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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

कर्म कैसे करें? भाग -17


Vidyasagar.Guru

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हम सभी लोगों ने पिछले दिनों ये अनुभव किया है कि यदि हम बहुत गौर से देखें तो इस संसार में अच्छा और बुरा कुछ भी नहीं है। ये हमारी कल्पना है। हमारा राग-द्वेष है। जिन चीजों में हमारा राग होता है, वो चीजें हमें अच्छी जान पड़ती हैं, इष्ट मालूम पड़ती हैं और जिन चीजों में हमारा द्वेष होता है वे चीजें हमें अनिष्टकारी और बुरी जान पड़ती हैं। चीज तो चीज होती हैं न वो भली होती हैं न वो बुरी होती हैं। लेकिन क्या करें, हमारे संस्कार अनादि काल के ऐसे हैं कि हम चीज को चीज की तरह नहीं देखते, वस्तु और व्यक्ति को वस्तु और व्यक्ति की तरह नहीं देखते बल्कि हम अपने राग-द्वेष से प्रेरित होकर के वस्तु और व्यक्ति को भला और बुरा, अच्छा या बुरा इस तरह के भाव से ही देखते हैं। जिन्दगी ऐसी भी नहीं है कि जैसे शतरंज के खाँचे होते हैं एक सफेद है तो एक काला है। सब लोगों के जीवन में हमेशा सुख के बाद दुःख-दुःख के बाद सुख ऐसा कोई क्रम है, ऐसा भी नहीं है। 


जिसे हम आज अपना मान रहे हैं वो कल हमारा शत्रु हो सकता है और जिसे हम आज अपना शत्रु मान रहे हैं वो कल हमारा मित्र हो सकता है। इतना परिवर्तनशील है ये संसार। और वो परिवर्तन हमारे अपने परिणामों का ही है। हमारे अपने राग-द्वेष का ही परिवर्तन है। जैसा हमारे मन में भाव होता है वैसा हम संसार में चीजों को और व्यक्तियों को देख लेते हैं। आचार्य भगवन्तों ने हमें बार-बार इस बात की सावधानी रखने की कही है कि ठीक है किसी को हम शत्रु मानते हैं आज, किसी को हम मित्र मानते हैं आज, ठीक है पर थोड़ा विचार करना कि कोई हमेशा शत्रु नहीं होता, कोई हमेशा मित्र नहीं होता। मैत्री भाव सबके ऊपर रखना यही सबसे श्रेष्ठ है। मैत्री जो है वो शत्रु और मित्र से ऊँची चीज है। जिससे हम प्राणी मात्र के प्रति अपने मन में करुणा का भाव रखते हैं। अभी तो हमारी करुणा भी जो है वो विभाजित हो जाती है अपने और पराये के भेद से। जो अपने हैं उनके प्रति हमारे मन में दया है, करुणा है और जिन्हें हम पराया समझते हैं उनके प्रति हमारे मन में दया और करुणा नहीं उमड़ती है। होनी हमारी दया और करुणा ऐसी चाहिये कि प्राणी मात्र पर हो। असल में, ये जो हमारी अपनी राग-द्वेष की प्रक्रिया है, वो ही हमारे लिये इष्ट-अनिष्ट की कल्पना कराती है। भले-बुरे की कल्पना कराती है। शत्रु और मित्र की कल्पना कराती है और फिर मजा ये है कि इससे भी आगे ले जाती है। जो मेरा मित्र है उसमें मुझे कोई दोष नहीं दिखाई पड़ता और जो मेरा शत्रु है उसमें मुझे कोई गुण दिखाई नहीं पड़ता। माँ को अपना बेटा कितना भी बुरा क्यों न हो, उसमें कोई दोष दिखाई नहीं पड़ता। कोई आकर के उसकी कितनी ही शिकायत करे, माँ यही कहेगी कि मेरा बेटा अच्छा है तुम बेकार परेशान मत होओ। उसका अपना मोह, उसका अपना राग, उसका अपना मोह और हमारा अपना जो राग है वो वस्तु और व्यक्ति को इसी तरह या तो गुणों से युक्त देखता है अथवा दोषों से युक्त देखता है। गुण और दोष किसमें कितने हैं? कोई भी ऐसा नहीं है जो सिर्फ गुणवान हो, कोई भी ऐसा नहीं है जो बिल्कुल दोषों से युक्त ही हो। आचार्य महाराज ने तो लिखा कि हरेक व्यक्ति के अन्दर और चाहे कुछ हो या ना हो, एक गुण अवश्य होता है। ठीक ऐसे ही जैसे गरीब आदमी की झोपड़ी हो, चाहे किसी का आलीशान मकान हो, आने-जाने का दरवाजा तो सबमें होता है। ठीक इसी तरह सबमें एक गुण होता है। हमारी देखने की दृष्टि हो तो हम उस गुण को इतना बड़ा करके देखें कि सिर्फ वही दिखे और दोष न दिखें। अगर हमारी दृष्टि कलुषित है तो वो गुण क्या और भी सैकड़ों गुण हों तो वो भी नहीं दिखाई देते। एक दोष हो तो इतना बड़ा करके देखते हैं कि जिसके भीतर सारे सौ गुण भी ढक जाते हैं। “परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य।” 


