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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

9. विश्व कल्याण का संकल्प


Vidyasagar.Guru

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पुनः इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी में वह अच्युतेन्द्र का जीव अवतरित हुआ जिसका यह द्विचरम मनुष्य भव है। राजा वज्रसेन और रानी श्रीकान्ता का वह ललित-समर्थ पुत्र हुआ। वज्र के समान अभेद्य नाभि वाला वह पुत्र वज्रनाभि नाम से जगत् में विख्यात हुआ। जैसे-जैसे सूर्य उदित होकर बढ़ता है तो उसका प्रकाश और ताप भी बढ़ता जाता है, उसी प्रकार वज्रनाभि का यश, प्रकाश और पराक्रम धीरे-धीरे बढ़ रहा था। शिशु अवस्था से ही लोगों को ललित क्रीड़ाओं द्वारा आकर्षित करके उनके मन को चुराने वाला, सदा विकसित कमल के समान प्रसन्नआननपुर, लोगों के नेत्रों का क्रीड़ा केन्द्र था। अनेक शुभ व्यञ्जनों से लाञ्छित शरीर उसके महाभाग्य का बखान कर रहा था। नाभि के मध्य अत्यन्त स्पष्ट वज्र चिह्न आगामीकाल के चक्रवर्तित्व का ही द्योतक था। वज्र के अस्थि कीलिकों से संघटित शरीर विन्यास विधाता की रचना को बधाई दे रहा था। उचित माप और आकृति से प्रत्येक अङ्ग ऐसा सुघटित था कि उसकी मनोरमता को देखकर देवाङ्गनायें भी लजा जाती थीं। यौवन का प्रारम्भ हो, इससे पहले ही उस आत्मजेता ने सबसे पहले उन प्रकोपों पर नियन्त्रण रखा था जो वय योग्य थे किन्तु उनके फल अनुचित थे। आगामीकाल में घटित होने वाली संभावनाओं में भावित न होकर वह कार्य को विचार बुद्धि से पहले निर्णीत करता तदुपरान्त कार्यान्वित। अपनी अप्रतिम प्रतिभा से वह समवयस्क अन्य अनेक भाइयों के बीच चन्द्र-सा सुशोभित होता था। समीचीन पुरुषार्थ के प्रति निष्ठा और मेहनत से कार्य को प्रारम्भ कर समाप्त करना उसकी कर्मठता की पैठ थी। प्रारम्भ किया हुआ कार्य किसी भी परिस्थिति में अधूरा रहे यह वज्रनाभि की नियति के विरुद्ध था। महान् राजा के योग्य गुणों का सहज ही प्रादुर्भाव देखकर राजा वज्रसेन ने अपनी राज्यलक्ष्मी राज्य महोत्सव के साथ उसे सौंप दी। राजसिंहासन पर आसीन और परिकर के राजा योग्य वैभव के मध्य में वह इन्द्र-सा प्रतीत होता था। गम्भीरता और कौतूहल दोनों विपरीत गुण भी वज्रनाभि में एक साथ प्रद्योतित होते थे पर अलग-अलग व्यक्तियों के साथ । प्रजा के लिए वह परमपिता के समान आत्मीय भावों से जुड़ा था। प्रजा का पालन करना और अन्याय से रक्षा करना आद्य कर्त्तव्य बन गया था, तभी तो उसके राज्य में कोई भी प्रजाजन व्यसन को याद नहीं करता था। यदि किसी को कोई व्यसन था तो शास्त्र, संगीत, नृत्य, कला आदि शिष्ट क्रियाओं का। राज्यलक्ष्मी का एकमात्र निवास था राजा वज्रनाभि । अपने पिता और मातृ करों का, हृदय से आशीष प्राप्त करता हुआ प्रभूत वृद्धि