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प्राक्कथन  : कर्म कैसे करें?


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कर्म कैसे करें?

संसारी जीव अनादिकाल से कर्म संयुक्त दशा में रागी-द्वेषी होकर अपने स्वभाव से च्युत होकर संसार-परिभ्रमण कर रहा है। इस परिभ्रमण का मुख्य कारण अज्ञानतावश कर्म-आस्रव और कर्म-बंध की प्रक्रिया है जिसे हम निरंतर करते रहते हैं। कर्म बंध की क्रिया अत्यन्त जटिल है और इसे पूर्ण रूप से जान पाना अत्यन्त कठिन है, लेकिन यदि हमें केवल इतना भी ज्ञान हो जाए कि किन कार्यों से हम अशुभ कर्मों का बंध कर रहे हैं तो सम्भव है हम अपने पुरुषार्थ को सही दिशा देकर शुभ कर्मों के बंध का प्रयास कर सकते हैं। जयपुरवासियों के पुण्योदय से सन् 2002 में मुनि श्री क्षमासागरजी का चतुर्मास वहाँ पर हुआ था और लगभग 7-8 माह तक प्रतिदिन प्रवचन आदि का लाभ उन्हें सहज ही उपलब्ध हो गया। इस अवसर पर मुनिश्री ने 18 प्रवचनों से जन-साधारण को कर्म सिद्धान्त के जैनदर्शन में प्रतिपादित विषयों से अवगत कराने हेतु अत्यन्त सरल भाषा में उन परिणामों को स्पष्ट किया है जिनके कारण हम निरन्तर अशुभ कर्मों का बन्ध करते रहते हैं। प्रायः सभी भारतीय दर्शनों में कर्म सिद्धान्त पर विचार किया गया है, लेकिन जैन आचार्यों ने कर्म बंध और कर्म फल प्रक्रिया का जैसा सूक्ष्म वर्णन किया है, अन्यत्र प्राप्त नहीं है। 


प्रवचन विषय 

मुनिश्री ने अपने प्रवचनों को मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त किया है - पहले छह प्रवचनों में संसार में दृश्यमान विविधता का कारण अपने स्वयं के कार्य हैं जो अज्ञानता और आसक्ति से किए जा रहे हैं, न कि ईश्वर के द्वारा सम्पादित और संचालित हैं, जैसा कि जैनेतर सिद्धान्तों की मान्यता है, पर प्रकाश डाला है। उन्होंने ईश्वर की कल्पना का तर्कपूर्ण खण्डन किया है। इस दृश्य जगत में सभी चीजें अपने स्वभाव व गुणधर्मों के अनुसार परिणमन करती हैं। हम जैसा करते हैं, वैसा हमें फल प्राप्त होता है। इस संसार परिभ्रमण का कारण मेरी अपनी अज्ञानता और आसक्ति है। जो भी प्रतिकूल परिस्थितियाँ मुझे प्राप्त हुई हैं उनके लिए मैं स्वयं ही उत्तरदायी हूँ। कुछ कर्म हम करते हैं, कुछ कर्म हम भोगते हैं और कुछ कर्म हम नये बाँध लेते हैं। इस प्रकार यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। यदि हम चाहें तो इस संसार परिभ्रमण की प्रक्रिया को अपनी सावधानी और अनासक्ति से क्रमशः कम करते-करते पूर्ण मुक्त हो सकते हैं। 


कर्म हम अपने मन, वाणी और शरीर की क्रियाओं से निरन्तर करते रहते हैं, चाहे वह कर्म करने वाला हो, भोगने वाला हो या संचित होने वाला हो। कर्म बंध की प्रक्रिया में मुख्य रूप से तीन चीजों की भागीदारी है - आसक्ति या मोह, वर्तमान के पुरुषार्थ में गाफिलता या लापरवाही और हमारी अज्ञानता। आसक्ति या मोह पर मेरा वश नहीं है क्योंकि यह पुराने बँधे हुए कर्मों के फल का परिणाम है। लेकिन वर्तमान के पुरुषार्थ में सावधान होकर और कर्म बंध की प्रक्रिया का ज्ञान प्राप्त कर मैं कर्म फल भोगने और नये कर्म बंध होने की प्रक्रिया को निश्चित दिशा दे सकता हूँ। समीचीन ज्ञान प्राप्त कर मोह को घटाते हुए वीतरागता के प्रति अपनी रुझान बढ़ाकर मैं अशुभ कर्म बंध के स्थान पर शुभ कर्म बंध कर सकता हूँ।
 

