जिसके माध्यम से संसारीजीव का जीवन चलता है ऐसी पर्याप्ति कितनी होती है,उनका क्या लक्षण है, आदि का वर्णन इस अध्याय में है।
1. पर्याप्ति किसे कहते हैं एवं उसके कितने भेद हैं ?
(अ) परिसमन्तात् आप्ति - पर्याप्तिः शक्तिनिष्पत्तिरित्यर्थः(गो.जी.जी.प्र.2) । चारो तरफ से प्राप्ति को पर्याप्ति कहते हैं, अर्थात् शक्ति का प्राप्त करना पर्याप्ति है।
(ब) जन्म के प्रथम समय से पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण कर जीवन धारण में विशेष प्रकार की पौद्गलिक शक्ति की प्राप्ति को पर्याप्ति कहते हैं। पर्याप्ति के छ: भेद हैं
आहार पर्याप्ति - एक शरीर को छोड़कर नवीन शरीर के साधनभूत जिन नोकर्म वर्गणाओं को जीव ग्रहण करता है। उन वर्गणाओं के परमाणुओं को ठोस (Solid) और तरल (Liquid) रूप में परिणमन (परिवर्तन) के कारणभूत जीव की शक्ति की पूर्णता को आहार पर्याप्ति कहते हैं।
शरीर पर्याप्ति - जिन परमाणुओं को ठोस रूप परिवर्तित किया था, उसको हड़ी आदि कठिन अवयव रूप और जिनको तरल रूप परिवर्तित किया था, उनको रुधिरादि रूप में परिवर्तित करने के कारणभूत जीव की शक्ति की पूर्णता को शरीर पर्याप्ति कहते हैं।
इन्द्रिय पर्याप्ति - आहार वर्गणा के परमाणुओं को इन्द्रिय आकार रूप परिवर्तित करने को तथा इन्द्रिय द्वारा विषय ग्रहण करने के कारणभूत जीव की शक्ति की पूर्णता को इन्द्रिय पर्याप्ति कहते हैं।
श्वासोच्छास पर्याप्ति - आहार वर्गणा के परमाणुओं को श्वासोच्छास रूप परिवर्तित करने के कारणभूत जीव की शक्ति की पूर्णता को श्वासोच्छास पर्याप्ति कहते हैं।
भाषा पर्याप्ति - भाषा वर्गणा के परमाणुओं को वचन रूप परिवर्तित करने के कारणभूत जीव की शक्ति की पूर्णता को भाषा पर्याप्ति कहते हैं।
मन:पर्याप्ति - मनोवर्गणा के परमाणुओं को हृदयस्थान में अष्टपाखुड़ी के कमलाकार मनरूप परिवर्तित करने को तथा उसके द्वारा यथावत् विचार करने के कारणभूत जीव की शक्ति की पूर्णता को मन:पर्याप्ति कहते हैं।
इन सब पर्याप्तियों में प्रत्येक का काल अन्तर्मुहूर्त है और सबका मिलाकर काल भी अन्तर्मुहूर्त ही है। (मूचा.टी., 1047)
2. पर्याप्तक, निवृत्यपर्याप्तक और लब्थ्यपर्याप्तक किसे कहते हैं ?
पर्याप्तक - पर्याप्त नाम कर्म के उदय से युक्त जिन जीवों की सभी पर्याप्ति पूर्ण हो जाती हैं, उसे पर्याप्तक जीव कहते हैं।
विशेष - किन्हीं आचार्यों ने सभी पर्याप्ति पूर्ण होने पर पर्याप्तक कहा है। किन्हीं आचार्यों ने शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने पर पर्याप्तक कहा है।
निवृत्यपर्याप्तक - पर्याप्त नाम कर्म के उदय से युक्त जिन जीवों की पर्याप्तियाँ प्रारम्भ हो गई हैं एवं नियम से पूर्ण होंगी एवं जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती है तब तक उन्हें निवृत्यपर्याप्तक जीव कहते हैं। (गो.जी., 121 )
लब्थ्यपर्याप्तक - अपर्याप्त नाम कर्म के उदय से युक्त जीव, जिसने पर्याप्तियाँ प्रारम्भ की हैं, किन्तु एक भी पर्याप्ति पूर्ण नहीं करता और मरण हो जाता है, उसे लब्ध्यपर्याप्तक जीव कहते हैं। (गोजी, 122) इनकी आयु श्वास के 18 वें भाग मात्र होती है। (गो.जी.जी., 125)
3. लब्थ्यपर्याप्तक जीव एक अन्तर्मुहूर्त में अधिक-से-अधिक कितने भव धारण कर सकता है ?
