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    कर्म कैसे करें
    एक संसार जिसे हम अपनी खुली आँखों से देखते हैं और जिसे हम अपने ही साथ तर्क व बुद्धि से मैनेज़ करने की कोशिश करते हैं, लेकिन ये जो हमारी खुली आँखों से दिखने वाला संसार है सिर्फ इतनी ही वास्तविकता नहीं है। एक और संसार है जो कि हमारी इन आँखों से नहीं दिखता है। 

    श्रुत यानी सुनी गई है, परिचित है, अनुभव में भी आई है, ये संसार जो दिखाई पड़ता है इसकी कथा। लेकिन वह जो एक अंतरंग जगत है उसके बारे में ये दोनों आँखें देख नहीं पातीं। और भी संसार में बहुत सी ऐसी चीजें हैं जिनको कि ये दो आँखें नहीं देख पाती जिनको देखने के लिये हमें कोई तीसरी आँख अपने भीतर पैदा करनी पड़ती है ? वो श्रद्धा, निष्ठा, आस्था, सर्मपण है और विश्वास की आँख है, उस आँख के खुलने के लिये कुछ तो हमारे पास अच्छे कर्म होने चाहिये। तब फिर वो, जो अंतरंग जगत है, वो जो श्रद्धा और विश्वास है उसे हम समझ पाते हैं। हमारे जीवन में हमने पता नहीं ऐसे कौनसे कर्म किये हैं जिससे कि सहसा हमारी श्रद्धा, हमारा विश्वास उस आंतरिक जगत पर नहीं हो पाता है ? ठीक ऐसे ही जैसे कि जीवन भर जिस जगह बैठकर के एक भिखारी भीख माँगता रहा। उसके मर जाने पर लोगों ने देखा कि उसी जगह पर सोने की अशर्फियाँ दबी हुई थीं, वो भिखारी जीवन भर इस बात को नहीं जान सका, उसे अपनी निजी संपदा देखने की आँख नहीं मिल सकी। ऐसे ही हम लोगों के पास अपनी निजी आत्म-संपदा है उसे देख पाने की जो हिय की आँख है, वो हमारी नहीं खुल पाती है। इतना ही नहीं सिकंदर जैसे लोग हुए जिन्होंने मरते समय अपने दोनों हाथ बाहर निकाल करके हमें ये विश्वास दिलाना चाहा कि यहाँ से कोई कुछ हाथों में लेकर नहीं जाता। जो अटेच हो जाता है वो हमारे साथ जाता है। ये सारी चीजें यहीं बाहर पड़ी रह जाती हैं और खाली हाथ लौटने की वेदना लेकर के हम लौटें, इससे पहले क्यों ना हम, अपने आप की पहचान कर लें (जो कि हमारे साथ जाता है)। इस अपने आप की पहचान करने का विश्वास, ऐसी आस्था, हमारे भीतर पता नहीं क्यों पैदा नहीं हो पाती ? 

    एक साधु रास्ते से गुजरता है और कहता है कि जो सच्चाई का साथ देता है वो मुक्त हो जाता है और मनुष्य नहीं सुन पाता इस बात को और एक पिंजरे में बैठा हुआ जो राजा के घर में लटका हआ पिंजरा. उसमें बैठा हआ पक्षी उस बात पर विश्वास कर लेता है कि सचमुच मुझे हमेशा सच का साथ देना चाहिये और होता क्या है ? जब दूसरे राज्य का दूत आकर के राजा से मिलना चाहता है, तो राजा भीतर से समाचार भेजता है कि कह दो कि मैं नहीं हूँ । पर वो पक्षी जिसने अभी थोड़ी  देर पहले साधु के वचन सुन लिये थे कि "हमेशा सच्चाई का साथ देना" उसने कहा राजा भीतर है और कहा जा रहा है कि राजा नहीं है और ये बात जैसे ही राजा को मालूम पड़ी कि मेरी बात तो गड़बड़ा गई इस पक्षी की वजह से, तो कहा कि हटाओ इस पक्षी को। इतना ही तो चाहता था वो, पिंजरा खोल दिया गया। पक्षी अब उस साधु की ही तरह गीत गा रहा है, किसी वृक्ष पर बैठकर कि "हमेशा साथ सच्चाई का ही देना”। मैंने तो मुक्त हो के देख लिया। जरा देर के लिये मैंने सच्चाई का साथ दिया था और मैं मुक्त हो गया। लेकिन इस बात पर हम विश्वास नहीं कर पाते। आखिर क्या चीज है ? क्या चीज है जिससे अपनी निजी सम्पदा पर हमारा विश्वास नहीं होता? क्या चीज है कि हमारे अपने ऊपर हमारा विश्वास नहीं होता ? क्या चीज है कि सच्चाई पर हमारा विश्वास नहीं होता ? और क्या ऐसी चीज है जो कि सपने को सच मानने के लिये मजबूर कर देती है। हाँ, पाने लायक कुछ भी नहीं है और पाने लायक जो है वो मेरे अपने भीतर है।
    क्या हुआ था, राजा का राजकुमार बीमार था और वो उसके सिराहने बैठे रहे और झपकी लग गई और तब उन्होंने सपने में अपने बारह बेटे और बहुत बड़ा साम्राज्य देखा। और इतने में राजकुमार मर गया और जीवनसाथी की चीख सुनकर के उनकी आँख खुल गई और आँख खुली तो देखा कि बेटा तो मर चुका है। तब बहुत जोर से हँसे थे, तो लोगों ने यही समझा था कि पागल हो गये लगते हैं दुःख में। लेकिन उनसे पूछने पर कि आप हँसे क्यों ? तब उन्होंने कहा कि आज मुझे मालूम पड़ा कि इस संसार की वास्तविकता ये है कि सिर्फ यहाँ पर बन्द होने पर ही आँख से सपना नहीं दिखता यहाँ तो खुली आँख से भी हम सपने ही देखा करते हैं। मैं उन बारह बच्चों को जो अभी स्वप्न में, जिनको कि मैं बिल्कुल सच मान रहा था, वे मेरे चले गये स्वप्न टूटने पर, उनके लिये रोऊँ या कि जो ये सामने राजकुमार मेरे सामने से मरण को प्राप्त हो गया, इसके लिये रोऊँ। इसलिये मैं हँस रहा हूँ। ये सारी चीजें, ये जो एक हमारा इस संसार को देखने का नजरिया है, इस पर कौन आवरण डालता है, इसे कौन विकृत कर देता है, मेरे ऐसे कौनसे कर्म हैं जो मुझे सच्चे देव, गुरु, शास्त्र पर श्रद्धा नहीं होने देते ? जो मुझे सात तत्त्वों का श्रद्धान नहीं होने देते? जो कि मेरे जीवन के लिये हितकारी हैं उन पर मेरा विश्वास क्यों नहीं बनने देते हैं। जहाँ जहाँ भी आत्मा की, और मेरे कल्याण की चर्चा होती है, वहाँ मेरी रुचि क्यों नहीं जाग्रत होती ? वहाँ मेरा और रुझान क्यों नहीं होता और संसार के प्रपंच में मेरा रुझान क्यों हो जाता है? इन सब बातों पर कई-कई बार मन में विचार तो आता है आखिर ऐसा क्या किया मैंने कि किसी और को तो विश्वास हो जाता है और मेरा विश्वास नहीं जमता। मेरा आत्म-विश्वास इतना कमजोर क्यों है, ऐसा हम हमेशा अपने मन में विचार करते हैं। आचार्य भगवन्तों के चरणों में बैठे तो वे समझाते हैं कि किसी और ने, हमें अविश्वास में डाल दिया हो, हमारी श्रद्धा को खण्डित कर दिया हो या हमारी आस्था को, निष्ठा को नहीं जमने दिया हो, ऐसा नहीं है, हमारे ही अपने कर्म हैं। 
    भैया कर्मों के बारे में तो ऐसा है कि जैसे कि माँ ने चार लड्डू बनाये हों और थोड़े थोड़े से दिये तीन लड्डू में से, तो हमने अपना असंतोष व्यक्त कर दिया, लेकिन उन चार लड्डुओं में से एक लड्डू पर किसी सर्प ने आकर के विष गिरा दिया है, अब बताइयेगा कि वो पूरा लड्डू कोई हमें दे दे तो क्या हम खाना पसंद करेंगे, हमें वो तीन में से थोड़ा थोड़ा ही ठीक है वो चौथा पूरा भी कोई दे दे तो हमें नहीं चाहिये। ज्ञान पर थोड़ा सा आवरण ढक जावें, बाकी तो क्षयोपशम बना रहता है सो थोड़ा बहुत तो जानने में आता है, दर्शन पर थोड़ा सा आवरण पड़ गया है, बाकी थोड़ा तो देखने में अभी भी आ रहा है। मेरे दान, लाभ, भोग-उपभोग की सामग्री में थोड़ा बहुत आवरण पड़ा हुआ है लेकिन थोड़ा सा तो मुझे अभी प्राप्त हुआ है, ये सारी तीनों चीजें थोड़ी-थोड़ी तो प्राप्त हुई हैं, लेकिन एक सबसे ज्यादा खतरनाक है, मेरा अपना मोह जो कि मेरे पूरे जीवन को विषाक्त और विकृत कर देता है। मिलता पूरा का पूरा है, लेकिन वो पूरा का पूरा मेरे जीवन को विषाक्त कर देता है। वो मेरी श्रद्धा को विषाक्त कर देता है, वो मेरे आचरण को भी बिगाड़ देता है, दोनों प्रकार का है। मेरी श्रद्धा को विकृत करने वाला, मेरी श्रद्धा को ठीक जगह नहीं जमने देने वाला, बल्कि मेरी श्रद्धा को जहाँ मेरा अहित है, उस पर मेरे विश्वास को जमा देने वाला और जहाँ मेरा हित होता है, वहाँ से मुझे रुचि ही जाग्रत होने नहीं देता, ऐसे भी एक मोहनीय कर्म है। और एक मोह की वैरायटी ये है कि वो मेरे अपने आचरण को हमेशा बिगाड़ती रहती है, अगर हमारा सेल्फ-कोन्फीडेन्स नहीं है इसके मायने है हमने कोई ऐसा दुष्कर्म किया है, जिससे कि हमारे भीतर श्रद्धा की रोशनी जाग्रत नहीं हो पाती और वो कौनसा कर्म है, वो कौनसे परिणामों से मेरे भीतर संचित होता है ये जान लूँ ताकि आगे उस कर्म को ना करूँ जिससे कि मेरी श्रद्धा मजबूत हो सके, जिससे कि मेरा विश्वास जम सके, जिससे कि मैं अपने आत्म-विश्वास को बढ़ा करके अपना उद्धार कर सकूँ, अपना कल्याण कर सकूँ। “केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य"। 

    मेरी दृष्टि को, मेरे नजरिये को, प्रभावित करने वाला, मेरे नजरिये को बिल्कुल विकृत कर देने वाला, दर्शन मोह है और सारा खेल इस संसार में दृष्टि का ही है, जैसा देखना चाहें वैसा दिखाई पड़ता है, जैसा है वैसा देखने के लिये तो आँख चाहिये, वर्ना इन दो आँखों से तो जैसा हम देखना चाहते हैं वैसा दिखता है, एक्सजेटली कैसा है, वैसा देखने के लिये तो बहुत श्रद्धा की और विवेक की आँख चाहिये, जब हमारा मन राग-द्वेष से युक्त होता है, तब चीजें भली और बुरी जान पड़ती है। चीजें कैसी हैं ये नहीं जान पड़ता। चीजें भली हैं या कि बुरी। आकाश नीला है लेकिन कभी हँसता मालूम पड़ता है, कभी रोता मालूम पड़ता है, जब हमारा जी अच्छा नहीं होता तो एक-एक चीज ऐसी मालूम पड़ती है जैसे कि सब उदास हों और जब हमारा मन प्रफुल्लित होता है तो उदास व्यक्ति भी हँसता हुआ जैसा जान पड़ता है। ये सारा का सारा खेल हमारी अपनी दृष्टि का है और इसी दृष्टि को विकृत कर देने वाला मेरा कोई कर्म मेरे भीतर बैठा हुआ है। हम अपने आपको नहीं देख पाते हैं और बाकी सारी दुनिया को देख पाते हैं। ये क्या चीज है जो कि हमें खुद अपना परिचय नहीं होने देती ? ऐसा कौनसा कर्म है ? यही है जो दृष्टि को विकृत बनाने वाला मोह है, जो हमें चीजों को राग-द्वेष से युक्त होकर के देखने को मजबूर करता है, जबकि हमें वीतराग भाव से चीजों को देखना चाहिए और वीतराग भाव से ही देखने पर चीजें ठीक दिखाई पड़ती हैं। राग-द्वेष से देखने पर तो चीजें ठीक दिखाई नहीं पड़तीं। लेकिन क्या करें हमारे अपने कर्म हमें ऐसा करने के लिये प्रेरित करते हैं और सब ठीक होने के बाद भी मेरे भीतर का जो मोह है वो मुझे इन सब चीजों के बारे में ऐसा उलट-पुलट सोचने के लिये मजबूर कर देता है। 

