म कैसे करें
    हम अगर इस संसार को बहुत गौर से, सावधानी से देखें तो यहाँ हम जो भी पाते हैं वे हमारे ही कर्मों का प्रतिफल है। हम जैसा करते हैं वैसा हम पाते हैं। जिस दिशा में हम चलते हैं वहाँ हम पहुँचते हैं। हम पाना कुछ और चाहें और करें कुछ और तो शायद हमारे सोचने से पाने का कोई सम्बन्ध नहीं है। कोई व्यक्ति ये सोचे कि वो नदी के किनारे पहुँच जाये और उसके कदम बाजार की तरफ बढ़ रहे हों, तो कोई भी कह देगा कि आप सोच भले ही रहे हैं कि आप नदी पर पहुँचेंगे, लेकिन आपके कदम अगर बाजार की तरफ जा रहे हैं तो आप पहुँचेंगे तो बाजार। हम लोग अपने जीवन को अच्छा बनाना चाह रहे हैं, ये हमारा सोच है। लेकिन अकेले सोचने से हमारा जीवन अच्छा बन जाए, ऐसा संभव नहीं है। 

    हम अगर अपने जीवन में बीज कड़वा बोयें और फिर अगर सोचें की फल मीठे मिलेंगे तो क्या संभव है ? यदि हमें अपने जीवन को अच्छा बनाना है तो हमें ये भी देखना पड़ेगा कि जीवन को अच्छा बनाने वाली कौनसी चीजें हैं उनको मैं अपने जीवन में शामिल कर रहा हूँ या नहीं। या सिर्फ सोच रहा हूँ। हम लोगों के साथ एक मुश्किल और है कि हम दूसरे के प्रति विश्वास नहीं रखते लेकिन दूसरे से अपेक्षा रखते हैं कि वो हम पर विश्वास करे। हम दूसरों से घृणा रखते हैं लेकिन हमारी अपेक्षा होती है कि सब हमसे प्यार करें। ये दो चीजें हमारे जीवन को अच्छा बनने में बाधक बनती हैं। हम सोचते हैं कि अच्छा बनें लेकिन जीवन उस दिशा में ले जाते हैं जहाँ कि उसके बुरे बनने की संभावना है और दूसरी चीज दूसरे से हम अपेक्षा जैसी रखते हैं वैसा हम उसके प्रति अपना व्यवहार नहीं बनाते। हमने पिछले दिनों इन सब बातों को बहुत सावधानी से समझना शुरू किया है, ताकि हम थोड़ा बहुत परिवर्तन ला सकें। 

     

    आज हम मनुष्य हैं तो क्यों मनुष्य हैं ? आज अगर कोई पशु है तो क्या वह पशु होने के लिये मजबूर है या उसकी वो कमजोरी है। आज कोई नरक की तरह अपने जीवन को जी रहा है, अभावग्रस्त, दरिद्र, दीनहीन और दुःखी होकर के अपने जीवन को बिल्कुल नरक बनाकर जी रहा है तो उसकी जिम्मेदारी किसकी है ? हाँ, यदि कोई बहुत सुख सुविधाओं के बीच स्वर्ग की तरह अपने जीवन को जी रहा है तो उसके लिये उसने ऐसा क्या किया होगा, इस पर हमें विचार करना है। 
    ये चारों ही चीजें देखने में आती हैं। हम अपना नरक अपने हाथ से निर्मित करते हैं। हम पशु जगत में उनकी पशुता से परिचित हैं। हम मनुष्यों को भी सुख-दुःख दोनों महसूस करते देखते हैं और हमारे अन्दर एक ऐसा भाव आता है कि कोई ऐसी स्थिति भी होगी जहाँ कि अत्यन्त सुख होगा। जीव इन चारों रूपों में अपने-अपने भावों के अनुसार भ्रमण करता रहता है। मैं जैसा हूँ, वैसा क्यों हूँ ? इस पर तो जरूर हमको सोचना चाहिये। और इसी के लिये हम लोगों ने पिछले दिनों दो बातें समझी हैं। यदि मैं दूसरे का ति स्कार करता हूँ तो मैं तैयार रहूँ इस बात के लिये कि मेरा भी तिरस्कार होगा और यदि मैं अपने जीवन में दूसरों के सुखों को देखकर के दुःखी होता हूँ या दूसरे के दुःखों को देखकर हर्षित होता हूँ तो मानियेगा कि मैं अपने जीवन को अपने हाथ से नरक बनाने की तैयारी कर रहा हूँ। अकेले सोचने से नहीं होता। तैयारी से ही जीवन बनता है। जैसी तैयारी होगी वैसा जीवन बनेगा। जैसा हम सोचते हैं सिर्फ वैसा ही जीवन नहीं बनता। सोचने के साथ-साथ जैसी हमारी तैयारी होती है, यदि हमारी तैयारी अपने जीवन को नरक के जैसे बनाने की है तो अन्ततः हम पायेंगे कि हमारा जीवन जैसे नरक में व्यतीत होता है वैसा ही व्यतीत हो रहा है और हम चाहें तो हमारे जीवन को स्वर्ग बना लें। 

    ये ठीक है कि स्वर्ग और नरक एक निश्चित जगह पर हैं लेकिन हमारा जीवन यहीं से जब नरक बनना शुरू होता है तो अन्ततः हमें नरक तक ले जाता है। ये मनुष्य एक ऐसी जगह है जहाँ से कि हम अपने जीवन को तय करते हैं कि हमें कहाँ ले जाना है। कौनसी हमारी तैयारी है। मैं फिर से मनुष्य होने की तैयारी कर रहा हूँ या कि मनुष्य से नीचे उतरकर के पशु होने की तैयारी कर रहा हूँ या अपने जीवन को यहाँ से नरक बनाना शुरू कर रहा हूँ या अपने जीवन को बहुत सुखी, समृद्ध और अच्छा बनाने के लिये मैं तैयारी कर रहा हूँ। ये चारों चीजें हमारे हाथ में हैं। इसमें कहीं कोई हमारी मजबूरी नहीं है कि हम वैसा ही अपना जीवन बनायेंगे जैसा कि हमारे कर्मों का उदय आयेगा। नहीं, हमारे अपने पुरुषार्थ से हम इन चारों दिशाओं में किसमें हमें जाना है, यह तय कर सकते हैं। सोचते जरूर हैं कि हम स्वर्ग जावें लेकिन जीवन भर तैयारी करते हैं नरक जाने की। ठीक ऐसे ही जैसे कि सोचते हैं कि नदी के किनारे टहलने जाने की, लेकिन कदम तो निरन्तर बाजार की तरफ जा रहे हैं तो पहँचेंगे कहाँ ? इस तरह यदि हम थोड़ा सा अगर विचार करें अपने जीवन के बारे में कि यहाँ जो भी हम ध्वनि करते हैं वो इस संसार में प्रतिध्वनि के रूप में हम तक लौटकर के आती है। जैसा हम करते हैं वैसा ही हमें अन्ततः जाना पड़ता है। आचार्यों ने हमें इसीलिये सावधान कर दिया कि यदि हम दूसरे के तिरस्कार के परिणाम रखेंगे तो हमारा तिरस्कार होगा। हम दूसरे के जीवन में दुःख देकर के खुशी होंगे तो अन्ततः हमारे जीवन में भी हमें दुःख पाना होगा। एक चीज और है, हम ये सोचते हैं कि हम जो चीज दूसरे के लिये कर रहे हैं, उससे हमारा कोई घाटा नहीं होगा। ऐसा लगता है कि हम दूसरे को तकलीफ पहुँचा रहे हैं लेकिन हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि वो गाली हमारे ही मन को पहले गंदा करती है, उसके बाद बाहर आती है। जबान को गन्दा करते हुए आती है। 
     
    बहुत सीधा सा हम सबको मालूम है लेकिन उन क्षणों में हम भूल जाते हैं और हमें लगता है कि नहीं वो तो हम दूसरे के लिये कर रहे हैं, तो दूसरे की हानि होगी, मेरी नहीं होगी। पर ऐसा नहीं है। दूसरा हमारा शत्रु और मित्र बाद में होता है। अपने शत्रु और मित्र अपने परिणामों से हम स्वयं पहले होते हैं। 

    एक व्यक्ति रास्ते से चला जा रहा है और अगर उसे कहीं कोई पत्थर लग जाये, ठोकर लग जाये तो इस बात की संभावना ज्यादा है कि वो उस पत्थर को गाली दे या उस पत्थर को डालने वाले को गाली दे। या फिर तमाम व्यवस्थाओं को गाली दे। ऐसे बहुत थोड़े मौके हैं कि वो किसी को धन्यवाद दे कि पता नहीं और कौनसी बड़ी चोट लगने वाली थी, इतने ही में काम हो गया। ऐसा मन में आने वाले लोग पोइन्ट वन परसेन्ट होंगे। बाकी पहले नम्बर यही आयेगा कि पत्थर को गाली दें। फिर ध्यान आयेगा कि पत्थर को गाली लगेगी नहीं तो पत्थर डालने वाले को तो लगेगी, चलो उसी को दें, और नहीं फिर तो, पूरे सिस्टम को दें। पर गाली किसी को भी दी गई हो, पत्थर को दी गई हो या कि पत्थर डालने वाले को दी गई हो, लेकिन उससे उसको ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। देने वाले को फर्क पड़ेगा। जिसने मन कड़वा किया है, जिसने मन अपना खट्ठा किया है उसको फर्क पड़ने वाला है। ये छोटी सी चीज यदि हमारे समझ में आ जाये, तो फिर हम अपने परिणामों को आसानी से सँभाल पायेंगे। 
     
    हमने पता नहीं कितने बढ़िया भाव किये होंगे, अब तो उन भावों के बारे में विचार ही करना ऐसा लगता है कि क्या हमने कुछ ऐसा करा होगा। सचमुच मैं आपसे ईमानदारी से कह रहा हूँ कि जब-जब भी मनुष्य जीवन पाने के लिये मैंने पहले कौनसा पुरुषार्थ करा होगा, मैंने कैसे परिणाम करे होंगे, इस बात पर जब विचार करता हूँ तो लगता है इस बार मामला कुछ गड़बड़ है। मनुष्य बनने के भी चांसेस कम हैं, अब अगली बार। क्योंकि मनुष्य बनने के लिये जिस तरह के परिणाम करने होते हैं वो परिणाम तो आज बहुत रेअर हैं और इसी वजह से मनुष्य होना बहुत दुर्लभ कहा गया है। हम कितने अच्छे परिणाम करते होंगे जब हम मनुष्य होते होंगे और फिर उसके बाद के परिणाम आज हमारे किस तरह के हो गये हैं तो ऐसा लगता है कि हमारी तैयारी अब इतनी भी नहीं है जितनी पहले हमने मनुष्य होने के लिये की थी। अब तो हमारी तैयारी हमें और कहीं नीचे ले जाने के लिये ही है। मनुष्य कैसे बनता है कोई। “अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य"व स्वभाव मार्दवं च”। दो सूत्रों में। मैं मनुष्य बना हूँ तो पहले क्या करा होगा। अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह। बहुत संतोषी रहा होऊँगा मैं पहले तब मैंने ये मनुष्य पर्याय पाई है। मैंने पाँच पाप किये होंगे अत्यन्त अल्प। न हिंसा की होगी, न झूठ बोला होगा, न चोरी की होगी, न मैंने किसी के प्रति अपनी आँख खराब की होगी। न मैंने किसी का शोषण करके अपनी सुख-सुविधा के लिए सम्पदा संचित की होगी। मैंने ऐसा कुछ किया होगा जिससे आज मुझे ये मनुष्य पर्याय मिली है और “स्वभाव मार्दवं च।" और मेरे स्वभाव में पहले से ही स्वाभाविक मृदुता रही होगी, कोमलता और सरलता रही होगी तब जाकर के मैं आज इस मनुष्य जीवन को प्राप्त कर पाया हूँ। 

    लेकिन आज हम गौर से देखें तो हमारे जीवन में कितना अधिक हमारे द्वारा किया जा रहा है पाप। इतना ही नहीं हमारे स्वभाव में मृदुता के स्थान पर कितनी दूसरे के प्रति कठोरता का व्यवहार होता चला जा रहा है। हमारी स्वाभाविक मृदुता धीरे-धीरे नष्ट होती चली जा रही है। जबकि हमने पहले इन सब चीजों को अपने जीवन में शामिल किया होगा। जिससे आज हम इस जीवन को पा सके हैं। और भी बहुत सारे कारण आचार्य भगवन्तों ने लिखे हैं। दो सूत्रों में तो बहुत संक्षेप में लिख दिया है और भी बहुत से कारण हैं। 

    आप इतने स्नेही, इतने ममतावान और इतने योग्य हैं, आप भूल रहे हैं। आपने तो पहले इतने बढ़िया-बढ़िया काम किये हैं तो यदि आज हम अपनी किसी अज्ञानतावश या किसी संस्कारवश और या कि इनवायरन्मेन्ट की वजह से और उन सब बातों को भूल जाते हैं और कोई याद दिला देता है तो फिर से हमारे मन में एक साहस आ जाता है। शायद ये जो प्रक्रिया, जिस पर हम विचार कर रहे हैं, हमारे साहस बढ़ाने की ही प्रक्रिया है कि संतोष क्या चीज है ? और असंतोष क्या चीज है ? जिस संतोष के द्वारा हमने ये जीवन पाया है वो कैसा होता होगा। संतोष के मायने है कि जो प्राप्त है, उसमें आनन्दित होना। इसका नाम ही संतोष है, पर इतना ही नहीं है और भी आगे बढ़ें, अपने जीवन से अधिक मूल्य वस्तुओं को नहीं देना। दूसरी चीज और तीसरी चीज जो प्राप्त नहीं हुआ है उसको लेकर के मन में कोई सोच नहीं होना। इतना सब होगा तब जाकर के मालूम पड़ेगा कि हाँ हमारे जीवन में संतोष है कि नहीं। नहीं तो सामान्य रूप से जब अपने पास सारी चीजें होती हैं तो अपन दूसरे से कहते पाये जाते हैं कि हम तो ठीक हैं, हमारा तो जीवन अच्छा चल रहा है, हमें तो ज्यादा हाय-हाय भी नहीं है, अब सब है इसलिये। नहीं, हमें और जरूरत नहीं है। हमें बहुत सेटिसफेक्शन है। हमें बहुत संतोष है हम बहुत संतुष्ट हैं अपने जीवन से। ऐसा कब कह रहे हैं जब सारी चीजें आपको उपलब्ध हो गई हैं तब। उसमें से एक-आध 'निल' कर दो और फिर भी कहो कि मैं तो संतुष्ट हूँ, तब समझ में आयेगा। जब आपके हाथ पर सारी चीजें मिल रही हैं हाथ बढ़ाते ही, तब आप कह रहे हैं कि हम तो बहुत सन्तुष्ट हैं। एक-आध दिन हाथ बढ़ाने पर ना मिले और तब भी चेहरे पर मुस्कुराहट ज्यों कि त्यों बनी रहे, तब समझ लेना कि अब आ गया है हमारे भीतर हर स्थिति में आनन्दित रहना। हर परिस्थिति में प्रसन्नचित्त बने रहना। तब कहलायेगी संतोष की साधना। समता की साधना इससे भी बहुत ऊँची है। जो प्राप्त है उसमें आनन्दित होना, जो प्राप्त नहीं है उसके लिये एफर्ट तो करना लेकिन वरीड नहीं होना। चिन्ता करने से थोड़े ही मुझे मिलेगा। 

    आचार्य महाराज कहते हैं किसी भी चीज की प्राप्ति संक्लेश से नहीं होती, विशुद्धि बढ़ाने से होती है और विशुद्धि बढ़ती कैसे है, जो प्राप्त है उसमें प्रसन्नता महसूस करना। उसमें मैं क्या बेहतर कर सकता हूँ ये भाव हमेशा बनाये रखना। तब जाकर के हमारे जीवन में ये अल्प परिग्रह और अल्प आरम्भ यानी संतोषपूर्वक जीवन-यापन होता है। कोई क्यों बहुत अधिक आरम्भ करता है, कोई क्यों बहुत अधिक परिग्रह की आसक्ति रखता है ? क्यों रखता है कभी सोचा है आपने, क्यों उसकी अपेक्षायें ज्यादा बढ़ जाती हैं ? अपेक्षाएँ बढ़ने का सिर्फ एक ही कारण है कि जो प्राप्त है वो दिखाई नहीं पड़ता। ..... ये साइक्लोजी है कि जो चीज प्राप्त हो जाती है लाइफ में, फिर उसकी इम्पोरटेंस खत्म हो जाती है। हम कर देते हैं उसकी इम्पोरटेंस खत्म। एक जगह लिखा है कि जिनके निकट हम रहते हैं उनसे प्रभावित नहीं होते और जिनसे प्रभावित होते हैं उनके निकट रह नहीं पाते। हाँ ये एक हमारी अपनी मानसिकता है कि जो-जो चीज हमें प्राप्त हो जाती है, ईजिली प्राप्त हो या कि बहुत एफोर्ट करने के बाद प्राप्त हो। बहुत एफोर्ट के बाद प्राप्त होगी तब भी कुछ दिन के बाद वो हमें उतना सुख नहीं दे पायेगी जितना कि वो जब प्राप्त नहीं थी तब दे रही थी। सोच-सोचकर और हम बहुत आनन्दित होते थे कि वो चीज जिस दिन मुझे मिलेगी अरे वाह। और जब मिल गई तो हाँ ठीक है। अब वो दूसरी दिखने लगी जो अभी नहीं मिली है। ..... ये मन की प्रवृत्ति है। असन्तुष्ट मन की प्रवृत्ति है। मिलने पर सुख नहीं मालूम पड़ता और मिलने पर और अधिक दुःख होना। मिल जाने के बावजूद भी देख लो मजा, मिल गई लेकिन कम मिली। जब तक नहीं मिली तब तक तो ठीक था। मिल गई है तो कम मिली है इस बात का दुःख। मोर एण्ड मोर फिर और चाहिये। ये असंतोष की तासीर है। इसको समझना पड़ेगा। अपने भीतर ये एनालेसिस करना पड़ेगा कि मुझे जब कोई चीज नहीं मिलती है, तब मैं कितना आकुल विकल होता हूँ या कि कम होता हूँ। नहीं मिली, ठीक है। मिल जाये ऐसी भावना भायें, उसके लिये प्रयत्न करें यहाँ तक तो ठीक है, लेकिन नहीं मिली है कोई चीज, उस चीज के लिये निरन्तर चिन्तित हैं, आकुल-विकल हैं, जो मिली है उसका कोई आनन्द नहीं, उसका कोई सुख नहीं, तो ये अच्छी स्थिति नहीं है और दूसरी चीज कि अब मिल गई है, तो इतनी सी क्यों मिली, हम तो हमेशा इस चीज को देखते रहते हैं अच्छे-अच्छे धर्मात्मा लोगों में, हाँ थोड़ी मिली तो और क्यों नहीं ? 