को प्राप्त हो रहा था एवं अन्य गुरुजनों की हृदय प्रसन्नता से ही उसका भाग्य दिनों दिन बढ़ रहा था। तभी अपने पुत्र के निष्कण्टक राज्यभार को देख राजा वज्रसेन ने आत्मकल्याण की ओर अपना ध्यान लगाया। उनके विचारों से सन्तुष्ट लौकान्तिक देव उनकी सराहना करने लगे। महाराज वज्रसेन तीर्थङ्करत्व को प्रकट करने वाले थे। उनकी विरक्ति से ही अन्य देव गण भी उनके चरणों में आकर रहने लगे। पहले भी जिनके चरण देवों से पूजित थे और दीक्षा पश्चात् भी, ऐसे राजा वज्रसेन तपोलक्ष्मी से अलंकृत हो पृथ्वीतल पर रहने लगे। दुःखी क्लिष्ट जीवों के उद्धार की भावना से पहले आत्म उद्धार को करना चाहते थे क्योंकि स्वकल्याण के संकल्प बिना पर कल्याण का सपना, सपना ही रहता है, उन्हें यह अच्छी तरह ज्ञात था। जो कार्य उपदेश और आत्मीयता से नहीं होता वह कार्य स्वयं के पूर्ण होने से स्वतः हो जाता है, इसीलिए वह आत्मविजेता के रूप में आत्मशत्रु को जीत रहे थे। उधर वज्रनाभि, राज्य में राज्यसीमा के बाहर के शत्रुओं को जीत रहे थे। पिता अन्तिम मुनि आश्रम में स्थित थे तो पुत्र राज्याश्रम में। पिता मूलगुणों और उत्तरगुणों का अनुपालन करते हुए अपनी चित्शक्ति को प्रकट कर रहे थे तो राजा वज्रनाभि राजगुणों से अलंकृत हो अपनी राजसत्ता को मजबूत कर रहे थे। पिता वज्रसेन यदि मंत्रों के उच्चारण से आगत कर्मों का रस अल्प कर रहे थे तो पुत्र वज्रनाभि अपने मंत्रियों की सहायता से आगत शत्रु की शक्ति को कम कर रहे थे। महाराजा वज्रसेन अपने प्रशम भावों की प्रकर्षता से अनेक ऋद्धियों को प्राप्त हुए थे तो राजा वज्रनाभि भी सैन्य संचालन से राजकोष की वृद्धि को प्राप्त हुए थे। महाराजा वज्रसेन के  पास अत्यन्त क्रूर और रौद्र पशु भी शान्त भाव से बैठते थे तो राजा वज्रनाभि के समक्ष भी अत्यन्त दुर्जय राजा स्वयमेव समर्पित हो जाते थे। महाराज वज्रसेन की उत्कट तपस्या से शिवलक्ष्मी प्रसन्न हो रही थी तो राजा वज्रनाभि की शौर्यता से विजय लक्ष्मी प्रसन्न हो रही थी। महाराज वज्रसेन का शरीर तपो योग्य था तो राजा वज्रनाभि का राज्य योग्य। उचित काल में उचित कार्य करना ही दोनों की सफलता का एकमात्र रहस्य था। पिता का महाराजत्व और पुत्र का राज्यत्व एक अनुपम संयोग था। जब महाराज वज्रसेन ने कर्मों के अत्यन्त क्षय के लिए शुक्लध्यान चक्र को प्रकट किया तो राजा वज्रनाभि की आयुध शाला में चक्ररत्न प्रकट हुआ। ऐसा लग रहा था मानो एक आत्म-जेता बनता जा रहा है और दूसरा विश्व विजेता। राजा वज्रनाभि चक्ररत्न से षट्खण्डों पर विजय पाने को उद्यत हुए तो महाराज वज्रसेन अष्टकर्मों पर। राजा वज्रनाभि विजयार्ध श्रेणी पर पहुँचे तो महाराजा क्षपक श्रेणी पर। राजा ने विजयार्ध की गुफाओं के कपाट भेद दिए तो महाराज ने कर्मों की स्थिति को भेद दिया। गुफा में रत्न से प्रकाश