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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. आचार्य महाराज उन दिनों फिरोजाबाद में थे। उनके प्रतिदिन होने वाले प्रवचनों की सूचना लोगों को दे दी जाती थी और विषय भी बता दिया जाता था। एक दिन आयोजकों ने सूचना-पटल पर लिखा कि कल महाराज के प्रवचन 'अतिथि' से सम्बन्धित विषय पर होंगे। दूसरे दिन जब प्रवचन के समय लोग सभा-भवन में पहुँचे तब मालूम पड़ा कि महाराज का तो विहार हो गया। सभी लोग अपने-अपने वाहनों से उनके पीछे भागे। दो-तीन मील जाकर जब महाराज से मिले तो सभी ने कहा महाराज आपका तो आज 'अतिथि' पर प्रवचन होना था, आपने अचानक विहार कर दिया। महाराज जी हँसने लगे, बोले - ‘भैया! वही तो कर रहा हूँ। अतिथि का अर्थ ही यह होता है कि जिसके आने व जाने की तिथि निश्चित नहीं होती।' लोग समझ गए कि आज तो अतिथि की तरह स्वयं आचरण करके महाराज ने हमें उपदेश दिया है कि जो कुछ कहो, उसे चरितार्थ भी करो। स्वयं जी कर कहना ही सच्चा उपदेश है। फिरोजाबाद (१९७५)
  2. आचार्य महाराज संघ सहित सदगुंवा ग्राम से चलकर खुरजाखेड़ा आए। संघ के सभी साधु निरन्तर विहार के कारण थकान महसूस कर रहे थे। सामायिक का समय होने वाला था। अचानक आचार्य महाराज बोले कि ‘मन कहता है शरीर को थोड़ा विश्राम दिया जाए' सभी शिष्यों ने एक स्वर में महाराज जी की बात का समर्थन किया और कहा कि ‘हाँ, महाराज जी ! आप थोड़ा विश्राम कर लें।” आचार्य महाराज हँसने लगे और तत्काल बोले कि 'मन भले ही विश्राम की बात करे, पर आत्मा तो चाहती है कि सामायिक की जाए।' और देखते-ही-देखते आचार्य महाराज दृढ़ आसन लगाकर सामायिक में लीन हो गए। सभी लोग यह देखकर दंग रह गए। आचार्य महाराज की यह आत्मानुशासित जीवनचर्या सचमुच अनुपम है। खुरजाखेड़ा (दमोह) १९९५
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