    सामान्य अधर्मी की तो छोड़ो बात। आप पूजा-पाठ करने वाले को धर्मात्मा मानते हैं कि नहीं, मुनिजनों को, आहार देने वाले को धर्मात्मा मानते हैं कि नहीं, चौका लगाने वाले को धर्मात्मा मानते हैं कि नहीं ? तो फिर किसी के यहाँ अगर पहले दिन ही आहार हो जाये तो, उसके यहाँ पहले दिन हो गया ? उसके तो आनन्द है। लेकिन जिसके यहाँ नहीं हुए हैं उसकी तकलीफ देखो आप। और मजा ये है कि उसके यहाँ फिर हो भी जाये चार दिन के बाद तब एक नई तकलीफ, चार दिन बाद हमारे यहाँ गये, उनके तो दो बार हो चुके तब हमारे यहाँ गये। “हो गये” इसका कोई आनन्द नहीं, लेकिन वो जो उनके यहाँ पर दो बार हुए हैं, तब हुए हैं और दस दिन के बाद हुए हैं। बताइये, ये प्रवृत्ति हमारी सबके भीतर है। हमारा कोई लोस नहीं हुआ है, लेकिन दूसरे का बेनीफिट हो गया है ये तकलीफ। मजदूर लगाये गये हैं काम पर, सेठ के यहाँ बहुत बड़ा काम है और सुबह से मजदूर आ रहे हैं और वो काम कर रहे हैं। छत डाली जाती है ना, उस पर बहुत मजदूर चाहिये। अचानक थोड़ा मालूम पड़ा कि थोड़ा फास्ट करना पड़ेगा। वरना शाम पड़ने वाली है या कि बारिश आने वाली है तो जल्दी से हो जाये तो 100 मजदूर और बुलाये गये। 12 बजे बुलाये गये और बाकी मजदूर सुबह आये थे। लेकिन शाम को जब पेमेन्ट होने लगा और सबको बराबर दिया जाने लगा तो जो सुबह आये थे उनको बहुत तकलीफ। जबकि उनको पूरा दिया गया है। सुबह से शाम तक काम करने का जो उनको पूरा दिया जाना था वो उनको पूरा मिला है। किस बात की तकलीफ। ये 12 बजे से आये थे फिर भी इनको उतना ही मिल रहा है और मैं सुबह से आया हूँ तो भी इतना ही। मैंने बिल्कुल पूरा आहार बनाया सवेरे से और ये बीच में आ गये इनको चार और हमें एक। अरे भैया, वो जो एक दिया है उसका कोई सुख नहीं पर ये जो इसने चार दिये इसकी पीड़ा खाये जाती है। जबकि लोस कुछ भी नहीं हुआ।.... ये है असंतोष की तासीर। ये है असंतोष की भाषा। अपने भीतर झाँक करके देखना छोटी-छोटी चीजों में उदाहरण से। अपने भीतर। मैं कोई कमेन्ट नहीं कर रहा हूँ। आप समझ गये होंगे। अपन तो विचार कर रहे हैं, बैठ करके बड़े मजे से। जबकि अपन बैठे हैं कि देखो कैसी-कैसी बातें हैं हमारे भीतर। अगर हम एनालाइज करें अपने भीतर, कितनी जल्दी आ जाती हैं ये चीज। क्यों नहीं आ पातीं ऐसी बात ? क्यों नहीं मिलता इस चीज का आनन्द कि मुझे जो प्राप्त है उसको देखू ? और दूसरे को जो प्राप्त है उसको देख करके मैं ईर्ष्या ना करूँ। ये सारी चीजें मेरे फिर से मनुष्य होने की तैयारी की हैं। ये ध्यान रखना और यदि मैं ऐसा नहीं कर रहा हूँ तो इसका मतलब है कि मैं अब अगली बार मनुष्य नहीं बन पाऊँगा। अगर मेरे मन में इस तरह के विचार उठते हैं तो कहीं ना कहीं कोई कमी जरूर है। मुझे इन विचारों से बचने का प्रयत्न करना चाहिये। 

    क्या हुआ, नेपोलियन के टाइम की बात है। नेपोलियन की आर्मी में बहुत लोग थे। और नेपोलियन को पढ़ने का बहुत शौक था। लाइब्रेरी में था उस समय तो कोई अपनी किताब निकालना चाह रहा था ऊपर से, तो चूंकि उसकी हाइट कम थी और नहीं बन रहा था तो आर्मी में एक व्यक्ति और था जो सैनिक था उसने कहा कि आई एम ओनली वन हायर इन योवर आर्मी। मैं निकाल देता हूँ मैं आपकी आर्मी में सबसे ऊँचा आदमी हैं। तब मालूम है नेपोलियन ने कहा नोट हायर बट टालर। हायर तो मैं हूँ। तुम ऊँचे हो ये बात मत कहो। तुम लम्बे हो ये कहो ऊँचा तो मैं हूँ। अब बताइये ये मानसिकता किस चीज की सूचना देती है। ऐसी ही मानसिकता हम सबकी है। हम किसी को अपने से ऊँचा देखना पसन्द नहीं करते। हम किसी को अपने से ज्यादा गुणवान देखना पसन्द नहीं करते। ये हमारी मानसिकता हमें कहाँ ले जाएगी? किस बात की तैयारी है ? देखें अपन, हम किसी को प्रशंसा के दो शब्द न स्वयं कह सकते हैं न सुन सकते हैं। ये कहाँ की तैयारी है ? ये हमें गौर से देखना पड़ेगा। 
     
    दो तरह की विनय होती है। एक होती है आत्मिक विनय और एक होती है वैधानिक विनय। जो कि आज बहुत है। मेरा स्वार्थ सध रहा है इसलिये विनय कर रहा हूँ। पर वो जो एक आत्मिक विनय है वह “स्वभाव-मार्दवं च"। अत्यन्त स्वाभाविक मृदुल। हम कई जगह मृदु बन जाते है, जहाँ हमारा काम सधता है। वहाँ हम हाथ-पैर जोड़ते हैं, साष्टांग हो जाते हैं। बटरिंग जिसको हम कहते हैं आज की भाषा में। सब समझते हैं वो भी एक विनय का तरीका है। लेकिन यहाँ कह रहे हैं कि “स्वभाव मार्दवं चः'। जिसके स्वाभाविक मृदुता है, जिसके आत्मिक कोमलता है, जिसको सहज रूप से ये चीज प्राप्त हुई है, जिसने कोई बाहर से एक आवरण की तरह ओढ़ा नहीं है, मृदुता को। तब आकर के हम मनुष्य बने होंगे। असल में, ये स्वभाव की मृदुता मनुष्यता के साथ-साथ थोड़ा सा आगे बढ़ने में मदद करती है। देवता बनने के लिये भी उस पर अपन अलग कल विचार करेंगे। “स्वभाव-मार्दवं च” में जो च शब्द लगता है, उसके लिये आचार्य भगवन्त कहते हैं कि स्वभाव की मृदुता मनुष्य बनने में भी कारण है और स्वभाव की मृदुता देवता बनने में भी कारण है। दोनों ही चीजें हैं। 
    अब और जो कारण हैं उन पर थोड़ा सा अपन विचार कर लें। बहुत भद्र परिणाम, दूसरे का जिसने कभी विरोध न किया हो। वो भद्र ! परिभाषा है आचार्य भगवतों की। हाँ जो कभी किसी का विरोध न करता हो। विरोध की भाषा नहीं बोलता हो। पापी का भी विरोध नहीं करता हो। पाप का विरोध करता है पापी का नहीं करता। वो भद्र है। भद्र मिथ्यादृष्टि जो कि विदेह जाकर के अपना कल्याण कर लेंगे, यहाँ से जायेंगे 123, उसमें भद्र की परिभाषा बनाई कि जो सच्चाई का विरोध नहीं करता है। हमेशा दूसरे का हित चाहने वाला परिणामी ही भद्र परिणामी है, तब जाकर के मनुष्य जीवन मिला होगा अपन को। ऐसे परिणाम अपन ने किये होंगे। बहुत विनीत स्वभाव, कषाय अत्यन्त अल्प, चार बातें शांति से सुनने की क्षमता। चालीस कहने की क्षमता नहीं है। हाँ चार सुनने की क्षमता तो है लेकिन चालीस तो क्या अपन को तो दो कहने की भी नहीं, क्यों भैया अपन को क्या करना। वर्णी जी के जीवन का उदाहरण है। उनसे चाहे जो जैसी कह देवे या कि कोई अपनी सुना जावे कि वर्णी जी उनने हमसे ऐसी कर ली और उन्होंने हमारे प्रति ऐसा व्यवहार कियो, 'ऐ भैया' कर लेने दो अपन ने तो नहीं करो, कोई बात नहीं। ये है कषाय की अल्पता। हमें भीतर देखना पडेगा कि जब कहीं कोई बात आती है तो हम उसे प्रोलाँग करते हैं, बढ़ाते हैं या उसे वहीं का वहीं सबसाइड करके समाप्त कर देते हैं। जब भी कोई झगडे की बात आती है. जब भी कोई बैर विरोध की बात आती है उसे हम बढ़ाते चले जाते हैं या कि तुरन्त उसमें पानी डाल देते हैं। जैसे आग जलती है और हम पानी डाल देते हैं आगे नहीं बढ़ने देते। ये भीतर अपने झाँक कर देखना पड़ेगा तब मालूम पड़ेगा कि कषायें मंद हैं, अल्प हैं या ज्यादा ? 

    फिर कह रहे हैं स्वभाव सरल। न ऊधो को लेने, न माधो को देने। ठीक है भैया जैसा है वैसा ठीक है। फिर कह रहे हैं स्वागत तत्परता। अपन लोगों ने पिछले दिनों मनुष्य आयु के लिये थोड़ी सी तैयारी करी थी, धर्म ध्यान किया था। मैंने पहले ही कह दिया था कि जो लोग शामिल हों वो संक्लेश न करें जैसे ही संक्लेश होने लगे किसी भी काम में वहाँ से हट जाना क्योंकि हम अगर इस कार्य को कर रहे हैं तो सिर्फ आत्म-कल्याण की दृष्टि से कर रहे हैं। स्टेशन पर किसी को लेने पहुंचे हैं तो बहुत धर्मध्यान कर रहे हैं। लोग कहने लगे इसमें भी धर्मध्यान। देख लो धर्म ध्यान। स्वागत तत्परता। मनुष्य आयु के बंध का कारण है स्वागत तत्परता। पधारे आपके लिये और कोई सेवा मेरे योग्य। हो गया। फिर कह रहे हैं शुभ समाचार कहने में रुचि। अच्छे समाचार अभी तो अपन लोगों की रुचि है, "काहे तुमने सुना उनको ऐसा हो गयो” “कैसो' ? खराब हो गयो तभी तो इतने धीरे से कह रहे हैं। अच्छा हो गया इसके बारे में नहीं। शुभ-समाचार देने की रुचि नहीं है अशुभ समाचार तो आप पेम्फलेट बिना छपवाये एक से भर कह दो आप। पूरे जयपुर में फैल जाएँगे। लेकिन अगर कोई बहुत अच्छा काम होना है, हमें तो पता ही नहीं लगा। और इससे मालूम पड़ता है कि रुचि किसमें है। अशुभ समाचार देने में रुचि है या कि शभ समाचार देने में रुचि है। अकलंक स्वामी तत्वार्थ राजवार्तिक में लिख रहे हैं, बहुत व्यवहारिक सी बात कि जो हमेशा शुभ समाचारों को देने में तत्पर है, अशुभ समाचार किसी को नहीं सुनाता हो। बताइये वो मनुष्य हुआ होगा। अपन ने पहले ऐसा करा होगा।
     
    लोकयात्रानुग्रह, जो तीर्थ यात्राओं को स्वयं ले जाते हैं और तीर्थ यात्रियों की सेवा करते हैं जैसे कि कोई अपने यहाँ से तीर्थ यात्रा निकले और अपन को पता चल जावे तो तीर्थ यात्रियों की सेवा कर रहे हैं तो कह रहे हैं कि मनुष्य बनने की तैयारी है। लोकयात्रानुग्रहः उसकी धर्म की यात्रा में हमेशा सहयोगी बनना। फिर कह रहे हैं ईष्या-रहित परिणाम वो तो अपन विचार कर चुके हैं। अतिथि सत्कार में रुचि। अतिथि दो प्रकार के हैं एक लौकिक अतिथि जो अपने घरों में आते हैं और एक पारलौकिक अतिथि जो कि संयमपूर्वक और अपने जीवन को व्यतीत करते हुये और मोक्ष-मार्ग की यात्रा में यहाँ से वहाँ चले जाते हैं बिना बताए। जिनके आने-जाने के लिये तिथि निश्चित नहीं होती, ऐसे संयम को पालन करने वाले साधुजन, आचार्य, उपाध्याय अतिथि हैं, इनकी सेवा करना और जो लौकिक अतिथि हमारे घरों में आते-जाते हैं वे अतिथि उनकी सेवा करना। दोनों तरह से। ये अतिथि सेवा में जिनकी रुचि होती है कई लोग होते हैं जिनकी अतिथि सेवा में बहुत रुचि होती है और दानशीलता, ये सारी चीजें हमें मनुष्य बनने के लिए तैयारी के लिए जरूरी हैं। अपन ने पहले ऐसी तैयारी करी होगी। अभी तो अपन को संसार की चीजें पाने की तैयारी है। अगर पाना ही है तो मनुष्य पर्याय पाने की तैयारी करें ना। क्या-क्या पाया अपन ने ये तो देखें। कैसे पाया होगा ? दुरस्त हैं दोनों आँखें, दुरस्त हैं दोनों हाथ-पैर, बढ़िया है शरीर, मन भी विकल नहीं है। मन भी स्वस्थ है अब इतनी सब चीजें कैसे पायीं होंगी? ये सब, इनको देखें। अभी तो अपन ये देखते हैं कि ये खाने-पीने की चीज अच्छी नहीं मिली। पहनने-ओढ़ने की चीज अच्छी नहीं मिली। ये ऐसा नहीं मिला। अरे ये चीजें जो अपन थोड़ा सा प्रयत्न करें, मिल जाती हैं लेकिन जो पाया है वो कितने प्रयत्न करने से पाया होगा, आगे हमें ऐसा ही पाने का प्रयत्न करना चाहिये। ये छोटी-मोटी चीजें पाने का प्रयत्न नहीं करना चाहिये। ये इतना बड़ा स्थान जो मिला है जिसमें हम रह रहे हैं, ये छोटा-मोटा मकान तो कोई भी कन्सट्रक्ट कर सकता है। इसको कन्सट्रक्ट करने के लिए कैसे परिणाम किये होंगे, कैसे कर्म किये होंगे। कर्म जिससे कि ये बना जिसमें कि हम रह रहे हैं। अपने रहने के लिये तो ये बनाया है। खिड़की बनाते हैं और खिड़की में कौनसे वाले परदे (करटेन) डालते हैं इसकी तैयारी करते हैं और ये वाली खिड़की जिससे देखते हैं इसकी कितनी तैयारी करना पड़ी होगी इसके बनाने की। इससे ठीक-ठीक दिखाई पड़े, उसकी जैसे खिड़की बनाने की और दरवाजे से निकलने की कितनी बढ़िया डिजाइन करते हैं। ऐसा ही इसके लिये कितना एफोर्ट किया होगा, ये विचार करना पड़ेगा। 

    एक बाबाजी के पास पहुँचा था एक युवक, उसने सुना था कि बाबाजी के पास में एक ऐसा पत्थर है जिससे सब सोना हो जाता है। सुनी आपने कहानी। अरे ऐसी कहानी सुनना चाहिये आपको। पढ़ना भी चाहिये ऐसी कहानी बढ़िया सी। सुनी होगी आपने लेकिन हम दूसरे ढंग से सुना देंगे। अगर हमने सुनाई भी होगी तो। तो वो बाबाजी के पास पहुँचा और उसने कहा मुझे मिल सकता है क्या पारस पत्थर। कहा नहीं उसने। वो तो सेवा करने लगा। सेवा से प्रसन्न होकर ये अपने आप दे देंगे। और वाकई में 12 साल तक सेवा करी उसने। एक दिन उसने कहा कि बाबा अब जाऊँगा मैं। तो बाबा ने कहा बोल क्या माँगता है ? वो पारस पत्थर दे दो बाबा। बाबा तो पहले ही जानते थे कि पारस पत्थर माँगेगा और उसी के लिये सेवा कर रहा है। यह “स्वभाव-मार्दवं च"। स्वभाव की मृदुता है। मेरा सत्कार सेवा कर रहा है उसके पीछे इसका इन्टेन्शन है तो उतना ही मिल के रह जाएगा। अगर कोई वैधानिक विनय होगी, अगर किसी स्वार्थवश हमने विनय की होगी तो बस स्वार्थ की पूर्ति हो जाएगी और अगर सहज विनय होगी, स्वाभाविक विनय होगी तो वो प्राप्त हो जाएगा जो उस विनय से वास्तव में प्राप्त होना चाहिये। बाबाजी ने वो खप्पर है ना, उसके नीचे वहाँ रखा हुआ है। बड़ा आश्चर्य हुआ उसको कि इतनी कीमती चीज जिसके लिये मैं 12 वर्ष से तपस्या कर रहा हूँ। हम तो सोच रहे थे कि कहीं छिपा के रखा होगा। निकालेंगे हमारे सामने। कहीं नहीं, उधर रखी है खप्पर में। अरे इतने दिन से हमें मालूम होती तो कभी के उठा के चलते बनते। ऐसे विचार आ गये देखना। उठाकर के प्रणाम करके थोड़ी दूर गया। लेकिन साधु के समीप रहा हुआ व्यक्ति था। हाँ, भले ही झूठ मूठ रहा था लेकिन उसके मन में थोड़े परिणामों की निर्मलता आ गई थी। सो उस परिणामों की निर्मलता से विचार आया कि इन्होंने इतनी सहजता से इतनी कीमती चीज दे दी। इसका मतलब है कि कोई और कीमती चीज इनके पास है। लौट आया वापिस, नहीं चाहिये। क्यों नहीं चाहिये ? अब मुझे वो चाहिये जिसकी वजह से आप इतनी कीमती चीज को छोड़ पा रहे हैं। बस ये है संतोष जिसमें हम संसार की चीजें छोड़ने को तैयार हो जाते हैं अपने आत्म-कल्याण के लिये। ऐसा व्यक्ति ही अपना आत्म-कल्याण कर सकता है जो इतना संतोषी होगा और कोई विशेष बात नहीं है। हम चाहें तो अपने जीवन में इन सब बातों से शिक्षा लेकर के और अपने जीवन को बहुत अच्छा बना सकते हैं। इसी भावना के साथ कि हम रोज-रोज थोड़ी-थोड़ी सी बातें करके और बैठ रहे हैं, सीख रहे हैं, इसमें से जितना भी जिसके जीवन में रह जाये। मुझे तो बार बार यही लगा करता है और कई बार मैं कह भी देता हूँ आपसे कि बहुत कुछ अपने को इस जीवन में करना है। आज करें तो अपने को करना है, कल करें तो करना है। इस जीवन में करें तो, अगले जीवन में करें तो करना अपने को ही है। क्यों ना फिर हम आज ही से शुरू करें। थोड़ा-थोड़ा शुरू करें। जितना हमें लगता है कि हम कर सकते हैं उतना करें। कल कर लेंगे ऐसा नहीं सोचें। आज कितना कर पायेंगे ऐसा सोचे। जो मिला है उसे मैंने कैसे पाया होगा। ये सोचकर के आगे मुझे अगर ऐसा ही पाना है तो मुझे क्या करना चाहिये। ये करना हम शुरू करें और अपने जीवन में वस्तुओं से ज्यादा महत्व हम अपने आपको दें। चेतना को दें और जो प्राप्त नहीं है उसको लेकर के चिन्तित ना हों क्योंकि ये संसार की चीजें एक दिन मिलती हैं, एक दिन बिछुड़ जाती हैं। मुझे जो पाना है वास्तव में, मैं उसके लिये क्यों न प्रयत्न करूँ। इनके नहीं मिलने पर मैं चिन्तित नहीं होऊँ। इस तरह अगर इन दो-तीन बातों को हम ध्यान में रखकर के और अपने जीवन को कोई अच्छी स्टाइल दें तो हमारा जीवन अच्छा बन सकता है। 

    इसी भावना के साथ बोलिये आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी मुनि महाराज की जय। 
    ००० 
  3. Vidyasagar.Guru

    कर्म कैसे करें
    हमने अपने जीवन में जो भी पाया और जो भी खोया है वो अपने ही कर्मों से खोया है और कर्मों से ही पाया है। हम यहाँ जो जैसे और जितने हैं उस सबकी जिम्मेदारी हमारी अपनी और हमारे अन किये गये कर्मों की है। सिर्फ कर्मों की जिम्मेदारी हो ऐसा नहीं कह रहा हूँ। क्योंकि यदि सिर्फ कर्मों की जिम्मेदारी हो तो ऐसा लगेगा कि दूसरे के कर्मों से भी हमें अपने जीवन में सुख-दुख मिलेगा; दूसरे के किये गये कर्म हमारे जीवन में प्रभाव तो डाल सकते हैं, पर हमारे जीवन के निर्माण में तो हमारे किये कर्म ही कारण बनते हैं। हमें अच्छा शरीर मिला है या कि नहीं मिला है, हमें अच्छी वाणी मिली है या कि नहीं मिली है, हमें अच्छा मन मिला है या कि मन की विकलता है। हमारे शरीर का रूपरंग अच्छा है या बुरा है। हमें जहाँ-जहाँ जाते हैं वहाँ सम्मान मिलता है या अपमान मिलता है, हमारा यश फैलता है या कि अपयश फैलता है ? हम इन सब बातों के लिये स्वयं निर्धारित करते हैं। हम जैसे कर्म वर्तमान में करते हैं उससे ये सारी चीजें निर्धारित होती हैं। 

    कुछ ऐसे भी कर्म हैं जो कि हमें जिस स्थान पर पहुँचना है और उस स्थान पर जाते समय, ट्रांसमाइग्रेशन करते समय कौन-कौनसी चीजें हमारे साथ अटेच होकर जाने वाली हैं ये भी हम निर्धारित करते हैं ठीक ऐसे ही जैसे कि सर्विस में ट्रांसफर होता है तो ट्रांसफर किसी अच्छी जगह भी हो सकता है और सम्भावना है अच्छा पड़ौस मिले, हो सकता है कि अच्छे संस्कारवान लोग मिलें और ऐसा भी सम्भव है कि स्थान अच्छा ना मिलें, पड़ौसी अच्छे ना मिले और संगति वहाँ पर खोटी मिले, ये सारी सम्भावनाएँ हैं। इनको कौन रेग्युलेट करेगा ? इनको हमारा अपना पूर्व का किया हुआ पुरुषार्थ जिसे हम पुण्य और पाप कहते हैं और वर्तमान के किये गये हमारे कर्म जैसा हमारा परफॉरमेन्स होगा, जैसी हमारी सर्विस का एक्सपीरियंस होगा, जैसा हमारा अपना नेचर हमने बना लिया होगा ठीक वैसा ही हम दूसरी जगह पायेंगे तो हमें वैसी ही सिचुएशन, वैसा ही परिवेश, वैसा ही एनवायरनमेंट सब कुछ वैसा ही मिलेगा। ठीक ऐसा ही जीवन में कर्मों के साथ है, कर्म हम जैसे करेंगे वैसी गति मिलेगी, वैसा स्थान मिलेगा, वैसा शरीर मिलेगा, वैसा शरीर का रूप-रंग होगा और इतना ही नहीं, सौभाग्यशाली शरीर मिलना है। कि दुर्भाग्य से युक्त शरीर मिलना है शरीर के सारे अवयव बहुत सुन्दर व सुडौल होने के बावजूद भी दुर्भाग्य इतना है कि कोई पसन्द ना करे और शरीर के अवयव सुन्दर नहीं हैं। लेकिन सौभाग्य इतना है कि जिसकी दृष्टि पड़ जाये वो अपने को सौभाग्यशाली मानने लगे। जिसके साथ दो बातें करने का मन हो और अपने को सौभाग्यशाली माने, ऐसा भी हम ही कर्म करते हैं, और उसका हम फल चखते हैं। यहाँ अगर किसी को अच्छा शरीर मिला है तो उसने पूर्व जीवन में क्या किया होगा और आज अगर वर्तमान में अच्छा शरीर नहीं मिला है तो हमने पहले ऐसा क्या दुष्कर्म किया होगा जिसके परिणामस्वरूप हमें ये स्थिति प्राप्त हुई। अगर हमें वाणी अच्छी मिली है तो हमने ऐसा क्या भला किया होगा जिससे सुस्वर मिला। सुस्वर नाम कर्म कैसे मिला होगा और अगर वाणी कर्कश है और कठोर है तो मानियेगा कि हमने ऐसा कौनसा दुस्वर नाम कर्म अपने साथ बाँध लिया होगा। 