दो सूत्रों में हमारे जीवन का स्टेटस डिसाइड कर दिया आचार्य भगवन्तों ने। हमारे कर्म हमें क्या ऊँचाई दे सकते हैं और कितना नीचा गिरा सकते हैं ये डिसाइड कर दिया है। और कोई नहीं गिराता हमें, ना कोई हमें ऊँचा उठाता है, हमारे अपने गुण और दोष देखने की जो प्रवृत्ति है वो हमें ऊँचा उठाती है और नीचा गिराती है। भैया, जो व्यक्ति दूसरे को बुरा कहे उससे यह बात तो तय हो जाती है कि स्वयं ये भला आदमी नहीं है और बाकी चीज तय हो, चाहे ना हो। दूसरे को बुरा कहे इससे यह तो पक्का हो गया कि भला आदमी नहीं है दूसरों को बुरा कहने वाला कभी भला हो नहीं सकता और जो दूसरे को भला कहे इससे यह तय हो गया कि स्वयं तो भला है, दूसरा भला होवे या ना होवे वो अपनी जाने। आचार्य भगवन्त इसी बात को सूत्र में कह रहे हैं कि 'परात्मनिन्दाप्रशंसे।' दूसरे की निन्दा करना और अपनी प्रशंसा करना। “सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने” इतना ही नहीं दूसरे के विद्यमान गुणों को ढकना और अपने अविद्यमान गुणों का ढिंढोरा पीटना। क्या दूसरे की निन्दा करना, अपनी प्रशंसा करना और दूसरे के विद्यमान गुणों को भी ढक लेना, प्रकट नहीं होने देना और अपने अविद्यमान जो अपने भीतर हैं ही नहीं गुण, उनका ढिंढोरा पीटना। ये सब बातें, ये सारे कर्म हमें कहाँ ले जाते हैं, नीच गोत्र की तरफ ले जाते हैं, और नीच गोत्र का बंध मिथ्यात्व के साथ होता है। 

सबसे पहले दृष्टि की निर्मलता नष्ट होगी, उसके बाद में हमें साथ में नीच गोत्र का बंध होगा। ये जितने पशु हैं एक इन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक जो पशु हैं ही और जो संज्ञी पंचेन्द्रिय हैं उनमें भी नीच गोत्र का ही उदय चलता है, ध्यान रखना। मनुष्य में नीच गोत्र, उच्च गोत्र दोनों हो सकते हैं। क्या कहलाता है ये नीच गोत्र उच्च गोत्र। जिस कुल में जिस जाति में उत्पन्न होने पर धर्म की परम्परा जहाँ चलती हो, अभक्ष्य-भक्षण न होता हो, मद्य, मधु, मांस का सेवन न होता हो, जो लोक में निन्दनीय ना हो ऐसे कुल को उच्च कुल कहते हैं। शेष सब नीच कुल हैं। जहाँ धर्म की परम्परा नहीं है, जहाँ सदाचरण नहीं है जहाँ लोकनिन्द कार्य किये जाते हैं, ऐसे परिवार में उत्पन्न होना ये अपने नीच गोत्र का उदय है और ये नीच गोत्र बँधता कैसे है ? ये लिख दिया एक सूत्र में, चार बातें लिख दीं। “परात्मनिन्दाप्रशंसे'। दूसरे की निन्दा करते रहना और अपनी प्रशंसा करते रहना, अपना बड़प्पन हमेशा बताते रहना। दूसरे की निन्दा, मतलब दूसरे के दोषों को प्रकट करना। होने पर और नहीं होने पर दोनों कह रहे हैं। दूसरे के दोष होने पर भी और नहीं होने पर प्रकट करना यह भी नीच गोत्र का बंध है और जो दोष नहीं है वो भी प्रकट करना सो तो है ही। जो दोष उसके भीतर हैं उनको भी प्रकट नहीं करना तब जाकर काम बनेगा, उच्च गोत्र का। 


