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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

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भगवान् ऋषभदेव के जीवन पर आधारित पौराणिक उपन्यास

- मुनि श्री प्रणम्यसागरजी महाराज

यह  उपन्यास युगुद्रष्टा को मुनि श्री प्रणम्यसागर जी महाराज ने भगवान् ऋषभदेव के जीवनचरित्र को सम्यक् रीति से प्रस्तुत किया है। इसमें भगवान् के पूर्व दश भवों का वर्णन संक्षिप्त एवं आधुनिक शैली में किया गया है। इसलिए यह उपन्यास भावपक्ष और कलापक्ष की दृष्टि से भी साहित्य जगत् की अमूल्य निधि है।

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अन्तर्भाव

“कालचक्र गतिमान किसी का दास नहीं है।'' इस उक्ति के अनुसार काल का परिणमन प्रति समय चल रहा है। काल के इस परिणमन के साथ जीवों में, वय में, शक्ति में, बुद्धि में, वैभव में, परिवर्तन होता है। जब यह परिणमन वृद्धि के लिए होता है तो उसे उत्सर्पिणीकाल कहते हैं और जब यह परिणमन हानि के लिए होता है तो उसे अवसर्पिणी काल कहते हैं। अभी इसी अवसर्पिणीकाल के चक्र में प्रत्येक प्राणी श्वास ले रहा है। आज जो आयु, ऊँचाई, बुद्धि में ह्रास हमें दिखाई दे रहा है। आगे इससे भी अधिक होगा। यह भी स्वतः स्पष्ट होता है कि आज से

भूमिका

'युगद्रष्टा' वर्तमान युग के महान् जैनाचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के यशस्वी शिष्य श्रमण श्री प्रणम्यसागरजी महाराज की एक अनुपम कृति है।   यह कृति पन्द्रह शीर्षकों में विभाजित है। इसके नौ शीर्षकों के अन्तर्गत भगवान् ऋषभदेव के पूर्व भवों का वर्णन है, शेष शीर्षकों के अन्तर्गत आदि तीर्थङ्कर ऋषभदेव का जीवन चरित्र है!   जीवन और मरण निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, जिसने भी जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है! जन्म-मरण के इस परिभ्रमण को विकारहीन होकर एक मात्र मुक्त होकर ही तोड़ा जा

भगवान् ऋषभदेव : परिचय

पिता - कुलकर महाराज नाभिराज  माता - महारानी मरुदेवी  जन्म-स्थान - अयोध्या नगर  कहाँ से अवतीर्ण हुए - सर्वार्थसिद्धि  जन्म-राशि - धनु   राशि-स्वामी बृहस्पति  गर्भकल्याणक तिथि - आषाढ़ कृष्ण द्वितीया  नक्षत्र/गर्भावास-काल - उत्तराषाढ़ नक्षत्र, 9 माह 7 दिन  जन्म-कल्याणक तिथि - चैत्र कृष्ण नवमी रंग -  पीत (तप्त स्वर्ण)  चिह्न - वृषभ ऊँचाई - 500 धनुष  वंश - इक्ष्वाकु  कौमार्य-काल - 20 लाख पूर्व  राज्य-का

1. विराट लकीर विराग की

आदिम युग के प्रजापति, आदि मानव, आदि तीर्थाधिपति, आदि स्रष्टा वृषभदेव राजा के राज्यमण्डप में प्रतिदिन की भाँति इन्द्र उपस्थित हुआ और प्रभु को भक्ति भाव से प्रणत हो, उनके चित्त को प्रसन्न करने की आज्ञा चाहता है। समुद्र से महा गम्भीर, तीर्थङ्कर की वाणी का मुखरित होना जब युवराज पद में भी दुर्लभ है, अरिहन्त पद हो तो बात ही क्या? पर इन्द्र आया है अपने अनन्य अन्य देवों के साथ, अनेक अप्सराओं को लिए, उसको नाराज करना प्रभु को मुमकिन न था। अरे! जब महापुरुष निर्बल, असहाय, साधारण प्रजा जन के मन को भी प्रसन्न

