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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

14. कैवल्य अनुभूति


Vidyasagar.Guru

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सहस्र वर्षों के इस प्रक्रम के बीत जाने पर ध्यान की एकाग्रता हुई। मात्र दो घड़ी के लिए इस अन्तर्मन को आत्मा में बिठाने के लिए स्वयंभू वृषभ को इतना प्रभूत काल लग गया। जिन्होंने पूर्व जीवन में दो बार उपशम श्रेणी पर आरोहण किया। चारित्र के यथाभाव का अनुभवन किया, तदुपरान्त भी वज्रवृषभ नाराच संहनन के धारी निर्विकल्प समाधि में लीन होते हैं पर, समाधि के फल से अछूते रह जाते हैं। क्या मनोबल की कमी है? नहीं मनोबल ऋद्धि जो प्राप्त है। क्या कायबल की कमी है ? नहीं कायबल ऋद्धि भी प्राप्त है। तो क्या वैराग्य की कमी है? नहीं सदा अखण्ड वर्धमान चारित्र है तो क्या ध्यान की सातत्यता नहीं? नहीं छह मास का सतत् कायोत्सर्ग निश्चल त्रय योग से किया है। पूर्व बद्ध कर्मों की यह श्रृंखला केवली गम्य है। सतत् पुरुषार्थ के उपरान्त भी यह कार्य कितना दुष्कर हो गया। पर निराश या उदास नहीं क्योंकि विश्वास है कि पुरुषार्थ सही दिशा में हो रहा है, पर काल जो कर्म में अपने भावों से बद्ध है, वह अनुलंघ्य है अभी, पर अदम्य नहीं। सन्धि प्राप्त हो रही है, जिसमें ध्यान के तीक्ष्ण बाणों से कर्म शक्ति टूट-टूटकर विगलित हो रही है। क्षपक श्रेणी पर आरोहण होना है, पर कषाय के काषायिक पन से उपयोग फिसल जाता है। जन्म-जन्म की किट्टिमा शैवाल ऐसी जमी है कि पैर रखने से पहले ही फिसल जाता है, आगे बढ़ने की बात कहाँ? पर प्रयास निरन्तर जारी है और प्रभु ने एक-एक को उस एकाग्रता से चुनना प्रारम्भ किया था वह स्वयं कर्म ही हार कर समर्पण करता जा रहा है, यह अनेकान्त से ही समझ में आती है। अप्रमत्तता अब बढ़ रही है, कितना ही समय बीत गया कि अप्रमत्त से उपयोग फिर प्रमत्त बन जाता था, ऊपर नहीं उठ पाता, पर विशुद्धि का साम्राज्य भी बढ़ता रहा और आज उस साम्राज्य से सारी हिम्मत लगाकर चढ़ाई कर दी। चढ़ते ही अपूर्व परिणाम, अपूर्व अद्भुत आनन्द, जो पहले कभी नहीं आया पर, यहाँ से मोह सेना की समस्त व्यवस्था समझ में आ गयी और-और अनन्तगुणी विशुद्धि की शक्ति बढ़ी, तभी पा लिया वह बिन्दु कि अब जमाने की कोई भी ताकत हमारी इस अनन्त-अनन्त व्यापी विशुद्धि सेना को पीछे नहीं ला सकती और अब सहज गति बढ़ती जा रही है। चहुँ ओर खलबली मच गयी। दुर्गम पहाड़ियाँ, अगम्य रास्ते, सब कुछ सुलझे से नजर आने लगे। सर्वप्रथम राजा के अंगरक्षकों पर धावा बोला गया जो अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान कषाय के नाम से अभी तक ज्ञात थे, पर देखे नहीं थे तदुपरान्त काम की अभिलाषा पैदा करने वाले वेदत्रय को क्रम-क्रम से नष्ट किया पश्चात् नव नोकषाय को जो कषायों की हाँ में हाँ मिलाती रहती थी। अब कुछ भी दबाया नहीं जा रहा था अर्धमृतक कर नहीं छोड़ा। निःशेष-श्वास जब तक न मिट जाय तब तक यह सेना आगे नहीं बढ़ती। 