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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. निक्षेप और नय, पूर्ण प्रमाण द्वारा, ना अर्थ को समझता यदि जो सुचारा। तो सत्य तथ्य विपरीत प्रतीत होता, होता असत्य सब सत्य, उसे डुबोता ॥३२॥ निक्षेप है वह उपाय सुजानने का, होता वही नय निजाशय ज्ञानियों का। तू ज्ञान को समझ सत्य प्रमाण भाई, यों युक्तिपूर्वक पदार्थ लखें, भलाई ॥३३॥ दो मूल में नय सुनिश्चय, व्यावहार, विस्तार शेष इनका करता प्रचार। पर्याय-द्रव्य नय हैं मय दो नयों में, होते सहायक ‘सुनिश्चय' साधने में ॥३४॥ धारें अनंत गुण यद्यपि द्रव्य सारे, तो भी ‘सुनिश्चय' अखण्ड उन्हें निहारे। पैखण्ड,खण्ड कर द्रव्य अखण्ड को भी, देखे कथंचित यहाँ व्यवहार' सो ही ॥३५॥ विज्ञान औ चरित-दर्शन विज्ञ के हैं, जाते कहे, सकल वे व्यवहार से हैं। ज्ञानी परंतु वह ज्ञायक शुद्ध प्यारा, ऐसा नितान्त नय निश्चय ने निहारा ॥३६॥ है नित्य निश्चय निषेधक, मोक्ष दाता, होता निषिद्ध व्यवहार नहीं सुहाता। लेते सुनिश्चय नयाश्रय संत योगी, निर्वाण प्राप्त करते, तज भोग भोगी ॥३७॥ बोलो न आंग्ल नर से यदि आंग्ल भाषा, कैसे उसे सदुपदेश मिले प्रकाशा? सत्यार्थ को न व्यवहार बिना बताया, जाता सुबोध शिशु में गुरु से जगाया ॥३८॥ भूतार्थ शुद्ध नय है निज को दिखाता, भूतार्थ है न व्यवहार, हमें भुलाता। भूतार्थ की शरण लेकर जीव होता, सम्यक्त्व भूषित वही मन मैल धोता ॥३९॥ जाने नहीं कि वह निश्चय चीज क्या है, है मानते सकल बाह्य क्रिया वृथा है। वे मूढ़ नित्य रट निश्चय की लगाते, चारित्र नष्ट करते, भव को बढ़ाते ॥४०॥ शुद्धात्म में निरत हो जब संत त्यागी, जीवे विशुद्ध नय आश्रय ले विरागी। शुद्धात्म से च्युत, सराग चरित्र वाले, भूले न लक्ष्य व्यवहार अभी संभाले ॥४१॥ हैं कौन से श्रमण के परिणाम कैसे, कोई पता नहिं बता सकता कि ऐसे। तल्लीन हों यदि महाव्रत पालने में, वे वंद्य हैं नित नमूं व्यवहार से मैं ॥४२॥ वे ही मृषा नय करें पर की उपेक्षा, एकांत से स्वयम की रखते अपेक्षा। सच्चे सदैव नय वे पर को निभा लें, बोलें परस्पर मिलें व गले लगा लें ॥४३॥ उत्सर्ग मार्ग निज में निज का विहारा, शास्त्रादि साधन रखो अपवाद न्यारा। ज्ञानादि कार्य इनसे बनते सुचारा, धारो यथोचित इन्हें सुख हो अपारा ॥४४॥
  2. स्वाध्याय विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/anya-sankalan/svaadhyaay/
  3. है शीघ्र से सकल कर्म कलंक धोता, ना दोषधाम वह तो गुण-धाम होता। हो एकमेक जिससे दृग-बोध-वृत्त, जानो सभी सतत 'संघ' उसे प्रशस्त ॥२५॥ सम्यक्त्व-बोध-व्रत को 'गण' नित्य मानो, है‘गच्छ' मोक्ष पथ पै चलना सुजानो। सत् संघ है गुण जहाँ उभरे हुए हैं, शुद्धात्म ही समय है, गुरु गा रहे हैं ॥२६॥ आओ यहाँ अभय है भवभीत! भाई, धोखा नहीं, न छल, शीतलता सुहाई। माता-पिता सब समा नहिं भेद नाता, लो संघ की शरण, सत्य अभेद भाता ॥२७॥ सम्यक्त्व में चरित में अति प्रौढ़ होते, विज्ञान रूप सर में निज को डुबोते। जो संघ में रह स्वजीवन को बिताते, वे धन्य हैं सफल जीवन को बनाते ॥२८॥ जो भक्ति भाव रखता गुरु में नहीं है, लज्जा न नेह भय भी गुरु से नहीं है। सम्मान गौरव कभी यदि ना करेगा, ओ व्यर्थ में गुरुकुली बन क्या करेगा? ॥२९॥ भाई अलिप्त सहसा विधि नीर से है, उत्फुल्ल भी जिनप सूर्य प्रकाश से है। सागार भव्य अलि आ गुण गा रहे हैं, गाते जहाँ प्रगुण केसर पी रहे हैं ॥३०॥ भाती जहाँ वह महाव्रत कर्णिका है, ना नाप भी श्रुतमयी सुमृणालिका है। घेरे हुए श्रमण-रूप सहस्र-पत्र, ओ ‘संघ पद्म' जयवंत रहे पवित्र ॥३१॥
  4. हो के विलीन जिसमें मन मोद पाते, हैं भव्य जीव भव-वारिधि पार जाते। श्री जैन-शासन रहे जयवन्त प्यारा, भाई यही शरण, जीवन है हमारा ॥१७॥ पीयूष है, विषय-सौख्य विरेचना है, पीते सुशीघ्र मिटती चिर-वेदना है। भाई जरा मरण रोग निवारती है, संजीवनी सुखकरी ‘जिन-भारती' है ॥१८॥ जो भी लखा सहज से अरहंत गाया, सत्-शास्त्र-वाद, गणनायक ने बनाया। पूजूँ इसे मिल गया श्रुतबोध सिन्धु, पी बिन्दु, बिन्दु, दृगबिन्दु समेत वन्दूँ ॥१९॥ प्यारी जिनेन्द्र मुख से निकली सुवाणी, है दोष की न मिलती जिसमें निशानी। ओ ही विशुद्ध परमागम है कहाता, देखो वहीं सब पदार्थ-यथार्थ-गाथा ॥२०॥ श्रद्धा समेत जिन-आगम जो निहारें, चारित्र भी तदनुसार सदा सुधारें। संक्लेश भाव तज निर्मल भाव धारें, संसारि जीवन परीत बनाँय सारे ॥२१॥ हे 'वीतराग' जगदीश कृपा करो तो, हे विज्ञ! ज्ञान मुझ बालक में भरो तो। होऊँ विरक्त तन से शिवमार्गगामी, मैं केवली विमल निर्मल विश्व-नामी ॥२२॥ है ओज तेज झरता मुख से शशी हैं, गंभीर, धीर, गुण आगर हैं, वशी हैं। वे ही स्वकीय-परकीय सुशास्त्र ज्ञाता,खोलें जिनागम रहस्य सुयोग्य शास्ता॥२३॥ जो भी हिताहित यहाँ खुद के लिए हैं, वे ही सदैव समझो पर के लिए हैं। है जैनशासन यही करुणा सिखाता, सत्ता सभी सदृश है सबको दिखाता ॥२४॥
  5. शिक्षा, परीक्षा विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/anya-sankalan/shiksha-pareeksha/
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