हमने वर्तमान में अगर उच्च गोत्र पाया है, ऊँचाई हासिल की है, अच्छा स्टेटस है, समाज में जो मान्य कुल प्राप्त हुआ है हमें, लोक निन्दनीय कुल प्राप्त नहीं हुआ है हमें, उसके लिये हमने क्या पुरुषार्थ किया होगा पूर्व जीवन में इस पर विचार करना और जिन्होंने यह चीज प्राप्त नहीं की है उन्होंने क्या किया होगा दूसरे के विद्यमान और अविद्यमान किसी भी तरह के दोषों को प्रकट नहीं करना। बताइये ऐसा हो पाता है अपन से। अपन तो दूसरे के दोषों को ही देखने की प्रवृत्ति अपने भीतर निर्मित कर चुके हैं। ऐसी आदत पड़ गई है कि किसी पर भी दृष्टि जाती है तो सबसे पहले उसमें जो खोट है, उसमें जो कमियाँ हैं वो दिखाई पड़ती हैं, उसमें क्या भलाई है, क्या अच्छाई है, दिखाई नहीं पड़ता। बताओ तो ऐसी दृष्टि लेकर के हम अपने जीवन को कहाँ ले जाने की तैयारी कर रहे हैं ? ये स्वयं विचार करना पड़ेगा और फिर इस आदत को बदलना पड़ेगा। हम लोग तो इस आदत को बदलने की जगह पर तर्क और देते हैं।


एक व्यक्ति चला जा रहा था रास्ते से। सामने जो है दूसरा और थोड़े आगे जा रहा था। एक केले का छिलका पड़ा था। उस पर वो पैर पड़ा उसका फिसल गया। गिर गया। गिर गया तो हँसना शुरू कर दिया जो पीछे था उसने, सामान्य सी बात है। कोई अगर फिसल कर गिर जाए तो दूसरे को मौका मिलता है हँसने का, लेकिन वो ये भूल गया कि एक छिलका और पड़ा है वहीं पर सो इनका भी उस पर पैर पड़ा और ये भी गिरे। अब गिरे तो सब लोग हँस पड़े। तो मालूम है उन्होंने क्या तर्क दिया, कि अच्छा किया भगवान् जो मैंने पहले दूसरे के गिरने पे हँस लिया। अब तो मैं हँस ही नहीं सकता, अब तो लोग हँसेंगे मेरे ऊपर। अच्छा हुआ मैंने पहले हँस लिया। बताइये आप। दूसरे पे हँसने को भी हम अच्छा मानते हैं कि हमने अच्छा किया जो पहले हँस लिये फिर तो हमें गिरना ही है और फिर तो लोग हँसेगें, हम थोड़े ही हँस पाएँगे। ये लोजिक दिया। 


