Jump to content
नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
अंतरराष्ट्रीय मूकमाटी प्रश्न प्रतियोगिता 1 से 5 जून 2024 ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

Vidyasagar.Guru

Administrators
  • Posts

    17,719
  • Joined

  • Last visited

  • Days Won

    591

 Content Type 

Forums

Gallery

Downloads

आलेख - Articles

आचार्य श्री विद्यासागर दिगंबर जैन पाठशाला

विचार सूत्र

प्रवचन -आचार्य विद्यासागर जी

भावांजलि - आचार्य विद्यासागर जी

गुरु प्रसंग

मूकमाटी -The Silent Earth

हिन्दी काव्य

आचार्यश्री विद्यासागर पत्राचार पाठ्यक्रम

विशेष पुस्तकें

संयम कीर्ति स्तम्भ

संयम स्वर्ण महोत्सव प्रतियोगिता

ग्रन्थ पद्यानुवाद

विद्या वाणी संकलन - आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के प्रवचन

आचार्य श्री जी की पसंदीदा पुस्तकें

Blogs

Events

Profiles

ऑडियो

Store

Videos Directory

Blog Entries posted by Vidyasagar.Guru

  1. Vidyasagar.Guru
    पंचकल्याणक स्थल पर अचानक पहुंच गए आचार्य श्री  विद्यासागर जी, सुधरवाई मूर्ति की त्रुटि
    आचार्य श्रीजी वहाँ पर दो घंटे रुके, कारीगर को बुलाया और भगवान आदिनाथ के कंधे पर आ रहे बालों को हटाया।
     शहर में पहली बार दिगंबर जैन समाज के 14 मंदिरों के पंचकल्याणक की तैयारियां चमेलीदेवी पार्क गोयल नगर में की जा रही हैं। इन्हें देखने आचार्य श्री विद्यासागर जी महामुनिराज बुधवार दोपहर अचानक पंचकल्याणक स्थल पर पहुंचे। वहां निरीक्षण के बाद विदुर नगर से आई सवा ग्यारह फीट की प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की पद्मासन पाषाण प्रतिमा में त्रुटि को ठीक कराया।
    आचार्य श्री जी ने कुछ देर प्रतिमा को निहारा, फिर साथ चल रहे संघ को कारीगर बुलाने के लिए कहा। संघ से चर्चा कर कुछ दिशा-निर्देश दिए। इसके बाद कारीगर को बुलाया गया और उसे प्रतिमा की त्रुटियां दूर करने के लिए बताया। इससे पहले उसे श्रीफल दिया। इसके बाद कानों के पास से कंधे तक आ रहे बालों को हटवाया। इस दौरान वे प्रतिमा के सामने ही संघ के साथ बैठे रहे। यह प्रतिमा मंगलवार रात ही पंचकल्याणक स्थल पर विदुरनगर से लाई गई थी।
    पंचकल्याणक में शामिल होंगी 300 से अधिक मूर्तियां, 150 से अधिक आईं
    ब्रह्मचारी सुनील भैया ने बताया कि पहली बार एक साथ 14 मंदिर का पंचकल्याण होने जा रहा है। पंचकल्याणक 26 जनवरी से 1 फरवरी तक होगा। इसमें 300 पाषाण और धातुओं में ढली मूर्तियां भगवान बनेंगी। पंचकल्याणक में अजमेर से 25 और सागर से 7 और पुणे से भी तीन मूर्तियां आई हैं। होशंगाबाद से भी ढाई फीट की अष्टधातु की एक मूर्ति लाई गई है। इसके अलावा पंचबलयति मंदिर स्कीम नंबर 78, वैभव नगर, कनाड़िया, शिखरजी ड्रीम, निर्वाण विहार, छावनी, खातीवाला टैंक आदि मंदिरों का पंचकल्याणक होगा।

  2. Vidyasagar.Guru
    अध्याय 1 लक्की  ड्रॉ 
     
     
    अध्याय 2 से 7  लक्की ड्रॉ 
     
     
    अध्याय 8 से 10 लक्की  ड्रॉ 
     
     

     
     
    Pdf download करें 
    kahoot pratiyogita parinaam.pdf
  3. Vidyasagar.Guru
    डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़
    शुक्रवार 5 अगस्त  मूकमाटी रचयिता आचार्य श्री विद्यासागर महाराज के कर कमलों से चंद्रागिरी तीर्थ डोंगरगाढ़  (छ.ग) में प्रथम बार दीक्षा संपन्न हुई।
     98 वर्षीय श्रावक वालचंद जी संघवी बारामती निवासी (पूना) अपने सल्लेखना के पथ पर विगत 1.5  माह से गुरु  \चरणों में साधना रत है आज  दोपहर 2.30 बजे  5 अगस्त शनिवार को गुरुदेव ससंघ सान्निध्य में यह मांगलिक कार्य संपन्न हुआ व क्षुल्लक जी के लिए कमंडल कटोरा चांदी का  व परिमार्जन हेतु हथकरघा का मुलायम कपड़ा प्रदान किया गया उपस्थित सभी जनों ने आचार्य श्री की जयकारा के साथ नये क्षुल्लक 105 श्री आल्हादसागर की जय बोलकर इस पवित्र कार्य कीअनुमोदना की। 
  4. Vidyasagar.Guru
    नि:शुल्क चिकित्सा शिविर योग प्राणायाम, जडीबुटी का काढ़ा, औषधि, एक्यूप्रेशर से तुरंत इलाज
    नया अस्पताल, पंडाल गजरथ स्थल, गोटेगांव 
  5. Vidyasagar.Guru

    युगद्रष्टा
    “कालचक्र गतिमान किसी का दास नहीं है।'' इस उक्ति के अनुसार काल का परिणमन प्रति समय चल रहा है। काल के इस परिणमन के साथ जीवों में, वय में, शक्ति में, बुद्धि में, वैभव में, परिवर्तन होता है। जब यह परिणमन वृद्धि के लिए होता है तो उसे उत्सर्पिणीकाल कहते हैं और जब यह परिणमन हानि के लिए होता है तो उसे अवसर्पिणी काल कहते हैं। अभी इसी अवसर्पिणीकाल के चक्र में प्रत्येक प्राणी श्वास ले रहा है। आज जो आयु, ऊँचाई, बुद्धि में ह्रास हमें दिखाई दे रहा है। आगे इससे भी अधिक होगा। यह भी स्वतः स्पष्ट होता है कि आज से वर्षों पहले यह सभी तथ्य और अधिक मात्रा में रहे होंगे। जैनधर्म में इसी कालखण्ड को छह भागों में विभाजित किया है। उनमें प्रथम, द्वितीय, तृतीय काल, उत्तम, मध्यम और जघन्य भूमि कहलाते हैं। जिसमें मनुष्य को कोई कर्म नहीं करना पड़ता है। परिवार के नाम पर मात्र पति, पत्नी ये दो ही प्राणी होते हैं। कल्पवृक्षों से इनकी दैनिक भोग-उपभोग की सामग्री उपलब्ध होती थी। तृतीयकाल के अन्त में जब भोगभूमि की व्यवस्था समाप्त हो रही थी और कर्मभूमि की रचना प्रारम्भ हो रही थी तब उस संधि काल में अन्तिम मनु-कुलकर श्री नाभिराज के घर उनकी पत्नी मरुदेवी से भगवान् ऋषभदेव का जन्म हुआ था।
     
    गर्भ से ही मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान को धारण करने वाला वह बालक विलक्षण प्रतिभा का धनी था। कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने के बाद बिना बोये धान्य से लोगों की आजीविका होती थी परन्तु कालक्रम से जब वह धान्य भी नष्ट हो गया, तब लोग भूख-प्यास से अत्यन्त व्याकुल हो उठे और सभी प्रजाजन नाभिराज के पास पहुँचकर उनसे रक्षा की भीख माँगने लगे। प्रजाजनों की व्याकुल दशा को देखकर नाभिराज ने उन्हें ऋषभकुमार के समीप पहुँचा दिया। उन्होंने उसी समय अवधिज्ञान से विदेहक्षेत्र की व्यवस्था के अनुसार इस भरतक्षेत्र में भी वही व्यवस्था प्रारम्भ करने का निश्चय किया।
     
    उन्होंने असि (सैनिक कार्य), मषि (लेखन कार्य), कृषि (खेती), विद्या (संगीत, नृत्य आदि), शिल्प (विविध वस्तुओं का निर्माण) और वाणिज्य (व्यापार) इन छह कार्यों का उपदेश दिया तथा इन्द्र के सहयोग से देश, नगर, ग्राम आदि की रचना करवायी। इसी कारण आप युगद्रष्टा कहलाए। इस व्यवस्था को आपने इस वसुन्धरा पर अवधिज्ञान से देखकर प्रचलित किया इसलिए आप युगद्रष्टा कहलाए। जब भगवान् माता मरुदेवी के गर्भ में आये थे, उसके छह मास पहले से अयोध्या नगर में हिरण्य-सुवर्ण तथा रत्नों से वर्षा होने लगी थी, इसलिए आपका नाम हिरण्य गर्भ पड़ा। षट्कर्मों का उपदेश देकर आपने प्रजा की रक्षा की इसलिए आप प्रजापति कहलाए। आप समस्त लोक के स्वामी हो इसलिए लोकेश कहलाए। आप चौदहवे कुलकर नाभिराज से उत्पन्न हुए इसलिए आप नाभेय कहलाए। इत्यादि अनेक नामों से आपकी ख्याति हिन्दू पुराणों और वेदों, श्रुति में उपलब्ध होती है। अनेक शिलालेखों और अनेक खोजों से प्राप्त सभ्यताओं में जो अवशेष मिले हैं, उससे आपकी प्राचीनता और सार्वभौमिकता को वर्तमान के सभी इतिहासकारों ने एक स्वर से स्वीकारा है। डॉ. सर. राधाकृष्णन कहते हैं -
     
