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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. (वसंततिलका छन्द) हे! शांत संत अरहंत अनंत ज्ञाता, हे! शुद्ध बुद्ध शिव सिद्ध अबद्ध धाता। आचार्यवर्य उवझाय सुसाधु सिन्धु, मैं बार-बार तुम पाद-पयोज वंदूँ ॥१॥ है मूलमंत्र नवकार सुखी बनाता, जो भी पढ़े विनय से अघ को मिटाता। है आद्य मंगल यही सब मंगलों में, ध्याओ इसे न भटको जग जंगलों में॥२॥ सर्वज्ञदेव अरहंत परोपकारी, श्री सिद्ध वन्द्य परमातम निर्विकारी। श्री केवली कथित आगम साधु प्यारे, ये चार मंगल, अमंगल को निवारे ॥३॥ श्री वीतराग अरहंत कुकर्मनाशी, श्री सिद्ध शाश्वत सुखी शिवधामवासी। श्री केवली कथित आगम साधु प्यारे, ये चार उत्तम, अनुत्तम शेष सारे ॥४॥ ये बाल-भानु सम हैं अरहंत स्वामी, लोकाग्र में स्थित सदाशिव सिद्ध नामी। श्री केवली कथित आगम साधु प्यारे, ये चार ही शरण हैं जग में हमारे ॥५॥ जो श्रेष्ठ हैं, शरण, मंगल कर्मजेता, आराध्य हैं परम हैं शिवपंथ नेता। हैं वन्द्य खेचर, नरों, असुरों, सुरों के, वे ध्येय पंच गुरु हों हम बालकों के ॥६॥ है घातिकर्म दल को जिनने नशाया, विज्ञान पा सुख अनूप अनंत पाया। हैं भानु भव्य-जन-कंज विकासते हैं, शुद्धात्म की विजय से, अरहंत वे हैं ॥७॥ कर्त्तव्य था कर लिया, कृतकृत्य द्रष्टा, हैं मुक्त कर्म तन से निज द्रव्य स्रष्टा! हैं दूर भी जनन मृत्यु तथा जरा से, वे सिद्ध सिद्धिसुख दें मुझको जरा से ॥८॥ ज्ञानी, गुणी मत-मतान्तर ज्ञान धारें, संवाद से सहज वाद-विवाद टारें। जो पालते परम पंच-महाव्रतों को, आचार्य वे सुमति दें हम सेवकों को ॥९॥ अज्ञान रूप-तम में भटके फिरे हैं, संसारि जीव हम हैं दुख से घिरे हैं। दो ज्ञान ज्योति उवझाय ! व्यथा हरो ना, ज्ञानी बनाकर कृतार्थ हमें करो ना ॥१०॥ अत्यंत शांत विनयी समदृष्टि वाले, शोभें प्रशस्त यश से शशि से उजाले। हैं वीतराग परमोत्तम शील वाले, वे प्राण डालकर साधु मुझे बचा लें ॥११॥ अर्हत् अकाय परमेष्ठि विभूतियों के, आचार्यवर्य उवझाय मुनीश्वरों के। जो आद्यवर्ण अ, अ, आ, उ, म को निकालो, ओंकार पूज्य बनता, क्रमशः मिला लो ॥१२॥ आदीश हैं अजित संभव मोक्षधाम, वंदूँ गुणौघ अभिनंदन हैं ललाम। सद्भाव से सुमति पद्म सुपार्श्व ध्याऊँ, चंद्रप्रभू चरण से चिति ना चलाऊँ ॥१३॥ श्री पुष्पदन्त शशि-शीतल शील पुञ्ज, श्रेयांस पूज्य जगपूजित वासुपूज्य। आदर्श से विमल, संत अनंत, धर्म, मैं शांति को नित नमूं मिल जाय शर्म ॥१४॥ श्री कुन्थुनाथ अरनाथ सुमल्लि स्वामी, सद्बोध-धाम मुनिसुव्रत विश्व-नामी। आराध्य देव नमि और अरिष्ट नेमी, श्री पार्श्व-वीर प्रणमूँ,निज धर्म प्रेमी ॥१५॥ हैं भानु से अधिक भासुर-कान्ति वाले, निर्दोष हैं इसलिए शशि से निराले। गंभीर नीर-निधि से जिन सिद्ध प्यारे, संसार सागर किनार मुझे उतारें ॥१६॥
  2. अनुवादित ‘समणसुत्तं' का ही नाम ‘जैन गीता' है। इसकी रचना के सम्बन्ध में आचार्यश्री स्वयं इसकी ‘मनोभावना' नामक भूमिका में लिखते हैं-“विगत बीस मास पूर्व की बात है, राजस्थान स्थित अतिशयक्षेत्र श्री महावीरजी में महावीर-जयन्ती के सुअवसर पर ससंघ मैं उपस्थित था। उस समय ‘समणसुत्तं' का जो सर्व सेवा संघ, वाराणसी से प्रकाशित है, विमोचन हुआ। यह एक सर्वमान्य संकलित ग्रन्थ है। इसके संकलनकर्ता ब्र. जिनेन्द्र वर्णी हैं। (आपने सन् १९८३ में ईसरी (गिरिडीह) बिहार में आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज से क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण करके क्षुल्लक श्री सिद्धान्तसागर महाराज के रूप में सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण प्राप्त किया था, आपने जैन-सिद्धान्त का आलोडन करके यह नवनीत समाज के सामने प्रस्तुत किया है।)” इस ग्रंथ में चारों अनुयोगों के विषय यथास्थान चित्रित हैं। अध्यात्म रस से गोम्मटसार आदि ग्रंथों की गाथाएँ इसमें प्रचुर मात्रा में संकलित हैं। इसी का पद्यानुवाद आचार्यश्री ने 'जैन गीता' नाम से किया। ‘समणसुत्तं' के प्रेरणास्रोत के सम्बन्ध में उन्होंने सन्त विनोबा का उल्लेख किया है। इसके समाधान में आचार्य विनोबा ने लिखा है कि उन्होंने कई बार जैनों से प्रार्थना की थी कि जैनों का एक ऐसा ग्रन्थ हो, जो सभी जैन सम्प्रदायों को मान्य हो, जैसे कि वैदिक धर्मानुयायियों का 'गीता' और बौद्धों का ‘धम्मपद' है। विनोबाजी के इस आह्वान पर ‘जैनधर्म सार' नामक एक पुस्तक प्रकाशित की। पुनः विद्वानों के सुझाव पर इसमें से कुछ गाथाएँ हटाकर और कुछ जोड़कर ‘जिणधम्म' नाम से पुस्तक प्रकाशित हुई। फिर इसकी चर्चा के लिए बाबा के आग्रह से ही एक संगीति बैठी, जिसमें मुनि, आचार्य और दूसरे विद्वान्, श्रावक मिलकर लगभग तीन सौ लोग इकट्ठे हुए। बार-बार चर्चा के पश्चात् उसका नाम भी बदला, रूप भी बदला, जो सर्व सम्मति से श्रमणसूक्तम्'-जिसे अर्धमागधी में 'समणसुत्तं' कहते हैं, बना। ७५६ गाथाओं वाला ‘समणसुत्तं' संज्ञक ग्रन्थ का यह अनुवादित रूप है। इसमें चार खण्ड हैं। इसके प्रथम खण्ड ज्योतिर्मुख, द्वितीय खण्ड मोक्षमार्ग, तृतीय खण्ड तत्त्व दर्शन तथा चतुर्थ खण्ड‘स्याद्वाद' है।
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