हमने पिछले दिनों ये बात अपने अनुभवों से और आचार्यों के कहे अनुसार जान ली है कि यदि मैं मनुष्य हूँ तो उसकी जिम्मेदारी मेरी है और अगर कोई पशु के रूप में जीवन जी रहा है तो उसकी जिम्मेदारी उसकी है। देव और नारकी जीव भी इस संसार में अत्यन्त सुख और अत्यन्त दुःख में अपना जीवन व्यतीत करते हैं। अब मुझे यह डिसाइड करना है कि मैं यदि मनुष्य हूँ तो मैंने ऐसा क्या करा होगा कि जिससे कि मैं मनुष्य हुआ हूँ और यदि कोई पशु है तो उसने ऐसा क्या करा होगा जिससे कि उसे इस तरह तिरस्कार भोगना पड़ रहा है ? तिर्यक् शब्द से तिर्यन्च शब्द बना है और उसका अर्थ ही यह है कि जो बोझा ढोता है और हमेशा तिरस्कार को प्राप्त होता है। ऐसे अपने जीवन को व्यतीत कर देता है वो पशु है। छोटा सा कीड़ा भी होगा आप कहेंगे हटाओ, हटाओ, उसको हटाओ। गाय आ रही होगी, उठाओ तो लाठी, भगाकर आवो। छोटे से लेकर के बड़े तक जितने भी तिर्यन्च जाति के जीव हैं, उन सबके साथ हमारा यही व्यवहार होता है।
लेकिन हम विचार करें कि एक जीव ने इस तरह अपना जीवन जीने की मजबूरी कैसे अपने कर्मों से अर्जित कर ली होगी। क्यों वो इस तरह जीने के लिये मजबूर हो गया ? कल हमने समझा था कि कैसे हम अपना नरक निर्मित कर लेते हैं। कैसे हम अपने परिणामों को बिगाड़ कर के और यहाँ इस संसार में ही नहीं, जब हम यहाँ से ट्रांसमाइग्रेट करते हैं। असल में, ऐसा है कि हम जिस तरह यहाँ जीते हैं उसी तरह आगे के लिये भी जीने के लिये हम तैयारी कर लेते हैं। यहाँ कोई प्रेम से जीता है, शांति से जीता है तो समझियेगा कि वो एक ऐसी जगह जाएगा जहाँ कि उसे एनवायरनमेन्ट ऐसा मिलेगा जहाँ वो शांति से जी सके और यदि जिस व्यक्ति को यहाँ कलुषता और तेरे-मेरे का भाव या बहुत अधिक शोषण की प्रवृत्ति या कि लोगों के दुःख में हर्ष महसूस करने की प्रवृत्ति है तो फिर वो ऐसी जगह जाएगा जहाँ कि उसे ऐसा वातावरण मिले जिसमें कि वो जैसा उसने किया है उस संस्कार के अनरूपये जो एक निश्चित पर्याय मिलती है. एक निश्चित अवस्था में हमें कुछ दिनों तक ठहरना पड़ता है, उसके पीछे कौनसे अपने परिणाम ऐसे होते होंगे? मालूम होना चाहिए ताकि हम सावधान हो जायें। हम कैसे कर्म ना करें जिससे कि हमारा नरक निर्मित हो या जिससे कि हमें जाकर पशु जगत में उत्पन्न होना पड़े और जिन्दगी भर तिरस्कार भोगना पड़े।
आचार्य भगवन्तों ने लिखा कि अगर ऐसी स्थिति को आप नहीं पाना चाहते तो ध्यान दें ऐसी स्थिति कैसे मिलती है तो “माया तैर्यग्योनस्य'। तिर्यन्च अवस्था में अगर कोई व्यक्ति है तो उसने अपने पूर्व जीवन में बहुत मायाचारी करी होगी। और भी बहुत से कारण हैं लेकिन प्रमुख कारण है, मायाचारी। मायाचारी के मायने क्या है ? मायाचारी के मायने हैं दिखावा, प्रदर्शन। मायाचारी के मायने