    जैन परम्परा ऋषभदेव से अपने धर्म की उत्पत्ति होने का कथन करती है जो बहुत-सी शताब्दियों पूर्व हुए हैं। इस बात के प्रमाण पाए जाते हैं कि ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव की पूजा होती थी। इसमें कोई संदेह नहीं है कि जैनधर्म वर्धमान और पार्श्वनाथ से भी पहले प्रचलित था। यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ और अरिष्टनेमि तीर्थङ्करों के नाम का निर्देश है। भागवत पुराण में भी इस बात का समर्थन है कि ऋषभदेव जैनधर्म के संस्थापक थे।
     
    भगवान् ऋषभदेव के दस भवों का कथन पं. भूधरदासजी ने अपने 'जैन शतक' ग्रन्थ में किया है - आदि जयवर्मा, दूजै महाबल भूप तीजै स्वर्ग ईशान ललिताङ्ग देव थयो है। चौथे बज्रजंघ एवं पांचमे जुगत देह सम्यक ले दूजे देव लोक फिर गए हैं। सातवै सुविधि एक आठवै अच्युत इन्द्र नवमैं नरेन्द्र वज्रनाभि भवि भयो है। इसमै अहिमिन्द्र जानि ग्यारहै रिषभनाथ नाभिवंश भूधर के माथै नम लगे हैं।
     
    भगवान् ऋषभदेव का सम्पूर्ण वृत्तान्त और उनके पूर्व भवों का वर्णन पुराण ग्रन्थ में आचार्य श्री जिनसेनस्वामी ने किया है। चूंकि यह पुराण सविस्तार बहुत विपुल सामग्री को लिए है। इस पुराण में ऋषभदेव के साथ अन्य अनेक महापुरुषों का वर्णन भी है। भगवान् ऋषभदेव कैसे बने? उनके जीवन के पूर्वभवों को इसी पुराण की आधारशिला बनाकर इस लघुकाय कृति का रूप बना है। मात्र ऋषभदेव का जीवन, कम समय में स्वयं को स्मृत रहे और अन्य भव्य प्राणी भी लाभ उठायें, इस भावना से यह प्रयास किया है। इस कार्य को करते हुए अनेक सैद्धान्तिक विषयों का खुलासा भी हुआ और उनका समायोजन भी किया है। दश भवों का वर्णन संक्षेप से इस कृति में उपलब्ध है।
     
    प्रभु का यह संक्षिप्त कथानक सभी भव्यजीवों को उत्तम बोधि प्रदान करे, इन्हीं भावनाओं के साथ परम पूज्य आचार्य गुरुदेव श्री विद्यासागर जी महाराज को समर्पित यह कृति जिनके प्रसाद से इस आत्मा को सम्यक् बोधि की प्राप्ति हुई है।
     
    मुनि प्रणम्यसागर
  6. Vidyasagar.Guru
    गुरु प्रभावना में सहयोग दीजिए। इस बार दसलक्षण पर्व पर आपके मंदिर में इस बैनर का प्रिंट निकाल कर जरूर लगाइए। प्रिंट करने के लिए  पीडीएफ़ डाउनलोड कर सकते हैं। 
     
     

     
     

     
     
     
     
     

     
    Acharya shree app poster.pdf
  7. Vidyasagar.Guru
    संयम कीर्ति स्तम्भ
    दिनांक - 30 जून 2019
    स्थान - आचार्य विद्यासागर सर्किल, R.T.0. रोड़, पुर रोड़, भीलवाड़ा
    सान्निध्य -  परम पूज्य मुनि पुंगव 108 श्री सुधासागर जी महाराज  परम पूज्य मुनि 108 श्री महासागर जी महाराज परम पूज्य मुनि 108 श्री निष्कम्प सागर जी महाराज क्षुल्लक 105 श्री गम्भीरसागर जी महाराज क्षुल्लक 105 श्री धैर्य सागर जी महाराज के प्रेरणा, आशिर्वाद संसघ के सानिध्य में व बा.ब्र. प्रतिष्ठाचार्य
    लोकार्पण के समय - श्रीमती शांतिदेवी धर्मपत्नी स्व. श्री ताराचंद जी चौधरी, प्रदीप-श्रीमती मंजू देवी, दिलीप - श्रीमती बेला., प्रवीण - श्रीमती सपना, नवीन - श्रीमती मीना, राहुल - श्रीमती नेहा तपिष, लविश, आदिश, दिव्या, लवीना, रिषभ, अद्वेत चौधरी (कासलीवाल) M.R.L. ट्रांसर्पोट प्रा. लि. भीलवाड़ा
     
     

     

     

     
  8. Vidyasagar.Guru
    निमित्त मिले,
    पित्त उछले भले,
    चित्त शांत हो (मस्त हो / स्वस्थ हो ) |
     
    हायकू जापानी छंद की कविता है इसमें पहली पंक्ति में 5 अक्षर, दूसरी पंक्ति में 7 अक्षर, तीसरी पंक्ति में 5 अक्षर है। यह संक्षेप में सार गर्भित बहु अर्थ को प्रकट करने वाली है।
     
