हो के विलीन जिसमें मन मोद पाते, हैं भव्य जीव भव-वारिधि पार जाते।
श्री जैन-शासन रहे जयवन्त प्यारा, भाई यही शरण, जीवन है हमारा ॥१७॥
पीयूष है, विषय-सौख्य विरेचना है, पीते सुशीघ्र मिटती चिर-वेदना है।
भाई जरा मरण रोग निवारती है, संजीवनी सुखकरी ‘जिन-भारती' है ॥१८॥
जो भी लखा सहज से अरहंत गाया, सत्-शास्त्र-वाद, गणनायक ने बनाया।
पूजूँ इसे मिल गया श्रुतबोध सिन्धु, पी बिन्दु, बिन्दु, दृगबिन्दु समेत वन्दूँ ॥१९॥
प्यारी जिनेन्द्र मुख से निकली सुवाणी, है दोष की न मिलती जिसमें निशानी।
ओ ही विशुद्ध परमागम है कहाता, देखो वहीं सब पदार्थ-यथार्थ-गाथा ॥२०॥
श्रद्धा समेत जिन-आगम जो निहारें, चारित्र भी तदनुसार सदा सुधारें।
संक्लेश भाव तज निर्मल भाव धारें, संसारि जीवन परीत बनाँय सारे ॥२१॥
हे 'वीतराग' जगदीश कृपा करो तो, हे विज्ञ! ज्ञान मुझ बालक में भरो तो।
होऊँ विरक्त तन से शिवमार्गगामी, मैं केवली विमल निर्मल विश्व-नामी ॥२२॥
है ओज तेज झरता मुख से शशी हैं, गंभीर, धीर, गुण आगर हैं, वशी हैं।
वे ही स्वकीय-परकीय सुशास्त्र ज्ञाता,खोलें जिनागम रहस्य सुयोग्य शास्ता॥२३॥
जो भी हिताहित यहाँ खुद के लिए हैं, वे ही सदैव समझो पर के लिए हैं।
है जैनशासन यही करुणा सिखाता, सत्ता सभी सदृश है सबको दिखाता ॥२४॥