जब भूरा १० वर्ष के हो गये तो वे सीकर शहर जाने के लिये उतावले रहते। कभी भाई के साथ, कभी पिता के साथ जाने का अवसर निकल ही आता था। भूरामलजी, जो बाद में आचार्य ज्ञानसागर के नाम से जगविख्यात हुए, बचपन में मात्र ८ वर्ष तक ही पिता का प्यार पा सके थे। कहें कि वे दस वर्ष के ही हो पाये थे कि क्रूर नियति ने बालक से उसकी सर्वाधिक प्रिय वस्तु-पिता को छीन लिया। वियोग का असर भूरामल पर ही नहीं, पाँचों भाइयों पर पड़ा। सर्वाधिक बड़ा आघात लगा धर्मपत्नी घृतवरी देवी को, जिनके सामने १२ वर्ष की उम्र से लेकर दो वर्ष की उम्र तक के चार बच्चे पहले ही से थे और पाँचवा पुत्र जिसका नाम बाद में देवीदत्त पड़ा, जो गर्भ में था। घर-गृहस्थी का भार था ही और था वियोग का दारुण दु:ख।
समाज तो समाज, सारे गाँव में करुणा का सागर उमड़ पड़ा था। कि चतुर्भुजजी के निधन से राणोली का एक हँसता-खेलता परिवार टूट गया वह सन् १९०२ की घटना है। वि. सं. १९५९ की। खेत प्यासे रहने लगे। खलियान भूखे। घृतवरीजी ने पाँचों पुत्रों के लालन-पालन में कोई कसर नहीं की, वे अपने शरीर को, खेतों-कुओं के मध्य दोड़-दौड़ कर, कमजोर करती रहीं। पति वियोग का आघात, ऊपर से बच्चों की परवरिश के लिए जी-तोड़ श्रम, नतीजा वे बीमार रहने लगीं।
लौकिक शिक्षा पाते हुए बचपन में ही, धर्मानुरागी परिवार के बालकों को एक लाभ और मिला, वहाँ निवास कर रहे पण्डित जिनेश्वरदासजी का संयोग। वे मूलरूप से कुचामन के रहनेवाले थे, पर प्रकृति ने बच्चों को ज्ञान देने, जैसे उन्हें वहाँ, राणोली में ही रोक रखा हो। वे रह रहे थे चैन से, सपरिवार। सुबह-शाम बालकों को जैनधर्म की पोथियाँ पढ़ाते और उनमें धर्म के प्रति नित नव झुकाव पैदा करते। इस महासंयोग का सर्वाधिक लाभ उठाया बालक भूरामल ने। वे पण्डितजी की कृपा से बाल्यकाल से ही जैनधर्म में प्रवीण हो गये थे, अपनी ही वय के छात्रों के मध्य। पिता का निधन हुए धीरे-धीरे कुछ वर्ष बीत गये, तब तक १३ वर्ष का छगन अब १६ वर्ष का युवक हो गया था। उसके कंधे गृहस्थी का भार उठाने को बेताब थे।
माता से चर्चा की तो माता कुछ बतला न सकी। तब छगनलाल ने ही अपने वंशजों को बिहार प्रान्त में जमता हुआ देख-विचार रखा कि वह भी बिहार प्रान्त जाकर कोई धन्धा करेगा। गृहस्थी का बढ़ा हुआ भार पुत्र को तिरोहित कर रहा था। उसकी तैयारी देख १३ वर्षीय भूरामल भी उसके साथ जाने की जिद करने लगे। अंत में निर्णय भूरामल के पक्ष में गया। वे बड़े भाई श्री छगनलाल के साथ बिहार प्रान्त के नगर गया को प्रस्थान कर गये, वह सन् १९०४ की घटना है।