17.pngअत्यन्त क्रुद्ध हो सबसे प्रमुख और सबसे अग्रणीय चलने वाले क्रोध की संज्वलनता बहुत देर में पकड़ में आयी उसको पकड़ते ही मान, माया स्वयमेव हिम्मत हारकर नस्तोनाबूत हो गयीं। पश्चात् लोभ ने अपनी सेना भेजी और स्वयं गूढ़ हो बैठा रहा गहराई तक अन्तस्तल में, कि वह सेना भी परास्त हुई बारी-बारी से पर उस लोभ का सूक्ष्म परिणमन होने से विशुद्धि दूर-दूर तक चली गयी पर वह लोभ अभी पकड़ से बाहर रहा। सभी ने सोचा कि हम विजयी हुए, चारों ओर कर्म के इस महासमर में दया की ढाल पकड़े हुए महायोद्धा ज्ञान रूपी तीक्ष्ण हथियार बाँधे हुए, चारित्र रूपी ध्वजा फहराते हुए अतिशय आनन्दित हैं। तभी आत्मा की आवाज आयी अभी मत रुको इस दुर्गम दुर्लंघ्य पहाड़ी से पार वह लोभतन्त्र बैठा है, जो सुरक्षित है। इस कृष्टिकरण की क्रिया को जारी रखो और सूक्ष्मध्यान को करो। समस्त कर्मों में बलवान मोह का यह अन्तिम योद्धा है। जो अत्यन्त दुर्बल हो चुका है, पर इसकी श्वास चल रही है। अब दया नहीं करना, अन्यथा आप ही हार जाओगे। निर्दयता से चले चलो, बढ़े चलो और वह सूक्ष्म लालिमा को पकड़ लिया गया इसी के आश्रित तो केवलज्ञान और केवलदर्शन के महाशिखर बंदी हैं, कैद हैं। स्वयं बंदी नहीं यह सूक्ष्मलोभ, पर अपने अस्तित्व से शक्तिमान इसने बना रखा है ज्ञान, दर्शन और अन्तराय के दृढ़ कपाटों को और वह लोभ आत्मा पर कोई प्रभाव न डालता हुआ रंगभूमि से सदा के लिए चला गया। गुणों का कोष बढ़ता चला जा रहा है और आज मिला वह सर्व विशुद्ध चारित्र का महल जिसमें वह शिवांगना मेरी प्रतीक्षा में बैठी है। यथाख्यात चारित्र के प्रासाद में प्रवेश करते ही देखा कि पीछे मोह की समस्त सत्ता प्रलयित हो गयी और तदनन्तर दृढ़ कपाटों पर खड़े विशुद्ध स्वामी को देख ज्ञान, दर्शन और शक्ति को आवरित करने वाले योद्धा क्षीणमोह के द्वार पर वृषभात्म को देख डर गए और शनैः शनैः समर्पित हो सदा के लिए उस द्वार को छोड़ दिया। पश्चात् निराबाध विशुद्धि के प्रासाद में प्रवेश होता चला गया और पा लिया अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य, अविनश्वर भोग, अक्षय उपभोग दे दिया स्व में आकर पूर्णतः पर का दान पर को। फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी का दिन था, जब यह अनन्त साम्राज्य हाथ आया और विश्व को क्या, उसकी भूत-भविष्यति परिणतियों को प्रत्यक्ष पाया हाथ में रखे सहस्र पहलूदार मनोहारी मणि की तरह। विश्व में खलवली मच गयी। ऊर्ध्वलोक का स्वामी इन्द्र, इन्द्राणी के साथ आलिंगित था, कि एकाएक सम्बन्ध टूट गया और क्षण में ज्ञात हुआ कि जिस वैरागी को हमने वैराग्य दिलाने की लीला रची थी वह विराग आत्मा स्वयं स्वाधीन पराग को पा गया और मैं अभी तक इस निःसार पराग में आप्लावित हो रहा हूँ। तभी चला शक्र अपनी अनेक अप्सराओं और वल्लभाओं को साथ लिए उस कैवल्यमूर्ति के दर्शन करने। सारा नभांगण देवों से व्याप्त हो जयजयकार के निनादों से गुञ्जित हो गया और अगले ही क्षण देखा कि इस पृथ्वी पर मानो कोई स्वर्ग निर्मित हुआ है, जिसमें प्रतिप्राणी को आने की कोई रोक टोक नहीं। समस्त आत्माओं का