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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

कर्म कैसे करें? भाग -10


Vidyasagar.Guru

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एक संसार जिसे हम अपनी खुली आँखों से देखते हैं और जिसे हम अपने ही साथ तर्क व बुद्धि से मैनेज़ करने की कोशिश करते हैं, लेकिन ये जो हमारी खुली आँखों से दिखने वाला संसार है सिर्फ इतनी ही वास्तविकता नहीं है। एक और संसार है जो कि हमारी इन आँखों से नहीं दिखता है। 


श्रुत यानी सुनी गई है, परिचित है, अनुभव में भी आई है, ये संसार जो दिखाई पड़ता है इसकी कथा। लेकिन वह जो एक अंतरंग जगत है उसके बारे में ये दोनों आँखें देख नहीं पातीं। और भी संसार में बहुत सी ऐसी चीजें हैं जिनको कि ये दो आँखें नहीं देख पाती जिनको देखने के लिये हमें कोई तीसरी आँख अपने भीतर पैदा करनी पड़ती है ? वो श्रद्धा, निष्ठा, आस्था, सर्मपण है और विश्वास की आँख है, उस आँख के खुलने के लिये कुछ तो हमारे पास अच्छे कर्म होने चाहिये। तब फिर वो, जो अंतरंग जगत है, वो जो श्रद्धा और विश्वास है उसे हम समझ पाते हैं। हमारे जीवन में हमने पता नहीं ऐसे कौनसे कर्म किये हैं जिससे कि सहसा हमारी श्रद्धा, हमारा विश्वास उस आंतरिक जगत पर नहीं हो पाता है ? ठीक ऐसे ही जैसे कि जीवन भर जिस जगह बैठकर के एक भिखारी भीख माँगता रहा। उसके मर जाने पर लोगों ने देखा कि उसी जगह पर सोने की अशर्फियाँ दबी हुई थीं, वो भिखारी जीवन भर इस बात को नहीं जान सका, उसे अपनी निजी संपदा देखने की आँख नहीं मिल सकी। ऐसे ही हम लोगों के पास अपनी निजी आत्म-संपदा है उसे देख पाने की जो हिय की आँख है, वो हमारी नहीं खुल पाती है। इतना ही नहीं सिकंदर जैसे लोग हुए जिन्होंने मरते समय अपने दोनों हाथ बाहर निकाल करके हमें ये विश्वास दिलाना चाहा कि यहाँ से कोई कुछ हाथों में लेकर नहीं जाता। जो अटेच हो जाता है वो हमारे साथ जाता है। ये सारी चीजें यहीं बाहर पड़ी रह जाती हैं और खाली हाथ लौटने की वेदना लेकर के हम लौटें, इससे पहले क्यों ना हम, अपने आप की पहचान कर लें (जो कि हमारे साथ जाता है)। इस अपने आप की पहचान करने का विश्वास, ऐसी आस्था, हमारे भीतर पता नहीं क्यों पैदा नहीं हो पाती ? 


एक साधु रास्ते से गुजरता है और कहता है कि जो सच्चाई का साथ देता है वो मुक्त हो जाता है और मनुष्य नहीं सुन पाता इस बात को और एक पिंजरे में बैठा हुआ जो राजा के घर में लटका हआ पिंजरा. उसमें बैठा हआ पक्षी उस बात पर विश्वास कर लेता है कि सचमुच मुझे हमेशा सच का साथ देना चाहिये और होता क्या है ? जब दूसरे राज्य का दूत आकर के राजा से मिलना चाहता है, तो राजा भीतर से समाचार भेजता है कि कह दो कि मैं नहीं हूँ । पर वो पक्षी जिसने अभी थोड़ी  देर पहले साधु के वचन सुन लिये थे कि "हमेशा सच्चाई का साथ देना" उसने कहा राजा भीतर है और कहा जा रहा है कि राजा नहीं है और ये बात जैसे ही राजा को मालूम पड़ी कि मेरी बात तो गड़बड़ा गई इस पक्षी की वजह से, तो कहा कि हटाओ इस पक्षी को। इतना ही तो चाहता था वो, पिंजरा खोल दिया गया। पक्षी अब उस साधु की ही तरह गीत गा रहा है, किसी वृक्ष पर बैठकर कि "हमेशा साथ सच्चाई का ही देना”। मैंने तो मुक्त हो के देख लिया। जरा देर के लिये मैंने सच्चाई का साथ दिया था और मैं मुक्त हो गया। लेकिन इस बात पर हम विश्वास नहीं कर पाते। आखिर क्या चीज है ? क्या चीज है जिससे अपनी निजी सम्पदा पर हमारा विश्वास नहीं होता? क्या चीज है कि हमारे अपने ऊपर हमारा विश्वास नहीं होता ? क्या चीज है कि सच्चाई पर हमारा विश्वास नहीं होता ? और क्या ऐसी चीज है जो कि सपने को सच मानने के लिये मजबूर कर देती है। हाँ, पाने लायक कुछ भी नहीं है और पाने लायक जो है वो मेरे अपने भीतर है।

