Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

कर्म कैसे करें? भाग -4


Vidyasagar.Guru

1,131 views

 

 

हम सभी लोगों ने पिछले दिनों अपने जीवन के उत्थान-पतन में कौन कारण है, कौन उत्तरदरायी है, ये जिम्मेदारी किसकी है, इस बारे में विचार करना शुरू किया है और हम पिछले दिनों इस बात पर विचार करते हुए इस निर्णय पर पहुँच गये हैं कि इसकी जिम्मेदारी हमारी अपनी है। हमारा जीवन अगर सुखमय व्यतीत हो रहा है तो उसकी जिम्मेदारी हमारी है। हमारा जीवन यदि दुखमय और अभावग्रस्त है तो उसकी जिम्मेदारी भी हमारी है। हमारे अपने कर्म जो हम करते हैं, जिनका फल हमें भोगना होता है, और फल भोगते समय जैसी हमारी फीलिंग्स और थोट्स होते हैं, जैसी हमारी विचारधारा होती है वैसे नये कर्म संचित होते हैं और ये एक विचार-क्रम निरन्तर चलता रहता है और तब हमारे मन में यह विचार आता है कि इससे तो मुक्त हो ही नहीं सकते, क्योंकि पुराने कर्म अपना फल देंगे, उनके फल भोगते समय मेरी अपनी जैसी विचारधारा होगी, उससे नये कर्म बँधेगे, वे फिर अपना फल देंगे और इस तरह तो हम कुछ भी नहीं कर सकते हैं और हमारा कोई वश नहीं है।


और हमने पिछले दिनों इस बात पर भी विचार करके देखा है कि भगवान् और भाग्य के भरोसे बैठे रहने से काम नहीं चलता। इस निर्णय पर हम पिछले दिनों पहुंचे हैं। जो भगवान् और भाग्य के भरोसे बैठकर के और इस बात का इन्तजार करते हैं कि मेरा भाग्य आगे बहुत उज्ज्वल हो जायेगा या भगवान् की मेरे ऊपर कृपा हो जाएगी तो मैं इस संसार से निजात पालूँगा। वे लोग बैठे ही रह जाते हैं। जो भगवान् और अपने भाग्य के भरोसे न बैठकर अपने जीवन में कुछ श्रेष्ठ करने का विचार करते हैं वे अपने उन बुरे कर्मों को समाप्त भी करते हैं और आगे के लिये, भविष्य को उज्ज्वल भी करते हैं। 


कर्म दोनों तरह के हैं - सांसारिक भी हैं और आध्यात्मिक भी हैं। ये हमारी च्वाइस है कि हम कौनसा कर्म करना पसंद करेंगे और इतना ही नहीं जब कर्म अपना फल देगा तो हम किस चतुराई से और किस अपनी होशियारी से उस कर्म के फल को ग्रहण करेंगे। आज हमें यह होशियारी सीख लेनी है कि ठीक है हमने पहले जो कर्म अज्ञानतावश किये हैं जो हमारे साथ संचित हो गये हैं, उन पर हमारा 95 प्रतिशत कर्मों पर वश है जब तक कि वे अपना फल नहीं देते हैं। फल देने की तैयारी भी कर रहे होते हैं तब भी हम उनकी तैयारी को डिस्टर्ब (बाधित) कर सकते हैं। यहाँ तक हमारा वश है जब वे यदि फल देने के लिये तैयार भी नहीं हैं, पड़े हुए हैं सुप्त अवस्था में, संस्कार की तरह तब तो मैं उन्हें आसानी से नष्ट कर सकता हूँ। लेकिन जब उनके भीतर थोड़ी सुगबुगाहट होने लगी है, वे तैयारी करने लगे हैं कि अब आये तब आये, और हमें अपना फल चखायेंगे, तब उस समय भी हम उनको नष्ट कर सकते हैं। वे अपना फल दें, उसके एक क्षण पहले तक, एक समय पहले तक हमारा वश है कि हम उन्हें परिवर्तित कर सकते हैं हम उनकी पोन्टेशियलिटी और ड्यूरेशन को घटा सकते हैं और अच्छे कर्मों की पोन्टेशियलिटी और ड्यूरेशन को बढ़ा सकते हैं। हम उन्हें समय से पहले लाकर के और समाप्त कर सकते हैं, क्योंकि क्या पता अभी तो जरा मन ठीक है, बाँधे हुए कर्म जब फल देंगे तब हम भोग पायेंगे कि नहीं, सहन कर पायेंगे कि नहीं। इसलिए हम अभी धर्म ध्यान करके उन बुरे कर्मों को बाहर लावें और देखने में आता है कि जो जितना ज्यादा धर्मध्यान करता है उसके जीवन में उतनी ही विपत्तियाँ एक के बाद एक आती दिखाई पड़ती हैं। वो क्या चीज है ? वो मेरे अपने धर्म ध्यान की वजह से बाद में आने वाले कर्म जो खोटे उदय में थे वे अभी आकर के अपना फल थोड़ा बहुत देकर के डेस्ट्राय (समाप्त) हो जाते हैं। ये प्रक्रिया भी छोटी-मोटी प्रक्रिया नहीं है। इस प्रक्रिया का लाभ लेकर मैं अपने संचित कर्मों के कोटे में से बहुत कुछ नष्ट कर 
सकता हूँ। 