    आओ करे हायकू स्वाध्याय
    आप इस हायकू का अर्थ लिख सकते हैं। आप इसका अर्थ उदाहरण से भी समझा सकते हैं। आप इस हायकू का चित्र बना सकते हैं। लिखिए हमे आपके विचार
    क्या इस हायकू में आपके अनुभव झलकते हैं। सके माध्यम से हम अपना जीवन चरित्र कैसे उत्कर्ष बना सकते हैं ?
  9. Vidyasagar.Guru
    21 को ललितपुर में होगा आचार्यश्री का मङ्गल प्रवेश! बार और बांसी में आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ की अगुवानी के लिए उमड़ा  श्रद्धा का जन सैलाव लड़वारी के ग्रामवासियों ने बनाई घर-घर रंगोली तीन दशक बाद नगर आ रहे हैं आचार्यश्री सजाया गया पूरा नगर, बनाई गईं आकर्षक रंगोली, बनाये गए तोरण द्वार ललितपुर। जिस घड़ी का इंतजार ललितपुर वासियों को तीन दशक से था वह इंतजार अब 21 नवम्बर को पूरा होने जा रहा है। अपराजेय साधक भारतीय संस्कृति के संवाहक आचार्य श्री विद्यासागर जी महामुनिराज अपने विशाल संघ के साथ  ललितपुर नगर में प्रवेश करने जा रहे हैं। प्रवेश के दौरान पूरे  रास्ते में पड़ने वाले व्यापारिक प्रतिष्ठानों के मालिकों द्वारा अपने द्वार पर स्वयं सजावट और स्वागत की तैयारी की जा रही है। आचार्यश्री के देश-विदेश में लाखों की संख्या में भक्तों को देखते हुए इस भव्य मंगल प्रवेश का जिनवाणी चैनल पर लाइव प्रसारण भी होगा, जिसे देश -विदेश में देखा जा सकेगा।
    मंगलवार को प्रातः  ग्राम रमपुरा से आचार्य श्री विद्यासागर जी मुनिराज ससंघ का कस्बा बार के लिए पद विहार हुआ। इस दौरान रास्ते में पड़ने वाले ग्राम लड़वारी में आचार्यश्री के स्वागत के लिए पूरा गांव उमड़ पड़ा। ग्रामीणों ने अनाज, रंग आदि से अपने दरवाजों पर रंगोली बना रखी थी साथ ही तांबे के मंगल कलश भी रखे गए थे। दीवालों पर भी लिखावट की गई थी। चारों ओर महिलाएं भी खड़ी होकर आचार्य वंदना के मंगल गीत गा रही थी। सैकड़ों की संख्या में श्रद्धालुओं ने उनके आगमन पर नमन कर आशीर्वाद लिया। 
    जैसे ही आचार्यश्री कस्बा बार पहुंचे तो वहां उपस्थित लगभग तीन हजार की जनता सड़क के दोनों ओर खड़े हो कर अगुवानी करने लगे। सभी को आशीर्वाद देते हुए आचार्य संघ  मन्दिर दर्शन के लिए पहुँचा। आचार्यश्री  के पाद प्रक्षालन का सौभाग्य पंडित दयाचंद्र शास्त्री बार भेलोनी सूबा वालों को प्राप्त हुआ। विहार के दौरान उमड़ा हजारों का जनसैलाव देखने योग्य था। बार में आहारचर्या सम्पन्न हुई । सामायिक के बाद ग्राम बांसी के लिए उनका पद विहार हुआ। रास्ते में पड़ने वाले पुलवारा, बस्तगुवा, गड़िया के सैकड़ों ग्रामीण सड़क किनारे खड़े होकर नमन कर रहे थे। जैसे ही आचार्य संघ और उनके साथ हजारों की संख्या में चल रहे श्रद्धालु शाम 4 .30 बजे  बांसी  पहुँचे यहां उनका पलक -पावड़े बिछाकर स्वागत किया। पूरे गांव को सजाया गया था। लोग अपने घर दुकान के बाहर पानी और फल श्रद्धालुओं के लिए प्रदान कर प्रसन्न हो रहे थे। जगह जगह रंगोली बनाई गई थी। आशीर्वाद ग्रहण करने अपार जनसैलाव उमड़ पड़ा। यहाँ पर स्वागत द्वार, रंगोली बनाकर अपने गुरुवर का श्रद्धा के साथ  वंदन किया। बांसी वाले कह रहे थे अपने जीवन में इतना जनसैलाव किसी संत के आगमन पर पहली बार देख रहे हैं। रात्रि विश्राम आचार्यश्री का बांसी रहेगा। बुधवार को प्रातः यहाँ से विहार कर आदिनाथ कॉलेज महर्रा में आहार होंगे। विश्वसनीय सूत्रों से प्राप्त जानकारी के अनुसार  21 नवम्बर 2018 की शाम ललितपुर नगर में प्रवेश होगा। 
    इस दौरान जैन पंचायत समिति, पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं गजरथ महोत्सव समिति ललितपुर तथा हजारों की संख्या में श्रद्धालुओं का भारी जनसैलाव उपस्थित रहा। सुरक्षा व्यवस्था में लगे हुए पुलिस अधिकारी और सिपाही बड़े ही आनंद के साथ आचार्यश्री के आगे और पीछे दौड़ते भागते चल रहे हैं। प्रशासन की ओर से सुरक्षा के समुचित प्रबंध किए गए थे। उमड़े भारी जनसैलाब को व्यवस्थित तरीके से चालने में पुलिस प्रशासन जुटा रहा। श्री योगेंद्र बहादुर सिंह अपर जिलाधिकारी ने भी पहुँचकर  सुरक्षा व्यवस्था का जायजा लिया और आचार्यश्री से आशीर्वाद ग्रहण किया।
    इस दौरान ललितपुर के साथ ही बार, बांसी, लड़वारी, कैलगुवा, गदयाना, महरौनी, मड़ावरा, पाली, तालबेहट, बबीना,जखौरा, बिरधा, टीकमगढ़ आदि समीपवर्ती स्थानों के बड़ी संख्या में श्रद्धालु शामिल रहे।
    गल्ला मंडी से मसौरा तक बन रही है आकर्षक रंगोली :
    आचार्यश्री के भव्य स्वागत के लिए गल्ला मंडी से लेकर पंचकल्याणक महोत्सव स्थल मसौरा तक भव्य, मनोरम रंगोली बनाई जा रही है। जो राहगीरों के लिए आकर्षण बन रही है।
    सड़क के ऊपर किनारों में झिलमिल चमकनी तो नीचे बनी रंगोली को देखकर तो राहगीर भी आने वाले संत के दर्शनों को बेताब हो उठे हैं। गल्ला मंडी, इलाइट , राजघाट रोड, सदन शाह चौराहा, बस स्टेण्ड, घंटाघर, सावरकर चौक, तलाबपुरा, मवेशी बाजार, स्टेशन रोड, देवगढ़ रोड, नई बस्ती, गांधीनगर आदि नगर के सभी स्थानों की सजावट की गई है। साथ ही पचरंगा झंडे भी लगाए गए हैं। आयोजन स्थल गौशाला परिसर एवं बाहर हाइवे को भी दुल्हन की तरह सजाया गया है। नगर की सजावट की जिम्मेदारी वीर क्लब को सौंपी गई है। 
    क्षेत्रपाल जैन मंदिर की हुई मनोरम सजावट :
    स्टेशन रोड स्थित क्षेत्रपाल जैन मन्दिर में आचार्यश्री के आने को लेकर तैयारियां बहुत ही जोरों पर चल रही हैं एक ओर मन्दिर जी की साफ सफाई तो दूसरी ओर धर्म शालाओं में रंग रोगन ,डोम पांडाल में जहाँ पत्थरों को तराशने का काम चल रहा था खाली करा कर उसमें एक सुंदर सी मंच बनाने का काम भी प्रारंभ हो चुका है जो अंतिम चरण में है। रात्रि में क्षेत्रपाल मंदिर की सजावट देखते ही बनती है।  आचार्यश्री के क्षेत्रपाल में मङ्गल पदार्पण की संभावना को देखते हुए पूरे प्रांगण को भव्य रूप में सजाया गया है।  
    स्वागत के लिये लगे सैकड़ों होर्डिंग :
         सारे शहर के गणमान्य नागरिकों के बैनर पोस्टर सड़क के दोनों ओर लगते ही जा रहे हैं जिसे भी जहां जगह मिलती है वह अपने बैनर को सुंदर से सुंदर बनवा कर लगाने का प्रयास करते ही जा रहे हैं, कहीं- कहीं तो देखने में ऐसा प्रतीत होता है कि बनाने वाले ने अपनी सारी भावनाओ को ही उसमें उड़ेल दिया है । लगाए गए होर्डिंग्स में आचार्यश्री के अनेक संदेशों को लिखा गया है, जो पठनीय और प्रेरित करने वाले हैं।
    बने अनेक स्वागत द्वार : पूरे नगर में अनेक स्वागत द्वार बनाये गए हैं। अनेक श्रद्धालुओं ने भी अपने द्वार पर स्वागत के लिए द्वार बनाये हैं तथा घर के बाहर घर की महिलाएं रंगोली बनाने में जुटी हैं ।
        -श्रीश सिंघई            डॉ. सुनील संचय 
                       ललितपुर
  10. Vidyasagar.Guru
    सभी को जय जिनेंद्र 
    आचार्य पदारोहण का 50 वां वर्ष, एक मौका पूरे विश्व को आचार्य श्री जी के बारे मे बताने का 
    इसी के अंतर्गत क्यों ना हम सभी Youtube पर निम्न चित्र अनुसार आचार्य श्री के चैनल को मुख्य पृष्ठ पर प्रदर्शित करें |
     
    चैनल को जोड़ने के बाद आप नीचे कमेन्ट मे अपने चैनल का लिंक पोस्ट कर सकते हैं |
     
     

     
    Feature channel कैसे जोड़ते हैं - देख इस वीडिओ में 
     
     
     
  11. Vidyasagar.Guru
    भावना योग का महत्व जैन साधना में जो ध्यान है वह चित्त की एकाग्रता का नाम है और वहां तो यह कहा गया कि यदि तुम ध्यान की गहराई में डूबना चाहते हो तो ‘तुम कोई भी चेष्टा मत करो, कुछ बोलो मत, कुछ सोचो मत, आत्मा को आत्मा में स्थिर रखो; यही परम ध्यान…
     
     
  12. Vidyasagar.Guru
    इस सदी के महान संत परम पूज्य आचार्य गुरुदेव श्री विद्यासागर जी महाराज का 13 दिसंबर को ससंघ दोपहर 3:20 पर शिरपुर प्रवेश हुआ
    🚩🚩🚩🚩🚩🚩
    आचार्य संघ की भव्य अगवानी प्रसिद्ध जैन तीर्थ क्षेत्र श्री अंतरिक्ष पारसनाथ शिरपुर में हुई 
    👇👇👇👇👇
    पूज्य निर्यापक मुनि श्री योगसागर और निर्यापक मुनि श्री वीरसागर महाराज मुनि श्री निस्पृहसागर महाराज ने ससंघ गुरुदेव की भव्य अगवानी की।
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
     
  13. Vidyasagar.Guru
    आज छतरपुर में आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज ससंघ सानिध्य में सहस्त्रकूट जिनालय का शिलान्यास होने जा रहा है आप सभी सपरिवार सादर आमंत्रित है | 
     
  14. Vidyasagar.Guru
    स्थान एवं पता - खातेगॉव जिला- देवास म.प्र. (सिध्दोदय सिद्धक्षेत्र , नेमावर जिला- देवास म.प्र.)
    साइज़ -  27 फीट 
    पत्थर - वंडर मार्बल
    लागत - 6 लाख रुपये
    पुण्यार्जक का नाम - सकल दिगम्बर जैन समाज , खातेगाँव
    जी पी एस लोकेशन - नेशनल हाईवे एन एच 59 ऐ पोस्ट ऑफिस के सामने , खातेगॉव जिला- देवास (म.प्र.)
    शिलान्यास तारीख - 21 अक्टूबर 2017
    शिलान्यास सानिध्य (पिच्छीधारी) - परम पूज्य आर्यिका मां श्री आदर्शमति माताजी की संघस्थ आर्यिका 105 अन्तरमति जी (7 आर्यिका) संसघ के सानिध्य में समापन्न हुआ।
    शिलान्यास सानिध्य प्रतिष्टाचार्य - ब्रम्हचारी मनोज भैया (ललन भैया), जबलपुर
    शिलान्यास सानिध्य राजनेता -  डाली जोशी नरेन्द्र चौधरी (नंदू ) भाजपा जिला महामंत्री कमल कासलीवाल (भुरू) पार्षद
    लोकार्पण तारीख - 7 जुलाई 2018
    लोकार्पण सानिध्य पिच्छीधारी - परम पूज्य आर्यिका मां श्री आदर्शमति माताजी की संघस्थ, आर्यिका 105 दुर्लभमति माताजी, आर्यिका 105 अन्तरमति जी (19 आर्यिका) संसघ के सानिध्य में समापन्न हुआ।
    लोकार्पण सानिध्य राजनेता - नगर परिषद अध्यक्ष:- निलेश जोशी , उपाध्यक्ष:- दिनेश रावडिया , पार्षद:- कमल कासलीवाल (भुरू) भाजपा जिला महामंत्री:- नरेन्द्र चौधरी (नंदू )
     





  15. Vidyasagar.Guru
    पूज्यगुरूदेव आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी
                           एवं
    संघस्थ मुनिश्री
     
     
    मुनिश्री दुर्लभसागर जी 
     मुनिश्री श्रमणसागर जी
     मुनिश्री संधानसागर जी
     
     