गया शहर में एक श्रावक के यहाँ, दोनों भाई नौकरी करने लगे। माह भर में दोनों को जो पैसा मिलता, उसमें से कुछ अपने ऊपर व्यय करते और शेष घर पहुँचाने के लिये जमा करते जाते। करीब तीन माह बाद उन्होंने अपनी प्रथम कमाई का नन्हा अंश पूज्य माताजी के लिए मनीआर्डर से भेजा। कुछ और माह बीते। भूरामल को नौकरी करते हुए जीवन निकाल देना उचित नहीं लगा, अत: उनने एक दिन अपने बड़े भाई से अनुरोध किया कि मेरी नौकरी से कुछ खास लाभ तो होता नहीं, अत: आप आज्ञा दें तो आगे पढ़े और कुछ अन्य धन्धा भी करूं।
सौभाग्य से एक दिन दोनों भाइयों को एक “छात्र-दल” को देखने का अवसर मिला, वे छात्र स्याद्वाद महाविद्यालय बनारस से आये थे, गया नगर में आयोजित किये जा रहे किसी बौद्धिक एवं धार्मिक कार्यक्रम में भाग लेने। उनकी सादा किन्तु गरिमापूर्ण रहन-सहन देख कर दोनों भाइयों के मन में गहराई तक शिक्षा के महत्त्व का प्रभाव स्पर्श कर गया। भूरामल उन छात्रों के सुन्दर भविष्य की चर्चा करने लगे ,अपने अग्रजवर से। किशोर अनुज से अनुभव सिद्ध बातें सुन कर छगनलाल आश्चर्य में पड़ गये। वे जान गये कि समय की मार ने भूरामल को अनुभवों की राशि प्रदान कर दी है। न्यून धन-राशि वाले भ्राताओं के पास अनुभव की मोटी राशियाँ संग्रहित हो रही थीं, जो उनका मार्गदर्शन करती थीं।
बड़े भाई का झुकाव देखते हुए, एक दिन गया के मददगार श्रावक ने एक पत्र बनारस के श्रावक के लिये लिख दिया। भूरामल उस पत्र को लेकर बनारस चल दिये। बड़े भाई ने छोटे को विदा दी। चंद नि:श्वासें। छोटे ने आँसुओं के दो मोती भाई के चरणों पर चढ़ाये और उनके आशीष का सम्बल लेकर प्रस्थान कर गये। बिछुड़ों को मिलाने में भारतीय रेलों का इतिहास भरा पड़ा है, पर साथ रह रहे आत्मीयों पर वियोग का दर्द भी वे देती रही हैं। गया स्टेशन पर एक ट्रेन रेल पर रेंगती सी आई और एक भाई को अपने मन में बिठाल कर ले गई। रेल चलती रही। नन्हा भूरा स्टेशनों की तरह दुनिया को पीछे छूटता, देखता रहा। उसे लगा- बारी-बारी सब कुछ छूट जाना है।
कोई मुसाफिर बुदबुदाया - बनारस आ गया। भूरा ने सुनकर नजर प्लेटफार्म पर दौड़ाई - अनेक खम्मों पर टॅगी पट्टियों पर वे पढ़ते रहे- वाराणसी।बनारस/वाराणसी/काशी/तीनों नामों से परिचित थे भूरा। अत: सहजता से अपना सामान लेकर उतर गये ट्रेन से। वे अपने सामान के आप मालिक थे, आप कुली थे। एक गठरी कंधे पर और एक थैला था हाथ में, इतना ही परिग्रह था भूरा के पास। (जो जन काशी गये हैं, वे जानते हैं कि काशी में भी दो काशी हैं। एक है शिवकाशी और दूसरी है। विष्णुकाशी। पंचगंगा से राजघाट तक विष्णुकाशी फैली है। तो मुक्ति धाम कहाने वाले मणिकर्णिका से लेकर अस्सीपुरा तक शिवकाशी है। मूलरूप से ये घाट श्मशान घाट ही माने जाते हैं सो काशी कहलाने लगी घाटों की नगरी। यहीं है एक घाट भदैनी-घाट, जिस पर रोज मेला-सा भरता है।) एक कुएँ पर गये, बर्तन पर छन्ना लपेटा और पानी पिया। फिर श्रावक का पत्र निकाला जेब से, पता पढ़ा और चल दिये उसे ढूंढने। कई घंटों तक चलते रहे, पर पते पर न पहुँच सके, तब उनने कागज पर लिखे पता को धता बता कर, सीधे, संस्कृत विद्यालय की रास्ता पकड़ी और पूछते-पूछते पहुँच गये गन्तव्य पर।