    ये सारी चीजें हमारे कर्म निर्धारित करते हैं इसके लिये एक बहुत बड़ी प्रकृतियों वाला कर्म है सारे कर्मों में, जिसकी फैमिली सबसे बड़ी है वो नाम कर्म, 93 इसके भेद प्रभेद हैं जिससे कि पूरी बॉडी कन्सट्रक्ट होती है और वाणी मिलती है, मन की सामर्थ्य मिलती है। द्रव्य, मन, भाव मिलते हैं। मन तो हमारे अपने क्षयोपशम से. ज्ञान के क्षयोपशम से, नो इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से, वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से मिलता है लेकिन जिसका आलम्बन लेकर के हम विचार करेंगे, वो मन भी हमारे भीतर इसी तरह कसट्रक्ट होता है। हम स्वयं अपना शरीर निर्मित करते हैं और एक चीज और ध्यान रखना, रॉ-मैटेरियल कैसा भी हो अगर हम बहुत अच्छे आर्टिस्ट हैं, तो हम बहुत अच्छी चीज कन्सट्रक्ट कर लेंगे, उसमें से, हाँ। वो आर्ट कैसे आयेगी, हमारे अपने कर्मों से आयेगी। जैसे कि हम किसी अच्छे कारीगर को बुलाते हैं और सामान बता देते हैं कि इत्ता-इत्ता सामान है और उसमें इस तरह से बिल्डिंग-कन्सट्रक्ट करनी है। बहुत अच्छा अगर कलाकार हो, बहुत अच्छा आर्टिस्ट हो, बिल्डिंग कन्सट्रक्टर हो तो बहुत अच्छी बिल्डिंग बनाकर के रख देगा। उसमें रंग-रोगन भी बहुत अच्छे से कर देगा, भले ही आपने उसको मेटेरिय - अच्छा नहीं दिया हो और जिसको उसका आर्ट नहीं मालूम उसको बहत अच्छा मेटेरियल भी देवें तो वेस्ट कर देगा। वो सब ठीक ऐसे ही हमारे अपने जीवन में भी है, हमारे अपने कर्म जैसे होंगे वैसी सारी सिचुएशन्स हमारे चारों तरफ क्रिएट होगी और फिर इतना ही नहीं जैसी सिचुएशन क्रिएट हुई है उसमें हमारा अपना क्या बिहेवियर है इस पर भी डिपेंड करेगा। हमें जैसा जो कुछ भी मिलता है उसमें हम सुख 
    और दुःख अनुभव कैसे करते हैं। ये हमारे अपने एटीट्यूड पर निर्भर करता है, ये हम पहले कई-कई बार इस चीज को समझ चुके हैं। चीजों से हमें सुख नहीं मिलता। ये चीजें और उनसे हमारे क्या सम्बन्ध है उससे हमारा सुख और दुःख रिलेटेड है। हमें अच्छा शरीर मिला है जरूरी नहीं है कि सुख मिले ही। ये हमारे ऊपर निर्भर करता है इसलिये ये चीज भी इसके साथ जोड़कर के हम देखने की कोशिश करेंगे कि हमें सब कुछ अपने पूर्व संचित कर्मों से मिल जाने के बाद भी उसमें हर्ष करना है या विषाद करना है और आगे के लिये क्या तैयारी करना है। ये सब हमारे अपने वर्तमान के पुरुषार्थ पर निर्भर करता है। हम पहले कई-कई बार इस चीज को समझ चुके हैं।
     
    ये ठीक है कि आज हमें जिस तरह का शरीर मिला है उसकी जिम्मेदारी हमारे पुराने कर्मों की है लेकिन उस शरीर का, उस वाणी का और उस मन का हमें करना क्या है ये आज वर्तमान में हमारे ऊपर निर्भर है। अब जरा विचार करें कि जैसा शरीर मिला है उसके लिये कौनसे कर्म जिम्मेदार होंगे, कौनसे भाव हमारे जिम्मेदार होंगे तभी हम आगे के लिये अपनी जरा जो तैयारी कर रखी है उसमें परिवर्तन कर सकेंगे क्योंकि अगर मालूम पड़ जाये कि इस तरह की तैयारी करने से और हम जो सोच रहे थे वो चीज नहीं मिलेगी, मालूम पड़ जाये कि हमने तो तैयारी दूसरे प्रश्न की कर रखी थी उत्तर की और लगता है कि शायद कोई और चीज सामने आने वाली है तो हम जल्दी से अपनी तैयारी बदल सकते हैं। 

    हमारे अपने परिणामों को हम टटोल सकते हैं कि वे किस दिशा में जा रहे हैं और आगे जाकर के हमें कैसी स्थिति और कैसा एनवायरनमेंट मिलेगा; सब चिंतित होते हैं इस चीज के लिये कि कहीं दूसरी जगह जाना पड़ेगा तो कैसी-कैसी स्थिति मिलेगी, कौन-कौन मिलेंगे, कैसा शरीर मिलेगा, शरीर मतलब कैसा मकान मिलेगा रहने का। यही तो ये शरीर भी तो मकान ही है, कैसा वाला मिलेगा और कौनसी जगह मिलेगी। गति क्या है, उस जगह का नाम ही तो है जहाँ हम पहुँच जाते हैं और कौनसी जाति मिलेगी, एक इन्द्रिय होंगे, कि दो इन्द्रिय होंगे कि तीन इन्द्रिय की, वार इन्द्रिय, पंचेन्द्रिय कौनसी तैयारी है जिससे कि हम उस प्रकार के शरीर को पायेंगे। एक इन्द्रिय का शरीर मिलेगा, कि दो इन्द्रिय का मिलेगा, कि पंचेन्द्रिय का और पंचेन्द्रिय में भी नारकी जीव का शरीर मिलने वाला है, कि देवों का शरीर मिलने वाला है, कि किसी मनुष्य का शरीर मिलने वाला है, या कि हाथी-घोड़े का शरीर प्राप्त करेंगे, कौनसा करेंगे साथ कुछ एक ब्लू प्रिंट की तरह हमारे साथ अटेच हो जाता है, एक प्रिंट बन जाता है हमारे अन्दर उन सब चीजों का कैसे ? आश्चर्य होता है जब नाम कर्म की प्रकृत्तियाँ पढ़ते हैं कि अगर इसमें जितने बाल हैं तो उतने ही क्यों हैं और उनकी स्टाइल क्या है ये सब हमने निश्चित किया है। शेप, साइज सारा कुछ, आँख यही लगानी है तो यहीं लगेगी, साइज कितनी है, प्रपोर्शनेट है या अनप्रपोर्शनेट है। बॉडी में जो-जो चीजें फार्म हुई हैं वो प्रपोर्शनेट हैं कि नहीं हैं, शरीर का कैसा संहनन है, कैसे हमारे ज्वाइट्स हैं, उनमें कितनी ताकत है, ये सब भी हम अपने कर्मों से निश्चित करते हैं, इन सबके लिये अलग-अलग कर्म हैं और उन सबके अलग-अलग परिणाम हैं। 

    मजा ये है इतना बारीकी हिसाब कोई अगर बता सकता है तो सिर्फ सर्वज्ञ बता सकते हैं ये कर्म प्रकृतियाँ और इनके होने वाले परिणामों को जब हम जानते हैं तो ऐसा लगता है कि ये तो हमारी बुद्धि के बहुत पार है। ये कोई बहुत अत्यन्त ज्ञानवान ही जान सकता है। दो लोग एक जैसे नहीं हो सकते कभी भी, टिव्न्स भी क्यों ना हों। उनके बॉडी कन्सट्रक्शन में कहीं ना कहीं चेन्ज जरूर से होंगे, क्योंकि दो सेपरेट जीव हैं, अलग अलग जीव हैं तो अलग-अलग ही उनके अपने शरीर की बनावट और बुनावट दोनों चीजें होंगी, हाँ! जैसे कपड़े की बनावट और बुनावट दोनों ताना-बाना किस तरह का है ये बुनावट कहलाती है इसी तरह शरीर में भी किस तरह से हमने ताना-बाना बनाया है और कैसा उसका शेप है और साइज क्या है, ये सब हम निर्धारित अपने भावों से करते हैं। दो सूत्रों में आचार्य भगवन्तों ने शॉर्ट में लिखे में, सारी चीज कह दी अब और शरीर के मामले में, गति के मामले में, जाति के मामले में, सौभाग्य और दुर्भाग्य, यश और अपयश के मामले में, अगर सारी चीजें आपको खोटी मिली हैं तो मानियेगा आपने पहले मिली हुई मन, वाणी और शरीर का दुरुपयोग किया होगा, ये तय है। बस इतने शॉर्ट में कह दिया अपन डिटेल कर लेंगे उसका समझने के लिये और इतनी ही बात है “योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः।" 

    अगर हमारा शरीर अशुभ मिला है और भी सारी चीजें अशुभ मिली हैं तो मानियेगा कि हमने योग यानी मन, वचन, काय इनकी सरलता नहीं रखी होगी। इन मन, वचन काय का सदुपयोग नहीं किया होगा, उनका दुरुपयोग किया होगा, या कि इनके द्वारा कुटिलता की होगी, मन में कुछ, वाणी में कुछ, शरीर से एक्शन कुछ। और कोई भी चीज हमने दूसरे के प्रति शुभ नहीं करी होगी। मन में खोटा सोचा होगा, वाणी खोटी बोली होगी और शरीर से भी हमने दूसरे का उपकार करने की जगह अपकार किया होगा, जिससे कि आज हमें मन, वाणी और शरीर की सामर्थ्य सब अशुभ मिली हुई है। हम किसी का कुछ भला कर ही नहीं पाते। हमसे न वाणी से दूसरे का भला होता है, ना शरीर से ही दूसरे का भला किया; ना हमारे मन में कभी दूसरे का भला करने का विचार आता। सब खोटा ही खोटा आता रहा; इसके मायने है कि पहले हमने इस तरह का कर्म किया होगा और निरन्तर किया होगा और “तद्विपरीतं शुभस्य” उससे विपरीत अगर कोई है तो सारी चीजें शुभ मिली होंगी। आज हम देखें गौर से अगर हमें अच्छा सुन्दर शरीर मिला है, इसका मतलब है कि हमने दूसरे के लिये जरूर अपने शरीर से मदद की होगी, हाथ सुन्दर मिले हैं इसके मायने है कि मैंने दूसरे का उपकार किया होगा, आँखें सुन्दर मिली हैं, मैंने दूसरे की बुराई ना देखकर के भलाई देखी होगी, इन आँखों से इसलिये आज मेरी आँखें सुन्दर हैं। मेरी आँखों में चमक है, और अगर ये सारी चीजें मैंने खोटी की होंगी, आँखों से सिर्फ दूसरे की बुराई देखी होगी और कानों से दूसरे की बुराई सुनी होगी तो मानियेगा कान वैसे ही मिलेंगे-“स्वदोषः ......" बड़े-बड़े कान मिलते हैं हाथी को ऐसे सूपा जैसे, और आँखें इतनी-इतनी सी मिलती हैं क्यों? अपने दोष देखने में तो इतनी सी आँख और दूसरे के दोष सुनने में इतने बड़े-बड़े कान। पहले हम जिस तरह के परिणाम और जिस तरह का उपयोग मन, वाणी और शरीर का करते हैं वैसा ही मन, वाणी और शरीर हम यहाँ पुनः पाने के लिये मजबूर हो जाते हैं। बचपन में जो शरीर मिलता है वह सबको क्यों अच्छा लगता है, कभी सोचा। बड़े होने पर वही शरीर अच्छा नहीं मालूम पड़ने लगता। 

    शरीर तो ऐसा है कि जीर्ण-शीर्ण होता है उसका स्वभाव है ही। एक बात तो ये है और दूसरी बात और है बचपन में क्योंकि भोलापन है, क्योंकि सरलता है, मन वाणी और शरीर की तब शरीर कुरूप भी क्यों ना हो, भला मालूम पड़ता है और कई बार शरीर बहुत सुन्दर हो और अगर कुटिलता हो, सरलता ना हो तब भी शरीर सुन्दर नहीं मालूम पड़ता। हालाँकि ये कर्म पुदगल विपाकी है। नाम कर्म की अधिकांश प्रकृतियाँ शुभ और अशुभ दोनों रूप हैं लेकिन इससे जीव का भी सम्बन्ध है इसलिये मैंने दोनों बातें आपसे कह दीं कि शरीर अत्यन्त सुन्दर होने के बावजूद भी यदि दूसरे नाम कर्म का उदय है तो वो शरीर किसी को पसन्द नहीं आयेगा और शरीर अशुभ नाम कर्म के उदय से और कुरूप मिला हुआ है लेकिन सुभग नाम कर्म का उदय है तो सबके लिये भला जान पड़ेगा। इसलिये ये दोनों चीजें ध्यान में रखकर के हमारा अपना वर्तमान का राग-द्वेष भी उसमें है अच्छे और बुरे होने में।

    गुलाब का फूल सबको अच्छा मालूम पड़ता है। देखियेगा उसका नामकर्म देखियेगा। ठीक उसके अकेले नामकर्म नहीं है उसके सुभग नामकर्म भी है साथ में। उसके अवयव तो अच्छे हैं ही उसका कलर अच्छा है, उसके साथ-साथ उसकी सुगन्ध अच्छी है, सब कुछ अच्छा है काँटों के बीच खिला होने के बावजूद भी सुभग नाम कर्म है। हर आदमी पाने के लिये उत्सुक हो जाता है। वनस्पतियाँ कितने प्रकार की हैं। उनके भी नाम कर्म हैं कितने-कितने प्रकार के लोग हैं उनके अपने-अपने नाम कर्म हैं, कैसे ये सब बनते होंगे। बचपन में क्यों ये सब अच्छे लगते हैं, छोटे होने पर क्यों अच्छे लगते हैं, और बचपन में रास्ते से चले जाने पर क्यों हमें कोई गाय का बछड़ा मिल जाता है तो उसकी पीठ थपथपाने का मन होता है। कोई अच्छी चीज दिख जाती है तो खड़े होकर देखने का मन होता है। क्यों होता है ये सब ? क्योंकि उस समय चित्त अत्यन्त निर्मल होता है। और ये जो चित्त की निर्मलता है वो इन सब चीजों के प्रति हमारे मन को आकृष्ट करती है और इतना ही नहीं बड़े होने पर भी कुछ लोग जब समय पर भोजन करने आते हैं ये सोच करके कि मेरी वजह से दूसरे को तकलीफ ना पहुँचे तब, तब देखियेगा उनके अपने जीवन की सुन्दरता, उनके व्यक्तित्व की सुन्दरता इससे मालूम पड़ती है। 

    हमने मन, वाणी और शरीर से अपना स्वार्थ नहीं साधा होगा, परमार्थ साधा होगा इसलिये ये शुभ मिले हैं। हमारा अपना स्वार्थ साधेगे तो आगे जाकर के ये सब अशुभ ही मिलने वाले हैं और इतना ही नहीं हमने इस सारी सामग्री को इतना महत्व नहीं दिया होगा। शरीर, मन और वाणी मिली है और भी जो सामग्री मिली है उसके संचय का उतना ध्यान नहीं रखा होगा बल्कि अपने सदगणों के संचय का ज्यादा ध्यान रखा होगा इसलिये अच्छा शरीर मिला है और उसके विपरीत अगर होगा तो बुरा शरीर मिला होगा। हमारे किये पहले जो मन, वाणी और शरीर मिला था उसका हमने सदुपयोग किया होगा। सदुपयोग करना मतलब दूसरे के काम आना, दूसरे का ख्याल रखना। समय से भोजन के लिये पहुँच जाता हूँ, मुझे दूसरे का ध्यान है मेरी वजह से उसको प्रोब्लम नहीं होनी चाहिये। ये है मन और वाणी का सदुपयोग। मुझे वाणी मिली है मैं बोलूं ऐसा जिससे मुझे बाद में क्षोभ उत्पन्न ना हो, मैं काम करूँ ऐसा जिससे बाद में मुझे पश्चाताप ना हो और मैं विचार करूँ ऐसा जिससे बाद में मेरे मन में ग्लानि न हो। चलिये हो गया, तीनों का सदुपयोग। हम आसानी से इस तरह से सदुपयोग कर सकते हैं। बस जरा सा विचार करना पड़ेगा कि वाणी मैंने बोली है तो बाद में फिर मुझे अपने ही बोले पर कहीं मन में क्षोभ न हो कि ऐसा क्यों बोला ? सामने वाले को तो क्षोभ हुआ सो हुआ पर मुझे बाद में अपने बोले हुए का क्षोभ ना हो तो समझना कि ठीक सदुपयोग किया है वाणी का शरीर। की क्रियाएँ करने के बाद, पश्ताचाप ना हो तो मानियेगा कि शरीर का सदुपयोग किया है। और मन में किसी के बारे में विचार करने के बाद ग्लानि ना हो मैंने ऐसा क्यों विचार किया? 
    हम मन, वाणी और शरीर का सदुपयोग इन बातों का ध्यान में रखकर के आसानी से करना चाहें तो कर सकते हैं और अगर हम आज वर्तमान में अच्छा शरीर नहीं मिला है तब भी आगे के लिये अच्छे शरीर की तैयारी कर सकते हैं। वर्तमान में अच्छी गति नहीं मिली है तब हम आगे की अच्छी गति की तैयारी कर सकते हैं और आज अगर अच्छी मिली है तो आगे के लिये बुरी की तैयारी भी कर सकते हैं। ऐसा नहीं है आज मनुष्य गति मिल गई है, सबसे सौभाग्यशाली है, चार गतियों में हमने कोई पहले ऐसा मन, वाणी और शरीर की वक्रता नहीं की होगी, सरलता ही होगी जिससे कि हमें आज मनुष्य गति मिली है। मनुष्य आयु मिलना अलग बात है देखो और मनुष्य गति मिलना अलग बात है। ये चारों गतियाँ निरन्तर 24 घण्टे बँधती रहती हैं, ध्यान रखना और आयु तो किसी एक निश्चित समय के आने पर बँधती है और गति तो हम हमेशा बाँधते रहते हैं। हमारे अपने मन, वाणी और शरीर का जैसा शुभ और अशुभ परिणमन होगा वैसी गति, वैसी एकन्द्रिय, दो इन्द्रिय इत्यादि जाति और फिर उसके हिसाब से बहुत सारे गति, जाति, शरीर, अंग-उपांग, निर्माण बंधन, संघात, संहनन, स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, अगुरूलघु उपघात। बारहसिंहा का अपना शरीर अपने ही घात में कारण बनता है। 

    चमरी गाय की अपनी सुन्दर सी पूँछ एक बार झाड़ी में अटक जाये तो कई दिन खड़ी रहेगी जब तक कि सुलझ न जाये, मर जायेगी वहीं पर, प्राण दे देगी क्योंकि अपनी पूँछ से बड़ा प्यार होता है उसको । एक बाल अटक गया है पूँछ का झाड़ी में वहीं खड़ी रहेगी, टूट जायेगा, उसको बहुत दुःख होता है। टूटना नहीं चाहिये। अपने ही घात करने वाला शरीर हमें मिल जाता है कई बार और ऐसा शरीर जैसे कि सिंह का दूसरे के घात करने के जैसे नख, ये सब कैसे होता होगा? हमारे अपने मन, वाणी और शरीर की क्रियाओं से होता है, वे शुभ होती हैं तो सारी चीजें शुभ मिल जाती हैं; वे अशुभ होती हैं तो सारी चीजें हमारे जिम्मे अशुभ आती हैं। ये तो ठीक है लेकिन अशुभ मिल जाने के बाद भी हम उनको कैसे शुभ बनायें। अभी तो वर्तमान में सारी चीजें अच्छी मिल जाने पर हम तैयारी बुरे की कर रहे हैं अगर गौर से देखा जाये तो, अपने मन, वाणी और शरीर को बिगाड़ करके और आगे के लिये इन सबकी जो सामर्थ्य है उसको बुरा बनाने की कोशिश में हैं, अगर इस चीज का हम विचार करें। जो शक्ति मिली हुई है उसका सदुपयोग नहीं करेंगे तो संहनन हीन मिलेगा अभी भी हीन संहनन मिला हुआ है। बज्र वृषभनाराच संहनन यहाँ किसी को नहीं मिला। क्यों नहीं मिला ? हम सबने इस शरीर का सदुपयोग नहीं किया होगा। शरीर का सदुपयोग है कि इस शरीर से तपस्या करना या कि दूसरे की सेवा करना और उसमें विशेष रूप से गुरुजनों की सेवा करना। 
    जब भी आचार्य महाराज इस बात को सुनाते हैं कि हनुमान जी को वज्र का शरीर कैसे मिला, भीम को वज्र का शरीर कैसे मिला ? पूर्व जीवन में उन्होंने अपने शरीर के द्वारा मुनिजनों की भारी सेवा करी। आचार्य शांतिसागर महाराज को ऐसा बलिष्ठ शरीर मिला था कि दो-दो मुनि महाराज को दोनों कंधे पर बिठा के वेद-गंगा और दूध-गंगा के संगम को पार करते थे। इस जीवन में भी और पहले जीवन में भी उन्होंने ऐसा ही किया होगा और जब कोई बैल अस्वस्थ हो जाता था तो उससे काम नहीं लेते थे और उसे बाँध देते थे। अब बैल की जगह बैलगाड़ी में स्वयं काम किया करते थे। इस शरीर का हमने अगर सदुपयोग किया है तो आगे फिर ये शरीर मजबूत मिलेगा। इस वाणी का अगर दूसरे के कल्याण की बात कहने में उपयोग किया होगा तो हमें फिर से ये वाणी सुस्वर मिलेगा अन्यथा फिर दुस्वर मिलेगी जैसे कि गधे की वाणी और कौए का स्वर कोई सुनना नहीं चाहता है लेकिन कोयल की वाणी सबको पसंद है। क्या किया होगा कोयल ने, वैसी वाणी पाने के लिये? सबसे मधुर बोला होगा इसलिये वाणी मधुर है। बहुत ज्यादा डिसक्शन करने की चीजें नहीं हैं, बहुत अनुभव करने की चीजें हैं मैं तो सोचता हूँ। 