    के   तीर्थोदय धाम प्रतिभास्थली रेवती रेंज , इंदौर   में हुए  केश लोच |
  16. Vidyasagar.Guru
    आर्यिका अनंतमति जी ससंघ,  आर्यिका भावनामति जी ससंघ आर्यिका अकंपमति जी ससंघ ने किये गुरु दर्शन
     
     
     
     
    aur video upload karrahe hin  
     
     
     
     
    3.mp4 4.mp4
  17. Vidyasagar.Guru
    स्थान  एवं पता - वागवर सम्मेदशिखर सुखोदय तीर्थ नशिया जी नौगामा जिला बांसवाड़ा उदयपुर दाहोद मार्ग बसस्टेंड के पास                           
    साइज़ - 21 फीट
    पत्थर - मकराना संगमरमर  
    लोकार्पण तारीख - 11 नवम्बर 2018
    लोकार्पण सानिध्य पिच्छीधारी -  मुनि श्री 108 समतासागर जी, एलकश्री निश्चयसागर जी, आर्यिका 105 श्री लक्ष्मीभूषणमती माता जी                                        
    त्यागी व्रती - बा. ब्र. सुयश प्रदीप भैया अशोक नगर, बा. ब्रह्मचारिणी रिम्पी दीदी  
    लोकार्पण सानिध्य राजनेता - पु. उमड़ अध्यक्ष पी. मोहनलाल छगनलाल 
    लोकार्पण कर्ता - कैलाश मोदी, धनपाल मोतीलाल
    मुख्यकलश स्थापना करता - पिंडारमिया रतनलाला मीठालाल, केशुभाई खोडनिया, कान्तिलाल जी बडोदिया
     




  18. Vidyasagar.Guru
    स्थान एवं पता - भ . पार्श्वनाथ चौक, एन-9 अहिंसा मार्ग सिडको औरंगाबाद - 431003  
    साईज - 21 फीट
    पत्थर - मार्बल 
    लागत - लगभग 2,60,000 
    पुन्यार्जक - 1. ध. ध. बा. ब्र. सुकुमार धनराज साहूजी एवं श्री राकेश प्रेमचंद साहूजी सराफा औरंगाबाद, 
    2.  ध. ध. श्री वीतराग जी प्रदीप जी सिंगरे, एवं श्री राजेश प्रदीप जी सिंगरे जामखेड निवासी 
    शिलान्यास तारीख - 10 जून 2017 
    शिलान्यास सान्निध्य (पिच्छिधारी) - मुनि श्री 108 अक्षयसागर जी महाराज, मुनि श्री नेमिसागर जी महाराज 
    शिलान्यास सान्निध्य (प्रतिष्ठाचार्य) - पंडितजी श्री सुरेशराव जी चन्द्रनाथ जी वायकोस औरंगाबाद
    शिलान्यास सान्निध्य (राजनेता) - श्री नितिनजी चित्ते, सौ. ज्योतिताई पिंजरकर
    लोकार्पण तारीख - 28 जून 2017 
    लोकार्पण सान्निध्य (पिच्छिधारी) - मुनि श्री 108 अक्षयसागर जी महाराज, मुनि श्री नेमिसागर जी महाराज 
    लोकार्पण सान्निध्य (प्रतिष्ठाचार्य) - बा. ब्र. अजय भैय्या एवं श्री सुरेशराव जी चन्द्रनाथ जी वायकोस, बा. ब्र. सुकुमार भैय्या एवं बा, ब्र. संदिप भैय्या, बा. ब्र. विकास भैय्या
    लोकार्पण सान्निध्य (राजनेता) - मा. श्री हरिभाऊजी बागडे, मा. श्री चंद्रकांतजी खैरे सांसद,  मा. श्री अतुलजी सावे, मा. श्री बापुसाहेब घडमोड़, मा. श्री डि. एम. मुगलीकर,
    मा. श्री राजेंद्रबाबुजी दर्डा, मा. श्री प्रशांत जी देसरडा, श्री विकास जैन, श्री नितिनजी चित्ते, सौ. ज्योतिताई पिंजरकर
     










  19. Vidyasagar.Guru
    *उपसंघ विहार समाचार*
     *सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र नेमावर*
      (20 नवम्बर 2019)
    श्रमण सूर्य, जीवदया मसीहा, *संत शिरोमणि आचार्य भगवंत 108 श्री विद्यासागर जी महामुनिराज* 
    के आज्ञानुवर्ती शिष्य पूज्य 
    *मुनि श्री १०८ अजित सागर जी महाराज*
    *मुनि श्री १०८ निर्दोष सागर जी महाराज*
    *मुनि श्री १०८ निर्लोभसागर जी महाराज*
    *ऐलक श्री १०५ दया सागर जी महाराज*
    *ऐलक श्री १०५ विवेकानन्द सागर जी महाराज*
    का मंगल विहार नेमावर से हो गया है।
    • विहार दिशा:  हरदा-खिड़किया हरदा
     
    WhatsApp Video 2019-11-20 at 2.38.55 PM.mp4
  20. Vidyasagar.Guru
    मंगल विहार 1 
    1️⃣
    पूज्य मुनिश्री विनम्र सागर जी महाराज
    पूज्य मुनिश्री निस्वार्थ सागर जी महाराज
    पूज्य मुनिश्री निर्मद सागर जी महाराज
    पूज्य मुनिश्री निसर्ग सागर जी महाराज
    पूज्य मुनिश्री श्रमण सागर जी महाराज
    का मंगल विहार कुण्डलपुर से हुआ।
     
    मंगल विहार....2 
    2️⃣
    पूज्य मुनिश्री विमल सागर जी महाराज
    पूज्य मुनिश्री अनंत सागर जी महाराज
    पूज्य मुनिश्री धर्म सागर जी महाराज
    पूज्य मुनिश्री भाव सागर जी महाराज
    का मंगल विहार कुण्डलपुर से हुआ।
    विहार दिशा- पटेरा (सम्भावित)
     
     मुनिसंघ के मंगल विहार.. 3

    पूज्य  मुनिश्री निस्पृहसागर जी
    पूज्य मुनिश्री निश्चल सागर जी महाराज
    पूज्य मुनिश्री निर्भीक सागर जी महाराज
    पूज्य मुनिश्री निराग सागर जी महाराज
    पूज्य मुनिश्री ओमकार सागर जी महाराज
    का मंगल विहार कुण्डलपुर से हुआ।
    विहार दिशा- पटेरा/सतना (सम्भावित)
     
  21. Vidyasagar.Guru

    कर्म कैसे करें
    कर्म कैसे करें?
    संसारी जीव अनादिकाल से कर्म संयुक्त दशा में रागी-द्वेषी होकर अपने स्वभाव से च्युत होकर संसार-परिभ्रमण कर रहा है। इस परिभ्रमण का मुख्य कारण अज्ञानतावश कर्म-आस्रव और कर्म-बंध की प्रक्रिया है जिसे हम निरंतर करते रहते हैं। कर्म बंध की क्रिया अत्यन्त जटिल है और इसे पूर्ण रूप से जान पाना अत्यन्त कठिन है, लेकिन यदि हमें केवल इतना भी ज्ञान हो जाए कि किन कार्यों से हम अशुभ कर्मों का बंध कर रहे हैं तो सम्भव है हम अपने पुरुषार्थ को सही दिशा देकर शुभ कर्मों के बंध का प्रयास कर सकते हैं। जयपुरवासियों के पुण्योदय से सन् 2002 में मुनि श्री क्षमासागरजी का चतुर्मास वहाँ पर हुआ था और लगभग 7-8 माह तक प्रतिदिन प्रवचन आदि का लाभ उन्हें सहज ही उपलब्ध हो गया। इस अवसर पर मुनिश्री ने 18 प्रवचनों से जन-साधारण को कर्म सिद्धान्त के जैनदर्शन में प्रतिपादित विषयों से अवगत कराने हेतु अत्यन्त सरल भाषा में उन परिणामों को स्पष्ट किया है जिनके कारण हम निरन्तर अशुभ कर्मों का बन्ध करते रहते हैं। प्रायः सभी भारतीय दर्शनों में कर्म सिद्धान्त पर विचार किया गया है, लेकिन जैन आचार्यों ने कर्म बंध और कर्म फल प्रक्रिया का जैसा सूक्ष्म वर्णन किया है, अन्यत्र प्राप्त नहीं है। 

    प्रवचन विषय 
    मुनिश्री ने अपने प्रवचनों को मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त किया है - पहले छह प्रवचनों में संसार में दृश्यमान विविधता का कारण अपने स्वयं के कार्य हैं जो अज्ञानता और आसक्ति से किए जा रहे हैं, न कि ईश्वर के द्वारा सम्पादित और संचालित हैं, जैसा कि जैनेतर सिद्धान्तों की मान्यता है, पर प्रकाश डाला है। उन्होंने ईश्वर की कल्पना का तर्कपूर्ण खण्डन किया है। इस दृश्य जगत में सभी चीजें अपने स्वभाव व गुणधर्मों के अनुसार परिणमन करती हैं। हम जैसा करते हैं, वैसा हमें फल प्राप्त होता है। इस संसार परिभ्रमण का कारण मेरी अपनी अज्ञानता और आसक्ति है। जो भी प्रतिकूल परिस्थितियाँ मुझे प्राप्त हुई हैं उनके लिए मैं स्वयं ही उत्तरदायी हूँ। कुछ कर्म हम करते हैं, कुछ कर्म हम भोगते हैं और कुछ कर्म हम नये बाँध लेते हैं। इस प्रकार यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। यदि हम चाहें तो इस संसार परिभ्रमण की प्रक्रिया को अपनी सावधानी और अनासक्ति से क्रमशः कम करते-करते पूर्ण मुक्त हो सकते हैं। 