ऐसा पुरुषार्थ मेरे भीतर जागृत करने के लिये कल अपन ने विचार किया था। मोह पर मेरा वश बहुत कम है। लेकिन मेरे पुरुषार्थ को भला और बुरा करना है। ये मेरे वश में है और कर्म के बंध के प्रति मेरी जो अज्ञानता है उसको दर करने का परुषार्थ मेरे भीतर जागृत करने के लिये कल अपन ने विचार किया था। कल हमने अपने उस तीन पहलुओं में से कि मोह और आसक्ति को हटाने के लिये तो जिनेन्द्र भगवान की भक्ति और करुणा का भाव और अपने पुरुषार्थ को जागृत करने के लिये यह विश्वास, यह आत्मविश्वास कि मैं अपने बाँधे गये कर्मों को अपने हाथ से चाहँ जब नष्ट कर सकता हूँ, पर विचार किया था। उनके स्वाद को परिवर्तित करके ले सकता हूँ, और जब वे उदय में आ जावें तब, जैसे कि टोंटी खोल दी है, भूल गये कि ठण्डा पानी गिरेगा। अब क्या करना, बन्द कर दो, लेकिन बन्द तो कर दो, वो जो इतना पानी टोंटी में से निकल गया वो तो गिरेगा उसको रोकने का कोई उपाय नहीं है लेकिन उससे बचने का उपाय अवश्य है। जितना कर्म अपना फल देने के लिये आ जाता है उतना फल तो मुझे भोगना ही पड़ेगा। सो तो तीर्थंकरों को भी अपने कर्म के खोटे फल को भोगना पड़ा। भगवान् आदिनाथ स्वामी का उदाहरण सबके सामने है। फिर हमारी और आपकी क्या बिसात ? लेकिन उस कर्म के फल को रोते-रोते भोगना है कि हँसते-हँसते भोगना है, यह मेरे ऊपर निर्भर करता है। अब वो जो ठण्डा पानी, मैंने भूल से जो नल खोलने से, मेरे ऊपर गिर गया है, उसको मुझे अब कैसे सहन करना है क्योंकि उसको रोका नहीं जा सकता, वो तो उतना निकल गया। बन्दूक में से गोली निकल गयी उसको रोकी नहीं जा सकती है। लेकिन बन्दूक को हिलाकर के उसका डायरेक्शन चेंज किया जा सकता है और आगे और नहीं चलाऊँ यह बात सीखी जा सकती है। अभी तो पहले यह बात सीख लें कि जब कर्म अपना फल देवें, कर्म का फल नहीं भोगना ये कहीं नहीं लिखा, लेकिन कर्म का फल भोगते समय उसमें रचना-पचना नहीं। “पुण्य पाप फल माँही, हरख बिलखो मत भाई।” यह जरूर लिखा हुआ है फल तो भोगना ही पड़ेगा, लेकिन उस फल को भोगते समय उसमें जो आसक्ति है, उसमें जो हर्ष विषाद है, उसमें जो रचना-पचना है, उस पर मेरा अपना पुरुषार्थ काम करेगा। 


कर्म का उदय मेरा उतना बिगाड़ नहीं करता जितना उसके उदय में उसके फल में मेरी आसक्ति। बुखार आ गया है अगर तो इसका मतलब है पेट में कहीं कोई गड़बड़ी है तो उस गड़बड़ी ने मेरे शरीर को गर्म कर दिया है। ये तो उसका फल ठीक है लेकिन अब मैं अगर दही खाऊँ और गरिष्ठ भोजन करूँ और अपथ्य करूँ तो इसका मतलब है कि मैं अपने हाथ से अपने इस कर्म के फल को बढ़ा रहा है और ऐसा तो हमेशा करते हैं। ऐसा ही कर रहे हैं अपन संसार में. कर्म का उदय हमारा उतना हानि नहीं करता.जितना कर्म के फल को भोगते समय उसके उदय में हम हर्ष-विवाद करके अपना घाटा अपने हाथ से करते हैं और कहते हैं कि क्या करें। हमारे कर्म का ऐसा खोटा उदय है। अरे कर्म का खोटा उदय किसके नहीं होता, लेकिन उस कर्म के खोटे उदय में करना क्या है ? अरे, अपन तो महाजन हैं, अगर किसी से कर्ज ले लेते हैं तो उसको हँस के चुकाते हैं। हम ऐसे महाजन नहीं हैं कि रो-रोकर के चुकायें। हमने कर्म को कर्जे की तरह लिया है अगर तो उसके उदय को भी हम हँसते-हँसते चुका देंगे। जब वह अपना फल देगा तो कहेंगे कि ठीक है हमी ने तो उधार लिया था इसलिये हमीं को चुकाना ही पड़ेगा। उसके फल को चखते समय मुझे कितनी सावधानी रखनी है, क्या चतुराई करनी है, कौनसी ऐसी कला सीख लेनी है कि जब वह अपना फल दे, बाँधे तो मैंने अज्ञानता से हैं लेकिन अज्ञानतापूर्वक मुझे भोगना पड़े ऐसा नहीं है। मैं पूरी जागृति, पूरी सावधानी और पूरे ज्ञान के साथ उस कर्म के फल को भोगता हूँ। 