2. संस्कार का फल

इसके बाद संसार का एक भव कम हुआ और प्राप्त हुए नवम भव में वह जैसा चाहता था वैसा ही बना, बल्कि कहीं उससे भी ज्यादा। बदला-सा लगता है पर बदला हुआ कुछ नहीं होता, पर्याय बदलती है, तरंग की तरह उत्पन्न हुई और विलीन हो गयी, फर्क इतना है कि कभी उस तरंग को विलीन होने में दो-चार सेकेण्ड लगते हैं तो कभी दो-चार वर्ष या कुछ अधिक पर, विलीनता अनिवार्य है। वही जमीं है, वही जम्बूद्वीप, वही पश्चिम दिशा, वही मेरू, वही गन्धिल देश जिसमें पूर्व में रहता था पर, अब वह विजयार्ध पर्वत पर पहुँचा जो उस देश के मध्य में था, वह

3. ललित ललिताङ्ग

और एक नव संसार मिला, संसार में नवमा संसार।   ललित मनोहर अंगों वाला एक पुण्यमूर्ति-सा दैदीप्यमान ललिताङ्ग देव अपने शरीर की प्रभा से सभी देव-देवियों के रूप को तिरस्कृत करता हुआ उपपाद शय्या से युवा हंस के समान उठ खड़ा हुआ और आश्चर्य में पड़ गया कि मैं कौन हूँ ? कहाँ से आया हूँ ? यह मनोहर स्थान कौन-सा है, क्षण भर में अवधिज्ञान प्रकट हो गया सब वृत्तान्त दर्पण की भाँति ज्ञात हो गया। अहो! यह हमारे तप का फल है, कहीं मेरी जय जयकार हो रही है तो कहीं अप्सरायें अपने हास्य-विलास से मुझे बुला रही है

4. अल्पदान - महाभोग

अब संप्राप्त अष्टम भव में वह ललिताङ्ग देव स्वर्ग से च्युत होकर इस जम्बूद्वीप के महामेरु से पूर्व दिशा में स्थित विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश के उत्पल खेटनगर के राजा बज्रबाहु और रानी वसुन्धरा से वज्रजंघ इस सार्थक नाम को धारण करने वाला पुत्र हुआ। प्रतिदिन अपने गुण रूपी कलाओं की वृद्धि करता हुआ यौवन की दहलीज पर आते-आते वह पूर्ण चन्द्रमा-सा विकसित हो गया और अपने बन्धुवर्ग को हर्षित करता हुआ अपनी कान्ति से सदैव ही प्रसन्न रहता था। उसकी सुन्दरता का बखान क्या करना ? महाबल के भव में जो रूप, सौन्दर्य,

5. द्रष्टा सम्यक् बना

संसार में भ्रमण का सप्तम भव था। मरण हुआ तो जन्म निश्चित ही है पर उन दोनों का जन्म वहाँ हुआ जहाँ पर अक्सर लोग दान के प्रभाव से ही उत्पन्न होते हैं। ऐसा नहीं कि सभी दान देने वाले वहीं पर ही जन्म लेते हैं, किन्तु जो दान तो देते हैं उत्तम पात्र को, किन्तु मिथ्यात्व को भी अन्तस् में पाले रखते हैं, उन्हें पुण्य का फल यह भोगभूमि में फलता है। जन्म तो स्त्री के गर्भ में ही होता है पर जैसा कर्मभूमि के मनुष्य को गर्भ के प्रसव में पीड़ा होती है वैसी वहाँ नहीं होती। वहाँ साथ-साथ जन्मते हैं, साथ-साथ जीते हैं

6. नियोग, जो भोगना है

सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के बाद पहला संसार मिला जो महानिर्वाण होने से पूर्व का छठवां संसार है। मन्दाकिनी से शुभ्र स्वप्निल शय्या पर उत्पन्न होते ही कुछ क्षण बीते कि वह देव पूर्ण युवा हंस-सा प्रकृति का अलौकिक रत्नाभ लिए कान्तिमान देह में अन्तस् के समीचीन रत्न के तेज को बाहर प्रस्फुरित करता-सा प्रतिभासित हुआ। अनिमेष पलक वाले दीर्घायत नयनों से उपपाद शय्या की शोभा निहारता हुआ कुछ पल विस्मित रहा। उत्तम-उत्तम आभूषण से सज्जित वेषभूषा में अपने को देख जब मौन छा गया तो चहुँ ओर रत्नों की पारदर्शिता में झलकत