जो कर्म मैंने पूर्व में बाँध लिए हैं, वे अपना फल तो अवश्य देंगे। लेकिन वे कर्म जैसे मैंने बाँधे हैं वैसे ही मुझे भोगना पड़ें या अपना मनचाहे फल दें, ऐसी मजबूरी नहीं है। इसलिए कर्म बंध की पूरी प्रक्रिया समझना आवश्यक है। मेरी अज्ञानता की वजह से मेरी पुरुषार्थहीनता बढ़ती है और उस कारण से मोह मुझ पर हाबी हो जाता है। ऐसे कर्म भी जो अपरिवर्तित फल देने वाले हैं उनमें भी मैं अपने पुरुषार्थ से परिवर्तन कर उनकी फल शक्ति को कम या अधिक करने में समर्थ हूँ। कर्मोदय के समय यदि हम हर्ष-विषाद न कर संतोष और समता धारण करने का पुरुषार्थ कर सकें तो इन पूर्वोपार्जित कर्मों के फल को आसानी से भोगकर नवीन कर्मबंध की प्रक्रिया को नष्ट कर सकते हैं। 


मुनिश्री ने कर्मों पर विजय प्राप्त करने के तीन उपाय बताये हैं - 

  • 1. बाह्य वातावरण से जितनी जल्दी हो सके, सामंजस्य स्थापित कर लेना, 
  • 2. शीघ्र प्रतिक्रिया न करें और यदि करना ही पड़े तो प्रतिक्रिया सकारात्मक और रचनात्मक ही करें, और 
  • 3. संसार के घात-प्रतिघात से बचने का प्रयत्न करें। 


संसार के घात-प्रतिघात तो हमें सिर्फ अशुभ की ओर ही ले जाते हैं। मन को शुभ कार्यों में लगाये रखने पर हम अशुभ कार्यों से बच सकते हैं। धार्मिक क्रियाएँ करते समय हम संसार के प्रपंचों से बचे रहते हैं। शुभ कार्यों का फल हमेशा शुभ ही होता है, अशुभ कार्यों का फल कभी शुभ नहीं हो सकता। शुभ क्रियाओं से हम अपने संचित कर्मों में निरन्तर परिवर्तन कर सकते हैं और अशुभ के दबाव को कम करने में सफल हो सकते हैं। घात-प्रतिघात से बचने की कुशलता इसी में है कि अगर कोई हमारे ऊपर घात करता है तो हम प्रतिघात न करें या कि स्वघात न करें। अपने प्राण ले लेना, जीवन को कष्ट में डालना. मन ही मन संक्लेषित होना- ये सब स्वघात हैं। प्रतिक्रिया सकारात्मक करना सरल है लेकिन घात होने पर प्रतिघात न करें, इसके लिए बहुत सजगता की आवश्यकता है। यदि हम इस प्रकार का अभ्यास कर सकें तो इस संसार परिभ्रमण से शीघ्र पार होने में सफल हो सकते हैं। 


इस प्रकार इन छह प्रवचनों में मुनिश्री ने यह समझाने का प्रयास किया है कि हम कर्म प्रक्रिया को ठीक-ठीक समझ कर अपने वर्तमान के पुरुषार्थ द्वारा नवीन कर्म बंध को क्रमशः कम कर सकते हैं और पूर्व में संचित कर्मों में परिवर्तन कर उनकी फल-शक्ति को कम या ज्यादा करने में सफल हो सकते हैं।
 

जैन दर्शन के अनुसार कर्मों के मुख्य रूप से तीन भेद हैं - 1. द्रव्य कर्म, 2. भाव कर्म, और 3. नो कर्म। आत्म प्रदेशों के साथ बंध को प्राप्त पुद्गल कर्म वर्गणाओं के समूह को द्रव्य कर्म कहते हैं। द्रव्य कर्म बंध में कारणभूत संसारी जीव के परिणाम ही भाव कर्म हैं तथा शरीर, आहार, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा, मन रूप पुद्गल परमाणु जो कर्म बंध में किंचित् कारण हैं, नो कर्म हैं। नो कर्म बिना, कर्म अपना फल देने में समर्थ नहीं हैं। 


द्रव्य कर्म बंध के मुख्य रूप से चार भेद हैं - 1. प्रकृति बंध, 2. प्रदेश बंध 3. स्थिति बंध और 4. अनुभाग बंध। 