दूसरा हमारी बुराई करे इससे पहले हम उसकी कर लें। सीधी-सीधी बात। इसकी बुराई करके मजा ले लें और फिर बाद में अपनी बुराई करवाने के लिये तैयार रहें। ये इस तरह से हमने संसार में आदत डाल ली है। सोचें, हम यदि दूसरे को बेईमान कहे और दूसरा हमें बेईमान कहे तो बताइये आप, ईमानदार तो फिर कोई भी नहीं रह जाएगा। लेकिन इतनी छोटी सी बात अपन के समझ में नहीं आती है और इतना ही नहीं एक बार जब दोष देखने की आदत पड़ जाती है तो संस्कार फिर इतना गहरा हो जाता है कि अपने दोष फिर दिखाई नहीं पड़ते। ये ध्यान रखना। एक सबसे बड़ी हानि है दूसरे के दोष देखने में, सबसे बड़ी हानि कि कभी भी अपने दोष देखने का अवसर ही नहीं मिलता। दूसरे के दोष देखने की आदत इतनी पड़ गई कि वक्त ही नहीं मिलता अपने दोष देखने का। और इतना ही नहीं अपने को दोषी होने के बाद भी अच्छा मानने का मजा भी हम ले लेते हैं। देखा वो ऐसे हैं, वो कैसे हैं, हम कैसे हैं, हम तो ठीक हैं, ठीक नहीं होने के बाद भी अपने ठीक होने का भ्रम पैदा हो जाता है। दूसरा दोषी नहीं है, फिर भी हम उसको दोषी ठहराना शुरू कर देते हैं। इससे हमारे भीतर अपने दोष देखने की प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है और अपने दोषी होने के बाद भी हम अपने को ठीक मान लेते हैं और चौथी चीज कि हम कभी अपने दोष अपने में से निकाल नहीं पाते हैं। दूसरे के गुणों को भी हम अपने भीतर ग्रहण नहीं कर पाते। रिसेप्टीविटी हमारी खत्म हो जाती है। इतना लॉस होता है। दूसरे के दोष देखने की आदत अपने भीतर निर्मित करने से और है ये प्रकृति 99 प्रतिशत हम सबके जीवन में। एक प्रतिशत होगा थोडा हमारा जीवन ऐसा जिसमें कि हम दसरे के दोष न देखते होंगे. बाकी 99 प्रतिशत हमारे सबके जीवन में दूसरे के दोष देखने की प्रवृत्ति है। जहाँ कुछ अच्छा भी है वहाँ भी हम दोष देखना शुरू कर देते हैं और जहाँ दोष युक्त हैं वहाँ तो हैं ही। और आत्म-प्रशंसा, अपने अन्दर कोई गुण नहीं भी है तब भी अपने को गुणवान मान लेने का भ्रम या कि दूसरे से अपने को गुणवान कहलाने का एक प्रयत्न। निरन्तर चलता रहता है, और फिर इतना ही नहीं, वही गलती फिर हम करें जो दूसरा कर रहा है तो वो अपन को नहीं दिखाई पड़ती। 


यहाँ की एक घटना है अचानक एक दिन मुझे एक कटिंग मिल गई, मैंने उसमें पढ़ ली। जयपुर में कोई नन्दनभट्ट हुए हैं, यहाँ पर बहुत पहले। उनके जीवन की है। किसी राजा के दरबार में कवि रहे हैं और इतने प्यारे व्यक्ति थे, राजा अगर किसी से नाराज हो जावे तो राजा को समझा-बुझा करके और उस व्यक्ति के प्रति जिसके प्रति नाराजगी है क्षमा दिलवा देते थे। किसी ने गलती की हो, उससे राजा नाराज हो तो भी, राजा के अंतरंग मित्र थे ये बहुत अभिन्न, तो राजा को समझा-बुझाकर कि अरे छोड़ो, क्या करना राजा साहब, आप तो इतने महान हो। वो गलती करता है तो करने देवो, आप तो माफ करो, माफ करवा देते। बड़ा उनका राजा के प्रति सद्भाव था, राजा भी उनको बहुत मानते थे |


एक बार क्या हुआ कि राजा के जन्मदिन पर सभी जितने सामन्त थे वे राजा के लिये मंदिर में प्रार्थना करते थे, उनके दीर्घायु के लिये। तो एक सामन्त ने ईर्ष्यावश, ये ईर्ष्या नाम की चीज जो ना कराये सो कम है, हाँ यह सबके भीतर है। उसमें लिखा है आत्मानुशासन में। ईर्ष्या एक साधु की आखरी कमजोरी है। श्रावक तो छोड़ो, गृहस्थ तो छोड़ो, आत्मानुशासन में गुणभद्र आचार्य लिख रहे हैं एक साधु की भी अंतिम कमजोरी अगर है, सज्जन पुरुष की भी, मुनिजनों की भी कह रहे हैं साधुओं की अंतिम कमजोरी है तो ईर्ष्या। बर्नाड शाह से जब पूछा गया था कि सैकण्ड वर्ल्ड वार का क्या कारण था ? तो उसने कहा कि दो कारण थे ज्वेलसी एण्ड ज्वेलसी। तो उन्होंने कहा कि तीसरे वाला अगर होगा तो? उन्होंने कहा तीन कारण, ज्वेलसी, दी ज्वेलसी एण्ड ज्वेलसी। तीन कारण। एक ही कारण है संसार बढ़ाने का, ईर्ष्या। गुणों को सहन नहीं कर पाना, तो दोष देखना शुरू हो जाता है, गुणों को सहन नहीं कर पाये तो और एक सामन्त दूसरे के गुणों को सहन नहीं कर पाया और उसने जाकर के राजा से शिकायत करी, जैसे अपन करते हैं। 