    अपने जीवन में थोड़ा सा गौर से एक दृष्टिपात करें सामने तो सब समझ में आता है कि वाकई में ये सब चीजें ऐसे ही बनी होंगी और आचार्यों ने वही चीज हमें इशारा किया है, लिखा है कि और कई कारण हैं उन पर अपन विचार कर लेते हैं। जब हम अपनी इस वाणी से दूसरे की चुगली करने का काम करते हैं तो पिशुनता जिसको कहते हैं, चुगलखोरी इसकी बात उसको ट्रांसफर करना, वो भी अपनी तरफ से कुछ मिक्सअप करते हैं। वाणी तो मिली है अब उसका उपयोग कैसे करना ये हमारे ऊपर निर्भर करता है।
     
    एक घटना है बैल और शेर में बढ़िया दोस्ती थी। ये बच्चों की कहानी है। बच्चों के लिये लिखी है। दोनों में अच्छी दोस्ती थी पर किसी को सुहाती नहीं थी। किसी की भी दोस्ती किसी को सहाती है आज. बताओ इससे मालूम पडता है कि हमारा अपना मन कितना-कितना विकृत है। किसी का अच्छा कुछ हो रहा हो तो हमारे मन में जैसे आग लग गई हो, ऐसा क्यों हो जाता है ? कैसा मन पाया हमने, खोटा मन तो पाया है किसी के बारे में भला कुछ थोड़ी देर सोचेगा, बुरा ही बुरा सोचता है, वाणी थोड़ी देर को किसी से प्यार से बोलेंगे जिनसे हमारा स्वार्थ है ये क्या चीज है ? अब वो नहीं सुहाई लोमड़ी महारानी को तो बिल्कुल नहीं सुहाई। हाँ, उसने कहा कहाँ शेर और कहाँ बैल इन दोनों की क्या दोस्ती, अरे बराबरी वालों से दोस्ती करो तो जाकर के बैल से कहा कि सुनो मालूम है शेर राजा आज आपसे बहुत नाराज हैं। अरे नाराज क्यों होंगे, होंगे भी तो मैं मना लूँगा, हमारी तो दोस्ती है। बोली, नहीं-नहीं आज तो तुम्हारी बहुत बुराई कर रहे थे वो शेर, संभव ही नहीं है, कर ही नहीं सकता। हमारी इतनी अच्छी दोस्ती है। ठीक है मत करो हमारी बात का विश्वास पर आप जाकर के देख लेना सब समझ में आ जायेगा। जैसे ही दूर से देखोगे ना तो गुर्राते दिखाई पड़े शेर, तो समझ लेना कि हमारी बात सच्ची है और तो, नहीं तो झूठ है। लोमड़ी ने इस तरह से बैल को जाकर के सलाह दे दी। ऐसी खोटी सलाह देने में अपन बहत होशियार हैं. दसरे के बीच में बैर पैदा करने की आदत अन्ततः हमें अशुभ नाम कर्म में ले जायेगी और दूसरे का मेल-मिलाप करने की आदत हमारे जीवन को ऊँचा उठायेगी। आज तक हमने दूसरे को एक-दूसरे के प्रति विलग करने और एक-दूसरे से द्वेष उत्पन्न करने का तो काम किया है, लेकिन प्राणी मात्र से प्रीति उत्पन्न हो ये काम नहीं किया। ये परमार्थ का काम है। दूसरा स्वार्थका काम है बहत सावधानी की आवश्यकता है, जीवन में। अब शेर के पास पहुंच गई लोमड़ी महारानी। वो बैल अरे, क्या तो आपने उससे दोस्ती करी है कहीं आपकी बराबरी का है क्या वो। शेर ने कहा कि आज क्या बात है तुम ऐसी कैसी बातें कर रही हो? वो तो मेरा इत्ता अच्छा मित्र है। अरे होगा तुम्हारा मित्र कितनी तो बुराई करता है तुम्हारी, और फिर भी उसको अपना मित्र बनाये रखा है। शेर अपने को क्या जंगल का राजा मानता है, मेरे से जरा दो-दो हाथ तो हो जाये पता लग जाये कि कौन बलशाली है ? अच्छा, ऐसा कह रहा था। हाँ ! और अगर आपको विश्वास नहीं हो तो आज मिलना जब दूर से ही आप उसको जरा गौर से देखना हाँ, पास से मत देखना जरा वो ऐसे सींग करे दिखे ना तो समझ लेना कि मेरी बात सच्ची है, नहीं तो झूठी मान लेना। बस दोनों जन को बता दिया एक से कह दिया जरा गौर से देखना और दूसरे से कह दिया कि वो घूर के देखेगा तो समझ जाना सो उसमें लिखा हुआ है कि बच्चो इसका मोरल क्या है ? ऐसे दूसरों की बातों में आकर के कभी लड़ना नहीं चाहिये। लड़ने से दोनों की हानि हुई, मित्रता तो खत्म हुई, जीवन भी खत्म हो गया। 

    ये तो समझ में आती है बच्चों की कहानी। अपने जीवन में नहीं आ रही समझ में। ऐसे दूसरे से लड़ने से, दूसरों की बुराई करने से अपनी ही हानि होती है, बच्चों को तो समझाते हैं लेकिन ये जो अपन बड़े बच्चे हैं इनके समझ में नहीं आती और अपने जिस दिन समझ में आ जाये कि ये वाणी और मन इसके लिये नहीं मिला है, ये दाँव-पेच करने के लिये,कुटिलता है मन, वाणी और शरीर की। इस कुटिलता से तो मेरे को कल मन, वाणी और शरीर जो भी मिलेंगे सब अशुभ ही मिलने वाले हैं; मैं दूसरे का अशुभ नहीं कर रहा हूँ, मैं तो अपने हाथ से अपना अशुभ कर रहा हूँ। भैया इतनी सी बात क्यों नहीं समझ में आती। कह रहे हैं कि अस्थिर चित्त, हमेशा चित्त बदलता रहता है। कई लोग जिनको अपन कहते हैं बड़े मूडी हैं। भैया ये अस्थिर चित्त है 'क्षणे तुष्टम् क्षणे रूष्टम् क्षण भर में रुष्ट है, क्षण भर में संतुष्ट है, ऐसा मन लेकर के अपन आये हैं। ऐसे अस्थिर चित्त वाले व्यक्ति अशुभ नाम कर्म का ही बंधन करते हैं और झूठे नाप-तौल ये भी अशुभ नाम-कर्म के बंध में कारण हैं। आचार्य विद्यानन्द जी महाराज की सभा में कोई टेढ़ा-मेढ़ा बैठा हो तो एक ही सूत्र बोलते हैं वो “योगवक्रता विसंवादनं चशुभस्य नाम्नः'। बोलते हैं कि ठीक-ठीक बैठो, टेढ़े-मेढ़े बैठोगे तो योगों की वक्रता, मन, वचन, काय की वक्रता अगर होगी तो आगे जाकर के अशुभ मिलने वाला है सब नाम कर्म। कृत्रिम रत्न इत्यादि का निर्माण करना, मिलावट करना इससे अशुभ नाम कर्म, झूठी गवाही देना इससे अशुभ नाम कर्म, दूसरों के अंग-अपांग का छेदन भेदन कर देना इससे अशुभ नाम-कर्म, असभ्य कठोर वचन बोलना, इससे भी अशुभ नाम कर्म का बंध हो रहा है अपने लिये, अपना घाटा अपने हाथ से, बच्चे को कान पकड़ के डाँट देते हैं। हम तो सुधारने के लिये डाँट रहे थे, ठीक है वो सुधर जायेगा। आपका तो बिगड़ गया काम कठोर वचन बोल कर के और बच्चे को आप प्यार से भी समझा सकते थे, प्यार की भाषा से बड़ी कोई भाषा नहीं होती, लेकिन हमें लगता है कि जब हम अपने-अपने लोगों के साथ कठोरता से पेश आयेंगे. तभी तो हमारा दबदबा होगा, तभी तो वो हमारी बात. हमारा टेरर जब तक नहीं होगा, बच्चे मानते ही नहीं बात। बच्चे मानते ही नहीं प्यार से हम कितना समझाते हैं उनको। लेकिन वो माने या ना माने, वो अपना कल्याण करें या ना करें हम अपना अकल्याण अपने हाथ से कर लेते हैं। 

    आचार्य भगवन्त लिख रहे हैं कि असभ्य जो कि सभ्य लोगों के बीच कहे जाने योग्य वचन नहीं हैं, जो कठोर हैं, मर्मभेदी हैं, उन वचनों से अशुभ नाम कर्म का ही बंध होता है और मंदिर के गंध, माल्य. दीप, धूप इत्यादि हडप लेना इससे भी अशुभ नाम कर्म का बंध होता है। देव-धन और देव-द्रव्य दो प्रकार की द्रव्य होती है वो जो गुल्लक में डालते हैं, रसीद कटवाते हैं, वो सब देवधन है और वो जो चावल चटक और बादाम चढ़ाते हैं मंदिर में, वो सब देवद्रव्य है। और दोनों का भक्षण करना, ये दोनों ही चीजें अशुभ नाम कर्म के लिये कारण बनेंगी। बहुत लोग करते हैं, बोली बोल देने के बाद अब रखे हैं पैसे अपने पास, सालों नहीं दे रहे। जितने दिन तक रखे हैं उतने दिन तक अशुभ नाम कर्म का बंध ही रहा। ये अपने मन से नहीं कह रहा हूँ बुरा मानने की बात नहीं है, ऐसा है। अब है तो क्या करें? दिया के मैं ऐसा-ऐसा और अब मन कच्चा हे पोछे हट रहा है, कमती में का हो जावे। हाँ, ऐसा हो जाता है भाव। सबसे अच्छा ।लखा है कि अगर पॉकेट में है तो ही बोलो, देओ और निश्चित होकर वापस लौटो। कौन आगे का हिसाब रखे कल के दिन, शाम को मन पता नहीं कैसा हो जाये, दे दो तुरन्त, नहीं तो वह देवधन जब से आपने बोल दिया तब से वह देवधन हो गया। आपने कह दिया कि इतना रुपया मेरा बोली में बोल दिया और अब घर तक चले गये हैं, जितनी देर होती जायेगी उतनी देर आप उस देवधन को जो बोला हुआ है 10,000 बोल दिये तो अब। वो देवधन आपके पास रखा है। अब उसको जितने दिन तक रखे रहोगे, उतने दिन तक परिणाम अगर नहीं देने के बन गये, दे दूंगा क्या फर्क पड़ता है कौन खाये जा रहा हूँ ? दूसरे अपने सुख-सुविधा के साधनों में तो लगाये हैं उस देवधन को और दे नहीं रहे हैं। चार दिन बाद देंगे, ये सारा अशुभ नाम कर्म के बंध, कभी रयणसार पढ़ियेगा, कुन्द-कुन्द स्वामी का उसमें, बहुत डिटेल लिखा हुआ है। एक ही फैमिली हमने अभी तक देखी है अपने जीवन में और भी होंगी लेकिन मेरा ऑब्जरवेशन जितना है उतना बता रहा हूँ। एक फैमिली मिली उनके यहाँ नियम है कि आपने जितने पैसे सभा में बोले हैं या तो वहाँ लेकर के जायें सो वहीं देकर के आयें या कि पहला काम घर लौटकर के जितने बोले हैं उतने रुपये. सोने से पहले निकाल दो घर में से। दूसरे दिन रखा नहीं होना चाहिये। उन्होंने जबलपुर में कलश की बोली ले ली डेढ़ लाख रुपये की और उतने तो लेकर कोई नहीं जाता पॉकेट में। वापिस आकर सबसे पहले गड्डी निकाली, उतने पैसे की एक तरफ रखी फिर उसके बाद दूसरा काम, और जाकर के कहा कि ये ले लो, सम्भालो। 

    उसने कहा हम नहीं जानते आपको जो करना हो वो करो, जैसे सम्भालना हो आप सम्भालो, हम नहीं रखेंगे अपने घर में, ये इत्ते रुपये आप रखो। क्या पता कल के दिन मेरा मन बदल जाये इन रुपयों को लेकर, मैं अपने पाँचों इन्द्रिय और मन के भोगों में उपयोग करने लगूंगा और बाद में मेरे पास देने को नहीं बचे और मैं फिर मुश्किल में पड़ जाऊँ इसलिये जो सामग्री हम अपने मन, वचन, काय से सोचकर के एक बार चढ़ा देते हैं, उसके प्रति अपने मन में कलुषता नहीं आनी चाहिये, कुटिलता नहीं आनी चाहिये। नहीं देने का भाव अगर थोड़ा भी मन में आ गया, देरी से देने का भाव आ गया, तो अशुभ नाम कर्म बँधेगा। ईंटों का भट्टा इत्यादि लगवाना और ऐसे कर्म करना जिनसे बहुत हिंसा होती है, अशुभ नाम कर्म का बंध होगा। 

    इतना ही नहीं, सबके ठहरने के स्थानों को नष्ट करवा देना, अच्छे लगे हुए उद्यान इत्यादि बाग-बगीचे और उनको नष्ट करवा देना, ये सब जो हैं हमारे अशुभनाम कर्म के बंध के कारण हैं। लेकिन वो तो मास्टर प्लानिंग हो रही है। बुलडोजर आयेगा सबके मकान जो हैं उनको तोड़-ताड़ करके एक तरफ रख देगा। अपन समर्थन करो तो अपना ही अहित। बहुत सम्भलकर जीने का है मामला। संसार कहाँ जा रहा है किस तरफ, जाने दें अपन, अपना लौटा छानें। अरे, ऐसे कैसे काम चलेगा ? तो क्या आप संसार बढ़ाना चाह रहे हैं क्या ? नहीं, हम तो संसार घटाना चाह रहे हैं तो अपना काम जरा होशियारी से, जिम्मेदारी से करना पड़ेगा। जिसके द्वारा सबके कल्याण के लिये शरीर की क्रियाएँ होती हैं, जिसका मन सबके कल्याण के लिये भरा हुआ है, जिसकी वाणी सबके कल्याण के लिये और निरन्तर अच्छे वचन बोलती है वही अपने मन, वाणी और शरीर का सदुपयोग कर रहे हैं। और आगे भी उन्हें ऐसी ही शुभ मन, वचन और काय की सामर्थ्य मिलेगी। और अगर अपन इससे विपरीत करेंगे तो समझ लो भैया। मेरा शरीर कमजोर क्यों हुआ ? माँ ने मेरा शरीर कमजोर नहीं बनाया ? मैंने अपने कर्मों से शरीर कमजोर बनाया है। मुझे अच्छी बुद्धि क्यों नहीं मिली ? तो मेरी माँ ने मुझे ऐसी छोटी बुद्धि वाला बनाया हो, ऐसा नहीं है। मेरी बुद्धि अगर कम है तो मैंने कभी किसी दूसरे की बुद्धि की प्रशंसा नहीं करी होगी। कभी किसी दूसरे के ज्ञान की प्रशंसा नहीं करी होगी बल्कि उसकी बुद्धि को नष्ट करने का उपाय करा होगा। उसके मन को चोट पहुँचाने का विचार किया होगा जिससे कि मेरे मन को आज क्षुद्रता ही मिली हुई है ऐसा विचार करना चाहिये। 

    एक छोटा सा उदाहरण है। कोई एक रामानुजम का बालक था। मन, वाणी और शरीर सबको मिलते हैं, कौन कैसा उपयोग करेगा यह उस पर निर्भर करता है। यह उसकी च्वाइस पर निर्भर करता है। 
     
    बचपन में एक यज्ञोपवीत संस्कार होता है। दक्षिण भारत में तो ये बहुत होता है। आचार्य महाराज का भी 11-12 साल में ही हुआ था। जी बन्धन कहते हैं उसको। तो उसमें, उस संस्कार में मंत्र भी दिया जाता है, जीवन भर गुरुमंत्र इसका जाप करना। यदि विपत्ति आये तो उससे बचने के लिये है। चाहे शुभ दिन हो, चाहे अशुभ दिन हो सब में जाप करना तो वो मंत्र दिया उनके गुरुजी ने और समझा दिया कि सुनो इस मंत्र के जपने और सुनने मात्र से कल्याण हो जाता है। बड़ा अलौकिक मंत्र है, पर सुनो इसको सावधानी से पढ़ना और अपने पास ही चुपचाप रखना, किसी को बताना मत, ऐसा बोल दिया। 

    अब छोटा सा बालक, उसने रात भर विचार किया कि एक तरफ तो ये कहते हैं कि ये मंत्र अलौकिक है, जो भी सुन ले तो उसका कल्याण हो जाएगा और एक तरफ कह रहे हैं किसी को बताना नहीं, ये दोनों ही बातें समझ में नहीं आयीं। सो सवेरे से जाकर के छत के ऊपर और जोर-जोर से मंत्र का पाठ करने लगा। अब गुरुजी को मालूम पड़ा तो वो बड़े दुःखी हुए, बोले हमने तुमसे कहा था कि ये किसी को मत बताना, ये तो चुपचाप करने का है। पर गुरुजी आपने यह भी तो कहा था कि ये मंत्र बहुत अलौकिक है और जो भी इसे सुनेगा उसका कल्याण हो जाएगा। तो मैंने सोचा कि सभी सुन लें जिससे सबका कल्याण हो जाये। गुरुजी ने पीठ थपथपाई की, अब तो जरूर तुम्हारे पास ये मंत्र तुम्हारा ही नहीं, सबका कल्याण करेगा। जो उसको सुनेगा। भैया मंत्र और कोई बड़ी चीज नहीं है। मंत्र तो सबके पास है। उसमें सामर्थ्य कौन डालता है? 
    हमारी अपनी सद्भावनाएँ, उसमें सामर्थ्य डालती हैं। मन, वाणी और शरीर से जो भी करें, वो सद्भावना से करें तो फिर देखियेगा कि हमारे जीवन में जो मिलेगा वो सब शुभ ही मिलेगा और दुर्भावना से अगर मन, वाणी और शरीर का हम उपयोग करेंगे तब फिर मानियेगा कि हमें भी आगे शरीर वैसा ही मिलेगा। इसी भावना के साथ कि हम अपने प्राप्त हुए मन, वाणी और शरीर इनका आगे सदुपयोग कर लें और अगर हमें कमजोर मिले हैं तो हम विचार करें कि हमने कुछ अच्छा नहीं किया होगा। नहीं किया हो कोई बात नहीं, अब तो शुरू कर सकते हैं। ऐसा विचार करके अपने जीवन को अच्छा बनाने के लिये पुरुषार्थ करें। 

    इसी भावना के साथ बोलिये आचार्य गुरुवर विद्यासागरजी मुनि महाराज की जय। 
    ००० 
  4. Vidyasagar.Guru

    कर्म कैसे करें
    हम सभी लोगों ने पिछले दिनों ये अनुभव किया है कि यदि हम बहुत गौर से देखें तो इस संसार में अच्छा और बुरा कुछ भी नहीं है। ये हमारी कल्पना है। हमारा राग-द्वेष है। जिन चीजों में हमारा राग होता है, वो चीजें हमें अच्छी जान पड़ती हैं, इष्ट मालूम पड़ती हैं और जिन चीजों में हमारा द्वेष होता है वे चीजें हमें अनिष्टकारी और बुरी जान पड़ती हैं। चीज तो चीज होती हैं न वो भली होती हैं न वो बुरी होती हैं। लेकिन क्या करें, हमारे संस्कार अनादि काल के ऐसे हैं कि हम चीज को चीज की तरह नहीं देखते, वस्तु और व्यक्ति को वस्तु और व्यक्ति की तरह नहीं देखते बल्कि हम अपने राग-द्वेष से प्रेरित होकर के वस्तु और व्यक्ति को भला और बुरा, अच्छा या बुरा इस तरह के भाव से ही देखते हैं। जिन्दगी ऐसी भी नहीं है कि जैसे शतरंज के खाँचे होते हैं एक सफेद है तो एक काला है। सब लोगों के जीवन में हमेशा सुख के बाद दुःख-दुःख के बाद सुख ऐसा कोई क्रम है, ऐसा भी नहीं है। 