हुआ तो देह गुफा में चैतन्यता से प्रकाश हुआ। गुफा से निकलने वाली गर्मी ने योजनों तक क्षेत्रव्याप्त कर लिया तो ध्यान की गर्मी शरीरस्थ निगोदिया जीवों को समाप्त करती जा रही थी। राजा ने जब पर्वत पर अपनी जीत अंकित की तो महाराजा ने क्षायिक भावों से मोह पर जीत अंकित की। राजा की जीत का वह लेख अमिट नहीं था, किन्तु महाराज का लेख अमिट था। राजा जब षटखण्ड जीतकर सहस्र रश्मियों से अलंकृत चक्ररत्न सहित वापस आये तो इधर महाराज भी ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय कर्मों को जीतकर धर्मचक्र के प्रवर्तक बनकर, भव्यों के बीच आये। जीत पुत्र की भी हुई और पिता की भी। अब पुत्र आत्मविजय का पाठ सीखने एक दिन पिता के चरणों की वन्दना को चला। छत्र, चँवर, वाद्यों, गन्धकुटी से सुशोभित, देवकृत अतिशयों सहित, लक्ष-लक्ष आत्माओं के द्वारा वन्दनीय, प्रशान्त रूप पर, अद्भुत तेजः कलाप और चातक से मेघ ध्वनि सुनने को आतुर एक साथ असंख्य दृष्टियों का अनिमेष नयनों पर दृष्टिपात, मुकुलित कमल से कर द्वन्दों में समर्पण के सुगन्धित पुष्प और भक्ति से सहज प्रणत उत्तमांगों से निकलती किरीट किरणों से आलोकित भक्ति जगत् की सीमायें देखकर राजा वज्रनाभि अद्भुत लोक में विचर गए मानो उस सिद्धलोक में केवलि प्रभु वज्रसेन का जाना तो बाद में होगा और वज्रनाभि को अपना अस्तित्व उस भू भाग पर आज ही दिखने लगा। अहो! आज शरण मिली शरण्य की, यह जगत् तो पञ्चन्द्रियों का अरण्य है, जहाँ काम, लोभ, अहंकार के वन्य पशु शार्दूल से आक्रामित हो आत्मशक्ति का घात करते रहते हैं। अहो! मैं खोज रहा था विलासता में सुख प्रकाशता । अहो! मैंने जीता षटखण्डों को और सोचा कि विश्व जीता। अहो! मैंने प्रजा को पाला या अपने अहंकार को। मैंने अब तक कुछ प्राप्त किया या सब कुछ खो दिया। मेरा निवास इस लोक में है या उस लोकान्त में । आज मैं सब कुछ जीतकर भी अपने को पा रहा हूँ आपके समक्ष सर्वहारा। मैं इस वसुन्धरा को जीत कर भी सन्तुष्ट नहीं और आप स्वयं में हैं पूर्णतृप्त। जिसने जगत् को जीता वह भी आज आपके चरणों में खड़ा है। हे चेतना के अगम्य स्रोत पूर्ण विज्ञाता! आपने मुझसे कहीं छल तो नहीं किया? मुझे राज्य सिंहासन पर बैठाकर स्वयं धर्म सिंहासन पर विराजमान हो गए? या फिर यह आवश्यक घटक है जो कि आपने किया और वही मुझे करना है। इस जगत् को जीतकर इसमें कोई सार न दिखे तब वह अन्तरङ्ग जगत् को जीतने के लिए निकलता है, क्या यही आप मौन पाठ हमें पढ़ाना चाहते थे? कुछ भी हो प्रभो! अब निस्तरण हो ? संसृति के इस शैवालमय दलदल से। चिरकाल तक पृथ्वी पर फैली असीम सामग्री को भोग उपभोग कर आज पुनः वैराग्य की ज्वाला अन्तस् में धधकने लगी। श्री वज्रसेन तीर्थङ्कर ने सकरुण हो दिव्यध्वनि की शीतल लहरों से स्नपित करके, वज्रनाभि के ताप को दूर कर दिया। जीर्ण