    कर्म हम अपने मन, वाणी और शरीर की क्रियाओं से निरन्तर करते रहते हैं, चाहे वह कर्म करने वाला हो, भोगने वाला हो या संचित होने वाला हो। कर्म बंध की प्रक्रिया में मुख्य रूप से तीन चीजों की भागीदारी है - आसक्ति या मोह, वर्तमान के पुरुषार्थ में गाफिलता या लापरवाही और हमारी अज्ञानता। आसक्ति या मोह पर मेरा वश नहीं है क्योंकि यह पुराने बँधे हुए कर्मों के फल का परिणाम है। लेकिन वर्तमान के पुरुषार्थ में सावधान होकर और कर्म बंध की प्रक्रिया का ज्ञान प्राप्त कर मैं कर्म फल भोगने और नये कर्म बंध होने की प्रक्रिया को निश्चित दिशा दे सकता हूँ। समीचीन ज्ञान प्राप्त कर मोह को घटाते हुए वीतरागता के प्रति अपनी रुझान बढ़ाकर मैं अशुभ कर्म बंध के स्थान पर शुभ कर्म बंध कर सकता हूँ।
     
    जो कर्म मैंने पूर्व में बाँध लिए हैं, वे अपना फल तो अवश्य देंगे। लेकिन वे कर्म जैसे मैंने बाँधे हैं वैसे ही मुझे भोगना पड़ें या अपना मनचाहे फल दें, ऐसी मजबूरी नहीं है। इसलिए कर्म बंध की पूरी प्रक्रिया समझना आवश्यक है। मेरी अज्ञानता की वजह से मेरी पुरुषार्थहीनता बढ़ती है और उस कारण से मोह मुझ पर हाबी हो जाता है। ऐसे कर्म भी जो अपरिवर्तित फल देने वाले हैं उनमें भी मैं अपने पुरुषार्थ से परिवर्तन कर उनकी फल शक्ति को कम या अधिक करने में समर्थ हूँ। कर्मोदय के समय यदि हम हर्ष-विषाद न कर संतोष और समता धारण करने का पुरुषार्थ कर सकें तो इन पूर्वोपार्जित कर्मों के फल को आसानी से भोगकर नवीन कर्मबंध की प्रक्रिया को नष्ट कर सकते हैं। 

    मुनिश्री ने कर्मों पर विजय प्राप्त करने के तीन उपाय बताये हैं - 
    1. बाह्य वातावरण से जितनी जल्दी हो सके, सामंजस्य स्थापित कर लेना,  2. शीघ्र प्रतिक्रिया न करें और यदि करना ही पड़े तो प्रतिक्रिया सकारात्मक और रचनात्मक ही करें, और  3. संसार के घात-प्रतिघात से बचने का प्रयत्न करें। 
    संसार के घात-प्रतिघात तो हमें सिर्फ अशुभ की ओर ही ले जाते हैं। मन को शुभ कार्यों में लगाये रखने पर हम अशुभ कार्यों से बच सकते हैं। धार्मिक क्रियाएँ करते समय हम संसार के प्रपंचों से बचे रहते हैं। शुभ कार्यों का फल हमेशा शुभ ही होता है, अशुभ कार्यों का फल कभी शुभ नहीं हो सकता। शुभ क्रियाओं से हम अपने संचित कर्मों में निरन्तर परिवर्तन कर सकते हैं और अशुभ के दबाव को कम करने में सफल हो सकते हैं। घात-प्रतिघात से बचने की कुशलता इसी में है कि अगर कोई हमारे ऊपर घात करता है तो हम प्रतिघात न करें या कि स्वघात न करें। अपने प्राण ले लेना, जीवन को कष्ट में डालना. मन ही मन संक्लेषित होना- ये सब स्वघात हैं। प्रतिक्रिया सकारात्मक करना सरल है लेकिन घात होने पर प्रतिघात न करें, इसके लिए बहुत सजगता की आवश्यकता है। यदि हम इस प्रकार का अभ्यास कर सकें तो इस संसार परिभ्रमण से शीघ्र पार होने में सफल हो सकते हैं। 

    इस प्रकार इन छह प्रवचनों में मुनिश्री ने यह समझाने का प्रयास किया है कि हम कर्म प्रक्रिया को ठीक-ठीक समझ कर अपने वर्तमान के पुरुषार्थ द्वारा नवीन कर्म बंध को क्रमशः कम कर सकते हैं और पूर्व में संचित कर्मों में परिवर्तन कर उनकी फल-शक्ति को कम या ज्यादा करने में सफल हो सकते हैं।
     
    जैन दर्शन के अनुसार कर्मों के मुख्य रूप से तीन भेद हैं - 1. द्रव्य कर्म, 2. भाव कर्म, और 3. नो कर्म। आत्म प्रदेशों के साथ बंध को प्राप्त पुद्गल कर्म वर्गणाओं के समूह को द्रव्य कर्म कहते हैं। द्रव्य कर्म बंध में कारणभूत संसारी जीव के परिणाम ही भाव कर्म हैं तथा शरीर, आहार, इन्द्रिय, श्वासोच्छवास, भाषा, मन रूप पुद्गल परमाणु जो कर्म बंध में किंचित् कारण हैं, नो कर्म हैं। नो कर्म बिना, कर्म अपना फल देने में समर्थ नहीं हैं। 

    द्रव्य कर्म बंध के मुख्य रूप से चार भेद हैं - 1. प्रकृति बंध, 2. प्रदेश बंध 3. स्थिति बंध और 4. अनुभाग बंध। 

    प्रकृति बंध का अर्थ है कर्म का स्वभाव। संसार में विद्यमान प्रत्येक वस्तु या द्रव्य का स्वभाव भिन्न-भिन्न है। अतः वह उसकी प्रकृति कहलाती है। आत्मा के साथ बँधने वाले कर्मों की प्रकृति भी आठ प्रकार की है - 1. ज्ञानावरण, 2. दर्शनावरण, 3. वेदनीय, 4. मोहनीय, 5. आयु, 6. नाम, 7. गोत्र और 8. अन्तराय। मोहनीय कर्म सब कर्मों में बलवान है। इसके दो भेद हैं - दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय। इसी प्रकार वेदनीय कर्म भी दो प्रकार का है - साता वेदनीय और असाता वेदनीय। इन आठों कर्मों के 148 उत्तर भेद हैं। आयु कर्म को छोड़कर शेष सातों कर्मों का बंध संसारी जीवों को निरन्तर होता रहता है। आयु कर्म का बंध तो निश्चित समयों पर एक निश्चित प्रक्रिया द्वारा ही होता है। 

    आचार्य उमास्वामी महाराज ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ तत्त्वार्थ सूत्र (अपर नाम मोक्षशास्त्र) के अध्याय छह में आठ कर्मों के आस्रव और बंध (दोनों क्रियायें एक समयावर्ती हैं) के कारणों को एक सूत्र में परिभाषित किया है। मुनिश्री ने इन्हीं सूत्रों को आधार बनाकर अपने अगले बारह प्रवचनों में सरल भाषा में दैनिक जीवन में घटित होने वाले उदाहरण देकर उन कारणों पर प्रकाश डाला है, जिनसे ये कर्मआस्रव/बंध को प्राप्त होते हैं। 

    1-2. ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों के आस्रव/बंध के कारण 
    हमारे ज्ञान और दर्शन को आवरण करने वाले ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म हैं। इन कर्मों के आस्रव/बंध के कारणों के लिए तत्त्वार्थ सूत्र के अध्याय छह सूत्र 10 में कहा गया है - “तत्प्रदोष निह्नवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयोः।” अर्थात् प्रदोष, निह्नव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात - ये ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों के आस्रव/बंध के कारण हैं। मुनिश्री ने इन कारणों की व्याख्या करते हुए बताया है कि प्रदोष का अर्थ है तत्त्व चर्चा के समय तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञानी के प्रति भीतर ही भीतर ईर्षा का भाव होना और उसे नीचा दिखाने के भाव होना। जानते हुए भी ज्ञान की बातें दूसरे को न बताना या गुरु या शास्त्र जहाँ से ज्ञान प्राप्त किया है, उस ज्ञान को छिपाने के भाव होना निह्नव है। जानकारी होते हुए भी, दूसरा अधिक ज्ञान प्राप्त न कर ले, इस भाव से दूसरे को ज्ञान नहीं देना, मात्सर्य है। ज्ञान और ज्ञान-प्राप्ति में बाधक बनना अन्तराय है। दूसरे के द्वारा दी जा रही जानकारी का सम्मान न कर शरीर और वाणी से निषेध करना आसादना है। सही ज्ञान में दोष लगाना, उसे गलत साबित करना उपघात है। मुनिश्री ने अत्यन्त सरल भाषा में इन कारणों को रोजमर्रा में होने वाले उदाहरण देकर समझाया है कि यदि हमें ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मों के आस्रव/बंध से बचना है तो हम सावधान रहें और ऐसी क्रियाओं के भाव ही अपने मन में न आने दें। . 
     