    "केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य' 

    कैसे परिणाम होते हैं, जबकि ये अश्रद्धान मेरे भीतर जागृत होता है। असल में जो महान आत्माएँ हैं, महापुरुष हैं उनमें जो दोष नहीं है, उन दोषों का हम आविष्कार कर लेते हैं, उन दोषों की उनमें कल्पना करने लगते हैं, इसे कहते हैं “अवर्णवाद"। और ये जो अवर्णवाद है, जिसमें दोष नहीं है उसमें उन दोषों को देखना, उन दोषों की कल्पना करना ये मेरी दृष्टि को दूषित करते हैं। हाँ किसी व्यक्ति में और वो भी महापुरुष में वे दोष नहीं हैं और हमने उन दोषों का उसमें अगर आविष्कार कर लिया है अगर उसकी कल्पना भी कर ली है मेरी दृष्टि दूषित होने से अब मुझे कभी भी वास्तविकता मालूम नहीं पड़ेगी। 

    मैं अपनी उस दृष्टि की निर्मलता को कभी हासिल नहीं कर पाऊँगा और संसार में जिसकी दृष्टि निर्मल है, वो ही अपने जीवन को ऊँचा उठा सकता है। दृष्टि की निर्मलता और श्रद्धान से ही सारा संसार चलता है। एक कदम भी अगर हम अविश्वासपूर्वक रखते हैं तो डगमगा जाते हैं. संसार भी विश्वास से ही चलता है और संसार से पार होने का रास्ता भी विश्वास और श्रद्धा से ही चलता है, ऐसे इस विश्वास को हम कैसे कायम रख सके और ऐसी श्रद्धा को बिगाड़ने वाले कर्मों से हम कैसे बचें, बस ये हमें ध्यान रखना है। केवली' किसे कहते हैं जिनको अपने चार घातिया कर्मों के नाश करने पर अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति हुई है, जो संसार के दोषों से मुक्त हो गये हैं अठारह ही दोष हैं, हम सबमें। उन अठारह दोषों से जो रहित हैं। वे अरिहंत केवली भगवान हैं उन्हें भी भूख लगती होगी ? उन्हें भी प्यास लगती होगी ? उन्हें भी रोग-शोक होते होंगे? वे भी भोजन करते होंगे? ऐसी हम उनके भीतर कल्पना कर लेते हैं, ये जो हमारी केवली भगवान के बारे में मिथ्या कल्पना है, दोष पूर्ण कल्पना है वो हमारी अपनी दृष्टि को विकृत करती है। जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कही गयी जिनवाणी जिसे हम ‘श्रुत' कहते हैं उसमें ऐसी कल्पना कर लेते हैं कि कहाँ लिखी है ग्रन्थों में कि रात्रि भोजन नहीं करना चाहिये। कई जगह लिखा हुआ है कि रात में खा सकते हैं। कौन कहता है, कहाँ लिखा हुआ है कि आलू नहीं खाना चाहिये ? ग्रन्थों में लिखा है कि आलू खाना चाहिये, इतना ही नहीं मांस और मदिरा का सेवन भी ग्रन्थों के द्वारा सम्मत है, ऐसा मिथ्या दोष जब हम उन पर लगा देते हैं, जब हम गुरुजनों की और तीर्थंकरों की वाणी पर ऐसा दोषारोपण कर देते हैं कि उन्होंने तो इन सब चीजों को सही (वेलिड) माना है, तब मानियेगा कि ये हमारी दृष्टि को विकृत करता है। हमारे आत्म-विश्वास को धीरे-धीरे हटाता है। हमने तो अपनी विषय कषाओं के पोषण के लिये उन सब चीजों में भी तब्दीली कर दी और अपने मन मुताबिक उन चीजों में वे चीजें शामिल कर दी, ऐसे श्रुत का अवर्णवाद मेरी दृष्टि को विकृत करता है। बहुत सावधान रहने की आवश्यकता है। मैंने स्क्रिप्ट में मिक्सअप करना अपनी दृष्टि के अनुरूप अपने राग-द्वेष से प्रेरित होकर के, वो हमारी ही दृष्टि को विकृत करेगा। दूसरे का तो बिगाड़ होगा ही, अपना खुद का भी बिगाड़ होगा। इसलिये कभी भी ऐसा प्ररूपण नहीं करना। “एकान्तवाद दूषित समस्त, विषयादिक-पोषक अप्रशस्त। रागी-कुमतिन-कृत श्रुतभ्यास, सो है कुबोध बहु देन त्रास।” 

    ऐसा प्ररूपण नहीं करना जिससे कि विषय-कषायों का पोषण हो और वो भी धर्म के नाम पर। जिससे वैराग्य हो, जिससे कि संसार से पार होने का रास्ता मिले वो ही करना क्योंकि हमारे कल्याण करने वाले गुरुजनों और तीर्थंकरों ने यही कहा है। वे कभी हमें संसार में भटकाने वाली चीजों में लगने के लिये प्रेरित नहीं करेंगे। हमारी अपनी लोलुपता, हमारा अपना स्वार्थ उनके माध्यम से हम अपनी बात को कह देते हैं, इससे क्या होगा? कल के दिन हमें फिर निर्मल दृष्टि नहीं मिलेगी, निर्मल ज्ञान नहीं मिलेगा। हमारी दृष्टि हमेशा विकृत ही बनी रहेगी क्योंकि हमने जो निर्मल चरित्र था उसमें दूषण लगा दिया, जो निर्मल वाणी थी भगवान की, उसमें हमने दूषण लगा दिया। अब कभी हमें सच्ची वाणी का साथ नहीं मिलेगा। बहुत सावधानी की आवश्यकता है। संघ किसे कहते हैं, मुनि, आर्यिका, श्रावक-श्राविका चतुर्विध संघ है। संघ समूह है, सज्जनों का समूह ही संघ है, उन सज्जनों का जो कि अपने आत्म-कल्याण में लगे हुए हैं। वास्तव में, जो सज्जन अपने आत्म-कल्याण में लगे हुए हैं उनकी बात कह रहा हूँ। अकेला वेष धारण कर लेने से कोई सजन नहीं होता, न कोई साधु होता है। जो अंतरंग में साधुता को अपना चुका है उसकी उस साधुता को ना देखकर के यह कहना कि अरे इनके पास तो खाने-पीने को नहीं है, शरीर पर कपड़ा लत्ता नहीं है जो संसार में दुःखी दिखाई पड़ रहे हैं आगे कोई क्या सुख मिलेगा ? ऐसा मिथ्या आरोपण अपने मन में कल्पना कर लेना इससे क्या होगा ? इससे हमारी ही दृष्टि विकृत होगी। 

    जो दोषी हैं उसके दोष देखना तक वर्ज है और जो निर्दोष हैं उसमें दोषों का आरोपण कर देना वो तो फिर अपने जीवन को नष्ट करने का उपाय ही है। वो जो दोषी हैं वो तो स्वयं अपने दोषों से नष्ट हो रहा है लेकिन हम जो निर्दोष हैं उसमें दोषों की कल्पना करके अपने पतन का उपाय स्वयं कर लेते हैं, बहुत सावधान रहना चाहिये। आज पाँच मिनट और लेऊँगा। विलम्ब तो हुआ मेरे जिम्मे सवा नौ बजे आई है बात। अभी 20 मिनट हुए हैं, इसलिये पाँच मिनट और लूँगा, बस। तो केवली, श्रुत और संघ तीनों में दोष कैसे लगा देते हैं हम और कैसे अपनी दृष्टि को विकृत कर लेते हैं और फिर संघ के बाद धर्म और देव ये दो और बचे हैं, धर्म कौनसी चीज है ? धर्म के मायने है अहिंसा, वीतरागता। धर्म तो सूरज की रोशनी की तरह है जितना हम खिड़की खोलेंगे, दरवाजा खोलेंगे, हमारे तक भीतर आयेगा। वो किसी की बपौती नहीं है, अहिंसा किसी की बपौती है क्या ? धर्म इतना व्यापक और इतना विशाल है, लेकिन ये कह देना कि जितने लोग इस अहिंसा धर्म का पालन करते हैं, इस वीतरागता का पालन करते हैं वे सब मरकर के खोटी जगह जाते हैं। बताइये, धर्मात्मा जो धर्म का पालन करते हैं उनकी बड़ी दुर्गति होती है। अब बताओ और अहिंसा में धर्म नहीं है धर्म तो हिंसा में है ऐसा मान लेना। हिंसा को ही धर्म मान लेना और अहिंसा धर्म से विमुख हो जाना या कि अहिंसा धर्म का पालन करने वाले को ये कहना कि वे खोटी गति में जायेंगे, असुर होवेंगे। ये क्या है ? ये हमारी अपनी, अगर हमारी श्रद्धा नहीं जम पा रही है। हमें दृष्टि की निर्मलता जिसको सम्यग्दर्शन कहते हैं, जिससे कि संसार से पार हुआ जाता है वो चीज नहीं मिलती। मेरे अपने खोटे कर्म अभी मुझे देखना चाहिये। आज अगर वर्तमान में जो हम कहते हैं कि जरा आत्म-विश्वास बढ़ाने की कोई प्रक्रिया तो बताओ, किताबें निकल गई हैं। किताबें बिक रही हैं इस बात के लिये कि आप अपने फेथ को, आप अपने पोजिटिव ऐटीट्यूड को कैसे मेन्टेन करें, अपने नजरिये को कैसे बदलें और अपना आत्मविश्वास कैसे बढ़ायें क्योंकि सक्सेस के लिये तो पहले नम्बर जरूरी है कि आपको आत्मविश्वास होना चाहिये और वह आत्मविश्वास क्या आत्मा में रुचि क्यों कम हो गई ? उसके लिये मैंने कौनसे खोटे कर्म किये थे, इस पर विचार करना चाहिये। मैंने हिंसा को धर्म मान लिया होगा, मैंने अहिंसा का पालन करने वालों की दुर्गति हो जावे, ऐसा विचार किया होगा इसलिये आज मेरा अपना विश्वास मेरे ही ऊपर नहीं है। और देव किसे कहते हैं? जिनेन्द्र भगवान को देव कहते हैं, लेकिन स्वर्ग के देव भी देव कहलाते हैं, जिनेन्द्र भगवान के बारे में, अरिहंत भगवान के बारे में, वीतरागी भगवान के बारे में, तो दोषों की कल्पना करनी ही नहीं चाहिये, यहाँ तक कि जो स्वर्ग में रहते हैं देव उनके बारे में भी मिथ्या कल्पना नहीं करना चाहिये। क्या कल्पना करते हैं कि ये जो देवी-देवता हैं ये तो मांस खाते हैं, शराब पीते हैं, सुरापान करते हैं और देवांगनाओं का जो निरन्तर भोग करते हैं, उनको चाहिये सुरा और सुन्दरी। ऐसा कह देते हैं हम ऐसी कल्पना कर लेते हैं उनमें। ध्यान रखना वे अत्यन्त सुन्दर होते हैं, मंद कषायी होते हैं, परिग्रह धीरे-धीरे उनका कम होता जाता है। 

    “गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः" 

    उनमें से अधिकांश तो सम्यग्दृष्टि होते हैं और उन पर हम ऐसा दोष लगा दें कि वे सुरापान करते हैं, मांस का भक्षण, भैया उनके तो मानस आहार होता है, कंठ में से अमृत झर जाता है. बस इतना ही है। लेकिन ऐसी मिथ्या धारणाएँ हम बना लेते हैं। ये मिथ्या धारणाएँ हमारे जीवन को, हमारी दृष्टि को दूषित करती हैं। ये तो ठीक ऐसा है, दृष्टि की निर्मलता और दृष्टि की विकृति तो ऐसी है भैया अपन को जो चीज अपने राग-द्वेष से रुचि जावें, उसी को अपन सही मानते हैं और जो अपने को नहीं रुचती, सो अपन सब उसको मिथ्या करार देते हैं। मुश्किल तो यही है जैसे कि हमने आपको उदाहरण दिया था कि बिल्ली महारानी सेठजी के घर में पली थी और एक बार विदेश यात्रा पर गयी और फिर बाद में लौटी तो उनका बड़ा स्वागत हुआ कि विदेश से लौटी है, उनकी अपनी सहेलियाँ उनसे मिलीं और कहा कि कोई संस्मरण सुनाओ विदेश का। तुमने तो वहाँ पर जो महारानी हैं उनको भी देखा होगा। सुनते हैं कि उनके मुकुट में तो कोहिनूर हीरा लगा हुआ है. कितना सन्दर होगा वहाँ का वर्णन, तो करो। तो वो कहती है - बिल्ली अन्य सहेलियों से कि सुनो ये सब वाहियात बातें हैं। क्या रखा है इसमें ? वहाँ पर चूहे बहुत मोटे-मोटे हैं, बिल्ली की आँख से तो इतना ही दिखेगा। बिल्ली की आँख कोहिनूर नहीं जानती, बिल्ली की आँख और कुछ नहीं देखती, उसको तो चूहे दिखते हैं। हमारी भी आँख के साथ यही मुश्किल है कि जैसा हम संसार को देखना चाहते हैं जो हमारी आसक्ति है वही हम बाहर भी देख लेते हैं। भैया इस आँख को जरा सा दुरुस्त करने की बात है। मेरे अपने कर्म जो मैंने अज्ञानतापूर्वक कर लिये हैं जिससे कि मेरी आँख पर पर्दा पड़ गया है, मेरी आँख से मुझे ठीक-ठीक नहीं दिखाई पड़ता, मेरी आंख में विकृति आ गयी है, सो इस वाली आँख का तो डॉक्टर से इलाज हो सकता है, लेकिन वो जो हृदय की आँख वो जो भीतर की आँख है, उसका इलाज भी हमें करना पड़ेगा और उसके इलाज के लिये आचार्य भगवंतों ने सूत्र दे दिया कि कभी केवली भगवान के बारे में, कभी जिनवाणी के बारे में, कभी सज्जन पुरुषों व साधुजनों के बारे में, कभी धर्म के बारे में और कभी सामान्य स्वर्ग के देवों के बारे में भी, जो चीजें उनमें नहीं हैं उनकी कल्पना मत करना, उन दोषों को उनमें, जो निर्दोष हैं, वो मत देखना। अगर ऐसी दृष्टि भी हमारे अन्दर आ जावे तब हमारा जीवन बहुत ऊँचा उठ सकता है। कल और आपसे बात करूँगा इसी विषय पर। इसी भावना के साथ की अपन प्रेमपूर्वक और सारी चीजें एक-दूसरे से मिलजुल करके और अपने जीवन को अच्छा बनाने के लिये करेंगे। अपनी दृष्टि को पोजिटिव करेंगे। अपनी दृष्टि को निर्मल रखेंगे ताकि हमारा जीवन आसान हो। इसी भावना के साथ .....
     