प्रकृति बंध का अर्थ है कर्म का स्वभाव। संसार में विद्यमान प्रत्येक वस्तु या द्रव्य का स्वभाव भिन्न-भिन्न है। अतः वह उसकी प्रकृति कहलाती है। आत्मा के साथ बँधने वाले कर्मों की प्रकृति भी आठ प्रकार की है - 1. ज्ञानावरण, 2. दर्शनावरण, 3. वेदनीय, 4. मोहनीय, 5. आयु, 6. नाम, 7. गोत्र और 8. अन्तराय। मोहनीय कर्म सब कर्मों में बलवान है। इसके दो भेद हैं - दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय। इसी प्रकार वेदनीय कर्म भी दो प्रकार का है - साता वेदनीय और असाता वेदनीय। इन आठों कर्मों के 148 उत्तर भेद हैं। आयु कर्म को छोड़कर शेष सातों कर्मों का बंध संसारी जीवों को निरन्तर होता रहता है। आयु कर्म का बंध तो निश्चित समयों पर एक निश्चित प्रक्रिया द्वारा ही होता है। 


आचार्य उमास्वामी महाराज ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ तत्त्वार्थ सूत्र (अपर नाम मोक्षशास्त्र) के अध्याय छह में आठ कर्मों के आस्रव और बंध (दोनों क्रियायें एक समयावर्ती हैं) के कारणों को एक सूत्र में परिभाषित किया है। मुनिश्री ने इन्हीं सूत्रों को आधार बनाकर अपने अगले बारह प्रवचनों में सरल भाषा में दैनिक जीवन में घटित होने वाले उदाहरण देकर उन कारणों पर प्रकाश डाला है, जिनसे ये कर्मआस्रव/बंध को प्राप्त होते हैं। 


1-2. ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों के आस्रव/बंध के कारण 

हमारे ज्ञान और दर्शन को आवरण करने वाले ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म हैं। इन कर्मों के आस्रव/बंध के कारणों के लिए तत्त्वार्थ सूत्र के अध्याय छह सूत्र 10 में कहा गया है - “तत्प्रदोष निह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः।” अर्थात् प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात - ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों के आस्रव/बंध के कारण हैं। मुनिश्री ने इन कारणों की व्याख्या करते हुए बताया है कि प्रदोष का अर्थ है तत्त्व चर्चा के समय तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञानी के प्रति भीतर ही भीतर ईर्षा का भाव होना और उसे नीचा दिखाने के भाव होना। जानते हुए भी ज्ञान की बातें दूसरे को न बताना या गुरु या शास्त्र जहाँ से ज्ञान प्राप्त किया है, उस ज्ञान को छिपाने के भाव होना निह्नव है। जानकारी होते हुए भी, दूसरा अधिक ज्ञान प्राप्त न कर ले, इस भाव से दूसरे को ज्ञान नहीं देना, मात्सर्य है। ज्ञान और ज्ञान-प्राप्ति में बाधक बनना अन्तराय है। दूसरे के द्वारा दी जा रही जानकारी का सम्मान न कर शरीर और वाणी से निषेध करना आसादना है। सही ज्ञान में दोष लगाना, उसे गलत साबित करना उपघात है। मुनिश्री ने अत्यन्त सरल भाषा में इन कारणों को रोजमर्रा में होने वाले उदाहरण देकर समझाया है कि यदि हमें ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों के आस्रव/बंध से बचना है तो हम सावधान रहें और ऐसी क्रियाओं के भाव ही अपने मन में न आने दें। . 

 

3.1. असाता वेदनीय के आस्रव/बंध के कारण

असाता वेदनीय कर्म के उदय में संसारी जीवों को दुःख के कारण उपस्थित होते हैं। तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय छह में सूत्र 11 में असाता वेदनीय के आस्रव/बंध के कारण इस प्रकार कहे हैं - “दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभय स्थानान्यसवेद्यस्य।" अर्थात् स्वयं में, दूसरों में या दोनों में स्थित दुःख, शोक, ताप आक्रन्दन, वध और परिवेदन - असाता वेदनीय के आस्रव के कारण हैं। पीड़ा का अनुभव होना दुःख है। प्रिय या उपकारी वस्तु के वियोग में, उनके खोने या नष्ट होने से जो कष्ट या उदासी होती है, उसे शोक कहते हैं। झूठे आरोपों से जो मानसिक व्यथा या खिन्नता होती है, उसे ताप कहा जाता है। विलाप करते हुए आँसुओं का आना आक्रन्दन है। प्राणों पर आघात से उत्पन्न पीड़ा को बध कहते हैं। प्रिय के वियोग में उनके गुणों का स्मरण करते हुए करुणाप्रद रुदन करना परिवेदन है। मुनिश्री ने अपनी सरल भाषा में बताया है कि पूर्व में हमने अपने या दूसरे को या दोनों को ऐसे कारण उपस्थित किए होंगे जिससे वर्तमान में असाता वेदनीय का उदय है और उनके फल में हमें दुःख का अनुभव हो रहा है। यदि भविष्य में हमें इस प्रकार के कष्टों से बचना है तो हम वर्तमान में अपने पुरुषार्थ से अपने लिए या दूसरों के लिए या दोनों के लिए ऐसे निमित्त पैदा न करें। 


