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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. जिन क्रियाओं से हिंसा हो उन्हें आरम्भ कहते हैं। गृहस्थ जब तक घर में है उसकी यह क्रियायें छूट ही नहीं सकती। किसान भी कभी आरम्भ नहीं छोड़ सकता। कृषि से भी ज्यादा आरम्भ कभी-कभी संकेत (हस्ताक्षर) से भी हो जाता है। आरम्भ का परिधि क्षेत्र बहुत बड़ा है। किसी ने आचार्य श्री जी से पूछा कि- आरम्भ और सावद्य में क्या अंतर है? तब आचार्य श्री ने कहा कि- कुंआ खोदना आरम्भ है और उसमें से एक बाल्टी पानी निकालना सावद्य में आयेगा। इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए आचार्य श्री जी ने कहा कि- पटाके की दुकान खोलना महान् आरम्भ (पाप) है। हिंसादान नाम के अनर्थदण्ड से भी अधिक पाप लगता है। पटाके की दुकान खोलने वाले को घोर पाप बंध होता है जिससे दुर्गति में जाना पड़ता है। इसलिए दुर्गाति में ले जाने वाले इस प्रकार के धंधे श्रावकों को कभी नहीं करना चाहिए। जिससे संकल्पी हिंसा हो ऐसी कीटनाशक दवाईयाँ भी नहीं बेचना चाहिए। गर्भपात की दवाईया भी नहीं बेचनी चाहिए। प्रत्येक श्रावक का संकल्पी हिंसा का मन, वचन, काय एवं कृतकारित अनुमोदना से त्याग होना चाहिए। इस संस्मरण से बड़े लोगों को तो शिक्षा मिलती ही है, लेकिन छोटे बच्चों को भी यह शिक्षा ले लेनी चाहिए कि उन्हें कभी भी पटाके नहीं चलाना चाहिए। पटाके चलाने से जीव हिंसा का पाप लगता है, प्रभु एवं गुरु की आज्ञा का उल्लंघन होता है, नरक गति में जाकर दुःख भोगना पड़ता है एवं जन, धन की हानि होती हैं। किसी का भी पुतला जलाने, जलवाने या उसकी प्रशंसा करने से भी संकल्पी हिंसा का दोष लागता है। वीडियोगेम खेलने में एवं मछली, चीड़िया, हाथी, गाय आदि के आकार में ढली हुई मिठाईयों का सेवन करने से भी पाप लगता है। मनुष्यों एवं पशुओं के चित्रों से चित्रित वस्त्र भी नहीं पहनना चाहिए। जमीन पर रंगोली आदि में भी पशु-पक्षियों के चित्र नहीं बनाना चाहिए। क्रोध में आकर किसी की तस्वीर भी नहीं फाड़ना चाहिए। क्योंकि इन सब क्रियाओं के करने से व्यर्थ में ही घोर पाप का बंध होता है।
  2. आरम्भत्याग प्रतिमा का प्रकरण चल रहा था। आचार्य श्री जी ने कहा- कृषि, मसि आदि ये षट्कर्म आरम्भ ही हैं। परिग्रह का उत्पादन जिससे होता है वह आरम्भ कहलाता है। विधाधर लोग विद्या के माध्यम से भोजन आदि बनाते हैं तो वह आरम्भ ही हुआ। शिल्प, विद्या सभी इसी आरम्भ में आवेगी। किसी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- आचार्य श्री क्या भोगभूमि में भी आरम्भ है? आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- हाँ है, वहाँ कल्पवृक्ष होते हुए भी कवलाहारी होने से भोगभूमि में आरम्भ है। देवों में भी आरम्भ है। वहाँ पर शापानुग्रह (शाप- दूसरे का अहित करने की शक्ति, अनुग्रह- दूसरे का हित करने की शक्ति) शक्ति के माध्यम से आरम्भ होता है। किसी ने पुनः शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- आचार्य श्री आठवीं प्रतिमा वाले अभिषेक, दान, पूजा आदि करेंगे तो वह आरम्भ नहीं कहलाएगा? आचार्य श्री जी ने कहा कि- भगवान् का अभिषेक आदि करने का आठवीं प्रतिमा वालों का त्याग नहीं होता। दान पूजा, विधान में जो आरम्भ होता है, वह यहाँ आरम्भ के रूप में नहीं स्वीकारा और वह तो व्रती है इसलिए सावधानी के साथ करता है।आचार्य श्री जी ने आगे कहा कि- पूजन, विधान में आप लोग आरम्भ आदि मत मानो– "सावद्य लेशो बहुपुण्यराशौ।" अर्थात् इन क्रियायों से थोड़ा-सा पाप होता है लेकिन बहुत पुण्य का आस्रव होता है। जैसे समुद्र में एक जहर की बूंद। पुण्य समुद्र के पानी के बराबर मिलता है और पाप जहर की एक बूंद के बराबर इसलिए वह जहर समुद्र को दूषित नहीं कर सकता। आठवीं प्रतिमाधारी यदि ब्याज का धंधा करता है तो वह आरम्भ त्यागी नहीं माना जावेगा। आठवीं प्रतिमा वाला श्रावक अनाज आदि का उत्पादन नहीं करेगा लेकिन उपलब्ध सामग्री को संस्कारित करके (प्रासुक) करके भोजन बना सकता है।
  3. वात्सल्य को सम्यग्दर्शन का प्रधान अंग माना गया है। जैसे शरीर में हृदय का महत्त्व होता है, वैसे ही वात्सल्य अंग सम्यग्दर्शन का हृदय है एवं उसका भी उतना ही महत्त्व है। शरीर के प्रत्येक अंग यदि काम करना छोड़ दें तो भी आदमी जीवित रहता है। लेकिन यदि हृदय की धड़कन एक मिनिट के लिए भी रुक जाए तो आदमी जीवित नहीं रहता उसे मृत घोषित कर दिया जाता है। उसी प्रकार वात्सल्य अंग के अभाव में सम्यग्दर्शन निष्क्रिय जैसा हो जाता है। इसलिए प्रत्येक धर्मात्मा को अपने सधर्मी से गौ-वच्छ सम प्रीति रखना चाहिए। सधर्मी से भूलकर भी विसंवाद नहीं करना चाहिए। यदि व्यवहार में वात्सल्य अंग नहीं अपनाओगे तो व्यवहार अभिशाप सिद्ध हो जाएगा एवं धर्म की अप्रभावना होगी। जितनी भी आज अप्रभावना हो रही है उसका मुख्य कारण है आपसी व्यवहार में वात्सल्य गुण का अभाव है। कब, कहाँ, क्या करना चाहिए इसी का नाम औचित्तगुण है। इसलिए धर्मात्मा को धर्म की प्रभावना के लिए औचित्तगुण का ध्यान रखना चाहिए। किसी साधक ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि कुछ लोग धर्म की प्रभावना करना चाहते हैं? जब लोग इस कार्य में साथ नहीं देते। तो उन्हें क्रोध आ जाता है। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि प्रभावना करने के लिए विशेष कषायों की मन्दता, विवेक आदि आवश्यक होते हैं। जल्दी-जल्दी कषाय लाने वाले व्यक्ति के द्वारा प्रभावना नहीं होती किन्तु अप्रभावना होती है। देवालयों और आयतनों में ऐसा शान्त वातावरण बनाना चाहिए जिसके प्रभाव से कोई व्यक्ति कषायों को छोड़ना नहीं चाहता हो तो भी कषायों को छोड़ने का भाव हो जाये और उन्हें छोड़ने के लिए तत्पर हो जाए।
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