7. पहली-पहली बार

परिवर्तन शील संसार में वह सम्यक् विजेता फिर इस पृथ्वी पर आया। अब तो सीमित श्रृंखलायें ही तोड़ना है। अवतार हुआ है उस आत्म विजेता का इस भूखण्ड पर प्रथम बार। पञ्चमगति को प्राप्त करने के लिए ही मानो यह पाँचवाँ संसार रह गया था। इस जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र का प्रथम तीर्थप्रवर्तक बनना है शायद इसीलिए वह परकल्याण की सीमायें इसी द्वीप से बाँधे हुए हैं। अब अवतरित हुए हैं पूर्व विदेहक्षेत्र के महावत्स देश के सुसीमा नगर में राजा सुदृष्ट की सुन्दर नन्दारानी से, सु अर्थात् अच्छे, विधि अर्थात् भाग्य वाला सुविधि

8. सर्वोत्कृष्ट भोग का पुजारी

वैभाविक आत्म पर्याय विलीन हो रही है, स्वभाव से ओतप्रोत आत्म पर्यायें प्रादुर्भूत हो रही हैं। इस संसार की एक और पर्याय छूट गयी, कहीं दूरबहुत दूर इसी संसार समुद्र में और अब शेष है चतुर्गति रूपी महासंसार समुद्र की मात्र चार भौतिक परिणतियाँ । इस चतुर्थ संसार की परिणति प्रारम्भ हुई, वहाँ जो चित्रा पृथ्वी से छह राजू ऊँचा है। मेरु की चूलिका से उत्तरकुरुवर्ती मनुष्य के एक बाल मात्र अन्तर से प्रथम इन्द्रक विमान स्थित है। यहीं से वैमानिक देवों का प्रारम्भ होता है। एक-एक इन्द्रक से असंख्यात योजन अन्तराल को

9. विश्व कल्याण का संकल्प

पुनः इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेहक्षेत्र में पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी में वह अच्युतेन्द्र का जीव अवतरित हुआ जिसका यह द्विचरम मनुष्य भव है। राजा वज्रसेन और रानी श्रीकान्ता का वह ललित-समर्थ पुत्र हुआ। वज्र के समान अभेद्य नाभि वाला वह पुत्र वज्रनाभि नाम से जगत् में विख्यात हुआ। जैसे-जैसे सूर्य उदित होकर बढ़ता है तो उसका प्रकाश और ताप भी बढ़ता जाता है, उसी प्रकार वज्रनाभि का यश, प्रकाश और पराक्रम धीरे-धीरे बढ़ रहा था। शिशु अवस्था से ही लोगों को ललित क्रीड़ाओं द्वारा आकर्षित करके उनके मन क

10. युगद्रष्टा

और अब उपलब्ध हुआ इन्द्रिय सुख का उत्कृष्ट संसार । जहाँ से मात्र बारह योजन दूरी पर है सिद्धशिला, जिसके ऊपर वातवलयों से मस्तक को स्पर्श करते हुए विराजते हैं, सर्व अर्थ को सिद्ध करने वाले मुक्त-चेतन तन। ऐसा वह सर्वार्थसिद्धि विमान, जो कि वैमानिक देवों में सर्वोत्कृष्ट कल्पातीत देवों का सुख दिलाता है। उसमें उपपाद शय्या पर परम पुरुषार्थ के फलस्वरूप जन्म हुआ। एक नई देह, एक बार फिर स्वर्ग की अन्तिम शलाका जो मुक्त होने से पूर्व की है, पर अद्वितीय है। जहाँ पर पहुँचा आत्मा तदनन्तर भव में निश्चयतः मोक्ष को