 

 

आचार्य महाराज के जीवन का एक उदाहरण है और उनके द्वारा लिखी गई चार पंक्तियाँ हैं। मझे सन 1976-77 में आचार्य महाराज के मुख  से सुनने  को मिली थीं। उससे पहले तो मैं यह जानता ही न था कि यह क्या प्रक्रिया होती होगी और सन् अठहत्तर में मैंने अपने सामने उनको इस बात को करते हुए देखा। कहना बहुत आसान है लेकिन उसको जीवन में करते हुए देखना, कर्म के उदय में जबकि वह अपना फल दे रहा है, तब क्या जुगत लगाऊँ, कैसा पुरुषार्थ करूँ, जिससे कि वह अपना फल आधा-अधूरा देकर के चला जावे और आगे का इन्तजाम ना कर पाये, हाँ, क्योंकि कर्म अपना फल देता है तो वर्तमान तो मेरा बिगाड़ता ही है, साथ में मेरे भीतर हर्ष-विषाद करने की प्रेरणा देता है 


और मैं अगर थोड़ा सा असावधान हो जाऊँ तो हर्ष-विषाद करके नये कर्मों का इन्तजाम भी मैं कर लेता हूँ। कर्म का उदय नये कर्म का इन्तजाम नहीं करता, मेरा हर्ष-विषाद, मेरी आसक्ति नये कर्मों का इन्तजाम करती है इसलिये कर्म के उदय से भी ज्यादा डरने की आवश्यकता नहीं है, भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। 


“मैंने किया विगत में कुछ पुण्य-पाप, 
जो आ रहा उदय में स्वमेव आप। 
होगा बंध तबलों-जबलों ना राग, 
चिन्ता नहीं उदय से बन वीतराग।" 

 

अगर मैं वीतरागी बन जाऊँ, अगर मैं समताभाव धारण कर लूँ तो चाहे पुण्य का उदय आवे, चाहे पाप का उदय आवे, मेरा बिगाड़ नहीं करने वाला, वो तो अपना फल देकर के चला जाएगा। वो तो स्वयं ही मरण की तरफ है अपना फल दिया और मर जाएगा। वो तो फिर मेरा क्या बिगाड़ कर लेगा और उनके जीवन का उदाहरण सन् '78 में बैठे हुए थे। आचार्य महाराज चौबीसी की छत के ऊपर द्रोणगिरि में, सिद्ध क्षेत्र द्रोणगिरि है, मध्य प्रदेश में। वहाँ बैठे हैं। गजरथ का बड़ा भारी प्रोग्राम है, और साहू अशोक जी आये हैं और आचार्यश्री के चरणों में दो बार चक्कर लगा के आ गये हैं, कि जरा तो मुखातिब हो हमारी तरफ, जरा सा देख तो लेवें, लेकिन वे काहे को, वे तो अपने काम में लगे हैं और देख ही नहीं रहे हैं। ठीक है, आये होंगे आप, बहुत लोग आ रहे हैं, जा रहे हैं, प्रणाम करते चले जा रहे हैं। तब किसी से उन्होंने सलाह ली कि क्या किया जाये, महाराज जरा सा एक नजर उठाकर देख तो लेते, दो बोल बोल लें यह तो सौभाग्य है, लेकिन एक नजर तो उठाकर देख लें इतना ही सौभाग्य मिल जाए, बड़ी दूर से आया हैं। तो कहने लगे कोई ज्यादा कठिन काम नहीं है। आप जाकर के चरणों में बैठो और कहो कि भगवन् अपने जीवन के कल्याण के लिये कुछ त्याग करना चाहता हूँ, फिर देख लो आप। उपाय है यह और उन्होंने वही किया। जाकर के आचार्य महाराज के चरणों में बैठ गये। जिसकी जितनी अपेक्षा संसार से है उसको उतनी ज्यादा उपेक्षा और जिसकी नहीं है किसी से कोई अपेक्षा, देख लो आप संसार में आसानी से जीवन जीता है। बैठ गये हैं, भगवन ! मेरे कल्याण के लिये मैं कुछ त्याग इत्यादि लेना चाहता हूँ ? ठीक है - दृष्टि उठाकर के देखा कि कौन है जो कि त्याग लेना चाह रहा है तब फौरन प्रणाम करके कहा कि महाराज रात्रि भोजन इत्यादि का त्याग करने का मन है और ऐसा, ऐसा है कोई समय निर्धारित कर देवें, उसके बाद नहीं लेऊँ, ऐसा नियम ले लूँ, लेकिन महाराज यह तो ठीक है पर एक बात आपसे पूछनी है, अब तो मौका मिल गया। मैं पहले जरा एक प्रश्न पूछ लूँ उसके बाद। तो क्या प्रश्न है पूछो ? महाराज इतने लोग आ रहे हैं, जा रहे हैं, आप छत पर बैठे और अपने लेखन में लगे हुए हैं। आपको किसी से कोई मुश्किल नहीं होती, कोई बाधा नहीं पहुँचती। तो आचार्यश्री ऐसे ही जवाब देते हैं, आप गाड़ी चलाते हैं कि नहीं। चलाते हैं महाराज गाड़ी तो हम चलाते हैं। अच्छा जब गाड़ी ढलान पर आ जाती है, बड़ी लम्बी ढलान है, तब आप क्या करते हैं ? महाराज पेट्रोल बचाने के लिये न्यूट्रल में डाल देते हैं। “बोले, बस जैसे आप गाड़ी ढलान में आने पर न्यूट्रल में डाल देते हैं, ऐसे ही ज्यादा भीड़-भाड़ होने पर हमें अपना काम करना रहता है तो हम अपनी गाड़ी न्यूट्रल में डाल लेते हैं। फिर हमारे ऊपर कोई इफैक्ट नहीं होता।" 