    “आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज की जय' 
    ००० 
  6. Vidyasagar.Guru
    मुखौटे
     अपने बच्चों को डराने धमकाने
     हमने कुछ डरावने चेहरे
     अपने लिए
     बनवाए थे
     बच्चे कुछ दिन
     डरते रहे 
     फिर असलियत जानकर 
     हँसते रहे
     अब बच्चे 
     बड़े हो गए हैं
     हमारे चेहरे लगाकर
     हमें ही डरा रहे हैं!
     
    Masks
     To scare our children 
     We made some scary
     Masks.
     The children were frightened
     For a while.
     When they got wise about the masks,
     They smiled.
     The children are 
     No longer small.
     They frighten us now
     Wearing our masks.
  7. Vidyasagar.Guru
    आर्यिका अंतरमति जी आर्यिका अनुग्रहमति जी  आर्यिका अमूर्तमति जी  आर्यिका अनुपममति जी  आर्यिका आनंदमति जी आर्यिका अधिगममति जी आर्यिका अभेदमति जी  
    अधिक जानकारी 
    https://vidyasagar.guru/clubs/357-group/
    चातुर्मास स्थल जल्द ही अपडेट होगा 
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    आर्यिका संघ (सभी माता जी एक साथ ) की फोटो भी अपडेट करें 
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  8. Vidyasagar.Guru
    मुनिश्री निरापदसागर जी 
    मुनिश्री निरुपमसागर जी 
     
    अधिक जानकारी 
    https://vidyasagar.guru/clubs/425-group/
     
    चातुर्मास स्थल जल्द ही अपडेट होगा 
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  9. Vidyasagar.Guru
    ╭─━══•❂❀🌸🌸❀❂•══━─╮
          ● *सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर* ●
       *आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज*
                     *की आहारचर्या*
       
             *दिनांक: 02 अक्टूबर 2019*         
                   *◆ सौभाग्यशाली ◆*
            ब्र. वीणा दीदी परिवार, बागीदौरा
    ╰─━══•❂❀🌸🌸❀❂•══━─╯
     
     
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  10. Vidyasagar.Guru
    मुनिश्री दुर्लभसागर जी  मुनिश्री संधानसागर जी  
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  11. Vidyasagar.Guru
    आर्यिका मृदुमति जी आर्यिका निर्णयमति जी   
     
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  12. Vidyasagar.Guru
    आचार्यश्रीजी
    मतलब विद्यासागरजी
    🥀🥀🥀
       ‼आहारचर्या‼
    श्री तीर्थोदय प्रतिभास्थली
          रेवती रेंज इंदौर
      दिनाँक :०९/०४/२०२०
    आगम की पर्याय,महाश्रमण युगशिरोमणि १०८ आचार्य श्री विद्यासागर जी महामुनिराज के आहारचर्या कराने का सौभाग्य 
    🟤श्रावक श्रेष्ठी श्रीमान विजयकुमार जी जैन (पेटीकोट वाले) सागर,श्रीमान  नीरज कुमार जी जैन (बल्लू कमर्फट),श्रीमति मनीषा जैन इन्दौर,मध्यप्रदेश🟤
     वालो को एवं उनके परिवार को प्राप्त हुआ है।
    इनके पूण्य की अनुमोदना करते है।
                💐🌸💐🌸
    भक्त के घर भगवान आ गये
              🌹🌹🌹🌹
    सूचना प्रदाता-:श्री अक्षय जी जैन
           🌷🌷🌷
    अंकुश जैन बहेरिया 
    प्रशांत जैन सानोधा 
     
  13. Vidyasagar.Guru

    कर्म कैसे करें
    हम सभी लोगों ने पिछले दिनों ये अनुभव किया है कि यदि हम बहुत गौर से देखें तो इस संसार में अच्छा और बुरा कुछ भी नहीं है। ये हमारी कल्पना है। हमारा राग-द्वेष है। जिन चीजों में हमारा राग होता है, वो चीजें हमें अच्छी जान पड़ती हैं, इष्ट मालूम पड़ती हैं और जिन चीजों में हमारा द्वेष होता है वे चीजें हमें अनिष्टकारी और बुरी जान पड़ती हैं। चीज तो चीज होती हैं न वो भली होती हैं न वो बुरी होती हैं। लेकिन क्या करें, हमारे संस्कार अनादि काल के ऐसे हैं कि हम चीज को चीज की तरह नहीं देखते, वस्तु और व्यक्ति को वस्तु और व्यक्ति की तरह नहीं देखते बल्कि हम अपने राग-द्वेष से प्रेरित होकर के वस्तु और व्यक्ति को भला और बुरा, अच्छा या बुरा इस तरह के भाव से ही देखते हैं। जिन्दगी ऐसी भी नहीं है कि जैसे शतरंज के खाँचे होते हैं एक सफेद है तो एक काला है। सब लोगों के जीवन में हमेशा सुख के बाद दुःख-दुःख के बाद सुख ऐसा कोई क्रम है, ऐसा भी नहीं है। 

    जिसे हम आज अपना मान रहे हैं वो कल हमारा शत्रु हो सकता है और जिसे हम आज अपना शत्रु मान रहे हैं वो कल हमारा मित्र हो सकता है। इतना परिवर्तनशील है ये संसार। और वो परिवर्तन हमारे अपने परिणामों का ही है। हमारे अपने राग-द्वेष का ही परिवर्तन है। जैसा हमारे मन में भाव होता है वैसा हम संसार में चीजों को और व्यक्तियों को देख लेते हैं। आचार्य भगवन्तों ने हमें बार-बार इस बात की सावधानी रखने की कही है कि ठीक है किसी को हम शत्रु मानते हैं आज, किसी को हम मित्र मानते हैं आज, ठीक है पर थोड़ा विचार करना कि कोई हमेशा शत्रु नहीं होता, कोई हमेशा मित्र नहीं होता। मैत्री भाव सबके ऊपर रखना यही सबसे श्रेष्ठ है। मैत्री जो है वो शत्रु और मित्र से ऊँची चीज है। जिससे हम प्राणी मात्र के प्रति अपने मन में करुणा का भाव रखते हैं। अभी तो हमारी करुणा भी जो है वो विभाजित हो जाती है अपने और पराये के भेद से। जो अपने हैं उनके प्रति हमारे मन में दया है, करुणा है और जिन्हें हम पराया समझते हैं उनके प्रति हमारे मन में दया और करुणा नहीं उमड़ती है। होनी हमारी दया और करुणा ऐसी चाहिये कि प्राणी मात्र पर हो। असल में, ये जो हमारी अपनी राग-द्वेष की प्रक्रिया है, वो ही हमारे लिये इष्ट-अनिष्ट की कल्पना कराती है। भले-बुरे की कल्पना कराती है। शत्रु और मित्र की कल्पना कराती है और फिर मजा ये है कि इससे भी आगे ले जाती है। जो मेरा मित्र है उसमें मुझे कोई दोष नहीं दिखाई पड़ता और जो मेरा शत्रु है उसमें मुझे कोई गुण दिखाई नहीं पड़ता। माँ को अपना बेटा कितना भी बुरा क्यों न हो, उसमें कोई दोष दिखाई नहीं पड़ता। कोई आकर के उसकी कितनी ही शिकायत करे, माँ यही कहेगी कि मेरा बेटा अच्छा है तुम बेकार परेशान मत होओ। उसका अपना मोह, उसका अपना राग, उसका अपना मोह और हमारा अपना जो राग है वो वस्तु और व्यक्ति को इसी तरह या तो गुणों से युक्त देखता है अथवा दोषों से युक्त देखता है। गुण और दोष किसमें कितने हैं? कोई भी ऐसा नहीं है जो सिर्फ गुणवान हो, कोई भी ऐसा नहीं है जो बिल्कुल दोषों से युक्त ही हो। आचार्य महाराज ने तो लिखा कि हरेक व्यक्ति के अन्दर और चाहे कुछ हो या ना हो, एक गुण अवश्य होता है। ठीक ऐसे ही जैसे गरीब आदमी की झोपड़ी हो, चाहे किसी का आलीशान मकान हो, आने-जाने का दरवाजा तो सबमें होता है। ठीक इसी तरह सबमें एक गुण होता है। हमारी देखने की दृष्टि हो तो हम उस गुण को इतना बड़ा करके देखें कि सिर्फ वही दिखे और दोष न दिखें। अगर हमारी दृष्टि कलुषित है तो वो गुण क्या और भी सैकड़ों गुण हों तो वो भी नहीं दिखाई देते। एक दोष हो तो इतना बड़ा करके देखते हैं कि जिसके भीतर सारे सौ गुण भी ढक जाते हैं। “परात्मनिन्दाप्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य।” 

    दो सूत्रों में हमारे जीवन का स्टेटस डिसाइड कर दिया आचार्य भगवन्तों ने। हमारे कर्म हमें क्या ऊँचाई दे सकते हैं और कितना नीचा गिरा सकते हैं ये डिसाइड कर दिया है। और कोई नहीं गिराता हमें, ना कोई हमें ऊँचा उठाता है, हमारे अपने गुण और दोष देखने की जो प्रवृत्ति है वो हमें ऊँचा उठाती है और नीचा गिराती है। भैया, जो व्यक्ति दूसरे को बुरा कहे उससे यह बात तो तय हो जाती है कि स्वयं ये भला आदमी नहीं है और बाकी चीज तय हो, चाहे ना हो। दूसरे को बुरा कहे इससे यह तो पक्का हो गया कि भला आदमी नहीं है दूसरों को बुरा कहने वाला कभी भला हो नहीं सकता और जो दूसरे को भला कहे इससे यह तय हो गया कि स्वयं तो भला है, दूसरा भला होवे या ना होवे वो अपनी जाने। आचार्य भगवन्त इसी बात को सूत्र में कह रहे हैं कि 'परात्मनिन्दाप्रशंसे।' दूसरे की निन्दा करना और अपनी प्रशंसा करना। “सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने” इतना ही नहीं दूसरे के विद्यमान गुणों को ढकना और अपने अविद्यमान गुणों का ढिंढोरा पीटना। क्या दूसरे की निन्दा करना, अपनी प्रशंसा करना और दूसरे के विद्यमान गुणों को भी ढक लेना, प्रकट नहीं होने देना और अपने अविद्यमान जो अपने भीतर हैं ही नहीं गुण, उनका ढिंढोरा पीटना। ये सब बातें, ये सारे कर्म हमें कहाँ ले जाते हैं, नीच गोत्र की तरफ ले जाते हैं, और नीच गोत्र का बंध मिथ्यात्व के साथ होता है। 
    सबसे पहले दृष्टि की निर्मलता नष्ट होगी, उसके बाद में हमें साथ में नीच गोत्र का बंध होगा। ये जितने पशु हैं एक इन्द्रिय से लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय तक जो पशु हैं ही और जो संज्ञी पंचेन्द्रिय हैं उनमें भी नीच गोत्र का ही उदय चलता है, ध्यान रखना। मनुष्य में नीच गोत्र, उच्च गोत्र दोनों हो सकते हैं। क्या कहलाता है ये नीच गोत्र उच्च गोत्र। जिस कुल में जिस जाति में उत्पन्न होने पर धर्म की परम्परा जहाँ चलती हो, अभक्ष्य-भक्षण न होता हो, मद्य, मधु, मांस का सेवन न होता हो, जो लोक में निन्दनीय ना हो ऐसे कुल को उच्च कुल कहते हैं। शेष सब नीच कुल हैं। जहाँ धर्म की परम्परा नहीं है, जहाँ सदाचरण नहीं है जहाँ लोकनिन्द कार्य किये जाते हैं, ऐसे परिवार में उत्पन्न होना ये अपने नीच गोत्र का उदय है और ये नीच गोत्र बँधता कैसे है ? ये लिख दिया एक सूत्र में, चार बातें लिख दीं। “परात्मनिन्दाप्रशंसे'। दूसरे की निन्दा करते रहना और अपनी प्रशंसा करते रहना, अपना बड़प्पन हमेशा बताते रहना। दूसरे की निन्दा, मतलब दूसरे के दोषों को प्रकट करना। होने पर और नहीं होने पर दोनों कह रहे हैं। दूसरे के दोष होने पर भी और नहीं होने पर प्रकट करना यह भी नीच गोत्र का बंध है और जो दोष नहीं है वो भी प्रकट करना सो तो है ही। जो दोष उसके भीतर हैं उनको भी प्रकट नहीं करना तब जाकर काम बनेगा, उच्च गोत्र का। 