एक मात्र आस्थान, सुख और शान्ति की एक मात्र भूमि, मोहाभिभूत अनेक आत्माओं को एक मात्र शरण्य की वह शरण स्थली, जिस समवसरण की महिमा का वर्णन स्वयं वाचस्पति करने में असमर्थ है। जिस समवसरण के सम्राट, स्वयंभू वृषभ के चरणों में असंख्य-असंख्य तिरीट-हार-हास्य मुख प्रतिबिम्बित हो रहे हैं। बारह योजन के विस्तार में वह विलास फैला है, पर पूर्ण तृप्त नहीं हो पा रहा। आज तीर्थकरत्व प्रकट हुआ, सम्यक्कल्याण की भावना आज फलीभूत हुई। एक योजन के श्रीमण्डप में असंख्य जीव निराबाध विराजित हैं। जाति बैर रखने वाले पशु, पक्षी और मनुष्य भी सब कुछ भूल शान्ति का अनन्य स्रोत सहज पा रहे हैं । बीचोबीच गंधकुटी पर विराजमान हैं चैतन्य वृषभ। आसन-सिंहासन से परे अपने में  आसीन है, फिर परकृत औपचारिक विनय की स्वीकरता कहाँ? कषाय सहित हैं, तब तक ही आसन दिया जाता है और स्वीकारा जाता है। इस निष्कषाय भावों की अभिव्यक्ति प्रभामण्डल में सहज हो रही है। देवों द्वारा पुष्पों की मुञ्चित वृष्टि ने बारह योजन तक के भू भाग को अपनी पराग में डुबों लिया। समीपस्थ अशोक वृक्ष ने अपने पत्र फूलों के अपार वैभव से इस लोक के शोक को अपने में समा लिया। तीन विशाल धवल छत्रों ने त्रिलोक की विजय पताका ही फहरा दी। प्रभु के निकट यक्ष खड़े हैं, जो चँवरों के ढुरोने से ऐसे आभासित हो रहे हैं, मानों क्षीरसागर का जल ही मुदित हो हिलोरें ले रहा है। पणव, तुणव, काहल, शंख और नगाड़े आदि वाद्यों के शब्द देवों की दुन्दुभि श्रुति से भगवान् के अनन्तकाल तक जय-जय-जय गान की घोषणा कर रहे हैं। भगवान् के निःस्पन्द ओष्ठ वाले मुख कमल से मिथ्यावादियों के मद को ताड़ित करते हुए मनुज भाषा और कुभाषा में एक साथ परिणत होती दिव्यध्वनि अतिशय बलवान है। सकलजन भाषाओं को एक साथ बोलना सम्भव नहीं इसीलिए गंभीर ध्वन्यात्मक नाद है जिससे प्रतिप्राणी अपने क्षयोपशम शक्ति के अनुसार सार तत्त्व को ग्रहण कर प्रसन्न होता है। जिस समवसरण के ध्यान से बड़े-बड़े योगीजन अपने भावों को विशुद्ध करते हैं उस समवसरण की महत्ता अनिवर्चनीय है। जिन प्रभु की स्तुति करते-करते शक्र भी तृप्त नहीं होता, उन प्रभु का यह अपार धर्म का विस्तार देख इन्द्र भी चकित है। तभी उधर भरत राजा को सुकृत के फल स्वरूप तीन समाचार एक साथ मिले। आयुध शाला के रक्षक ने चक्ररत्न प्रकट होने का समाचार दिया, कंचुकी ने पुत्र उत्पत्ति की खुशखबरी सुनायी तो राज्य के धर्माधिकारी ने कहा राजन्! आपके पिता अब पिता परमेश्वर बन गए। अक्षय केवलज्ञान से आलोकित उन्होंने मोक्षपुरुषार्थ का फल प्राप्त किया है। तभी भरत ने क्षण भर सोचा कि किस कार्य को पहले करूँ? तीन पुरुषार्थों के फल एक साथ सामने आये हैं, धन्य है यह गोपनीय दैव। यह चक्ररत्न तो मेरे पूर्वकृत पुण्य का अनिदान तपफल है और अर्थपुरुषार्थ को प्रेरित कर रहा है। यह पुत्र रत्न मेरे समीचीन काम पुरुषार्थ का फल है तो यह कैवल्यज्ञान मेरे धर्म पुरुषार्थ को फैलाने वाला है। धर्म का यह अनमोल फल अत्यन्त मांगलिक है। इसलिए प्रथम मैं परमपिता के दर्शन को चलता हूँ।