3.2. साता वेदनीय के आस्रव/बंध के कारण 

संसारी जीवों को सुखों का अनुभव साता वेदनीय कर्मोदय के कारण होता है। तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय छह सूत्र 12 में इसके आस्रव/बंध के कारण इस प्रकार बताये गये हैं - "भूत-व्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सवेद्यस्य।” अर्थात् प्राणीमात्र और व्रती व्यक्तियों पर विशेष रूप से अनुकम्पा के भाव होना, दान देना, सराग संयम के चारित्र क्रियाओं आदि के पालने का विशेष ध्यान रखना, क्षान्ति और शौच - ये साता वेदनीय के आस्रव/बंध के कारण हैं। दया से भीगकर दूसरे के दुःख को अपना ही दुःख मानने के भाव होने पर उन्हें दूर करने का उपाय करना अनुकम्पा है। प्राणी मात्र के प्रति और विशेष रूप से व्रती व्यक्तियों के प्रति अनुकम्पा होना साता वेदनीय के आस्रव/बंध के कारण हैं। दूसरे के अनुग्रह के लिए अपनी प्रिय वस्तु का विनम्रतापूर्वक त्याग करना दान है। संसार में विरक्त होकर संयमपूर्वक जीवन को नियंत्रित कर साधना करना सराग संयम है. ऐसे संयम के पालने में रागांश रहता है। इस संयम के पालने से भी साता वेदनीय का आस्रव/बंध होता है। समतापूर्वक क्रोध कषाय का शमन करने को क्षान्ति कहते हैं। लोभ कषाय के शमन के फलस्वरूप भावों में जो शुचिता आती है उसे शौच कहते हैं। ये सभी साता वेदनीय के आस्रव/बंध के कारण हैं। इनके अतिरिक्त भी अकाम निर्जरा, बाल-तप, अहँत पूजन में तत्परता, बाल-वृद्ध तपस्वी की वैयावृत्य आदि भी साता वेदनीय के आस्रव/बंध के कारण मुनिश्री ने बताये हैं। अपने प्रवचन में उन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि यदि हम अगले जीवन में धर्म साधन के लिए समुचित वातावरण की प्राप्ति की आकांक्षा रखते हैं तो हमारा वर्तमान पुरुषार्थ इस प्रकार का हो कि हमें साता वेदनीय कर्म का ही आस्रव/बंध हो। 

 

4.1. दर्शन मोहनीय कर्म के आस्रव/बंध के कारण 

तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय छह सूत्र 13 में दर्शन मोहनीय के आस्रव/बंध के कारण इस प्रकार कहे गये हैं - "केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य।" अर्थात् केवली. श्रुत, संघ, धर्म और देव का अवर्णवाद दर्शनमोहनीय के आस्रव/बंध के कारण है। जो केवलज्ञान से युक्त है, अठारह प्रकार के दोषों से रहित हैं, शरीर जिनका परमऔदारिक हो गया है, ऐसे केवली भगवान को कवलाहारी कहना उनका अवर्णवाद है। अर्थात् जो दोष उनमें नहीं है, उन्हें प्ररूपित करना। श्रुत अहिंसा का मार्ग प्रशस्त करता है, उनमें हिंसा को उचित बताना श्रुत का अवर्णवाद है। संघ से आशय ऋषि, मुनि, यति और अनगार साधुओं के समूह से है। संघ के साधुओं में ऐसे दोष लगाना जो उनमें नहीं हैं, संघ का अवर्णवाद है। अहिंसा धर्म ही परम धर्म है, उसे न मानकर हिंसा से भी धर्म होता है, ऐसा प्ररूपण करना धर्म का अवर्णवाद है। स्वर्ग के देवों का आहार अमृत है। इसके विपरीत ऐसा प्ररूपण करना कि वे तो मांस और सुरा का सेवन करते हैं, देव अवर्णवाद है। ये सभी कार्य दर्शनमोहनीय कर्म के आस्रव/बंध के कारण हैं। इसी कर्म के कारण हमारी दृष्टि में निर्मलता नहीं आ पाती है और हमें समीचीन श्रद्धान नहीं हो पाता है। 
अतः मुनिश्री ने अपने प्रवचन में इस प्रकार के कार्यों से बचने का उपदेश दिया है। 