ये बहुत बड़ा मैसेज है कि कर्म जब अपना फल देने को आ जाये, उनका उदय आ जावे तब मेरा अपना परिणाम समता का रहे, तो आकर के चले जाएँगे, मेरा उतना बिगाड़ उतनी अति नहीं कर पाएंगे, जितनी कि वे मेरे भीतर हर्ष-विषाद पैदा करके और करते हैं। हम स्वयं उस हर्ष-विषाद में शामिल हो जाते हैं, जब साता का उदय आता है तो मुझे सुख सामग्री मिलती है और उस साता के उदय में, मैं ऐसा मदोन्मत्त हो जाता है कि मनुष्यता भूल जाता हूँ। पशुता पर उतर आता हूँ। उस साता के उदय में, मैं किसी का ख्याल नहीं करता हूँ, मैं तो अपनी सुख-सुविधाओं की लम्बी दौड़ में दौड़ता चला जाता हूँ और ऐसा अहंकारी होकर के, अकड़ के घूमता हूँ। सब जानते हैं जिनको अपने पूर्व संचित पुण्य के उदय से सुख सामग्री मिली है, वे कैसे संसार में डूबे हैं। किसी से छिपा नहीं है। अपन भी जब सारी सुख-सामग्री मिल जाती है तो धर्म को दरकिनार कर देते हैं। हमारा अहंकार देखो, जब हमारा किसी साता कर्म का उदय आता है जिससे कि हमें सुख-सुविधा की और भौतिक सुख-सुविधा की सामग्री मिलती है तो कैसे अहंकारी हो जाते हैं। ये ही कर्म के उदय में आसक्ति है और यही तो संसार बढ़ाने का काम है। कर्म के उदय ने हमारा क्या किया, कुछ नहीं किया। हमारा अपना पुरुषार्थ है, आप चाहते तो अपने उस सुख साता के उदय के समय में सारी भौतिक सामग्री को एक तरफ रखकर के धर्मध्यान कर सकते थे। लेकिन हमारी च्वाइस कि उस मौलिक सख सामग्री में मदोन्मत्त होकर घूम रहे हैं, न धर्म की चिन्ता है न मनुष्यता की फिकर है। जैसा आचरण होगा पशुवत् सुबह से शाम तक, अगर खाना है और रात में भी खाना है तो खा रहे हैं। ये काम तो सिर्फ पशुओं का ही होता है कि जिनको सिर्फ खाने की फिकर होती है, जिनको सोने की फिकर होती है और जिनको भोग-विलास की पूर्ति की फिकर होती है। अगर ऐसा ही हम भी कर रहे हैं तो समझना कि हमने अपने इस कर्म के, पुण्य कर्म के उदय में अपन को सुख मिला था, साता का उदय उसका ऐसा मिसयूज (दुरुपयोग) किया और फिर हम तैयार रहें आगे के उसके फल भोगने के लिये. फिर क्यों हम ये कहते हैं कि मेरे कर्मों के उदय ने मुझे और मुश्किल में डाल रखा है ? कर्मों का उदय मुझे उतनी मुश्किल खड़ी नहीं करता जितनी मेरे अपने कर्मों के उदय में मेरी गाफिलता, मेरी असावधानी, मेरा अपना अहंकार। जब असाता का उदय आता है तो विचलित हो जाते हैं, अपना धैर्य खो देते हैं, जिस माध्यम से मेरे दुःख दूर हों उस माध्यम को अपना लेते हैं, चाहे वह अनीति का रास्ता ही क्यों न हो। मेरे दुःख दूर करने का मिथ्या से मिथ्या उपाय मैं करता हूँ, यही तो मेरे असाता के उदय को भोगने की कला मैंने नहीं सीखी है, इतना ही तो है, मेरे असाता को कैसे भोगना और मेरे साता के उदय को कैसे भोगना, समतापूर्वक भोगना नहीं तो संसार बढ़ेगा। इतनी चीज अगर कोई जान लेवे, इस कर्म के फल को भोगने की, हमारे अगर चतराई होवे, तो कोई वजह नहीं है कि कर्म का बंधन हमें इस संसार में रोक करके रख सके। विचार करें हम इस चीज को घर जाकर के। मैं तो हमेशा देखता रहता हूँ जिनके पास किसी पूर्व पुण्य के उदय से सारी सुख-सुविधाएँ हैं, उनको वर्तमान में मनुष्यता से नीचे गिरते और धर्म से विमुख होते देख लें आप, व्यसनों से लिप्त होते देख सकते हैं आप। अपने साता के उदय में सत्ता और ऐश्वर्य व्यक्ति को जितना पतित करती है इतनी और कोई चीज पतित नहीं कर सकती है, इतना ऐश्वर्य मिला कैसे? मेरे किसी पूर्व संचित पुण्य का उदय है और पुण्य के उदय को मैं भुना कैसे रहा हूँ। मैं अपने असाता के उदय में, अपने कर्मों के फल को दूसरे पर डाल देता हूँ और शिकायत करके बुराइयाँ मोल लेता हूँ, एक नया बैर विरोध जो है अपने जीवन में, वर्तमान में बना करके जीता हूँ, चाहे जिसको दोषी ठहराता हूँ| भोगता हूँ अपने असाता का फल और चाहे जिसको दोषी ठहराता हूँ कि मेरे, मेरे दुःख के ये कारण हैं, उनसे बैर विरोध भी ले लेता हूँ और अपना संसार बढ़ाता हूँ। बताइये, उस असाता के उदय ने मेरा क्या बिगाड़ किया, मैंने स्वयं अपने परिणाम बिगाड़ करके अपना बिगाड़ किया है। असाता के उदय ने उतना बिगाड़ नहीं किया है। विचार करना चाहिये कि कर्म हमेशा अपना फल, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव इन सबका ध्यान रखकर के देता है। कर्म भी अपना फल देते समय इन सब बातों का ध्यान रखता है। द्रव्य कैसा है, कर्म का फल वैसा ही मिलेगा। कमजोर आदमी होवे और बहुत तीव्र कर्म का उदय आवे प्राण निकल जावेंगे। उतना ही आता है जितना 
झेल सकें, हाँ, जैसा क्षेत्र होगा वैसा मिलेगा।