 

अन्य दो फल तो गृहस्थ जीवन सम्बन्धी हैं पर, कैवल्य की पूजा प्राक् करणीय है। वो अन्धे होते हैं जो लौकिक कार्यों के लिए धर्म की उपेक्षा करते हैं। वो मूढ़ हैं जो सांसारिक सुख में धर्म को भूल जाते हैं। यह चक्र और पुत्र कहाँ जाने वाले हैं, ये तो कई बार प्राप्त किए और कई बार छोड़ चुके हैं पर, साक्षात् अमूर्त आत्मा का मूर्त रूप देखना मानो यह जन्म को सफल बनाना है। क्षणिक जीवन में क्षायिक तत्त्व का दर्शन पारलौकिक है। चक्र तो जड़ है उसका दर्शन बाद में करूँगा, रहा पुत्र सो उसका मुख भी बाद में देखूगा, पहले यह पुत्र उस पिता का मुख लखेगा जिसका मुख देखने को इन्द्र भी तरसता है। शायद यह निःस्पृहता ही महापुरुषों को सूतक-पातक के दोषों से बचाती है

और धर्म कार्य के लिए निरन्तर प्रेरित करती है। अन्यथा पुत्र प्रसूति और पवित्र केवलज्ञान का पूजन एक साथ कैसे घटित होते? अनुज भ्रात हैं, अन्तःपुर की वनितायें हैं, अनेक राजागण हैं, पुरोहित हैं, धर्मपुरुष हैं और महाराजाधिराज भरत सेना के अग्रणी नायक बन चल पड़े प्रभु के दर्शन को; और दूर से देखा नीलम रत्न से परिवृत गगनखण्ड। सेना का शोर शान्त हो गया। मन के अन्तर्द्वन्द धीरे-धीरे शान्त हो रहे हैं, अपूर्व, अद्भुत, अनोखा दृश्य है

 