 

4.2. चारित्र मोहनीय कर्म के आस्रव/बंध के कारण 

कषायें हमारे परिणामों को कलुषित करती हैं। जो कर्म बंध से बचना चाहते हैं उन्हें कषायों से बचना चाहिए। तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय छह के सूत्र 14 में चारित्र मोहनीय कर्म के आस्रव/बंध के कारण इस प्रकार कहे गए हैं - “कषायोदयातीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य" । अर्थात् कषाय के उदय से होने वाले आत्मा के तीव्र परिणाम चारित्र मोहनीय कर्म के आस्रव/बंध के कारण हैं। कषाय का उदय हमारे पूर्व संचित कर्मोदय के कारण होता है, लेकिन उदय के समय हम अपने पुरुषार्थ द्वारा कषायों की तीव्रता को मंद कर सकते हैं, उनकी दशा और दिशा को बदल सकते हैं। कषाय चार प्रकार की होती हैं - क्रोध, मान, माया और लोभ । एक समय में एक ही प्रकार की कषाय का उदय रहता है, उस समय अन्य कषायें उसी रूप उदय में आती हैं। हम अपने पुरुषार्थ द्वारा इन कषायों को एक दूसरे में बदल सकते हैं और उनकी तीव्रता को मंद कर सकते हैं। सभी संसारी जीवों को दसवें गुणस्थान के अन्त समय तक अधिक या थोड़ा कषायों का उदय बना रहता है। इनसे हमारे आत्म-परिणाम प्रभावित होकर चारित्र को प्रभावित करते रहते हैं। अतः हमारा पुरुषार्थ ऐसा हो कि इन कषायों के उदय में हम अपने चारित्र में दोष न लगने दें। 

 

5. आयु बंध के आस्रव/बंध के कारण 

जैन दर्शन के अनुसार संसारी जीव निरन्तर चार गतियों में परिभ्रमण करता रहता है - नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव। मुनिश्री ने अपने चार प्रवचनों में उन कारणों की व्याख्या की है जिनसे जीव इन गतियों के आयु बंध का आस्रव करता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि गति बंध तो जीव को शुभ या अशुभ परिणामों के कारण निरन्तर होता रहता है, लेकिन आयुबंध की एक निश्चित प्रक्रिया है और एक बार आयुबंध हो जाने पर जीव को उस गति में जाना ही पड़ता है। लेकिन जीव अपने शुभ या अशुभ परिणामों से अपनी बँधी हुई आयु में उच्च-नीच गोत्र, कम या अधिक स्थिति बंध कर सकता है। 


नरक आयु के आस्रव/बंध के कारणों को तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय छह सूत्र 15 में इस प्रकार कहा है - “बारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः।” अर्थात् बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह के भाव नरक आयु के आस्रव/बंध के कारण हैं। जीवों को दुःख पहुँचाने वाले सभी कार्य आरम्भ' कहे जाते हैं और चीजों की मूर्छा या उनके संग्रह की इच्छा करना परिग्रह है। ऐसे व्यापार जिनमें अधिक हिंसा होती हो, नरकायु के आस्रव के कारण हैं। अधिक धन संचय की आकांक्षा भी नरकायु के आस्रव का कारण है। नरकों में पाप की बहुलता है, माराथारी है। हम यहाँ पर भी अपने चारों ओर नरकों जैसा वातावरण निर्मित कर लेते हैं, ऐसे व्यापार करते हैं जिनमें हिंसा का बाहुल्य होता है। नरकायु के आस्रव के अन्य कारण हैं - पत्थर के समान कठोर क्रोध होना, दयाशून्य भाव होना, साधुजनों को आपस में लड़वाना आदि। मुनिश्री ने अपने प्रवचन में संतोष धारण कर नीति न्यायपूर्वक व्यापार आदि करने का उपदेश दिया है। 


तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय छह सूत्र 16 में तिर्यंच आयु के आस्रव/बंध के बारे में कहा गया है कि “माया तैर्यग्योनस्य।” अर्थात् मायाचारी तिर्यंच आयु के आस्रव/बंध का कारण है। मायाचारी का अर्थ है दिखावा और झूठा प्रदर्शन, जो जैसा है वैसा न होकर कुछ और ही होना। यहाँ परिणामों की महत्ता है, हम वास्तविकता को स्वीकार नहीं कर पाते हैं, इसलिए मायाचारी का आश्रय लेते हैं, छल-कपट करते हैं, कुटिलता का भाव रखकर दूसरों को ठगते हैं। मुनिश्री ने कहा कि आज आजीविका के लिए हम धोखाधड़ी करने में जरा भी संकोच नहीं करते। इससे तिर्यंच आयु का बंध कर हम अगले भव में जीवन भर तिरस्कारित होते रहने का प्रबंध कर रहे हैं। मुनिश्री ने यह भी बताया कि बहुत अधिक आर्त परिणामों के साथ मरण होने से भी तिर्यंच आयु का बंध होता है। हमें इसलिए सावधानी की आवश्यकता है। 


मनुष्य आयु के आस्रव/बंध के कारणों के लिये तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय छह में दो सूत्र 17 एवं 18 में कहा गया है कि “अल्पारम्भ परिग्रहत्वं मानुषस्य।” एवं “स्वभाव मार्दवं च।” अर्थात् अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह का भाव और स्वभाव की मृदुता मनुष्य आयु के आस्रव/बंध के कारण हैं। मुनिश्री ने अपने प्रवचन में कहा कि मनुष्य पर्याय को पाने के लिए हमने पूर्व में अवश्य ही अल्प आरम्भ और परिग्रह के भाव रखे होंगे। लेकिन आज हम इसके विपरीत परिणाम कर लेते हैं। मृदुता के स्थान पर हमारे भावों में क्रोध का बाहुल्य है। इसलिए आचार्यों ने कहा है कि मनुष्य आयु का बंध करना कठिन है। यदि हमें अगले जीवन में मनुष्य भव प्राप्त कर आत्म-कल्याण करने की आकांक्षा हो तो संतोषपूर्वक जीवनयापन करें और न्यायपूर्वक व्यापार करें, अन्यथा हमें तिर्यंच या नरक आयु का ही बंध होगा। हमें यह भी जान लेना चाहिए कि मनुष्य और तिर्यंच चारों आयु का बंध कर सकते हैं, लेकिन नारकी और देव केवल मनुष्य और तिर्यंच आयु का ही बंध कर सकते हैं। 

 

देवायु के आस्रव/बंध के लिए तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय छह सूत्र 20 में जिन कारणों का उल्लेख है वे हैं - “सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि दैवस्य।” अर्थात् सराग संयम, संयमासंयम, अकाम निर्जरा और बाल-तप - ये देवायु के आस्रव/बंध के हेतु हैं। जहाँ रागांश हो वैसा प्रमत्त मुनि का संयम, संयमासंयम जो देशव्रती श्रावक पालते हैं, परवश होकर भख-प्यास सहन करना. ब्रह्मचर्य का पालन करना, जमीन पर सोना आदि जो अकाम निर्जरा के कारण हैं तथा आत्म-ज्ञान से विमुख होकर पंचाग्नि आदि तप करना भी देवायु के आस्रव/बंध के कारण हैं। मुनिश्री ने अपने प्रवचन में बताया है कि संयमित और नियंत्रित जीवन दृष्टि की निर्मलता के साथ होना चाहिए, यश और ख्याति के लिए नहीं। पुण्य कार्य कर देवत्व प्राप्त करना कठिन नहीं है लेकिन महाव्रत धारण कर ध्यान के माध्यम से कर्मो की निर्जरा करना कठिन हैं। इस सम्बन्ध में उन्होंने तत्त्वार्थ सूत्र में अगले सूत्र 21 “सम्यक्त्वं च” की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा है कि सम्यग्दृष्टि जीव को एक मात्र देवायु का ही बंध होता है और यदि पहले से आयु बंध न हुआ हो तो केवल वैमानिक देवों में उत्पन्न होने का ही बंध होगा, नीचे के भवनत्रिक देवों में वह उत्पन्न नहीं होता है। 


