अनुवादित ‘समणसुत्तं' का ही नाम ‘जैन गीता' है। इसकी रचना के सम्बन्ध में आचार्यश्री स्वयं इसकी ‘मनोभावना' नामक भूमिका में लिखते हैं-“विगत बीस मास पूर्व की बात है, राजस्थान स्थित अतिशयक्षेत्र श्री महावीरजी में महावीर-जयन्ती के सुअवसर पर ससंघ मैं उपस्थित था। उस समय ‘समणसुत्तं' का जो सर्व सेवा संघ, वाराणसी से प्रकाशित है, विमोचन हुआ। यह एक सर्वमान्य संकलित ग्रन्थ है। इसके संकलनकर्ता ब्र. जिनेन्द्र वर्णी हैं। (आपने सन् १९८३ में ईसरी (गिरिडीह) बिहार में आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज से क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण करके क्षुल्लक श्री सिद्धान्तसागर महाराज के रूप में सल्लेखना पूर्वक समाधिमरण प्राप्त किया था, आपने जैन-सिद्धान्त का आलोडन करके यह नवनीत समाज के सामने प्रस्तुत किया है।)” इस ग्रंथ में चारों अनुयोगों के विषय यथास्थान चित्रित हैं। अध्यात्म रस से गोम्मटसार आदि ग्रंथों की गाथाएँ इसमें प्रचुर मात्रा में संकलित हैं।
इसी का पद्यानुवाद आचार्यश्री ने 'जैन गीता' नाम से किया। ‘समणसुत्तं' के प्रेरणास्रोत के सम्बन्ध में उन्होंने सन्त विनोबा का उल्लेख किया है। इसके समाधान में आचार्य विनोबा ने लिखा है कि उन्होंने कई बार जैनों से प्रार्थना की थी कि जैनों का एक ऐसा ग्रन्थ हो, जो सभी जैन सम्प्रदायों को मान्य हो, जैसे कि वैदिक धर्मानुयायियों का 'गीता' और बौद्धों का ‘धम्मपद' है। विनोबाजी के इस आह्वान पर ‘जैनधर्म सार' नामक एक पुस्तक प्रकाशित की। पुनः विद्वानों के सुझाव पर इसमें से कुछ गाथाएँ हटाकर और कुछ जोड़कर ‘जिणधम्म' नाम से पुस्तक प्रकाशित हुई। फिर इसकी चर्चा के लिए बाबा के आग्रह से ही एक संगीति बैठी, जिसमें मुनि, आचार्य और दूसरे विद्वान्, श्रावक मिलकर लगभग तीन सौ लोग इकट्ठे हुए। बार-बार चर्चा के पश्चात् उसका नाम भी बदला, रूप भी बदला, जो सर्व सम्मति से श्रमणसूक्तम्'-जिसे अर्धमागधी में 'समणसुत्तं' कहते हैं, बना। ७५६ गाथाओं वाला ‘समणसुत्तं' संज्ञक ग्रन्थ का यह अनुवादित रूप है। इसमें चार खण्ड हैं। इसके प्रथम खण्ड ज्योतिर्मुख, द्वितीय खण्ड मोक्षमार्ग, तृतीय खण्ड तत्त्व दर्शन तथा चतुर्थ खण्ड‘स्याद्वाद' है।