क्या हुआ था, राजा का राजकुमार बीमार था और वो उसके सिराहने बैठे रहे और झपकी लग गई और तब उन्होंने सपने में अपने बारह बेटे और बहुत बड़ा साम्राज्य देखा। और इतने में राजकुमार मर गया और जीवनसाथी की चीख सुनकर के उनकी आँख खुल गई और आँख खुली तो देखा कि बेटा तो मर चुका है। तब बहुत जोर से हँसे थे, तो लोगों ने यही समझा था कि पागल हो गये लगते हैं दुःख में। लेकिन उनसे पूछने पर कि आप हँसे क्यों ? तब उन्होंने कहा कि आज मुझे मालूम पड़ा कि इस संसार की वास्तविकता ये है कि सिर्फ यहाँ पर बन्द होने पर ही आँख से सपना नहीं दिखता यहाँ तो खुली आँख से भी हम सपने ही देखा करते हैं। मैं उन बारह बच्चों को जो अभी स्वप्न में, जिनको कि मैं बिल्कुल सच मान रहा था, वे मेरे चले गये स्वप्न टूटने पर, उनके लिये रोऊँ या कि जो ये सामने राजकुमार मेरे सामने से मरण को प्राप्त हो गया, इसके लिये रोऊँ। इसलिये मैं हँस रहा हूँ। ये सारी चीजें, ये जो एक हमारा इस संसार को देखने का नजरिया है, इस पर कौन आवरण डालता है, इसे कौन विकृत कर देता है, मेरे ऐसे कौनसे कर्म हैं जो मुझे सच्चे देव, गुरु, शास्त्र पर श्रद्धा नहीं होने देते ? जो मुझे सात तत्त्वों का श्रद्धान नहीं होने देते? जो कि मेरे जीवन के लिये हितकारी हैं उन पर मेरा विश्वास क्यों नहीं बनने देते हैं। जहाँ जहाँ भी आत्मा की, और मेरे कल्याण की चर्चा होती है, वहाँ मेरी रुचि क्यों नहीं जाग्रत होती ? वहाँ मेरा और रुझान क्यों नहीं होता और संसार के प्रपंच में मेरा रुझान क्यों हो जाता है? इन सब बातों पर कई-कई बार मन में विचार तो आता है आखिर ऐसा क्या किया मैंने कि किसी और को तो विश्वास हो जाता है और मेरा विश्वास नहीं जमता। मेरा आत्म-विश्वास इतना कमजोर क्यों है, ऐसा हम हमेशा अपने मन में विचार करते हैं। आचार्य भगवन्तों के चरणों में बैठे तो वे समझाते हैं कि किसी और ने, हमें अविश्वास में डाल दिया हो, हमारी श्रद्धा को खण्डित कर दिया हो या हमारी आस्था को, निष्ठा को नहीं जमने दिया हो, ऐसा नहीं है, हमारे ही अपने कर्म हैं। 