    हमने वर्तमान में अगर उच्च गोत्र पाया है, ऊँचाई हासिल की है, अच्छा स्टेटस है, समाज में जो मान्य कुल प्राप्त हुआ है हमें, लोक निन्दनीय कुल प्राप्त नहीं हुआ है हमें, उसके लिये हमने क्या पुरुषार्थ किया होगा पूर्व जीवन में इस पर विचार करना और जिन्होंने यह चीज प्राप्त नहीं की है उन्होंने क्या किया होगा दूसरे के विद्यमान और अविद्यमान किसी भी तरह के दोषों को प्रकट नहीं करना। बताइये ऐसा हो पाता है अपन से। अपन तो दूसरे के दोषों को ही देखने की प्रवृत्ति अपने भीतर निर्मित कर चुके हैं। ऐसी आदत पड़ गई है कि किसी पर भी दृष्टि जाती है तो सबसे पहले उसमें जो खोट है, उसमें जो कमियाँ हैं वो दिखाई पड़ती हैं, उसमें क्या भलाई है, क्या अच्छाई है, दिखाई नहीं पड़ता। बताओ तो ऐसी दृष्टि लेकर के हम अपने जीवन को कहाँ ले जाने की तैयारी कर रहे हैं ? ये स्वयं विचार करना पड़ेगा और फिर इस आदत को बदलना पड़ेगा। हम लोग तो इस आदत को बदलने की जगह पर तर्क और देते हैं।

    एक व्यक्ति चला जा रहा था रास्ते से। सामने जो है दूसरा और थोड़े आगे जा रहा था। एक केले का छिलका पड़ा था। उस पर वो पैर पड़ा उसका फिसल गया। गिर गया। गिर गया तो हँसना शुरू कर दिया जो पीछे था उसने, सामान्य सी बात है। कोई अगर फिसल कर गिर जाए तो दूसरे को मौका मिलता है हँसने का, लेकिन वो ये भूल गया कि एक छिलका और पड़ा है वहीं पर सो इनका भी उस पर पैर पड़ा और ये भी गिरे। अब गिरे तो सब लोग हँस पड़े। तो मालूम है उन्होंने क्या तर्क दिया, कि अच्छा किया भगवान् जो मैंने पहले दूसरे के गिरने पे हँस लिया। अब तो मैं हँस ही नहीं सकता, अब तो लोग हँसेंगे मेरे ऊपर। अच्छा हुआ मैंने पहले हँस लिया। बताइये आप। दूसरे पे हँसने को भी हम अच्छा मानते हैं कि हमने अच्छा किया जो पहले हँस लिये फिर तो हमें गिरना ही है और फिर तो लोग हँसेगें, हम थोड़े ही हँस पाएँगे। ये लोजिक दिया। 

    दूसरा हमारी बुराई करे इससे पहले हम उसकी कर लें। सीधी-सीधी बात। इसकी बुराई करके मजा ले लें और फिर बाद में अपनी बुराई करवाने के लिये तैयार रहें। ये इस तरह से हमने संसार में आदत डाल ली है। सोचें, हम यदि दूसरे को बेईमान कहे और दूसरा हमें बेईमान कहे तो बताइये आप, ईमानदार तो फिर कोई भी नहीं रह जाएगा। लेकिन इतनी छोटी सी बात अपन के समझ में नहीं आती है और इतना ही नहीं एक बार जब दोष देखने की आदत पड़ जाती है तो संस्कार फिर इतना गहरा हो जाता है कि अपने दोष फिर दिखाई नहीं पड़ते। ये ध्यान रखना। एक सबसे बड़ी हानि है दूसरे के दोष देखने में, सबसे बड़ी हानि कि कभी भी अपने दोष देखने का अवसर ही नहीं मिलता। दूसरे के दोष देखने की आदत इतनी पड़ गई कि वक्त ही नहीं मिलता अपने दोष देखने का। और इतना ही नहीं अपने को दोषी होने के बाद भी अच्छा मानने का मजा भी हम ले लेते हैं। देखा वो ऐसे हैं, वो कैसे हैं, हम कैसे हैं, हम तो ठीक हैं, ठीक नहीं होने के बाद भी अपने ठीक होने का भ्रम पैदा हो जाता है। दूसरा दोषी नहीं है, फिर भी हम उसको दोषी ठहराना शुरू कर देते हैं। इससे हमारे भीतर अपने दोष देखने की प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है और अपने दोषी होने के बाद भी हम अपने को ठीक मान लेते हैं और चौथी चीज कि हम कभी अपने दोष अपने में से निकाल नहीं पाते हैं। दूसरे के गुणों को भी हम अपने भीतर ग्रहण नहीं कर पाते। रिसेप्टीविटी हमारी खत्म हो जाती है। इतना लॉस होता है। दूसरे के दोष देखने की आदत अपने भीतर निर्मित करने से और है ये प्रकृति 99 प्रतिशत हम सबके जीवन में। एक प्रतिशत होगा थोडा हमारा जीवन ऐसा जिसमें कि हम दसरे के दोष न देखते होंगे. बाकी 99 प्रतिशत हमारे सबके जीवन में दूसरे के दोष देखने की प्रवृत्ति है। जहाँ कुछ अच्छा भी है वहाँ भी हम दोष देखना शुरू कर देते हैं और जहाँ दोष युक्त हैं वहाँ तो हैं ही। और आत्म-प्रशंसा, अपने अन्दर कोई गुण नहीं भी है तब भी अपने को गुणवान मान लेने का भ्रम या कि दूसरे से अपने को गुणवान कहलाने का एक प्रयत्न। निरन्तर चलता रहता है, और फिर इतना ही नहीं, वही गलती फिर हम करें जो दूसरा कर रहा है तो वो अपन को नहीं दिखाई पड़ती। 

    यहाँ की एक घटना है अचानक एक दिन मुझे एक कटिंग मिल गई, मैंने उसमें पढ़ ली। जयपुर में कोई नन्दनभट्ट हुए हैं, यहाँ पर बहुत पहले। उनके जीवन की है। किसी राजा के दरबार में कवि रहे हैं और इतने प्यारे व्यक्ति थे, राजा अगर किसी से नाराज हो जावे तो राजा को समझा-बुझा करके और उस व्यक्ति के प्रति जिसके प्रति नाराजगी है क्षमा दिलवा देते थे। किसी ने गलती की हो, उससे राजा नाराज हो तो भी, राजा के अंतरंग मित्र थे ये बहुत अभिन्न, तो राजा को समझा-बुझाकर कि अरे छोड़ो, क्या करना राजा साहब, आप तो इतने महान हो। वो गलती करता है तो करने देवो, आप तो माफ करो, माफ करवा देते। बड़ा उनका राजा के प्रति सद्भाव था, राजा भी उनको बहुत मानते थे |

    एक बार क्या हुआ कि राजा के जन्मदिन पर सभी जितने सामन्त थे वे राजा के लिये मंदिर में प्रार्थना करते थे, उनके दीर्घायु के लिये। तो एक सामन्त ने ईर्ष्यावश, ये ईर्ष्या नाम की चीज जो ना कराये सो कम है, हाँ यह सबके भीतर है। उसमें लिखा है आत्मानुशासन में। ईर्ष्या एक साधु की आखरी कमजोरी है। श्रावक तो छोड़ो, गृहस्थ तो छोड़ो, आत्मानुशासन में गुणभद्र आचार्य लिख रहे हैं एक साधु की भी अंतिम कमजोरी अगर है, सज्जन पुरुष की भी, मुनिजनों की भी कह रहे हैं साधुओं की अंतिम कमजोरी है तो ईर्ष्या। बर्नाड शाह से जब पूछा गया था कि सैकण्ड वर्ल्ड वार का क्या कारण था ? तो उसने कहा कि दो कारण थे ज्वेलसी एण्ड ज्वेलसी। तो उन्होंने कहा कि तीसरे वाला अगर होगा तो? उन्होंने कहा तीन कारण, ज्वेलसी, दी ज्वेलसी एण्ड ज्वेलसी। तीन कारण। एक ही कारण है संसार बढ़ाने का, ईर्ष्या। गुणों को सहन नहीं कर पाना, तो दोष देखना शुरू हो जाता है, गुणों को सहन नहीं कर पाये तो और एक सामन्त दूसरे के गुणों को सहन नहीं कर पाया और उसने जाकर के राजा से शिकायत करी, जैसे अपन करते हैं। 

    वो तो कहानी है जीवन में भी अपन देखते हैं तो क्या शिकायत करी, ये जो सामन्त है वो आपकी दीर्घायु की कामना नहीं करता, मंदिर में बैठकर के भगवान के सामने इसकी एकाग्रता ही नहीं रहती। यहाँ-वहाँ देखता रहता है। अच्छे मन से वो आपके लिये प्रार्थना ही नहीं करता। ऐसी शिकायत कर दी। बस राजा तो राजा होते हैं। आ गई उनके सनक। ठीक है राज दरबार में और राजमहल में आना इसका बन्द। बाहर कर दो इसको। ऐसा आदेश जारी करने की मंत्रियों को आज्ञा दे दी। नन्दनभट्ट को मालूम पड़ा तो फौरन राजा के पास आये। क्या बात हो गई ? अरे वो-वो जो सामन्त है, मेरे लिये ठीक-ठीक प्रार्थना ही नहीं करता दीर्घायु की। यहाँ-वहाँ उसका ध्यान रहता है। “किसने कहा ये किसी दूसरे सामन्त ने आकर कहा। तब तो आपको इस पर फिर से विचार करना चाहिये। इसमें फिर से विचार करने की क्या बात है ? बोले, “फिर भी आप विचार कर लीजिएगा एक बार उस व्यक्ति को दण्डित करने से पहले।" अगर वो वाला सामन्त दीर्घायु की कामना करते समय एकाग्र नहीं है, यहाँ-वहाँ देख रहा है तो जिसने शिकायत की है वो क्या कर रहा था? है ना, इसका मतलब उसको देखने में लगा हुआ था। दूसरे के दोष देखने वाला किस तरह दोषी था, ये समझने की चीज है। उदाहरण से। देख लो आप, वो तो अपना कोन्सन्ट्रेशन नहीं रख पा रहा है प्रार्थना के समय, लेकिन आप अपना कोन्सन्ट्रेशन अगर आपका है तो आपको ये दिखाई कैसे पड़ा कि उसका कोन्सन्ट्रेशन नहीं है। आपको अपनी एकाग्रता से प्रार्थना करनी थी। आपको दिख कैसे गया कि ये प्रार्थना के समय एकाग्र नहीं है। हम सबसे पहले स्वयं दोषी होते हैं जब दूसरे के दोष देखना शुरू करते हैं। वे ही दोष हमारे भीतर भी है, जो हम दूसरे के भीतर देखते हैं। बहुत सावधानी की आवश्यकता है कि हम दूसरों के दोष देखने से पहले और अपने गुणों की प्रशंसा करने से पहले विचार तो कर लेवें। और इतना ही नहीं, जब ये आदत निर्मित हो जाती है तो फिर दूसरी आदत उसके साथ में ही निर्मित होती है। 