हैं माया संसार की जोड़-जोड़ कर रखना और मायाचारी के मायने हैं अलग-अलग दिन भर में सैकड़ों किस्म के चेहरे लगा के जीना। मायाचारी के मायने हैं जो जैसा है वैसा ना होकर कुछ और ही होना। इतने सारे अर्थ हैं मायाचारी के। अब समझना पड़ेगा अपन जैसे हैं, वैसे दिखना पसन्द ही नहीं करते। कोई नहीं पसन्द करता। जिस व्यक्ति का जैसा चेहरा है वो उससे बढ़िया दिखना चाहता है। नहीं, अच्छा आप बताओ, झूठ बोल रहा हूँ तो आप बताओ, सबके लिये है ये अपन सोचते हैं, वो फोटोग्राफर से भी कहते हैं जरा बढ़िया सा फोटो खींचना। अरे अब जैसा है वैसा ही आयेगा, वो क्या करेगा क्या बढ़िया कुछ कर देगा। नहीं, लेकिन सबके मन में कैसा भाव रहता है, जैसा हूँ वैसा नहीं। हमारे मन में अपनी एक इमेज होती है कि हमें ऐसे दिखना चाहिये। हम जैसे हैं वैसे नहीं, कुछ अलग, अपने मन में रहता है कि ऐसे दिखना चाहिये और एक और भाव हमारे भीतर रहता है कि लोग हमें किस तरह देखते होंगे। ये सारी स्थितियाँ कहीं ना कहीं ले जाके हमें मायाचारी की तरफ ले जाती हैं। एक फोटोग्राफर ने अपना संस्मरण लिखा कि उसने जब फोटोग्राफी शुरू की तो उसने अपने यहाँ पर एक बाहर बोर्ड लगा दिया कि आप जैसे हैं वैसा फोटो खिंचवाना हो तो ओनली फाइव रुपीज, सिर्फ पाँच रुपये में। आप जैसा सोचते हैं कि ऐसे हैं या ऐसे होना चाहिये वैसा वाला फोटो - टेन रुपीज (दस रुपये)। आप जैसे लोगों को दिखना चाहते हैं वैसा वाला फोटो ट्वन्टी फाइव रुपीज (पच्चीस रुपये) और उसने लिखा अपने संस्मरण में कि पूरी जिन्दगी में फोटोग्राफी करता रहा, और जो सबसे सस्ता फोटो वो किसी ने नहीं खिंचवाया। सबने 25-25 रुपये वाला फोटो खिंचवाया। कोई नहीं चाहता कि मैं जैसा हैं वैसा मेरा फोटो आये। जबकि वो सबसे सस्ता फोटो। इससे क्या ध्वनित होता है ? हमारे भीतर ऐसा भाव या तो संस्कारवश कह लेवें या कि हमारी असावधानी, अज्ञानता कह लेवें। इस वजह से होता है। यदि हम थोड़े से सावधान हो जायें और इस बात के लिये जागृत हो जायें कि भई जैसे हैं वैसे ही रहें ना। अगर अपने को वैसा नहीं पसन्द करते हैं तो अपने को इम्प्रूव करें। एक चेहरा लगाकर के क्यों जिये ? इतना भी यदि हम अपने मन में विचार कर लेवें, तब बहुत सारी चीजें जो जीवन में हम कर रहे हैं उनका स्टाइल चेंज हो जाएगा। कर्म तो सभी कर रहे हैं, बस कर्म करने के पीछे जो मानसिकता है वो बदलने से कर्म का फल बदल जाता है।