भैया कर्मों के बारे में तो ऐसा है कि जैसे कि माँ ने चार लड्डू बनाये हों और थोड़े थोड़े से दिये तीन लड्डू में से, तो हमने अपना असंतोष व्यक्त कर दिया, लेकिन उन चार लड्डुओं में से एक लड्डू पर किसी सर्प ने आकर के विष गिरा दिया है, अब बताइयेगा कि वो पूरा लड्डू कोई हमें दे दे तो क्या हम खाना पसंद करेंगे, हमें वो तीन में से थोड़ा थोड़ा ही ठीक है वो चौथा पूरा भी कोई दे दे तो हमें नहीं चाहिये। ज्ञान पर थोड़ा सा आवरण ढक जावें, बाकी तो क्षयोपशम बना रहता है सो थोड़ा बहुत तो जानने में आता है, दर्शन पर थोड़ा सा आवरण पड़ गया है, बाकी थोड़ा तो देखने में अभी भी आ रहा है। मेरे दान, लाभ, भोग-उपभोग की सामग्री में थोड़ा बहुत आवरण पड़ा हुआ है लेकिन थोड़ा सा तो मुझे अभी प्राप्त हुआ है, ये सारी तीनों चीजें थोड़ी-थोड़ी तो प्राप्त हुई हैं, लेकिन एक सबसे ज्यादा खतरनाक है, मेरा अपना मोह जो कि मेरे पूरे जीवन को विषाक्त और विकृत कर देता है। मिलता पूरा का पूरा है, लेकिन वो पूरा का पूरा मेरे जीवन को विषाक्त कर देता है। वो मेरी श्रद्धा को विषाक्त कर देता है, वो मेरे आचरण को भी बिगाड़ देता है, दोनों प्रकार का है। मेरी श्रद्धा को विकृत करने वाला, मेरी श्रद्धा को ठीक जगह नहीं जमने देने वाला, बल्कि मेरी श्रद्धा को जहाँ मेरा अहित है, उस पर मेरे विश्वास को जमा देने वाला और जहाँ मेरा हित होता है, वहाँ से मुझे रुचि ही जाग्रत होने नहीं देता, ऐसे भी एक मोहनीय कर्म है। और एक मोह की वैरायटी ये है कि वो मेरे अपने आचरण को हमेशा बिगाड़ती रहती है, अगर हमारा सेल्फ-कोन्फीडेन्स नहीं है इसके मायने है हमने कोई ऐसा दुष्कर्म किया है, जिससे कि हमारे भीतर श्रद्धा की रोशनी जाग्रत नहीं हो पाती और वो कौनसा कर्म है, वो कौनसे परिणामों से मेरे भीतर संचित होता है ये जान लूँ ताकि आगे उस कर्म को ना करूँ जिससे कि मेरी श्रद्धा मजबूत हो सके, जिससे कि मेरा विश्वास जम सके, जिससे कि मैं अपने आत्म-विश्वास को बढ़ा करके अपना उद्धार कर सकूँ, अपना कल्याण कर सकूँ। “केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य"। 


मेरी दृष्टि को, मेरे नजरिये को, प्रभावित करने वाला, मेरे नजरिये को बिल्कुल विकृत कर देने वाला, दर्शन मोह है और सारा खेल इस संसार में दृष्टि का ही है, जैसा देखना चाहें वैसा दिखाई पड़ता है, जैसा है वैसा देखने के लिये तो आँख चाहिये, वर्ना इन दो आँखों से तो जैसा हम देखना चाहते हैं वैसा दिखता है, एक्सजेटली कैसा है, वैसा देखने के लिये तो बहुत श्रद्धा की और विवेक की आँख चाहिये, जब हमारा मन राग-द्वेष से युक्त होता है, तब चीजें भली और बुरी जान पड़ती है। चीजें कैसी हैं ये नहीं जान पड़ता। चीजें भली हैं या कि बुरी। आकाश नीला है लेकिन कभी हँसता मालूम पड़ता है, कभी रोता मालूम पड़ता है, जब हमारा जी अच्छा नहीं होता तो एक-एक चीज ऐसी मालूम पड़ती है जैसे कि सब उदास हों और जब हमारा मन प्रफुल्लित होता है तो उदास व्यक्ति भी हँसता हुआ जैसा जान पड़ता है। ये सारा का सारा खेल हमारी अपनी दृष्टि का है और इसी दृष्टि को विकृत कर देने वाला मेरा कोई कर्म मेरे भीतर बैठा हुआ है। हम अपने आपको नहीं देख पाते हैं और बाकी सारी दुनिया को देख पाते हैं। ये क्या चीज है जो कि हमें खुद अपना परिचय नहीं होने देती ? ऐसा कौनसा कर्म है ? यही है जो दृष्टि को विकृत बनाने वाला मोह है, जो हमें चीजों को राग-द्वेष से युक्त होकर के देखने को मजबूर करता है, जबकि हमें वीतराग भाव से चीजों को देखना चाहिए और वीतराग भाव से ही देखने पर चीजें ठीक दिखाई पड़ती हैं। राग-द्वेष से देखने पर तो चीजें ठीक दिखाई नहीं पड़तीं। लेकिन क्या करें हमारे अपने कर्म हमें ऐसा करने के लिये प्रेरित करते हैं और सब ठीक होने के बाद भी मेरे भीतर का जो मोह है वो मुझे इन सब चीजों के बारे में ऐसा उलट-पुलट सोचने के लिये मजबूर कर देता है। 


"केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य' 


कैसे परिणाम होते हैं, जबकि ये अश्रद्धान मेरे भीतर जागृत होता है। असल में जो महान आत्माएँ हैं, महापुरुष हैं उनमें जो दोष नहीं है, उन दोषों का हम आविष्कार कर लेते हैं, उन दोषों की उनमें कल्पना करने लगते हैं, इसे कहते हैं “अवर्णवाद"। और ये जो अवर्णवाद है, जिसमें दोष नहीं है उसमें उन दोषों को देखना, उन दोषों की कल्पना करना ये मेरी दृष्टि को दूषित करते हैं। हाँ किसी व्यक्ति में और वो भी महापुरुष में वे दोष नहीं हैं और हमने उन दोषों का उसमें अगर आविष्कार कर लिया है अगर उसकी कल्पना भी कर ली है मेरी दृष्टि दूषित होने से अब मुझे कभी भी वास्तविकता मालूम नहीं पड़ेगी। 


मैं अपनी उस दृष्टि की निर्मलता को कभी हासिल नहीं कर पाऊँगा और संसार में जिसकी दृष्टि निर्मल है, वो ही अपने जीवन को ऊँचा उठा सकता है। दृष्टि की निर्मलता और श्रद्धान से ही सारा संसार चलता है। एक कदम भी अगर हम अविश्वासपूर्वक रखते हैं तो डगमगा जाते हैं. संसार भी विश्वास से ही चलता है और संसार से पार होने का रास्ता भी विश्वास और श्रद्धा से ही चलता है, ऐसे इस विश्वास को हम कैसे कायम रख सके और ऐसी श्रद्धा को बिगाड़ने वाले कर्मों से हम कैसे बचें, बस ये हमें ध्यान रखना है। केवली' किसे कहते हैं जिनको अपने चार घातिया कर्मों के नाश करने पर अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति हुई है, जो संसार के दोषों से मुक्त हो गये हैं अठारह ही दोष हैं, हम सबमें। उन अठारह दोषों से जो रहित हैं। वे अरिहंत केवली भगवान हैं उन्हें भी भूख लगती होगी ? उन्हें भी प्यास लगती होगी ? उन्हें भी रोग-शोक होते होंगे? वे भी भोजन करते होंगे? ऐसी हम उनके भीतर कल्पना कर लेते हैं, ये जो हमारी केवली भगवान के बारे में मिथ्या कल्पना है, दोष पूर्ण कल्पना है वो हमारी अपनी दृष्टि को विकृत करती है। जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कही गयी जिनवाणी जिसे हम ‘श्रुत' कहते हैं उसमें ऐसी कल्पना कर लेते हैं कि कहाँ लिखी है ग्रन्थों में कि रात्रि भोजन नहीं करना चाहिये। कई जगह लिखा हुआ है कि रात में खा सकते हैं। कौन कहता है, कहाँ लिखा हुआ है कि आलू नहीं खाना चाहिये ? ग्रन्थों में लिखा है कि आलू खाना चाहिये, इतना ही नहीं मांस और मदिरा का सेवन भी ग्रन्थों के द्वारा सम्मत है, ऐसा मिथ्या दोष जब हम उन पर लगा देते हैं, जब हम गुरुजनों की और तीर्थंकरों की वाणी पर ऐसा दोषारोपण कर देते हैं कि उन्होंने तो इन सब चीजों को सही (वेलिड) माना है, तब मानियेगा कि ये हमारी दृष्टि को विकृत करता है। हमारे आत्म-विश्वास को धीरे-धीरे हटाता है। हमने तो अपनी विषय कषाओं के पोषण के लिये उन सब चीजों में भी तब्दीली कर दी और अपने मन मुताबिक उन चीजों में वे चीजें शामिल कर दी, ऐसे श्रुत का अवर्णवाद मेरी दृष्टि को विकृत करता है। बहुत सावधान रहने की आवश्यकता है। मैंने स्क्रिप्ट में मिक्सअप करना अपनी दृष्टि के अनुरूप अपने राग-द्वेष से प्रेरित होकर के, वो हमारी ही दृष्टि को विकृत करेगा। दूसरे का तो बिगाड़ होगा ही, अपना खुद का भी बिगाड़ होगा। इसलिये कभी भी ऐसा प्ररूपण नहीं करना। “एकान्तवाद दूषित समस्त, विषयादिक-पोषक अप्रशस्त। रागी-कुमतिन-कृत श्रुतभ्यास, सो है कुबोध बहु देन त्रास।” 