    जिसे हम आज अपना मान रहे हैं वो कल हमारा शत्रु हो सकता है और जिसे हम आज अपना शत्रु मान रहे हैं वो कल हमारा मित्र हो सकता है। इतना परिवर्तनशील है ये संसार। और वो परिवर्तन हमारे अपने परिणामों का ही है। हमारे अपने राग-द्वेष का ही परिवर्तन है। जैसा हमारे मन में भाव होता है वैसा हम संसार में चीजों को और व्यक्तियों को देख लेते हैं। आचार्य भगवन्तों ने हमें बार-बार इस बात की सावधानी रखने की कही है कि ठीक है किसी को हम शत्रु मानते हैं आज, किसी को हम मित्र मानते हैं आज, ठीक है पर थोड़ा विचार करना कि कोई हमेशा शत्रु नहीं होता, कोई हमेशा मित्र नहीं होता। मैत्री भाव सबके ऊपर रखना यही सबसे श्रेष्ठ है। मैत्री जो है वो शत्रु और मित्र से ऊँची चीज है। जिससे हम प्राणी मात्र के प्रति अपने मन में करुणा का भाव रखते हैं। अभी तो हमारी करुणा भी जो है वो विभाजित हो जाती है अपने और पराये के भेद से। जो अपने हैं उनके प्रति हमारे मन में दया है, करुणा है और जिन्हें हम पराया समझते हैं उनके प्रति हमारे मन में दया और करुणा नहीं उमड़ती है। होनी हमारी दया और करुणा ऐसी चाहिये कि प्राणी मात्र पर हो। असल में, ये जो हमारी अपनी राग-द्वेष की प्रक्रिया है, वो ही हमारे लिये इष्ट-अनिष्ट की कल्पना कराती है। भले-बुरे की कल्पना कराती है। शत्रु और मित्र की कल्पना कराती है और फिर मजा ये है कि इससे भी आगे ले जाती है। जो मेरा मित्र है उसमें मुझे कोई दोष नहीं दिखाई पड़ता और जो मेरा शत्रु है उसमें मुझे कोई गुण दिखाई नहीं पड़ता। माँ को अपना बेटा कितना भी बुरा क्यों न हो, उसमें कोई दोष दिखाई नहीं पड़ता। कोई आकर के उसकी कितनी ही शिकायत करे, माँ यही कहेगी कि मेरा बेटा अच्छा है तुम बेकार परेशान मत होओ। उसका अपना मोह, उसका अपना राग, उसका अपना मोह और हमारा अपना जो राग है वो वस्तु और व्यक्ति को इसी तरह या तो गुणों से युक्त देखता है अथवा दोषों से युक्त देखता है। गुण और दोष किसमें कितने हैं? कोई भी ऐसा नहीं है जो सिर्फ गुणवान हो, कोई भी ऐसा नहीं है जो बिल्कुल दोषों से युक्त ही हो। आचार्य महाराज ने तो लिखा कि हरेक व्यक्ति के अन्दर और चाहे कुछ हो या ना हो, एक गुण अवश्य होता है। ठीक ऐसे ही जैसे गरीब आदमी की झोपड़ी हो, चाहे किसी का आलीशान मकान हो, आने-जाने का दरवाजा तो सबमें होता है। ठीक इसी तरह सबमें एक गुण होता है। हमारी देखने की दृष्टि हो तो हम उस गुण को इतना बड़ा करके देखें कि सिर्फ वही दिखे और दोष न दिखें। अगर हमारी दृष्टि कलुषित है तो वो गुण क्या और भी सैकड़ों गुण हों तो वो भी नहीं दिखाई देते। एक दोष हो तो इतना बड़ा करके देखते हैं कि जिसके भीतर सारे सौ गुण भी ढक जाते हैं। “परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य।” 

    दो सूत्रों में हमारे जीवन का स्टेटस डिसाइड कर दिया आचार्य भगवन्तों ने। हमारे कर्म हमें क्या ऊँचाई दे सकते हैं और कितना नीचा गिरा सकते हैं ये डिसाइड कर दिया है। और कोई नहीं गिराता हमें, ना कोई हमें ऊँचा उठाता है, हमारे अपने गुण और दोष देखने की जो प्रवृत्ति है वो हमें ऊँचा उठाती है और नीचा गिराती है। भैया, जो व्यक्ति दूसरे को बुरा कहे उससे यह बात तो तय हो जाती है कि स्वयं ये भला आदमी नहीं है और बाकी चीज तय हो, चाहे ना हो। दूसरे को बुरा कहे इससे यह तो पक्का हो गया कि भला आदमी नहीं है दूसरों को बुरा कहने वाला कभी भला हो नहीं सकता और जो दूसरे को भला कहे इससे यह तय हो गया कि स्वयं तो भला है, दूसरा भला होवे या ना होवे वो अपनी जाने। आचार्य भगवन्त इसी बात को सूत्र में कह रहे हैं कि 'परात्मनिन्दाप्रशंसे।' दूसरे की निन्दा करना और अपनी प्रशंसा करना। “सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने” इतना ही नहीं दूसरे के विद्यमान गुणों को ढकना और अपने अविद्यमान गुणों का ढिंढोरा पीटना। क्या दूसरे की निन्दा करना, अपनी प्रशंसा करना और दूसरे के विद्यमान गुणों को भी ढक लेना, प्रकट नहीं होने देना और अपने अविद्यमान जो अपने भीतर हैं ही नहीं गुण, उनका ढिंढोरा पीटना। ये सब बातें, ये सारे कर्म हमें कहाँ ले जाते हैं, नीच गोत्र की तरफ ले जाते हैं, और नीच गोत्र का बंध मिथ्यात्व के साथ होता है। 
    सबसे पहले दृष्टि की निर्मलता नष्ट होगी, उसके बाद में हमें साथ में नीच गोत्र का बंध होगा। ये जितने पशु हैं एक इन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक जो पशु हैं ही और जो संज्ञी पंचेन्द्रिय हैं उनमें भी नीच गोत्र का ही उदय चलता है, ध्यान रखना। मनुष्य में नीच गोत्र, उच्च गोत्र दोनों हो सकते हैं। क्या कहलाता है ये नीच गोत्र उच्च गोत्र। जिस कुल में जिस जाति में उत्पन्न होने पर धर्म की परम्परा जहाँ चलती हो, अभक्ष्य-भक्षण न होता हो, मद्य, मधु, मांस का सेवन न होता हो, जो लोक में निन्दनीय ना हो ऐसे कुल को उच्च कुल कहते हैं। शेष सब नीच कुल हैं। जहाँ धर्म की परम्परा नहीं है, जहाँ सदाचरण नहीं है जहाँ लोकनिन्द कार्य किये जाते हैं, ऐसे परिवार में उत्पन्न होना ये अपने नीच गोत्र का उदय है और ये नीच गोत्र बँधता कैसे है ? ये लिख दिया एक सूत्र में, चार बातें लिख दीं। “परात्मनिन्दाप्रशंसे'। दूसरे की निन्दा करते रहना और अपनी प्रशंसा करते रहना, अपना बड़प्पन हमेशा बताते रहना। दूसरे की निन्दा, मतलब दूसरे के दोषों को प्रकट करना। होने पर और नहीं होने पर दोनों कह रहे हैं। दूसरे के दोष होने पर भी और नहीं होने पर प्रकट करना यह भी नीच गोत्र का बंध है और जो दोष नहीं है वो भी प्रकट करना सो तो है ही। जो दोष उसके भीतर हैं उनको भी प्रकट नहीं करना तब जाकर काम बनेगा, उच्च गोत्र का। 

    हमने वर्तमान में अगर उच्च गोत्र पाया है, ऊँचाई हासिल की है, अच्छा स्टेटस है, समाज में जो मान्य कुल प्राप्त हुआ है हमें, लोक निन्दनीय कुल प्राप्त नहीं हुआ है हमें, उसके लिये हमने क्या पुरुषार्थ किया होगा पूर्व जीवन में इस पर विचार करना और जिन्होंने यह चीज प्राप्त नहीं की है उन्होंने क्या किया होगा दूसरे के विद्यमान और अविद्यमान किसी भी तरह के दोषों को प्रकट नहीं करना। बताइये ऐसा हो पाता है अपन से। अपन तो दूसरे के दोषों को ही देखने की प्रवृत्ति अपने भीतर निर्मित कर चुके हैं। ऐसी आदत पड़ गई है कि किसी पर भी दृष्टि जाती है तो सबसे पहले उसमें जो खोट है, उसमें जो कमियाँ हैं वो दिखाई पड़ती हैं, उसमें क्या भलाई है, क्या अच्छाई है, दिखाई नहीं पड़ता। बताओ तो ऐसी दृष्टि लेकर के हम अपने जीवन को कहाँ ले जाने की तैयारी कर रहे हैं ? ये स्वयं विचार करना पड़ेगा और फिर इस आदत को बदलना पड़ेगा। हम लोग तो इस आदत को बदलने की जगह पर तर्क और देते हैं।

    एक व्यक्ति चला जा रहा था रास्ते से। सामने जो है दूसरा और थोड़े आगे जा रहा था। एक केले का छिलका पड़ा था। उस पर वो पैर पड़ा उसका फिसल गया। गिर गया। गिर गया तो हँसना शुरू कर दिया जो पीछे था उसने, सामान्य सी बात है। कोई अगर फिसल कर गिर जाए तो दूसरे को मौका मिलता है हँसने का, लेकिन वो ये भूल गया कि एक छिलका और पड़ा है वहीं पर सो इनका भी उस पर पैर पड़ा और ये भी गिरे। अब गिरे तो सब लोग हँस पड़े। तो मालूम है उन्होंने क्या तर्क दिया, कि अच्छा किया भगवान् जो मैंने पहले दूसरे के गिरने पे हँस लिया। अब तो मैं हँस ही नहीं सकता, अब तो लोग हँसेंगे मेरे ऊपर। अच्छा हुआ मैंने पहले हँस लिया। बताइये आप। दूसरे पे हँसने को भी हम अच्छा मानते हैं कि हमने अच्छा किया जो पहले हँस लिये फिर तो हमें गिरना ही है और फिर तो लोग हँसेगें, हम थोड़े ही हँस पाएँगे। ये लोजिक दिया। 

    दूसरा हमारी बुराई करे इससे पहले हम उसकी कर लें। सीधी-सीधी बात। इसकी बुराई करके मजा ले लें और फिर बाद में अपनी बुराई करवाने के लिये तैयार रहें। ये इस तरह से हमने संसार में आदत डाल ली है। सोचें, हम यदि दूसरे को बेईमान कहे और दूसरा हमें बेईमान कहे तो बताइये आप, ईमानदार तो फिर कोई भी नहीं रह जाएगा। लेकिन इतनी छोटी सी बात अपन के समझ में नहीं आती है और इतना ही नहीं एक बार जब दोष देखने की आदत पड़ जाती है तो संस्कार फिर इतना गहरा हो जाता है कि अपने दोष फिर दिखाई नहीं पड़ते। ये ध्यान रखना। एक सबसे बड़ी हानि है दूसरे के दोष देखने में, सबसे बड़ी हानि कि कभी भी अपने दोष देखने का अवसर ही नहीं मिलता। दूसरे के दोष देखने की आदत इतनी पड़ गई कि वक्त ही नहीं मिलता अपने दोष देखने का। और इतना ही नहीं अपने को दोषी होने के बाद भी अच्छा मानने का मजा भी हम ले लेते हैं। देखा वो ऐसे हैं, वो कैसे हैं, हम कैसे हैं, हम तो ठीक हैं, ठीक नहीं होने के बाद भी अपने ठीक होने का भ्रम पैदा हो जाता है। दूसरा दोषी नहीं है, फिर भी हम उसको दोषी ठहराना शुरू कर देते हैं। इससे हमारे भीतर अपने दोष देखने की प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है और अपने दोषी होने के बाद भी हम अपने को ठीक मान लेते हैं और चौथी चीज कि हम कभी अपने दोष अपने में से निकाल नहीं पाते हैं। दूसरे के गुणों को भी हम अपने भीतर ग्रहण नहीं कर पाते। रिसेप्टीविटी हमारी खत्म हो जाती है। इतना लॉस होता है। दूसरे के दोष देखने की आदत अपने भीतर निर्मित करने से और है ये प्रकृति 99 प्रतिशत हम सबके जीवन में। एक प्रतिशत होगा थोडा हमारा जीवन ऐसा जिसमें कि हम दसरे के दोष न देखते होंगे. बाकी 99 प्रतिशत हमारे सबके जीवन में दूसरे के दोष देखने की प्रवृत्ति है। जहाँ कुछ अच्छा भी है वहाँ भी हम दोष देखना शुरू कर देते हैं और जहाँ दोष युक्त हैं वहाँ तो हैं ही। और आत्म-प्रशंसा, अपने अन्दर कोई गुण नहीं भी है तब भी अपने को गुणवान मान लेने का भ्रम या कि दूसरे से अपने को गुणवान कहलाने का एक प्रयत्न। निरन्तर चलता रहता है, और फिर इतना ही नहीं, वही गलती फिर हम करें जो दूसरा कर रहा है तो वो अपन को नहीं दिखाई पड़ती। 

    यहाँ की एक घटना है अचानक एक दिन मुझे एक कटिंग मिल गई, मैंने उसमें पढ़ ली। जयपुर में कोई नन्दनभट्ट हुए हैं, यहाँ पर बहुत पहले। उनके जीवन की है। किसी राजा के दरबार में कवि रहे हैं और इतने प्यारे व्यक्ति थे, राजा अगर किसी से नाराज हो जावे तो राजा को समझा-बुझा करके और उस व्यक्ति के प्रति जिसके प्रति नाराजगी है क्षमा दिलवा देते थे। किसी ने गलती की हो, उससे राजा नाराज हो तो भी, राजा के अंतरंग मित्र थे ये बहुत अभिन्न, तो राजा को समझा-बुझाकर कि अरे छोड़ो, क्या करना राजा साहब, आप तो इतने महान हो। वो गलती करता है तो करने देवो, आप तो माफ करो, माफ करवा देते। बड़ा उनका राजा के प्रति सद्भाव था, राजा भी उनको बहुत मानते थे |

    एक बार क्या हुआ कि राजा के जन्मदिन पर सभी जितने सामन्त थे वे राजा के लिये मंदिर में प्रार्थना करते थे, उनके दीर्घायु के लिये। तो एक सामन्त ने ईर्ष्यावश, ये ईर्ष्या नाम की चीज जो ना कराये सो कम है, हाँ यह सबके भीतर है। उसमें लिखा है आत्मानुशासन में। ईर्ष्या एक साधु की आखरी कमजोरी है। श्रावक तो छोड़ो, गृहस्थ तो छोड़ो, आत्मानुशासन में गुणभद्र आचार्य लिख रहे हैं एक साधु की भी अंतिम कमजोरी अगर है, सज्जन पुरुष की भी, मुनिजनों की भी कह रहे हैं साधुओं की अंतिम कमजोरी है तो ईर्ष्या। बर्नाड शाह से जब पूछा गया था कि सैकण्ड वर्ल्ड वार का क्या कारण था ? तो उसने कहा कि दो कारण थे ज्वेलसी एण्ड ज्वेलसी। तो उन्होंने कहा कि तीसरे वाला अगर होगा तो? उन्होंने कहा तीन कारण, ज्वेलसी, दी ज्वेलसी एण्ड ज्वेलसी। तीन कारण। एक ही कारण है संसार बढ़ाने का, ईर्ष्या। गुणों को सहन नहीं कर पाना, तो दोष देखना शुरू हो जाता है, गुणों को सहन नहीं कर पाये तो और एक सामन्त दूसरे के गुणों को सहन नहीं कर पाया और उसने जाकर के राजा से शिकायत करी, जैसे अपन करते हैं। 

    वो तो कहानी है जीवन में भी अपन देखते हैं तो क्या शिकायत करी, ये जो सामन्त है वो आपकी दीर्घायु की कामना नहीं करता, मंदिर में बैठकर के भगवान के सामने इसकी एकाग्रता ही नहीं रहती। यहाँ-वहाँ देखता रहता है। अच्छे मन से वो आपके लिये प्रार्थना ही नहीं करता। ऐसी शिकायत कर दी। बस राजा तो राजा होते हैं। आ गई उनके सनक। ठीक है राज दरबार में और राजमहल में आना इसका बन्द। बाहर कर दो इसको। ऐसा आदेश जारी करने की मंत्रियों को आज्ञा दे दी। नन्दनभट्ट को मालूम पड़ा तो फौरन राजा के पास आये। क्या बात हो गई ? अरे वो-वो जो सामन्त है, मेरे लिये ठीक-ठीक प्रार्थना ही नहीं करता दीर्घायु की। यहाँ-वहाँ उसका ध्यान रहता है। “किसने कहा ये किसी दूसरे सामन्त ने आकर कहा। तब तो आपको इस पर फिर से विचार करना चाहिये। इसमें फिर से विचार करने की क्या बात है ? बोले, “फिर भी आप विचार कर लीजिएगा एक बार उस व्यक्ति को दण्डित करने से पहले।" अगर वो वाला सामन्त दीर्घायु की कामना करते समय एकाग्र नहीं है, यहाँ-वहाँ देख रहा है तो जिसने शिकायत की है वो क्या कर रहा था? है ना, इसका मतलब उसको देखने में लगा हुआ था। दूसरे के दोष देखने वाला किस तरह दोषी था, ये समझने की चीज है। उदाहरण से। देख लो आप, वो तो अपना कोन्सन्ट्रेशन नहीं रख पा रहा है प्रार्थना के समय, लेकिन आप अपना कोन्सन्ट्रेशन अगर आपका है तो आपको ये दिखाई कैसे पड़ा कि उसका कोन्सन्ट्रेशन नहीं है। आपको अपनी एकाग्रता से प्रार्थना करनी थी। आपको दिख कैसे गया कि ये प्रार्थना के समय एकाग्र नहीं है। हम सबसे पहले स्वयं दोषी होते हैं जब दूसरे के दोष देखना शुरू करते हैं। वे ही दोष हमारे भीतर भी है, जो हम दूसरे के भीतर देखते हैं। बहुत सावधानी की आवश्यकता है कि हम दूसरों के दोष देखने से पहले और अपने गुणों की प्रशंसा करने से पहले विचार तो कर लेवें। और इतना ही नहीं, जब ये आदत निर्मित हो जाती है तो फिर दूसरी आदत उसके साथ में ही निर्मित होती है। 

    इसलिये आचार्य भगवन्तों ने वो भी लिख दिया कि दूसरे में विद्यमान गुण भी दिखना बन्द हो जाते हैं फिर उनको हम ढकना शुरू कर देते हैं। जब दूसरे के दोष देखना शुरू करते हैं तो उसके गुणों को हम ढकते चले जाते हैं और इतना ही नहीं अपने भीतर के जो अविद्यमान गुण हैं उनको भी हम कहना शुरू करते हैं, उनका भी ढिंढोरा पीटना शुरू करते हैं। क्योंकि हमारे मन में फिर ये भावना आ जाती है कि मेरी प्रशंसा होनी चाहिये। जहाँ आत्म-प्रशंसा का भाव है वहाँ गुणवत्ता नहीं होगी। वहाँ तो झूठी गुणों को भी प्रकट करने की भावना ही जागृत होगी। और ऐसा व्यक्ति कभी गुणवान नहीं हो पाता। ये सबसे बड़ी क्षति होती है। यदि हम इससे विपरीत करना शुरू कर देवें तो हमारे जीवन में ऊँचाई आना शुरू होगी। हमारा स्टेटस ऊँचा होगा। हम जब ये सोचते हैं कि बहुत बड़ा मकान हमारे पास है, बहुत कारें हमारे पास में हैं, बहुत पैसा हमारे पास में है, अच्छा स्टेटस है, यह स्टेटस सिम्बल नहीं है। स्टेटस सिम्बल ये है कि कौन व्यक्ति अपनी निन्दा और दूसरे की प्रशंसा करता है। दूसरे की निन्दा करने वाले का स्टेटस बहुत क्षुद्र व्यक्ति का है, जो दूसरे की निन्दा करता है और बहुत महान है वह जो दूसरे के अवगुणी होने पर भी प्रशंसा ही करता है। बहुत महान् व्यक्ति ही हो सकता है जो अवगुणी में से भी कोई गुण देख ले। जैसे श्रीकृष्ण रास्ते से चले जाते थे और एक कुत्ता मरा हुआ पड़ा था दो-तीन दिन का। बदबू आ रही थी लेकिन वे खड़े होकर के चुपचाप देख रहे थे। बलराम ने कहा कि चलो अरे इतनी बदबू आ रही है। कहने लगे, “वो तो छोड़ो, दाँत तो देखो कितने बढिया हैं। अब बताओ आपमें व हमारे जीवन में भी ये चीजें आ सकती हैं। हम सोचते हैं कि बाह्य व्यक्तित्व ऊँचा होने से ही हमारा स्टेटस बढ़ जाएगा। नहीं, अंतरंग में इतनी ऊँचाई होनी चाहिये कि अवगुणी के भीतर भी कोई एक-आध गुण देख सकें हम और उसकी प्रशंसा कर सकें और अपने भीतर सैकड़ों गुण होने के बाद भी अपने एक-आध दोष देखकर अपनी निन्दा कर सकें। 

    ऐ भैया, हम कुछ विशेष नहीं हैं हमारे में तो बहुत से अवगुण हैं। ऐसा कहने का साहस बहुत कठिन है। अपने एकाध अवगुण को भी नहीं छिपाना और दूसरे के सारे अवगुणों को छिपाकर के एकाध भी गुण हो तो उसकी प्रशंसा करना, ये है ऊँचे होने की विद्या। अगर हम आज अपने को बहुत ऊँचा और बहुत अच्छे कुल का मानते हैं तो हमने पहले ऐसा ही कुछ करा होगा। इतने बढ़िया विचार हमारे रहे होंगे और आज भी अगर ऐसे अच्छे विचार हमारे हैं तो ठीक है निश्चिन्त रहें हमारा भविष्य बहुत ऊँचा है, अन्यथा यदि हमारे विचार घटिया हो गये हैं कि हम दूसरे की निन्दा में रुचि लेते हैं और अपनी प्रशंसा सुनने और दूसरे की निन्दा सुनने को तत्पर रहते हैं, हमेशा ये आँखें दूसरे के दोष देखने और अपने गुण देखने में लगी रहती हैं। तो समझना कि ये आँख और कान दोनों हमारा ज्यादा फायदा नहीं कर रहे हैं। मैंने पर्वत की चोटी से नीचे खड़े होकर के कहा कि जब तक मैं इस पर्वत की चोटी पर नहीं पहँचा तब तक ही ये पर्वत ऊँचा है, तो पर्वत बोला कि अरे मैं तो किसी के सिर पर पैर रखकर ऊँचा नहीं हआ तो फिर मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ और मेरा माथा पर्वत के चरणों में झुक गया। तो मेरे झुके हुए माथे को देखकर पर्वत ने कहा कि ये तो मेरे शिखर से भी ज्यादा ऊँचा हो गया। क्योंकि मुझे तो झुकना आता ही नहीं है। जी हाँ, झुकने से हम सोचते हैं कि नीचे गिर जाएँगे। जो झुकता है वो ही ऊँचा उठता है। "नीचैर्वृत्ति" उच्च गोत्र के लिये कारण बनाया आचार्यों ने। 