एक ही कर्म 10 लोग कर रहे हैं पर सब अपने-अपने अभिप्राय से कर रहे हैं तो वही कर्म उनके लिये अलग-अलग फल देगा। अभिप्राय बहुत कीमती है। कई बार ऐसा होता है कि अनजाने में नहीं चाहते हुये भी संस्कारवश, हमारा अभिप्राय मायाचारी का हो जाता है और सब इस चीज को जानते हैं कि त्रिलोक मण्डल हाथी का पर्व जीवन अगर किसी को मालूम हो तो वे एक बहुत बड़े मुनि महाराज थे। वे एक गाँव में गये और वहाँ उस गाँव में जिस दिन वे पहुँचे उसके पहले एक और मुनि महाराज थे, वो महीने-महीने उपवास करने वाले बड़े तेजस्वी महाराज थे। वे वहाँ से गये और इनका वहाँ ऐसा कोई इन्सीडेन्स हुआ उसी जगह पर ये जाके बैठ गये। लोग तो इसी इम्प्रेशन में आये कि ये वो ही वाले मुनि महाराज हैं जो तपस्वी हैं और सबने इनकी पूजा-अर्चना करी और वाहवाही करी कि धन्य है हमारा सौभाग्य जो ऐसे महाराज के दर्शन हुए, जो इतने तपस्वी हैं। और ये चुपचाप सुनते रहे भीतर अभिप्राय गड़बड़ा गया। मिल रही है प्रशंसा तो आनन्दित होओ, एन्जाए करो। नहीं हैं वैसे तो भी एन्जाय करो। अभिप्राय खोटा हआ। और इतने से खोटे अभिप्राय से, वे मुनि महाराज चाहते तो कह देते कि मैं वो वाला मुनि महाराज नहीं हूँ जिसकी कि आप प्रशंसा कर रहे हैं, मैं तो आज ही यहाँ आकर बैठा हूँ लेकिन भीतर में, और मन में आ गया कि ठीक है। उतने की वजह से, उस मायाचारी की वजह से तिर्यन्च आयु का बंध हुआ और त्रिलोक मण्डल हाथी की पर्याय प्राप्त हुई। ये प्रथमानुयोग का उदाहरण है। बहुत सावधानी की आवश्यकता है। हमें, हम जैसे हैं, कोई भले ही हमें उससे ज्यादा माने, पर अपने भीतर अपने को उससे ज्यादा नहीं मानना चाहिये। जितना है उतना ही ठीक है। अन्यथा अपने हाथ से हम अपना घाटा करेंगे।
आज यही तो अपन कर रहे हैं। अपनी माली हालत जैसी है उसको किसी को नहीं दिखाना चाह रहे हैं; सबको ये दिखाना चाह रहे हैं कि हाँ उससे भी बेहतर जीवन जी रहे हैं। अपन रास्ते में किसी से मिलो और उससे पूछा - कैसे हो, कहेगा बहुत बढ़िया। कैसा चल रहा है, एकदम बहुत बढ़िया। सामने वाला भी सोचता है, अरे यार सच्ची में ही इनका बढ़िया चल रहा होगा। मैं आपसे यह नहीं कह रहा हूँ कल से आप ऐसा शुरू कर दो कि आपको जो भी मिले उससे कहें कि हमारा तो कुछ ठीक नहीं सब गड़बड़ चल रहा है। लेकिन हम लोगों का कई बार ऐसी चीजें जो न बडी औपचारिकताएँ निर्मित कर ली हैं कि इनमें हम इतने मजबूर हो गये हैं, अपनी इन सब चीजों को जो कि वास्तविकता है उसको हम इगनोर कर देते हैं। और जो वास्तविकता नहीं है उसको हम प्रकट करते हैं। एक बार अगर हमारे जीवन में ये दिखावा आ जावे। फिर हमारे स्टेटस का सवाल है। घर में हमारे जो-जो चीजें है उनमें से अधिकांश रखना सिर्फ लोगों के दिखाने के लिये है। अगर इतनी चीजें नहीं रखेंगे तो फिर बेटे की शादी में इतने ज्यादा पैसे नहीं मिलेंगे और बिटिया की शादी नहीं होगी, बहुत मुश्किल होगा, दिखाना पड़ता है, ये इतना बड़ा घर मेरा और इतना सब कुछ देखिये मैं देऊंगा, उस फाइव स्टार होटल में आपको फर्स्ट क्लास में मेरिज करूँगा तो वहाँ पर इतना दिखावा। जबकि होना क्या है, जीवन जीना है और जो जीवन