 सवारी छोड़ दी, स्तब्ध आँखें सहज प्रणमन की मुद्रा में करांजलि पे रखी गयीं, अहो! कितनी कमनीय यह संरचना है। चारों आयामों में परिमण्डल यह धूलिशाल प्रथम नीलाभ कोट। मानो नाभिकमल की कुण्डलियाँ ही वलयित होकर इकट्ठी हो गयी हैं। बीस हजार सीढ़ियों को क्षण भर में पैर रखते ही पार कर गया। अनायास ढाई कोस की ऊँचाई पर आकर भी महसूस हो रहा है कि, मैं प्राकृतिक भूमि पर ही खड़ा हूँ। सभी सेना, सभी देव, सकल पशु-पक्षी निराबाध बढ़े जा रहे हैं। चारों ओर द्वार हैं, चारों ओर से प्रवेश जारी है, पर सबका लक्ष्य एक है, उसी ओर गतिमान हैं, रास्ते सब एक हो गए। प्रभु के समत्व का यह सत्फल कि जड़ भी चेतन हो गए। रत्न यहाँ धूली बन गए हैं। इसलिए यह धूलीशाल कहलाता है। प्रवेश करते ही यह मानो अनेक विधियों में फूट गया। चारों दिशाओं में अन्तहीन आकाश को छूते हुए ये मानदण्ड, जो खड़े हैं विचित्रमणिमय जगती पर जहाँ प्रवेश के चार द्वार हैं, अन्दर चला तो एक नहीं, दो नहीं, तीन कोट पार किए और स्वर्णमय सीढ़ियों से पहुँच मार्ग बना है, उन स्तम्भों के ऊपर जड़ित प्रतिमाओं का निकट से दर्शन, पूजन का सौभाग्य। इन तेजोमयी मूर्तियों के दूर से दर्शन ही बड़े-बड़े मानियों का मान खण्डित कर देते हैं और कुपथ की कुटिलतायें इस मानस्तंम्भ की दीवार की तरह सीधी कर देती हैं मन को। भगवान् के अनन्त चतुष्टय का ये जयगान कर रहे हैं। इन्हीं स्तम्भों के चारों ओर ये विशुद्ध शुभ जल सहित सरोवर, जिनमें स्वतन्त्र सत्ता का भानकर ही फंसते हुए ये आन्दोलित रंग बिरंगे कमल पुष्पों की बहुलता। तदनन्तर निर्मल जल से भरी हुई परिखायें। फिर अनेक-अनेक पुष्पवाटिकायें जहाँ योगीजन बैठकर शुक्ल-ध्यान का अभ्यास करते हैं। तब आता है प्रथम कोट । थोड़ी दूर चलने पर दिख रहीं हैं दोनों ओर दो-दो नाट्य शालायें, प्रत्येक तीन-तीन खण्ड की स्फटिक मणि से निर्मित हैं, जिनमें देवांगनायें, विचित्र आभूषणों और भंगिमाओं से लसित होकर नृत्य कर रही हैं और इन स्फटिक भित्तियों में ये ऐसी विलस रही हैं, मानो चित्र ही चिन्मय होकर नाच रहे हैं। उनके आगे फिर वीथियाँ बन गयीं, जिनमें रखे धूप घट मेघ के समान छाये हुए सुगन्धी से परिसर को जीवन्त उपदेश दे रहे हैं। उन गलियों के निकट की चार-चार गलियाँ वनों की, अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्र वृक्षों के वन, फल-फूलों से लदे हैं। तदनन्तर चार गोपुर द्वारों से शोभित चार वन वेदिकायें, रत्नमय तोरणों से सुशोभित हैं। उनके आगे ही स्वर्णमय खम्भे हैं, जिनके अग्रभाग पर ध्वजाओं की पक्तियाँ हिलोरें ले रही हैं । तब प्रारम्भ हुआ द्वितीय अद्वितीय अनुपम रजतमय कोट । प्रथम कोट की तरह यह भी विशाल और शोभा में समान है पर, यहाँ धूप घटों के बाद गलियों के अन्तरालों में कल्पवृक्षों के वन हैं, मध्य में सिद्धार्थ वृक्ष हैं, जो सिद्ध भगवान् की प्रतिमाओं से अधिष्ठित हैं। तदनन्तर महावीथियों के मध्यभाग में नौ-नौ स्तूप खड़े हैं, जो सुमेरु के समान पूजार्ह हैं। जिन पर स्थित जिनेन्द्र प्रतिमाओं की पूजा, स्तुति और प्रदक्षिणा भव्यजीव अनवरत कर रहे हैं। इन्हीं स्तूपों और मकानों की कतारों से घिरी आकाश सम निर्मित स्फटिक मणि का बना तृतीय कोट है, जिसमें प्रवेश करते ही देखा कि तीनलोक के जीव यहाँ एकत्रित हैं। बारहसभाओं से घिरी गन्धकुटी इस समवसरण वलयपुष्प की कर्णिका-सी लग रही है, जिसके भीतर द्वारपालों ने प्रवेश कराया, भूल गया हूँ कि मैं कौन हूँ, कहाँ आ गया हूँ। प्रथम पीठिका पर पहुँच कर प्रदक्षिणा देते हुए धर्मचक्रों की पूजा की। तदनन्तर द्वितीय पीठ पर स्थित ध्वजाओं की पूजा की। पश्चात् गन्धकुटी के बीच सिंहासन के कुछ ऊपर, देख रहा हूँ वह नग्न तन, राजा वृषभ और महाराज वृषभ से भी कुछ अद्भुत हो गया, यह रंग रूप। कोटि कोटि-सूर्य, चन्द्रों की आभा से अधिक दीप्तमान यह भासुर देह सारे परिसर को कांचनमय कर रही है।

 

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अनायास घुटने जमीं पर टिक गए, आँखों से हर्षाश्रु बह निकले और स्तुति के स्वरों में प्रभु की गौरवता का तनिक वर्णन कर वह अपने स्थान पर बैठ गए, तभी सहज प्रभु की दिव्यध्वनि अतिशय गंभीर, तत्त्व का विस्फोटन करती हुई प्रतिवादियों के मान खण्डन की धारा रूप अनेक भाषा-उपभाषाओं में परिणत होती हुई अविरल निःस्पन्द ओष्ठ से प्रस्फुटित हुई।