6. नामकर्म के आस्रव/बंध के कारण 

हमारा शरीर, अंग और उपांग आदि हमें नामकर्म के फल से प्राप्त होते हैं। इस कर्म का विस्तार बहुत लम्बा है, इसके 93 उत्तर भेद हैं। हम प्रत्यक्ष में अनुभव करते हैं कि इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति के भिन्न-भिन्न प्रकार की शरीर संरचना, अंग, उपांग आदि पाये जाते हैं। इस विविधता का कारण प्रत्येक व्यक्ति के पृथक्-पृथक् नाम कर्म का उदय है। तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय 6 सूत्र 22 में कहा गया है कि “योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः।” सूत्र 23 में कहा गया है कि “तद्विपरीतं शुभस्य' । अर्थात्-योग यानी मन, वचन, काय की क्रिया की वक्रता (यानी सोचना कुछ, करना कुछ और बोलना कुछ) और विसंवाद यानी विपरीत या मिथ्या आचरण करने के लिए दूसरों को प्रेरित करना, उन्हें मोक्षमार्ग से विपरीत मार्ग में लगाना आदि अशुभ नाम कर्म के आस्रव/बंध के कारण हैं। यहाँ यह भी समझाना आवश्यक है कि योग तो क्रिया है, उसमें कदाचित् वक्रता नहीं होती लेकिन क्रिया करते समय उपयोग में वक्रता होती है, उसी से अशुभ नाम-कर्म का आस्रव/बंध होता है। इन क्रियाओं के विपरीत आचरण और परिणामों से शुभ नाम कर्म का आस्रव/बंध होता है। अतः यदि हमें अच्छा शरीर आदि अगले भव में प्राप्त करने की आकांक्षा हो जिससे हम अपना आत्म-कल्याण ठीक प्रकार से कर सकें तो हमें उपयोग की वक्रता और विसंवाद से बचना चाहिए। 


7. गोत्र कर्म के आस्रव/बंध के कारण 

तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय 6 सूत्र 25 में कहा गया है - “परात्मनिन्दाप्रशंसे सद्सद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य।” अर्थात् परनिन्दा, आत्म-प्रशंसा, सद्गुणों को ढकना और असद्गुणों का उद्भावन करना - यह नीच गोत्र के आस्रव के कारण है। सच्चे या झूठे दोषों को प्रकट करने की इच्छा ही निन्दा है। दूसरों की निन्दा ही परनिन्दा है। सच्चे या झूठे गुणों को प्रकट करने की प्रवृत्ति प्रशंसा कहलाती है। अपनी प्रशंसा आत्म प्रशंसा है। दूसरों के अच्छे गुणों को ढकना या यह कहना कि उसमें कोई गुण नहीं है, सद्गुण आच्छादन है। अपने में कोई गुण न होने पर भी गुणवान प्रकट करना असद्गुण उद्भावन है। इन सबसे नीच गोत्र का आस्रव होता है। इसलिए मुनिश्री ने प्रवचन में कहा है कि यदि नीच गोत्र के आस्रव से अगले भव में बचना है तो इस प्रकार की प्रवृत्ति से बचें। यदि आज हमें उच्च गोत्र में पैदा होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, जहाँ धर्म की परम्परा चलती है, अभक्ष्य भक्षण नहीं होता है और लोक में निन्दा नहीं है तो हमने अवश्य ही पूर्व में कुछ अच्छे भाव रखें होगे, दूसरों की गुणों की प्रशंसा और अपने अवगुणों की निन्दा की प्रवृत्ति रही होगी अतः इसके लिए यथेष्ट पुरुषार्थ अपेक्षित है। 


8. अन्तराय कर्म के आस्रव /बंध के कारण 

तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय छह सूत्र 27 में अन्तराय कर्म के आस्रव/बंध के सम्बन्ध में कहा है- “विघ्नकरणमन्तरायस्य।” अर्थात्-किसी कार्य में विघ्न उत्पन्न करने का भाव अन्तराय कर्म के आस्रव /बंध का कारण है। मुनिश्री ने अपने अंतिम प्रवचन में कहा है कि हमारे बंधन का एक मात्र कारण हमारा राग द्वेष है। जैसे मोहनीय कर्म सब कर्मो में प्रबल कर्म हैं वैसे ही अन्तराय कर्म छिपा हुआ, अचानक उदय में आकर कार्य में विघ्न पैदा करने वाला कर्म है इसके आस्रव/बंध का कारण है कि पूर्व में हमने किसी के कार्य के सम्पन्न होने में बाधा डाली होगी या वैसा भाव किया होगा, उसी के परिणामस्वरूप वह आज हमें कार्य सम्पन्न होने में बाधा उत्पन्न कर रहा है। अतः यदि आगे हमें इस प्रकार के विघ्नों से बचना है तो हम किसी के भी कार्य में न तो बाधक बनें और न बाधा पहुँचाने के भाव रखें। 