दिखावे से शुरू हो रहा है उस जीवन में उपलब्धि क्या होगी, भूल जाते हैं हम बहुत सारी चीजें आज दिखावे के लिये, प्रदर्शन के लिये, आ गई जिनका की जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है। चाहे पहनना-ओढ़ना हो, चाहे खाना-पीना हो, गहना हो, सारी चीजों में हम क्या कर रहे हैं ? हमारा अभिप्राय कहीं ना कहीं खोटा हो जाता है। अभिप्राय में हमारे मायाचारी आ जाती है कि ऐसा करूँ जिससे कि लोग इस तरह समझें। ऐसा करने से क्या होगा ? तिर्यन्च आयु का बन्ध होगा। इस तरफ हमारा ध्यान जाना चाहिये। आज जरूर हमने किसी पुण्य से मनुष्य जीवन पाया है लेकिन इस मनुष्य जीवन में अगर हमने इस तरह की चीज अपने जीवन में शामिल कर ली है तो कल के दिन ये वाला जो मनुष्य पर्याय है वो पूरी होने पर मेरी तैयारी कहाँ की होगी। मुझे बहुत आश्चर्य होता है, मुझे लगता था ये सुअर कैसे बनता होगा? कोई जीव तो है उसे शूकर की पर्याय कैसे मिलती होगी ? मांसाहारी जीव भी हो तो उसके छोटे से बच्चे को गोद में लेने का मन करेगा। शेर के बच्चे को भी गोद में लेने का मन करेगा। बहुत प्यारा लगेगा जबकि शूकर के छोटे बच्चे को भी छूना पसन्द नहीं करेंगे। बताओ आप जबकि छोटे बच्चे तो किसी के भी हों, बहुत प्यारे लगते हैं। साँप के बच्चे को भी छोटा बच्चा पकड़ना चाहेगा इतना सुन्दर लग रहा है। लेकिन शूकर के बच्चे को नहीं पकड़ेगा। ये पर्याय कैसे पाई होगी। उसमें लिखा हुआ है कि जो व्यक्ति अत्यन्त अहंकारी होता है और इतना ही नहीं, जो मुनिजनों के साथ कुटिलता का व्यवहार करता है, उनके साथ छल-कपट करता है, वो शूकर की पर्याय ..... जिसे कोई फिर छूना पसंद नहीं करता है। एक किताब निकली है ‘भावत्रयी' जिसमें कौनसी पर्याय हम किस भाव से पाते हैं ये लिखा है, उसमें मैंने यह पढ़ा। बहुत दिन से मन में यह प्रश्न था। अभी पिछले बार की ही ये बात है ये किताब नई फिर से प्रिन्ट हुई और उसमें पढ़ा। ऐसे-ऐसे भाव हमारे हो जाते हैं। हम देखते हैं संसार की विविधता तो हमारे मन में प्रश्न तो उठते होंगे कि ये ऐसा कैसे बना ? ये ऐसा कैसे हो गया होगा? इसने क्या किया होगा? ऐसा अगर हम विचार करें तो कम से कम इतना तो हो सकता है कि वैसे परिणाम होने लगें तो अपने को संभाल लें भैया, अपने को ही करना है। नहीं तो ये स्थिति बनेगी अपनी। इस अपेक्षा से ये लिखा जा रहा है आचार्य भगवन्तों के द्वारा कि अपने परिणाम हम सँभालें कि कैसे परिणाम कर लेने से हमें कैसी खोटी पर्याय प्राप्त हो जाती है और इतना ही नहीं हम लोग फिर अब जब मायाचारी करते हैं और वो छिपती नहीं है वो तो प्रकट हो जाती है तो हम तर्क देते हैं। अपनी मायाचारी प्रकट होने लगने पर ये भी अपन के स्वभाव में है इसको बदलना पड़ेगा।