 

आज प्रथम बार इस भूतल को धर्मामृत से सिंचित किया गया। मुरझाई हुई सुप्त चेतनायें जागृत होने लगी। यह धर्मवृष्टि भव्य जीवों के पुण्य का सुफल है या तीर्थकरत्व का या विश्वकल्याण की भावना से उद्भूत भगवान् का प्रयास है। कहना कठिन है क्योंकि, निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध का यह खेल अनोखा है। उपादान अपनी निजी शक्ति है और निमित्त शक्ति को जागृत करने का एक माध्यम । कार्य तो उपादान में होता है, उपादान ही करता है पर निमित्त की अनिवार्यता के साथ। निमित्त की समीचीन महिमा तो वह उपादान ही समझता है जो वास्तव में आसन्नभव्य है। अपनी शक्ति को स्वयं स्पर्शित करता है, किन्तु निमित्त को देखकर भाव विभोर हो जाता है, तभी तो वह अहंकति के प्रस्तरों को चर्ण-चर्ण कर आत्मा में मृदिम लोच उत्पन्न कर अहं......सोऽहं..... की कृति आकृति को निर्विकार अनुभव करता है। अन्यथा अपने को सिद्धस्वरूप समझकर अहंकार में अन्धे हो अहित कर जाता है। कृतज्ञता के स्वर उसी मुख से फूटते हैं, जो अपने को संसार के तीर पे खड़ा देखता है। यह विनय के भाव, कृतज्ञता के गुण उपादान को कमजोर नहीं बलजोर बनाते हैं। निश्चयनय के द्रष्टा का व्यवहार इतना कोमल होता है कि मित्र तो दूर, शत्रु को भी अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। बारह सभा में कितने ही तद्भव मोक्षगामी जीव बैठे हैं, कितनों ने इस ध्वनि से अपनी कुण्डली को जागृत किया, कितने ही इस नाद में मिथ्यात्व की शाश्वत सत्ता को मिटा कर उसके टुकड़े-टुकड़े कर गए। कितने ही क्षायिक दृष्टि को उपलब्ध हुए, कितने ही इस भावना से ओत-प्रोत हुए कि हम भी आगामी समय में भव्य जीवों को सत्पथ बतायें। कितने ही उस आभा में अपने भवों को देख सावधान हुए, कितने ही श्रावकधर्म को सुन उसको आचरित करने का संकल्प लिए। कितने ही शक्ति-अनुसार नियम-संयम में स्वतः बंध गए । मनुष्य तो दूर रहे, पशु-पक्षी भी इस उपलब्धि से पीछे नहीं रहे। संयमासंयम को चञ्चल मर्कट और कुक्कुट (मुर्गा) भी प्राप्त किए। सम्यग्दर्शन से अछूता तो कोई नहीं बचा क्योंकि सभी संज्ञी थे, समनस्क थे, असंज्ञी तो अभव्यों के समान उस परिसर में नहीं पहुँच पाते। मिथ्या स्वभाव वहाँ पहुँचते-पहुँचते सीधा हो जाता है। निमित्त की इस अनुपम देन से सकल निकट भव्य एक टक प्रभु को देखते हुए आनन्दित हैं, उपशान्त हैं और सोच रहे हैं कि इस पवित्र आत्मा का अपने ऊपर यह उपकार क्षायिक है। नहीं कहा जा सकता कि, किसी एक व्यक्ति के निमित्त से यह धर्मदेशना हुई क्योंकि यह तो बद्ध तीर्थकृत कर्म के उदय का फल है और तीर्थकृत कर्म का बंध किसी एक जीव के कल्याण की भावना से हो; यह असम्भव है। हम लोग अपने-अपने कर्म के क्षयोपशम के अनुसार तत्त्व, द्रव्य, अस्तिकाय, जीव-अजीव का स्वरूप और लोक की अनादि अनिधनता से परिचित हुए किन्तु देवाधिदेव के कहे गए लोकोत्तर और अनेक भावों को कैसे बांधा जाय?