ऐसा प्ररूपण नहीं करना जिससे कि विषय-कषायों का पोषण हो और वो भी धर्म के नाम पर। जिससे वैराग्य हो, जिससे कि संसार से पार होने का रास्ता मिले वो ही करना क्योंकि हमारे कल्याण करने वाले गुरुजनों और तीर्थंकरों ने यही कहा है। वे कभी हमें संसार में भटकाने वाली चीजों में लगने के लिये प्रेरित नहीं करेंगे। हमारी अपनी लोलुपता, हमारा अपना स्वार्थ उनके माध्यम से हम अपनी बात को कह देते हैं, इससे क्या होगा? कल के दिन हमें फिर निर्मल दृष्टि नहीं मिलेगी, निर्मल ज्ञान नहीं मिलेगा। हमारी दृष्टि हमेशा विकृत ही बनी रहेगी क्योंकि हमने जो निर्मल चरित्र था उसमें दूषण लगा दिया, जो निर्मल वाणी थी भगवान की, उसमें हमने दूषण लगा दिया। अब कभी हमें सच्ची वाणी का साथ नहीं मिलेगा। बहुत सावधानी की आवश्यकता है। संघ किसे कहते हैं, मुनि, आर्यिका, श्रावक-श्राविका चतुर्विध संघ है। संघ समूह है, सज्जनों का समूह ही संघ है, उन सज्जनों का जो कि अपने आत्म-कल्याण में लगे हुए हैं। वास्तव में, जो सज्जन अपने आत्म-कल्याण में लगे हुए हैं उनकी बात कह रहा हूँ। अकेला वेष धारण कर लेने से कोई सजन नहीं होता, न कोई साधु होता है। जो अंतरंग में साधुता को अपना चुका है उसकी उस साधुता को ना देखकर के यह कहना कि अरे इनके पास तो खाने-पीने को नहीं है, शरीर पर कपड़ा लत्ता नहीं है जो संसार में दुःखी दिखाई पड़ रहे हैं आगे कोई क्या सुख मिलेगा ? ऐसा मिथ्या आरोपण अपने मन में कल्पना कर लेना इससे क्या होगा ? इससे हमारी ही दृष्टि विकृत होगी। 