    इसलिये आचार्य भगवन्तों ने वो भी लिख दिया कि दूसरे में विद्यमान गुण भी दिखना बन्द हो जाते हैं फिर उनको हम ढकना शुरू कर देते हैं। जब दूसरे के दोष देखना शुरू करते हैं तो उसके गुणों को हम ढकते चले जाते हैं और इतना ही नहीं अपने भीतर के जो अविद्यमान गुण हैं उनको भी हम कहना शुरू करते हैं, उनका भी ढिंढोरा पीटना शुरू करते हैं। क्योंकि हमारे मन में फिर ये भावना आ जाती है कि मेरी प्रशंसा होनी चाहिये। जहाँ आत्म-प्रशंसा का भाव है वहाँ गुणवत्ता नहीं होगी। वहाँ तो झूठी गुणों को भी प्रकट करने की भावना ही जागृत होगी। और ऐसा व्यक्ति कभी गुणवान नहीं हो पाता। ये सबसे बड़ी क्षति होती है। यदि हम इससे विपरीत करना शुरू कर देवें तो हमारे जीवन में ऊँचाई आना शुरू होगी। हमारा स्टेटस ऊँचा होगा। हम जब ये सोचते हैं कि बहुत बड़ा मकान हमारे पास है, बहुत कारें हमारे पास में हैं, बहुत पैसा हमारे पास में है, अच्छा स्टेटस है, यह स्टेटस सिम्बल नहीं है। स्टेटस सिम्बल ये है कि कौन व्यक्ति अपनी निन्दा और दूसरे की प्रशंसा करता है। दूसरे की निन्दा करने वाले का स्टेटस बहुत क्षुद्र व्यक्ति का है, जो दूसरे की निन्दा करता है और बहुत महान है वह जो दूसरे के अवगुणी होने पर भी प्रशंसा ही करता है। बहुत महान् व्यक्ति ही हो सकता है जो अवगुणी में से भी कोई गुण देख ले। जैसे श्रीकृष्ण रास्ते से चले जाते थे और एक कुत्ता मरा हुआ पड़ा था दो-तीन दिन का। बदबू आ रही थी लेकिन वे खड़े होकर के चुपचाप देख रहे थे। बलराम ने कहा कि चलो अरे इतनी बदबू आ रही है। कहने लगे, “वो तो छोड़ो, दाँत तो देखो कितने बढिया हैं। अब बताओ आपमें व हमारे जीवन में भी ये चीजें आ सकती हैं। हम सोचते हैं कि बाह्य व्यक्तित्व ऊँचा होने से ही हमारा स्टेटस बढ़ जाएगा। नहीं, अंतरंग में इतनी ऊँचाई होनी चाहिये कि अवगुणी के भीतर भी कोई एक-आध गुण देख सकें हम और उसकी प्रशंसा कर सकें और अपने भीतर सैकड़ों गुण होने के बाद भी अपने एक-आध दोष देखकर अपनी निन्दा कर सकें। 

    ऐ भैया, हम कुछ विशेष नहीं हैं हमारे में तो बहुत से अवगुण हैं। ऐसा कहने का साहस बहुत कठिन है। अपने एकाध अवगुण को भी नहीं छिपाना और दूसरे के सारे अवगुणों को छिपाकर के एकाध भी गुण हो तो उसकी प्रशंसा करना, ये है ऊँचे होने की विद्या। अगर हम आज अपने को बहुत ऊँचा और बहुत अच्छे कुल का मानते हैं तो हमने पहले ऐसा ही कुछ करा होगा। इतने बढ़िया विचार हमारे रहे होंगे और आज भी अगर ऐसे अच्छे विचार हमारे हैं तो ठीक है निश्चिन्त रहें हमारा भविष्य बहुत ऊँचा है, अन्यथा यदि हमारे विचार घटिया हो गये हैं कि हम दूसरे की निन्दा में रुचि लेते हैं और अपनी प्रशंसा सुनने और दूसरे की निन्दा सुनने को तत्पर रहते हैं, हमेशा ये आँखें दूसरे के दोष देखने और अपने गुण देखने में लगी रहती हैं। तो समझना कि ये आँख और कान दोनों हमारा ज्यादा फायदा नहीं कर रहे हैं। मैंने पर्वत की चोटी से नीचे खड़े होकर के कहा कि जब तक मैं इस पर्वत की चोटी पर नहीं पहँचा तब तक ही ये पर्वत ऊँचा है, तो पर्वत बोला कि अरे मैं तो किसी के सिर पर पैर रखकर ऊँचा नहीं हआ तो फिर मुझे अपनी गलती का अहसास हुआ और मेरा माथा पर्वत के चरणों में झुक गया। तो मेरे झुके हुए माथे को देखकर पर्वत ने कहा कि ये तो मेरे शिखर से भी ज्यादा ऊँचा हो गया। क्योंकि मुझे तो झुकना आता ही नहीं है। जी हाँ, झुकने से हम सोचते हैं कि नीचे गिर जाएँगे। जो झुकता है वो ही ऊँचा उठता है। "नीचैर्वृत्ति" उच्च गोत्र के लिये कारण बनाया आचार्यों ने। 

    सूत्र में लिखा हैं नीचैर्वृत्ति अर्थात् जो हमेशा विनम्र वृत्ति रखता है, हमेशा झुकने की प्रवृत्ति रखता है, एडजस्ट करके चलता है। कम्प्रोमाइज करता है, निराग्र ही जिसका दृष्टिकोण है, वो व्यक्ति हमेशा जीवन में, वर्तमान में भी और भविष्य में भी ऊँचाई को ही छूता है। आप निन्दा करो या प्रशंसा करो तो दोनों स्थितियों में सामान्य। आप गुणों की प्रशंसा करो तो भी कोई अहंकार नहीं, अवगुणों की निन्दा करो तो भी कोई मलिनता नहीं। सहज रूप से जो निरहंकार होकर अपना जीवन जीता है ऐसा अपन ने करा होगा पहले ऐसा नहीं सोचना कि हमने नहीं किया होगा। 

    हम अगर इतने ऊँचे कुल में पैदा हुए हैं, जहाँ धर्म की परम्परा है, जहाँ व्यसन नहीं होते हैं। जहाँ मद्य, मांस, मधु नहीं खाया जाता, वहीं तो ऊँचा कुल हमें मिला है। जिनेन्द्र भगवान् की शरण मिली है। सच्चे देव, शास्त्र, गुरु मिले, इससे ज्यादा ऊँचाई और क्या हो सकती है। और वह हमने पहले कुछ अच्छा किया होगा। ऐसी ही अच्छी झुकने की प्रवृत्ति रही होगी। दूसरे के गुणों की प्रशंसा करने की प्रवृत्ति रही होगी। अपने अवगुणों की निन्दा करने की प्रवृत्ति रही होगी। अहंकार कमती होगा हमारा जब तो यहाँ आये हैं, अब आगे की तैयारी कैसी करनी है, ये हमें विचार करना है। अच्छे बढ़िया अटेची जमाकर के, अच्छा बढ़िया सामान लेकर के अपन यहाँ आये हैं, अब आगे की यात्रा की अटेची कैसी जमानी है, कौन-कौन चीजें रखनी हैं सो अपन देख लें। तैयारी तो रखनी पड़ेगी क्योंकि किसी भी समय अपना यहाँ से जाने का समय आ जाएगा, सबका आता है। एक दिन किसी का आता है दूसरे दिन किसी और का, आना-जाना तो पड़ता है। भविष्य के लिये, इसलिये क्यों ना हम तैयारी कर लें उच्च गोत्र ही हमें प्राप्त हो, कम से कम ऐसा कुल तो हमें प्राप्त हो कि अनायास ही हमें धर्म करने का अवसर प्राप्त हो सके। ऐसा भी कोई है जहाँ कि धर्म का कोई संस्कार नहीं फिर भी, कोई जीवात्मा ऐसा आ जाता है कि अपने जीवन में धर्म कर लेता है तो आचार्य भगवन्तों ने लिखा कि अपने संस्कारों को अच्छा करके, अपने आचरण को अच्छा करके वो और वे भी ऊँचाई छू सकता है। मलेच्छ खण्ड से आने वाले चक्रवर्ती के सान्निध्य में और अपने जीवन को मुनि बनाकर मोक्ष तक की ऊँचाई को छू लें जितना अपने आपको बना सकते हैं। इसलिये हमें विचार करना चाहिये कि जिसको कुछ नहीं मिला वो ऊँचाई छू रहा है और हम पहले से ऊँचाई पर बैठे हुए हैं तब तो हमें थोड़ा सा पुरुषार्थ और करके और अपने जीवन के लिये वो वास्तविक ऊँचाई है, प्राप्त कर सकें। और भी कुछ कारण लिखे हैं उन पर भी एक नजर डाल लें अपन, ताकि याद रह जाये। वैसे तो समझ में आ रहा है कि दूसरे की निन्दा नहीं करनी चाहिये। लेकिन और भी चीजें हैं उसके आस-पास। वो कह रहे हैं कि अपनी जाति का, अपने कुल का, अपने रूप का, इन सब का अपन को अभिमान नहीं करना चाहिये। अगर अभिमान करेंगे तो जरूर दूसरे का तिरस्कार करने का भाव आयेगा। हाँ दूसरे की निन्दा का भाव आ ही जाएगा जहाँ अपन को अभिमान आता है, वहाँ फिर अपन सब भूल जाते हैं और दूसरे की निन्दा और दूसरे का तिरस्कार कर बैठते हैं अपने अहंकारवश। इसलिये कभी भी अपने रूप, अपने बल, अपनी जाति, अपने कुल, इन सबका अहंकार नहीं करना। दूसरे का तिरस्कार नहीं करना, दूसरे की कभी हँसी नहीं उड़ाना। कम से कम, लिखा है कि दीन, दरिद्री और धर्मात्मा की हँसी नहीं उड़ाना। धर्मात्मा की हँसी नहीं उड़ाना, ये तो ठीक है लेकिन दीन, दरिद्र की भी हँसी नहीं उड़ाना, क्योंकि वो अपने कर्मों का फल भोग रहा है और हम उसकी हँसी उड़ायें तो हमें भी अपनी इस हँसी उड़ाने के कर्म का फल ठीक वैसा ही भोगना पड़ेगा जैसा उस दीन दरिद्री को आज किसी की हँसी उड़ाने से दरिद्रता और तिरस्कार मिला हुआ है। 

    कह रहे हैं कि दूसरे के यश का लोप नहीं करना। दूसरे का यश फैल रहा हो तो उसमें बाधा नहीं डालना। करते हैं अपन ऐसा। दूसरे का यश न फैल पावे इसलिये नाना प्रकार से उपाय रचते हैं। रोज तो देखते हैं अपन। कोई नई चीज थोड़ी ही है कहने और सुनने की बात नहीं है। अनुभव की बात है। रोज देखते हैं, इसी चीज को एक-दूसरे के यश को सहन नहीं कर पाने की वजह से अर्थात् गुण नहीं होते हुए भी हमारी कीर्ति फैले, हमारा यश फैले, ऐसी भावना रखना। और आखरी में कह रहे हैं जो गुरुजन हैं, तपस्वी हैं, उनकी अवज्ञा करना। महान व्यक्ति की अवज्ञा से नीचे ही जाना पड़ेगा। और क्या होगा? और अगर हम महान व्यक्ति की महानता का गुणगान करेंगे तो हम तो स्वयं ही महान हो जाएंगे। इतना छोटा सा गणित अपन के समझ में नहीं आता है। आपको याद है जब 22 वर्ष तक अन्जना से पवनंजय बोले नहीं थे, तिरस्कार कर दिया था, कभी पढ़ लेना। हनुमान जी की माँ थीं अन्जना। पवनंजय उनके पिता और उसके बाद एक दिन जब युद्ध में जा रहे थे पवनंजय, तब उनकी मंगल की कामना करने के लिये अन्जना दरवाजे पर खड़ी हो गईं थीं। बताइये आप, क्या रहा होगा ? यही कहलाते हैं महापुरुष, अपने तिरस्कार करने वाले के लिये भी मंगल की कामना करना, मंगलदीप लेकर के खड़ी, और उनको देखकर के और क्या कहा था। “हट दुर्भणी, जिसको देखना भी ठीक नहीं है, हट जाओ तुम यहाँ सामने से" तब अन्जना बेहोश होकर गिर गई थी और फिर जागृत होकर के क्या कहा था कि कोई दोष नहीं है उनका, दोष तो मेरे ही कर्मों का है। कम से कम जाते समय मेरे से बोल तो गये। भले ही अपशब्द कहे होंगे, लेकिन कुछ कहा तो। मेरी तरफ ध्यान तो दिया। क्या ऐसा अपने मन में आता है। 

    मैं जब इस घटना को पढ़ता हूँ तो लगता है कि हम तो अपने को इतना बड़ा मानते हैं, हमारे अन्दर तो ऐसे भाव ही नहीं आते। हमारे प्रति तिरस्कार करने के बावजूद भी हमारे मन में सद्भाव बना रहे। कोई हमें तमाचा मारे और हम उसका हाथ पकड़कर के बताएँ, कि कहीं चोट तो नहीं लग गई। ऐसा हुआ अपने जीवन में कभी, किसी ने हमें कष्ट पहुँचाया और फिर भी हम उसके सुख और उसके हित की कामना करें। ये ऊँचाई है भैया, ऊँचे उठने के लिये, अपने जीवन को महान बनाने के लिये। दूसरे के दोष देखने की आवश्यकता नहीं है। अपने दोष देख के उनको निकाल करके अपने को गुणवान बनाने की प्रक्रिया करें। ऐसा कर्म करें जिससे कि हम स्वयं अपने भीतर गुणों को प्राप्त कर सकें। दूसरे के अवगुण देखने से कुछ हमारे गुण बढ़ नहीं जाएँगे। दूसरे के गुण देखने से तो कदाचित् हमारे गुण बढ़ सकते हैं और अपने गुणों को हम बढ़ाने के लिये प्रयत्न करें। दूसरे के भीतर जो है उसकी जिम्मेदारी उसकी है। मेरे अपने जीवन को अच्छा और बुरा बनाने की जिम्मेदारी जब मेरी है तो क्यों नहीं मैं अपने जीवन को अच्छा बनाऊँ। ऐसा विचार करके निरन्तर अपने जीवन को अच्छा बनाने का प्रयास करते रहना चाहिये। 