असाता का उदय नरक में अगर हो तो ज्यादा मिलेगा और स्वर्ग में अगर हो तो थोड़ा मिलकर चला जाएगा। मनुष्य है तो मिला-जुला आयेगा। काल अलग है, चौथे काल में अलग है, पंचम काल में अलग है। अगर यहाँ बैठे हैं तो कर्म दूसरे ढंग से फल देगा और इस कम्पाउण्ड से बाहर निकल जाएँगे, कर्म का फल दूसरे ढंग से मिलेगा। क्षेत्र बदल गया। मंदिर में बैठे हैं तो क्रोध का उदय अपना उतना फल नहीं दे पाएगा। मान, कषाय अब ज्यादा नहीं घेरेगी, मेरी मायाचारी मुझे उतना परेशान नहीं करेगी, लोभ जागृत होकर के वहीं के वहीं नष्ट हो जाएगा। या अपनी दिशा बदल लेगा और फिर कहेगा कि ठीक है, अब दुकान नहीं जा रहे तो चलो कोई बात नहीं, चलो धर्म ध्यान कर लेते हैं, चारों कषायें मेरे जो विकारी भाव हैं, मेरे भावों को बिगाड़ने वाली ये चीजे हैं - ये मेरे हाथ में हैं, मैं अगर कर्मों के उदय में द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव इनके परिवर्तन की चतुराई सीख जाऊँ, तो मैं आसानी से उसके फल को बदल सकता हूँ। अब ये इतनी सी और अपने को सीख लेनी है, द्रव्य मिला हुआ है, ये शरीर, पता नहीं कौनसा पुण्य किया होगा जिससे कि मनुष्य की देह मिली, ये मेरे किसी साता का उदय है। लेकिन अब ये द्रव्य है, इसका जैसा उपयोग करना हो, इसको विषय-वासनाओं में और भौतिक सुख सुविधाओं में लगाना हो तो लगा सकते हैं आप, द्रव्य तो मिला हुआ है। अब इसके माध्यम से हमें इसके फल को कैसे लेना है, हमको इन्द्रियों की अच्छी सामर्थ्य मिली है दूर तक साफ दिखाई देता है, बिना चश्मे के देख पाते हैं, ठीक है तो दुनिया के दोष देखना हो तो देख लो और अगर भगवान के दर्शन करना हो सुबह और शाम तो वैसा कर लो, मिला तो ज्यों का त्यों है, द्रव्य तो आपको मिला हुआ है और कर्म अपना फल भी दे रहा है, द्रव्य के अनुसार क्षेत्र मिला हुआ है, आप किसी ऐसी जगह पर जाना चाहें जहाँ कि मंदिर ना हो तो वहाँ भी रह सकते हैं। अपना मकान किसी ऐसे कोने में, कातर में, किसी कॉलोनी में बना लो जहाँ मंदिर ही नहीं है। झगड़ा ही खत्म कि मंदिर जाना पड़ेगा। लोग मंदिर के निकट नहीं बनाएँगे, मंदिर से दूर बनवाएँगे। कौन मुश्किल में पड़े, मंदिर जाने की मुश्किल में कौन पड़े, क्षेत्र हम चाहें तो क्षेत्र ऐसा चुन सकते हैं जिसमें हमारा धर्म-ध्यान हो और हम चाहें तो क्षेत्र ऐसा चुन सकते हैं जिससे हमारी विषय-वासना बढ़े, जिससे हमारा संसार बढ़े। हमारे ऊपर निर्भर करता है चुनना कि हम कौनसे क्षेत्र में रहें। यह बात अलग है कि हम यह नहीं चुन सकते कि हम इस घर में पैदा होंगे कि उस घर में पैदा होंगे लेकिन जब हम समझदार हो जाते हैं तो अपने क्षेत्र का परिवर्तन करके, अपने धर्मध्यान के निमित्त चाहें तो बढ़ा सकते हैं और अपने कर्म के उदय को परिवर्तित कर सकते हैं। कर्म का उदय तो मिलेगा लेकिन मैं क्षेत्र परिवर्तित करके उसके उदय को कन्वर्ट कर दूंगा और मुझे सुबह-सुबह दूसरे भाव होते हैं, शाम को दूसरे भाव होते हैं, मेरा काल भी मेरे ऊपर प्रभाव डालता है, मेरे कर्मों का फल देने में, तो मैं सावधान रहूँ कि इस वाले काल में मुझे गुस्सा आती है तो मुझे जरा उस वाले काल में, और ऐसी जगह चले जाना चाहिये, मुझे क्षेत्र बदल देना चाहिये। अपने काल को जीतने के लिये ताकि वो समय निकल जावे। समय निकल जाने पर फिर अपने आप परिणाम शांत हो जाते हैं। ये अपने कर्म के उदय को द्रव्य, क्षेत्र, काल बदलकर के बदला जा सकता है, बहत सारे ऐसे उदाहरण हैं भैया, इन सबको सदुपयोग किया जा सकता है। क्षेत्र का भी सदुपयोग करना। काल का भी सदुपयोग करना और जो शरीर मिला है, जो सामग्री मिली है, उसका सदुपयोग करना। ये सब कर्म के उदय में मिले हैं लेकिन इनका क्या उपयोग करना है ये हमारे ऊपर निर्भर है और भाव, भाव तो खोटे और भले दोनों हम जैसे चाहे वैसे, कर्म हमें बुरे भाव करने के लिये मजबूर कर सकता है, लेकिन हम करें तब। आप हमें गाली दे सकते हैं, हमारे परिणाम हमें बिगाड़ना हो तो हम बिगाड़ें और नहीं बिगाड़ना हो तो आपकी गाली को कह दें कि धन्यवाद। हमने लिया ही नहीं, आप ही रखो। आपका हमारे ऊपर वश इतना ही है कि आप हमारे विपरीत परिस्थितियाँ निर्मित कर सकते हैं लेकिन उन विपरीत परिस्थितियों में मुझे अपने परिणाम बिगाड़ना या नहीं बिगाड़ना, ये मेरी अपनी सामर्थ्य है और ये सामर्थ्य बढ़ानी चाहिये। 