तृण के समान निःसार इस वसुन्धरा के वैभव को जान वज्रनाभि विषय रस से रहित हो गए। वज्रनाभि ने क्षणभंगुर विषयों को क्षण भर में ही छोड़ दिया। जब यह निश्चित हो गया कि इन्द्रिय सुख क्षणभंगुर है तो एक आत्मवेत्ता को उसे छोड़ने में क्षण भर से ज्यादा समय कैसे लगता? तत्क्षण ही वज्रदन्त नामक पुत्र के लिए राज्य सौंपकर निर्ग्रन्थ बाना धारण किया। सत्य ही है, महान् आत्मायें अपने कार्य को विधिवत् ही पूर्ण करती हैं। राजा के दीक्षित होने पर उन्हीं के साथ सोलह हजार मुकुटबद्ध राजा, कामपुरुषार्थ से समुत्पन्न एक हजार पुत्र और आठ सहोदर भी निर्वाण दीक्षा को प्राप्त हुए। आमरण सभी मन, वचन, काय से पंच पापों को परित्याग करके अहिंसा रूपी परम ब्रह्म की उपासना में संलग्न हुए। महाव्रतों का पालन महापुरुष ही करते हैं और महापुरुष के द्वारा ही पहले भी किया गया है, इसलिए सदा महाव्रतों की शुद्धिकरण की भावना से उनका अन्तःकरण विशुद्ध रहता है। अष्टमाताओं से उस बालकवत् निर्विकार वज्रनाभि का प्रतिपल पालन-अनुपालन चल रहा है। चलते-चलते ईर्या समिति की माता असंख्य जीवों को जीवनदान देती और स्वयं भी वज्रनाभि की आत्मा को पापपंक से बचाती। बोलने के समय भाषा समिति माता हित-मित-मधुर वचनों को सुना भव्य जीवों को वात्सल्य दुग्ध पिला देती। आज एषणा माता भोजन करते समय भी सावधान हो दाता द्वारा दत्त द्रव्य को रूखा-सूखा, ठण्डा-गरम, सब प्रकार का भोजन समता भावों से खिला आत्मानन्द में सुला देती। यदि उपकरण को रखना उठाना है तो चौथी माता सावधान कर आत्मपुत्र को पाप से बचा लेती। मलमूत्र के क्षेपण समय चित्त की पर पीड़ा परिहार का सतत् प्रयास स्व-पर उपकार करके प्रतिष्ठापना माँ पुत्र का ख्याल रखती। कभी भी मन में स्त्री की पूर्व कथा, राजा की वार्ता, चोरों का आख्यान, भोजन की मीमांसा आदि दुर्भावों की स्मृति से मनः गुप्ति माता, पाप कर्म के कीचड़ से अपने पुत्र का मन गन्दा नहीं होने देती। मन से मौन रहने वाले पुत्र की जिह्वा पर वचः गुप्ति माता सदा प्रतिष्ठित रहती। चाहे भित्ति चित्र हो या जीवन्त चित्र, मनः गुप्ति माता बालक को विकार की प्रतिच्छाया से भी बहुत दूर रखकर अलौकिक उपकार में संलग्न रहती। धन्य है यह रूप, यह चर्या जहाँ आठआठ माताओं से पालित पोषित हो, ठाट-बाट से मुक्त्यंगना के गृह की ओर वह जेता शनैः शनैः बढ़ रहा है। पुनः एक दिन असंख्य जीवों को अपनी उपस्थित मात्र से तृप्त और सन्तुष्ट करने वाले इस शरीर के पिता इस आत्मा के भी पिता और तीन लोक के परम उपकारी परम पिता के दर्शन से महाराज श्री वज्रनाभि के मन में भी अपने पिता की तरह विश्व-कल्याण की भावना के भाव आये, न कि उन्हीं की तरह तीर्थङ्कर बनने के। पद की और माहात्म्य की लिप्सा तो पाप है, किन्तु उस पद पर प्रतिष्ठित व्यक्ति के गुणों की लिप्सा धर्म