वो तो कहानी है जीवन में भी अपन देखते हैं तो क्या शिकायत करी, ये जो सामन्त है वो आपकी दीर्घायु की कामना नहीं करता, मंदिर में बैठकर के भगवान के सामने इसकी एकाग्रता ही नहीं रहती। यहाँ-वहाँ देखता रहता है। अच्छे मन से वो आपके लिये प्रार्थना ही नहीं करता। ऐसी शिकायत कर दी। बस राजा तो राजा होते हैं। आ गई उनके सनक। ठीक है राज दरबार में और राजमहल में आना इसका बन्द। बाहर कर दो इसको। ऐसा आदेश जारी करने की मंत्रियों को आज्ञा दे दी। नन्दनभट्ट को मालूम पड़ा तो फौरन राजा के पास आये। क्या बात हो गई ? अरे वो-वो जो सामन्त है, मेरे लिये ठीक-ठीक प्रार्थना ही नहीं करता दीर्घायु की। यहाँ-वहाँ उसका ध्यान रहता है। “किसने कहा ये किसी दूसरे सामन्त ने आकर कहा। तब तो आपको इस पर फिर से विचार करना चाहिये। इसमें फिर से विचार करने की क्या बात है ? बोले, “फिर भी आप विचार कर लीजिएगा एक बार उस व्यक्ति को दण्डित करने से पहले।" अगर वो वाला सामन्त दीर्घायु की कामना करते समय एकाग्र नहीं है, यहाँ-वहाँ देख रहा है तो जिसने शिकायत की है वो क्या कर रहा था? है ना, इसका मतलब उसको देखने में लगा हुआ था। दूसरे के दोष देखने वाला किस तरह दोषी था, ये समझने की चीज है। उदाहरण से। देख लो आप, वो तो अपना कोन्सन्ट्रेशन नहीं रख पा रहा है प्रार्थना के समय, लेकिन आप अपना कोन्सन्ट्रेशन अगर आपका है तो आपको ये दिखाई कैसे पड़ा कि उसका कोन्सन्ट्रेशन नहीं है। आपको अपनी एकाग्रता से प्रार्थना करनी थी। आपको दिख कैसे गया कि ये प्रार्थना के समय एकाग्र नहीं है। हम सबसे पहले स्वयं दोषी होते हैं जब दूसरे के दोष देखना शुरू करते हैं। वे ही दोष हमारे भीतर भी है, जो हम दूसरे के भीतर देखते हैं। बहुत सावधानी की आवश्यकता है कि हम दूसरों के दोष देखने से पहले और अपने गुणों की प्रशंसा करने से पहले विचार तो कर लेवें। और इतना ही नहीं, जब ये आदत निर्मित हो जाती है तो फिर दूसरी आदत उसके साथ में ही निर्मित होती है। 


इसलिये आचार्य भगवन्तों ने वो भी लिख दिया कि दूसरे में विद्यमान गुण भी दिखना बन्द हो जाते हैं फिर उनको हम ढकना शुरू कर देते हैं। जब दूसरे के दोष देखना शुरू करते हैं तो उसके गुणों को हम ढकते चले जाते हैं और इतना ही नहीं अपने भीतर के जो अविद्यमान गुण हैं उनको भी हम कहना शुरू करते हैं, उनका भी ढिंढोरा पीटना शुरू करते हैं। क्योंकि हमारे मन में फिर ये भावना आ जाती है कि मेरी प्रशंसा होनी चाहिये। जहाँ आत्म-प्रशंसा का भाव है वहाँ गुणवत्ता नहीं होगी। वहाँ तो झूठी गुणों को भी प्रकट करने की भावना ही जागृत होगी। और ऐसा व्यक्ति कभी गुणवान नहीं हो पाता। ये सबसे बड़ी क्षति होती है। यदि हम इससे विपरीत करना शुरू कर देवें तो हमारे जीवन में ऊँचाई आना शुरू होगी। हमारा स्टेटस ऊँचा होगा। हम जब ये सोचते हैं कि बहुत बड़ा मकान हमारे पास है, बहुत कारें हमारे पास में हैं, बहुत पैसा हमारे पास में है, अच्छा स्टेटस है, यह स्टेटस सिम्बल नहीं है। स्टेटस सिम्बल ये है कि कौन व्यक्ति अपनी निन्दा और दूसरे की प्रशंसा करता है। दूसरे की निन्दा करने वाले का स्टेटस बहुत क्षुद्र व्यक्ति का है, जो दूसरे की निन्दा करता है और बहुत महान है वह जो दूसरे के अवगुणी होने पर भी प्रशंसा ही करता है। बहुत महान् व्यक्ति ही हो सकता है जो अवगुणी में से भी कोई गुण देख ले। जैसे श्रीकृष्ण रास्ते से चले जाते थे और एक कुत्ता मरा हुआ पड़ा था दो-तीन दिन का। बदबू आ रही थी लेकिन वे खड़े होकर के चुपचाप देख रहे थे। बलराम ने कहा कि चलो अरे इतनी बदबू आ रही है। कहने लगे, “वो तो छोड़ो, दाँत तो देखो कितने बढिया हैं। अब बताओ आपमें व हमारे जीवन में भी ये चीजें आ सकती हैं। हम सोचते हैं कि बाह्य व्यक्तित्व ऊँचा होने से ही हमारा स्टेटस बढ़ जाएगा। नहीं, अंतरंग में इतनी ऊँचाई होनी चाहिये कि अवगुणी के भीतर भी कोई एक-आध गुण देख सकें हम और उसकी प्रशंसा कर सकें और अपने भीतर सैकड़ों गुण होने के बाद भी अपने एक-आध दोष देखकर अपनी निन्दा कर सकें। 