    इसी भावना के साथ बोलिये आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज की जय। 
    ००० 
  14. Vidyasagar.Guru
    निसर्ग
     सूरज ने कहा-
     अपने द्वार खोलो
     मेरी रोशनी
     तुम्हारी होगी
     वृक्षों ने कहा-
     मेरे करीब बैठो
     मेरी छाया 
     तुम्हारी होगी
     नदियों ने कहा -
     मेरे किनारे आकर
     हाथ बढ़ाओ 
     मेरी बहती धारा 
     तुम्हारी होगी 
     मैंने ऐसा ही किया
     अब रोशनी मेरी है 
     छाया भी मेरी है
     मेरे जीवन की धारा 
     निर्बाध बहती है
     
    Offering
     The Sun said,
     ‘Open your door.
     My light is yours.’
     The trees said,
     ‘Sit near us.
     Our shade is yours.’
     The river said,
     ‘Come close and
     Touch me. My flowing
     Water is yours.’
     I did what they bid
     Me to do.
     Now the light is mine.
     The shade is mine.
     The river of my life
     Flows on smoothly.
  15. Vidyasagar.Guru
    आर्यिका भावनामति जी  आर्यिका सदयमति जी  आर्यिका भक्तिमति जी  
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  16. Vidyasagar.Guru
    आर्यिका तपोमति जी  आर्यिका सिद्धांतमति जी  आर्यिका नम्रमति जी  आर्यिका विनम्रमति जी  आर्यिका अतुलमति जी  आर्यिका अनुगममती जी  आर्यिका उचितमति जी  आर्यिका विनयमति जी   आर्यिका संगतमति जी  आर्यिका लक्ष्यमति जी   
     
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  17. Vidyasagar.Guru
    आर्यिका अकंपमति जी आर्यिका अमूल्यमति जी  आर्यिका आराध्यमति जी  आर्यिका अचिन्त्यमति जी  आर्यिका अलोल्यमति जी  आर्यिका अनमोलमति जी आर्यिका आज्ञामति जी  आर्यिका अचलमति जी  आर्यिका अवगममति जी  
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  18. Vidyasagar.Guru
    भगवान
     भगवन कितना बड़ा है
     मैंने
     एक बच्चे से पूछा
     उसने दोनों हाथ फैलाये 
     और जैसे
     मुझे समझाया
     कि इतना बड़ा
     तब सचमुच
     मुझे भी लगा 
     कि जितना जिसके 
     जीवन में समा जाए 
     भगवान उतना ही बड़ा!
     
    GOD
     I asked a child,
     ‘How big is God?’
     The child smiled
     And stretched both
     His arms wide.
     The child wanted me to learn
     The vastness of God,
     And then I knew
     That God is only as big
     As your own life’s grasp.
  19. Vidyasagar.Guru
    मुनिश्री निर्णयसागर जी  मुनिश्री सुव्रतसागर जी   
     
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  20. Vidyasagar.Guru
    आर्यिका गुणमति जी  आर्यिका ध्येयमति जी आर्यिका आत्ममति जी आर्यिका संयतमति जी   
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  21. Vidyasagar.Guru
    मुनिश्री अजितसागरजी ऐलक दयासागर जी ऐलक विवेकानंदसागर जी  
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  22. Vidyasagar.Guru
    मुनिश्री कुन्थुसागर जी   
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  23. Vidyasagar.Guru

    साहित्य
    आतम गुण के घातक चारों कर्म आपने घात दिए
    अनन्तचतुष्टय गुण के धारक दोष अठारह नाश किए
    शत इन्द्रों से पूज्य जिनेश्वर अरिहंतों को नमन करूँ
    आत्म बोध पाकर विभाव का नाश करूँ सब दोष हरु ॥1॥

    कभी आपका दर्श किया ना ऐ सिद्धालय के वासी
    आगम से परिचय पाकर मैं हुआ शुद्ध पद अभिलाषी
    ज्ञान शरीरी विदेह जिनको वंदन करने मैं आया
    सिद्ध देश का पथिक बना मैं सिद्धों सा बनने आया ॥2॥

    छत्तीस मूलगुणों के गहने निज आतम को पहनाए
    पाले पंचाचार स्वयं ही शिष्य गणों से पलवाए
    शिवरमणी को वरने वाले जिनवर के लघुनंदन हैं
    श्री आचार्य महा मुनिवर को तीन योग से वंदन है ॥3॥

    अंग पूर्व धर उपाध्याय श्रीश्रुत ज्ञानमृत दाता हैं
    ज्ञान मूर्ति पाठक दर्शन से पाते भविजन साता हैं
    ज्ञान गुफा में रहने वाले कर्म शत्रु से रक्षित हैं
    णमो उवज्झायाणं पद से भव्य जनों से वंदित हैं ॥4॥

    आत्म साधना लीन साधुगण आठ बीस गुण धारी हैं
    अनुपम तीन रत्न के धारक शिवपद के अधिकारी हैं
    साधु पद से अर्हत होकर सिद्ध दशा को पाना है
    अतः प्रथम इन श्री गुरुओं के पद में शीश नवाना है ॥5॥

    धन्य धन्य जिनवर की वाणी आत्म बोध का हेतु है
    निज आतम से परमातम में मिलने का एक सेतु है
    जहाँ जहाँ पर द्रव्यागम है उनको भाव सहित वंदन
    नमन भावश्रुत धर को मेरा मेटो भव भव का क्रंदन ॥6॥

    निज भावों की परिणतिया ही कर्मरूप फल देती है
    भावों की शुभ-अशुभ दशा ही दुख-सुख मय कर देती है
    कर्म स्वरूप न जान सका मैं नोकर्मों को दोष दिया
    नूतन कर्म बाँध कर निज को अनंत दुख का कोष किया ॥7॥

    तन से एक क्षेत्र अवगाही होकर यद्यपि रहता हूँ
    फिर भी स्वात्मचतुष्टय में ही निवास मैं नित करता हूँ
    पर भावों मे व्यर्थ उलझ कर स्वातम को न लख पाया
    भान हो रहा मुझे आज क्यों आतम रस न चख पाया ॥8॥

    उपादान से पर न किंचित मेरा कुछ कर सकता है
    नहीं स्वयं भी पर द्रव्यों को बना मिटा न सकता है
    किंतु भ्रमित हो पर को निज का निज को पर कर्ता माने
    अशुभ भाव से भव-कानन मे भटके निज न पहचाने ॥9॥

    मिथ्यावश चैतन्य देश का राज कर्म को सौंप दिया
    दुष्कर्मों ने मनमानी कर गुणोंद्यान को जला दिया
    विकृत गुण को देख देख कर नाथ आज पछताता हूँ
    कैसे प्राप्त करूँ स्वराज को सोच नही कुछ पाता हूँ ॥10॥

    इक पल की अज्ञान दशा में भव-भव दुख का बँध किया
    अनर्थकारी रागादिक कर पल भर भी न चैन लिया
    विकल्प जितना सस्ता उसका फल उतना ही महँगा है
    सुख में रस्ता छोटा लगता दुख में लगता लंबा है ॥11॥

    मंद कषाय दशा में प्रभु के दिव्य वचन का श्रवण किया
    किंतु मोह वश सम्यक श्रद्धा और नहीं अनुसरण किया
    आत्मस्वरूप शब्द से जाना अनुभव से मैं दूर रहा
    स्वानुभूति के बिना स्वयं के कष्ट दुःख हों चूर कहाँ ॥12॥

    मेरे चेतन चिदाकाश में अन्य द्रव्य अवगाह नहीं
    फिर भी देहादिक निज माने यह मेरा अपराध सही
    नीरक्षीर सम चेतन तन से नित्य भिन्न रहने वाला
    रहा अचेतन तन्मय चेतन अनंत गुण गहने वाला ॥13॥

    जग में यश पाकर अज्ञानी मान शिखर पर बैठ गया
    सबसे बड़ा मान कर निज को काल कीच में पैठ गया
    पर को हीन मान निज-पर के स्वरूप से अनजान रहा
    इक पल यश सौ पल अपयश में दिवस बिता कर दुःख सहा ॥14॥

    विशेष बनने की आशा में नहीं रहा सामान्य प्रभो
    साधारण में एकेन्द्रिय बन काल बिताया अनंत प्रभो
    भाव यही सामान्य रहूं नित विशेष शिव पद पाना है
    सिद्ध शिला पर नंत सिद्ध में समान होकर रहना है ॥15॥

    मैं हूँ चिन्मय देश निवासी जहाँ असंख्य प्रदेश रहें
    अनंत गुणमणि कोष भरे जग दुःख कष्ट न लेश रहें
    जानन देखन काम निरंतर लक्ष्य मेरा निष्काम रहा
    मेरा शाश्वत परिचय सुनलो आतम मेरा नाम रहा ॥16॥

    स्पर्श रूप रस गंध रहित मैं शब्द अगोचर रहता हूँ
    परम योगी के गम्य अनुपम निज में खेली करता हूँ
    निराकार निर्बन्ध स्वरूपी निश्चय से निर्दोषी हूँ
    स्वानुभूति रस पीने वाला निज गुण में संतोषी हूँ ॥17॥

    निज भावों से कर्म बाँध क्यों पर को दोषी ठहराता
    कर्म सज़ा ना देता इनको यह विकल्प तू क्यों लाता
    कर्म न्याय करने मे सक्षम सुख-दुख आदिक कार्यों में
    हस्तक्षेप न करना पर में विशेष गुण यह आर्यों में ॥18॥

    गुरुदर्श गुरुस्नेह कृपा सच शिव सुख के ही साधन हैं
    गुरु स्नेह पा मान करे तो होता धर्म विराधन है
    अतः सुनो हे मेरे चेतन आतम नेह नहीं तजना
    कृपा करो निज शुद्धातम पर मान यान पर न चढ़ना ॥19॥

    नश्वर तन-धन की हो प्रशंसा सुनकर क्यों इतराते हो
    कर्म निमित्ताधीन सभी यह समझ नहीं क्यों पाते हो
    शत्रु पक्ष को प्रोत्साहित कर शर्म तुम्हें क्यों न आती
    सिद्ध प्रभु के वंशज हो तुम क्रिया न यह शोभा पाती ॥20॥

    अपने को न अपना माने तब तक ही अज्ञानी है
    तन में आतम भ्रांति करके करे स्वयं मनमानी है
    इष्टानिष्ट कल्पना करके क्यों निज को तड़पाता है
    ज्ञानवान होकर भी चेतन सत्य समझ न पाता है ॥21॥

    जगत प्रशंसा धन अर्चन हित जैनागम अभ्यास किया
    स्वात्म लक्ष्य से जिनवाणी का श्रवण किया न ध्यान किया
    बिना अनुभव मात्र शब्द से औरों को भी समझाया
    किया अभी तक क्या-क्या अपनी करनी पर मैं पछ्ताया ॥22॥

    स्वयं जागृति से हो प्रगति बात समझ में आई है
    मात्र निमित्त से नहीं उन्नति कभी किसी ने पाई है
    निज सम्यक पुरुषार्थ जगाकर नही एक पल खोना है
    निज से निज में निज के द्वारा निज को निजमय होना है ॥23॥

    पर भावों के नहीं स्वयं के भावों के ही कर्ता हैं
    कर्मोदय के समय जीव निज भाव फलों का भोक्ता है
    भाव शुभाशुभ कर्म जनित सब शुद्ध स्वभाव हितंकर है
    अर्हत और सिद्ध पद दाता अनंत गुण रत्नाकर है ॥24॥

    निज उपयोग रहे निज गृह तो कर्म चोर न घुस पाता
    पर द्रव्यों में रहे भटकता चेतन गुण गृह लुट जाता
    जागो जागो मेरे चेतन सदा जागते तुम रहना
    सम्यक दृष्टि खोलो अपनी निज गृह की रक्षा करना ॥25॥

    राग द्वेष से दुष्कर्मों को क्यों करता आमंत्रित है
    स्वयं दुखी होने को आतुर क्यों शिव सुख से वंचित है
    गुण विकृत हो दोष बने पर गुण की सत्ता नाश नही
    ज्ञानादिक की अनुपम महिमा क्या यह तुझको ज्ञात नहीं ॥26॥

    सहानुभूति की चाह रखे न स्वानुभूति ऐसी पाऊँ
    स्वात्मचतुष्टय का वासी मैं पराधीनता न पाऊँ
    मैं हूँ नित स्वाधीन स्वयं में निमित्त के आधीन नहीं
    शुद्ध तत्त्व का लक्ष्य बनाकर पाऊँ पावन ज्ञान मही ॥27॥