जो दोषी हैं उसके दोष देखना तक वर्ज है और जो निर्दोष हैं उसमें दोषों का आरोपण कर देना वो तो फिर अपने जीवन को नष्ट करने का उपाय ही है। वो जो दोषी हैं वो तो स्वयं अपने दोषों से नष्ट हो रहा है लेकिन हम जो निर्दोष हैं उसमें दोषों की कल्पना करके अपने पतन का उपाय स्वयं कर लेते हैं, बहुत सावधान रहना चाहिये। आज पाँच मिनट और लेऊँगा। विलम्ब तो हुआ मेरे जिम्मे सवा नौ बजे आई है बात। अभी 20 मिनट हुए हैं, इसलिये पाँच मिनट और लूँगा, बस। तो केवली, श्रुत और संघ तीनों में दोष कैसे लगा देते हैं हम और कैसे अपनी दृष्टि को विकृत कर लेते हैं और फिर संघ के बाद धर्म और देव ये दो और बचे हैं, धर्म कौनसी चीज है ? धर्म के मायने है अहिंसा, वीतरागता। धर्म तो सूरज की रोशनी की तरह है जितना हम खिड़की खोलेंगे, दरवाजा खोलेंगे, हमारे तक भीतर आयेगा। वो किसी की बपौती नहीं है, अहिंसा किसी की बपौती है क्या ? धर्म इतना व्यापक और इतना विशाल है, लेकिन ये कह देना कि जितने लोग इस अहिंसा धर्म का पालन करते हैं, इस वीतरागता का पालन करते हैं वे सब मरकर के खोटी जगह जाते हैं। बताइये, धर्मात्मा जो धर्म का पालन करते हैं उनकी बड़ी दुर्गति होती है। अब बताओ और अहिंसा में धर्म नहीं है धर्म तो हिंसा में है ऐसा मान लेना। हिंसा को ही धर्म मान लेना और अहिंसा धर्म से विमुख हो जाना या कि अहिंसा धर्म का पालन करने वाले को ये कहना कि वे खोटी गति में जायेंगे, असुर होवेंगे। ये क्या है ? ये हमारी अपनी, अगर हमारी श्रद्धा नहीं जम पा रही है। हमें दृष्टि की निर्मलता जिसको सम्यग्दर्शन कहते हैं, जिससे कि संसार से पार हुआ जाता है वो चीज नहीं मिलती। मेरे अपने खोटे कर्म अभी मुझे देखना चाहिये। आज अगर वर्तमान में जो हम कहते हैं कि जरा आत्म-विश्वास बढ़ाने की कोई प्रक्रिया तो बताओ, किताबें निकल गई हैं। किताबें बिक रही हैं इस बात के लिये कि आप अपने फेथ को, आप अपने पोजिटिव ऐटीट्यूड को कैसे मेन्टेन करें, अपने नजरिये को कैसे बदलें और अपना आत्मविश्वास कैसे बढ़ायें क्योंकि सक्सेस के लिये तो पहले नम्बर जरूरी है कि आपको आत्मविश्वास होना चाहिये और वह आत्मविश्वास क्या आत्मा में रुचि क्यों कम हो गई ? उसके लिये मैंने कौनसे खोटे कर्म किये थे, इस पर विचार करना चाहिये। मैंने हिंसा को धर्म मान लिया होगा, मैंने अहिंसा का पालन करने वालों की दुर्गति हो जावे, ऐसा विचार किया होगा इसलिये आज मेरा अपना विश्वास मेरे ही ऊपर नहीं है। और देव किसे कहते हैं? जिनेन्द्र भगवान को देव कहते हैं, लेकिन स्वर्ग के देव भी देव कहलाते हैं, जिनेन्द्र भगवान के बारे में, अरिहंत भगवान के बारे में, वीतरागी भगवान के बारे में, तो दोषों की कल्पना करनी ही नहीं चाहिये, यहाँ तक कि जो स्वर्ग में रहते हैं देव उनके बारे में भी मिथ्या कल्पना नहीं करना चाहिये। क्या कल्पना करते हैं कि ये जो देवी-देवता हैं ये तो मांस खाते हैं, शराब पीते हैं, सुरापान करते हैं और देवांगनाओं का जो निरन्तर भोग करते हैं, उनको चाहिये सुरा और सुन्दरी। ऐसा कह देते हैं हम ऐसी कल्पना कर लेते हैं उनमें। ध्यान रखना वे अत्यन्त सुन्दर होते हैं, मंद कषायी होते हैं, परिग्रह धीरे-धीरे उनका कम होता जाता है। 