    सूत्र में लिखा हैं नीचैर्वृत्ति अर्थात् जो हमेशा विनम्र वृत्ति रखता है, हमेशा झुकने की प्रवृत्ति रखता है, एडजस्ट करके चलता है। कम्प्रोमाइज करता है, निराग्र ही जिसका दृष्टिकोण है, वो व्यक्ति हमेशा जीवन में, वर्तमान में भी और भविष्य में भी ऊँचाई को ही छूता है। आप निन्दा करो या प्रशंसा करो तो दोनों स्थितियों में सामान्य। आप गुणों की प्रशंसा करो तो भी कोई अहंकार नहीं, अवगुणों की निन्दा करो तो भी कोई मलिनता नहीं। सहज रूप से जो निरहंकार होकर अपना जीवन जीता है ऐसा अपन ने करा होगा पहले ऐसा नहीं सोचना कि हमने नहीं किया होगा। 

    हम अगर इतने ऊँचे कुल में पैदा हुए हैं, जहाँ धर्म की परम्परा है, जहाँ व्यसन नहीं होते हैं। जहाँ मद्य, मांस, मधु नहीं खाया जाता, वहीं तो ऊँचा कुल हमें मिला है। जिनेन्द्र भगवान् की शरण मिली है। सच्चे देव, शास्त्र, गुरु मिले, इससे ज्यादा ऊँचाई और क्या हो सकती है। और वह हमने पहले कुछ अच्छा किया होगा। ऐसी ही अच्छी झुकने की प्रवृत्ति रही होगी। दूसरे के गुणों की प्रशंसा करने की प्रवृत्ति रही होगी। अपने अवगुणों की निन्दा करने की प्रवृत्ति रही होगी। अहंकार कमती होगा हमारा जब तो यहाँ आये हैं, अब आगे की तैयारी कैसी करनी है, ये हमें विचार करना है। अच्छे बढ़िया अटेची जमाकर के, अच्छा बढ़िया सामान लेकर के अपन यहाँ आये हैं, अब आगे की यात्रा की अटेची कैसी जमानी है, कौन-कौन चीजें रखनी हैं सो अपन देख लें। तैयारी तो रखनी पड़ेगी क्योंकि किसी भी समय अपना यहाँ से जाने का समय आ जाएगा, सबका आता है। एक दिन किसी का आता है दूसरे दिन किसी और का, आना-जाना तो पड़ता है। भविष्य के लिये, इसलिये क्यों ना हम तैयारी कर लें उच्च गोत्र ही हमें प्राप्त हो, कम से कम ऐसा कुल तो हमें प्राप्त हो कि अनायास ही हमें धर्म करने का अवसर प्राप्त हो सके। ऐसा भी कोई है जहाँ कि धर्म का कोई संस्कार नहीं फिर भी, कोई जीवात्मा ऐसा आ जाता है कि अपने जीवन में धर्म कर लेता है तो आचार्य भगवन्तों ने लिखा कि अपने संस्कारों को अच्छा करके, अपने आचरण को अच्छा करके वो और वे भी ऊँचाई छू सकता है। मलेच्छ खण्ड से आने वाले चक्रवर्ती के सान्निध्य में और अपने जीवन को मुनि बनाकर मोक्ष तक की ऊँचाई को छू लें जितना अपने आपको बना सकते हैं। इसलिये हमें विचार करना चाहिये कि जिसको कुछ नहीं मिला वो ऊँचाई छू रहा है और हम पहले से ऊँचाई पर बैठे हुए हैं तब तो हमें थोड़ा सा पुरुषार्थ और करके और अपने जीवन के लिये वो वास्तविक ऊँचाई है, प्राप्त कर सकें। और भी कुछ कारण लिखे हैं उन पर भी एक नजर डाल लें अपन, ताकि याद रह जाये। वैसे तो समझ में आ रहा है कि दूसरे की निन्दा नहीं करनी चाहिये। लेकिन और भी चीजें हैं उसके आस-पास। वो कह रहे हैं कि अपनी जाति का, अपने कुल का, अपने रूप का, इन सब का अपन को अभिमान नहीं करना चाहिये। अगर अभिमान करेंगे तो जरूर दूसरे का तिरस्कार करने का भाव आयेगा। हाँ दूसरे की निन्दा का भाव आ ही जाएगा जहाँ अपन को अभिमान आता है, वहाँ फिर अपन सब भूल जाते हैं और दूसरे की निन्दा और दूसरे का तिरस्कार कर बैठते हैं अपने अहंकारवश। इसलिये कभी भी अपने रूप, अपने बल, अपनी जाति, अपने कुल, इन सबका अहंकार नहीं करना। दूसरे का तिरस्कार नहीं करना, दूसरे की कभी हँसी नहीं उड़ाना। कम से कम, लिखा है कि दीन, दरिद्री और धर्मात्मा की हँसी नहीं उड़ाना। धर्मात्मा की हँसी नहीं उड़ाना, ये तो ठीक है लेकिन दीन, दरिद्र की भी हँसी नहीं उड़ाना, क्योंकि वो अपने कर्मों का फल भोग रहा है और हम उसकी हँसी उड़ायें तो हमें भी अपनी इस हँसी उड़ाने के कर्म का फल ठीक वैसा ही भोगना पड़ेगा जैसा उस दीन दरिद्री को आज किसी की हँसी उड़ाने से दरिद्रता और तिरस्कार मिला हुआ है। 

    कह रहे हैं कि दूसरे के यश का लोप नहीं करना। दूसरे का यश फैल रहा हो तो उसमें बाधा नहीं डालना। करते हैं अपन ऐसा। दूसरे का यश न फैल पावे इसलिये नाना प्रकार से उपाय रचते हैं। रोज तो देखते हैं अपन। कोई नई चीज थोड़ी ही है कहने और सुनने की बात नहीं है। अनुभव की बात है। रोज देखते हैं, इसी चीज को एक-दूसरे के यश को सहन नहीं कर पाने की वजह से अर्थात् गुण नहीं होते हुए भी हमारी कीर्ति फैले, हमारा यश फैले, ऐसी भावना रखना। और आखरी में कह रहे हैं जो गुरुजन हैं, तपस्वी हैं, उनकी अवज्ञा करना। महान व्यक्ति की अवज्ञा से नीचे ही जाना पड़ेगा। और क्या होगा? और अगर हम महान व्यक्ति की महानता का गुणगान करेंगे तो हम तो स्वयं ही महान हो जाएंगे। इतना छोटा सा गणित अपन के समझ में नहीं आता है। आपको याद है जब 22 वर्ष तक अन्जना से पवनंजय बोले नहीं थे, तिरस्कार कर दिया था, कभी पढ़ लेना। हनुमान जी की माँ थीं अन्जना। पवनंजय उनके पिता और उसके बाद एक दिन जब युद्ध में जा रहे थे पवनंजय, तब उनकी मंगल की कामना करने के लिये अन्जना दरवाजे पर खड़ी हो गईं थीं। बताइये आप, क्या रहा होगा ? यही कहलाते हैं महापुरुष, अपने तिरस्कार करने वाले के लिये भी मंगल की कामना करना, मंगलदीप लेकर के खड़ी, और उनको देखकर के और क्या कहा था। “हट दुर्भणी, जिसको देखना भी ठीक नहीं है, हट जाओ तुम यहाँ सामने से" तब अन्जना बेहोश होकर गिर गई थी और फिर जागृत होकर के क्या कहा था कि कोई दोष नहीं है उनका, दोष तो मेरे ही कर्मों का है। कम से कम जाते समय मेरे से बोल तो गये। भले ही अपशब्द कहे होंगे, लेकिन कुछ कहा तो। मेरी तरफ ध्यान तो दिया। क्या ऐसा अपने मन में आता है। 

    मैं जब इस घटना को पढ़ता हूँ तो लगता है कि हम तो अपने को इतना बड़ा मानते हैं, हमारे अन्दर तो ऐसे भाव ही नहीं आते। हमारे प्रति तिरस्कार करने के बावजूद भी हमारे मन में सद्भाव बना रहे। कोई हमें तमाचा मारे और हम उसका हाथ पकड़कर के बताएँ, कि कहीं चोट तो नहीं लग गई। ऐसा हुआ अपने जीवन में कभी, किसी ने हमें कष्ट पहुँचाया और फिर भी हम उसके सुख और उसके हित की कामना करें। ये ऊँचाई है भैया, ऊँचे उठने के लिये, अपने जीवन को महान बनाने के लिये। दूसरे के दोष देखने की आवश्यकता नहीं है। अपने दोष देख के उनको निकाल करके अपने को गुणवान बनाने की प्रक्रिया करें। ऐसा कर्म करें जिससे कि हम स्वयं अपने भीतर गुणों को प्राप्त कर सकें। दूसरे के अवगुण देखने से कुछ हमारे गुण बढ़ नहीं जाएँगे। दूसरे के गुण देखने से तो कदाचित् हमारे गुण बढ़ सकते हैं और अपने गुणों को हम बढ़ाने के लिये प्रयत्न करें। दूसरे के भीतर जो है उसकी जिम्मेदारी उसकी है। मेरे अपने जीवन को अच्छा और बुरा बनाने की जिम्मेदारी जब मेरी है तो क्यों नहीं मैं अपने जीवन को अच्छा बनाऊँ। ऐसा विचार करके निरन्तर अपने जीवन को अच्छा बनाने का प्रयास करते रहना चाहिये। 

    इसी भावना के साथ बोलिये आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज की जय। 
    ००० 
  5. Vidyasagar.Guru

    कर्म कैसे करें
    हम सभी लोग यहाँ निरन्तर सुबह से शाम और शायद पूरे जीवन कोई ना कोई कर्म करते रहते हैं। और उन कर्मों का फल भी हमारे जीवन में हमको भोगना पड़ता है। उन कर्मों का फल भोगते समय जैसी हमारी विचारधारा होती है, वैसा नये कर्म का संचय भी हमारे साथ हो जाता है। अगर गौर से हम देखें तो कर्म उतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि उस कर्म के पीछे जो विचारधारा है या कि हमारी जो भाव दशा है वो महत्वपूर्ण है। सुबह से जो लोग घूमने जाते हैं, रास्ता वही होता है जिस रास्ते से दोपहर में अपने ऑफिस अपनी दुकान या फिर किसी और सांसारिक कार्य से जाते हैं। एक ही रास्ते पर चलने की, आने-जाने की प्रक्रिया वही है लेकिन सुबह जिस आनन्द के साथ हम उस रास्ते से निकलते हैं. दोपहर हम एक नई जिम्मेदारी का बोझ सिर पे लिये उसी रास्ते से निकलते हैं। इतना फर्क है। एक कर्म हम अत्यन्त सहज होकर करते हैं जैसे घूमने जाना, कोई टेंशन नहीं है मन में.बडी प्रसन्नता है। दोपहर काम से जा रहे हैं काम की जिम्मेदारी, काम का बोझ सिर पर है। तो हम इस निर्णय पर पहुँचते हैं कि हम जो भी कर्म करें उसमें हमारी भाव दशा जरूर हम ध्यान में रखें।
     
    कर्म तो सभी कर रहे हैं सुबह से शाम तक एक गृहस्थ को भी करना पड़ता है, एक साधु को भी करना है। दोनों के कर्म कुछ हद तक एक जैसे दिखाई पड़ सकते हैं। आना-जाना, खाना-पीना, बोलना, उठना-बैठना, सोना यही कर्म हम दिन भर में करते हैं। श्रावक भी करता है और साधु भी करता है। एक में सहजता है और वीतरागता है। तो बंधन अल्प है और कर्मों का संचय भी अल्प है। बल्कि जो संचित कर्म हैं वो धीरे-धीरे डिसोसिएट भी हो रहे हैं, आत्मा से हट भी रहे हैं और दूसरी प्रक्रिया है जिसमें बहत इनवाल्व होकर के, बहत राग-द्वेष से युक्त होकर के, बहत तनावग्रस्त होकर के, बहुत चिन्तित होकर के, मन को मलिन करके हम कर्म कर रहे हैं। आगे के लिये हमारा संचय भी इतना ही अधिक हो रहा है और इतना ही नहीं जो कर्म पहले बाँधे थे वो हटे तो बिल्कुल नहीं। बल्कि वे हमारे साथ और अधिक प्रगाढ़ रूप से, और अधिक डोमिनेट होकर के हमारे साथ वाइन्ड हो गये। कितनी सीधी सी चीज है अगर हम समझना चाहें तो। हम इतना ध्यान अपने कर्मों पे ना दें जो शरीर से किये जाने वाले हैं, उससे ज्यादा हम ध्यान दें जो हम निरन्तर अपने मन में विचार करते हैं और उन विचारों से प्रेरित होकर हम वाणी बोलते हैं और उन विचारों से प्रेरित होकर हम शरीर से क्रिया करते हैं। वाणी और शरीर से होने वाली क्रियाएँ हमारे अपने मन से रेग्युलेट होती हैं तो हम क्यों ना अपने मन को ठीक-ठीक सँभालें। मन ही बंधन का कारण है, मन ही मुक्ति का कारण है। आचार्य भगवन्तों ने बहुत संक्षेप में बंध और मोक्ष की प्रक्रिया लिख दी। “रत्तो बन्ध कम्मम-जीवो विराग सम्पन्नोः ऐसो जिनोपदेसी, तम्मो कम्मो।” एक गाथा में आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी के चरणों में बैठे तो वे कहते हैं। हम स्वयं अपने राग-द्वेष से बंधक हैं। कोई हमें यहाँ बंधन में डाल रहा है ऐसा नहीं है। लगता तो यही है कि जैसे किसी ने हमें इस संसार में, इस संसार के बन्धनों में डाल दिया हो। मजबूर कर दिया है। अगर ऐसा कुछ होता तो हम तो जाकर के, उस व्यक्ति के पास में जाकर के दया की भीख माँग लेते कि भैया बहत दिन हो गये। अब तो छोड़ो। लेकिन ऐसा नहीं है, हम छूटना चाहें तो क्षण भर में छूट सकते हैं। लेकिन क्या करें, हमारी आदत जगह-जगह बँधने की हो गई है। कोई हमें बाँधता नहीं है। हम अपने शरीर से बँधे हुए हैं। हम अपने विचारों से बंधे हुए है। अपनी भावनाओं से बँधे हए है हम अपने परिवार, अपने प्रान्त, अपनी भाषा, अपनी जाति, अपने देश, पता नहीं किन-किन चीजों से हम बँधे हुए हैं। हम लोग हमेशा कहते हैं कि कमिट करो, किसी भी चीज के लिये तय करो। हम इसी तरह से अपना बंधन स्वयं अपने हाथ से बाँधते हैं। कमिट करना क्या चीज है? बंधक होना है। एक बँधन है लेकिन ये बँधन बड़ा सुखद मालूम पड़ता है। तय कर लेना सुखद मालूम पड़ता है। महाराज आप तो कह दो क्या करोगे? शाम को क्या करोगे? कल क्या करोगे? आप तो चार महीने तक का हिसाब बता दो आगे तक का, हम लोगों को इस तरह के बंधन में रुचि है। हम प्रतिक्षण उन्मुक्त होकर के सहज भाव से जीना पसन्द नहीं करते। हम आगे तक का हिसाब बनाकर के उसके बाद वर्तमान में जीने की कोशिश करते हैं। और सारा झगड़ा संसार का इतना ही है। जो वीतरागी हैं वे इस तरह के किसी भी बंधन में पड़ना स्वीकार नहीं करते हैं। इसलिये वे सबके बीच रहकर के भी उससे मुक्त हो जाते हैं। 
     
    इसी संसार में रहकर के कोई मुक्त भी हो सकता है। अरहंत भगवान शरीर में रहकर के भी शरीर से मुक्त हैं। जन्म-मरण से मुक्त हो गये और इसी संसार के बीच हैं। हमने उनको एक समवसरण के बीच बिठा रखा है। लेकिन वे समवसरण के बीच गंध कुटी में भी सिंहासन और कमल से भी चार अंगुल ऊपर सबसे अलग दिखाई पड़ते हैं। वे इस बात का मैसेज देते हैं कि हमेशा इन चीजों से, इनके बीच रह कर भी अलिप्त होने की कोई विद्या सीख लो। चीजें सब ज्यों कि त्यों है, लेकिन हमारी अल्पिता उनके साथ बनी रहे तो फिर चीजें हमें बंधन में नहीं डालती हैं। हम स्वयं बंधन स्वीकार कर लेते हैं। आचार्य महाराज से जब भी कोई पूछता है, वो बड़े मजे से जवाब देते हैं। किसी ने कहा कि महाराज हम बड़े परेशान हैं हमारी आदत से। क्यों क्या हुआ ? महाराज ! सिगरेट की आदत हमारी पड़ गई है वो छूटती ही नहीं है। क्या करें महाराज, कुछ उपाय बताओ। तो आचार्यश्री ने क्या जवाब दिया अरे तो ज्यादा कुछ नहीं करना है। आप ऐसा कर लिया करें, दोनों उँगलियों को ऐसे जोड़ा मत करें। दोनों उँगलियों को ऐसे खाली छोड़ दिया करें। मतलब क्या है ? सिर्फ इशारा है इस बात का। हमारी मुट्ठी कैसे खुले, हमारे बंधन से हम मुक्त कैसे हों, ये पूछने पर मुट्ठी ही बाँधते क्यों हैं वो तो खुली हुई है। मुक्ति हमारा स्वभाव है, बंधन हमारा स्वभाव नहीं है। जिस दिन हम बंधन छोड़ देवें अपने हाथ से, तो मुक्त तो हम हैं ही। मुक्ति का कोई अतिरिक्त उपाय करने की आवश्यकता नहीं है। वो जो बंधन का हम अतिरिक्त उपाय करते हैं, उस बंधन के उपाय को हम अगर छोड़ देवें तो कोई हमें यहाँ पर बंधन में डाल नहीं सकता। बंधन का कारण एक ही है राग और द्वेष। इसलिये कर्मों में रचो, पचो मत। कर्म तो करो लेकिन कर्म में रचो-पचो मत। उसके फल में भी आसक्त मत होवो। बताइये कितनी आसानी से हमें ऐसे कर्म करने हैं जिससे कि बँधे हुए कर्मों को काटा जा सके, उसकी सलाह दे रहे हैं। सब तो यह कहेंगे कि कर्म मत करो। कर्म किये बिना कर्म के बंधन से मुक्त कैसे होवोगे। एक कर्म वो है जिसके करने से हम और अधिक बंधन में पड़ जाते हैं। एक कर्म वो है जिसके करने से हम अभी तक के सारे कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। कर्म तो दोनों हैं। सामान्य रूप से जो हम सुनते हैं कि कर्म तो हमें ऐसा लगता है जो हमारे साथ बँधे हुए हैं जो हमें बाँध लेते हैं वो कर्म। वर्तमान में जो हम कर्म करते हैं, पूजा करते हैं, पूजा भी एक कर्म है, स्वाध्याय करते हैं, वह भी एक कर्म है, मुनिजनों की सेवा करते हैं, उनके प्रति श्रद्धा और भक्ति रखते हैं, ये भी एक कर्म है। ये सारे आध्यात्मिक कर्म हैं और हम इन आध्यात्मिक कर्मों को करके अपने सांसारिक बंधन से मुक्त हो सकते हैं। 