    जीव द्रव्य के भेद ज्ञात कर परिभाषा भी ज्ञात हुई
    किंतु यह मैं जीव तत्त्व हूँ भाव भासना नही हुई
    बिना नीव जो भवन बनाना सर्व परिश्रम व्यर्थ रहा
    आत्म तत्त्व के ज्ञान बिना त्यों चारित का क्या अर्थ रहा ॥28॥

    त्रैकालिक पर्याय पिंडमय अनंत गुणमय द्रव्य महान
    निज स्वरूप से हीन मानना भगवंतों ने पाप कहा
    वर्तमान पर्याय मात्र ही क्यों तू निज को मान रहा
    पर्यायों में मूढ़ आत्मा पूर्ण द्रव्य न जान रहा ॥29॥

    कर्म पुण्य का वेश पहन कर चेतन के गृह में आया
    निज गृह में भोले चेतन ने पर से ही धोखा खाया
    सहज सरल होना अच्छा पर सावधान होकर रहना
    आतम गुण की अनुपम निधियां अब इसकी रक्षा करना ॥30॥

    पढ़ा कर्म सिद्धांत बहुत पर समझ नही कुछ भी आया
    नोकर्मों पर बरस पड़ा यह जब दुष्कर्म उदय आया
    कर्म स्वरूप भिन्न है मुझसे भेद ज्ञान यह हुआ नही
    बोझ रूप वह शब्द ज्ञान है कहते हैं जिनराज सही ॥31॥

    पर द्रव्यों के जड़ वैभव पर आतम क्यों ललचाता है
    निज प्रदेश में अणु मात्र भी नही कभी कुछ पाता है
    हो संतुष्ट अनंत गुणों से अनंत सुख को पाएगा
    निज वैभव से भव विनाश कर सिद्ध परम पद पाएगा ॥32॥

    वीतराग की पूजा कर क्यों राग भाव से राग करे
    निर्ग्रंथों का पूजक होकर परिग्रह की क्यों आश करे
    कथनी औ करनी में अंतर धरती अंबर जैसा है
    कहो वही जो करते हो तुम वरना निज को धोखा है ॥33॥

    अंतर्मुख उपयोग रहे तो निजानन्द का द्वार खुले
    अन्य द्रव्य की नहीं अपेक्षा कर्म-मैल भी सहज धुले
    गृह स्वामी ज्ञानोपयोग यदि निज गृह रहता सुख पाता
    पर ज्ञेयों में व्यर्थ भटकता झूठा है पर का नाता ॥34॥

    अपने को जो अपना माने वह पर को भी पर माने
    स्वपर भेद विज्ञानी होकर लक्ष्य परम पद का ठाने
    ज्ञानी करता ज्ञान मान का अज्ञ ज्ञान का मान करे
    संयोगों में राग द्वेष बिन विज्ञ स्वात्म पहचान करे ॥35॥

    वस्तु अच्छी बुरी नहीं होती दृष्टि इष्टानिष्ट करे
    वस्तु का आलंबन लेकर विकल्प मोही नित्य करे
    बंधन का कारण नहीं वस्तु भाव बँध का कारण है
    अतः भव्य जन भाव सम्हालो कहते गुरु भवतारण हैं ॥36॥

    इच्छा की उत्पत्ति होना भव दुख का ही वर्धन है
    इच्छा की पूर्ति हो जाना राग भाव का बंधन है
    इच्छा की पूर्ति न हो तो द्वेष भाव हो जाता है
    इच्छाओं का दास आत्मा भव वन में खो जाता है ॥37॥

    सर्व द्रव्य हैं न्यारे-न्यारे यही समझ अब आता है
    जीव अकेला इस भव वन में सुख-दुख भोगा करता है
    फिर क्यों पर की आशा करना सदा अकेले रहना है
    स्व सन्मुख दृष्टि करके अब अपने में ही रमना है ॥38॥

    अरी चेतना सोच ज़रा क्यों पर परिणति में लिपट रही
    स्वानुभूति से वंचित होकर क्यों निज-सुख से विमुख रही
    पर द्रव्यों में उलझ-उलझ कर बोल अभी तक क्या पाया
    अपना अनुपम गुण-धन खोकर विभाव में ही भरमाया ॥39॥

    पिता पुत्र धन दौलत नारी मोह बढ़ावन हारे हैं
    परम देव गुरु शास्त्र समागम मोह घटावन हारे हैं
    सम्यक दर्शन ज्ञान चरित सब मोह नशावन हारा हैं
    रत्नत्रय की नैया ने ही नंत भव्य को तारा है ॥40॥

    अज्ञानी जन राग भाव को उपादेय ही मान रहे
    ज्ञानी भी तो राग करे पर हेय मानना चाह रहे
    दृष्टि में नित हेय वर्तता किंतु आचरण में रागी
    ऐसे ज्ञानी धन्य-धन्य हैं शीघ्र बनें वे वैरागी ॥41॥

    कर्म बँध के समय आत्मा रागादिक से मलिन हुई
    कर्म उदय के समय कर्म फल संवेदन मे लीन हुई
    भाव कर्म से द्रव्य कर्म औ द्रव्य उदय में भाव हुआ
    निमित्त नैमित्तिक भावों से इसी तरह परिभ्रमण हुआ ॥42॥

    कर्म उदय को जीत आत्मा निज स्वरूप में लीन रहे
    उपादान को जागृत करके नहीं निमित्ताधीन रहे
    राग द्वेष भावों को तज कर नूतन कर्म विहीन करे
    जिनवर कहते विजितमना वह मुक्तिरमा को शीघ्र वरे ॥43॥

    कर्म यान पर संसारी जन बैठ चतुर्गति सैर करे
    ज्ञान नाव पर ज्ञानी बैठे भव समुद्र से तैर रहे
    एक कर्म फल का रस चखता इक शिव फल रस पीता है
    जनम मरण करता अज्ञानी ज्ञानी शाश्वत जीता है ॥44॥

    योगी भोजन करते-करते कर्म निर्जरा करता है
    भजन करे अज्ञानी फिर भी कर्म बंध ही करता है
    अभिप्राय अनुसार कर्म के बंध निर्जरा होती है
    श्रीजिनवर की सहज देशना कर्म कलुशता धोती है ॥45॥

    चेतन द्रव्य नहीं दिखता है जो दिखता वह सब जड़ है
    फिर क्यों जड़ का राग करूँ मैं चेतन मेरा शुचितम है
    देह विनाशी मैं अविनाशी निज का ही संवेदक हूँ
    स्वयं स्वयं का पालनहारा निज का ही निर्देशक हूँ ॥46॥

    क्या ले कर आए क्या ले कर जाएँगे ये मत सोचो
    तीव्र पुण्य ले कर आए हो जैन धर्म पाया सोचो
    देव शास्त्र गुरु मिला समागम तत्त्व रूचि भी प्रकट हुई
    शक्ति के अनुसार व्रती बन नर काया यह सफल हुई ॥47॥

    हे उपयोगी नाथ ज्ञानमय दृष्टि स्वसन्मुख कर दो
    नंत कल से व्यथित चेतना दुःख शमन कर सुख भर दो
    तजो अशुभ उपयोग नाथ तुम शुभ से शुद्ध वरण कर लो
    अपनी प्रिया चेतना के गृह मिथ्यातमस सभी हर लो ॥48॥

    पर वस्तु पर द्रव्य समागम दुःख क्लेश का कारण है
    आत्मज्ञान से निजानुभव ही सुख कारण भय वारण है
    स्वपर तत्त्व का भेद जानकर निज को ही नित लखना है
    शिव पद पाकर नंत काल तक स्वात्म ज्ञान रस चखना है ॥49॥

    मेरे पावन चेतन गृह में अनंत निधियां भरी पड़ी
    माँ जिनवाणी बता रही पर ज्ञान नयन पर धूल पड़ी
    बना विकारी मन इन्द्रिय से भीख माँगता रहता है
    दर दर का यह बना भिखारी पर घर दृष्टि रखता है ॥50॥

    हे आतम तू नंत काल से निज में परिणम करता है
    पर से कुछ न लेना देना फिर विकल्प क्यों करता है
    निर्विकल्प होने का चेतन दृढ़ संकल्प तुम्हें करना
    तज कर अन्तर्जल्प शीघ्र ही शांत भवन में है रहना ॥51॥

    वर्तमान में भूल कर रहा पूर्व कर्म का उदय रहा
    नहीं भूल को भूल मानना वर्तमान का दोष रहा
    निज से ही अंजान आत्मा पर को कैसे जानेगा
    इच्छा के अनुसार वर्तता प्रभु की कैसे मानेगा ॥52॥

    मेरी अनुपम सुनो चेतना ज्ञान-बाग में तुम विचरो
    निज उपयोगी देव संग में शील स्वरूप सुगंध भरो
    अन्य द्रव्य से दृष्टि हटाकर व्यभिचार का त्याग करो
    अनविकार चेष्टाएँ तजकर निजात्म पर उपकार करो॥53॥

    सुख स्वरूप आतम अनुभव से राग दुःखमय भास रहा
    निज निर्दोष स्वरूप लखा तो दृष्टि में न दोष रहा
    राग भाव संयोगज जाने ज्ञानी इनसे दूर रहे
    मैं एकत्व विभक्त आत्मा यही जान सुख पूर रहे ॥54॥

    पर से नित्य विभक्त चेतना निज गुण से एकत्व रही
    स्वभाव से सामर्थ्यवान यह पर द्रव्यों से पृथक रही
    अन्य अपेक्षा नहीं किसी की निजानन्द को पाने में
    निज स्वभाव का सार यही है विभाव के खो जाने में॥55॥

    न्यायवान एक कर्म रहा है समदृष्टि से न्याय करे
    भावों के अनुसार उदय की पूर्ण व्यवस्था कर्म करे
    कर्म समान व्यवस्थापक इस जग में और न दिखता है
    निज निज करनी के अनुसारी लेख सभी के लिखता है ॥56॥

    तन चेतन इक साथ रहे तो दुख का कारण न मानो
    एक मानना देहातम को अनंत दुख कारण जानो
    देह चेतना भिन्न-भिन्न ज्यों त्यों दुख चेतन भिन्न रहा
    परम शुद्ध निश्चय से आतम नित चिन्मय सुख कंद कहा ॥57॥

    राग भाव है आत्म विपत्ति इसे नहीं अपना मानो
    राग भाव का राग सदा ही महा विपत्ति ही जानो
    सब विभाव से भिन्न रहा मैं ज्ञान भाव से भिन्न नहीं
    राग आग का फल है जलना पाऊँ केवलज्ञान मही ॥58॥

    पूजा और प्रतिष्ठा के हित भगवत भक्ति न करना
    शब्द ज्ञान पांडित्य हेतु मन श्रुताभ्यास भी न करना
    मात्र बाह्य उपलब्धि हेतु अनुष्ठान सब व्यर्थ रहा
    दृष्टि सम्यक नहीं हुई तो पुरुषार्थ क्या अर्थ रहा ॥59॥

    मैं को प्राप्त नहीं करना है मात्र प्रतीति करना है
    जो मैं हूँ वह निज में ही हूँ स्वानुभूति ही करना है
    दृष्टि अपेक्षा विभाव तजकर ज्ञान मात्र अनुभवना है
    नंत गुणों का पिंड स्वयं मैं निज में ही नित रमना है ॥60॥

    आत्म भावना भा ले चेतन भाव स्वयं ही बदलेगा
    भाव बदलते भव बदलेगा पर का तू क्या कर लेगा
    स्वयं जगत परिणाम हो रहा तू निज भावों का कर्ता
    ज्ञान मात्र अनुभवो स्वयं को हे चेतन चिन्मय भोक्ता ॥61॥

    तत्त्व ज्ञान जितना गहरा हो निज समीपता आती है
    निकट सरोवर के हो जितना शीतलता ही आती है
    आत्म तत्त्व का आश्रय करके ज्ञान करे तो सम्यक हो
    ज्ञान सिंधु में खूब नहाकर भविष्य शाश्वत उज्जवल हो ॥62॥

    पूर्ति असंभव सब विकल्प की अभाव इसका संभव है
    पर आश्रय से होने वाले स्वाश्रय से होता क्षय है
    विकल्प करने योग्य नहीं है निषेधने के योग्य रहे
    निर्विकल्प होकर हे चेतन ज्ञान मात्र ही भोग्य रहे ॥63॥

    भविष्य के संकल्प भूत के विकल्प तू क्यों करता है
    अजर अमर अविनाशी होकर कौन जनमता मरता है
    पुद्गल की इन पर्यायों में निर्भ्रम होकर रहना है
    वर्तमान में निज विवेक से निजात्म में ही रमना है॥64॥

    पर का कर्ता मान भले तू पर कर्ता न बन सकता
    पर को सुखी-दुखी करने में भाव मात्र ही कर सकता
    तेरा कार्य तुझे ही करना अन्य नहीं कर सकता है
    दृढ़ निश्चय यह करके आतम अनंत सौख्य पा सकता है ॥65॥