ऐ भैया, हम कुछ विशेष नहीं हैं हमारे में तो बहुत से अवगुण हैं। ऐसा कहने का साहस बहुत कठिन है। अपने एकाध अवगुण को भी नहीं छिपाना और दूसरे के सारे अवगुणों को छिपाकर के एकाध भी गुण हो तो उसकी प्रशंसा करना, ये है ऊँचे होने की विद्या। अगर हम आज अपने को बहुत ऊँचा और बहुत अच्छे कुल का मानते हैं तो हमने पहले ऐसा ही कुछ करा होगा। इतने बढ़िया विचार हमारे रहे होंगे और आज भी अगर ऐसे अच्छे विचार हमारे हैं तो ठीक है निश्चिन्त रहें हमारा भविष्य बहुत ऊँचा है, अन्यथा यदि हमारे विचार घटिया हो गये हैं कि हम दूसरे की निन्दा में रुचि लेते हैं और अपनी प्रशंसा सुनने और दूसरे की निन्दा सुनने को तत्पर रहते हैं, हमेशा ये आँखें दूसरे के दोष देखने और अपने गुण देखने में लगी रहती हैं। तो समझना कि ये आँख और कान दोनों हमारा ज्यादा फायदा नहीं कर रहे हैं। मैंने पर्वत की चोटी से नीचे खड़े होकर के कहा कि जब तक मैं इस पर्वत की चोटी पर नहीं पहँचा तब तक ही ये पर्वत ऊँचा है, तो पर्वत बोला कि अरे मैं तो किसी के सिर पर पैर रखकर ऊँचा नहीं हआ तो फिर मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ और मेरा माथा पर्वत के चरणों में झुक गया। तो मेरे झुके हुए माथे को देखकर पर्वत ने कहा कि ये तो मेरे शिखर से भी ज्यादा ऊँचा हो गया। क्योंकि मुझे तो झुकना आता ही नहीं है। जी हाँ, झुकने से हम सोचते हैं कि नीचे गिर जाएँगे। जो झुकता है वो ही ऊँचा उठता है। "नीचैर्वृत्ति" उच्च गोत्र के लिये कारण बनाया आचार्यों ने। 


सूत्र में लिखा हैं नीचैर्वृत्ति अर्थात् जो हमेशा विनम्र वृत्ति रखता है, हमेशा झुकने की प्रवृत्ति रखता है, एडजस्ट करके चलता है। कम्प्रोमाइज करता है, निराग्र ही जिसका दृष्टिकोण है, वो व्यक्ति हमेशा जीवन में, वर्तमान में भी और भविष्य में भी ऊँचाई को ही छूता है। आप निन्दा करो या प्रशंसा करो तो दोनों स्थितियों में सामान्य। आप गुणों की प्रशंसा करो तो भी कोई अहंकार नहीं, अवगुणों की निन्दा करो तो भी कोई मलिनता नहीं। सहज रूप से जो निरहंकार होकर अपना जीवन जीता है ऐसा अपन ने करा होगा पहले ऐसा नहीं सोचना कि हमने नहीं किया होगा। 