 

प्रवचनों की विशेषता 

जैसा पूर्व में उल्लेख किया था, कर्म सिद्धान्त अति कठिन विषय है। प्रकाण्ड विद्वान भी इसे समझने और समझाने में असमर्थता का अनुभव करते हैं। फिर जनसाधारण को इस विषय को प्रस्तुत करना कितना दुरूह कार्य है, आप अनुमान लगा सकते हैं। मुनिश्री श्रेष्ठ मनीषी संत-कवि, चिंतक, प्रभावी प्रवचनकार, मौलिक साहित्य सृष्टा, वैज्ञानिक और अन्वेषक हैं। उन्होंने जनसाधारण का ध्यान रखकर विषय को अत्यन्त सरल भाषा में इस तरह प्रस्तुत किया है कि सभी को कम से कम इस बात का ज्ञान हो कि उन्हें अपने दैनिक कार्यकलापों में क्या सावधानी रखनी है, अपने पुरुषार्थ को क्या दिशा देनी है जिससे अशुभ से बचकर शुभ कार्यों में प्रवृत्ति बढती जाये। भाषा की सरलता का इससे ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इन प्रवचनों में मुनिश्री ने एक बार भी कहीं कर्मों के उदय, उदीरणा, संक्रमण, अपकर्षण, उत्कर्षण, निधित्त, निकाचित शब्दों का प्रयोग नहीं किया है क्योंकि जनसाधारण इनके अर्थों से भलीभांति परिचित नहीं होता। उन्होंने कर्मों की प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग आदि की भी चर्चा नहीं की है, उनका उद्देश्य तो जनसाधारण को उस प्रक्रिया से अवगत कराना मात्र प्रतीत होता है जिससे वे अशुभ कर्म के आस्रव/बंध से बचने का प्रयास करें। प्रत्येक प्रवचन के प्रारम्भ में पूर्व प्रवचनों की संक्षेपिका प्रस्तुत कर बार बार अशुभ क्रियाओं से बचने का उपदेश दिया गया है। 

 

प्रवचन-संकलन की उपयोगिता 

प्रस्तुत पुस्तक प्रवचन संकलन है। पूर्व में इन प्रवचनों की सी डी भी तैयार कर वितरित की जा चुकी हैं जो काफी उपयोगी पाई गई। कुछ श्रोताओं का आग्रह था कि सर्व साधारण के हितों को ध्यान में रखकर इन प्रवचनों को पुस्तक रूप में प्रकाशित किया जावे। अतः प्रस्तुत संकलन बिना किसी सम्पादन या संशोधन के तैयार किया गया है। यहाँ यह स्पष्ट करना अभीष्ट है कि प्रवचन और आलेख में वस्तुतः मौलिक अन्तर होता है। प्रवचन संकलन में वक्ता की कथन शैली के स्वरूप के, उसकी मौलिकता को यथासम्भव बरकरार रखना होता है जिससे पढते समय वक्ता की छवि उभरकर साक्षात सामने आ जावे और लगे कि वक्ता की वाणी ही सुनाई दे रही है। इसलिए प्रवचन सम्पादन के समय वक्ता की कथन शैली को महत्त्वपूर्ण प्रमुखता दी जाती है, भाषा को या उसकी संरचना को नहीं । इस पुस्तक में इस बात का यथासंभव ध्यान रखा गया है। प्रवचनों के संकलन की शृंखला में इसके पूर्व भी मुनिश्री के जयपुर प्रवास में दिये गये दस धर्मों पर प्रवचन गुरूवाणी के रूप में और सोलहकरण भावनाओं के प्रवचन भी प्रकाशित हो चुके हैं। उन दोनों संकलनों का पुरजोर स्वागत हुआ है। आशा है यह संकलन भी जनसाधारण के लिए उपयोगी साबित होगा। 

 

इन प्रवचनों को केसट्स से श्री दिनेश जैन, रामगंजमण्डी द्वारा लिपिबद्ध किया गया है। मैत्री-समूह उनका आभारी है। जयपुर प्रिन्टर्स के श्री प्रमोद कुमार जैन ने इस पुस्तक को शीघ्र छपवा कर आपके हाथों में पहुँचाया है, हम उनके आभारी हैं। 

 

एस. एल. जैन 
मैत्री-समूह 

14 सितम्बर 2008 अनन्त चतुर्दशी 

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