    किंचित ज्ञान प्राप्त कर चेतन समझाने क्यों दौड़ गया
    लक्ष्य स्वयं को समझाने का तू क्यों आख़िर भूल गया
    सभी समझते स्वयं ज्ञान से पर की चिंता मत करना
    स्वयं शुद्ध आत्मज्ञ होय कर ज्ञान शरीरी ही रहना ॥66॥

    निमित्त दूर करो मत चेतन उपादान को सम्हालो
    बारंबार निमित्त मिलेंगे चाहे कितना कुछ कर लो
    कर्मोदय ही नोकर्मों के निमित्त स्वयं जुटाता है
    उपादान यदि जागृत हो तो कोई न कुछ कर पाता है ॥67॥

    भव वर्धक भावों से आतम कभी रूचि तुम मत करना
    परमानंद तुम्हारा तुममें इससे वंचित न रहना
    बहुत कर चुके कार्य अभी तक किंतु नहीं कृतकृत्य हुए
    रूचि अनुसारी वीर्य वर्तता आत्म रूचि अतः प्राप्त करे ॥68॥

    निज की सुध-बुध भूल गया तो कर्म लूट ले जाएँगे
    स्वसन्मुख यदि दृष्टि रही तो कर्म ठहर न पाएँगे
    निज पर नज़र गड़ाए रखना हे अनंत धन के स्वामी
    आत्म प्रभु का कहना मानो बनना तुमको शिवधामी ॥69॥

    इच्छा से जब कुछ न होता फिर क्यों कष्ट उठाते हो
    सब अनर्थ की जड़ है इच्छा समझ नहीं क्यों पाते हो
    ज्ञानानंद घातने वाली इच्छाएँ ही विपदा हैं
    निस्तरंग आनंद सरोवर निज में शाश्वत सुखदा है ॥70॥

    परिजन मित्र समाज देशहित बहुत व्यवस्थाएँ करते
    अस्त-व्यस्त निज रही चेतना आत्म व्यवस्था कब करते
    चेतन प्यारे निज की सुध लो बाहर में कुछ इष्ट नहीं
    नंत काल से जानबूझ कर विष को पीना ठीक नहीं ॥71॥

    पुद्गल आदिक बाह्य कार्य में चेतन जड़वत हो जाना
    विषय भोग व्यवहार कार्य में मेरे आतम सो जाना
    निश्चय में नित जागृत रहना लक्ष्य न ओझल हो पावे
    कर्मोदय हो तीव्र भले पर दृष्टि आतम पर जावे ॥72॥

    हेय तत्त्व का ज्ञान किया जो मात्र हेय के लिए नहीं
    उपादेय की प्राप्ति हेतु ही ज्ञेय ज्ञान हो जाए सही
    ज्ञायक मेरा रूप सुहाना ज्ञाता मेरा भाव रहे
    ज्ञान संग मैं अनंत गुणयुत चिन्मय मेरा धाम रहे ॥73॥

    प्रति वस्तु की अपनी-अपनी मर्यादाएँ होती हैं
    भिन्न चतुष्टय सबके अपने निज में परिणति होती है
    इक क्षेत्रावगाह चेतन तन होकर भिन्न-भिन्न रहते
    निज-निज गुणमय पर्यायों में द्रव्य नित्य परिणम करते ॥74॥

    निज की महिमा नहीं समझता यही पाप का उदय कहा
    पर पदार्थ की महिमा गाता नश्वर की तू शरण रहा
    वीतराग प्रभुवर कहते तू तीन लोक का ज्ञाता है
    इससे बढ़कर क्या महिमा है निश्चय से निज दृष्टा है ॥75॥

    मेरे में मैं ही रहता हूँ अन्य द्रव्य का दखल नहीं
    अनंत गुण हैं सदा सुरक्षित सत्ता मेरी नित्य रही
    निज में ही संतुष्ट रहूं मैं पर से मेरा काम नहीं
    यह दृढ़ निश्चय करके ही मैं पा जाऊँ ध्रुव धाम मही ॥76॥

    निज पर दुष्कर्मों के द्वारा क्यों उपसर्ग कराते हो
    मिथ्यातम अविरत कषाय औ योग द्वार खुलवाते हो
    अपने हाथों निज गृह में क्यों आग लगाते रहते हो
    अपने को ही अपना मानो अपनों में क्यों रमते हो ॥77॥

    स्वपर भेद अभ्यास बिना ही संकट नाश नहीं होता
    स्वात्म प्रभु की दृढ़ आस्था बिन निज में भास नहीं होता
    भेद ज्ञान अमृत के जैसा अजर अमर पद दाई है
    हे आतम इसको न तजना यह अनुपम अतिशायी है ॥78॥

    विभाव विष को तज कर आतम स्वभाव अमृत पान करो
    सबसे भिन्न निराला निरखो निज का निज में ध्यान धरो
    बहुत सरल है आत्म ध्यान जो पंचेंद्रिय अनपेक्ष रहा
    सरल कार्य को कठिन बनाया चेतन अब तो चेत ज़रा ॥79॥

    स्वभाव का सामर्थ्य जानकर पर द्रव्यों से पृथक रहो
    विभाव को विपरीत समझकर स्वात्म गुणों में लीन रहो
    बाहर में करने जैसा कुछ नहीं जगत में दिखता है
    भीतर में जो होने वाला वही हो रहा होता है ॥80॥

    निज आतम से अन्य रहे जो वे मुझको क्या दे सकते
    मेरे गुण मुझ में शाश्वत हैं वे मुझसे क्या ले सकते
    मैं अपने में परिणमता हूँ पर का कुछ संयोग नहीं
    मेरा सब कुछ मुझ को करना मेरा दृढ़ विश्वास यही ॥81॥

    मैं धर्मात्मा बहुत शांत हूँ जग वालों से मत कहना
    शांति प्रदर्शन बिन अशांति के कैसे हो जिन का कहना
    ज्ञानी तुम्हे अशांत कहेंगे अतः सत्य शांति पाओ
    शब्द अगोचर आत्मशांति है शब्द वेश ना पहनाओ ॥82॥

    जो दिखता है वह अजीव है इसमे सुख गुण सत्त्व नहीं
    फिर कैसे वह सुख दे सकता आश न रखना अन्य कहीं
    सुख गुण वाले जीव नंत पर वह निज सुख न दे सकते
    अपने सुख को प्रगटा कर अनंत सुखमय हो सकते ॥83॥

    आत्म शांति यदि पाना चाहो जग के मुखिया मत होना
    नश्वर ख्याति पद के खातिर आतम निधियां मत खोना
    पल भर इंद्रिय सुख को पाने चिदानंद को न भूलो
    सर्व जगत से मोह हटा कर निज प्रदेश को तुम छू लो ॥84॥

    समझाने का भ्रम न पालो किसकी सुनता कौन यहाँ
    सब अपने मन की सुनते हैं कौन किसी का हुआ यहाँ
    अपना ही अपना होता है केवल आतम अपना है
    ज्ञानमयी आतम को समझो शेष जगत सब सपना है ॥85॥

    मान बढ़ाने जग का परिचय विकल्पाग्नि का ईंधन है
    स्वात्म अनंत गुणों का परिचय जीवन का शाश्वत धन है
    पर से परिचित निज से वंचित रह कर आख़िर क्या पाया
    जिन परिचय से निज का परिचय मुझको आज समझ आया ॥86॥

    पर पदार्थ को शरण मानकर निज को अशरण करना है
    निज का संबल छूट गया तो भव-भव में दुख वरना है
    परमेष्ठी व्यवहार शरण औ निज शुद्धातम निश्चय है
    अनंत बलयुत चिद घन निर्मल शरणभूत निज चिन्मय है ॥87॥

    कर्मोपाधी रहित सदा मैं अनंत गुण का पिंड रहा
    जिनवाणी ने आत्म तत्त्व को पूर्ण ज्ञान मार्तंड कहा
    सुख-दुख कर्म जनित पीड़ाएँ आती जाती रहती हैं
    मेरे ज्ञान समंदर में नित ज्ञान धार ही बहती है ॥88॥

    राग भाव की पूर्ति करके अज्ञानी हर्षित होता
    ज्ञानी राग नहीं करता पर हो जाने पर दुख होता
    ज्ञानी और अज्ञानीजन में अंतर अवनि अंबर का
    इक बाहर नश्वर सुख पाता इक पाता है अंदर का ॥89॥

    बिना कमाए सारे वैभव पुण्योदय से मिल जाते
    किंतु तत्त्व-ज्ञान बिन आतम शांति कभी नहीं पाते
    श्रम करते पर पापोदय में धन सुख वैभव नहीं मिले ॥90॥

    जो दिखता है वह मैं न हूँ देखनहारा ही मैं हूँ
    निज आतम को ज्ञानद्वार से जाननहारा ही मैं हूँ
    ज्ञान ज्ञान में ही रहता है पर ज्ञेयों में न जाता
    ज्ञेय ज्ञेय में ही रहते पर सहज जानने में आता ॥91॥

    वर्तमान में निर्दोषी पर भूतकाल का दोषी हूँ
    नोकर्मों का दोष नहीं कुछ यही समझ संतोषी हूँ
    अन्य मुझे दुख देना चाहे किंतु दुखी मैं क्यों होऊ
    आत्मधरा पर कषाय करके नये कर्म को क्यों बोऊ ॥92॥

    निश्चय से उपयोग कभी भी बाहर कहीं न जा सकता
    एक द्रव्य का गुण दूजे में प्रवेश ही न पा सकता
    मोही पर को विषय बनाता तब कहने में आता है
    यदि पर में उपयोग गया तो ज्ञान शून्य हो जाता है ॥93॥

    अगर हृदय में श्रद्धा है तो पत्थर में भी जिनवर हैं
    मूर्तिमान दिखते मूर्ति में कागज पर जिनवर वच हैं
    कर्म परत के पार दिखेगा तुझको तेरा प्रभु महान
    कौन रोक पाएगा तुझको बनने से अर्हत भगवान ॥94॥

    मान नाम हित किया दान तो अनर्थ औ निस्सार रहा
    पुण्य लक्ष्य से दान दिया तो दान नहीं व्यापार रहा
    पुण्य खरीदा निज को भूला अपना क्यों नुकसान करे
    अहम भाव से रहित दान कर भगवत पद आसान करे ॥95॥

    पाप भाव का दंड बाह्य में मिले न या मिल सकता है
    पर अंतस मे आकुलता का दंड निरंतर मिलता है
    पाप विभाव भाव दुखदाई कर्म जनित है नित्य नहीं
    जो स्वभाव है वह अपना है शाश्वत रहता सत्य वही ॥96॥

    पूजादिक शुभ सर्व क्रियाएँ रूढिक कही न जा सकती
    मोक्ष निमित्तिक क्रिया सभी यह शिव मंज़िल ले जा सकती
    समकित के यदि साथ क्रिया हो सम्यक संयम चरित वही
    अतः भावयुत क्रिया करो नित पा जाओ ध्रुव धाम मही ॥97॥

    तन परिजन परिवार संबंधी नंत बार कर्तव्य किए
    निज शुद्धात्म प्रकट करने को कभी न कोई कार्य किए
    निज मंतव्य शुद्ध करके अब शीघ्र प्राप्त गंतव्य करें
    कुछ ऐसा कर्तव्य करें अब जिनवर पद कृतकृत्य वरे ॥98॥

    हो निमित्त आधीन आत्मा कर्म बांधता रहता है
    कभी-कभी ऐसा भी होता उसे पता न चलता है
    बँध शुभाशुभ भावों से हो श्वान वृत्ति को तजना है
    सिंह वृत्ति से उपादान की स्वयं विशुद्धी करना है ॥99॥

    पर की अपकीर्ति फैलाकर कभी कीर्ति न पा सकते
    अपयश का भय रख कर यश की चाह नही कम कर सकते
    ख्याति-त्याग के प्रवचन में भी ख्याति का न लक्ष्य रहे
    यश चाहो तो ऐसा चाहो तीन लोक यश बना रहे ॥100॥

    भव भटकन को तज कर साधक आत्मिक यात्रा शुरू करो
    स्वानुभूति का मंत्र जापकर अपनी मंज़िल प्राप्त करो
    पर ज्ञेयों की छटा ना देखो आत्म ज्ञान ही ज्ञेय रहे
    कर्मशूल से बच कर चलना मात्र लक्ष्य आदेय रहे ॥
  24. Vidyasagar.Guru
    मुनिश्री निष्पृहसागर जी  मुनिश्री निश्चलसागर जी  मुनिश्री निर्भीकसागर जी  मुनिश्री नीरागसागर जी  मुनिश्री ओंकारसागर जी  
     
    अधिक जानकारी 
    https://vidyasagar.guru/clubs/427-group/
    चातुर्मास स्थल जल्द ही अपडेट होगा 
    आपके पास जानकारी हो तो नीचे कमेन्ट मे अपडेट करे 
    मुनि संघ ( सभी महाराज जी एक साथ ) की फोटो भी अपडेट करे 
     
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