“गतिशरीरपरिग्रहाभिमानतो हीनाः" 


उनमें से अधिकांश तो सम्यग्दृष्टि होते हैं और उन पर हम ऐसा दोष लगा दें कि वे सुरापान करते हैं, मांस का भक्षण, भैया उनके तो मानस आहार होता है, कंठ में से अमृत झर जाता है. बस इतना ही है। लेकिन ऐसी मिथ्या धारणाएँ हम बना लेते हैं। ये मिथ्या धारणाएँ हमारे जीवन को, हमारी दृष्टि को दूषित करती हैं। ये तो ठीक ऐसा है, दृष्टि की निर्मलता और दृष्टि की विकृति तो ऐसी है भैया अपन को जो चीज अपने राग-द्वेष से रुचि जावें, उसी को अपन सही मानते हैं और जो अपने को नहीं रुचती, सो अपन सब उसको मिथ्या करार देते हैं। मुश्किल तो यही है जैसे कि हमने आपको उदाहरण दिया था कि बिल्ली महारानी सेठजी के घर में पली थी और एक बार विदेश यात्रा पर गयी और फिर बाद में लौटी तो उनका बड़ा स्वागत हुआ कि विदेश से लौटी है, उनकी अपनी सहेलियाँ उनसे मिलीं और कहा कि कोई संस्मरण सुनाओ विदेश का। तुमने तो वहाँ पर जो महारानी हैं उनको भी देखा होगा। सुनते हैं कि उनके मुकुट में तो कोहिनूर हीरा लगा हुआ है. कितना सन्दर होगा वहाँ का वर्णन, तो करो। तो वो कहती है - बिल्ली अन्य सहेलियों से कि सुनो ये सब वाहियात बातें हैं। क्या रखा है इसमें ? वहाँ पर चूहे बहुत मोटे-मोटे हैं, बिल्ली की आँख से तो इतना ही दिखेगा। बिल्ली की आँख कोहिनूर नहीं जानती, बिल्ली की आँख और कुछ नहीं देखती, उसको तो चूहे दिखते हैं। हमारी भी आँख के साथ यही मुश्किल है कि जैसा हम संसार को देखना चाहते हैं जो हमारी आसक्ति है वही हम बाहर भी देख लेते हैं। भैया इस आँख को जरा सा दुरुस्त करने की बात है। मेरे अपने कर्म जो मैंने अज्ञानतापूर्वक कर लिये हैं जिससे कि मेरी आँख पर पर्दा पड़ गया है, मेरी आँख से मुझे ठीक-ठीक नहीं दिखाई पड़ता, मेरी आंख में विकृति आ गयी है, सो इस वाली आँख का तो डॉक्टर से इलाज हो सकता है, लेकिन वो जो हृदय की आँख वो जो भीतर की आँख है, उसका इलाज भी हमें करना पड़ेगा और उसके इलाज के लिये आचार्य भगवंतों ने सूत्र दे दिया कि कभी केवली भगवान के बारे में, कभी जिनवाणी के बारे में, कभी सज्जन पुरुषों व साधुजनों के बारे में, कभी धर्म के बारे में और कभी सामान्य स्वर्ग के देवों के बारे में भी, जो चीजें उनमें नहीं हैं उनकी कल्पना मत करना, उन दोषों को उनमें, जो निर्दोष हैं, वो मत देखना। अगर ऐसी दृष्टि भी हमारे अन्दर आ जावे तब हमारा जीवन बहुत ऊँचा उठ सकता है। कल और आपसे बात करूँगा इसी विषय पर। इसी भावना के साथ की अपन प्रेमपूर्वक और सारी चीजें एक-दूसरे से मिलजुल करके और अपने जीवन को अच्छा बनाने के लिये करेंगे। अपनी दृष्टि को पोजिटिव करेंगे। अपनी दृष्टि को निर्मल रखेंगे ताकि हमारा जीवन आसान हो। इसी भावना के साथ .....

 
“आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज की जय' 
००० 

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