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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज

संयम स्वर्ण महोत्सव

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  1. संसार शाश्वत नहीं ध्रुव है न भाई, पाऊँ निरंतर यहाँ दुख, ना भलाई। तो कौनसी विधि विधान सुयुक्तियाँ रे, छूटे जिसे कि मम दुर्गति पंक्तियाँ रे ॥४५॥ ये भोग काम मधु-लिप्त कृपाण से हैं, देते सदा दुख सुमेरु-प्रमाण से हैं। संसार पक्ष रखते सुख के विरोधी, हैं पाप-धाम, इनसे मिलती न बोधि ॥४६॥ भोगे गये विषय ये बहुबार सारे, पाया न सार इनमें मन को विदारे। रे! छानबीन कर लो तुम बार-बार, निस्सार भूत कदली तरु में न सार ॥४७॥ प्रारंभ में अमृत-सी सुख शांति कारी, दें अंत में अमित दारुण दुख भारी। भूपाल-इन्द्रपदवी सुर सम्पदायें, छोड़ो इन्हें विषम ये दुख आपदाएँ ॥४८॥ ज्यों तीव्र खाज चलती खुजली खुजाते, रोगी तथापि दुख को सुख ही बताते। मोहाभिभूत मतिहीन मनुष्य सारे, त्यों कामजन्य दुख को सुख ही पुकारें ॥४९॥ संभोग में निरत, सन्मति से परे हैं, जो दुःख को सुख गिने, भ्रम में परे हैं। वे मूढ़ कर्म-मल में फँसते वृथा हैं, मक्खी गिरी तड़फती कफ में यथा है ॥५०॥ हो वेदना जनन मृत्यु तथा जरा से, ऐसा सभी समझते, सहसा सदा से। तो भी मिटी विषय लोलुपता नहीं है, मायामयी सुदृढ़ गाँठ खुली नहीं है ॥५१॥ संसारि जीव जितने फिरते यहाँ हैं, वे राग-रोष करते दिखते सदा हैं। दुष्टाष्ट कर्म जिससे अनिवार्य पाते, हैं कर्म के वहन से गति चार पाते ॥५२॥ पाते गती महल देह उन्हें मिलेगी, वे इन्द्रियाँ खिड़कियाँ जिसमें खुलेंगी। होगा पुनः विषय सेवन इन्द्रियों से, रागादि भाव फिर हो जग जंतुओं से ॥५३॥ मिथ्यात्व के वश अनादि अनंत मानो, सम्यक्त्व के वश अनादि सुसांत जानो। संसारिजीव इस भाँति विभाव धारें, वे धन्य हैं तज इन्हें शिव को पधारें ॥५४॥ लो! जन्म से, नियम से, दुख जन्म लेते, मारी जरा मरण भी अति दुःख देते। संसार ही ठस ठसा दुख से भरा है, पीड़ा चराचर सहें सुख ना जरा है॥५५॥
  2. संयम विषय पर संत शिरोमणि आचार्य विद्यासागर जी के विचार https://vidyasagar.guru/quotes/anya-sankalan/sanyam/
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