क्या हुआ एक बार एक व्यक्ति के घर में धोबी होगा। उसके यहाँ गधा था कपड़े वगैरह ले जाने के लिये। तो दूसरा कोई धोबी आया और उसने कहा कि क्यों भैया आज हमारा तो थोड़ा गधा अस्वस्थ सा है आप अपना वाला दे दो। अब उसको तो देना नहीं था, कहीं गया हुआ है ऐसा कह दिया। अब लेकिन गधा तो भीतर बँधा है, उसी समय आवाज आ गई उसकी, जो बाहर लौटने वाला था लगता तो है भीतर है वो मालिक बोलता है कि तुम्हें कैसे मालूम कि भीतर है तो वो बोला कि गधा ही तो आवाज दे रहा है। तो बोला कि निकलो बाहर निकलो मैं ऐसे आदमी पर विश्वास नहीं करता जिसे मनुष्य की आवाज पर तो विश्वास ना हो। मैं कह रहा हूँ मेरी बात पर तो विश्वास नहीं है और गधे की बात पर विश्वास कर रहे हो। आरगूमेन्ट देखो आप, उसका तर्क देखो आप। वो कह रहा है निकलो आप, मैं ऐसे आदमी को गधा दे ही नहीं सकता। जिनको मेरी बात पर भरोसा नहीं है और गधे की बात पर भरोसा है। ये तो एक उदाहरण है ऐसा हम अपने जीवन में कितना कुछ करते हैं कभी याद करें कि अपने काम बनाने के लिये छोटी-छोटी सी चीजों में हम किस तरह से छल कर लेते हैं। किस तरह से दूसरे के साथ कपट कर लेते हैं। दूसरे के साथ तो छोड़ो अन्ततः वह होता अपने ही साथ है। आत्म प्रवंचना सबसे निकृष्ट मानी गई है। सोचते हैं दूसरे को ठग रहे हैं पर ठगते स्वयं को हैं। अच्छा, जिनके बाल सफेद हो जाते हैं तो वो अपने बालों में खिजाब लगाकर उसको काला बनाते हैं। तो क्या वो दूसरे को ठग रहे हैं, अरे अपने को ठग रहे हैं। एक व्यक्ति को बहुत सारे काले बालों में एक सफेद बाल दिखा। उसने उखाड़कर उसे अलग कर दिया। लोगों ने बोला क्यों ? तो बोले - अरे इतने सारे काले बालों में वो सुन्दर नहीं लगता था इसलिये ही तो अलग कर दिया जबकि भीतर में स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, अब बुढ़ापा आने वाला है। अब मेरे जीवन का अन्त निकट आने वाला है। इस बात को स्वीकार नहीं कर पाने की वजह से हम अपने साथ छल कर रहे हैं और उसको या तो काला बनाने की प्रक्रिया करते हैं या उसको हटाने की प्रक्रिया करते हैं। ये छोटा सा उदाहरण है कैसे हम अपने जीवन में अपने आपको ठगते हैं। आपके यहाँ पर वो कवि उन्होंने लिखी है एक कविता -
धोखा देने वाला धोखा दे रहा है इस अदा से कि वो जो
दे रहा है धोखा नहीं है, ऐसा नहीं है कि खाने वाला बुद्ध है।
धोखा खाने वाला धोखा खा रहा है इस अदा से कि वो जो
खा रहा है वो धोखा नहीं है।
धोखा धोखा होने के बाद भी फल रहा है,
दोनों मजे में हैं दोनों का काम चल रहा है।