11. अवतरण : काल जेता का

और इधर अगणित काल से सोये हुए मनुष्य के समान भोगों की निद्रा टूटने लगी। जागृति की अवभासना होने लगी। कल्पवृक्षों से प्राप्त सम्पदा का शनैः, शनैः लुप्त होना यही बता रहा था कि मनुज! अब आँखें खोलो, बहुत सो लिए पुरुषार्थ करने को कटिबद्ध हो जाओ। इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में एक के बाद एक, ऐसे चौदह कुलकर जन्मे । जब इसी भरतक्षेत्र में जघन्य भोगभूमि के समान व्यवस्था चल रही थी और पल्य का आठवाँ भाग मात्र शेष रहा तब प्रतिश्रुति को आदि लेकर नाभिराज पर्यन्त चौदह कुलकर हुए, जिन्होंने समय-समय पर भ

12. लीलायें : प्रथम-पुरुष की

सर्वप्रथम उन षट्कुमारी देवियों ने पवित्र पदार्थ से गर्भ का शोधन किया। गर्भस्थ शिशु के होने पर जो लक्षण जननी में प्रकट होते हैं, वे मरुदेवी में उत्पन्न हुए नहीं थे। षदेवियों की सेवा सुश्रुषा से वे मन, वचन, काय से प्रशस्त थी। वन विहार हो या सीढ़ी पर आरोहण देवी मरु को यह पता ही नहीं पड़ता कि वे कब वन में पहुँच गयीं और कैसे बिना कष्ट छत पर। जैसे-जैसे बालक गर्भ में बढ़ रहा था, माँ और अधिक प्रसन्न और कान्ति से दीप्त हो रही थीं, मानो बालक का ही अन्तः तेज उनकी देह में प्रसरित हो रहा है। नाना पहेलियों, क

13. महा निष्क्रमण : एकाकी यात्रा

तभी वहाँ ऊर्ध्वलोक की उच्चतम शाखा पर बैठा एक सम्यक् द्रष्टा स्वयं भोगों में लिप्त होने पर भी एक दृष्टि में ही विश्व की व्यवस्था को भी देख रहा है। कहाँ पर कौन-सा युग चल रहा है और कहाँ अब क्या आयेगा? यह विभाजन भी उसकी प्रज्ञा में है। उसे ज्ञात है कि इस भरतक्षेत्र में अब कर्मभूमि का आरब्ध हुआ है और एक ब्रह्मांश इस भूवलय पर अवतरित हो चुका है। जन्म और जन्म से पहले और जन्म के बाद के सारे कर्त्तव्य मैंने किए। आज वह लक्ष-लक्ष जीवों का उद्धार करने के लिए कटिबद्ध है। राज्याभिषेक हुआ है और राजा के योग्य सभ

14. कैवल्य अनुभूति

सहस्र वर्षों के इस प्रक्रम के बीत जाने पर ध्यान की एकाग्रता हुई। मात्र दो घड़ी के लिए इस अन्तर्मन को आत्मा में बिठाने के लिए स्वयंभू वृषभ को इतना प्रभूत काल लग गया। जिन्होंने पूर्व जीवन में दो बार उपशम श्रेणी पर आरोहण किया। चारित्र के यथाभाव का अनुभवन किया, तदुपरान्त भी वज्रवृषभ नाराच संहनन के धारी निर्विकल्प समाधि में लीन होते हैं पर, समाधि के फल से अछूते रह जाते हैं। क्या मनोबल की कमी है? नहीं मनोबल ऋद्धि जो प्राप्त है। क्या कायबल की कमी है ? नहीं कायबल ऋद्धि भी प्राप्त है। तो क्या वैराग्य की

15. स्वयं-बुद्ध, स्वयं सिद्ध

इन्द्र ने प्रभु की बार-बार पुण्य स्तुति की और प्रभु से कहा जगत् के कण-कण में बैठे भगवान् को जगाने का। महज संयोग कि इन्द्र का कहना और प्रभु का चलना हुआ। कण-कण में एक नव चेतना का संचार प्रभु के गमनमात्र से हो गया। कौन चल रहा है? कौन चला रहा है? क्यों चला जा रहा है? ये प्रश्न उत्तर को साथ लिए हैं। मौन विहार, मूक प्रकृति और विश्व का कल्याण आपो आप। राही ही राह बन गया। राह राही की बाट जोह रही है। महामही स्वामी वृषभ को स्वयमेव स्वर्ण कमलों की आँख बना कर निहार रही है। एक अपूर्व प्रेम, अद्भुत वात्सल्य है
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