है, यह सोचकर ही शंका, कांक्षा, जुगुप्सा आदि कुभावों का वमन करके सम्यग्दर्शन को विशुद्धतर बनाया। विनय की मूर्तिमान् प्रतिभा से वह महाराज शील और व्रत के किंचित् भी उल्लंघन से परे सातत्य संसार के विषयों से भयभीत रहते हुए, सावधान हो, ज्ञान भावना में लवलीन रहते। यही सबसे बड़ा तप था, इसी की सिद्धि के लिए वे अन्य तपों से शक्त्यनुसार तप्त होते हुए कभी भी खेद खिन्न नहीं होते। जिन कारणों से चित्त में विकल्प की लहर उपजे उस कारण का तत्क्षण त्याग ही उत्तम त्याग है, यह सोचकर वे अपने में अप्रमत्त रह, पर की भी ऐसी ही निर्विकल्पता हो, पर साधु की भी समयोचित वैयावृत्य से प्रवचनभक्ति को करते हुए अर्हन्त और साधु शिरोमणि सूरियों की भक्ति प्रसाद से तथा ज्ञानवान् साधुओं की विशेष सेवा से अन्तरङ्ग शत्रुओं को जीतते हुए मदमस्त गन्ध हस्तिवत् विशाल अरण्य में एकाकी विचरण करते थे। जो पञ्चेन्द्रिय के विषयों में वशीभूत नहीं, उसका प्रतिक्षण आवश्यक में बीतकर, पूर्णता को प्राप्त हो रहा है। जिनकी प्रतिपल की चर्या ही जिनधर्म का प्रद्योतन करने वाली है। जिनकी धर्मात्माओं के प्रति सहज स्नेहिल दृष्टि अन्तरंग की स्वच्छता को बता रही है, ऐसे वज्रनाभि महाराज ने दुर्धर अनुष्ठान से प्राप्त तीर्थङ्कर प्रकृति का बन्ध किया। विशुद्ध परिणामों से जिन्हें उत्तरोत्तर विशुद्धता प्राप्त हो रही थी, ऐसे वज्रनाभि महाराज ने समस्त मोह को उपशान्त कर दिया, पर यह स्थिति थोड़ी देर रही और पुनः काल के बल से अप्रमत्त-प्रमत्त अवस्था को प्राप्त हुए। जीवन पर्यन्त बाईस परीषह और दश धर्मों का अनुपालन कर अन्त समय में प्रायोपगमन संन्यास धारण किया। यह संन्यास मात्र शरीर को कृश करने या शरीर को छोड़ने से प्राप्त नहीं होता, किन्तु उसके साहचर्य से अगले भव में यह तन न मिले, किन्तु मात्र चेतन मिले, इसलिए इन प्राणों से मोह तोड़ना है ताकि चैतन्य प्राण का चिन्मय जीवन मिले। इस देह में ही प्राणों की प्राप्ति होती है। प्राणों की प्राप्ति से ही इन्द्रियाँ मिलती हैं। इन्द्रियों से विषयों में प्रवृत्ति होती है और इस तरह यह पाप प्रवृत्ति पुनः पुनः देह का दान देती रहती है, इस श्रृंखला को तोड़ने का संकल्प है, यह सल्लेखना मरण या संन्यास मरण में मात्र आत्मा और देह का वियोग नहीं किन्तु कषायों का अलगाव भी सतत् जारी है तभी तो वे द्वितीय बार शुक्लध्यान को प्राप्त हो पुनः पूर्णतः मोह के उपशमन की उपलब्धि पा गए और उसी उपशान्त मोह की अवस्था में आयु की अन्तिम लहर इस तट से दूसरे तट तक चली गयी। वह अनुगामी श्रीमती अर्थात् केशव का जीव इस भव में वज्रनाभि चक्रवर्ती की निधियों और रत्नों में शामिल होने वाला तथा राज्य का अङ्गभूत गृहपति धनदेव नाम का तेजस्वी रत्न हुआ था।

 

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