दोनों का काम चल रहा है। धोखा देने वाले का भी, धोखा खाने वाले का भी। जो धर्म की जगह पर अधर्म का उपदेश करें तो वह भी अभिप्राय का खोटापन है जिससे कि तिर्यन्च आयु का बंध होता है। अत्यन्त छलकपट में रुचि लेना, स्वयं तो छलकपट करना ही लेकिन अगर कोई नहीं जानता है तो उसे भी छलकपट करने के लिए प्रेरित करना। अरे तुम तो ऐसा करो, तुम्हारा काम बन जाएगा। ऐसा भी अपन करते हैं। स्वयं तो कर ही रहे हैं लेकिन दूसरे को भी वैसा छल कपट करने की सलाह देते हैं। यह भी हमारे लिये तिर्यन्च गति में ले जाएगा। जाति, कुल और शील में दूषण लगाना। दूसरे के लिये इस तरह अपवादित कर देना। उससे भी तिर्यन्च आयु का बंध होता है। क्योंकि आपने दूसरे को अपवादित करके उसका भी तिरस्कार करना चाहा था, इसलिये आपको भी बाद में तिरस्कार मिलेगा। उस पर्याय में जीवन भर तिरस्कार मिलेगा और फिर कह रहे हैं कि विसंवाद करने में रुचि लेना। झगड़ा सुलझता हो इसमें रुचि नहीं, झगड़ा कैसे होता हो, इस बात में रुचि लेना। कैसे और बढ़ जावे ऐसे विसंवाद से अपन को बचना चाहिये।
झगड़े की भी जड़ क्या होती है ? दूसरे के तिरस्कार का भाव और तो कुछ नहीं होता। फिर कहते हैं मिथ्या साधनों से आजीविका चलाना। स्पष्ट है आज वर्तमान में अपनी आजीविका के लिये कैसे-कैसे धोखाधड़ी के काम करना पड़ रहे हैं, एक तरफ तो बहुत परिग्रह जोड़ने की लालसा और उससे अगर बच भी गये तो दूसरी तरफ इस तरह छल-कपट के परिणाम के साथ तो तिर्यन्च आयु बँधेगी और जीवन भर फिर तिरस्कार ही होता रहेगा और फिर कह रहे हैं कि सद्गुणों का लोप करना। ये बहुत देखने में आता है। दूसरे के सद्गुण देखने की इच्छा नहीं होती। दुर्गण की दृष्टि जाती है और जब क्या होता है किसी के भीतर सद्गुण हैं और वो ना देखे जायें तो उनका लोप ही हो गया। बताइये किसी के अन्दर, वो तो ये कह रहे हैं कि सौ भी दुर्गुण हैं लेकिन एक सद्गुण है तो हमें तो सद्गुणों को देखना चाहिये और अगर हम दुर्गुण को देख रहे हैं तो धीरे-धीरे वो सद्गुण भी उसके भीतर से लुप्त हो जायेगा। तब इस प्रवृत्ति से बचना चाहिये कि अपन दूसरे के भी दुर्गुणों को देखें।
और आखरी बात बहुत अधिक आर्त परिणाम के साथ मरण करना। बहुत आर्त परिणाम, बहुत दुःख के परिणाम के साथ को जो प्राप्त होते हैं तब उनके लिये भी यही दुःखद स्थिति प्राप्त हो जाती है। हमें यह सावधानी रखनी चाहिये। कोई हमारे आस-पास अगर मरण के समय बहुत आर्त ध्यान करता है हमें समझना चाहिये और स्वयं भी अपने जीवन में हमें सावधानी रखनी चाहिये कि ज्यादा आर्त परिणाम करूँगा, तिर्यन्च आयु बँधेगी, क्योंकि आयु का बंध कभी भी हो सकता है। हमारे परिणामों से रोज एक ही परिणाम से सातों कर्मों में स्थिति अनुभाग पड़ेगा किसी में कम किसी में ज्यादा। ये उसका केलकुलेशन है। मैंने उसके बारे में ज्यादा डिटेल आपसे नहीं कहा। उसका सामान्य रूप से एक उदाहरण है कि अगर एक ग्रास भी हम खाते हैं तो वह सात धातुओं में कन्वर्ट होगा, ठीक इसी तरह से एक परिणाम करते हैं तो सबमें हिस्सा जाता है उसका। जो जिस भाव से किया जा रहा है उसमें थोड़ा डोमिनेट रहेगा बाकि सबमें थोड़ा-थोड़ा जाएगा। लेकिन आयु कर्म की प्रक्रिया बिल्कुल अलग है। ये जितनी भी अपन चर्चा कर रहे हैं आयु कर्म की कर रहे हैं।