 

तभी पुरिमताल नगर के राजा, जो कि भरत के अनुज भ्रात हैं, पितानुरूप नाम वृषभसेन है, धीर हैं, शूर-वीर हैं, प्रज्ञा, पाण्डित्य जन्मतः प्राप्त है, दिव्य देशना के रहस्य को जानने का अटल भाव लिए सभा में विराजमान थे, सहसा उठे और प्रभु के समक्ष आ, स्वयं पितामय के जातरूप को धारण कर सम्यग्ज्ञान के साथ सामायिक चारित्र को प्राप्त हुए। केश का लुञ्चन कर अकिंचन हो बैठे। अप्रमत्तता को अनुभूत कर स्वरस में लीन हैं कि प्रज्ञा का अनुपम अतिशय प्रकट हुआ। बुद्धि पर आवरित पटल हट गए और देशना के गहन अर्थों को समझने और समझाने की शक्ति प्राप्त हुई। श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान स्वयं पूर्णता के साथ अवतरित होते गए। कितनी ही ऋद्धियाँ स्वयमेव प्रस्तुत हो गयी। धर्म की अभेद्य धारा को स्वयं अवधारित किया। तभी सारी सभा में एक साथ, एक लय में उद्घोष हुआ

 

आद्य तीर्थङ्कर के आद्य शिष्य वृषभसेन की जय हो।

अवसर्पिणी के प्रथम उपदेष्टा वृषभसेन की जय हो।

शब्द श्रुत के आदि रचयिता वृषभसेन जयवन्त हो।

ऋद्धि प्राप्त आर्य श्रेष्ठ गणधर प्रमुख अमर रहें।

 

त्रिकालेश्वर की दिव्यशक्ति को आत्मसात् करने वाले प्रथम गणधर अमर रहें।

छद्मस्थता की सर्वोत्कृष्ट उपलब्धि प्राप्त वृषभसेन हमें दिव्यज्ञान दें। गणधरत्व की उच्च गोत्रीय प्रकृति का फल भूतल पर अमिट रहे। गणधरों से प्रणम्य वृषभसेन सदा जीवन्त रहें।

हे आर्य श्रेष्ठ! हे निर्ग्रन्थ श्रमण! हे कलिकाल के ज्ञान सूर्य ! आपका निर्ग्रन्थपना बहिरंग और अन्तरंग से समीचीन है; सम्यग्ज्ञान द्वारा गृहीत आपका चारित्र अभिवन्द्य. है। आदि तीर्थङ्कर के समक्ष आदि शिष्य बनने का आपका सौभाग्य प्रबल है। इस कर्मभूमि के आप प्रथम बोधित बुद्ध हैं। आत्मधर्म की पवित्र वाहिनी में डुबकी लगाने वाले आप आदि पुरुष हैं और वृषभदेव के बाद वृषभसेन ही द्वितीय किन्तु अद्वितीय श्रमण हों; आपके पूर्व हजारों दीक्षित राजा श्रमणाभास थे। आपके समीचीन पुरुषार्थ की अनुमोदना ये असंख्य देव जयजयकारों से कर रहे हैं।

 

तत्काल ही कुरुवंशियों में श्रेष्ठ प्रभु को प्रथम आहार कराने वाले, दानतीर्थ के उन्नायक भ्रात सोमप्रभ और अनुज श्रेयांस के भी अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान के आवरण एक साथ विगलित हुए। सप्त ऋद्धियों की एक साथ उद्भूति से अन्तस् उज्ज्वल हो गया। गणधरत्व की सर्वोच्च उपाधि से आत्मायें अलंकृत हो गयीं। जो किसी को अनुशासित नहीं करना चाहते उनके सम्मुख स्वयमेव भव्य पुण्डरीक अनुशासित हैं । संयम, मर्यादा, विनय, भक्ति आपोआप सीख गए। आत्म अनुशास्ता की धर्मसभा संयम सभा में बदलती जा रही है। चिरकाल से प्रतीक्षित आत्म-मयूर से दिव्य घन गर्जना को सुन संयमी जीव संयमित नृत्य कर रहे हैं। आत्म आनन्द की अखण्ड अनुभूति के लिए प्यासे पपीहा व्याकुल से आज निराकुल हो गए हैं।

 