    3.1. असाता वेदनीय के आस्रव/बंध के कारण
    असाता वेदनीय कर्म के उदय में संसारी जीवों को दुःख के कारण उपस्थित होते हैं। तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय छह में सूत्र 11 में असाता वेदनीय के आस्रव/बंध के कारण इस प्रकार कहे हैं - “दुःखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभय स्थानान्यसवेद्यस्य।" अर्थात् स्वयं में, दूसरों में या दोनों में स्थित दुःख, शोक, ताप आक्रन्दन, वध और परिवेदन - असाता वेदनीय के आस्रव के कारण हैं। पीड़ा का अनुभव होना दुःख है। प्रिय या उपकारी वस्तु के वियोग में, उनके खोने या नष्ट होने से जो कष्ट या उदासी होती है, उसे शोक कहते हैं। झूठे आरोपों से जो मानसिक व्यथा या खिन्नता होती है, उसे ताप कहा जाता है। विलाप करते हुए आँसुओं का आना आक्रन्दन है। प्राणों पर आघात से उत्पन्न पीड़ा को बध कहते हैं। प्रिय के वियोग में उनके गुणों का स्मरण करते हुए करुणाप्रद रुदन करना परिवेदन है। मुनिश्री ने अपनी सरल भाषा में बताया है कि पूर्व में हमने अपने या दूसरे को या दोनों को ऐसे कारण उपस्थित किए होंगे जिससे वर्तमान में असाता वेदनीय का उदय है और उनके फल में हमें दुःख का अनुभव हो रहा है। यदि भविष्य में हमें इस प्रकार के कष्टों से बचना है तो हम वर्तमान में अपने पुरुषार्थ से अपने लिए या दूसरों के लिए या दोनों के लिए ऐसे निमित्त पैदा न करें। 

    3.2. साता वेदनीय के आस्रव/बंध के कारण 
    संसारी जीवों को सुखों का अनुभव साता वेदनीय कर्मोदय के कारण होता है। तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय छह सूत्र 12 में इसके आस्रव/बंध के कारण इस प्रकार बताये गये हैं - "भूत-व्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोगः क्षान्तिः शौचमिति सवेद्यस्य।” अर्थात् प्राणीमात्र और व्रती व्यक्तियों पर विशेष रूप से अनुकम्पा के भाव होना, दान देना, सराग संयम के चारित्र क्रियाओं आदि के पालने का विशेष ध्यान रखना, क्षान्ति और शौच - ये साता वेदनीय के आस्रव/बंध के कारण हैं। दया से भीगकर दूसरे के दुःख को अपना ही दुःख मानने के भाव होने पर उन्हें दूर करने का उपाय करना अनुकम्पा है। प्राणी मात्र के प्रति और विशेष रूप से व्रती व्यक्तियों के प्रति अनुकम्पा होना साता वेदनीय के आस्रव/बंध के कारण हैं। दूसरे के अनुग्रह के लिए अपनी प्रिय वस्तु का विनम्रतापूर्वक त्याग करना दान है। संसार में विरक्त होकर संयमपूर्वक जीवन को नियंत्रित कर साधना करना सराग संयम है. ऐसे संयम के पालने में रागांश रहता है। इस संयम के पालने से भी साता वेदनीय का आस्रव/बंध होता है। समतापूर्वक क्रोध कषाय का शमन करने को क्षान्ति कहते हैं। लोभ कषाय के शमन के फलस्वरूप भावों में जो शुचिता आती है उसे शौच कहते हैं। ये सभी साता वेदनीय के आस्रव/बंध के कारण हैं। इनके अतिरिक्त भी अकाम निर्जरा, बाल-तप, अहँत पूजन में तत्परता, बाल-वृद्ध तपस्वी की वैयावृत्य आदि भी साता वेदनीय के आस्रव/बंध के कारण मुनिश्री ने बताये हैं। अपने प्रवचन में उन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि यदि हम अगले जीवन में धर्म साधन के लिए समुचित वातावरण की प्राप्ति की आकांक्षा रखते हैं तो हमारा वर्तमान पुरुषार्थ इस प्रकार का हो कि हमें साता वेदनीय कर्म का ही आस्रव/बंध हो। 
     
    4.1. दर्शन मोहनीय कर्म के आस्रव/बंध के कारण 
    तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय छह सूत्र 13 में दर्शन मोहनीय के आस्रव/बंध के कारण इस प्रकार कहे गये हैं - "केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य।" अर्थात् केवली. श्रुत, संघ, धर्म और देव का अवर्णवाद दर्शनमोहनीय के आस्रव/बंध के कारण है। जो केवलज्ञान से युक्त है, अठारह प्रकार के दोषों से रहित हैं, शरीर जिनका परमऔदारिक हो गया है, ऐसे केवली भगवान को कवलाहारी कहना उनका अवर्णवाद है। अर्थात् जो दोष उनमें नहीं है, उन्हें प्ररूपित करना। श्रुत अहिंसा का मार्ग प्रशस्त करता है, उनमें हिंसा को उचित बताना श्रुत का अवर्णवाद है। संघ से आशय ऋषि, मुनि, यति और अनगार साधुओं के समूह से है। संघ के साधुओं में ऐसे दोष लगाना जो उनमें नहीं हैं, संघ का अवर्णवाद है। अहिंसा धर्म ही परम धर्म है, उसे न मानकर हिंसा से भी धर्म होता है, ऐसा प्ररूपण करना धर्म का अवर्णवाद है। स्वर्ग के देवों का आहार अमृत है। इसके विपरीत ऐसा प्ररूपण करना कि वे तो मांस और सुरा का सेवन करते हैं, देव अवर्णवाद है। ये सभी कार्य दर्शनमोहनीय कर्म के आस्रव/बंध के कारण हैं। इसी कर्म के कारण हमारी दृष्टि में निर्मलता नहीं आ पाती है और हमें समीचीन श्रद्धान नहीं हो पाता है। 
    अतः मुनिश्री ने अपने प्रवचन में इस प्रकार के कार्यों से बचने का उपदेश दिया है। 
     
    4.2. चारित्र मोहनीय कर्म के आस्रव/बंध के कारण 
    कषायें हमारे परिणामों को कलुषित करती हैं। जो कर्म बंध से बचना चाहते हैं उन्हें कषायों से बचना चाहिए। तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय छह के सूत्र 14 में चारित्र मोहनीय कर्म के आस्रव/बंध के कारण इस प्रकार कहे गए हैं - “कषायोदयातीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य" । अर्थात् कषाय के उदय से होने वाले आत्मा के तीव्र परिणाम चारित्र मोहनीय कर्म के आस्रव/बंध के कारण हैं। कषाय का उदय हमारे पूर्व संचित कर्मोदय के कारण होता है, लेकिन उदय के समय हम अपने पुरुषार्थ द्वारा कषायों की तीव्रता को मंद कर सकते हैं, उनकी दशा और दिशा को बदल सकते हैं। कषाय चार प्रकार की होती हैं - क्रोध, मान, माया और लोभ । एक समय में एक ही प्रकार की कषाय का उदय रहता है, उस समय अन्य कषायें उसी रूप उदय में आती हैं। हम अपने पुरुषार्थ द्वारा इन कषायों को एक दूसरे में बदल सकते हैं और उनकी तीव्रता को मंद कर सकते हैं। सभी संसारी जीवों को दसवें गुणस्थान के अन्त समय तक अधिक या थोड़ा कषायों का उदय बना रहता है। इनसे हमारे आत्म-परिणाम प्रभावित होकर चारित्र को प्रभावित करते रहते हैं। अतः हमारा पुरुषार्थ ऐसा हो कि इन कषायों के उदय में हम अपने चारित्र में दोष न लगने दें। 
     
    5. आयु बंध के आस्रव/बंध के कारण 
    जैन दर्शन के अनुसार संसारी जीव निरन्तर चार गतियों में परिभ्रमण करता रहता है - नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव। मुनिश्री ने अपने चार प्रवचनों में उन कारणों की व्याख्या की है जिनसे जीव इन गतियों के आयु बंध का आस्रव करता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि गति बंध तो जीव को शुभ या अशुभ परिणामों के कारण निरन्तर होता रहता है, लेकिन आयुबंध की एक निश्चित प्रक्रिया है और एक बार आयुबंध हो जाने पर जीव को उस गति में जाना ही पड़ता है। लेकिन जीव अपने शुभ या अशुभ परिणामों से अपनी बँधी हुई आयु में उच्च-नीच गोत्र, कम या अधिक स्थिति बंध कर सकता है। 

    नरक आयु के आस्रव/बंध के कारणों को तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय छह सूत्र 15 में इस प्रकार कहा है - “बारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुषः।” अर्थात् बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह के भाव नरक आयु के आस्रव/बंध के कारण हैं। जीवों को दुःख पहुँचाने वाले सभी कार्य आरम्भ' कहे जाते हैं और चीजों की मूर्छा या उनके संग्रह की इच्छा करना परिग्रह है। ऐसे व्यापार जिनमें अधिक हिंसा होती हो, नरकायु के आस्रव के कारण हैं। अधिक धन संचय की आकांक्षा भी नरकायु के आस्रव का कारण है। नरकों में पाप की बहुलता है, माराथारी है। हम यहाँ पर भी अपने चारों ओर नरकों जैसा वातावरण निर्मित कर लेते हैं, ऐसे व्यापार करते हैं जिनमें हिंसा का बाहुल्य होता है। नरकायु के आस्रव के अन्य कारण हैं - पत्थर के समान कठोर क्रोध होना, दयाशून्य भाव होना, साधुजनों को आपस में लड़वाना आदि। मुनिश्री ने अपने प्रवचन में संतोष धारण कर नीति न्यायपूर्वक व्यापार आदि करने का उपदेश दिया है। 

    तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय छह सूत्र 16 में तिर्यंच आयु के आस्रव/बंध के बारे में कहा गया है कि “माया तैर्यग्योनस्य।” अर्थात् मायाचारी तिर्यंच आयु के आस्रव/बंध का कारण है। मायाचारी का अर्थ है दिखावा और झूठा प्रदर्शन, जो जैसा है वैसा न होकर कुछ और ही होना। यहाँ परिणामों की महत्ता है, हम वास्तविकता को स्वीकार नहीं कर पाते हैं, इसलिए मायाचारी का आश्रय लेते हैं, छल-कपट करते हैं, कुटिलता का भाव रखकर दूसरों को ठगते हैं। मुनिश्री ने कहा कि आज आजीविका के लिए हम धोखाधड़ी करने में जरा भी संकोच नहीं करते। इससे तिर्यंच आयु का बंध कर हम अगले भव में जीवन भर तिरस्कारित होते रहने का प्रबंध कर रहे हैं। मुनिश्री ने यह भी बताया कि बहुत अधिक आर्त परिणामों के साथ मरण होने से भी तिर्यंच आयु का बंध होता है। हमें इसलिए सावधानी की आवश्यकता है। 

    मनुष्य आयु के आस्रव/बंध के कारणों के लिये तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय छह में दो सूत्र 17 एवं 18 में कहा गया है कि “अल्पारम्भ परिग्रहत्वं मानुषस्य।” एवं “स्वभाव मार्दवं च।” अर्थात् अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह का भाव और स्वभाव की मृदुता मनुष्य आयु के आस्रव/बंध के कारण हैं। मुनिश्री ने अपने प्रवचन में कहा कि मनुष्य पर्याय को पाने के लिए हमने पूर्व में अवश्य ही अल्प आरम्भ और परिग्रह के भाव रखे होंगे। लेकिन आज हम इसके विपरीत परिणाम कर लेते हैं। मृदुता के स्थान पर हमारे भावों में क्रोध का बाहुल्य है। इसलिए आचार्यों ने कहा है कि मनुष्य आयु का बंध करना कठिन है। यदि हमें अगले जीवन में मनुष्य भव प्राप्त कर आत्म-कल्याण करने की आकांक्षा हो तो संतोषपूर्वक जीवनयापन करें और न्यायपूर्वक व्यापार करें, अन्यथा हमें तिर्यंच या नरक आयु का ही बंध होगा। हमें यह भी जान लेना चाहिए कि मनुष्य और तिर्यंच चारों आयु का बंध कर सकते हैं, लेकिन नारकी और देव केवल मनुष्य और तिर्यंच आयु का ही बंध कर सकते हैं। 
     
    देवायु के आस्रव/बंध के लिए तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय छह सूत्र 20 में जिन कारणों का उल्लेख है वे हैं - “सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि दैवस्य।” अर्थात् सराग संयम, संयमासंयम, अकाम निर्जरा और बाल-तप - ये देवायु के आस्रव/बंध के हेतु हैं। जहाँ रागांश हो वैसा प्रमत्त मुनि का संयम, संयमासंयम जो देशव्रती श्रावक पालते हैं, परवश होकर भख-प्यास सहन करना. ब्रह्मचर्य का पालन करना, जमीन पर सोना आदि जो अकाम निर्जरा के कारण हैं तथा आत्म-ज्ञान से विमुख होकर पंचाग्नि आदि तप करना भी देवायु के आस्रव/बंध के कारण हैं। मुनिश्री ने अपने प्रवचन में बताया है कि संयमित और नियंत्रित जीवन दृष्टि की निर्मलता के साथ होना चाहिए, यश और ख्याति के लिए नहीं। पुण्य कार्य कर देवत्व प्राप्त करना कठिन नहीं है लेकिन महाव्रत धारण कर ध्यान के माध्यम से कर्मो की निर्जरा करना कठिन हैं। इस सम्बन्ध में उन्होंने तत्त्वार्थ सूत्र में अगले सूत्र 21 “सम्यक्त्वं च” की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा है कि सम्यग्दृष्टि जीव को एक मात्र देवायु का ही बंध होता है और यदि पहले से आयु बंध न हुआ हो तो केवल वैमानिक देवों में उत्पन्न होने का ही बंध होगा, नीचे के भवनत्रिक देवों में वह उत्पन्न नहीं होता है। 

    6. नामकर्म के आस्रव/बंध के कारण 
    हमारा शरीर, अंग और उपांग आदि हमें नामकर्म के फल से प्राप्त होते हैं। इस कर्म का विस्तार बहुत लम्बा है, इसके 93 उत्तर भेद हैं। हम प्रत्यक्ष में अनुभव करते हैं कि इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति के भिन्न-भिन्न प्रकार की शरीर संरचना, अंग, उपांग आदि पाये जाते हैं। इस विविधता का कारण प्रत्येक व्यक्ति के पृथक्-पृथक् नाम कर्म का उदय है। तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय 6 सूत्र 22 में कहा गया है कि “योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्नः।” सूत्र 23 में कहा गया है कि “तद्विपरीतं शुभस्य' । अर्थात्-योग यानी मन, वचन, काय की क्रिया की वक्रता (यानी सोचना कुछ, करना कुछ और बोलना कुछ) और विसंवाद यानी विपरीत या मिथ्या आचरण करने के लिए दूसरों को प्रेरित करना, उन्हें मोक्षमार्ग से विपरीत मार्ग में लगाना आदि अशुभ नाम कर्म के आस्रव/बंध के कारण हैं। यहाँ यह भी समझाना आवश्यक है कि योग तो क्रिया है, उसमें कदाचित् वक्रता नहीं होती लेकिन क्रिया करते समय उपयोग में वक्रता होती है, उसी से अशुभ नाम-कर्म का आस्रव/बंध होता है। इन क्रियाओं के विपरीत आचरण और परिणामों से शुभ नाम कर्म का आस्रव/बंध होता है। अतः यदि हमें अच्छा शरीर आदि अगले भव में प्राप्त करने की आकांक्षा हो जिससे हम अपना आत्म-कल्याण ठीक प्रकार से कर सकें तो हमें उपयोग की वक्रता और विसंवाद से बचना चाहिए। 

    7. गोत्र कर्म के आस्रव/बंध के कारण 
    तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय 6 सूत्र 25 में कहा गया है - “परात्मनिन्दाप्रशंसे सद्सद्गुणोच्छादनोद्भावने च नीचैर्गोत्रस्य।” अर्थात् परनिन्दा, आत्म-प्रशंसा, सद्गुणों को ढकना और असद्गुणों का उद्भावन करना - यह नीच गोत्र के आस्रव के कारण है। सच्चे या झूठे दोषों को प्रकट करने की इच्छा ही निन्दा है। दूसरों की निन्दा ही परनिन्दा है। सच्चे या झूठे गुणों को प्रकट करने की प्रवृत्ति प्रशंसा कहलाती है। अपनी प्रशंसा आत्म प्रशंसा है। दूसरों के अच्छे गुणों को ढकना या यह कहना कि उसमें कोई गुण नहीं है, सद्गुण आच्छादन है। अपने में कोई गुण न होने पर भी गुणवान प्रकट करना असद्गुण उद्भावन है। इन सबसे नीच गोत्र का आस्रव होता है। इसलिए मुनिश्री ने प्रवचन में कहा है कि यदि नीच गोत्र के आस्रव से अगले भव में बचना है तो इस प्रकार की प्रवृत्ति से बचें। यदि आज हमें उच्च गोत्र में पैदा होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है, जहाँ धर्म की परम्परा चलती है, अभक्ष्य भक्षण नहीं होता है और लोक में निन्दा नहीं है तो हमने अवश्य ही पूर्व में कुछ अच्छे भाव रखें होगे, दूसरों की गुणों की प्रशंसा और अपने अवगुणों की निन्दा की प्रवृत्ति रही होगी अतः इसके लिए यथेष्ट पुरुषार्थ अपेक्षित है। 

    8. अन्तराय कर्म के आस्रव /बंध के कारण 
    तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय छह सूत्र 27 में अन्तराय कर्म के आस्रव/बंध के सम्बन्ध में कहा है- “विघ्नकरणमन्तरायस्य।” अर्थात्-किसी कार्य में विघ्न उत्पन्न करने का भाव अन्तराय कर्म के आस्रव /बंध का कारण है। मुनिश्री ने अपने अंतिम प्रवचन में कहा है कि हमारे बंधन का एक मात्र कारण हमारा राग द्वेष है। जैसे मोहनीय कर्म सब कर्मो में प्रबल कर्म हैं वैसे ही अन्तराय कर्म छिपा हुआ, अचानक उदय में आकर कार्य में विघ्न पैदा करने वाला कर्म है इसके आस्रव/बंध का कारण है कि पूर्व में हमने किसी के कार्य के सम्पन्न होने में बाधा डाली होगी या वैसा भाव किया होगा, उसी के परिणामस्वरूप वह आज हमें कार्य सम्पन्न होने में बाधा उत्पन्न कर रहा है। अतः यदि आगे हमें इस प्रकार के विघ्नों से बचना है तो हम किसी के भी कार्य में न तो बाधक बनें और न बाधा पहुँचाने के भाव रखें। 
     