इसमें तो आठ मौके आते हैं पूरे जीवन में, जिसमें कि कभी भी हमें आयु बंध सकती है। दो-तिहाई जीवन बीतने पर पहला मौका, शेष बचेगी उसका दो-तिहाई बीतने पर दूसरा मौका, शेष बची फिर दो-तिहाई बीतने पर तीसरा मौका। 81 साल की आयु है तो चौवन साल में पहला मौका आयु बंध का आयेगा, शेष 27 में जब 18 निकल जाएँगे, दूसरा मौका, बची 9 में से फिर 6 निकल जाएँगे तब तीसरा मौका, बची 3 साल में से फिर दो साल निकल गये चौथा मौका। 1 वर्ष बची उसमें से फिर 8 माह निकल गये फिर पाँचवाँ मौका। 4 महीने बची, मोटा हिसाब 3 महीने निकाल दो, छठा मौका। 1 महीना बचा उसमें से भी बीस दिन निकल गये सातवाँ मौका। 10 दिन बचे उसमें से भी 6 निकल गये आठवाँ मौका। फिर भी नहीं बँधी तो एक आवली एक समय मरण से पहले आयु बँधेगी। बस इतने ही अवसर हैं आयु बँध के। और इनमें हमें नहीं मालूम कि कब आयेगा वो अवसर और उस समय हमारे परिणाम कैसे होंगे? बस जैसे होंगे वैसी ही आयु मिल जायेगी। जीवन भर अच्छा किया है और आयु बंध के समय चूक गये। मुनि महाराज ने जीवन भर तपस्या करी थी और आयु बँध का वो ही समय था जिस समय उनके भीतर छल-कपट आया। तिर्यन्च होना पड़ा बहुत बाद में उनको अपने पुण्य का भी फल मिला।
जैसे हम देखते हैं कि कुत्ता तो हो जाता है लेकिन कार में घूम रहा है ए.सी. में। जीवन भर के पुण्य अभी हैं तो लेकिन आयु बंध के समय चूक गये थे सो वह पर्याय मिली। कई मनुष्य हैं जो आयु बंध के समय अच्छे परिणाम करके मनुष्य बन गये हैं लेकिन जीवन भर दाने-दाने को तरसते हैं पशुवत् जीवन जीना पड़ता है। ये बात हमें अपने जीवन में अनुभव में रोज देखने में आती है इसीलिये बहुत सावधानी की आवश्यकता है इन आयु बंध के समय, एक दिन में आयु के बंध की चर्चा कर रहा हूँ। चाहता तो मैं चारों आयु बंध की एक दिन में ही कर सकता था कि ठीक है इन परिणामों से आयु बँधती है, लेकिन बहुत सेन्सीटिव मामला है आयु के बंध का, तो इसके मायने हैं कि हमें हमेशा सावधानी रखनी चाहिये। अभी थोडा बहत कर लो क्या फर्क पडता है। बाद को सँभाल लेंगे। नहीं. उस समय अगर हम चूक गये तो हमेशा के लिये चूक गये, ऐसा सोचकर के सावधानी रखने की आवश्यकता है और मायाचारी से बचने का भाव, अपने अभिप्राय को खोटा नहीं होने देने का भाव और सावधानी हमेशा बनाये रखें। एक छोटा सा उदाहरण है कि एक सेल्समैन की नियुक्ति की गई थी। वो विदेश की कोई महिला थीं यहाँ इण्डिया में, बहुत सच्ची घटना है। तो वो लेडिज़ सेल्समैन थीं और उनका काम सिर्फ यह था कि जो कस्टोमर आये उसको, सिर्फ उसकी पसन्द में मदद