मदनगंज किशनगढ़ चातुर्मास में ब्रह्मचारी विद्याधर जी, पंडित श्री महेंद्र कुमार जी पाटनी शास्त्री जी से संस्कृत एवं हिंदी भाषा का ज्ञानार्जन करते थे। पंडित जी से उन्होंने कातंत्र रूपमाला (संस्कृत व्याकरण) धनंजय नाममाला (शब्द कोश) एवं श्रुतबोध (छंद रचना) इन 3 संस्कृत ग्रंथों को पढ़ा था। जितना वो पढ़ते थे उतना वह याद कर लेते थे और पंडित जी को सुनाते थे।
इसी प्रकार मदनगंज किशनगढ़ के शांतिलाल गोधा जी (आवड़ा वाले) ने लिखा- 1967 मदनगंज-किशनगढ़ के दिगंबर जैन चंद्रप्रभु मंदिर में ज्ञान सागर जी महाराज का चातुर्मास चल रहा था, तब कई बार मुनि ज्ञान सागर जी महाराज अजमेर के कजोडीमल जी अजमेरा से पूछते थे कि- ब्रह्मचारी विद्याधर पढ़ाई भी करता है या नहीं, तब कजोड़ीमल जी उनकी परीक्षा करते थे। रात्रि में कई बार कजोडीमल जी छिप- छिप करके उनको देखा करते थे। 8 बजे से 11-12 बजे तक वह पढ़ते रहते थे। एक दिन विद्याधर अपनी सिर की चोटी को एक रस्सी से बांधकर छत के कड़े से रस्सी को बांधे हुए थे। दूसरे दिन हम लोगों ने उनसे पूछा- भैया जी आपने ऐसा क्यों किया था ? तो वह बोले- नींद से बचने के लिए।तब हम लोगों ने कहा कि-आप दिन में पढ़ लिया करो ना तो बोले- "गुरु जी ने जो पढ़ाया उसे अगले दिन उन्हें सुनाना पड़ता है इसलिए पूरा याद करके विश्राम करता हूं।" इस तरह ब्रह्मचारी विद्याधर जी अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए पूर्णत:ज्ञानपुरुषार्थ में निरत हो गए। एक सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी की तरह उनकी दिनचर्या समयबद्ध चलने लगी थी, क्योंकि लौकिक ज्ञान लेने वालों को वर्ष में दो बार ही परीक्षा देनी होती है, किन्तु पारलौकिक ज्ञान की प्राप्ति के लिए हर रोज परीक्षा देनी होती है। जिसके लिए विद्याधर जी सदा सतर्क और जागरुक रहे। गुरु शिष्य के समान जाग्रति प्राप्त करने के लिए नमोस्तु करता हुआ...
अन्तर्यात्री महापुरुष पुस्तक से साभार