एक-एक करके हजारों राजा स्व संवित्ति के निराकार आकार में सन्निहित हो गए। शुद्धत्व के दिव्य प्रकाश में समाहित हो जाने का एक मात्र संकल्प लिए कई गणधर णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, कहकर तपोपूत हो गए। भरत की भगिनी ब्राह्मी और सुन्दरी भी वैराग्य की अभिभावना में आप्लावित हो गयीं। प्रथम गणिनी के सौभाग्य को प्राप्त कर नारी जगत् को अलौकिक प्रेरणा दी। उन्हें देखकर बन्धन की अस्वीकारता कर अनेक राजकन्याएँ अखण्ड समरसी स्वचेतन पुरुष में अनुरक्त हो दीक्षित हुईं। णमो लोएसव्वसाहूणं कहकर श्रुतकीर्ति आदि श्रावकों ने व्रत ग्रहण किए। प्रियव्रता नाम की स्त्री श्राविकोत्तम की उपाधि से पुनीत हुई। जो प्रभु के साथ हजारों राजा दीक्षित हुए वे सब आज सम्यक् बोध को प्राप्त हुए।

 

सम्यक्चारित्र की सौम्य रश्मियों से आज वे असली हीरे से चमक रहे हैं। सभा में विराजित हजारों मुनि भगवत् मूर्ति के अनन्य रूप से प्रतिभासित हैं। विश्वप्रभु की अन्तश्चेतना से साक्षात्कार कर रहे आज सभी भगवान् के सारांश बन गए। प्रत्युत कुमार मरीचि चरम तीर्थङ्करत्व का अभिमान लिए अपनी स्वच्छंद आम्नाय को पुष्ट कर रहा है। पितामह के समक्ष अपने मिथ्या अभिमान से लोगों को भ्रमित करता हुआ उसने यह सूचना दी कि, हाँ यह हुण्डावसर्पिणी काल है। साक्षात् तीर्थङ्कर के रहते हुए अपने आपको गुरु कहलाने का दुस्साहस उसने किया और मुग्ध प्रजा ने उसका अनुसरण भी किया। मोह कर्म की यह विडम्बना टालने योग्य नहीं। मात्र अवसर्पिणीकाल का यह दोष नहीं किन्तु हुण्डावसर्पिणी की यह देन थी जिसकी आदि मरीचि ने मिथ्या आचरण से सूचित की। असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालों के बीत जाने पर यह हुण्डावसर्पिणी काल आता है, जिसमें लोगों को भ्रमित करने वाले पाखण्डी, कुलिंगी और महेश्वर अवतार लेते हैं। जहाँ भवितव्यता के उत्कृष्ट उपमान दिखायी दे रहे थे, वहीं निकृष्ट अवधारणायें भी प्रचलित होने लगी। अनेक दीक्षितों में भरत के भ्रात अनन्तवीर्य भी थे, जिन्होंने इस अवसर्पिणी में सर्वप्रथम शिवांगना का वरण किया। विषम परिस्थितियों में भी समता के उत्कट भावों को लिए प्रथम मोक्ष जाने वाले सिद्ध अनन्तवीर्य को इन्द्र, नरेन्द्र, राजेन्द्र और मुनीन्द्रों ने वंदन पूजन कर अपना मार्ग प्रशस्त किया।

 

यहाँ निबिड़तम सुख का भण्डार है, अबाधित सुख यहाँ अजस्र बह रहा है, भूख-प्यास की योजनों तक बाधा नहीं। हर सम्बन्ध यहाँ अपने वास्तविक रूप में प्रकट है। समस्त ऐन्द्रिय सुख की लीलायें इस परिसर में तिरोहित हैं। प्रत्यक्ष कैवल्य आलोक में अणु-अणु की स्वतन्त्र परिणमना झलक रही है। स्वयं क्षायिक सम्यक् द्रष्टा हैं, प्रथम राजाधिराज हैं, याद आ गया कि चक्ररत्न की पूजा करनी है और अपने वीर्यांश का अवलोकन, यह सब होते हुए भी भरत महाराज वापस लौट रहे हैं, इस छोर से उस छोर की ओर। अलक्ष्य मोह के यह सूत्र स्वयं उन्हें दिख रहे हैं। बाहुबली युवराज समेत अन्य अनेक भ्रात जनों और सेना के साथ राज्यशासन का आनन्द लेने चले गए। नीति निपुण प्रथम चक्री देवप्रिय महाराज भरत भी!

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