वात्सल्य को सम्यग्दर्शन का प्रधान अंग माना गया है। जैसे शरीर में हृदय का महत्त्व होता है, वैसे ही वात्सल्य अंग सम्यग्दर्शन का हृदय है एवं उसका भी उतना ही महत्त्व है। शरीर के प्रत्येक अंग यदि काम करना छोड़ दें तो भी आदमी जीवित रहता है। लेकिन यदि हृदय की धड़कन एक मिनिट के लिए भी रुक जाए तो आदमी जीवित नहीं रहता उसे मृत घोषित कर दिया जाता है। उसी प्रकार वात्सल्य अंग के अभाव में सम्यग्दर्शन निष्क्रिय जैसा हो जाता है। इसलिए प्रत्येक धर्मात्मा को अपने सधर्मी से गौ-वच्छ सम प्रीति रखना चाहिए। सधर्मी से भूलकर भी विसंवाद नहीं करना चाहिए।
यदि व्यवहार में वात्सल्य अंग नहीं अपनाओगे तो व्यवहार अभिशाप सिद्ध हो जाएगा एवं धर्म की अप्रभावना होगी। जितनी भी आज अप्रभावना हो रही है उसका मुख्य कारण है आपसी व्यवहार में वात्सल्य गुण का अभाव है। कब, कहाँ, क्या करना चाहिए इसी का नाम औचित्तगुण है। इसलिए धर्मात्मा को धर्म की प्रभावना के लिए औचित्तगुण का ध्यान रखना चाहिए।
किसी साधक ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि कुछ लोग धर्म की प्रभावना करना चाहते हैं? जब लोग इस कार्य में साथ नहीं देते। तो उन्हें क्रोध आ जाता है। तब आचार्य श्री जी ने कहा कि प्रभावना करने के लिए विशेष कषायों की मन्दता, विवेक आदि आवश्यक होते हैं। जल्दी-जल्दी कषाय लाने वाले व्यक्ति के द्वारा प्रभावना नहीं होती किन्तु अप्रभावना होती है।
देवालयों और आयतनों में ऐसा शान्त वातावरण बनाना चाहिए जिसके प्रभाव से कोई व्यक्ति कषायों को छोड़ना नहीं चाहता हो तो भी कषायों को छोड़ने का भाव हो जाये और उन्हें छोड़ने के लिए तत्पर हो जाए।