अरे महाराज ! आप कह रहे हो सब बातें अच्छी लगती हैं कहने-सुनने में, लेकिन जब जीवन में करो, जब समझ में आता है। साल भर नहीं पढ़ो सो पेपर हाथ में आते ही रोना तो पड़ेगा ही और साल भर पढ़े हो तो भैया पेपर हाथ में आते ही सबसे पहले चेहरे पर मुस्कुराहट और फिर पेन संभाल के, जरा हाथ ठीक करके और शुरू करते तो तीन घण्टे कहाँ चले गये पता ही नहीं लगता। लेकिन 365 दिन की तैयारी नहीं है तो जरूर रोना पड़ेगा। कर्म का फल भोगते समय जो रोता है समझना उसकी तैयारी नहीं है, कर्म के फल भोगने की और जो कर्म के फल को हँसते-हँसते भोग लेता है, वो ही बस पक्की साधना है, वही तैयारी करनी है, वही साधना करनी है। इस प्रक्रिया को शुरू किया है, जरा समझें तो कहाँ हमारी चूक है, कहाँ हमारी भूल है और कैसे हम उसको दुरुस्त कर सकते हैं। अब देखें कि अपनी कषाओं को क्या हम कोई दिशा दे सकते हैं तो सीखें जरा अपने जीवन से सीखें। 