हम अगर इतने ऊँचे कुल में पैदा हुए हैं, जहाँ धर्म की परम्परा है, जहाँ व्यसन नहीं होते हैं। जहाँ मद्य, मांस, मधु नहीं खाया जाता, वहीं तो ऊँचा कुल हमें मिला है। जिनेन्द्र भगवान् की शरण मिली है। सच्चे देव, शास्त्र, गुरु मिले, इससे ज्यादा ऊँचाई और क्या हो सकती है। और वह हमने पहले कुछ अच्छा किया होगा। ऐसी ही अच्छी झुकने की प्रवृत्ति रही होगी। दूसरे के गुणों की प्रशंसा करने की प्रवृत्ति रही होगी। अपने अवगुणों की निन्दा करने की प्रवृत्ति रही होगी। अहंकार कमती होगा हमारा जब तो यहाँ आये हैं, अब आगे की तैयारी कैसी करनी है, ये हमें विचार करना है। अच्छे बढ़िया अटेची जमाकर के, अच्छा बढ़िया सामान लेकर के अपन यहाँ आये हैं, अब आगे की यात्रा की अटेची कैसी जमानी है, कौन-कौन चीजें रखनी हैं सो अपन देख लें। तैयारी तो रखनी पड़ेगी क्योंकि किसी भी समय अपना यहाँ से जाने का समय आ जाएगा, सबका आता है। एक दिन किसी का आता है दूसरे दिन किसी और का, आना-जाना तो पड़ता है। भविष्य के लिये, इसलिये क्यों ना हम तैयारी कर लें उच्च गोत्र ही हमें प्राप्त हो, कम से कम ऐसा कुल तो हमें प्राप्त हो कि अनायास ही हमें धर्म करने का अवसर प्राप्त हो सके। ऐसा भी कोई है जहाँ कि धर्म का कोई संस्कार नहीं फिर भी, कोई जीवात्मा ऐसा आ जाता है कि अपने जीवन में धर्म कर लेता है तो आचार्य भगवन्तों ने लिखा कि अपने संस्कारों को अच्छा करके, अपने आचरण को अच्छा करके वो और वे भी ऊँचाई छू सकता है। मलेच्छ खण्ड से आने वाले चक्रवर्ती के सान्निध्य में और अपने जीवन को मुनि बनाकर मोक्ष तक की ऊँचाई को छू लें जितना अपने आपको बना सकते हैं। इसलिये हमें विचार करना चाहिये कि जिसको कुछ नहीं मिला वो ऊँचाई छू रहा है और हम पहले से ऊँचाई पर बैठे हुए हैं तब तो हमें थोड़ा सा पुरुषार्थ और करके और अपने जीवन के लिये वो वास्तविक ऊँचाई है, प्राप्त कर सकें। और भी कुछ कारण लिखे हैं उन पर भी एक नजर डाल लें अपन, ताकि याद रह जाये। वैसे तो समझ में आ रहा है कि दूसरे की निन्दा नहीं करनी चाहिये। लेकिन और भी चीजें हैं उसके आस-पास। वो कह रहे हैं कि अपनी जाति का, अपने कुल का, अपने रूप का, इन सब का अपन को अभिमान नहीं करना चाहिये। अगर अभिमान करेंगे तो जरूर दूसरे का तिरस्कार करने का भाव आयेगा। हाँ दूसरे की निन्दा का भाव आ ही जाएगा जहाँ अपन को अभिमान आता है, वहाँ फिर अपन सब भूल जाते हैं और दूसरे की निन्दा और दूसरे का तिरस्कार कर बैठते हैं अपने अहंकारवश। इसलिये कभी भी अपने रूप, अपने बल, अपनी जाति, अपने कुल, इन सबका अहंकार नहीं करना। दूसरे का तिरस्कार नहीं करना, दूसरे की कभी हँसी नहीं उड़ाना। कम से कम, लिखा है कि दीन, दरिद्री और धर्मात्मा की हँसी नहीं उड़ाना। धर्मात्मा की हँसी नहीं उड़ाना, ये तो ठीक है लेकिन दीन, दरिद्र की भी हँसी नहीं उड़ाना, क्योंकि वो अपने कर्मों का फल भोग रहा है और हम उसकी हँसी उड़ायें तो हमें भी अपनी इस हँसी उड़ाने के कर्म का फल ठीक वैसा ही भोगना पड़ेगा जैसा उस दीन दरिद्री को आज किसी की हँसी उड़ाने से दरिद्रता और तिरस्कार मिला हुआ है। 


