आरम्भत्याग प्रतिमा का प्रकरण चल रहा था। आचार्य श्री जी ने कहा- कृषि, मसि आदि ये षट्कर्म आरम्भ ही हैं। परिग्रह का उत्पादन जिससे होता है वह आरम्भ कहलाता है। विधाधर लोग विद्या के माध्यम से भोजन आदि बनाते हैं तो वह आरम्भ ही हुआ। शिल्प, विद्या सभी इसी आरम्भ में आवेगी।
किसी ने शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- आचार्य श्री क्या भोगभूमि में भी आरम्भ है? आचार्य श्री जी ने शंका का समाधान करते हुए कहा कि- हाँ है, वहाँ कल्पवृक्ष होते हुए भी कवलाहारी होने से भोगभूमि में आरम्भ है। देवों में भी आरम्भ है। वहाँ पर शापानुग्रह (शाप- दूसरे का अहित करने की शक्ति, अनुग्रह- दूसरे का हित करने की शक्ति) शक्ति के माध्यम से आरम्भ होता है।
किसी ने पुनः शंका व्यक्त करते हुए कहा कि- आचार्य श्री आठवीं प्रतिमा वाले अभिषेक, दान, पूजा आदि करेंगे तो वह आरम्भ नहीं कहलाएगा? आचार्य श्री जी ने कहा कि- भगवान् का अभिषेक आदि करने का आठवीं प्रतिमा वालों का त्याग नहीं होता। दान पूजा, विधान में जो आरम्भ होता है, वह यहाँ आरम्भ के रूप में नहीं स्वीकारा और वह तो व्रती है इसलिए सावधानी के साथ करता है।आचार्य श्री जी ने आगे कहा कि- पूजन, विधान में आप लोग आरम्भ आदि मत मानो– "सावद्य लेशो बहुपुण्यराशौ।" अर्थात् इन क्रियायों से थोड़ा-सा पाप होता है लेकिन बहुत पुण्य का आस्रव होता है। जैसे समुद्र में एक जहर की बूंद। पुण्य समुद्र के पानी के बराबर मिलता है और पाप जहर की एक बूंद के बराबर इसलिए वह जहर समुद्र को दूषित नहीं कर सकता।
आठवीं प्रतिमाधारी यदि ब्याज का धंधा करता है तो वह आरम्भ त्यागी नहीं माना जावेगा। आठवीं प्रतिमा वाला श्रावक अनाज आदि का उत्पादन नहीं करेगा लेकिन उपलब्ध सामग्री को संस्कारित करके (प्रासुक) करके भोजन बना सकता है।