करना। उसको कपड़े पसंद करवाने में, उसकी हैल्प करना। च्वाइस के मुताबिक सिर्फ इतना काम था। एक आई फेमिली तो उसमें उनको एक साड़ी खरीदना था, उनको जो साड़ी पसन्द आ रही थी माँ को, सेल्समैन उनसे कह रही थीं कि ये आपके शरीर पर इतनी बढ़िया नहीं लग रही, आप दूसरी ये ले लीजियेगा और वाकई में वो जो दूसरी, जिसकी सलाह दे रही थी वो बहुत अच्छी थी। लेकिन अब क्या करें कस्टमर का मन वही है, वो उनको मने और लोगों को देखने में उतनी अच्छी नहीं लग रही थी वो ही लेके गईं। और जब वो लेके चली गई तो जो और कस्टमर थे उन्होंने कहा कि आप वो दिखाइयेगा जो आप उनके लिये सजेस्ट कर रही थीं, वो साड़ी हमें दिखाइयेगा। पूछा कि कितनी कीमत है बोले क्या बताऊँ, ये तो कुल 300 रुपए की है वो जो ले गई हैं वो तो 500 रुपए की थी। मैं उनको ये सजेस्ट कर रही थी कि ये आपके ज्यादा अच्छी लगेगी। तो उस कस्टमर को बड़ा आश्चर्य हुआ। असल में, जो व्यक्ति जितना निश्चल होगा वो उतना प्रामाणिक होगा। निश्छलता से और निष्कपट होने से प्रमाणिकता आती है। विश्वास बनता है। हम सोचते हैं कि छल-कपट करने से लाभ होगा। नहीं ..... प्रामाणिकता नहीं बनती। कोई भी व्यक्ति हमें प्रमाणिक नहीं मानेगा अगर हम उसके साथ छल कर रहे होंगे तो। जब ग्राहक ने कहा कि आप तो इतनी बड़ी सेल्समैन हैं। आप उन्हें जब वो 500 वाली पसन्द कर रहे थे तो आप उन्हें 300 वाली क्यों पसन्द करने को कह रहे थे कि ये ज्यादा अच्छी लगेगी। तो मालूम उन्होंने क्या कहा कि मैं यहाँ पर अपने ग्राहक के साथ छल करने के लिये नियुक्त नहीं की गई हूँ बल्कि उसकी पसन्द को समर्थन करने के लिये नियुक्त की गई हैं। मुझे उससे छल करके क्या करना है ? मैं अपनी दुकान में 500 की कीमत की राशि बेचने के लिये उसको ये कहूँ कि नहीं ये अच्छी लग रही नही 300 की अच्छी लग रही है तो मैं उनसे यही कहूँगी कि ये ही अच्छी लग रही है। ये एक उदाहरण है। ऐसा क्या अपने जीवन में अपन नहीं कर सकते हैं। लेकिन अपन तो जल्दी से अपना ईमान खो देते हैं। छोटी-छोटी सी चीजों को लेकर के, वो भी सांसारिक चीजों को लेकर के। और जल्दी से अपने परिणाम खोटे कर लेते हैं। अभिप्राय अपना अच्छा रहे, दिखावे का ना रहे। दूसरे को ठगने का धोखा देने का ना रहे। जीवन भर अगर हम इस चीज को बनाये रखें तो फिर निश्चिन्त हो जायें कि हमको फिर अब तिर्यन्च में नहीं जाना पड़ेगा। हमने ऐसे परिणाम ही नहीं किये जिससे कि हमें उस स्थिति को प्राप्त करना पड़े। इसी भावना के साथ कि हम हमेशा अपने परिणाम सँभालते रहें। उन चीजों से बचें जो कि हमारे लिये अहितकारी हैं।
ऐसे भावों के साथ बोलिये आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी मुनि महाराज की जय।
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