कह रहे हैं कि दूसरे के यश का लोप नहीं करना। दूसरे का यश फैल रहा हो तो उसमें बाधा नहीं डालना। करते हैं अपन ऐसा। दूसरे का यश न फैल पावे इसलिये नाना प्रकार से उपाय रचते हैं। रोज तो देखते हैं अपन। कोई नई चीज थोड़ी ही है कहने और सुनने की बात नहीं है। अनुभव की बात है। रोज देखते हैं, इसी चीज को एक-दूसरे के यश को सहन नहीं कर पाने की वजह से अर्थात् गुण नहीं होते हुए भी हमारी कीर्ति फैले, हमारा यश फैले, ऐसी भावना रखना। और आखरी में कह रहे हैं जो गुरुजन हैं, तपस्वी हैं, उनकी अवज्ञा करना। महान व्यक्ति की अवज्ञा से नीचे ही जाना पड़ेगा। और क्या होगा? और अगर हम महान व्यक्ति की महानता का गुणगान करेंगे तो हम तो स्वयं ही महान हो जाएंगे। इतना छोटा सा गणित अपन के समझ में नहीं आता है। आपको याद है जब 22 वर्ष तक अन्जना से पवनंजय बोले नहीं थे, तिरस्कार कर दिया था, कभी पढ़ लेना। हनुमान जी की माँ थीं अन्जना। पवनंजय उनके पिता और उसके बाद एक दिन जब युद्ध में जा रहे थे पवनंजय, तब उनकी मंगल की कामना करने के लिये अन्जना दरवाजे पर खड़ी हो गईं थीं। बताइये आप, क्या रहा होगा ? यही कहलाते हैं महापुरुष, अपने तिरस्कार करने वाले के लिये भी मंगल की कामना करना, मंगलदीप लेकर के खड़ी, और उनको देखकर के और क्या कहा था। “हट दुर्भणी, जिसको देखना भी ठीक नहीं है, हट जाओ तुम यहाँ सामने से" तब अन्जना बेहोश होकर गिर गई थी और फिर जागृत होकर के क्या कहा था कि कोई दोष नहीं है उनका, दोष तो मेरे ही कर्मों का है। कम से कम जाते समय मेरे से बोल तो गये। भले ही अपशब्द कहे होंगे, लेकिन कुछ कहा तो। मेरी तरफ ध्यान तो दिया। क्या ऐसा अपने मन में आता है। 


मैं जब इस घटना को पढ़ता हूँ तो लगता है कि हम तो अपने को इतना बड़ा मानते हैं, हमारे अन्दर तो ऐसे भाव ही नहीं आते। हमारे प्रति तिरस्कार करने के बावजूद भी हमारे मन में सद्भाव बना रहे। कोई हमें तमाचा मारे और हम उसका हाथ पकड़कर के बताएँ, कि कहीं चोट तो नहीं लग गई। ऐसा हुआ अपने जीवन में कभी, किसी ने हमें कष्ट पहुँचाया और फिर भी हम उसके सुख और उसके हित की कामना करें। ये ऊँचाई है भैया, ऊँचे उठने के लिये, अपने जीवन को महान बनाने के लिये। दूसरे के दोष देखने की आवश्यकता नहीं है। अपने दोष देख के उनको निकाल करके अपने को गुणवान बनाने की प्रक्रिया करें। ऐसा कर्म करें जिससे कि हम स्वयं अपने भीतर गुणों को प्राप्त कर सकें। दूसरे के अवगुण देखने से कुछ हमारे गुण बढ़ नहीं जाएँगे। दूसरे के गुण देखने से तो कदाचित् हमारे गुण बढ़ सकते हैं और अपने गुणों को हम बढ़ाने के लिये प्रयत्न करें। दूसरे के भीतर जो है उसकी जिम्मेदारी उसकी है। मेरे अपने जीवन को अच्छा और बुरा बनाने की जिम्मेदारी जब मेरी है तो क्यों नहीं मैं अपने जीवन को अच्छा बनाऊँ। ऐसा विचार करके निरन्तर अपने जीवन को अच्छा बनाने का प्रयास करते रहना चाहिये। 


इसी भावना के साथ बोलिये आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज की जय। 

००० 

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