एक लब्ध्यपर्याप्तक जीव यदि निरन्तर जन्म-मरण करे तो एक अन्तर्मुहूर्त में अधिक-से-अधिक 66, 336 बार जन्म और उतने ही बार मरण कर सकता है। इन भवों में प्रत्येक भव का काल क्षुद्रभव प्रमाण अर्थात् एक श्वास (नाड़ी धड़कन)का अठारहवाँ भाग है, अत: 66,336 भवों के श्वासों का प्रमाण 3685/1/3 होता है। इतने काल में
पृथ्वीकायिक बादर
पृथ्वीकायिक सूक्ष्म
जलकायिक बादर
जलकायिक सूक्ष्म
अग्निकायिक बादर
अग्निकायिक सूक्ष्म
वायुकायिक बादर
वायुकायिक सूक्ष्म
साधारण वनस्पति बादर
साधारण वनस्पति सूक्ष्म
प्रत्येक वनस्पति
एकेन्द्रिय के कुल
द्वीन्द्रिय
त्रीन्द्रिय
चतुरिन्द्रिय
असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च
संज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च
मनुष्य
6012 भव
6012 भव
6012 भव
6012 भव
6012 भव
6012 भव
6012 भव
6012 भव
6012 भव
6012 भव
6012 भव
66,132 भव
80 भव
60 भव
40 भव
8 भव
8 भव
8 भव
66336 भव (गो.जी.,12325)
सब मिलकर एक अन्तर्मुहूर्त काल में उत्कृष्ट 66,336 भव होते हैं।
4. लब्थ्यपर्याप्तक, निवृत्यपर्याप्तक और पर्याप्त अवस्था किन-किन गुणस्थानों में होती है ?
लब्ध्यपर्याप्तक अवस्था मात्र मिथ्यात्व गुणस्थान में होती है वह भी सम्मूच्छन जन्म से उत्पन्न होने वाले मनुष्यगति और तिर्यच्चगति के जीवों के होती है, अन्य जीवों के नहीं होती है। निवृत्यपर्याप्त अवस्था मिथ्यात्व, सासादन सम्यक्त्व, अविरत सम्यक्त्व, प्रमत्तविरत (आहारक शरीर की अपेक्षा) और सयोगकेवली (समुद्धात केवली की अपेक्षा) के होती है। पर्याप्त अवस्था सभी गुणस्थानों में होती है।
5. कौन से गुणस्थान में एवं कौन से जीव में कितनी पर्याप्तियाँ होती हैं ?
सभी गुणस्थानों में 6 पर्याप्तियाँ होती हैं किन्तु एकेन्द्रिय में भाषा और मन के बिना 4 पर्याप्तियाँ होती हैं। द्वीन्द्रिय से असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तक मन के बिना 5 पर्याप्तियाँ होती हैं। संज्ञी पञ्चेन्द्रिय में 6 पर्याप्तियाँ होती है एवं कार्मण काययोग में एक भी पर्याप्ति नहीं होती है। (मूचा, 1048-49)
6. अनेक स्थानों में अपर्याप्त अवस्था का कथन आता है, वहाँ लब्धि अपर्याप्त या निवृत्ति अपर्याप्त कौन-सा लेना है ?
प्रसंग के अनुसार ही अर्थ लिया जाता है। देव, नारकी, आहारक मिश्र काययोग, कपाट समुद्धात में अपर्याप्त का अर्थ निवृत्ति-अपर्याप्त है एवं प्रथम गुणस्थान के मनुष्य, तिर्यच्चों में, दोनों में से, एक जीव में एक रहेगा, किन्तु द्वितीय, चतुर्थ गुणस्थान में अपर्याप्त का अर्थ निवृत्ति-अपर्याप्त ही है। तथा कार्मण काययोग में पर्याप्ति का अभाव होने से सामान्य रूप से अपर्याप्त लिया जाता है।