कैसे ? दुकान पर बैठे हुए हैं, ग्राहक आता है, ये दिखाओ, हाँ दिखाता हूँ, वो दिखाओ, हाँ दिखाता हूँ। सब दिखाते हैं, और आखरी में कहता है, पसन्द नहीं आया, दूसरी दुकान जा रहा हूँ, तब उस समय क्या होता है ? क्या विचार आ जाता है मन में ? एक दिन अगर किसी ग्राहक से खोटे वचन बोल दूंगा तो बाकी जो ग्राहक बैठे हैं और आगे आने वाले हैं, सब में घाटा लगेगा। वचन सँभाल करके बोलते हैं। परिणाम संभाल लेते हैं कि विपरीत स्थिति बनने पर, क्या ऐसा ही हमेशा नहीं कर सकते कि जब-जब ऐसी स्थितियाँ आयें, मेरा कर्म जोर मारे और मुझे दुःख में डालने की कोशिश करे तो मैं जरा ऐसा विचार करके कि अभी अगर गुस्सा कर लूँगा तो और नये संस्कार बनेंगे, कल करेंगे, देखेंगे, इसी तरह अहंकार आने पर अपने अहंकार को और मायाचारी का भाव आने पर मायामारी को, ये सब विकारी भाव हैं। और लोभ जागृत होने पर, अधिकांश लोगों के लोभ का उदय चल रहा है। बिना कषाय के उदय के तो कुछ भी नहीं होता। ये लोभ है अगर इससे दूसरे प्रकार का लोभ जाग्रत हो जाये, सांसारिक तो अभी यहाँ से धीरे से ..... मोबाइल से खबर आ जावे तो अभी यहाँ से उठकर के और चले जाएँगे दुकान पर, दूसरा लोभ जाग्रत हो गया, ये हमारा पुरुषार्थ है। 


कर्म का उदय तो आयेगा लेकिन उसका यूसेज कैसा करना है, उसका उपयोग कैसा करना है, ये मेरी अपनी क्षमता है, मेरी अपनी सामर्थ्य है। मैं उस लोभ को दिशा दे सकता हूँ। माँ भी डाँटती है बेटे को और यहाँ तक डाँटती है अब तो खैर स्थिति वो नहीं रही। चूल्हा कोई के घर में मुश्किल है जलता होगा लकड़ी वाला। नहीं जलता होगा। गैस का जलता होगा, नहीं तो पहले तो खाना खाने बैठे और अपन ने ज्यादा मीनमेख करी तो उसने धीरे से - मताई ने और निकाली लकड़ियाँ और बोली लगाऊँ, जलती लकड़ी, लगायेगी नहीं अगर लग जाएगी जरा सी भी कहीं तो वो दिन भर उँगली मुँह में लिये बैठी रहेगी, सो तो इतना भीतर वात्सल्य है, प्रेम है, क्षण भर को क्या करती है, क्रोध में आकर के क्यों ? क्योंकि करना पड़ रहा है, कि तुम बिगड़ रहे हो तुम्हारे इस सुधार के लिये। दूसरे के सुधार के लिये या अपने सुधार के लिये कभी हमने अपने इस क्रोध का उपयोग किया है या कि सिर्फ दूसरे के बिगाड़ के लिये किया है। 4 दिन पहले से हल्ला मचाना पड़ता है कि शक्कर खत्म हो गई, रखी है अभी 4 दिन की। एक दम खत्म हो जाएगी क्या तब कहेगी कि है ही नहीं। वो कच्चा गृहस्थी वाला है जो ऐसा कहेगा, वो तो चार दिन पहले से कहेगा और बेटा अगर कहेगा कि फलानी चीज है। कल रसगुल्ले बने थे, कहाँ हैं ? "खत्म हो गये, वे तो सब खत्म हो गये।” अब इतना छोटा सा तो है, 4 खा चुका है और कहता है कि और दो। खत्म हो गये कह दो मायाचारी। झूठ भी बोलना पड़ेगा। काहे के लिये ? उसके हित के लिये। भैया कषाओं को हम रोज अपने जीवन में उपयोग में लाते है। चारों कषायें हमारे अन्दर हैं, लेकिन उनके द्वारा हमें अपना संसार बढ़ाना है कि संसार घटाने के लिये उनका उपयोग करना है। यह हमारे हाथ में है। मैं इसलिये कह रहा हूँ कि मेरे अपने भाव जो कर्म के उदय में बनते हैं, उन पर भी मेरा वश है। मैं उनको दिशा दे सकता हूँ, मैं ऐसा अभ्यास और ऐसी आदत डाल सकता हूँ कि मेरे क्रोध का उदय ही ना आवे, आवे तो थोड़ा सा होकर के निकल जावे। जैसे कि बच्चों के अन्दर भी तो कषाय आती है, लेकिन उनकी कितनी क्षणिक। क्या मेरे भीतर भी ऐसे ही कषाय को मैं जरा क्षणिक नहीं बना सकता हूँ। मैं उसके ड्यूरेशन (अवधि) को कम नहीं कर सकता हूँ ? मैं उसकी इन्टेन्शिटी और पोटेशिलिटी को कम नहीं कर सकता हूँ? रोजमर्रा के जीवन में किसी अपने व्यक्ति के द्वारा कहीं गई कड़ी बात को अपन बड़े लाइट वे ( हल्के ढंग) में लेते हैं और पीठ पर एक धौल भी लगा देते हैं, अरे ! तुम ऐसी बातें कर रहे हो और अगर वही बात कोई दूसरा कहे जिससे हमारी नहीं बनती है तो उसको गाँठ बाँध लेंगे अपन। 