ठगों का शहर बनारस सिर्फ ठगों का नहीं था, वहाँ विद्वान जन भी स-स्वाभिमान बसा करते थे। भूरामल ने विद्वानों का स्थान खोज लिया था। विद्यालय के अधीक्षक से वार्ता की। अधीक्षक भी सत्पुरुष था, उसने भूरामल के व्यक्तित्व पर लिखित निर्धनता की कहानी चुपचाप पढ़ ली थी, फिर भी किसी रईस के बेटे को स्थान देने के बहाने, गरीब के बेटे को भटकाया नहीं। वहाँ अमीरी और गरीबी का लेबल (छाप) नहीं देखा जाता था, वहाँ देखी जाती थी पात्रता। सत् पात्र होना। भूरामल पढ़ने लगे स्याद्वाद महाविद्यालय में। इसकी स्थापना सुप्रसिद्ध जैन संत पू. क्षु. गणेशप्रसाद वर्णीजी ने की थी। शिक्षकों-गुरुओं और सहपाठियों के सहयोग से एक छोटा-सा कमरा, जिसे हम कुठलिया कहते हैं, किराये पर ले लिया। रहने लगे भूरा। पढ़ने लगे भूरा। गया में छगनलाल नौकरी कर्म में जमते गये। कुछ वर्षों तक नौकरी की। फिर अपना छोटा-सा निजी धंधा प्रारम्भ कर दिया।
राणोली में माता घृतवरी अपने शेष तीन पुत्रों के साथ खेती-पानी का कार्य करती हुई जीवन-यापन करती रहीं। बीच-बीच में छगन के द्वारा भेजे जानेवाले रुपये-पैसे उन्हें मिलते रहते थे। राशि लघु ही होती थी, फिर भी किंचित् सहारा देती ही थी। बनारस में स्याद्वाद-महाविद्यालय की गोद में भूरामल शिक्षा प्राप्त करते रहे। वे छात्र थे, उनके पास कोई संचित धनराशि भी नहीं थी, अतः कुछ ही दिनों में उनके सिर पर आर्थिक संकट मँडराने लगा। स्वाभिमान की रक्षा करने में निपुण भूरामल श्रम करने से कभी नहीं डरते थे। आर्थिक संकट का समाधान उन्होंने खोज लिया, वे एक कपड़ा व्यापारी के यहाँ से रोज कुछ गमछे उठा लाते, उन्हें कंधे पर टाँग कर बनारस की सड़कों पर और गंगा के घाटों पर जाकर बेचते। भदैनी-घाट उनका मुख्य व्यापार स्थल बन गया था। रोज कुछ न कुछ गमछे बिकते थे। उनसे जो आय होती उससे अपना कार्य चलाते थे। उनकी लगन और मेहनत देख कर व्यापारी बंधु उन पर प्रसन्न रहने लगे, फलत: प्रारंभ में जहाँ सीमित संख्या में गमछे उन्हें दिये गये थे, अब उनके मनमाफिक दिये जाने लगे।
गमछों के धन्धे में किसी व्यापारी का उधार नहीं रखा । पैसे तुरन्त के तुरन्त चुका देते। अर्जित लाभ से उन्हें दो समय का भोजन मिल जाता था। वर्ष में कुछ कपड़े। पहिनने के कपड़े, ओढ़ने-बिछाने के कपड़े।