    इतना सीधा सा उपाय है लेकिन क्या करें हमारे अपने जो हमने पहले कर्म किये हैं उनका दबाव हमारे ऊपर इतना है कि वर्तमान के हमारे कर्म जो कि आध्यात्मिक हों या कि सांसारिक दोनों में बहुत मुश्किलें, बहुत बाधाएँ आती हैं। अपन जरा इस चीज को समझते हैं एक छोटे से उदाहरण से कि कैसे हम अपने हाथ से कर्म के बंधन से बँध जाते हैं और कैसे हम चाहें तो इसके मुक्त हो सकते हैं। मैंने यह उदाहरण शायद पहले भी सुनाया हुआ है पर अपन इसको एक बार रिवाइज कर रहे हैं कि एक छोटा सा बच्चा (बेटा) पहुँचा था साधु बाबा के पास में कि महाराज यहाँ इस संसार में जो है बंधन कैसे होता है और कैसे हम मुक्त हो सकते हैं तो उन्होंने कहा, ठहरो तुम हमारे पास रहो हम बता देंगे। जाओ पहले तुम हमारा काम करो। ये जो सामने पेड़ लगा है, उस पेड़ को तुम जितना तकलीफ दे सको उतनी तकलीफ दो। तोड़ो, उसको पत्थर फेंको। उसके फल सब तहस-नहस कर दो। जितना तुमसे बने उसका अहित उतना करो। उसने कहा ये कौनसा काम सौंपा है? गया वो उससे जितना बना उतना बिगाड़ किया उसका। वापिस लौटा। पूछा कैसा लग रहा है। अच्छा नहीं लग रहा। मन बहुत भारी है। सो जाओ। सुबह उठा, ढंग से नींद नहीं आयी। यही लगता रहा कि कौनसा ऐसा काम मैंने कर लिया। जिससे मन बहुत भारी हो गया। ये काम तो अच्छा नहीं है। दूसरे दिन गुरुजी ने पूछा, रात नींद आयी। बिल्कुल नहीं आयी। बहुत दुःख होता रहा। आपने ऐसा काम क्यों मुझे करने को कहा? अरे तो जाओ फिर जाकर के उससे क्षमा माँगो कि मैंने जो तुम्हारा बिगाड़ किया था, वो मेरी गलती हो गयी और जरा उसको पानी देवो, पत्तों को सँभालो। उधर जो कचरा फैल गया है उस सबको हटाओ। लग गया वो काम में। माफी माँगी पेड़ से जाकर। रोया खूब पेड के पास जाकर के. पत्ते सब ठीक-ठाक किये। फल जो टूट गये थे उनको भी दरस्त किया। पानी सींचा। बड़ा मन गदगद् हो गया। शाम को लौटा। गुरुजी ने कहा, कैसे लगा ? बहुत अच्छा लगा है, बहुत आनन्द आ रहा है। तो वो जो कल तुमने कर्म किया था उससे थोड़ी सी राहत मिली। बहुत राहत मिली। कल तो मन बिल्कुल भी शांत नहीं था। बड़ा अशांत था। लेकिन आज जब मैंने वृक्ष के प्रति ऐसा व्यवहार किया तो मुझे लगा कि वृक्ष ने मुझे माफ कर दिया होगा। कल के मेरे कर्म को वृक्ष ने माफ कर दिया होगा। कल के मेरे कर्म से, मैं, आज का कर्म करके ऐसा लगता है, जैसे मुक्त हो गया हूँ। कल के मेरे अपराध से आज मुझे मुक्ति लग रही है। 

    बताइयेगा ये तो एक छोटा सा उदाहरण है। क्या यही उपाय नहीं है अपने बंधन और मुक्ति का। जिस कर्म के करने से हमारे ऊपर जैसे छाती पर किसी ने पत्थर रख दिया हो, सारा दिन व्यथित होता है। वे सारे कर्म हमारे संसार बढ़ाने वाले हैं और वे सब सांसारिक हैं। और जिन से हमारा मन प्रफुल्लित होता है, जिनके करने से हमारा मन प्रसन्न हो जाता है, वे कर्म हमारे उन कर्मों को काटने वाले हैं, अभी उनसे मुक्ति दिलाने वाले हैं, लेकिन संसार से मुक्ति दिलाने वाले नहीं हैं। हमारे पाप से मुक्ति दिलाने वाले हमारे सत्कर्म हैं। लेकिन संसार से मुक्ति तब होगी जब सद् और असद् दोनों कर्मों के बीच में समता भाव होगा, तब मुक्ति होगी और वो पूछना हो तो उस वृक्ष से पूछ लें। पहले दिन जब चोट पहुँचाई थी तब भी वो वैसा ही खड़ा था। दूसरे दिन जब क्षमा माँगी तब भी वो उतना ही अलिप्त खड़ा हुआ है। क्या ऐसा ही हम हमारे जीवन में किसी क्षण कर सकते हैं। तीनों चीजें हमारे सामने हैं। हम कर्म अशुभ करते हैं, अशुभ का दबाव हमारे ऊपर होता है, तब हम उस दबाव को कम करने के लिये शुभ कर्म करें और कुछ क्षण ऐसे भी हों जब हम शुभ और अशुभ दोनों कर्मों से विश्राम लेकर के, राग-द्वेष से विश्राम लेकर के शांत भाव से अपना जीवन व्यतीत करें। उपाय सिर्फ इतना ही है। हमारे सांसारिक कार्यों में बाधा आती है, हमारे आध्यात्मिक कार्यो में बाधा आती है, कौन डालता होगा ये बाधा ? हम चाहते हैं कि जाकर के और आज तो साधुजनों की, मुनिजनों की सेवा करें। लोगों को दान दें। जो दीनहीन हैं. गरीब हैं. उनकी मदद करें. हमारे मन में ऐसा भाव होता है लेकिन ऐसा भाव हो जाने के बाद भी, सारे सरकमस्टेन्सेस फेवरेबुल हो जाने के बाद भी पता नहीं क्या होता है और मैं दान नहीं दे पाता। मैं सोचता हूँ कि फलानी चीज मुझे मिल जावे। मैं उसके लिये सारा प्रयत्न करता हूँ और अंतिम क्षण में जाकर के वो चीज मिलते-मिलते और मेरे हाथ से फिसल जाती है। 
     
    मेरे अपने भोग-उपभोग की सामग्री के साथ भी ऐसा ही है। मैं बहुत प्रयत्न करके खाने की थाली सामने सजाकर के रख लेता हूँ और मुँह में जो बहुत दिन से प्रतीक्षित था मेरे लिये प्रिय रसगुल्ला हाथ में, मुँह में आने को था और उतने में ही मोबाइल पर घंटी बज गई और एक ऐसी खबर जिसने कि उस रसगुल्ले को मुझे वहीं का वहीं रख देने को मजबूर कर दिया और उठकर के मुझे जाना पड़ा। ये मेरे भोग की सामग्री में बाधा किसने डाल दी। मेरे उपभोग की सामग्री में बाधा कौन डालता है। मैं बहुत उत्साहित होकर के किसी धर्म के कार्य को करने के लिये निकलता हूँ और बीच रास्ते में मुझे कोई ऐसी चीज घेर लेती है कि मैं उससे विमुख होकर के वापिस फिर लौट जाता हूँ। सारा उत्साह खत्म हो जाता है। मैं निरुत्साहित हो जाता है, ऐसा कौनसा परिणाम या मेरे भीतर ऐसा कौनसा कर्म पड़ा हुआ है जो मेरी इन सब चीजों में बाधा डालता है ? होगा तो कोई ना कोई ऐसा तो हो ही नहीं सकता। “विघ्नकरणमन्तरायस्य' आचार्य भगवन्तों का एक ही सूत्र है, सारे कर्मों में जैसे मोहनीय कर्म अत्यन्त प्रबल है, ऐसे ही सबसे छिपा हुआ और अचानक हमारे सामने आने वाला कर्म अन्तराय कर्म है। “सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि निजानन्द रसलीन, सो जिनेन्द्र जयवन्त नित अरिरज रहस विहिन।” अरि के मायने शत्रु, सबसे बड़ा शत्रु मोहनीय कर्म और धूल के समान हमारे ज्ञानदर्शन को आवरित करने वाला, रज अर्थात् धूल, ज्ञानावरण और दर्शनावरण और मिस्ट्री (रहस्य) जिसको कहते हैं, कब आयेगा पता नहीं, रहस्य है उसे कहते हैं अन्तराय। अन्तराय अत्यन्त रहस्यमय है। हम सारे इन्तजाम कर लेते हैं और अचानक आल आफ सडन कि 'इनस्पाइट ऑफ मी' (मेरे बावजूद), मेरी सारी तैयारी के बावजूद सब धरा रह गया। वहीं के वहीं करूँ क्या ? अन्तराय के उदय में पता नहीं लगता है कि कब क्या स्थिति बनेगी और वो कर्म भी हमने अपने लिये स्वयं बाँधा है और बाँधते कैसे हैं ये देख लें हम ? तब फिर वो उदय में आकर के अपना फल देता है ये तो दिखाई पड़ता है। लेकिन कब बँध जाता है ये दिखाई नहीं पड़ता और कब फल देगा ये भी दिखाई नहीं पड़ता। जब फल दे चुकता है तब दिखाई पड़ता है। कितनी बार हमारे जीवन में हम ये अनुभव करते हैं, कि कितना मन होता है कि दान दे देवें, चार पैसे हाथ में भी हैं, लेकिन इतनी जल्दी मन बदल जाता है। देने का मन जितनी देर से होता है, नहीं देने का मन उतनी जल्दी हो जाता है। धर्म करने का उत्साह जितनी मुश्किल से होता है, निरुत्साही हम उतनी ही जल्दी हो जाते हैं। जरा सा किसी ने कह दिया। श्रद्धा बड़ी मुश्किल से जमती है और किसी ने जरा सी बात कह दी, श्रद्धा एक मिनिट में टूट जाती है ? ये क्या है ? ये अन्तराय कर्म है। इस पर हमें विचार करना चाहिये। 
     
    अगर हमारे जीवन में ये हमें दुःख दे रहा है अन्तराय कर्म तो वो हमारे अपने कौनसे परिणाम होंगे जिससे कि हमारे साथ में बँध गया है ? तब हम आसानी से उन परिणामों से वर्तमान में बचकर के आगे के लिये अपने अन्तराय को टाल सकते हैं। महाराज, कुछ उपाय बताओ, कोई मंत्र दे दो। बड़ी मुश्किल है आर्थिक रूप से बिल्कुल मुश्किल में हैं, दुकान ठीक से नहीं चलती है, जहाँ हाथ लगाओ, तो वहीं पे बिगाड़ होता है। कोशिश तो बहुत कर रहे हैं, पुरुषार्थ तो बहुत कर रहे हैं, लेकिन दो जून का भोजन बामुश्किल मिल रहा है, आप कुछ बताओ तो। भैया, किसी से पूछने जाने की आवश्यकता नहीं है न कोई उसके लिये कुछ मदद कर सकता है। अगर कोई मदद कर सकता है, अगर कोई उपाय हो सकता है तो अपने परिणामों को ही अपन सँभाल लेवें तो हमारे अन्तराय कर्म आसानी से दूर हो जावें। जब सांसारिक चीजों में बाधा आती है तब भी आध्यात्मिक कर्म करने की सलाह दी गई है। अगर आध्यात्मिक कर्मों में बाधा आती है तब और अधिक आध्यात्मिक कर्म करने की सलाह दी जाती है। आचार्य महाराज कहते हैं कि देखो तो दुकान पर हर एक मिनिट के अन्दर सामान देने, उठाने, धरने हेतु सैकड़ों बार उठता है, एक व्यक्ति, और अगर उससे कहा जाये कि खड़े होकर पूजा करो तो कहता है पैरों में दर्द होता है। वाह भैया, अच्छे से बैठकर जाप करो तो कहते हैं नहीं ..... दर्द होता है, हम पाँच मिनिट से ज्यादा बैठ नहीं सकते इसके मायने है कि मैंने ऐसा खोटा कर्म बाँध लिया है जो संसार को घटाने वाले कार्यों में बाधा डालता है। वो मुझे सलाह देता है, भीतर बैठा-बैठा। जैसा हमने अपना स्वभाव बना लिया होगा वर्तमान में, जिस चीज में हमें रुचि होगी वो चीज आसानी से हम कर पायेंगे। बाकी चीजों में मुश्किलें खड़ी होंगी। ये भी ध्यान रखना। ये मत समझना कि मुश्किलें हमारे पुराने कर्मों से ही खड़ी होती हैं। अपने वर्तमान के कर्मों से भी हम अपने जीवन में मुश्किलें खड़ी करते हैं। ऐसा मत समझना कि हम लापरवाही करें और कर्म को दोष देवें कि क्या करें। हमें बाधा पड़ रही है। जबकि सारे प्रयत्न करने के बाद, सारी सिचुएशन फेवरेबल होने के बाद फिर काम बिगड़ जाता है तब फिर मानना पड़ेगा कि कोई ऐसा कर्म मेरे साथ जुड़ा हुआ है जो मुझे बाधा डाल रहा है। आज तक मुक्ति दिलाने वाला कोई कर्म नहीं हआ। है कोई कर्म 148 कर्म प्रकतियों में जिसके उदय में मुक्ति हो जाये। किसी ने पढ़ा हो तो बताओ। कर्मकाण्ड पढ़ने वाले तो बहुत होंगे यहाँ पर। नहीं, 148 कर्म प्रकृतियों में कोई भी ऐसा कर्म नहीं है जिसके उदय में मुक्ति हो जाये ? तीर्थंकर प्रकृति का उदय भी हो तब भी बैठे रहो सबको उपदेश देवो, मगर मुक्ति नहीं हो सकती जब तक कि तीर्थंकर प्रकृति का उदय हो। हाँ कोई भी कर्म का उदय मुक्ति नहीं दिलाता, मुक्ति में बाधा जरूर डालता है कर्म का उदय। हम ये सोचें कि हमारी मुक्ति में कोई कर्म का उदय आयेगा। मुक्ति हमारे पुरुषार्थ से होगी, पुरुषार्थ में बाधा डाल सकता है कर्म। तब फिर मुझे क्या करना चाहिये ? जब बाधा डाल रहा है कर्म तब फिर मुझे ऐसा कर्म करना चाहिये जिससे कि इस बाधा को मैं दूर कर सकूँ। बस इतना सा ही उपाय है। अगर अन्तराय कर्म मेरे कामों में बाधा डालता है तो मैं फिर, मैं ऐसा काम करूँ जिससे कि मेरी वो बाधा दूर हो जावे। मैं ऐसी कामना करूँ जिससे कि और अधिक मेरे जीवन में बाधा न आ जावे। 
     
    आचार्य भगवन्तों ने इस सूत्र के लिये व्यवस्था करते हुए अकलंक स्वामी ने तो बहुत सारी बातें लिखी हैं। पूज्यपाद स्वामी ने “विघ्नकरण अन्तराय" कहकर के, उमा स्वामी महाराज के सूत्र की व्याख्या कर दी कि भाई। दानादि जो कार्य हैं उसमें अगर हम बाधा डालते हैं तो हमारा कर्म बँधेगा अन्तराय कर्म और बाद में अगर हम दान, लाभ, भोग, और उपभोग इन सबके लिये जब प्रयत्न करेंगे तब हमारे लिये भी बाधा पड़ेगी और बात खत्म हो गई। अकलंक स्वामी के चरणों में जाकर के बैठे तो वो विस्तार रुचि शिष्यों के लिये समझाते हैं क्योंकि अलग-अलग आचार्यों का अपना अलग-अलग एप्रोच रहा। जो सूत्रों में सारी बात समझ लेते हैं, उमा स्वामी महाराज ने उन्हें सूत्र में कह दीं। थोड़ी सी व्याख्या में जो समझ लेते हैं पूज्यपाद स्वामी ने उन्हें थोड़ी सी व्याख्या करा दी और जो और डिटेल चाहते हैं तो अकलंक स्वामी का स्मरण करना होगा। आचार्य भगवन्तों का नाम हमें याद रखना चाहिये। इनका उपकार हमारे ऊपर है, बहुत-बहुत उपकार है। बता रहे हैं कि दानादि में विघ्न डालने से स्वयं अन्तराय बँधता है, लेकिन इतना ही नहीं हमारे आगे भी दानादि में हमेशा अन्तराय आता है। दूसरे के दानादि में बाधा डाली है, हम निमित्त बने हैं अन्तराय में, तो आगे के लिये अन्तराय बाँध लेते हैं। उसके तो कर्म के उदय है आपके तो देने पर भी उसके लाभ नहीं हो पा रहा, लेकिन आप उसको नहीं देने का जो विचार कर रहे हैं, उसके दान इत्यादि में बाधक बन रहे हैं, वो आपके भी इसी तरह की सिचुएशन क्रिएट करेगा। ये दोनों चीजें एक साथ चलती हैं। कदम-कदम पर हम लोग दूसरों के दान, लाभ, भोग और उपभोग और वीर्य में बाधक बनते हैं। कदम-कदम पर संसार में, मैं आज विचार कर रहा था कि शायद हम लोग अन्तराय कर्म सबसे ज्यादा बाँधते होंगे। कदम-कदम पर अपने मन की करवाना दूसरे के लिये बाधा ही है। हाँ! अगर विचार करें। ऐसा करो, ऐसा नहीं करो। किसी के भी भले-बुरे के बीच में निमित्त बनना ही मत। चुपचाप रहना जहाँ तक हो सके। नहीं तो संसार ही बढ़ेगा। यहाँ तो सुबह से शाम तक गृहस्थी में इनको सलाह दो, उनको सलाह दो, तुम ये करो, तुम ये ना करो। ये अन्तराय अपने लिये बँधेगा। बहुत सूक्ष्म है मामला। अगर संसार से मुक्त होना है तो जितना कम हो सके संसार के प्रपंच में पड़ना चाहिये। अपने को सुबह-सुबह यही समझ में आया जब मैं विचार कर रहा था इन चीजों पे। लेकिन आपके मन में होगा कि बहुत प्रेक्टिकल नहीं है ये बात। बहुत प्रेक्टिकली पोसिबल नहीं है। बेटा जा रहा है कहीं। कहाँ जा रहे हो ? कोई जरूरत नहीं। हो गया अन्तराय, आपने बाँध लिया। भले ही वो बुरा करने जा रहा हो, आपका उससे कोई मतलब नहीं। बहुत मुश्किल है, बहुत मुश्किल है, कभी सोचना आप। भोग-उपभोग में भी बाधा नहीं डालना। अब क्या करूँ तो फिर ? तो फिर आप जिम्मेदारी दूसरे की काहे को ले रहे हैं ? आप काहे को मुश्किल में पड़ रहे हैं उसको जैसा करना है करने दो ?
     
    एक पण्डित हीरालालजी थे कर्मकाण्ड के बड़े विद्वान। उन्होंने अपने बेटे को जगाना छोड़ दिया था। कहते हैं कि मैं काहे को बेकार में दर्शनावरणी कर्म का बंध करूँ ? तुम्हें सोना हो तो तुम जानो तुम्हारा काम जाने, जब उदय हो तब उठना। अरे तो वो दूसरे का अहित हो जाएगा, वो 10 बजे तक सोता रहेगा, तो कहते हैं हम अपना अहित क्यों करें उसको जगाकर के, हाँ वो अगर मुझसे कहे कि जगा देना तो जगाऊँगा, अन्यथा नहीं जगाऊँगा। हाँ बहुत, आचार्य महाराज आज्ञा नहीं देते, क्यों, अगर तुम मानो तो देऊँ नहीं मानो तो काहे को बेकार मैं व्यर्थ में इसमें बाधक बनूँ और अन्तराय मैं खुद बाँधू जो आज्ञा माने उसके लिये, जो बात माने उसके लिये सलाह देना, वरना अन्तराय स्वयं बँधेगा। इतना सूक्ष्म मामला है, बहुत विचार करने जैसी चीज है करियेगा विचार आराम से अपन ने तो थोड़ी सी बात कर ली है और फिर 24 घण्टे अपने पास पड़े हैं, जिन्दगी पड़ी हुई है जरूर से विचार करना चाहिये, चुपचाप शांत बैठकर के कि क्या कर रहा हूँ ? क्या कह रहे हैं कि किसी के सत्कार का निषेध करना। बताइये किसी को अगर कोई सत्कार दे रहा है तो उसका निषेध करना मन ही मन, करते हैं, बहुत करते हैं, अपन किसी को वाहवाही मिल रही है, किसी को प्रशंसा मिल रही है, कोई अवार्डेड हो रहा है। अपन बैठे-बैठे कोने में। अरे क्या धरा है इन चीजों में। 
     
    एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि महाराज देखो तो कैसा संसार है। बोले हम यहीं खड़े थे और बच्चे लोगों को अवार्ड हो रहा था और एक जनाब बोले, नाम नहीं बताऊँगा। इन सब चीजों में क्या रखा हुआ है ? इन सब चीजों का धर्म से क्या सम्बन्ध है, और दुनिया भर की बातें वो कह रहे हैं कि हमसे तो आपको बताते ही नहीं बन रहा है। वो ऐसा कह रहे थे तो मेरे मन में आया कि देखो, कोई व्यक्ति तो प्रसन्नता पा रहा है और किसी व्यक्ति को ते सम्मान हो रहा है लेकिन हमें ऐसा लग रहा है जैसे हमारा अपमान हो रहा है और उसके सत्कार में बाधा डाल रहे हैं। कल के दिन हम अपने अन्तराय का इन्तजाम कर रहे हैं बैठे-बैठे। ऐसे बढ़ता है संसार और कुछ नहीं, कोई संसार अलग से थोड़े ही बढ़ता होगा, अपने हाथ से हम स्वयं बढ़ा लेते हैं। धर्म के कार्यों में भी बढ़ा लेते हैं, अपना संसार। संसार के कार्यों में तो बढ़ता ही है संसार। ऐसा पढ़ा मैंने सत्कार का निषेध करना। सत्कार किसी का भी हो, एक छोटे से बेटे से भी आप, 'आप' करके बात करेंगे ये उसका सत्कार है और आप डाँट-डपटकर बात करेंगे, ये उसका अनादर है, उसको मिलना चाहिये सम्मान, आपने दिया उसे अपमान। आपने उसके सम्मान में, उसके सत्कार में बाधा डाली। हाँ बहुत कठिन है भैया, मैं आपसे कह रहा हूँ पर प्रेक्टिकली तो बहुत मुश्किल लग रहा है। मैं सबेरे से सोच रहा हूँ कि मैं सब कहूँगा जाकर के तो वो सब कह देंगे कि बिल्कुल पोसिबल नहीं है। मगर यह तो कदम-कदम पर होता है, इसीलिये तो संसार है। इसीलिये तो अपन बैठे हैं संसार में। नहीं तो अभी तक मुक्त नहीं हो जाते। यही होता है, नहीं सँभाल पाते, अपन क्योंकि आदत ऐसी पड़ गई है। कह रहे हैं स्वयं के पास जो वस्तुएँ हैं उनका त्याग करने की भावना नहीं होना। ये अन्तराय का बंध, बताओ किसी के उसमें बाधा नहीं डाली अपन ने सोचो, लेकिन जो चीज अपने पास है वो दूसरे को देने का मन नहीं बन रहा है, इसका मतलब लग रहा है आपके अन्तराय बँधेगा। कोई व्यक्ति अगर त्याग नहीं करे तो अन्तराय कर्म का निरन्तर बंध हो रहा है। ये ध्यान रखना, इसलिये बहुत लोग पूछते हैं कि हम तो रात में खाते ही नहीं हैं तो क्या जरूरी है कि हम त्याग करें, हम तो वैसे ही नहीं खाते। आप भले ही नहीं खाते, अन्तराय का बंध निरन्तर हो रहा है। त्याग कितना कर सकते थे और त्याग नहीं किया, इसलिये निरन्तर अन्तराय का बंध हो रहा है, भले ही आप नहीं करते। बहुत सी चीजों को अपन नहीं करते लेकिन उनका त्याग करा कि नहीं अपन ने तो कह रहे हैं कि त्याग नहीं करा तो निरन्तर अन्तराय कर्म का बंध होता चला जाता है। बहुत सूक्ष्म है। दूसरे के वैभव को देखकर के विस्मृत होना। सम्यग्दृष्टि दूसरे के वैभव को देखकर के विस्मृत नहीं होगा। वो कहेगा पुण्य का फल है, ठीक है, बढ़िया है, विस्मृत होने की आवश्यकता नहीं है। विस्मृत होने से क्या होता है ? भीतर-भीतर, धीरे-धीरे करके उसके धन पैसे से ईर्ष्या जागृत होती है, फिर बाधा डालने की इच्छा होती है, इसलिये विस्मृत नहीं होना । मुनि महाराज भी जब अपनी तपस्या के फलस्वरूप किसी के वैभव को देखकर, नारायण इत्यादि के वैभव को देखकर विस्मृत होते हैं, मन में विचार आता है कि मुझे भी ऐसा मिले तो सारी तपस्या के फलस्वरूप इतना सा ही फल मिलकर के रह जाता है। जितने नारायण प्रति नारायण के जो पद हैं वे मुनि बन करके अत्यन्त तपस्या करने पर ऐसा निदान कर लेने पर प्राप्त होते हैं ये ध्यान रखना। ये वही है कि दूसरे का वैभव देखकर चकित मत होना, विस्मृत मत होना अन्यथा आप कल के दिन मन में वही चाहेंगे अपनी तपस्या के फलस्वरूप भी और ये अन्तराय के बंध का कारण है। बहुत मिल रही थी, इतनी सी ही मिलकर रह जाएगी। और कह रहे हैं त्याग करने के बाद उस चीज को पुनः ग्रहण करने का भाव हो जाना। भगवान् के सन्मुख जो भी हम भेंट स्वरूप चढ़ा देते हैं, मंत्र बोलकर के, उसको पुनः ग्रहण करने की भावना होना या ग्रहण कर लेना ये अन्तराय के बंध का कारण है। अर्थात् देवधन उस दिन अपन ने पढ़ा था अशुभ नाम कर्म के बंध के कारण में, भगवान् को जो अपन ने धार्मिक कार्य के लिये राशि भेंट की है, उसे रखना। देने में आनाकानी करना। साल भर बाद में दूँगा, ये सब निरन्तर अशुभ नाम कर्म और नीच गोत्र के बंध का कारण बनते हैं और जो सामग्री अपन ने भेंट स्वरूप, उपहारस्वरूप दे दी उसे पुनः ग्रहण करने का भाव हो जाना, काहे को दे दी हमारी है, देने के बाद भी हमारी है, हमने दी थी इनको। देखो तो गिफ्ट दे दी उसको। हमने उनको पेन दिया था, जब-जब उसके हाथ में पेन दिखा ये हमने दिया था इनको। अब बताओ आप अगर दिया था तो दे दिया अभी भी आपको उसके प्रति राग है और वो राग निरन्तर आपके अन्तराय का कारण बन रहा है। बहुत मुश्किल है। चीज़ देख कर अभी तक लगता है ये चीज मैंने दी थी। अभी तक उसके प्रतिराग भाव है वो राग भाव बंध का कारण बन रहा है। दे दी, त्याग कर दी, तो आचार्य भगवन्त वे कह रहे हैं दान की गई चीज के प्रति भी राग भाव ग्रहण करने का भाव बना रहे तो अन्तराय कर्म बँधता है और इतना ही नहीं द्रव्य के उपयोग में समर्थ होने के बाद भी सदुपयोग नहीं करना, भले ही दुरुपयोग नहीं कर रहे किन्तु उन चीजों का जो हमें मिली हैं, पुण्य के उदय से वस्तुएँ उनका अगर सदुपयोग नहीं करेंगे तो आगे मिलेंगी नहीं, अन्तराय पड़ेगा। 
     
    फिर कह रहे हैं कि दूसरे की शक्ति का अपहरण कर लेना। कैसे, अब किसी की शक्ति का थोड़े ही अपहरण कर सकते हैं, अपन किसी की सामर्थ्य का। लेकिन सामर्थ्य का अपहरण कैसे करते हैं ? जैसे कर्ण की सामर्थ्य का अपहरण शब्द ने किया था सारथी बन के। डिसकरेज करना, डिसकरेज कर रहे हैं हमेशा उसको, जैसे ही अर्जुन का रथ सामने आता तो कर्ण का रथ सारथी मोड़ देता। कर्ण कहता कि अरे अर्जुन से सामना करवाओ। तू क्या करेगा, सामना, एक ही बार में मर जाएगा, इसलिये बचा रहा हूँ तेरे को। इतना डरा दिया उसको। ये भी स्वय के अन्तराय में कारण है, अपन दूसरे को इस तरह से हतोत्साहित करते हैं। उसकी शक्ति को ऐसे छीन लेते हैं, उसकी सामर्थ्य होने के बावजूद भी हतोत्साहित कर देना। अपने बच्चों को अपने हाथ से हतोत्साहित करते हैं, पढ़ते-लिखते हो नहीं फेल होओगे, हो जाना, हमें क्या करना। ये यही कहते कि मेरा बेटा अभी कम पढ़ता-लिखता है, थोड़ा ज्यादा पढ़ेगा-लिखेगा तो देखना कितना होशियार हो जाएगा। पढ़ता-लिखता है ही नहीं, फेल होएगा और क्या एक बार अस्सी परसेन्ट आये थे, अस्सी में क्या होता, 90 प्रतिशत आयेंगे तब होगा। ये नहीं कहेंगे कि 80 आये, शाबास और मेहनत करेगा तो नब्बे आयेंगे। ये भाव कौनसा है, हतोत्साहित करने का है। दूसरे के सामने आप शिकायत कर रहे हैं ये उसका हतोत्साहित करने का काम है, उसे प्रोत्साहन नहीं मिलने वाला है उससे। छोटी-छोटी सी चीजों में आप दिन भर में देखेंगे अगर जो अपने मन का नहीं होता उसके लिये हम दूसरे को हतोत्साहित करते हैं, अरे क्या रखा है उसमें, छोड़ो, उसे क्या करना। अब उसका करने का मन था और आपने उसको हतोत्साहित कर दिया। हमारे अपने अन्तराय के बंध का कारण होगा और कह रहे हैं जो कुशल चारित्र वाले गुरुजन हैं, देवालय हैं उनकी पूजा का निषेध करना। क्या रखा है पूजा में, ये तो जड़ की क्रिया है, इस थाली से उठाकर उस थाली में रखने में कौनसा धर्म है ? अरे अपने परिणामों को सँभालो, पूजा पाठ में कुछ नहीं धरा। ऐसा प्ररूपण कर देना, ये अन्तराय कर्म का कारण है। रोज तो करते हो पूजा, क्या होता है ? आपने उसके पूजा की क्रिया में अन्तराय डाला। ये नहीं कहेंगे कि एक और कर लो। ऐसा नहीं कह रहा हूँ कि आप समय का उल्लंघन करो, नहीं तो आप कहो कि धर्म के काम में क्या समय देखना ? अब समय का ध्यान ला गया तो समय तो पूरा हो गया। दो चीजें और बाकी रहीं। दीन-दुखियों को कोई अपर मदद करता है, करुणा दान देता है तो कभी मना नहीं करना। कभी भी दूसरे को दीन- :खी की मदद करने से विचलित नहीं करना, आर्गेमेन्ट नहीं देना कि क्या होता है इन सबसे। 
     
    एक उदाहरण है जब सत्याग्र हो रहा था देश में। गाँधीजी के नेतृत्व में तब सत्याग्रहियों के लिये एक वृद्ध बाबा रेल के डिब्बे में चढ़कर के थोड़ा-थोड़ा पैसा माँग रहे थे। तो एक कनस्तर में, खुला हुआ कनस्तर उसके अन्दर जो जितना भी देता था, डाल देता था उसी के अन्दर रसीद रखी थी कि बाब जी को ज्यादा दिखता नहीं था भैया अपने हाथ से लिख दो, कितने रुपये, सत्याग्रहियों को दिये, पाँच रुपये दिये, पाँच की रसीद अपनी ले लो। उसी में रसीद बनती रहती, उसी में सब पैसा रखा रहता। एक चोर ने देख लिया कि ये तो बढ़िया चीज है, इतने सारे कनर तर भर एक मिनिट में मिल जाएँगे। बाबाजी को क्या है ज्यादा दिखता भी नहीं है। एक पक्का देंगे सो काम हो जाएगा। अब उसको ये थोड़ी ही मालूम था कि ये पैसा किसलिये एक तो बाधक नहीं बनना चाहिये और बाधक बन जाये तो तुरन्त सँभाल लेना चाहिये कि भैया हमारा भाव ऐसा नहीं है, आपको जैसा करना है वैसा करो। हम क्यों बेकार में बाकि बनें आपके उसमें। छोटे-छोटे से कामों में। खाने-पीने या पहनने-ओढ़ने से लेकर के ब जितने काम होते हैं संसार के सब में। अब उसमें तो उसको देर क्या लगनी थी चोर को बाबाजी जरा यहाँ-वहाँ हुये कनस्तर उठा लिया और उतर गया वो तो ट्रेन में से। अब उसने जाकर के जब देखा तो वह पानी, देखी सत्याग्रह की। मन में बड़ी कचोट हुई अरे यह तो मैंने इतने भले काम में बाधा डाल दी इससे तो पूरे का पूरा इतना बड़ा कार्य ही रुट जाएगा। मुझे तो 100-500 रु. मिलेंगे लेकिन इतना बड़ा कार्य रुक जाएगा अब क्र करूँ? भाग-दौड करके जैसे-तैसे उसी ट्रेन को उसने फिर पा लिया। उसी डिब्बे को ढकर के उस बाबाजी के पास जाकर के वो कनस्तर ज्यों का त्यों धरा और इतना ही नहीं देन भर में जो जितनी चोरी करी थी वो सब पैसे भी उसी में डाल दिये। आगे से कान पक: कि अब चोरी नहीं करूँगा। बताइये आप, कभी-कभी ऐसा कोई कार्य हमारे जीवन में जाता है भला कार्य जिससे कि हमारे जीवन के सारे बुरे कर्म भी नष्ट हो सकते हैं। हमें हमेशा इस तरह के कार्यों में, जो कि परोपकार के कार्य हैं उनमें तो बाधा कभी डालनी ही नहीं चाहिये और कभी कदाचित् परोपकार के कार्य में बाधा अपने से पड़ जावे तुरन्त सँभाल लेना चाहिए। 
    ००० 
  6. Vidyasagar.Guru
    संयम महोत्सव प्रतियोगिता 2022 क्रमांक 1, 2 एवं 3 का परिणाम
    आज 7 : 45 PM पर निकाला जाएगा 
     
     
     
    आपको प्रतियोगिता कैसी लगी कमेन्ट मे जरूर बतायें ?
    अपना नाम एवं स्थान लिख अपनी उपस्थिति जरूर दर्ज कराएँ |
  7. Vidyasagar.Guru

    केश लोच सूचना
    💫 धरती के देवता, हम सभी के भगवन् ,अनियत विहारी, अध्यात्म सरोवर के राजहंस, परम पूज्य युग श्रेष्ठ , संत शिरोमणि आचार्यश्री १०८ विद्यासागर जी महामुनिराज के आज प्रातः कालीन बेला में केशलोंच अंतरिक्ष पार्श्वनाथ शिरपुर जैन  में संपन्न हुये।
     
  8. Vidyasagar.Guru
    अंतरिक्ष पारसनाथ पहुंचे आचार्य भगवन गुरुदेव श्री विद्यासागर महाराज 
     48 दिन से चल रहा मंगल विहार 9 जुलाई को 7:45 बजे सुबह प्रसिद्ध जैन तीर्थ क्षेत्र अंतरिक्ष पारसनाथ में जाकर ठहर गया यह ठहराव दो-चार दिन के लिए नहीं पूरे वर्षायोग चातुर्मास यानी दीपावली तक तो पक्का है हजारों की संख्या में महाराष्ट्र और कर्नाटक के अलावा देश के कई हिस्सों से लोग अंतरिक्ष पारसनाथ पहुंचे हैं 
    पतली-पतली गलियों का यह गांव आज गुलजार हो गया जैसे ही आचार्य श्री इस गांव की सीमा पर पहुंचे महाराष्ट्र की पारंपरिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के द्वारा आचार्य भगवन की भव्य अगवानी की गई।
     
     

     
     
    आचार्य संघ इस बार छोटा है लेकिन पूरे देश की निगाहें इस छोटे से शिरपुर गांव में विराजमान अंतरिक्ष पारसनाथ के दरबार पर हैं छोटे बाबा का प्रवेश यहां पर हुआ है। आचार्य संघ कुंडलपुर के बड़े बाबा के दरबार और रहली पटनागंज के बड़े बाबा भगवान महावीर स्वामी के मंगल आशीर्वाद के बाद निश्चित रूप से आने वाले दिनों में यहां मंदिर का बंद ताला भी खुल जाएगा ऐसी उम्मीद हम सब जन मिलकर के करें तो हमारी एकता और अखंडता भी बनी रहेगी।
    गुरुदेव के चरणों में "अनंत बार" नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु..
    🚩🚩🚩🚩🚩🚩
    आचार्य संघ का वर्षायोग कलश स्थापना समारोह 17 जुलाई को अंतरिक्ष पारसनाथ में दोपहर 1 बजे से होगा
    🙏🙏✍️🙏🙏
    मुकेश जैन "ढाना" सागर मध्यप्रदेश
  9. Vidyasagar.Guru
    📯   _युग श्रेष्ठ, संत शिरोमणि आचार्य गुरुवर श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज जी ससंघ
           का पावन वर्षायोग २०२२ अंतरिक्ष पार्श्वनाथ शिरपुर जैन(महाराष्ट्र) को प्राप्त हो रहा है।    
     
      
    〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️  
       ♦️गुरुजी का भव्य मंगल प्रवेश♦️
          🗓️०9  जुलाई २०२२ शनिवार  🗓️
    प्रातः कालीन बेला मे 
    〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️〰️
    🏺चातुर्मास कलश स्थापना🏺
       🗓️१७ जुलाई २०२२ रविवार🗓️
     
     
     

     
    संपर्क📞
    9422616167
    8554941000
    9881900686
     
    पहले 8 जुलाई को प्रवेश की संभावना  थी - अब 9 जुलाई को प्रवेश की संभावना 
     
  10. Vidyasagar.Guru
    प्रतियोगिता क्रमांक 3 में भाग लेने के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें 
    https://docs.google.com/forms/d/e/1FAIpQLSf_YSv7DBPC_mx1CZCtRD6Jg-LeZz9EafbJJZLk3hr2AEFjYw/viewform?usp=sf_link
     
     
     
     

     
     
     
     
    तीन उपहार 


     
     
  11. Vidyasagar.Guru
    प्रतियोगिता क्रमांक 2 में भाग लेने के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें 
    https://docs.google.com/forms/d/e/1FAIpQLSczBH5P00kxUFoWAwGnuVHlPFz4Ti9pBNr01wbDpd1SfsEm8w/viewform?usp=sf_link
     
     

     
     
     
     
    तीन उपहार 
     

  12. Vidyasagar.Guru
    प्रतियोगिता क्रमांक 1 में भाग लेने के लिए निम्न लिंक पर क्लिक करें 
    https://docs.google.com/forms/d/e/1FAIpQLScXpBBk9V0hGqAY4nkO8C-RR8WaOVugINFnbGgkso2tlgLK5Q/viewform?usp=sf_link
     
     
    भाग लेने के बाद आप अपना नाम निम्न सूची मे देख सकते हैं 
    https://docs.google.com/spreadsheets/d/1cExfmK1MQlwQqPXbHzPqClVpZKM6Ov91snt3H_SPQwU/edit?usp=sharing
     

     
    तीन उपहार 
     

  13. Vidyasagar.Guru
    आर्यिका गुरुमति जी  आर्यिका उज्ज्वलमति जी  आर्यिका चिंतनमति जी  आर्यिका सूत्रमति जी  आर्यिका शीलमति जी  आर्यिका सारमति जी  आर्यिका साकारमति जी  आर्यिका सौम्यमति जी  आर्यिका शांतमति जी  आर्यिका सुशांतमति जी  आर्यिका जाग्रतमति जी  आर्यिका कर्तव्यमति जी  आर्यिका निष्काममति जी  आर्यिका विरतमति जी  आर्यिका तथामति जी  आर्यिका चैत्यमति जी  आर्यिका पुनीतमति जी  आर्यिका उपशममति जी  आर्यिका ध्रुवमति जी  आर्यिका पारमति जी  आर्यिका आगतमति जी  आर्यिका श्रुतमति जी   
     
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    https://vidyasagar.guru/clubs/344-group/
     
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  14. Vidyasagar.Guru
    आर्यिका दृढमति जी  आर्यिका पावनमति जी  आर्यिका साधनामति जी  आर्यिका विलक्षणामति जी  आर्यिका वैराग्यमति जी  आर्यिका अकलंकमति जी  आर्यिका निकलंकमति जी  आर्यिका आगममति जी  आर्यिका स्वाध्यायमति जी  आर्यिका प्रशममति जी   आर्यिका मुदितमति जी  आर्यिका सहजमति जी  आर्यिका संयममति जी  आर्यिका सत्यार्थमति जी  आर्यिका सिद्धमति जी  आर्यिका समुन्नतमति जी  आर्यिका शास्त्रमति जी  आर्यिका तथ्यमति जी  आर्यिका वात्सल्यमति जी  आर्यिका पथ्यमति जी  आर्यिका संस्कारमति जी  आर्यिका विजितमति जी  आर्यिका आप्तमति जी  आर्यिका स्वभावमति जी  आर्यिका धवलमति जी  आर्यिका समितिमति जी  आर्यिका मननमति जी   
     
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    आर्यिका मृदुमति जी आर्यिका निर्णयमति जी   
     
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    आर्यिका ऋजुमति जी  आर्यिका सरलमति जी  आर्यिका शीलमति जी  आर्यिका असीममति जी  आर्यिका गौतममति जी  आर्यिका निर्वाणमति जी  आर्यिका मार्दवमति जी  आर्यिका मंगलमति जी  आर्यिका चारित्रमति जी  आर्यिका श्रद्धामति जी  आर्यिका उत्कर्षमति जी   
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    आर्यिका तपोमति जी  आर्यिका सिद्धांतमति जी  आर्यिका नम्रमति जी  आर्यिका विनम्रमति जी  आर्यिका अतुलमति जी  आर्यिका अनुगममती जी  आर्यिका उचितमति जी  आर्यिका विनयमति जी   आर्यिका संगतमति जी  आर्यिका लक्ष्यमति जी   
     
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    आर्यिका गुणमति जी  आर्यिका ध्येयमति जी आर्यिका आत्ममति जी आर्यिका संयतमति जी   
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    आर्यिका प्रशांतमति जी  आर्यिका विनतमति जी  आर्यिका शैलमति जी  आर्यिका विशुद्धमति जी  
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    आर्यिका पूर्णमति जी  आर्यिका शुभ्रमति जी  आर्यिका साधुमति जी आर्यिका विशदमति जी आर्यिका विपुलमति जी  आर्यिका मधुरमति जी  आर्यिका कैवल्यमति जी  आर्यिका सतर्कमति जी  
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    आर्यिका अनंतमति जी  आर्यिका विमलमति जी  आर्यिका निर्मलमति जी  आर्यिका शुक्लमति जी  आर्यिका आलोकमति जी  आर्यिका संवेगमति जी  आर्यिका निर्वेगमति जी  आर्यिका सविनयमति जी  आर्यिका समयमति जी  आर्यिका शोधमति जी  आर्यिका शाश्वतमति जी  आर्यिका सुशीलमति जी  आर्यिका सुसिद्धमति जी  आर्यिका सुधारमति जी  आर्यिका उदारमति जी  आर्यिका संतुष्टमति जी  आर्यिका निकटमति जी  आर्यिका अमितमति जी  आर्यिका निसर्गमति जी   
     
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    आर्यिका भावनामति जी  आर्यिका सदयमति जी  आर्यिका भक्तिमति जी  
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    आर्यिका आदर्शमति जी आर्यिका अक्षयमति जी  आर्यिका अमंदमति जी आर्यिका संवरमति जी  आर्यिका मेरुमति जी  आर्यिका निर्मदमति जी  आर्यिका अवायमति जी   
     
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    आर्यिका दुर्लभमति जी  आर्यिका अक्षयमति जी आर्यिका अखंडमति जी आर्यिका अनर्घमति जी आर्यिका श्वेतमति जी  
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    आर्यिका अंतरमति जी आर्यिका अनुग्रहमति जी  आर्यिका अमूर्तमति जी  आर्यिका अनुपममति जी  आर्यिका आनंदमति जी आर्यिका अधिगममति जी आर्यिका अभेदमति जी  
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    https://vidyasagar.guru/clubs/357-group/
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