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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

anil jain "rajdhani"

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About anil jain "rajdhani"

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  1. मम गुरुवर आचार्यश्री विद्यासागर जो रखते है सबकी खबर बिना उठाये मन में कोई विकल्प अरे !मात्र जीव के कल्याण की ही नहीं वो सोचते वो तो करते बात मानव मात्र के उत्थान की उनके हित की उनके जीवन यापन की उनके ज्ञान-ध्यान की उनकी शिक्षा - दीक्षा की इस कलिकाल के है वो साक्षात् ऋषभ जिन्होंने सिखा दिया कर्तव्य निष्ठापन एक गृहस्थ को कैसे करे वो स्वाभिमानी रहकर स्वाधीन बनने का उद्यम इसीलिए बता दिए उन्हें हथकरघा जैसे उद्यम अथवा कृषि के या उनसे बने उत्पादकों के कार्यक्रम निसंकोच होकर करो अडॉप्ट नौकरी नहीं तुम खुद दोगे रोजगार नहीं बनोगे पराधीन कर सकोगे धर्मध्यान अपनी सुविधानुसार बना रहेगा जिससे तुम्हारा धर्म मार्ग प्रशस्त ... नमोस्तु गुरुवर ! अनिल जैन "राजधानी" श्रुत संवर्धक २.१२.२०१९
  2. व्यवस्था ही है ऐसी युगों युगों से इस संसार की जो बड़ो की कृपा से ही चलती है जीवन रूपी गाड़ी सबकी .... कौन मानता है उस कृपा को ये होती हर एक की अपनी अपनी समझदारी कृतज्ञता के भाव होते जिसके मन में उसके जीवन में बनी रहती प्रगति और जो करता उनकी अनदेखी नहीं मिलती उसे सफलता जल्दी .... समयबद्ध होकर जो चलता अपनी जीवन प्रणाली उसे ही मिलती अधिक राशि जैसे फिक्स्ड डिपाजिट पर मिलता ब्याज अधिक ही जितने लंबे समय के लिए करते फिक्स्ड डिपाजिट उतनी अधिक मिलती धनराशि इसी प्रकार जो समयबद्ध होकर रखता / बनाता अपना हिसाब उसको निरंतर मिलता रहता उसका लाभ चाहे नहीं भी होती वो धनराशि उसके हाथ में / संग में लाभ तो गुणित होकर मिल ही रहा होता उसे अबाधित ... जब आता आता इतना नहीं मिलती जगह उसे रखने की इसी प्रकार जानो संबंध को गुरु-शिष्य के चाहे होते दूर शिष्य अपने गुरु से व्यवस्था गुरु की बनी हुए होती ऐसी जो पहुँच रहा होता लाभ निरंतर उसके पास में अबाधित बस, समयबद्ध होकर करता रहे शिष्य क्रियाएं अपनी .... प्रणाम ! अनिल जैन "राजधनी" श्रुत संवर्धक २.१२.२०१९
  3. "ॐ ह्रीं उत्तम तप धर्मांगाय नम:"दशलक्षण पर्व में हर जैनी का होता यही प्रयोजन कैसे करें अपनी आत्मा का शोधन ? जिसके लिए इन दिनों वो करते हर प्रकार के प्रयत्न .... समझकर अपना स्वरुप क्यों हुए हम विद्रूप जिसका करते वो नित्यप्रति तत्व चिंतन करके अपने इष्ट के गुणों का भक्तिपूर्वक स्मरण .... जान जाते जब विकार लगे हैं जो अनादि से कर्मास्रव और बंध की संतति से उनका कैसे करें विरेचन ? पांचवें दिन से चलता उनका इसी पर फोकस यानि लोभ का करके विरेचन जो संस्कार पड़े थे अनादि के जिनके कारण से झेल रहे थे वो नित्य नए नए परिवर्तन कैसे करें उन्हें नष्ट उसी के लिए प्रथमतया करते वो सीमा का निर्धारण अर्थात करते संयम धारण पेड़ से फल - फल से बीज बीज से पेड़ कैसे तोड़े ये क्रम इसी के लिए लेते वो तप की शरण जिस प्रकार बीज को जलाने पर रुक जाती परंपरा उसकी बनने का नया पेड़ उसी प्रकार कर्मास्रव और बंध की रोकने को संतति करते वो तप ... बारह प्रकार के बताये तप जिनमे छह प्रकार के बहिरंग तप और छह प्रकार के होते अंतरंग तप अनशन-ऊनोदर-वृत्ति परिसंख्यान रस त्याग- विविक्त शय्यासन-काय क्लेश इनका लेते वो आलंबन बाह्य तप में एवं प्रयाश्चित-विनय-वैयावृत्त-स्वाध्याय व्युत्सर्ग और ध्यान इन्हे बताया अंतरंग तप जो अपनी भूमिकानुसार करते सभी श्रमण एवं गृहस्थ .... जिस प्रकार सोने को तपाने से किया जाता उसे शुद्ध उसी प्रकार तपादि करके आत्मा को किया जाता शुद्ध होते जिससे विकार दूर जिस प्रकार बीज को जलाने से हो जाता परंपरा का विसर्जन उसी प्रकार तप से जलाया जाता अनादि की परंम्परा को कर के नष्ट होती जिससे कर्मो की निर्जरा एवं मन पर नियंत्रण का जो बनता साधन ... कहा भी है "इच्छा निरोधस्तप:" अर्थात इच्छा का निरोध करना ही है तप इसी से होता मन पर नियंत्रण होता इसी से निग्रह इन्द्रिय विषयों का - कषाय का मुनिमहाराज करते इसका पूर्णतया पालन उसी से होता उनके उत्तम तप धर्म प्रकट .... आत्मा के शुद्धिकरण का यही है प्रमुख साधन जो होता प्रारम्भ भोजन के त्याग से निश्चित समय पर करना भोजन रस परित्याग और व्रत उपवास आदि से बढ़ता जाता जिससे तप का उद्यम ... ध्यान आदि कर के अंतरंग तप में बढ़ाकर अपना रुझान स्वाध्याय का करते अभ्यास जिससे पुष्ट होता तत्व चिंतन इसीलिए स्वाध्याय को कहा "परम तप" ... तन और मन को बुहारने से होता आत्मा का शुद्धिकरण जिससे होता तन और मन की गुलामी का निरस्तिकरण बना रहता जिससे आत्मोत्थान अग्रसर ... अपनी भूमिकानुसार अपनी शक्ति अनुसार करे हम भी तप - निरंतर ... प्रणाम ! उत्तम तप धर्म की जय हो ! अनिल जैन "राजधानी" श्रुत संवर्धक ९.९.२०१९
  4. मम गुरुवर ! निसपरिग्रही, अकिंचन्य स्वभावी अपेक्षा से उपेक्षा से दूर रहते आत्मस्थ .. जहाँ होते विराजमान पहुँच जाते सब पाने को आशीर्वाद साक्षात तीर्थंकरसम भगवान का .. बनी रहे गुरुकृपा नाश होवे मिथ्यात्व का प्रकट होवे ज्ञान का प्रकाश जिसको साक्षात् हो जावे मम गुरुवर का ! नमोस्तु गुरुवर !!! त्रिकाल वंदन !!! अनिल जैन "राजधानी" श्रुत संवर्धक ३१.८.२०१९
  5. हार्दिक शुभकामनाये, भाई जी जय जिनेन्द्र ! गुरुकृपा है ये प्रसाद मुनिवर प्रसादसागर जी महाराज के निर्देशन से निश्चय ही मिला होगा लाभ ... नित्यप्रति गुरुचरणों में उनके आशीष से जो भी लिखा जाता अनायास करता हूँ रोज पोस्ट फेसबुक एवं व्हाट्सप्प पर दस हज़ार से ऊपर नित्यप्रति मिलते है जिनपर कमेंट्स कोई सुविधा स्पीकिंग ट्री टाइप की आप भी कराओ उपलब्ध यहाँ जिस से समदृष्टि जुड़ सके इकट्ठे हो सके एक जगह एक और एक ग्यारह होने में नहीं फिर कोई देर लगे ! प्रणाम ! पुन: बधाई के पात्र ! जय जिनेन्द्र ! गुरुचरणों में वंदन बारंबार !!! अनिल जैन "राजधानी" श्रुत संवर्धक नई दिल्ली -११०००२
  6. राजेश जी, सुन्दर शब्द संयोजन गुरुदेव के चरणों में सुन्दर भावांजलि बधाई ! जय जिनेन्द्र
  7. मम गुरुवर ! आचार्यश्री मिले स्वास्थ्य लाभ उन्हें जल्दी !इतनी ही प्रभु चरणों में करते विनती !!!माना कि शरीर भिन्न - आत्मा भिन्न भिन्न उसे करने के लिए शरीर से जरुरत होती शरीर की ही उसी के सहयोग से होती आत्मा की सिद्धि ... इसलिए ! देखभाल उसकी भी करना है जरुरी शरीर बना रहे स्वस्थ देता रहे साथ जब तक न हो जावे हमें कार्य की उपलब्धि उसके लिए जरुरी है देना उसको भोजन पानी यदि आ जाती उसमे कोई व्याधि जरुरी है उपचार उसका भी आहार भी सुपाच्य होता जभी जब निहार होता रहे नित्यप्रति उसके लिए विरेचक लेना ऋतू अनुसार है जरुरी दो चम्मच सौंफ और एक चम्मच अजवायन दो बड़ी इलायची इसका कूटकर बना हुआ योग आहार के अंत में गर्म दूध से लेने पर होता लाभकारी यदि लिया जाए नित्यप्रति नहीं आएगी कभी निहार की व्याधि स्व परीक्षित योग है ये सुपाच्य बना रहता आहार ... एक त्यागी की प्रकृति को जानकर खोजा था ये योग मैंने जो हुआ था प्राप्त गुरुवर आपकी ही कृपा से उपयोगी है यह सभी त्यागी व्रतियों के लिए ... जानते हम सभी राम का नाम लिखने पर नहीं डूबी थी शिला जल में राम ने जो छोड़ी शिला डूब जाती थी वो जल में गुरुवर ! तारना है अभी तो बहुत भव्यों को तो तुम्हे स्व के लिए न सही पर के उपकार की खातिर तो जरुरी है आपको स्वास्थ्य लाभ मिले जल्दी जिसके लिए नित्यप्रति विरेचक भी है जरुरी ... गुरुचरणों में त्रिकाल वंदन ! अनिल जैन "राजधानी" श्रुत संवर्धक २४.१.२०१९
  8. व्यक्ति बढ़ता जितना अध्यात्म मार्ग में लगता बहुत दूर है मंज़िल अभी उसकी जितना चला लगता शुरूवात है ये उसकी .. होता गुरु जिनके पास नहीं होने देता उसे ऐसा अहसास संबोधता बताकर उसे आगे का मार्ग कठिन डगर भी उसे सरल लगने लगती ... नमोस्तु गुरुवर त्रियोग वंदन
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