कर्म का उदय दोनों स्थितियों में है, आपको उसको लाइट-वे (हल्के) में लेना है या कि गाँठ बाँधनी है, यह हमारे ऊपर निर्भर करता है। मैं आपको यह कहना चाहता हूँ कि इतनी ही चतुराई हमें सीख लेनी है, इतनी ही कला हमारे भीतर आ जावे, पहली चीज तो कि जो बाँधे हैं कर्म हो सके तो उनको वहीं का वहीं पर सबसाइड कर दिया जावे (दबा दिया जाये) या वहीं का वहीं डेस्ट्रॉय कर दिया जावे और अगर हम नहीं कर पाते हैं और वे अपना फल देने लगते हैं, दे ही रहे हैं और हम उनका फल भोग रहे हैं तो फल को भोगते समय मैं कैसी सावधानी रखू, मैं क्या उपाय करूँ जिससे कि वे मेरा ज्यादा बिगाड़ ना कर पायें, अपना फल तो देंगे वे और देवें कोई हर्जा नहीं लेकिन मेरा बिगाड़ ना करें और वे मेरा बिगाड़ इतना नहीं करते जितना कि मैं अपने हाथ से हर्ष-विषाद करके अपना बिगाड़ करता हूँ। 


तो सारी जिम्मेदारी मैं अपने ऊपर ले लूँ कि मैं कर्म के उदय में हर्ष-विषाद नहीं करूँगा। मैं जितना हो सकेगा, संतोष और समतापूर्वक अपना जीवन जीऊँगा। अगर ऐसा पुरुषार्थ जागृत कर ले तो कोई वजह नहीं है कि हम सब अपने कर्म के उदय को भी आसानी से भोग कर आगे कि कर्म बंध की प्रक्रिया को नष्ट कर सकते हैं। आज आपने इतना ही सीखा कि हम कर्म का उदय आ जाने पर उसके साथ कैसा व्यवहार करें, कहाँ तक हमारी अपनी सामर्थ्य है। 


हम अपनी उस सामर्थ्य को देखें और उसे और अधिक जागृत करें। कहाँ हम कमजोर पड़ जाते हैं उस कमजोरी को देखकर उसे दूर करने का पुरुषार्थ करें। 


इसी भावना के साथ बोलो आचार्य गुरुवर विद्यासागर जी महाराज की जय। 
००० 

0 Comments


Recommended Comments

There are no comments to display.

Create an account or sign in to comment

You need to be a member in order to leave a comment

Create an account

Sign up for a new account in our community. It's easy!

Register a new account

Sign in

Already have an account? Sign in here.

Sign In Now
  • बने सदस्य वेबसाइट के

    इस वेबसाइट के निशुल्क सदस्य आप गूगल, फेसबुक से लॉग इन कर बन सकते हैं 

    आचार्य श्री विद्यासागर मोबाइल एप्प डाउनलोड करें |

    डाउनलोड करने ले लिए यह लिंक खोले https://vidyasagar.guru/app/ 

     

     

×
×
  • Create New...