    प्रवचनों की विशेषता 
    जैसा पूर्व में उल्लेख किया था, कर्म सिद्धान्त अति कठिन विषय है। प्रकाण्ड विद्वान भी इसे समझने और समझाने में असमर्थता का अनुभव करते हैं। फिर जनसाधारण को इस विषय को प्रस्तुत करना कितना दुरूह कार्य है, आप अनुमान लगा सकते हैं। मुनिश्री श्रेष्ठ मनीषी संत-कवि, चिंतक, प्रभावी प्रवचनकार, मौलिक साहित्य सृष्टा, वैज्ञानिक और अन्वेषक हैं। उन्होंने जनसाधारण का ध्यान रखकर विषय को अत्यन्त सरल भाषा में इस तरह प्रस्तुत किया है कि सभी को कम से कम इस बात का ज्ञान हो कि उन्हें अपने दैनिक कार्यकलापों में क्या सावधानी रखनी है, अपने पुरुषार्थ को क्या दिशा देनी है जिससे अशुभ से बचकर शुभ कार्यों में प्रवृत्ति बढती जाये। भाषा की सरलता का इससे ही अनुमान लगाया जा सकता है कि इन प्रवचनों में मुनिश्री ने एक बार भी कहीं कर्मों के उदय, उदीरणा, संक्रमण, अपकर्षण, उत्कर्षण, निधित्त, निकाचित शब्दों का प्रयोग नहीं किया है क्योंकि जनसाधारण इनके अर्थों से भलीभांति परिचित नहीं होता। उन्होंने कर्मों की प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग आदि की भी चर्चा नहीं की है, उनका उद्देश्य तो जनसाधारण को उस प्रक्रिया से अवगत कराना मात्र प्रतीत होता है जिससे वे अशुभ कर्म के आस्रव/बंध से बचने का प्रयास करें। प्रत्येक प्रवचन के प्रारम्भ में पूर्व प्रवचनों की संक्षेपिका प्रस्तुत कर बार बार अशुभ क्रियाओं से बचने का उपदेश दिया गया है। 
     
    प्रवचन-संकलन की उपयोगिता 
    प्रस्तुत पुस्तक प्रवचन संकलन है। पूर्व में इन प्रवचनों की सी डी भी तैयार कर वितरित की जा चुकी हैं जो काफी उपयोगी पाई गई। कुछ श्रोताओं का आग्रह था कि सर्व साधारण के हितों को ध्यान में रखकर इन प्रवचनों को पुस्तक रूप में प्रकाशित किया जावे। अतः प्रस्तुत संकलन बिना किसी सम्पादन या संशोधन के तैयार किया गया है। यहाँ यह स्पष्ट करना अभीष्ट है कि प्रवचन और आलेख में वस्तुतः मौलिक अन्तर होता है। प्रवचन संकलन में वक्ता की कथन शैली के स्वरूप के, उसकी मौलिकता को यथासम्भव बरकरार रखना होता है जिससे पढते समय वक्ता की छवि उभरकर साक्षात सामने आ जावे और लगे कि वक्ता की वाणी ही सुनाई दे रही है। इसलिए प्रवचन सम्पादन के समय वक्ता की कथन शैली को महत्त्वपूर्ण प्रमुखता दी जाती है, भाषा को या उसकी संरचना को नहीं । इस पुस्तक में इस बात का यथासंभव ध्यान रखा गया है। प्रवचनों के संकलन की शृंखला में इसके पूर्व भी मुनिश्री के जयपुर प्रवास में दिये गये दस धर्मों पर प्रवचन गुरूवाणी के रूप में और सोलहकरण भावनाओं के प्रवचन भी प्रकाशित हो चुके हैं। उन दोनों संकलनों का पुरजोर स्वागत हुआ है। आशा है यह संकलन भी जनसाधारण के लिए उपयोगी साबित होगा। 
     
    इन प्रवचनों को केसट्स से श्री दिनेश जैन, रामगंजमण्डी द्वारा लिपिबद्ध किया गया है। मैत्री-समूह उनका आभारी है। जयपुर प्रिन्टर्स के श्री प्रमोद कुमार जैन ने इस पुस्तक को शीघ्र छपवा कर आपके हाथों में पहुँचाया है, हम उनके आभारी हैं। 
     
    एस. एल. जैन 
    मैत्री-समूह 
    14 सितम्बर 2008 अनन्त चतुर्दशी 
  22. Vidyasagar.Guru
    ललितपुर। आगामी 24 नवम्बर से दयोदय गौशाला मसौरा ललितपुर परिसर में होने जा रहे पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं गजरथ महोत्सव में साधना के सुमेरु भारतीय संस्कृति के संवाहक आचार्य श्री विद्यासागर जी महामुनिराज संसघ के मङ्गल सान्निध्य की उम्मीदें बढ़ गयी हैं। ललितपुर की ओर आचार्यश्री के पग तेज गति से बढ़ रहे हैं। 

    उल्लेखनीय है कि सूबे के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने आचार्यश्री को राज्य अतिथि की घोषणा की थी। सोमवार को आचार्यश्री की आहारचर्या मोहनगढ़ में हुई। इसके बाद  अपने विशाल संघ के साथ उत्तरप्रदेश की सीमा रमपुरा-कठवर में बतौर राज्य अतिथि के रूप में पहली बार उनका प्रवेश हुआ। इस अवसर पर दिगम्बर जैन पंचायत समिति व पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव समिति ने उत्तर प्रदेश की  सीमा पर पहुँचकर उनकी भव्य अगवानी की। इस ऐतिहासिक क्षण का साक्षी बनने ललितपुर से भारी जनसैलाव उमड़ पड़ा। इस दौरान चारों ओर आचार्यश्री नमोस्तु और जयकारा गुंजायमान हो उठा। इस दौरान शासन-प्रशासन भी मौजूद रहा। पुलिस प्रशासन मुस्तेज रहा।

    इस अवसर पर थाना प्रभारी हाकिम सिंह एसएचओ कृष्णपाल सिंह सरोज ने एकबालपुरा-रमपुरा (कठवर) पर शासन की ओर से अगुवानी की। 
    श्री योगेंद्र बहादुर सिंह अपर जिलाधिकारी ललितपुर ने रमपुरा पहुंचकर सुरक्षा व्यवस्था का जायजा लिया और आचार्यश्री से आशीर्वाद ग्रहण किया।
    इस अवसर पर सपा जिलाध्यक्ष ज्योति कल्पनीत,  नीलू तिवारी वरिष्ठ पत्रकार, श्यामबिहारी , पूर्व पार्षद वीरेश रजक, ग्राम प्रधान अच्छे लाल यादव, गजेंद्र सिंह हल्केराजा भेलोनी प्रधान, केहर सिंह रमपुरा प्रधान  लखन सिंह, राजेन्द्र चोवे प्रधान रमपुरा

    जैन पंचायत के अध्यक्ष अनिल अंचल, महामंत्री डॉ अक्षय टडैया, पंचकल्याणक महोत्सव समिति के अध्यक्ष ज्ञानचंद इमलिया, स्वागत अध्यक्ष नरेन्द्र कडंकी, संयोजक  प्रदीप सतरवास, , सुरेश बढ़ेरा, मोदी पंकज जैन पार्षद, श्रीश सिंघई, डॉ सुनील संचय, संजय रसिया, शुभेन्दू मोदी, अभिषेक अनौरा, विपिन हिरावल, मंगू पहलवान, अन्नू भैया, अमित भैया, राजीव, कमलेश पहलवान, अक्षय अलया, शीलचंद अनौरा, सनत खजुरिया, अंतू जैन पत्रकार,विनोद कामरा,  आनंद जैन बार, महेंद्र मयूर, अमित जैन,कैप्टन राजकुमार,  नीलेश सिंघई, मुकेश सराफ, संदीप सराफ, जिनेन्द्र डिस्को, लकी जैन, डॉ संजीव कंडकी, मयंक जैन, गेंदालाल सतभैया, गौलू, गिरीश साहू, नीरज गुललन, प्रफुल्ल जैन, आशीष जैन, छोटे पहलवान, भगवानदास कैलगुवा, बैभव जैन,वीरेंद्र प्रेस, वीरेंद्र विद्रोही, महेंद्र चौधरी, जिनन्द रजपुरा, पंचम जैन, कमंडल सेवा मंडल, ललितपुर के सभी जैन मंदिरों के प्रबंधक  आदि प्रमुख रूप से उपस्थित रहे। समीपवर्ती बार, बांसी, कैलगुवा, लड़वारी आदि की जैन समाज भी उपस्थित रही।

    ग्राम के मोनियो ने भी अपनी भक्ति प्रदर्शित करते हुए पद विहार में अपने लोकनृत्य प्रस्तुत कर आचार्यश्री के प्रति श्रद्धा व्यक्त की। आसपास के सैकड़ों ग्रामीण भी उनके दर्शन को उमड़ पड़े।
    नगर के होटल देगें किराए में रियायत :

    उधर ललितपुर के होटल ऐसोसिएसन की एक बैठक ललित पैलेस में आयोजित हुई जिसमें पंच कल्याणमहोत्सव एवं आचार्यश्री के आगमन पर सभी ने अपने होटल के किराए में कटौती कर यात्रियों के लिए पूर्ण सहयोग का मन बनाया जिसमें सभी होटल्स के संचालक मौजूद रहे।
    डॉ सुनील संचय ने बताया कि आज रात्रि विश्राम  बार लड़वारी  के पास रमपुरा ग्राम के स्कूल में हो रहा है तथा मंगलवार को यहॉ से बार की तरफ विहार होगा।
    श्रीश सिंघई ने बताया कि ललितपुर प्रवेश के दौरान आचार्यश्री के देश-विदेश में लाखों की संख्या में भक्तों को देखते हुए इस भव्य मंगल प्रवेश का जिनवाणी चैनल पर लाइव प्रसारण भी होगा, जिसे देश -विदेश में देखा जा सकेगा। 
     
    प्रेषक डॉ सुनील संचय, मीडिया प्रभारी




  23. Vidyasagar.Guru
    आज
    आचार्य श्री 
     मुनिश्री दुर्लभसागर जी 
    मुनिश्री नीरोगसागर जी 
     मुनिश्री निश्चलसागर जी 
     मुनिश्री श्रमणसागर जी
     मुनिश्री संधानसागर जी
     
    के जबलपुर  में  हुए  केश लोच |
×
×
  • Create New...